आलेख : हिंदी की प्रतिबंधित पत्रकारिता : बंदी शब्दों का हलफनामा / संतोष भदौरिया

हिंदी की प्रतिबंधित पत्रकारिता : बंदी शब्दों का हलफनामा
- संतोष  भदौरिया 

    औपनिवेशिक दौर में भारतीय स्वाधीनता-संग्राम का एक महत्त्वपूर्ण साधन था—राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत साहित्य का प्रकाशन, जिसकी सम्पूर्ण जिम्मेदारी हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं ने उठायी। हिन्दी के दैनिक एवं साप्ताहिक पत्रों ने हमेशा सरकार की दमन-नीति की निन्दा कर, क्रान्तिकारियों एवं भारतीय जनता के प्रति सुरक्षात्मक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। पाक्षिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं ने कारागार-बन्दियों की प्रशस्ति एवं सहानुभूति में अनेक तरह की रचनाएँ प्रकाशित कीं। दरअसल किसी भी आन्दोलन की सफलता बहुत सीमा तक तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं पर निर्भर करती है। भारत में बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध पत्रकारिता के संघर्ष का काल था। भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन को सफल बनाने में दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। भारतीय पत्रकारिता के प्रति ब्रिटिश सरकार और उसके शासन-तन्त्र के प्रत्येक क्षेत्र पर प्रहार करना जारी रखा। स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान अनेक पत्र-पत्रिकाएँ प्रतिबन्धन का शिकार हुईं। इस शोध-पत्र के अंतर्गत हिंदी की विभिन्न प्रतिबन्धित पत्रिकाओं का सर्वेक्षण एवं विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। कुछ ऐसी पत्रिकाएँ भी हैं जिनके प्रतिबन्धन की सूचना सरकारी दस्तावेजों से मिलती है, परन्तु उनके प्रतिबन्धित अंक प्राप्त नहीं हो सके। उनकी यथास्थान सूचना दे दी गयी है। ज्यादातर मासिक पत्र-पत्रिकाएँ ही प्रतिबन्धन का शिकार हुईं। उसका मुख्य कारण यह था कि महीने-भर की सामग्री इनमें प्रकाशित होती थी, जिसमें अनेक विचारोत्तेजक लेख एवं विस्फोटक कविताएँ हुआ करती थीं।

दैनिक पत्रों में ‘वर्तमान’ काफी चर्चित एवं लोकप्रिय पत्र था, जो कि कानपुर से प्रकाशित होता था। इसके सम्पादक रमाशंकर अवस्थी थे। इसके प्रकाशन की शुरुआत 22 अक्टूबर, 1920 को असहयोग आन्दोलन के व्यापक समर्थन देने हेतु हुई थी। ‘वर्तमान’ को अनेक बार आपत्तिजनक लेख एवं कविताएँ प्रकाशित करने पर सरकारी चेतावनियाँ मिलीं एवं जमानत की राशि जमा करनी पड़ी। 6 फरवरी, 1934 के ‘वर्तमान’ के अंक में पं. जवाहरलाल नेहरू के पूर्वी बंगाल में ‘राजनीतिक भूकम्प’ शीर्षक लेख (जिसमें बंगाल में सरकारी दमन-नीति पर विस्तृत प्रकाश डाला गया था) को प्रकाशित करने के अपराध में ‘वर्तमान’ का उक्त अंक सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया और पत्र से पन्द्रह सौ रुपये की जमानत माँगी गयी।1  ‘वर्तमान’ का यह प्रतिबन्धित अंक प्राप्त नहीं हो सका है। भारत की उग्र राजनीतिक धारा के प्रवाह में पहला पत्र हिन्दी का साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ था जिसके जन्मदाता पण्डित मदनमोहन मालवीय थे। ‘अभ्युदय’ उदार विचारों का पत्र था, किन्तु बाद में उग्र विचारों का पक्षधर हो गया। मई 1931 में इलाहाबाद के ‘अभ्युदय’ ने ‘भगतसिंह विशेषांक’ प्रकाशित किया। इस विशेषांक में महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू के लेख प्रकाशित हुए। पत्र में प्रकाशित इस सामग्री को आपत्तिजनक घोषित करते हुए ‘अभ्युदय’ के इस विशेषांक को सरकार ने जब्त कर लिया।2  ‘अभ्युदय’ ने पुन: 18 नवम्बर, 1931 को ‘किसान अंक’ प्रकाशित किया जिसमें किसान-आन्दोलन से सम्बन्धित विस्तृत लेख एवं कविताएँ प्रकाशित हुईं। इसे प्रान्तीय सरकार ने प्रतिबन्धित घोषित किया।3 ‘अभ्युदय’ के इन दोनों प्रतिबन्धित अंकों के बारे में सरकारी सूचना प्राप्त होती है।

    कानपुर से प्रकाशित एक राष्ट्रीय साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ ने अपने मार्ग की कठिनाइयों की कुछ भी परवाह न करते हुए राष्ट्र की अनवरत सेवा की। गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्पादकत्व में 23 नवम्बर, 1920 से ‘प्रताप’ का दैनिक संस्करण भी निकलने लगा। यह राष्ट्रवादी पत्र था तथा निरंकुश एवं अत्याचारी शासकों का घोर विरोधी था। उसकी यह नीति ही उसका सबसे बड़ा अपराध था जिसका कुपरिणाम उसे भुगतना पड़ा। ‘प्रताप’ के उस अंक को जब्त कर लिया गया जिसमें हमदम की राष्ट्रीय कविता प्रकाशित हुई थी।4 ‘शंखनाद’ क्रान्तिकारी साप्ताहिक पत्र था, जिसका प्रकाशन 1930 ई. में बनारस से शुरू हुआ। यह एक भूमिगत साइक्लोस्टाइल पत्र था। इसकी उग्र विचारधारा का ही परिणाम था कि ‘शंखनाद’ के 1932-1933 में प्रकाशित प्राय: सभी अंकों को राजद्रोहात्मक बताते हुए जब्त कर लिया गया।5  
   
    सरकारी सूत्रों के अनुसार इटावा के हिन्दी पाक्षिक ‘हलधर’ का 15 और 30 जुलाई, 1939 का अंक भारतीय दण्ड विधान की धारा 153-ए और 124-ए में वर्णित दण्डनीय सामग्री प्रकाशन के कारण उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया।6  इसके अलावा ‘सत्याग्रह समाचार’ (प्रकाशक कानपुर सत्याग्रह कमेटी), ‘सत्याग्रह समाचार’ (प्रकाशक सत्याग्रह कार्यालय, रायबरेली), ‘सत्याग्रह समाचार’ (इलाहाबाद) एवं ‘युद्धवीर’ (झूँसी, इलाहाबाद) आदि पत्रों की जब्ती के प्रमाण तो अवश्य मिलते हैं, पर उनकी मूल प्रतियाँ सुरक्षित नहीं रह सकी हैं।7 हिन्दी मासिक पत्रों में ‘सुधा’ लखनऊ का प्रथमांक 1927 में प्रकाशित हुआ था। इसके सम्पादक दुलारेलाल भार्गव एवं पं. रूपनारायण पाण्डेय थे। यह मुख्यत: साहित्यिक पत्रिका थी, परन्तु राजनीतिक विषयों पर भी इसमें लेख होते थे। भगतसिंह के लिये शीर्षांकित कविता प्रकाशित करने के अपराध में लखनऊ के ‘सुधा’ का भी जुलाई 1931 का अंक सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया।8 ‘सुधा’ के इस जब्तशुदा अंक की मूल प्रति प्रयास करने पर भी अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी। 

    उपर्युक्त जिन पत्रों का तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है, उनके अंकों के प्रतिबन्धन की विस्तृत जानकारी अभिलेखागारों में सुरक्षित सरकार के गोपनीय दस्तावेजों व रिपोर्टों से प्राप्त होती है। ऐसे प्रकाशनों की व्यापकता और सरकार की तत्परता का आभास सरकार के ही दस्तावेजों से हो जाता है। जो भी पत्र-पत्रिकाएँ प्राप्त हुई हैं, उनकी सूची देना उपयोगी सिद्ध होगा। जिनका विस्तृत विवेचन आगे किया है, वे पत्र-पत्रिकाएँ इस प्रकार हैं—सैनिक, नया हिन्दुस्तान, स्वदेश (विजयांक, साप्ताहिक) एवं वालण्टियर, चाँद (फाँसी अंक), बलिदान (नववर्ष अंक), अलंकार, विप्लव, कल्याण, बुण्देलखण्ड केसरी आदि मासिक पत्र हैं।

    1925 ई. का वर्ष राजनीतिक पत्रकारिता के इतिहास की शृंखला में एक और कड़ी को जोड़ता है। यद्यपि इस वर्ष हिन्दी की बहुत-सी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ हुआ, परन्तु उनमें अधिकतर मासिक पत्र थे और इनमें भी जातीय पत्रों की अधिकता थी। परन्तु इस वर्ष साप्ताहिक हिन्दी पत्र ‘सैनिक’ के प्रकाशन  ने हिन्दी की तेजस्वी पत्रकारिता की गतिशील परम्परा को अग्रसर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। ‘सैनिक’ साप्ताहिक का प्रकाशन आगरा से श्री कृष्णदत्त पालीवाल ने 1जून, 1925 ई. को प्रारम्भ किया था। प्रारम्भ में इसका स्वरूप साप्ताहिक था और यह स्वराज्य पार्टी का पत्र था। इसमें राजनीतिक घटनाएँ एवं किसान सभा के विवरण प्रकाशित होते थे।9  कालान्तर में ‘सैनिक’ स्वाधीनता-आन्दोलन का प्रवक्ता सिद्ध हुआ। अंग्रेज सरकार की वक्र दृष्टि सदैव इस पत्र पर लगी रहती थी। सरकारी धमकी, चेतावनी, जमानत, जब्ती आदि सरकारी अस्त्रों का वार प्राय: ‘सैनिक’ पर होता रहता था। 

