आलेख : जीवन का आध्यात्मिक पक्ष / राजाराम भादू

जीवन का आध्यात्मिक पक्ष
 - राजाराम भादू


(1) धर्म, अध्यात्म और उपासना -

    धर्म का प्रमुख अंग आस्था, विश्वास और श्रद्धा है, जो सामान्यतः मानवता पर आधारित होता है। लगभग हर धार्मिक व्यक्ति यह मानता है कि धर्म मानव के समस्त कल्याण हेतु आवश्यक है। धार्मिक ग्रंथों में तो अन्तर्मन और मानसिक शांति की अनेक ज्ञानवर्धक जानकारियाँ रहती हैं, पर धर्म के साथ-साथ ही कुछ ऐसी मान्यताएँ, रीति-रिवाज, औपचारिकताएं जुडी रहती हैं जिन्हें किसी भी प्रकार का प्रश्न पूछे बिना आस्था के रूप में स्वीकार करना होता है। इनमें से कुछ को विज्ञान ने स्वीकारा नहीं है, इसलिए भी विज्ञान व धर्म में लोगों को द्वंद्व का आभास होता है। वास्तविकता यह भी है कि विज्ञान के पास आज भी अनेक जटिल प्रश्नों का समाधान नहीं है। नतीजा आज भी काफी लोग धर्म और उससे जुड़ी मान्यताओं को स्वीकार करते हैं। धर्मो को उस मूल भाव से जोडकर देखा जाना चाहिए, जो दया, क्षमा, अहिंसा आदि के द्वारा प्रत्येक धर्म को एक-दूसरे से जोडते हैं। यह पाया गया है कि धर्म से जुड़े जितने भी विवादित विषय हैं, वे या तो प्रभुत्व स्थापित करने, शक्ति विस्तारित करने अथवा संप्रदाय के नाम पर शोषण करने जैसी अपवित्र, अनैतिक भावनाओं के इर्द-गिर्द घूमते हैं।

    धर्म की एक व्याख्या है-वस्त्थुस्वभावो हि धम्मो : अर्थात वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है। वस्तुतः यही धर्म की श्रेष्ठ व वैज्ञानिक परिभाषा है। जिस प्रकार अग्नि का धर्म उष्णता है, जल का धर्म शीतलता है, वायु का धर्म गति है, उसी प्रकार दया, करुणा, क्षमा आदि मनुष्य के स्वाभाविक गुण होने से मानव धर्म हैं। इस दृष्टि से धर्म अनिंद्य है, किन्तु धर्म के क्षेत्र में व्याप्त पाखंड और आडंबरों ने इस दृष्टि को नेपथ्य में डाल दिया है। दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति ने धार्मिक होने की सर्वथा नयी व्याख्या प्रस्तुत की है, वे कहते हैं : ... धार्मिक मन अतीत से बंधा हुआ मन न होकर अतीत का अंत करने वाला होता है। वह अन्वेषण की क्षमता से युक्त एक विस्फोट यथार्थ का सृजन भी कर सकता है। धार्मिक मन सृजनशील होता है तथा उसे वर्तमान में भी विस्फोट करना होता है। ऐसे मन में किसी रूढिगत सिद्धांत के लिए जगह नहीं होती है। बिना अपने को जाने, बिना अपने विषय में सब कुछ जाने अर्थात अपना शरीर, अपना मन, अपने संवेग, कैसे मन काम करता है, कैसे विचार काम करते हैं, आपका मन धार्मिक नहीं हो सकता।

