- डॉ. महीप कुमार मीना
शोध सार : भारतीय जनमानस प्रारंभ से ही ईश्वर के स्वरूप के प्रति जिज्ञासु रहा है। वह सदैव ईश्वर को जानने का प्रयत्न निरंतर करता रहा है, चाहे वह निर्गुण ब्रह्म हो या सगुण ब्रह्म। शंकराचार्य का ब्रह्म सामान्य जनमानस की पहुंच से परे है क्योंकि शंकराचार्य का ब्रह्म मनीषियों और चिन्तनशील विद्वानों के लिए हैं। उनका यह ज्ञान मार्ग सरल साधारण जनमानस के लिए नहीं है। शंकराचार्य की इस ज्ञानमार्ग की पहेली को सुलझाने के लिए रामानुजाचार्य उन भोले-भाले लोगों के लिए जो ज्ञान की परिधि से या ज्ञान मार्ग से वंचित थे, उनके लिए एक सरल और सुगम मार्ग प्रस्तुत किया जिसे रामानुज का प्रपत्ति मार्ग कहते हैं, भक्ति मार्ग कहते हैं।
वैष्णव
भक्ति
की
परंपरा
तमिल
प्रदेश
में
अति
प्राचीन
काल
से
चली
आ
रही
है। वैष्णव भक्ति
की
यह
परंपरा
आलवार
संतो
से
होती
हुई
वर्तमान
समाज
तक
पहुंची
परंतु
इस
वैष्णव
परंपरा
को
दार्शनिक
सिद्धांतों
में
पिरोने
का
कार्य
रामानुजाचार्य ने
किया, रामानुजाचार्य से
पूर्व
इनके
सिद्धांतों
को
दार्शनिक
मान्यता
प्रदान
नहीं
थी, उन्होंने ना
केवल
ब्रह्म
सूत्र
पर
श्री
भाष्य
लिखा
अपितु
गीता
और
उपनिषदों
पर
भी
भाष्य
लिखा
जिसके
फलस्वरूप
उनके
दार्शनिक
सिद्धांत
विशिष्टाद्वैतदर्शन के
नाम
से
मनीषियों
के
बीच
स्थापित
हुए।
उन्होंने
न
केवल
जनसामान्य
तक
भक्ति
के
बिखरे
हुए
सिद्धांतों
को
पिरोकर
उन
तक
पहुंचाने
का
प्रयत्न
किया
अपितु
समाज
के
अछूत समझे जाने वाले वर्ग को भी भक्ति मार्ग का अधिकारी बतालाकर एक उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों का परिचय दिया। इस शोध में रामानुजाचार्य के भक्ति दर्शन और साधारण जनमानस के लिए वो किस प्रकार उपयोगी है इस पर चर्चा की जायेगी।
बीज शब्द : विशिष्टाद्वैत, बह्म, मोक्ष, प्रपत्ति, ध्रुवानुस्मृति, विमोक, शरणागति, आर्त, जिज्ञासु, अनवसाद, अनुद्धर्ष, क्रिया, कल्याण।
मूल आलेख : रामानुजाचार्य ने
निर्गुण
ब्रह्मवाद
और
सगुणईश्वरवाद
में
सरस
सामंजस्य
स्थापित
करने
का
प्रयत्न
किया
है1
जैसे
श्री
संप्रदाय
के
नाम
से
जाना
जाता
है।
वैष्णव
के
अपने
आगम
ग्रंथ
हैं
जो
वेद
के
समकक्ष
पूज्य
माने
जाते
हैं।
आगमों
के
चारभाग
होते
हैं
–
ज्ञान, योग, क्रिया
अर्थात
मंदिर