    ‘सैनिक’ प्रधानत: राजनीतिक पत्र था किन्तु उसमें साहित्यिक प्रवृत्तियों के लिये भी पूर्ण स्थान था। ‘सैनिक’ की छवि एक निर्भीक पत्र की थी। 1931 ई. तक यह पत्र साप्ताहिक के तौर पर निकलता रहा, उसके पश्चात् इसका स्वरूप दैनिक पत्र का हो गया। किन्तु सरकार द्वारा जमानत माँगे जाने पर इसका प्रकाशन कुछ समय के लिये बन्द हो गया। यह पत्र सैनिक प्रेस आगरा से प्रकाशित होता था। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार के प्रकाशित साक्ष्यों से पता चलता है कि ‘सैनिक’ साप्ताहिक पत्र के 8 फरवरी, 1928 के अंक को अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था। प्रतिबन्धित अंक की प्रति उपलब्ध न होने के फलस्वरूप उसकी विस्तृत चर्चा कर पाना सम्भव नहीं है। ‘सैनिक’ पत्र की स्वाधीनता-आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी रही। स्वदेशी आन्दोलन को उसने अपने अंकों में पर्याप्त स्थान प्रदान किया। ‘सैनिक’ ने अपने 29 दिसम्बर, 1930 के अंक में देशवासियों को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये आवाहित करते हुए लिखा—‘केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार ही वह अस्त्र है, जिससे हम अपने शत्रु के पेट पर चोट कर सकते हैं।10 ‘‘सैनिक’ ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के अन्य कार्यक्रमों के बारे में लिखना जारी रखा। 6 जनवरी और 13 जनवरी, 1931 के अंकों में ऐसे कई लेख और टिप्पणियाँ प्रकाशित हुईं, जिनको आधार बनाकर ‘सैनिक’ से पुन: जमानत माँगी गयी।11 इस बार ‘सैनिक’ पत्र और इसके मुद्रक आदर्श प्रेस आगरा से भी 4 फरवरी, 1931 को दो-दो हजार रुपये की जमानत माँगी गयी।12  फलस्वरूप पत्र. और प्रेस ने जमानत की राशि जमा न कर पाने के कारण पुन: ‘सैनिक’ का प्रकाशन बन्द कर दिया। 

    ‘सैनिक’ पत्र अपने पूरे प्रकाशन के दौर में निर्भीक एवं निष्पक्ष रहा। पत्र के सम्पादक रमेश शर्मा को ‘सैनिक’ के 12 जनवरी, 1932 के अंक में ‘पूर्णाहुति’ नामक लेख के प्रकाशित करने के आधार पर एक वर्ष की कठोर कैद तथा दो सौ रुपया जुर्माना न देने पर तीन माह के अतिरिक्त कारावास का दण्ड दिया गया।13   
       
    इसके अलावा ‘बंगाल में दमन की होली’ शीर्षक लेख प्रकाशित करने के अपराध में छह माह के कठोर कारावास और एक सौ रुपये का अर्थदण्ड घोषित किया गया। जुर्माना की राशि समय पर न दे पाने के कारण छह सप्ताह का अतिरिक्त कारावास भोगना पड़ा।14

    अंग्रेज सरकार की दमन-नीति का शिकार सबसे अधिक आगरा से प्रकाशित ‘सैनिक’ पत्र रहा, जिसकी पुष्टि ब्रिटिश सरकार की घोर यातनाओं के विवरण के साथ सरकारी दस्तावेजों से होती है। नवम्बर 1939 में ‘सैनिक’ पत्र के सम्पादक को एक भयाक्रान्त एवं भ्रमित करनेवाला युद्ध-समाचार प्रकाशित करने के कारण सरकारी चेतावनी दी गयी। इसके बाद अप्रैल 1940 में युद्ध-सम्बन्धी एक लेख के प्रकाशन के सन्दर्भ में इस पत्र के सम्पादक और प्रकाशक पर भारत रक्षा कानून के अन्तर्गत मुकद्दमा चलाया गया। फिर अगस्त 1940 में ‘ब्रिटिश सरकार बलपूर्वक युद्ध का चन्दा एकत्रित कर रही है‘ शीर्षक लेख प्रकाशित करने के अपराध में प्रेस के मैनेजर को गिरफ्तार कर लिया और प्रेस को जब्त कर लिया गया। परन्तु सितम्बर 1940 तक प्रेस को चेतावनी देकर पुन: मुक्त कर दिया गया।

    वस्तुत: अंग्रेज सरकार उग्रवादी विचारधारावाले हिन्दी पत्रों के प्रति हमेशा सशंकित रहती थी। यही कारण था कि ‘सैनिक’ पत्र को अपने प्रकाशन-दौर में लगातार सरकारी आपत्तियों का कोपभाजन बनना पड़ा। 19 अक्टूबर, 1940 को विनोबा भावे की गिरफ्तारी पर ‘सैनिक’ ने अपना विरोध दर्ज किया तथा ‘युद्ध में सहायता करना एक धार्मिक पाप है’ शीर्षक से समाचार प्रकाशित करने के जुर्म में कार्यवाहक सम्पादक को गिरफ्तार किया गया और एक बार फिर सैनिक-प्रेस को जब्त किया गया। इसी सन्दर्भ में 13 नवम्बर, 1940 को उत्तर प्रदेश सरकार ने यह निर्णय लिया कि प्रेस को तब तक नहीं लौटाया जायेगा जब तक कि प्रेस का स्वामी और ‘सैनिक’ पत्र का प्रकाशक जमानत के तौर पर तीन-तीन हजार रुपये नहीं जमा करता। इसी प्रसंग में 10 नवम्बर, 1940 को ‘ऑल इण्डिया’ न्यूजपेपर्स एडिटर्स कान्फ्रेन्स’ की प्रथम बैठक दिल्ली में हुई। बैठक में एक प्रस्ताव के माध्यम से ‘सैनिक’ सहित अन्य पत्रों के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाहियों पर सरकार से पुनर्विचार की माँग की गयी।

    ‘सैनिक’ पत्र ने लगातार अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में अपनी आवाज बुलन्द रखी। फरवरी 1941 में कांग्रेस की दूसरी बैठक सम्पन्न हुई जिसमें ‘सैनिक’ पत्र के बारे में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा देरी करने पर आक्रोश व्यक्त किया गया तथा यह माँग की गयी कि ‘सैनिक’ के विरुद्ध आदेश वापस लिया जाये तथा प्रेस को लौटाया जाये। फलस्वरूप 10 फरवरी, 1941 को उत्तर प्रदेश सरकार ने निर्णय किया कि प्रेस को बिना शर्त वापस किया जा सकता है, परन्तु प्रेस के स्वामी तथा पत्र के सम्पादक से माँगी गयी जमानत न तो वापस की जा सकती है और न ही कम की जा सकती है; परन्तु बाद में प्रेस को वापस कर दिया गया, लेकिन ‘सैनिक’ का प्रकाशन रुक गया क्योंकि जमानत की राशि जमा नहीं की जा सकी। इस प्रकार लगभग पाँच माह तक ‘सैनिक’ का प्रकाशन बन्द रहा।15     

    इस प्रकार ‘सैनिक’ पत्र से सम्बन्धित विवाद काफी चर्चा का विषय रहा। सहयोगी पत्रों ने ‘सैनिक’ की हर सम्भव सहायता की। अन्तत: उत्तर प्रदेश सरकार ने भारत सरकार की सलाह पर प्रेस के स्वामी और पत्र के सम्पादक की जमानत-राशि में कमी करके पाँच सौ रुपये की नयी जमानत माँगी।16 ‘सैनिक’ के विरुद्ध उक्त कार्यवाहियों से स्पष्ट है कि अंग्रेजी सरकार ने हिन्दी पत्रों के दमन का हर सम्भव प्रयास किया, परन्तु ‘सैनिक’ इन अवरोधों से विचलित न होकर अपने कर्त्तव्यों के प्रति अदम्य उत्साह से पुनर्जीवित हुआ और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का कर्मठ सैनिक सिद्ध हुआ।

    साप्ताहिक ‘नया हिन्दुस्तान’ सज्जाद जहीर एवं शिवदानसिंह चौहान के सम्पादकत्व में इलाहाबाद से प्रकाशित होता था। ‘नया हिन्दुस्तान’ का 17 सितम्बर, 1939 का अंक अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रतिबन्धित घोषित किया गया। इस प्रतिबन्धित पत्र के साक्ष्य भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित हैं। पत्र का यह अंक मात्र बारह पृष्ठों का है जिसमें ज्यादातर लेख ही प्रकाशित हुए हैं। पत्र में राष्ट्रीय घटनाओं के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं को प्रमुखता प्रदान की गयी है। अंक में प्रथम पृष्ठ पर लखनऊ में आयोजित समाजवादी दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति की बैठक के वक्तव्य को प्रकाशित किया गया है जिसमें जयप्रकाश नारायण, मुंशी अहमदुद्दीन, सज्जाद जहीर, डॉ. जेड. ए. अहमद, मोहनलाल गौतम और यूसु़फ मेहर अली मौजूद थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान विश्व-स्तर पर चल रहे घटनाचक्र को रेखांकित करते हुए ‘नया हिन्दुस्तान’ ने पोलैण्ड, जर्मनी और फ्रान्स की सीमाओं पर हो रहे भीषण रक्तपात पर शोक व्यक्त किया है।17  ‘युद्ध की दैनिक डायरी’18 के अन्तर्गत 1 सितम्बर, 1939 से 9 सितम्बर, 1939, तक के मुख्य समाचारों की झाँकी प्रस्तुत की गयी। ‘नया हिन्दुतान’ का सम्पादकीय काफी विचारोत्तेजक होता था। ‘फासिज़्म का जमाना उठ गया’ उपशीर्षक पर सम्पादकीय टिप्पणी द्रष्टव्य है—‘खून के भूखे भेड़िये की तरह हिटलर और चेम्बरलेन भिड़ गये। यूरोप में बीस साल बाद फिर से भयंकर आग की लपटें धू-धू करके उमड़ पड़ी हैं। इस भीषण अग्निकाण्ड और नरहत्या का दोष हिटलर से ज्यादा चेम्बरलेन के सिर पर है। सोवियत यूनियन के खिलाफ साजिश करने की कोशिश में वह हमेशा हिटलर को बढ़ाता गया। सोवियत यूनियन से उसने सन्धि करने से परहे़ज किया।19 सम्पादक की यह इच्छा है कि फासीवाद और पूँजीवाद का अन्त होना चाहिए। स्वाधीनता आन्दोलन से सम्बन्धिन सभी पत्र-पत्रिकाओं का एक ही उद्देश्य था—भारत को स्वतन्त्रता दिलाना। हिन्दुस्तान की आजादी का भी दिन आ गया है, बिगुल बजने की देर है, राष्ट्रीय आजादी के करोड़ों सिपाही पंक्तियों में खड़े हुए वर्धा की ओर ऩजर लगाये बेचैनी से पैर पटक रहे हैं। वे अपने कौमी ह़क हासिल करने के लिये तैयार हैं। ‘हरेक हिन्दुस्तानी तैयार हो जाओ’ हुक्म आने को है।20  ‘विदेशी माल बायकाट’ शीर्षक से कलकत्ता कांग्रेस 1928 का प्रस्ताव भी छपा है।