    धर्म के साथ अध्यात्म शब्द भी प्रचलन में रहा है। अध्यात्म शब्द का एक सामान्य अर्थ है-आत्मा और परमात्मा के संबंध में चिंतन-मनन। अध्यात्म यानी आत्म-प्रज्ञ होना, स्वयं को जानना। हमारे चारों ओर अदृश्य ऊर्जा का अक्षय भंडार उपलब्ध है। इस ऊर्जा को मोटे तौर पर हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। एक वह ऊर्जा जिसको विज्ञान द्वारा जाना जा सकता है, जिसकी व्याख्या की जा सकती है और जिसका वैज्ञानिक नियमों के अनुसार उपयोग किया जा सकता है, अर्थात भौतिक ऊर्जा (फिजिकल एनर्जी)। दूसरे प्रकार की ऊर्जा वह है, जो अभी तक विज्ञान के नियमों द्वारा बांधी नहीं जा सकी है और न ही जिसका उपयोग किन्हीं नियमों के आधार पर अभी तक संभव हुआ है, और वह है- पराभौतिक ऊर्जा (मैटाफिजिकल एनर्जी)। एक मान्यता के अनुसार, इसी पराभौतिक ऊर्जा का उपयोग जीवन को बेहतर और संतुलित बनाने के लिए आध्यात्मिकता के माध्यम से करने का प्रयास किया जाता है। यही ऊर्जा आध्यात्मिक या दिव्य ऊर्जा कही जाती है।

    कुछ लोग धर्म को हैसियत से जोडकर देखते हैं। हमारे यहाँ बहुत से दलित और आदिवासी यह सोचकर बौद्ध, मुसलमान या ईसाई बने कि धर्म बदल लेने पर उन्हें समाज में मान मिलेगा। लेकिन हम देखते हैं कि ऐसा नहीं हुआ। धर्म बदल लेने पर भी जांत-पांत बनी रहती है और मनुष्य अपमान का शिकार होता रहता है। धर्म-परिवर्तित करने वाले लोग करीबन दोहरा विभेद सह रहे हैं। एक ओर वे उस समुदाय से विलग हो चुके, जो उनका मूल था, दूसरी तरफ नये धर्म-समुदाय ने उन्हें पूरी तरह से आत्मसात कर उनकी गरिमा बहाल नहीं की।

    बहरहाल, धर्म से जुड़े कुछ मसले वास्तव में धार्मिक उपासना, पूजा-पाठ व अनुष्ठानों से जुड़े हैं। सामान्यतः धार्मिक उपासना के वैयक्तिक रूप को सबसे बेहतर माना गया है। भक्ति और सूफी संतों फकीरों ने इसी की पैरोकारी की थी। लेकिन संस्थागत धर्मों का आग्रह पूजा-अनुष्ठानों के विराट और सार्वजनिक आयोजनों पर है। उनके संदर्भ में हमें सामाजिक समरसता के मूल्य व मापदण्डों को अपनाना होगा, ताकि सामाजिक सौहार्द बना रहे और जीवन की शांति बाधित न हो पाये।

(2) आत्मिक संतुष्टि व शांति -

    संतोष वास्तव में एक मानवीय गुण है, बशर्ते कि वह चुनने की आजादी और आलोचनात्मक विवेक पर आधारित हो। इस रूप में संतोष जीवन की गुणवत्ता को बढाता है। लेकिन संतोष की विचारधारा का एक दूसरा पहलू भी है-बुरा पहलू-और वह है, गरीबों को गरीब बनाये रखने में इसकी संभावित भूमिका। उदाहरण के लिए, संगठित धर्मों के द्वारा गरीबों को अक्सर संतोषी सदा सुखी जैसे उपदेश दिये जाते हैं। यह चीज समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के लिए बड़ी सुविधाजनक होती है। विशेषाधिकार प्राप्त लोग संतोष के उपदेश भले ही न दें, वे अक्सर यह तर्क देते हैं कि गरीब लोग सचमुच संतुष्ट हैं। उदाहरण के लिए, वे दावा करते हैं कि गरीबों के लिए तो दो जून की रोटी ही काफी है। ऐसे लोगों के लिए यह तर्क बडा सुविधाजनक है, क्योंकि इसमें यह बात शामिल हैं कि गरीब लोग मजे में हैं और धनी लोगों को उनकी मदद करने की सामाजिक जिम्मेदारी निभाने की कोई जरूरत नहीं है।