निर्माण
तथा
देव
प्रतिमा
के
निर्माण
एवं
प्रतिष्ठा
से
संबंध
प्रक्रिया
और
चर्या
अर्थात
उपासना
और
पूजा
के
नियम
पाञ्चरात्रआगम
सभी
वैष्णव
संप्रदाय
को
मान्य
हैं।
किंतु
रामानुज
का
श्री
वैष्णव
संप्रदाय
से
अत्यंत
महत्वपूर्ण
और
पवित्र
मानता
है।2
ऋग्वेद
का
पुरुष
सूक्त
वैष्णव
दर्शन
का
आधार
है, शतपथ
ब्राह्मण
में
नारायण
द्वारा
पांच
रात्रि
यज्ञ
करने
का
उल्लेख
है।3
रामानुजाचार्य
के
ईश्वर
के
निरूपण
में
तीन
बिंदु
प्रमुख
प्रथम
ईश्वर
और
ब्रह्म
एक
ही
है।
ब्रह्म
या
ईश्वर
का
सविशेष
गुण
हैं
तथा
चिद्चिद
विशिष्ट
हैं
और वे नारायण
या
वासुदेव
है।4 वैकुंठवासी नारायण
सबके
लिए
हैं
और
सब
नारायण
के
लिए
हैं, अतः
प्रत्येक
मनुष्य
पर
नारायण
की
कृपा
है
और
ईश्वर
के
यहां
किसी
भी
प्रकार
का
जाति, धर्म,ऊँच-नीच रूपी
कोई
भेदभाव
नहीं
है, यहां
तक
की
पशु-पक्षी
भी
इसके
अधिकारी
हैं
तो
मनुष्य
के
विषय
में
तो
कहना
ही
क्या।
रामानुजाचार्य
चित्, अचित्
और
ईश्वर
इन
तीन
तत्वों
को
मानते
हैं
इन्हें
तत्त्वत्रय
कहते
हैं।
चित्
चेतन
भोक्ताजीव
है।
अचित्जड़
भोग्य
जगत्
है।
ईश्वर
दोनों
का
अंतर्यामी
है।
चित्
और
अचित्
दोनों
नित्य
और
परस्पर
स्वतंत्र
द्रव्य
है
किंतु
दोनों
ईश्वर
पर
आश्रित
हैं
और
सर्वथा
उनके
अधीन
है।5
रामानुजाचार्य
ने
मोक्ष
के
साधन
हेतु
प्रपत्ति
को
अत्याधिक
आवश्यक
बताया
है।
प्रपत्ति
इस
समस्त
संसार
में
निमग्न
प्राणियों
के
मोक्ष
हेतु
अत्यंत
आवश्यक
है, इसके
अभाव
में
किसी
को
भी
मोक्ष
प्राप्ति
नहीं
हो
सकती। रामानुज ने
शरणागति
को
भक्तों
के
लिए
आवश्यक
प्रथम
चरण
और
भक्ति
की
चरम
परिणति
दोनों
ही
रूपों
में
स्वीकार
किया
है।
वे
ईश्वर
कृपा
प्राप्त
करने
के
लिए
शरणागति
को
आवश्यक
शर्त
मानते
हैं। भक्ति में
परिणत
ज्ञान
भी
अहं
का
कारण
बन
सकता
है।
ज्ञानीभक्तों
को
अपने
ज्ञान
अथवा
भक्ति
के
कारण
अपनी
श्रेष्ठता
का
दर्प
होना
स्वाभाविक
है।
यह
दर्प
उसके
लिए
श्रेयकर
नहीं
हो
सकता
क्योंकि
भगवत्
दर्शन
उन्हीं
को
हो
सकता
है, जिनका
वरण
ईश्वर
करता
है।
यद्यपि
समस्त
जीव
ईश्वर
को
समान
रूप
से
प्रिय
हैं
तथापि
पूर्ण
रूप
से
शरणागत
जी
केवल
ईश्वर
पर
आश्रित
होने
के
कारण
उसे
अत्यधिक
प्रियहै।6 अब प्रश्न
यह
उठता
है
कि
किस
अवस्था
में
प्राप्ति
भक्ति
योग
की
सिद्धि
में
आवश्यक
होती
है?