    ‘नया हिन्दुस्तान’ साप्ताहिक पत्र में ‘पाठकों से’ शीर्षक काफी रोचक और पठनीय होता था। इस अंक की कुछ खास विशेषताओं को इस स्तम्भ के माध्यम से दर्शाया गया है—युद्ध के कारण तथा अपने नीति-सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण लेखों के कारण इस अंक में हम लड़ाई के मोर्चे से आयी खबरें नहीं दे रहे हैं और अभी बहुत-सा मैटर हमें रोक लेना पड़ा, जो अगले अंकों में जायेगा। हमें दु:ख है कि ‘नया हिन्दुस्तान’ का यह अंक समय पर नहीं निकल सका। लेकिन कुसूर हमारा नहीं, यूरोप में रणचण्डी का भीषण नाच शुरू हो गया है। आजादी, न्याय और इन्सानियत के नाम पर जनता को वरगलाकर लुटेरों की बाँट-लीला का शिकार बनाया जा रहा है।21  
 
    क्रान्तिकारी आन्दोलन के दौरान ‘नया हिन्दुस्तान’ ने सक्रिय सहयोग दिया। नौकरशाही के दमन के खिलाफ इसने अपने सम्पादकीय प्रकाशित किये। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इस पत्र ने लिखा— 'हमारे मुल्क में भी गवर्नर जनरल ने कानूनी राज्य खत्म कर ऑर्डिनेन्सों का राज्य कायम कर दिया है जिसकी वजह से तमाम लिखनबोलने की आजादी खतरे में पड़ गयी है। इसी डाँवाँडोल परिस्थिति में ‘नया हिन्दुस्तान’ इस बार देर से आपके पास पहुँच रहा है। साथ ही हम अपने पाठकों को इस बात का विश्वास दिलाना चाहते हैं कि जब तक बिलकुल असम्भव न हो जाये, हम ‘नया हिन्दुस्तान’ निकालते रहेंगे।'22    

    राष्ट्रीय आन्दोलन में जन-जन को राष्ट्रीय विचारधारा में समन्वित करने हेतु स्वदेशी की भावना से ओत-प्रोत साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ का प्रकाशन गोरखपुर से 6 अप्रैल, 1919 को आरम्भ हुआ। अपने उग्र विचारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण ‘स्वदेश’ को जन्म से मृत्यु तक सरकारी कोपदृष्टि का शिकार होना पड़ा। प्रकाशन के पूर्व ही ‘स्वदेश’ से पाँच सौ रुपये की जमानत माँगी गयी थी।23 हिन्दी पत्रकारिता के क्रान्तिकारी प्रकाशनों के इतिहास में गोरखपुर से प्रकाशित ‘स्वदेश’ का विजयांक विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा। ‘स्वदेश’ ने ब्रिटिश सत्ता को खुली चुनौती दी। 7 अक्टूबर, 1924 के ‘स्वदेश’ के विजयांक में ऐसी विद्रोही तथा क्रान्तिकारी पाठ्य सामग्री थी कि वह तत्काल सरकार द्वारा जब्त किया गया।24 इस अंक में प्रसिद्ध व्यक्तियों के कुल उनतालीस लेख और कविताएँ प्रकाशित हुईं। वैसे तो सम्पूर्ण अंक ही विद्रोह और क्रान्ति को प्रतिध्वनित करने वाला था, परन्तु ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में इसमें प्रकाशित भावी क्रान्ति (लेखक त्रिदण्डी), विजय (कविता, लेखक पण्डित रामचरित उपाध्याय) एवं विप्लव राग माँ (कविता, लेखक श्री रामनाथलाल ‘सुमन’) अत्यधिक आपत्तिजनक थे।25  1924 के ‘स्वदेश’ के विजयांक विशेषांक के सम्पादक पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ थे।

    ‘स्वदेश’ साप्ताहिक ने भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के लिये पाठकों से अपील की। ‘वह हृदय नहीं है पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं’ के माध्यन से भारतवासियों को कर्त्तव्य-कर्म के लिये प्रेरित किया था। ‘स्वदेश’ का प्रकाशन उस समय प्रारम्भ हुआ जब हिन्दी-पत्रों का कोई नामलेवा नहीं था। पराधीन भारत में, खासकर उत्तर प्रदेश के निवासियों में स्वराष्ट्र-प्रेम की भावना जागृत करना ही ‘स्वदेश’ का मूल सिद्धान्त था। उसके प्रथम पृष्ठ पर अंकित होता था—

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।26       

    ‘स्वदेश’ का विजयांक प्रकाशित होते ही विवादग्रस्त हुआ। ‘स्वदेश’ में प्रकाशित सरकारी दृष्टि से आपत्तिजनक लेखों एवं कविताओं के प्रकाशन के अपराध में पं. दशरथ प्रसाद द्विवेदी को भारतीय दण्ड विधान की धारा 124-अ के अन्तर्गत दो वर्ष के कठोर कारावास और पचास रुपये अर्थदण्ड की सजा प्राप्त हुई। अर्थदण्ड न दे पाने की स्थिति में तीन माह का अतिरिक्त कारावास का भी दण्ड मिला।27 पत्र के सम्पादन के अपराध में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ को भी उपर्युक्त धारा के अन्तर्गत नौ माह के कारावास का दण्ड मिला।28  इन राजाज्ञाओं के विरुद्ध पं. दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने उच्च न्यायालय में अपील भी की थी, परन्तु वह अस्वीकृत कर दी गयी।29 

    ‘स्वदेश’ पत्र का मुख्य मनोरथ था स्वराज्य स्थापित होने पर ही हम अपने देश को स्वदेश का सौभाग्य-दिवस होगा। ईश्वर हमें पौरूष दे कि ‘स्वदेश’ जिस कमिश्नरी अथवा जिस खण्ड से प्रकाशित हो रहा है, वहाँ की भरपूर सेवा करते हुए वह अपने प्रान्त और देश के हर एक-एक कोने तक में नये जीवन का संचार कर दे।30    

    ‘स्वदेश’ का मुख्य उद्देश्य था स्वराज्य की प्राप्ति। इसी पत्र के प्रयास से गोरखपुर कमिश्नरी में अंग्रेजी सरकार के प्रति आग उगलनेवालों की वृद्धि हुई। राष्ट्रभक्तों एवं स्वतन्त्रता-संग्राम के सेनानियों का बहुत बड़ा जत्था ‘स्वदेश’ ने तैयार किया। क्रान्तिकारियों के लेख जब ‘स्वदेश’ में छपने लगे तो तत्कालीन जिलाधिकारियों ने पत्र के प्रति कड़ा रूख अपनाया तथा जमानत की रकम बढ़ाये जाने का आदेश दिया। ‘स्वदेश’ के विजयांक विशेषांक के कारण ब्रिटिश साम्राज्य के अधिकारी आतंकित हुए। 1919 से 1938 तक तमाम परेशानियों के बावजूद निकलनेवाले साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ जिसको अमर शहीद श्रद्धेय श्री गणेशशंकर जी विद्यार्थी का आशीष प्राप्त था, उसी पत्र के सम्पादन का भार ‘उग्र’ जी को 1924 के विजयांक का मिला था।31      

    ‘स्वदेश’ के विजयादशमी विशेषांक में कुल पृष्ठों की संख्या पचास थी जिसमें प्रमुख रूप से बाबूराव विष्णु पराडकर, हेरम्ब मिश्र, बाबा राघवदास पाण्डेय, बेचन शर्मा ‘उग्र’, कृष्णदेव प्रसाद गौड़, जयशंकर प्रसाद, शान्तिप्रिय द्विवेदी, लाला भगवानदीन तथा रामनाथ ‘सुमन’ के लेख संग्रहीत हैं। आपत्तिजनक रचनाओं के अन्तर्ग—भावी क्रान्ति (श्री त्रिदण्डी), विजय (रामचरित उपाध्याय), विप्लव राग और माँ (रामनाथलाल ‘सुमन’) आदि को रखा जा सकता है।32 ‘स्वदेश’ के उग्र राष्ट्रप्रेम का प्रमाण रामनाथ लाल ‘सुमन’ द्वारा लिखित लेख ‘हिन्दी के साप्ताहिक पत्र’33 से मिलता है जो कि इस अंक का प्रमुख लेख है। विजयांक में प्रकाशित ‘हमारी दशा तुम्हारा स्वागत’34  में रणचण्डी दुर्गा का आवाहन किया गया है। यह लेख श्री त्रिदण्डी द्वारा लिखा गया है जिसमें भारतीयों की दयनीय स्थिति का मार्मिक चित्रण किया गया है, यथा—‘आओ माँ! एक बार तुम फिर आओ। देखो तुम्हारे भक्त कैसी दीनता, कैसी हीनता और कैसी विषमता की घड़ियाँ काटकर आज तुम्हारे स्वागत के लिये अपने हृदय का द्वार खोले तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।35 ‘स्वदेश’ पत्र अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक समस्याओं का प्रामाणिक दस्तावेज है। ‘स्वदेश’ की तेजस्विता का ज्ञान प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि तत्कालीन हिन्दी एवं अंग्रेजी पत्रों के विचारों का मूल्यांकन किया जाये। प्रयाग से प्रकाशित होनेवाले पत्र ‘स्टार’ ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा—‘‘गोरखपुर को इस बात का गर्व होना चाहिए कि उसके यहाँ से हिन्दी साप्ताहिक ‘स्वदेश’ का जन्म हुआ। राष्ट्रीय दृष्टि से यह पत्र उनके लिये सचमुच ही बहुमूल्य है जिनके लिये इसकी आवश्यकता थी। हमारे सहायोगी का उत्साहयुक्त और जोरदार लेख लिखने का ढंग ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार कानपुर के ‘प्रताप’ का। हमें उसका गोरखधन्धा बहुत ही पसन्द है। हमारी मनोकामना है कि पत्र उपयोगी ढंग पर मुद्दतों बरकरार रहे।’’36 उस समय के एक प्रतिष्ठित पत्र ‘आज’ ने स्वदेश के बारे में अपनी राय देते हुए सम्पादकीय में लिखा, ‘प्रतिकूल परिस्थितियों में इन दोनों (स्वदेश, वर्तमान) अंकों के सम्पादकों ने जितना और जैसा संग्रह किया है, उसके लिये हम दोनों को बधाई देते हैं। दोनों का गद्य-भाग पद्य-भाग से अच्छा है। कविता के लिये कविता न छापकर यदि पत्र-सम्पादक काव्य को ही आश्रय देने का निश्चय कर लें तो सम्भवत: साहित्य की श्रीवृद्धि होगी और तुकबन्दी करनेवालों का निरुत्साह होगा, जिसकी बड़ी आवश्यकता है।37    