    वस्तुतः गरीबों को सुखी और संतुष्ट बताने वाला यह विचार कोरी कल्पना की उपज है। गरीब लोग और चाहे कुछ भी हों, संतुष्ट हर्गिज नहीं हैं। गरीबी उनके सिर पर लगातार लदा रहने वाला एक बोझ है, जिसका मतलब होता है, कदम-कदम पर कठिनाई और समस्याओं से जूझना, जैसे परिवार का पेट पालने में आने वाली समस्याएं, बच्चों को स्कूल भेजने और शादी करने में आने वाली समस्याएं आदि। यह धारणा कि दो जून रोटी ही जिंदा रहने के लिए काफी है, इस तथ्य को नजरअंदाज करती है कि अच्छा जीवन जीने के लिए कुछ और बुनियादी रूप से जरूरी चीजें भी होनी चाहिए, जैसे-साफ पानी, रहने का ठिकाना, पहनने को कपडे, बीमार पडने पर इलाज की सुविधा इत्यादि। ऐसा कैसे हो सकता है कि गरीब लोगों को इनके अभाव का अहसास ही नहीं होता हो?

    संतोष की अवधारणा को प्रायः भारतीयता से जोडकर प्रस्तुत किया जाता है। असल में, दोनों तरफ से बहुत से लोग सोचते हैं कि पश्चिम भौतिकवादी है और पूरब ज्यादा आध्यात्मिक। यह एक मिथक है। सच तो यह है कि दुनिया के प्रायः सभी समाजों में भौतिकवाद बडे जबरदस्त रूप से मौजूद है, लेकिन फिर भी उनमें ऐसे लोग होते हैं जिनकी आकांक्षाएँ भौतिकवादी नहीं होतीं। मसलन, ऐसे लोग हर समाज में मिल जायेंगे, जो वैज्ञानिक, कलात्मक या आध्यात्मिक लक्ष्यों को भौतिक संपदाओं के अर्जन से अधिक महत्वपूर्ण मानते हों। इस मामले में पूर्व और पश्चिम में ज्यादा फर्क नहीं है। संतोष की विचारधारा ईसाई संस्कृति में भी उतनी ही पायी जाती है जितनी कि हिन्दू संस्कृति में। ईसा ने भी कहा था-गरीब लोग धन्य हैं। वे गरीबों के लिए स्वर्ग के दरवाजे खुले होने की बात भी कहते थे। ऐसा लगता है कि पूर्व और पश्चिम दोनों में ही संगठित धर्म का इस्तेमाल गरीबों को खुश रखने और स्थापित व्यवस्था पर प्रश्न-चिन्ह लगाने से रोकने के लिए किया गया है।

    जैसा कि पहले कहा गया, संतोष के कुछ सकारात्मक रूप भी होते हैं, जो स्वतंत्रता और आलोचनात्मक विवेक पर आधारित होते हैं। यह विचार भी सर्वत्र पाया जाता है। उदाहरण के लिए, पूर्व में गांधी को इस विचारधारा का प्रेरणादायी व्यवहार करने वाला माना जा सकता है। लेकिन इस मामले में गांधी स्वयं रस्किन और टालस्टाय जैसे पश्चिमी परंपरा के लोगों से प्रेरित हुए थे। वास्तव में, सांस्कृतिक भेदों की गहरी जांच-पडताल करते ही सांस्कृतिक विशिष्टवाद के झीने आवरण उड जाते हैं और सार्वभौमिक मूल्य नजर आने लगते हैं।

    सचाई यह है कि लालच और विलासता के विरूद्ध जीवन में सादगी और संतोष के मूल्य एक तरह का सांस्कृतिक प्रतिकार हैं। जीवन की गुणवत्ता के लिए एक अहिंसक, शांत और युद्ध-रहित समाज चाहिए। हम शारीरिक हमले, कत्लेआम, हत्या और मौत के खौफ में नहीं जीना चाहते। हम जीवन की गुणवत्ता को उसके सही रूप में उसी समाज में देख सकते हैं, जिसमें महिलाओं और बच्चों को सुरक्षा प्राप्त हो, हिंसा से लोगों का बचाव हो और उन्हें ऐसी जिंदगी जीने को मिले, जो युद्ध, अपराध, ड्रग्स, आत्महत्या और आक्रमणों से मुक्त हो।