गीता
भाष्य
में
रामानुजाचार्य
ने
शरणागति
की
आवश्यकता
भक्ति
युग
का
आरंभ
हेतु
माना
है।
शरणागति
या
प्रपत्ति
के
सर्वेद
अवयवों
का
वर्णन
किया
गया
है, वे
इस
प्रकार
हैं- ईश्वर
अभिमत
गुणों
का
अर्जन, ईश्वर
अनभिमतगुणों
का
वर्जन, ईश्वर रक्षा
करेगा
ऐसा
विश्वास, रक्षार्थ
आवेदन, अपनी
तुच्छता
का
अनुभव, आत्मसमर्पण इसमें
अंतिम
अवयव
प्रपत्तिरूप है और
अन्य
उसके
अंग
भूत
हैं।7
भक्ति
में
ध्यान
का
विशेष
महत्व
है
यहां
ध्यान
को
ध्रुवानुस्मृति रुप कहा गया
है।
तेल
की
धारा
की
भांति
अखंड
प्रवाहमयी
स्मृति
परंपरा
ही
ध्यान
है।
स्मृति
के
आश्रय
से
हृदय
की
समस्त
ग्रंथियों
खुल
जाती
हैं
और
समस्त
शुभ
अशुभ
कर्म
नष्ट
हो
जाते
हैं
अर्थात्वह
जीव
सब
बंधनों
से
सर्वदा
मुक्त
होकर
परम्आनंद
स्वरूप
परमेश्वर
को
प्राप्त
हो
जाता
है।8
वेदांत
वाक्य
जिस
ज्ञान
को
मोक्ष
का
साधन
बतलाते
हैं, वह
ज्ञान
भक्ति
स्वरूप
उपासना
ही
है, इसलिए
जूतियां
और
स्मृतियां
दोनों
इसी
अर्थ
का
प्रतिपादन
करती
हैं
कि
भक्ति
के
अतिरिक्त
कोई
दूसरा
मुक्ति
का
साधन
नहीं
है, भक्ति
ही
मुक्ति
का
साधन
है।
वह
भक्ति
ही
उपासना,ध्यान, ध्रुवानुस्मृति इत्यादि
शब्दों
से
कही
जाती
है।
परम
पुरुष
उपासना
ही
मुक्ति
का
साधन
है, इस
अर्थ
को
बतलाने
के
लिए
श्रुति
कहती
है, उस परम
पुरुष
परमात्मा
को
इस
प्रकार
से
जानकर
अर्थात्
उस
परमात्मा
का
उपासना
के
द्वारा
साक्षात्कार
करके
मुमुक्षु
उपासक
संसार
के
भय
को
पार
कर
जाता
है।
परमात्मा
की
उपासना
के
अतिरिक्त
मोक्ष
का
दूसरा
कोई
साधन
नहीं
है।
उपर्युक्त
श्रुतियों
में
जिस
परमात्म
ज्ञान
को
मुक्ति
का
साधन
कहा
गया
है, वह
भक्ति
स्वरूप
ही
है।
वह
ऐसी
भक्ति
है
जिसे
अनन्या
भक्ति
कहते
हैं।
जिस
भक्ति
में
उपास्य
परमात्मा
के
अतिरिक्त
कोई
भी
दूसरा
ध्येय
नहीं
होता
है।
वही
भक्ति
श्रुतियों
में
ज्ञान
शब्द
से
कही
गई
है।
भगवद्गीता
में
भी
कहा
गया
है
-
हे
अर्जुन
जैसे
तूने
मुझको
देखा
है, उसी
प्रकार
मैं
ना
वेदों
से, ना
तपसे, ना
दान
से, ना
यज्ञ
से
ही
देखा
जा
सकता
हूं, हां
अनन्या
भक्ति
के
द्वारा
मेरा
इस
प्रकार
से
साक्षात्कार
अवश्य
किया
जा
सकता
है।
उस
अनन्या
भक्ति
के
द्वारा
मुझे
शास्त्रों
के
आलोक
में
तत्व
जानकर
मुझे
देखा
जा
सकता
है
तथा
मुझ
में
प्रवेश
किया
जा
सकता
है।
यह
अर्जुन
परमपुरुष
की
प्राप्ति
को
केवल
अनन्याभक्ति
से
ही
हो
सकती
है।9
रामानुजाचार्य
अपने
पक्ष
में
आचार्य
ब्रह्मानंद
के
मत
का
उल्लेख
करते
हुए
कहते
हैं
कि
ध्रुवानुस्मृति
की
प्राप्ति
विवेक, विमोक, अभ्यास,क्रिया, कल्याणादि से
होती
है
क्योंकि
इन
साधनों
में
ही
ध्रुवानुस्मृति
को
उत्पन्न