    ‘स्वदेश’ के ऐतिहासिक एवं चर्चित विशेषांक विशेषांक के कुछ अंशों पर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने आपत्ति जाहिर की। विशेषांक के सम्पादक पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ (स्वदेश के विशेषांक का सम्पादन करने के कारण) पर ता़जीराते-हिन्द की द़फा 124 के अनुसार राजद्रोह का मुकद्दमा चल रहा था, वह आज खत्म हो गया। जिला मजिस्ट्रेट ने उनको नौ महीने सख्त कैद की सजा दी है।38 उग्र जी के कठोर कारावास पर हिन्दी पत्र ‘आज’ ने अपनी सम्पादकीय टिप्पणी में लिखा—उग्र जी, हमें यह जानकर दु:ख हुआ कि श्री बेचन शर्मा उग्र को गोरखपुर में मजिस्ट्रेट ने 9 महीने का सपरिश्रम कारावास का हुक्म दिया है। पाठक जानते हैं कि आपने ‘स्वदेश’ के विशेषांक का सम्पादन किया था। उसी अंक के कुछ अंशों पर आपत्ति कर सरकार ने प्रकाशक श्री दशरथ प्रसाद द्विवेदी पर मुकद्दमा चलाया और उन्हें कारावास का दण्ड दिया। वे ही ‘स्वदेश’ के स्थायी सम्पादक भी थे। यद्यपि कानूनन जिम्मेदारी अस्थायी सम्पादक की हो सकती है, पर इस विशेष परिस्थिति में इतनी कड़ी सजा की कोई आवश्यकता न थी। हमें आशा है कि श्री उग्र जी प्रसन्नतापूर्वक इस कष्ट को सहकर स्वास्थ्य-सहित वापस आवेंगे और कारगार के भीतर भी साहित्य की सेवा करते रहेंगे। इसके लिये जेल-अधिकारियों को उन्हें सुविधा भी अवश्य देनी चाहिए।39    नौकरशाही एवं अंग्रेजी सरकार के कोप को सहन करते हुए ‘स्वदेश’ साप्ताहिक पत्र ने युक्त प्रान्त की जो सेवा की वह अविस्मरणीय है। प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पत्रकार श्री रामनाथ लाल ‘सुमन’ के निम्नलिखित विचार ‘स्वदेश’ के गौरव को रेखांकित करते हैं—‘स्वदेश पहले बहुत सुन्दर निकलता था। दु:ख है कि अब उसका यौवन नष्ट हो गया है। शक्ल देखने से ज्ञात होता है कि मानो उसने संन्यास ले लिया है। नौकरशाही के प्रहार और स्वदेश-सेवा में आत्मबलिदान करने के कारण उसकी यह आर्थिक दुर्दशा हो रही है, यह हमारे लिये लज्जा की बात है। युक्त प्रान्त में पहले यह एक उच्च कोटि का पत्र समझा जाता था, पर दैवदुर्विपाक से आज का हो गया है। कृष्ण जन्माष्टमी पर इसके पहले बहुत सुन्दर अंक निकलते थे। अब बहुत दिनों से नहीं निकलते। हिन्दी में पहला पत्र है जिसने विज्ञापनों से अपना कलेवर मुक्त रखा है। यह दशरथ जी का ही हृदय है जो थोड़ी-सी ग्राहक-संख्या रहने पर भी निरन्तर घाटा सहकर भी इसे निकाले जा रहे हैं।40 सरकार की दमन-नीति के बाद भी ‘स्वदेश’ के प्रकाशन का क्रम अवरूद्ध नहीं हुआ।
    
    ‘वालण्टियर’ टोडर सिंह तोमर के सम्पादकत्व में कानपूर से प्रकाशित होनेवाला मासिक पत्र था। यह उग्र विचारधारा से सम्बन्धित पत्र था, जो कि रामप्रसाद द्विवेदी, सरस्वती प्रेस कानपुर एवं पं. गंगानारायण अवस्थी, कानपुर द्वारा क्रमश: मुद्रित एवं प्रकािशत होता था। नवम्बर 1924 को इस पत्र का अंक नहीं निकल सका। अत: नवम्बर एवं दिसम्बर का संयुक्तांक प्रकाशित किया गया जिसकी आपत्तिजनक एवं सरकार-विरोधी सामग्री प्रकाशित करने के आरोप में अंग्रेजी सरकार ने ‘वालण्टियर’ का यह संयुक्तांक प्रतिबन्धित कर दिया। ‘वालण्टियर’ का यह प्रतिबन्धित अंक कुल बत्तीस पृष्ठों का है जिसमें अनेक स्वन्तत्रता-सेनानियों की रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। पत्र के प्रथम पृष्ठ पर पं. गगांनारायण अवस्थी की ‘चरखा माहात्म्य’41  कविता काफी विचोरोत्तेजक है। ‘विनय’42  शीर्षक लेख में एक वालण्टियर आपस में विश्वास पैदा करने की बात करता है—बुरा न मानिये आपको, पेलपीटेशन ऑफ हार्ट (दुविधा) हो गया है। जब तक इलाज न होगा, आप बेकार हैं और इसका नुस्खा सिर्फ एक ही अब तक बड़े-बड़े वैद्यों ने बताया है— श्रद्धायुक्त अटल विश्वास। अब हाथ जोड़कर निवेदन है कि यह सब आपास के झगड़े (जो कि कमांडिंग जनरल की इच्छा से खिलाफ हैं) भेट दीजिए (अफसरों का झगड़ा देश का नाश करेगा) और अपनी कमान सँभालिये। वालण्टियर सम्मुख खड़ा मुँह की ओर देख रहा है कि तब और क्या हुक्म मिले।43 अपने ‘वालण्टियर’ के कर्त्तव्यों को रेखांकित करते हुए सम्पादक लिखते हैं—‘मेरे भाई क्षमा करेंगे, वालण्टियर का काम अपने कर्त्तव्य और नेताओं के हुक्म की ओर देखना है, और नेताओं के हुक्म की ओर देखना है, और अगर मान भी लीजिए कि कोई नेता क्षेत्र छोड़कर दुश्मन (गवर्नमेण्ट) से जा मिले तो क्या वालण्टियर भी ऐसा करे? वालण्टियर भाइयो! अपने अफसर का कोई ऐसा कर्त्तव्य जिससे अपनी ड्यूटी में बाधा पहुँचे, नकल करने योग्य नहीं है।’44 ‘वालण्टियर’ का ‘कानूनी चकमा’ स्तम्भ काफी रोचक होता था, जिसमें अनेक विषयों पर टीका-टिप्पणी प्रकाशित की जाती थी। ‘वालण्टियर’ ने किसानों को सम्बोधित करते हुए लिखा—किसानों का भला तभी हो सकता है जब हर एक किसान दूसरे से पूरी और सच्ची ‘हमदर्दी करे, बातों की नहीं किन्तु अमल की। इसलिए जब तक किसान उनकी मदद (पैसे की नहीं, बल्कि संगठन की) न करेंगे, अत्याचारों से छुटकारा कठिन है। भाई किसानो! सोचो और शर्माओ।45  ‘वालण्टियर’ ने अंग्रेजी सरकार की खुली आलोचना की—‘ब्रिटिश राज की नींव केवल स्वार्थ और कायरता पर रखी गयी है। उसकी मरम्मत को मिस्तरी इस मनुष्यता और प्रेम के युग में कहाँ से लाया जाये? जब कोई अन्य देशी सरकार भी सिवा इस अटकलपच्चू गवर्नमेण्ट (ब्रिटिश) ऐसी पशुता की कायल नहीं रही और वक्त पर एक ईंट तक देने को तैयार नहीं तो सिवाय इसके अब कोई चारा नहीं कि ऐसे राजमजदूर (कर्मचारी) इंग्लैण्ड से ही मँगाये जायेँ, वरना इसकी मरम्मत (राज्यप्रबन्ध) असम्भव है क्योंकि लाल पगड़ी (पुलिस) का कलेजा भी तो भारतीय खून का ऋणी है।’46 इस प्रकार के अनेक उद्धरण ‘वालण्टियर’ के विभिन्न अंकों में देखे जा सकते हैं, जिनसे घबराकर ब्रिटिश सरकार ने इस पत्र पर प्रतिबन्ध लगाया।