(3) प्रकृति से साहचर्य -

    आज अगर दुनिया में वनों को लेकर कोई बडी चिंता है तो वह प्राकृतिक वनों के संरक्षण की है। खासतौर से तब, जब प्रति वर्ष 100 लाख हैक्टेयर वन खत्म हो रहे हैं और प्रति व्यक्ति वनों का क्षेत्र घट रहा है। पर शायद सबसे पहले हमें वनों के महत्व को नये सिरे से सबके सामने रखना और सबको इस तथ्य से जोडना होगा कि वन-विहीनता हमें जीवन-विहीन कर देगी। जीवन की कोई भी आवश्यकता ऐसी नहीं है जो अंततः वनों से जुडी न हो। वन भारत की संस्कृति का हिस्सा हैं। लोक-संस्कृति व लोक-कथाएं वनों से जुड़ी है। देश के इतिहास को अरण्य संस्कृति से भी जोड़ा जाता है। यह दुर्भाग्य है कि देश में वनों की हालत बेहतर नहीं कही जा सकती। पर्यावरणविद् डॉ॰ अनिल प्रकाश जोशी के अनुसार, 1980 में सरकारों ने गंभीरता दिखाते हुए एक वन-नीति को लाने की कोशिश की, जिसके मुताबिक किसी भी राज्य और देश में 33 फीसदी वन भूमि होनी चाहिए। पर एकाध राज्य ही हैं, जहां 33 प्रतिशत वनों का दावा किया जा सकता है। हरियाणा-पंजाब जैसे हरित क्रांति के राजा वन-विहीन हैं। उत्तर प्रदेश में वन चार-पांच प्रतिशत ही हैं, बिहार में 7 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 14 फीसदी हैं। यह आंकडा अपेक्षित क्षेत्र की तुलना में बहुत कम है। हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड और मध्यप्रदेश या झारखंड जैसे राज्य निश्चित रूप से वनाच्छादित है और यही कारण है कि देश में आज लगभग 21.8 फीसदी भूमि में वन पाये जाते हैं।

     एक बड़ा पहलू वनों की स्थिति को लेकर भी है। क्या यह बेहतर वन के दर्जे में आते हैं। वनों की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती हैं कि उनकी दशा कैसी है और साथ में किस प्रजाति की भागीदारी ज्यादा है। अगर वन्य प्रजातियां पारिस्थितिकी की दृष्टि के अनुरूप नहीं हैं तो निश्चित रूप से वह बेहतर नहीं कहे जा सकते। उदाहरण के लिए, हिमालयी क्षेत्रों में चीड के वन, बेहतर वन की श्रेणी में नहीं आते क्योंकि इनका पारिस्थितिकी योगदान उस दर्जे का नहीं है, जो कि हिमालय के लिए अपेक्षित है। आर्थिक दृष्टिकोण से जरूर यह महत्व रखता है क्योंकि लीसा  (रेजिन) के रूप में ज्यादा जाना जाता है। अगर सवाल पारिस्थितिकी और पर्यावरण का है, तो वृक्षों की प्रजाति, जो क्षेत्र विशेष के साथ जुडी है, उसका योगदान ज्यादा महत्वपूर्ण है, न कि मात्र वृक्ष का। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर हिमालय क्षेत्र में सागौन या यूकेलिप्टस की बहुतायत हो तो वह अच्छे वन क्षेत्र तो बन सकते हैं, पर बेहतर वन की श्रेणी में नहीं आयेंगे। और ऐसा उन सभी वानस्पतिक प्रजातियों के लिए समझना जरूरी है जिनका पारिस्थितिकी दृष्टिकोण से कोई योगदान न हो।