करने
की
योग्यताहै। (1)विवेक- विवेक के
स्वरूप
को
इस
प्रकार
बतलाया
है
-
अन्न
में
तीन
प्रकार
के
दोष
होते
हैं
जाति
दोष, आश्रय दोष
तथा
निमित्तदोष, इन तीन
प्रकार
के
दोषों
से
रहित
अन्नका
भोजन
करके।
अपने
शरीर
की
शुद्धि
करने
को
ही
विवेक
कहते
हैं।
अभिशिप्त
एवं
पतितों
के
घर
का
आहार
आश्रय
दोष
से
दूषित
आहार
है।
आहार
देने
वाले
स्वामी
का
नाम
आश्रय
है, अतः भोजन
करने
से
पूर्व
इस
बात
का
विचार
कर
लेना
चाहिए
कि
जो
भोजन
हम
ग्रहण
कर
रहे
हैं
वह
कहीं
महापापी
के
घर
का
आहार
तो
नहींहै।
झूठा,केश से
दूषित
आहार
निमित्त
दोष
से
दूषित
आहार
है।
अतः
सात्विक
आहार
लेना
चाहिए
जिससे
जिससे
अंतःकरण
शुद्ध
हो
और
धुर्वानुस्मृति
की
उत्पत्ति
हो।
(2)विमोक-विमोक
को
दूसरे
साधन
के
रूप
में
परिभाषित
करते
हुए
वाक्यकार
कहते
हैं- कामनाओं का
ऐसा
विकार
जिसके
कारण
मनुष्य
विषयों
का
उपभोग
किए
बिना
नहीं
रह
सकता, इसको रोकना
ही
विमोक
है
ताकि
एकाग्र
मन
से
ईश्वर
की
भक्ति
की
जा
सके।
(3)अभ्यास-
ईश्वर
का
निरंतर
चिंतन
करना
ही
अभ्यास
है।
ध्यान
के
लिए
उचित
स्थान
पर
बैठकर
भगवान्
के
स्वरूप
का
बार-बार
चिंतन
करना
ही
ध्यान
है।
(4)कल्याण- सत्य, ऋतुजा, दया, दान, अहिंसा तथा
अनभिध्या
इनका
अनुसरण
करना
ही
कल्याण
कहा
गया
है।10
भक्तों
के भेद- आचार्य
रामानुज
ने
भक्ति
के
साधकों
को
चार
कोटियों
में
विभक्त
किया
है-(1)आर्त-इस कोटि
के
भक्त
अपनी
खोई
हुई
प्रतिष्ठा
और
ऐश्वर्य
को
पुनः
प्राप्त
करना
चाहते
हैं।(2)अर्थार्थि- इस प्रकार
के
भक्त
अप्राप्त
ऐश्वर्य
को
प्राप्त
करने
के
इच्छुक
होते
हैं।
(3) जिज्ञासु-प्रकृति वियुक्त
आत्मस्वरूप
को
प्राप्त
करने
के
इच्छुक
भक्त
जिज्ञासु
कहलाते
हैं।
(4) ज्ञानी-अपने को
भगवान्
के
अधीन
समझता
हुआ
भगवान्
पर
पूर्ण
विश्वास
रखने
वाला
भक्त
ज्ञानी
कहा
जाता
है।
रामानुज
के
अनुसार
इन
चारों
में
प्रपत्ति
से
युक्त
भक्त
सर्वश्रेष्ठ
है।
इस
प्रकार
रामानुजाचार्य
ने
भक्तों
के
भेद
बता
कर
यह
स्पष्ट
कर
दिया
है
कि
भक्त
कैसा
होना
चाहिए
तथा
भक्ति
सगुण
की
हो
सकती
है, निराकार
कि
नहीं।
ईश्वर
की
भक्ति
तभी
प्राप्त
हो
सकती
है
जब
व्यक्ति
अपने
को
ईश्वर
की
कृपा
के
आश्रय छोड़
दें, जिस
प्रकार
नाव
में
बैठकर
व्यक्ति
निश्चिंत
हो
जाता
है
कि
उसको
पार
ले
जाने
की
समस्त
जिम्मेदारी
नाव
खेलने
वाले
की
होती
है, उसी
प्रकार
भक्तिरूपी
नाव
पर
बैठकर
भक्तों
को
निश्चिंत
हो
जाना
चाहिए।11
आलवार- आलवारों का
अभ्युदय
भी
अपने
काल
की
परिस्थितियों
से
जुड़ा
हुआ
था।
उस
समय
कोई
ऐसा
संप्रदाय
या
मत
नहीं
था
जो
संपूर्ण
समाज
में
समरसता
का
वातावरण
निर्मित
करके
सब
को
एक
साथ