    सन् 1922 में ‘चाँद’ का प्रकाशन हिन्दी साहित्य और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। साहित्यिकता के आवरण में राजनीतिक चेतना, स्त्री-शिक्षा, सामाजिक सुधार आदि विषयों पर उत्कृष्ट सामग्री का प्रकाशन कर ‘चाँद’ ने हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नये कीर्तिमान की स्थापना की। ‘चाँद’ के अनेक अविस्मरणीय विशेषांकों का प्रकाशन हुआ जिनमें मारवाड़ी अंक, फाँसी अंक सर्वाधिक चर्चित रहे। अपने आरम्भिक दौर में ‘चाँद’ का स्वर राजनीतिक कम सामाजिक सुधार का अधिक था, परन्तु बाद में स्वाधीनता आन्दोलन के उग्र प्रवाह में यह क्रान्तिकारी विचारों की प्रमुख पत्रिका बन गयी। वस्तुत: इसके सम्पादक एवं प्रकाशक रामरख सिंह सहगल थे, जिन्होंने इलाहाबाद की हिन्दी पत्रकारिता के क्रान्तिकारी स्वरूप को बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। ‘चाँद’ के प्रकाशन की योजना दो वर्ष पहले यानी 1920 में ही बनी थी, पर पन्द्रह सौ रुपये की जमानत न दे पाने के कारण इसका प्रकाशन स्थगित कर दिया गया था।47 सर्वप्रथम 1920 ई. में साप्ताहिक पत्रिका ‘चाँद’ को रामरख सिंह सहगल ने ज्ञानानन्द ब्रह्मचारी के सम्पादकत्व में प्रकाशित किया। परन्तु शीघ्र ही यह साप्ताहिक नवम्बर, 1922 से मासिक रूप में प्रकाशित होने लगा। मासिक ‘चाँद’ के प्रथम अंक में ‘कामना’ कविता मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी। पत्रिका के प्रत्येक माह के पृष्ठ-संख्या दो पर ‘सम्पादकीय विचार’ शीर्षक के अन्तर्गत अग्रलेख प्रकाशित किये जाते थे। ये अग्रलेख सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, राष्ट्रीयता तथा अन्धविश्वास आदि विषयों पर लिखे जाते थे। इन अग्रलेखों में साहित्य की अमूल्य निधि छिपी हुई है, जो अभी तक हिन्दी साहित्य के सम्मुख नहीं पहुँच पायी है। नन्दकिशोर तिवारी, शुकदेव राय, चंडीप्रसाद ‘हृदयेश’, मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव एवं चतुरसेन शास्त्री इसके सम्पादक रहे। सन् 1933 में महादेवी वर्मा भी इसकी सम्पादिका के रूप में आयीं और उसके अन्तिम अंक तक उसकी सम्पादिका रहीं।

    मासिका हिन्दी पत्र ‘चाँद’ ने समाज, साहित्य आदि विषयों पर इतने अधिक विशेषांकों को प्रकाशित किया कि पत्रकारिता-जगत में एक नयी परम्परा की शुरुआत हुई। ये विशेषांक हिन्दी साहित्य के अनोखे और आकर्षक रत्न हैं। उस समय किसी भी पत्रिका ने इतने अधिक संगठित एवं सुपाठ्य विशेषांक प्रकाशित नहीं किये थे। कुल मिलाकर ‘चाँद’ ने सोलह विशेषांक निकाले जिनमें मारवड़ अंक एवं फाँसी विशेषांक सबसे अधिक लोकप्रिय साबित हुए।

    भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के महत्त्वपूर्ण पड़ावों में हिन्दी के मासिक पत्र ‘चाँद’ का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। ‘चाँद’ पत्रिका का फाँसी अंक नवम्बर 1928 में प्रकाशित हुआ, जिसमें विचारोत्तेजक एवं क्रान्तिकारी सामग्री प्रकाशित हुई। ब्रिटिश सरकार ने घबड़ाकर तुरन्त उसे जब्त कर लिया। ‘चाँद’ के फाँसी अंक के सम्पादक चतुरसेन शास्त्री थे, जिन पर इसके सम्पादन के आरोप में मुकद्दमा भी चलाया गया। ‘चाँद’ के फाँसी अंक की ‘विनयांजलि’ के अन्तर्गत सम्पादक ने लिखा—‘चाँद की बहिनों, भाइयों और बुजुर्गों के हाथ में दीपावली के शुभ अवसर पर फाँसी अंक जैसा हृदय को दहलानेवाला साहित्य सौंपते हमारा हाथ काँपता है’।48  हृदय को दहलानेवाले साहित्य के प्रकाशन से अंग्रेजी सरकार भयभीत हो गयी। विनयांजलि के अन्तर्गत ही सम्पादक ने आगे लिखा है— वह अकेला प्राण इतना छटपटाकर ‘चाँद’ के दो लाख पाठक-पाठिकाओं को एक मनन करने योग्य, कम-से-कम वर्ष तक न भूलने योग्य बिलकुल अद्भुत और नवीन विषय प्रदान कर रहा है और यह भी आशा करता है कि ‘चाँद’ ने प्रयास के जिस आन्दोलन की नींव डाली है, वह तब तक समाप्त न होगा, जब तक भारत से इस कलंकित दृश्य को न उठा देगा।49 ‘चाँद’ के फाँसी अंक में कुछ विशिष्ट रचनाएँ प्रकाशित हुईं, जिसके कारण अंग्रेजी सरकार का़फी भयभीत हुई। इन रचनाओं में कविता, कहानी, निबन्ध आदि शामिल थे। प्राणदण्ड (रामचरित उपाध्याय), फाँसी (विश्वम्भरनाथ कौशिक), फन्दा (चतुरसेन शास्त्री), जल्लाद (श्री उग्र), फाँसी के तख्ते से (शोभाराम) आदि ऐसी रचनाएँ थीं जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहरे तक आन्दोलित किया। साथ ही ब्रिटिश सरकार का मुखौटा उतारकर उसकी सही तस्वीर सामने पेश की। ‘चाँद’ के फाँसी अंक में बहुत सारी ऐसी रचनाएँ भी प्रकाशित हुईं जिनके लेखक अज्ञात हैं, यथा—एक निमाड़ी, एक एम.एस.सी., श्रीयुत्, एक राष्ट्रीय आत्मा, जैसे छद्म नामों से भी रचनाएँ लिखी गयीं। इसके अलावा ‘चाँद’ में ‘दुबे जी की चिट्ठी’ नाम से स्थायी स्तम्भ भी था जिसमें विचारोत्तेजक विषयों पर टिप्पणी रहती थी।

    प्रयाग से प्रकाशित मासिक ‘चाँद’ के फाँसी अंक के जब्त होने के बाद महकौशल क्षेत्र में उसका प्रचार एवं प्रसार और अधिक हो गया। वह अब मात्र साहित्यिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण नहीं, बल्कि उसका स्वरूप राष्ट्रीय हो गया। ‘चाँद’ अपने पृष्ठों में सामाजिक एवं राष्ट्रीय आन्दोलन को पर्याप्त स्थान प्रदान करता था। हिन्दी पत्र ‘कर्मवीर’ ने ‘चाँद’ के कुछ लेखों पर अनुकूल टिप्पणियाँ करते हुए उन्हें प्रकाशित किया।50 सन् 1857 की क्रान्ति से सम्बन्धित अनेक लेख ‘चाँद’ ने अपने फाँसी अंक में प्रकाशित किये। इनमें ख्वाजा हसन नि़जामी देहलवी का लेख ‘सन् 1857 में दिल्ली के लाल दिन’51 काफी महत्त्वपूर्ण हैं। 

    ‘चाँद’ ने इस फाँसी अंक में 1857 के कुछ संस्मरण 52 - लेखों में भी अंग्रेजी पत्रों में प्रकाशित सामग्री और बाल्स, काये, होम्स, जार्ज केम्पबेल आदि के अभिलेखों के आधार पर अंग्रेजों द्वारा किये गये अत्याचारों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। इसी अंक में एक अज्ञातनामा लेखक का ‘विप्लव यज्ञ की आहुतियाँ’53 शीर्षक लेख है। इस लेख के बारे में यह धारणा व्यक्त की जाती है कि इसे अमर शहीद सरदार भगत सिंह ने लिखा था। ‘ज्ञान भारती’ ने इस लेख का कुछ अंश ‘कूका विद्रोह’ शीर्षक के अन्तर्गत शहीद भगत सिंह के नाम से उद्धृत किया है।54 लेख में क्रान्तिकारियों का जीवन-परिचय है, साथ ही अंग्रेजी दासता के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्तिकारी गतिविधि का दिग्दर्शन है।

    ‘चाँद’ के फाँसी अंक में कूका विद्रोह, चाफेकर बन्धु से लेकर काकोरी के अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल आदि का जिक्र मिलता है, जिसके अन्तर्गत 1857 से लेकर उस समय तक की सशस्त्र क्रान्तिकारी गतिविधि का एक चलती हुई परम्परा में होना भलीभाँति व्यक्त हुआ है।

    ‘बलिदान’ मासिक पत्र बलिदान कार्यालय, राजपाल ऐण्ड सन्स, अस्पताल रोड, लाहौर से प्रकाशित होता था। यह पत्र आर्यसमाज के विचारों से प्रभावित था। इसके सम्पादक सत्यकाम विद्यालंकार एवं भीमसेन वर्मा थे। इसकी शुरुआत 1929 ई. में हुई। अपनी सात्त्विकता एवं आर्यसमाजी विचारों के माध्यम से इसने राष्ट्र की भरपूर सेवा की। इसका वार्षिक मूल्य एक रुपया दो आना हुआ करता था। ‘बलिदान’ पत्र को शुरू करनेवाले धर्मवीर महाराज राजपाल थे, जिन्होंने अपने अथक् परिश्रम द्वारा इस पत्र को जीवनदान दिया। 

    भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएँ सदैव अंग्रेजी शासन की आँखों में खटकती थीं। मासिक पत्र ‘बलिदान’ ने अप्रैल 1935 ई. में धर्मवीर महाराज राजपाल की पुण्य स्मृति में ‘बलिदान’ का नववर्षांक प्रकाशित किया। यह अंक कुल चौरासी पृष्ठों का था, जिसमें लगभग चालीस रचनाएँ प्रकाशित हुईं। ‘बलिदान’ के इस नववर्षांक को अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया। नववर्षांक के प्रथम पृष्ठ पर सूर्यदेव शर्मा साहित्यालंकार द्वारा रचित वैदिक राष्ट्रगीत छपा है जो निम्नवत् है—