    शास्त्रों में कहा गया है कि एक वृक्ष सौ पुत्र समान है, मतलब सौ पुत्र उतनी सेवा नहीं करते जितना कि मात्र एक वृक्ष करता है और यह सही भी है। एक वृक्ष एक किमी तक शुद्ध जलवायु फैला सकता है। दुनिया की इस बढती आबादी के लिए हमें आज एक हजार वृक्ष चाहिए, जो करीब 810 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर सकें। वर्ष 1990 से 2015 के बीच में वन संसाधन आकलन के अध्ययन की सितम्बर 2015 में आयी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में वन 31.6 फीसदी से घटकर 30 फीसदी पर पहुंच गये हैं। हालांकि इसके बाद वनों में बढोत्तरी हुई है पर यह समान रूप से नहीं रही हैं। एक और अध्ययन में सामने आया है कि दुनिया में तीन चौथाई इलाकों में बेहतर पानी का कारण वहाँ के बेहतर वन ही रहे। दुनिया में जो बडे 230 जलागम हैं, उनमें 40 फीसदी जलागमों में 50 प्रतिशत तक वनों की क्षति हुई है और अगर ऐसा ही होता रहा तो आने वाले समय में हमें भीषण जल-संकट का सामना करना पड़ेगा। हमें यह भी सनझ लेना चाहिए कि यह वन ही हैं जो बढते जलवायु परिवर्तन को हमारे हित में साध सकते हैं।

    वनों के संरक्षण में स्थानीय लोगों की महत्ती भूमिका रही है, जिसके प्रति हमारा रवैया उपेक्षा पूर्ण रहा है। समाजशास्त्री पूरनचन्द्र जोशी का मानना है कि लगभग पूरे एशिया में लोक जीवन, लोक-संस्कृति और लोक-परंपराएं अभी भी मौजूद हैं, उसके अनेक मूल्य अनेक रूपों में आज भी कायम है। लोक जीवन पारंपरिक आस्थाओं से चलता है और वह व्यक्तिगत नहीं, सामुदायिक जीवन होता है, जिसमें कुछ मूल्य होते हैं जो पीढी-दर-पीढी अपनाये और अगली पीढियों को थमाये जाते रहे हैं। इससे उस जीवन में एक निरंतरता बनी रहती है और उन मूल्यों में से कुछ आज भी उपयोगी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, लोक जीवन प्रकृति पर निर्भर करता है। उसमें मनुष्य प्रकृति से अलग नहीं, बल्कि उसका एक हिस्सा होता है। अंत लोक जीवन की गुणवत्ता प्रकृति और मनुष्य के संबंध से निर्धारित होती है। उसमें यह नैतिक और सामाजिक मूल्य काम करता है कि प्रकृति को बचाना है, उसे नष्ट नहीं करना है। यदि प्रकृति नहीं रहेगी तो हम भी नहीं बचेंगे। 

    वहाँ प्रकृति पर्यटकों को सुंदर लगने वाले दृश्यों के रूप में नहीं, बल्कि बड़े ठोस रूप में होती है, जैसे-जमीन, जंगल, हवा और पानी के रूप में। इन चीजों पर निर्भर मनुष्य सोचता है कि ये चीजें रहेंगी तो हम रहेंगे अन्यथा हम भी नहीं रहेंगे। इस सोच से पर्यावरण की रक्षा का मूल्य पैदा होता है, जो लोक जीवन में सदा से विद्यमान रहा है, लेकिन जिसे आधुनिक या उत्तर आधुनिक लोग अब समझ पा रहे हैं और पर्यावरण की रक्षा को एक नये मूल्य की तरह स्थापित करके उसका संबंध जीवन की गुणवत्ता से जोड़ रहे हैं।