लेकर
चल
सके।
सनातन
धर्म
के
जातिवाद
एवं
गहन
कर्मकांड
की
प्रक्रिया
के
फलस्वरूप
उत्पन्न
बौद्ध
एवं
जैन
धर्म
भी
उन्हीं
दोषों
से
ग्रस्त
हो
गए
जिनके
परिणामस्वरूप
उनका
आविर्भाव
हुआ
था।
फलतः
सम्पूर्ण
समाज
के
उस
वर्ग-जिसका
दृष्टिकोण
व्यापक
था
जो
दीन
हीन
जनों
के
दुख
से
अपने
को
व्यथित
पाता
था।
जिसकी
उमंग
संपूर्ण
समाज
को
एक
साथ
लेकर
चलने
की
थी।उस
समय
आलवारोंके
रूप
में
ऐसे
महापुरुषों
का
आविर्भाव
हुआ
जिन्होंने
देश
में
धार्मिक
इतिहास
को
नई
दिशा
दी।6
आलवारों
के
विषय
में
यह
तथ्य
विशेष
महत्व
का
है
कि
वह
सब
किसी
एक
जातीय
वर्ग
से
संबंधित
ने
होकर
संपूर्ण
समाज
के
विभिन्न
वर्गों
से
संबंधित
थे।
उनमें
ब्राह्मण
थे
तो
शूद्र
भी
थे।
अतःपरवर्ती
समाज
भी
जातिभेद
लिंगभेद
आदि
पर
ध्यान
न
देकर
सबको
सम्मान
दे
ऐसा
वह
चाहते
थे।
आलवारों
द्वारा
अनुभूत
संपूर्ण
समर्पण
सिद्धांत
ही
आचार्य
रामानुज
द्वारा
प्रतिपादित
भक्ति
सिद्धांत
का
आधार
बना।
आलवारों
की
कृतियों
का
महत्व
तो
इसी
से
सिद्ध
हो
जाता
है
कि
रामानुज
के
पूर्वर्ती
आचार्यों
ने
स्वयं
सिद्धांत
प्रतिपादन
में
वेदों के
साथ-साथ
आलवारों
के
गीत
संग्रह
नालायिर दिव्य
प्रबंध को
समान
सम्मान
दिया।
आलवारों
ने
विशेष
रूप
से
भक्ति
को
ही
ज्ञान
एवं
योग
से
श्रेष्ठ
सिद्ध
करते
हुए
भगवत्
प्राप्ति
का
एकमात्र
साधन
माना
है।
कुलशेकररालवार
ने
यहां
तक
कहा
है
हे-भगवान
मैं
स्वर्ग
की
भी
कामना
नहीं
करता, मात्र तेरी
भक्ति
करते
रहने
की
मेरी
कामना
है।
इन्होंने
भक्ति
को
साधन
रूप
में
नहीं
अपितु
साध्य
रूप
में
स्वीकार
किया
है।
उनके
काव्य
में
भक्ति
के
समस्त
तत्वों
का
सरस
प्रतिपादन
हुआ
है।
विशेष
रूप
से
नाम, संकीर्तन, अर्चना, ध्यान
आदि
का
महत्त्व
स्थापित
करते
हुए
शरणागति
वाली
प्रपत्तिमय
भक्ति
की
सर्वोत्कृष्टता
को
प्रतिष्ठित
किया
गया
है।
आलवारों
ने
भक्ति
के
श्रवण, कीर्तन,मनन्
आदि
रूपों
का
विविध
प्रकार
से
विश्लेषण
किया
है।
उनके
अनुसार
भक्ति
ही
जीवन
का
सार
है।
उन्होंने
अपने
काव्य
प्रबंधन
को
भक्ति
का
सार
बताया
जो
भक्ति
का
लक्ष्य
ग्रंथ
है
और
उस
के
माध्यम
से
सारे
तमिल
प्रदेश
में
नारायण
भक्ति
विशेषकर
कृष्ण
भक्ति
की
निरंतर
धारा
बहने
लगी
जिसमें
निमग्न
होकर
संपूर्ण
लोक
जीवन
में
ब्रह्मानंद
की
अनुभूति
कर
रहा
था।
भक्तों
ने
विष्णु
भक्ति
और
आमतौर
से
कृष्ण
भक्ति
के
लिए
समस्त
जातियों
को
अधिकारी
घोषित
किया
और
भगवत्
भक्ति
के
मार्ग
में
स्वर्ण,अवर्ण
या
ऊंच-नीच
का
कोई
अंतर
नहीं
रखा।
इनमें
बहुत
सारी
कवि
हुए
जो
सवर्ण
जाति
के
नहीं
थे।
तमिल
समाज
में
इन
संतो
को
पूज्य
माना
जाता
था, यदि ब्राह्मण
वर्ग