सत्य सनातन ज्ञान बृहत् तप, क्षात्र तेजव्रतधारी।
पृथ्वी को धारण करते हैं कर्मवीर नर नारी।
भूत, भविष्यत, वर्तमान में भूपालन करने हारी।
बने विश्व में यही हमारी विमल कीर्ति भरनेवाली।55  

    ‘सफल प्रकाशक राजपाल’56 लेख में राजपाल की समाज-सेवा को याद किया गया है। आर्यसमाज के साहित्य की श्रीवृद्धि करने में उनके योगदान को सराहा गया है। आचार्य हरिहर शास्त्री का लेख ‘बलिदान’ की आत्मकहानी पत्र के बारे में सटीक जानकारी प्रस्तुत करता है—‘मैं चार अक्षरों पाँच मात्राओं या दो शब्दों का बना एक शब्द हूँ, मेरी महिमा वेद, पुराण, स्मृति, धर्मशास्त्र सब ही गाते हैं। गृहस्थ का कर्म-धर्म मुझ बिन अधूरा है। मैं भोजन सदा मीठा ही करता हूँ। कोई सुधारक मुझ बिन अधूरा है, नाम का नहीं, धाम का नहीं। आदि से अन्त तक प्रत्येक व्यक्ति मुझे ही अपनाता गया व अपनाता जायेगा। लोग पूछते हैं कि तुम्हारे माता-पिता का नाम क्या है? सुनिये! मेरी माता-जननी लाहौर और पिता राजपाल। और मैंने यह रूप धारण किया सन् 1929 ई. में। इससे पहले भी मैं था, पर शक्तिरूप में था।’57 ‘बलिदान’ के नववर्षांक में प्रकाशित अनेक लेख एवं कविताएँ ऐसी थीं जो कि ब्रिटिश सरकार के लिये आपत्तिजनक थीं। भारतीय नवयुवकों का आह्वान रामरत्न गुप्त ने अपनी कविता ‘उठ जाग’ में किया है।58   

    हिन्दी की पत्रकारिता की यह अवधि बड़ी संघर्षपूर्ण थी। ‘बलिदान’ ने इसी दौरान अपना नववर्षांक प्रकाशित किया। सरकारी दमन-नीति का कुत्सित रूप इस समय काफी भयावह था। सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार का लेख ‘मृत्यु में जीवन’59 नववर्षांक का महत्त्वपूर्ण लेख है। हरिकृष्ण जी प्रेमी की ‘बहिन की राखी’ कविता छह खण्डों में प्रकाशित हुई है जो कि इस अंक में चर्चित रचना है—

बहन! बाँध दे रक्षाबन्धन, मुझे समर में जाना है।
अब के घन गर्जन में रण का भीषण छिड़ा तराना है।
अन्तिम बार बाँध ले राखी, कर ले प्यार आखिरी बार।
मुझको जालिम ने फाँसी को, डोरी कर रखी तैयार।60    

‘अपूर्व बलिदान’61 शीर्षक में गणेशशंकर विद्यार्थी के निर्भीक पत्रकार जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है

‘बलिदान’ मासिक पत्र में ‘सम्पादक की डाक’ स्थायी स्तम्भ में पाठकों की चिट्ठियाँ एवं प्रतिक्रियाएँ प्रकाशित होती थीं। नववर्षांक के सम्पादकीय में राजपाल के गौरवपूर्ण जीवन की चर्चा है। सम्पादकीय की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं—

दास्ताने जिन्दगी अब क्या कहें! मरने जीने की कहानी क्या कहें!
लेट जाते हैं दिल अपना थामकर, उ़फ तेरी वह जाँ-फिशानी क्या कहें!
आशियाँ पर किस तरह बिजली गिरी, चार तिनकों की कहानी क्या कहें।62  

    ‘बलिदान’ के नववर्षांक के बारे में भीमसेन वर्मा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा—‘बलिदान’ के पाठक चिरकाल से इस विशेषांक को देखने के लिये उत्सुक थे। अब उनकी वस्तु उनके हाथों में है। विशेषांक क्या है? और इतने सस्ते पत्र का विशेषांक कितना सुन्दर होना चाहिए? पाठक स्वयं परख लें। हाँ, हमने इसे सुन्दर बनाने में भरसक प्रयास किया है। इसलिए हमें सन्तोष है। क्योंकि यह हमारा प्रथम आयोजन था इसलिए इसमें अनेक त्रुटियाँ रह गयी हैं, इसके लिये पाठकों से क्षमा चाहते हैं।63  

    हिन्दी की प्रतिबन्धित पत्र-पत्रिकाओं में मासिक पत्रिका ‘अलंकार’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस पत्रिका के सम्पादक आचार्य देव शर्मा ‘अभय’ एवं भीमसेन विद्यालंकार थे। यह राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक चेतनावाली पत्रिका थी जिसमें अनेक महान् रचनाकारों की रचनाएँ छपा करती थीं। दिसम्बर 1934 को अंक अपनी उग्र वैचारिकता के कारण अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रतिबन्धित किया गया जिसकी एक प्रति आज भी भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद है। पत्रिका का यह प्रतिबन्धित अंक लगभग इकसठ पृष्ठों का है। अंक में कविताएँ प्रमुखता से छापी गयी हैं। ‘वन्देमातरम्’ नामक कविता कवीन्द्र रवीन्द्र ने लिखी है, जिसका अनुवाद भगवानदास बालेन्दु ने किया है और पत्रिका के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई है। कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं—

जहाँ पूर्ण की ओर अथम श्रम अपने हाथ बढ़ाता है।
जहाँ ज्ञान का स्रोत व्यसन मरु में पथ नहीं भुलाता है।
जहाँ ध्यान जाता विचार कर्र्त्तव्य ओर होकर तेरा।
उस स्वातन्त्र्य-स्वर्ग को जागृत कर दो पिता देश मेरा।64   

पण्डित श्याम जी कृष्ण वर्मा स्वतन्त्रता-संग्राम के सक्रिय सेनानी थे। उन्होंने यूरोप में रहकर अनेक क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन किया। वह स्वामी दयानन्द के प्रथम शिष्यों में से एक थे। पत्रिका में उन पर लेख नरेन्द्रदेव विद्यालंकार ने लिखा है जिसमें श्याम जी कृष्ण वर्मा का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। यूरोप में वर्मा जी की स्वतन्त्रता-आन्दोलन से सम्बन्धित गतिविधयों की चर्चा की गयी है।65  ‘हमारा अनाचार’66  लेख प्रभुदास जी गाँधी द्वारा रचित है। इसमें भारतीय समाज की कुरीतियों पर प्रहार किया गया है। समाज में व्याप्त अस्पृश्यता को दर्शाया गया है। गाँधी जी के ‘हरिजन’ पत्र के उद्धरण भी दिये गये हैं।

    ‘अलंकार’ पत्रिका का स्थायी स्तम्भ था’ असली भारतवर्ष’ जिसमें देश-विदेश एवं समाज के हर वर्ग की संक्षिप्त खबरों के लिये स्थान रहता था। इसी के अन्तर्गत 1934 के अंक में ग्राम-उद्योग, संघ, गाँव की दरिद्रता, सच्चा समाजवाद, बेकरी का इलाज और ‘नीति से कोई विरोध नहीं’ शीर्षक से संक्षिप्त खबरें दी गयी हैं। ‘सुमन संचय’ स्तम्भ भी ‘अलंकार’ पत्रिका का स्थायी स्तम्भ था जिसमें राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से समाचार लेकर उनके नाम के साथ छापे जाते थे। ‘अलंकार’ का सम्पादकीय विचारोत्तेजक होता था। ‘आत्मनिरीक्षण’ में ‘अलंकार’ की प्रशंसा करते हुए उसकी कुछ त्रुटियों को सामने रखा गया है— ‘अलंकार’ एक मासिक पत्र है इसलिए इसमें जो लेख और कविताएँ प्रकाशित होनी चाहिए वे ऐसी होनी चाहिए कि जो उपयोगी होने के साथ, उनमें यह भी शामिल हो कि वे हिन्दी साहित्य की चिरस्थायी सम्पत्ति बन सकें। ऐसे लेख और कविताएँ बिना कठोर परिश्रम और सतत चिन्तन के बिना नहीं लिखी जा सकतीं।67  ‘अलंकार’ के इसी प्रतिबन्धित अंक में पत्रिका एवं डाकखाना के बीच चल रहे विवाद की भी चर्चा की गयी है। ‘अलंकार’ नाम हिन्दी में छापने पर डाकखानेवालों का विरोध था। ‘अलंकार’ मासिक पत्रिका नवयुग प्रेस लाहौर से मुद्रित एवं प्रकाशित होती थी।

    भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ी ‘क्रान्ति’ साम्यवादी मासिक पत्रिका के सम्पादक राजाराम शास्त्री थे। ‘क्रान्ति’ पत्रिका नेशनल प्रेस, कानपुर द्वारा मुद्रित एवं प्रकाशित होती थी। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के अन्तिम दौर में इस पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘क्रान्ति’ ने अपना मानदण्ड स्थापित किया। ‘क्रान्ति’ अपने नाम के अनुरूप ही उग्र विचारोंवाली पत्रिका थी, जिसने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को खुली चुनौती दी। अनेक बार इसने सरकारी चेतावनियों का उल्लंघन किया। यह पत्रिका अनवरत राष्ट्रीय चेतना का प्रचार एवं प्रसार भारतीयों के मध्य करती रही।


    ‘क्रान्ति’ पत्रिका के मुखपृष्ठ पर लेनिन का वाक्य ‘क्रान्ति ही आजादी का सच्चा मार्ग है’ उसकी क्रान्तिकारिता का परिचय कराता है। उसकी क्रान्तिकारिता एवं उग्र विचारों का ही परिणाम था कि अंग्रेजी सरकार ने ‘क्रान्ति’ के लगातार दो अंकों पर प्रतिबन्ध लगाया जिसमें सितम्बर 1939 एवं अक्टूबर 1939 के अंक शामिल हैं। ये दोनों ही अंक भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार, नयी दिल्ली में मौजूद हैं।68  ‘क्रान्ति’ ने अपने लेख, कविताओं एवं कहानियों के माध्यम से सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश की जनता में एक नयी चेतना का संचार किया। इसके लेख सुरुचिपूर्ण एवं पठनीय हुआ करते थे।