    लेकिन वे अब भी नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्होंने स्वार्थ-सिद्धि का जो मूल्य अपना रखा है, जिसके चलते मनुष्य जंगलों को उजाडता है, पशुओं को मारता है, दूसरे मनुष्यों को प्रताड़ित करता है, उसके रहते पर्यावरण की रक्षा नहीं हो सकती और जीवन की गुणवत्ता की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। यदि आप दुनिया को या पूरे ब्रह्माण्ड को मनुष्य-केन्द्रित मानकर चलेंगे : यानी यह मानकर चलेंगे कि सब कुछ मनुष्य के लिए है, तो यह चीज चलने वाली नहीं है। मनुष्य और प्रकृति के सामंजस्य पर आधारित जीवन की परिकल्पना से ही जीवन की गुणवत्ता बचेगी, अन्यथा यह नष्ट हो जायेगी। वैज्ञानिक फ्रांसिस बेकन ने कहा था-प्रकृति को अनुशासित वही कर सकता है, जो प्रकृति का अनुशासन स्वीकार करना भी जानता है।

    प्रकृति को अनुशासित करने की बात में यह बात अन्तर्निहित है कि प्रकृति और मनुष्य में एक प्रकार का द्वंद्व और अन्तर्विरोध है। इसकी वजह से प्रकृति से लडने और उसे जीत कर वश में करने का विचार पैदा हुआ। लेकिन प्रकृति और मनुष्य का संबंध अन्तर्विरोध का ही नहीं, सामंजस्य का भी है, क्योंकि उसका जीवन प्रकृति पर ही निर्भर है। इस द्वंद्वात्मक संबंध की समझ आधुनिक युग से पहले के मनुष्य को थी। आधुनिक युग में प्रकृति से मनुष्य के अन्तर्विरोध वाले पक्ष पर ज्यादा जोर दिया गया और सामंजस्य वाले पक्ष को भुला दिया गया। नतीजा यह हुआ कि प्रकृति से लडने, उसे जीतने और वश में करने की प्रक्रिया तो जोर-शोर से चली, पर उससे सामंजस्य बिठाने पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। अब जो पर्यावरण का संकट पैदा हो गया है, तो हम पर्यावरण को बचाने की बातें करने लगे हैं। लेकिन अब भी हम यह नहीं देख रहे हैं कि स्वार्थी, लालची, व्यक्तिवादी और आत्म-केन्द्रित लोग इस संकट का सामना नहीं कर सकते। वे पर्यावरण को बचा नहीं सकते, उसे केवल नष्ट कर सकते हैं। इस प्रकार वे अपने और दूसरों के जीवन की गुणवत्ता को बढा नहीं सकते, उसे विकृत ही कर सकते हैं।

    इस स्थिति को बदलने के लिए हमें मनुष्य की अवधारणा को ही बदलना पडेगा। सारी सृष्टि मनुष्य-केन्द्रित है, इस विचार को त्यागना या बदलना पड़ेगा। यह मानकर चलना पडेगा कि सृष्टि मनुष्य-केन्द्रित नहीं है। मनुष्य स्वयं प्रकृति का अंग है, एक तरह से स्वयं भी प्रकृति ही है, और जिस प्रकार वह अपने जीवन की रक्षा करना चाहता है, उसी तरह उसे प्रकृति की भी रक्षा करनी चाहिए। अगर वह स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रकृति या पर्यावरण का नाश करता है, तो वह उसी का नहीं, बल्कि अपना भी नाश करता है। वह यह नहीं देखता कि प्रकृति या पर्यावरण की हत्या करके वह स्वयं आत्महत्या कर रहा है। इस आत्मघाती प्रवृत्ति से बचने के लिए उसे अपनी स्वार्थ-पूर्ति छोडकर प्रकृति से अपना सामंजस्य बिठाना होगा। 

संदर्भ
1. कथन, सं. रमेश उपाध्याय, जुलाई-सितम्बर, 2002, दिल्ली
2. ज्ञात से मुक्ति-जे. कृष्णमूर्ति (अनूदित) 1993, कृष्णमूर्ति फाउन्डेशन, राजघाट फोर्ट, वाराणसी
3. दैनिक भास्कर, 24 मार्च 2021

राजाराम भादू
सुपरिचित आलोचक, जयपुर (राजस्थान)
rajar.bhadu@gmail.com, 9828169277


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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