का
भी
कोई
व्यक्ति
भगवत
भक्तों
का
तिरस्कार
करें
तो
वह
चांडाल
हो
जाएगा, ऐसी उनकी
मान्यता
थी।
भक्ति
की
सहजता
और
सर्वग्राह्यता
का
गंभीर
प्रभाव
लोग
जीवन
पर
पड़ना
स्वाभाविक
ही
था।
उपर्युक्त
उदाहरण
से
यह
भी
स्पष्ट
होता
है
कि
इन
संतो
के
विचारानुसार
भगवान्
के
भक्तों
की
सेवा
भगवान्
की
सेवा
का
एक
अंग
है।
रामानुज
द्वारा
प्रतिपादित
प्रपतिवाद
पर
इन
संतों
के
प्रबंधन
के
प्रति
उनके
सिद्धांत
का
पर्याप्त
प्रभाव
पड़ा।
रामानुज
ने
भक्ति
मार्ग
में
जातीय
विषमताओं
का
तिरस्कार
कर
सबको
उस
मार्ग
का
अधिकारी
घोषित
करने
की
जो
क्रांति
मचाई, वह भी
इन
संतों
के
आदर्श
के
प्रभाव
का
परिणाम
था।
वैष्णव
आचार्यों
की
जो
परंपरा
चली
उसके
प्रधानाचार्य
नाथमुनि
इन
संतों
के
प्रबंधन
साहित्य
के
महत्व
एवं
गौरव
के
उद्घोषक
थे।
उन्होंने
संपूर्ण
प्रबंधन
साहित्य
का
संग्रह
कर
श्रीरंगम्
के
मंदिर
में
उसके
अध्ययन
और
अध्यापन, गायन की
व्यवस्था
की।
इस
गायन
से
भक्ति
भावना
का
समाज
पर
गहरा
प्रभाव
पड़ा
और
लोग
भी
प्रभावित
होकर
इस
संप्रदाय
से
जुड़ने
लगे।12
सनातन
धर्म
की
जीवंतता
का
मूल
कारण
यह
है
कि
जब
कभी
भी
अपनी
धरती
पर
अपने
ही
लोगों
द्वारा
स्वीकृत
मान्यताओं
के
विरुद्ध
विद्रोह
हुआ
जिससे
प्रथम
सामाजिक
प्रसाद
की
नींव
हिल
गई
तो
परवर्ती
आचार्यों
ने
समन्वयवादी
दृष्टिकोण
अपनाकर
उभरती
हुई
नवीन
प्रवृत्तियों
को
आत्मसात
करने
का
प्रयास
किया।
इस
प्रयास
में
वह
बहुत
सीमा
तक
सफल
भी
रहे।
रामानुज
के
मत
में
साधकों
का
साथ
दें
विशिष्ट
सगुणलीला
में
आनंद
स्वरूप
अंतर्यामी
परब्रह्म, पुरुषोत्तम, भगवान
वैकुंठपति
नारायण
है।
रामानुज
के
मतानुसार
राम, कृष्ण आदि
भगवान
नारायण
के
ही
अवतार
हैं।
भक्तों
के
निमित्त
की
जाने
वाली
भगवान
की
लीलाएं
हैं
एवं
उनके
मत
में
भक्ति
भावना
में
यद्यपि
वैकुंठपति
नारायण
की
भक्ति
उपासना
की
मूलतः
स्थापना
की
गई
है
तथापि
भक्तों
के
लिए
उनकी
रामकृष्ण
आदि
अवतार
गत
लीलाओं
के
आस्वादन
को
भी
नकारा
नहीं
गया
है।
आचार्य
रामानुज
ने
जिस
विशिष्टाद्वैत
संप्रदाय
की
स्थापना
की, उसके
सिद्धांतों
का
अनुसरण
सभी
विशिष्टाद्वैत
सम्प्रदाय
विद्वान
जनों
ने
किया
और
साथ
ही
उसका
प्रचार-प्रसार
वर्तमान
समय
में
भी
निर्बाध
गति
से
चल
रहा
है।
उनके
सिद्धांतो
का
पठन-पाठन
वर्तमान
समय
में
अनेकों
गुरुकुलों, विश्वविद्यालयों
में
चल
रहा
है।
कालखंड
चाहे
कोई
भी
रहा
हो
लेकिन
भक्ति
किसी
न
किसी
रूप
में
सदैव
विद्यमान
रही
है, यद्यपि
भक्ति
शब्द
का
प्रथम
प्रयोग
उपनिषद
काल
में
मिलता
है।
श्वेताश्वेतरोपनिषद्
में
इसका प्रथम
प्रयोग
मिलता
है।
भक्ति
उपासना
के
रूप
में