    ‘क्रान्ति’ का 1939 का सितम्बर अंक कई अर्थों में विस्फोटक है। इस प्रतिबन्धित अंक में अनेक ऐसे रचनाकारों की रचनाएँ प्रकाशित हैं जो प्रथमत: स्वतन्त्रता-संग्राम के सेनानी थे। जैनेन्द्र कुमार, कामरेड ओंकारनाथ शर्मा, कामरेड लक्ष्मीकान्त शुक्ल, विजयकुमार मिश्र, कामरेड योगेशचन्द्र चटर्जी आदि लोगों की रचनाएँ इस अंक में प्रकाशित हुई हैं। अंक के प्रथम पृष्ठ पर ही श्याम बिहारी शुक्त ‘तरल’ की कविता ‘क्रान्ति आगमन’ नाम से छपी है—

धधक रही अत्याचारों पर प्रथम क्रान्ति की ज्वाला।
और मृत्यु आयी वीरों को पहनाने जयमाला।
डगमग डगमग हुई धरा फिर चीख-चीख कर बोली,
वह देखो! बढ़ चली युद्ध में दीवानों की टोली।
अन्तरिक्ष से अमर शहीदों की पुकार यह आयी।
ओ अतृप्त! ओ चिर दीवानो। अब क्यों देर लगायी?
आज भरा है प्रबल क्रान्ति से जग का कोना-कोना।
ओ अवसरवादी! यह अवसर आज व्यर्थ मत खोना।69  

    ‘क्रान्ति कौन चाहता है ‘दामोदर’ स्वरूप सेठ का महत्त्वपूर्ण लेख है। अपने लेख में क्रान्ति की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए लिखा गया है—तब्दीली वास्तव में वही चाहते हैं, जिनके पास खोने को है ही नहीं, जो दूसरों के पैरों के नीचे इस बेरहमी से कुचले गये हैं कि उन्हें अपनी जिन्दगी भार-स्वरूप मालूम होती है और सत्ता या अधिकार की बात करना भी जिनके लिये जुर्म है, जिनके पेट में रोटी नहीं, जिनके तन पर कपड़ा नदारद है और जो जीवन की हर आवश्यकता के लिये दिन-रात तरसा करते हैं। इन्कलाब का आवाहन वही करते हैं।70 ‘क्रान्ति’ पत्र स्त्री और पुरुष की समानता की बात करता है। उसका साम्यवाद में पूर्ण विश्वास है। कामरेड अर्जुन अरोड़ा ने अपने लेख ‘स्त्रियों की आजादी और साम्यवाद’ में यही विचार व्यक्त किये हैं—‘स्त्रियों को पुरुषों के बराबर ही हक देना और समाज में उनकी एक-सी इज्जत कायम करना यदि कोई अपराध है तो हम साम्यवादी अवश्य दोषी हैं। अपराधी तो वे हैं जो समाज के एक हिस्से को दूसरे हिस्से के बराबर नहीं मानते। समाज के भले के लिये दोनों की एक-सी जरूरत है। दोनों में एक के ना़काबिल होने से समाज का अमंगल होता है और हमारी उन्नति में रुकावाट होती है।’71 स्त्रियों से ही सम्बन्धित एक अन्य लेख में शकुन्तला श्रीवास्तव ने लिखा कि ‘स्त्रियों की आजादी की समस्या केवल साम्यवाद के सिद्धान्त बनाने वाले लेख लिखने या लेक्चर देने से तो हल नहीं हो सकती। उन्हें कार्यरूप में परिणत करने की आवश्यकता है। स्त्रियों से मौखिक सहानुभूति दिखाने का जमाना अब गया। आज आवश्यकता उन महानुभावों की है जो अपने विचारों को कार्यरूप में परिणत करने का साहस कर सकते हैं। केवल सिद्धान्तों से कोई कार्य पूरा नहीं हुआ।72 

    ‘क्रान्ति’ पत्रिका में ‘भूखेराम की डायरी’ एक चर्चित एवं लोकप्रिय स्तम्भ होता था। इस स्तम्भ के अन्तर्गत सामयिक महत्त्व की कतरनें पेश की जाती थीं, यथा—‘नागपुर का समाचार है कि पानी न बरसने के कारण किसानों में हाहाकार मच गया है। बेकारी इतनी फैल रही है कि मजदूरों को खोजने पर भी काम नहीं मिल रहा है और वे दर-दर मारे-मारे फिर रहे हैं।’73  ‘क्रान्ति’ पत्रिका में सम्पादकीय काफी महत्त्वपूर्ण होता था। द्वितीय महायुद्ध और उसमें भारत की भूमिका पर सम्पादकीय दृष्टिकोण द्रष्टव्य है—आज देश के कोने-कोने में क्रान्तिकारी वातावरण है। किसान, मजदूर व विद्यार्थी तथा युवक अपने-अपने मोर्चे पर बहादुरी के साथ लड़ रहे हैं जिससे अपने तथा भारतीय जनता की असीम शक्ति में विश्वास हो। आज देश की निगाहें कांग्रेस की तरफ लगी हुई हैं। क्या कांग्रेस देश का सही नेतृत्व कर भारत की खोयी हुई स्वतन्त्रता को पुन: प्राप्त करने की चेष्टा करेगी?74   

    हिन्दी की प्रतिबन्धित पत्र-पत्रिकाओं में ‘क्रान्ति’ मासिक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपनी तेजस्विता और साहस के कारण इस पत्रिका को लगातार सरकार की वक्रदृष्टि का शिकार होना पड़ा। इसके सितम्बर 1939 के अंक पर सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया था। इसके बाद के अंक (अक्टूबर 1939) पर भी अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया। इसका यह अंक और भी अधिक विचारपरक एवं विस्फोटक सामग्रीवाला है। क्रान्ति का नेतृत्व, भारतीय राजनीतिक और महात्मा गाँधी, आजादी की ओर कदम बढ़ाओ, क्रान्ति करना हमारे हाथ में है, क्रान्तिकारी नौजवानों उठो आदि इस अंक के महत्त्वपूर्ण लेख हैं। ‘क्रान्ति’ के इस अंक में लेखों के अलावा कविताओं को भी स्थान मिला है। स्वराज्य प्रसाद द्विवेदी की कविता ‘बन्दी की बेड़ी बोल उठी’75  इस अंक की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कविता थी। ‘भगतसिंह और सुखदेव’ इस अंक का पहला लेख है। लाहौर षड्यन्त्र केस में गिरफ्तार हो जाने के बाद जेल-कोठरी में बैठकर सुखदेव ने सरदार भगतसिंह की याद में कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं, उन्हें इस लेख में दिया गया है जिनसे दोनों के बीच के प्रगाढ़ लगाव का पता चलता है। सुखदेव ने लिखा है— ‘आँखों के सामने उसकी तस्वीर हमेशा फिरने लगी। शरीर सुन्न पड़ गया। उठते, बैठते, फिरते हर ची़ज में, हर एक इन्सान में, हर जगह पर आँखों के सामने वह मुझे नजर आने लगा। कई बार ऐसा महसूस होता है कि वह मुझे बुला रहा है, तब मैं चौंक उठता, लेकिन उसकी सजीव मूर्ति ऩजर न आती। जिधर निगाह उठती उसका खूबसूरत चेहरा, मस्त आँखें घूमती हुई दिखायी देतीं।’76  

    ‘क्रान्ति’ के अक्टूबर 1939 के इस अंक में जवाहरलाल नेहरू का लेख काफी विचारोत्तेजक है। उन्होंने अपने लेख ‘साथियो, आजादी की ओर कदम बढ़ाओ’ में भारतीय जनता का आह्वान किया है— ‘हम लोगों के लिये जैसे कि औरों के लिये भी यह परीक्षा का समय है। अगर हम इस इम्तहान में नाकामयाब रहे तो हम पीछे रह जायेंगे और दूसरे लोग आगे बढ़ते चले जायेंगे। वह हिन्दुस्तान जिसके प्रेम से प्रेरित होकर हमने इतना किया है और जिसकी सेवा करने में ही हमने सौभाग्य समझा है, हमारा उज्ज्वल भविष्य हमें आमन्त्रित कर रहा है। साथियो, चलो कदम-से-कदम मिलाकर स्वतन्त्रता की ओर बढ़ चलें।’77  

    ‘क्रान्ति’ के उपर्युक्त दोनों अंकों की विषय-सामग्री का विश्लेषण करने पर यह बात स्पष्ट होती है कि अंग्रेजी सरकार ने बौखलाकर इन पर प्रतिबन्ध लगाया। ‘क्रान्ति’ पत्रिका के अन्तिम पृष्ठों पर विज्ञापन दिये जाते थे, ‘क्रान्ति’ मासिक के नियम प्रकाशित होते थे। समय-समय पर यह पत्रिका साहित्यिक रचनाओं की समीक्षा भी प्रकाशित करती थी। 