वैदिक
काल
से
चली
आ
रही
है।
वेदों
में
हमें
प्रकृति
की
उपासना
के
मंत्र
मिल
जाते
हैं।
भक्ति
का
जो
रूप
भक्ति
विषयक
महाभारत
और
गीता
में
मिलता
है, वह
उपनिषद
की
भक्ति
से
पर्याप्त
साम्य
रखता
है।
उपनिषदों
की
भक्ति
में
आडंबर
नहीं
है
बल्कि
अंतः
साधना
पर
अधिक
बल
दिया
गया
है।
श्रीमद्भगवद्गीता
में
ज्ञान, कर्म और
भक्ति
तीनों
साधनों
का
समुचित
विवेचन
मिलता
है, अंत
में
भक्ति
को
सर्वोपरि
ठहराया
है।
जिन-जिन
साधना
पद्धतियों
का
विवेचन
गीता
में
किया
गया
है
उन
सब
में
भक्ति
ही
सर्वोपरि
है
और
वह
भक्ति
शरणागति
का
बहाव
ही
है।
रामानुजाचार्य
ने
अपने
भक्ति
सिद्धांतों
को
सरल
और
सभी
जनसाधारण
के
लिए
उपयोगी
बताते
हुए
यह
कहा
है
कि
यह
भक्ति
सभी
चेतन
जीवो
के
लिए
है, इसमें
किसी
भी
प्रकार
का
कोई
भी
जातिगत,धर्मगत
भेदभाव
नहीं
है, सभी
जन
ईश्वर
को
प्राप्त
करने
के
अधिकारी
हैं।
इस
आवाहन
के
साथ
ही
स्वयं
को
हीन
समझने
वाले
लोग
ईश्वर
और
भक्ति
के
प्रति
आकृष्ट
हुए
और
उन्होंने
रामानुजाचार्य
के
भक्ति
सिद्धांत
को
ना
केवल
अपनाया
अपितु
समाज
में
व्याप्त
भेदभाव
को
एक
तरफ
रख
कर
समरसता
का
संदेश
दिया।
सन्दर्भ :
- शर्मा. चंद्रधर भारतीय दर्शन,प्रकाशन मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली (1990) पृ. 292
- शास्त्री विष्णु कांत रामानुज का भक्ति सिद्धांत,प्रकाशन लोकभारती 2003. पृ. 78
- शर्मा मुन्शी रामभक्ति का विकास, प्रकाशन चौखंबा विद्या भवन वाराणसी 2009, पृ. 103
- शुक्ल यदुनाथ कृष्ण भक्ति काव्य, प्रकाशन चौखंबा सुर भारती 2009 पृ. 307
- राजकुमार उपाध्याय नारद भक्ति सूत्र, प्रकाशन चौखंबा संस्कृत प्रतिष्ठान 1998 पृ. 12
- रामानुजाचार्य श्रीभाष्य, चौखंबा विद्याभवन वाराणसी 2009, पृ. 289
- मधुसूदन सरस्वती भक्ति रसायन, प्रकाशन चौखंबा विद्या भवन वाराणसी 2008
- वेंकट नाथ तत्व टीका, प्रकाशक, मैसूर कॉलोनी चेंबूर मुंबई 1974
- रामानुजाचार्य गीता भाष्य,प्रकाशन गीता प्रेस गोरखपुर 2004
- रामानुजाचार्य वेदार्थ संग्रह, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी 1991
- श्री हरिराय सिद्धांत रहस्य, प्रकाशन विद्या विभाग मंदिर नाथद्वारा संवत 2074
- दास गुप्ता एस.एन. भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग 1 से 5 राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर 1975
पोस्ट डॉक्टरल फैलो(ICSSR) संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय. दिल्ली 110007
maheepkumar07@gmail.com, 8015308369
Good paper about bhakti cult
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