    हिन्दी की प्रतिबन्धित पत्र-पत्रिकाओं में लखनऊ से प्रकाशित होनेवाला मासिक पत्र ‘विप्लव’ उल्लेखनीय है। इसके सम्पादन का भार प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्री यशपाल ने सँभाला। यह अति उग्र विचारों की राजनीतिक पत्रिका थी। ‘विप्लव’ के मुखपृष्ठ पर ‘तुम करो शान्ति-समता प्रसार’, ‘विप्लव गा अपना अनल गान’ नीति-वाक्य छपा रहता था। ‘विप्लव’ के प्रथम अंक में ‘विप्लव’ शीर्षक सम्पादकीय की पंक्तियाँ इस पत्र की उग्र राजनीतिक विचारधारा का परिचय कराती हैं—‘बन्धन में बँधे हुए हम अपने शरीर से बहते हुए रक्त को रोकने में असमर्थ हैं। हमारे घाव पर बैठ उस पर लगातार डंक चलानेवालों, उसमें से रक्त चूसकर अपना पेट भरनेवालों को हटा सकने में भी हम असमर्थ हैं। हम छटपटा रहे हैं, तड़प रहे हैं। हम इस समय उस जगह पर पहुँचकर विकल हो रहे हैं जहाँ से कूदकर या तो हम राष्ट्रीय, सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता के राज्य में पहुँच  जायेंगे या एक द़फे पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक सड़ने-गलने के लिये गिर पड़ेंगे। आज हम विप्लव के द्वार पर खड़े हैं।’78 ‘विप्लव’ 1938 ई. में प्रकाशित हुआ। इसका उर्दू संस्करण भी निकला था। ‘विप्लव’ का फरवरी 1939 का अंक ‘चन्द्रशेखर आजाद अंक’ था, जो क्रान्ति-गाथाओं से भरा हुआ था। अपने उग्र विचारों के कारण ‘विप्लव’ को अंग्रेजी सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा। सरकार द्वारा अप्रैल 1939 का अंक प्रतिबन्धित कर दिया गया जिसकी एक प्रति भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार, नयी दिल्ली में सुरक्षित है। वस्तुत: ‘विप्लव’ वामपन्थी रूझान का पत्र था। इसमें प्रकाशित सामग्री से इस बात की पुष्टि होती है। ‘विप्लव’ के प्रतिबन्धित अंक में कुल पृष्ठों की संख्या तिहत्तर है, जिसमें सम्पादकीय के अलावा अनेक वीरतापूर्ण कविताएँ तथा लेख प्रकाशित हैं। इस अंक में पहला लेख बाबा करमसिंह का ‘देशी रियासतों की लड़ाई हमारा पहला मोर्चा है’ शीर्षक के अन्तर्गत है, जिसमें उन्होंने लिखा है— ‘संघ शासन के विरुद्ध हमारी लड़ाई वैधानिक सभा की हमारी माँगों की एक बहुत महत्त्वपूर्ण ची़ज है और इसकी कीमत भी हमें कम न देनी पड़ेगी। आज हम ऐसी परिस्थिति में हैं कि क्रान्तिकारी वातावरण में इस कीमत को अपेक्षाकृत आसानी से अदा कर सकते हैं। अगर आज हम चूकते हैं तो शायद फिर ऐसा मौका लाने के लिये और कामयाबी हासिल करने के लिये हमें दुगुनी या तिगुनी कीमत अदा करनी पड़ेगी। दरअसल रियासतों की लड़ाई ही हमारी साम्राज्य-विरोधी लड़ाई का पहला मोर्चा है।79  

    ‘विप्लव’ के इसी अंक में एक लेख लेनिन पर लिखा गया है। लेनिन को ‘मजदूर विप्लव’ का नेता कहा गया है। इस लेख में ‘विप्लव’ की महत्ता को यों दर्शाया गया है— ‘लेनिन ने बताया कि विप्लव की तैयारी करना बच्चों का खेल नहीं है। यह भी एक बहुत बड़ा हुनर है, कला और विज्ञान का काम है। इसके लिये हमें बहुत-कुछ पढ़ना होगा, बहुत-कुछ अनुभवों से सीखना होगा। लेनिन ने मजदूर-आन्दोलन को एक विप्लवी सिद्धान्त ही नहीं दिया, उसने उसे प्रयोग करके भी दिखाया। उसने किसानों, मजदूरों और शोषितों और सताये हुए लोगों को संगठित कर एक सफल विप्लव का अनुष्ठान भी किया।80 ‘त्रिपुरी में क्या देखा।81  शीर्षक के अन्तर्गत एक अनाम लेखक ने त्रिपुरी अधिवेशन में समाजवादी दल और कम्युनिस्टों की निन्दा की है। ‘विप्लव’ के इस अंक में राष्ट्रीय समस्याओं के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर घट रही घटनाओं को भी पर्याप्त स्थान एवं महत्त्व मिला है।

‘विप्लव’ के प्रतिबन्धित अंक में कहानी एवं लेख के अलावा कविताएँ भी प्रकाशित हुई हैं। मुनीराम शर्मा की ‘विप्लव’ शीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं—


सदियों से अत्याचारों की मूक व्यथा है आज जगी।
विप्लव! तेरे परशु करों से शोषण-पथ में आग लगी।
धुआँ घोर है उठा व्योम में, धूमकेतु-से छाये हैं।
छली प्रपंची अन्तस्थल में आशंकाएँ लाये हैं।82  

इसी अंक में प्रभाकर माचवे की एक महत्त्वपूर्ण कविता ‘शनीचर’83 नाम से छपी है जिसमें मजदूर बस्ती का मानवीय चित्रण किया गया है।

    ‘विप्लव’ एक ऐसा मासिक पत्र था, जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग की समस्याओं का ब्योरा रहता था। ‘विप्लव’ के इस अंक में देवीरत्न अवस्थी का लेख ‘प्राचीन भारत का धार्मिक समाजवाद’ नाम से प्रकाशित हुआ है। वे लिखते हैं—‘आज समाज में सब ओर अव्यवस्था दिखलायी पड़ने से जनता समाजवाद की ओर झुक रही है। कुछ लोग समाजवाद को रूसी सभ्यता समझकर उसकी जगह फिर से भारत की पुरानी सामाजिक व्यवस्था को कायम करने के पक्ष में हैं और इसे वे धार्मिक समाजवाद का नाम देते हैं।’84  लेखक ने उपर्युक्त लेख में धार्मिक समाजवाद का समर्थन किया है। मजदूरों और किसानों की मेहनत किस प्रकार रुपये की शक्ल में पूँजीपतियों की थैलियों में जाकर जमा हो जाती है—इसका बखूबी चित्रण ‘मार्क्सवाद की पाठशाला’85  लेख के अन्तर्गत किया गया है। ‘चाय की चुस्कियाँ’ पत्र का व्यंग्यपरक स्तम्भ था जिसमें सामयिक विषयों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी छपा करती थी। अप्रैल 1940 तक मासिक पत्र ‘विप्लव’ सफलतापूर्वक प्रकाशित होता रहा, किन्तु आगे चलकर अंग्रेजी सरकार ने इसके प्रकाशन में अनेक अड़चनें पैदा कर दीं। सरकारी वङ्कापात अत्यधिक होने पर यह पत्र बन्द हो गया। इसके स्थान पर ‘विप्लवी ट्रेक्ट’ का प्रकाशन शुरू किया गया। ‘विप्लवी ट्रेक्ट’ प्रसिद्ध क्रान्तिकारी यशपाल के ‘विप्लव’ पत्र का परिवर्तित रूप था, जो जून 1940 में प्रकाशित हुआ था। ‘विप्लव’ से मई 1940 में सरकार द्वारा बारह हजार रुपये की जमानत माँगी गयी थी। फलस्वरूप उक्त पत्र का प्रकाशन स्थगित कर ‘विप्लवी ट्रेक्ट’ प्रकाशित किया गया था।86  

    भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के सभी पत्र राजनीति से सम्बद्ध होकर अंग्रेज-शासन को उखाड़ फेंकना चाहते थे। सन् 1926 में ‘सब जन हिताय सब जन सुखाय’ की भावना से प्रेरित होकर गोरखपुर से ‘कल्याण’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। यह पत्र नैतिक, पौराणिक एवं दार्शनिक सामग्री प्रकाशित करता था। गीता प्रेस की स्थापना गोरखपुर के साहित्य के इतिहास में दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना है। सस्ते मूल्य पर प्रामाणिक धार्मिक साहित्य, विशेषत: गीता को सुलभ करने का जो महत्त्वपूर्ण कार्य गीता ने किया है, वह प्रशंसनीय है। इसी गीता प्रेस गोरखपुर से ‘कल्याण’ नामक हिन्दी मासिक का प्रकाशन 1926 में प्रारम्भ हुआ जो आज अपने क्षेत्र में विश्व का अकेला मासिक पत्र है।87  कल्याण नामक पत्र के प्रकाशन के पीछे कौन-सा ऐसा लक्ष्य है, इसकी जानकारी हमें प्रथम अंक में प्रथम पष्ठ पर छापी गयी सम्पादकीय टिष्णी से मिलती है। ‘कल्याण की आवश्यकता’ शीर्षक के अन्तर्गत उन्होंने लिखा है—स्वकल्याण की आवश्यकता सबको है। जगत् में कौन ऐसा मनुष्य है जो अपना कल्याण नहीं चाहता? इसी आवश्यकता को अनुभव कर आज यह ‘कल्याण’ भी प्रकट हो रहा है। इसमें स्त्रीr-पुरुष और ब्राह्मण-शूद्र का कोई भेद नहीं। धन—ऐश्वर्य, रूप, गुण, विद्या, कला, वर्ण, जाति आदि से यहाँ कुछ भी सम्बन्ध नहीं। यहाँ तो बस—

जिसने उत्कट उत्कण्ठा से इस प्रियतम को बुलवाया।
उसने ही तत्काल उसे अपने समीप में है पाया।


इसी बात का प्रचार करने के लिये उसी कल्याण के स्वामी की पवित्र प्रेरणा से कुछ कल्याणमय जन-कल्याणकारी महानुभावों से इस ‘कल्याण’ का जन्म हुआ।88 उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि ‘कल्याण’ हर प्राणी के कल्याण की कामना लेकर अवतरित हुआ जिसमें धर्म और भक्ति की ही प्रमुख चर्चा है।

    ‘कल्याण’ मासिक पत्र की अपनी एक अलग पहचान है। इसके सम्पादक हनुमानप्रसाद पोद्दार, मोहनलाल गोस्वामी, स्वामी सदासुखदास और मोतीलाल जालान आदि रहे हैं। ‘कल्याण’ प्रत्येक वर्ष जनवरी में अपना विशेषांक निकालता है। ‘कल्याण’ के अन्तर्गत धर्म-सम्बन्धी लेख, कहानियाँ, संस्मरण आदि तो होते ही थे, साथ ही शुद्धाचरण, ईश्वर में आस्था जगानेवाली कहानियाँ व संस्मरण भी प्रकाशित हैं। जनता को आध्यात्मिक शिक्षा एवं चारित्रिक सामग्री प्रदान करना ही इस पत्र का मुख्य उद्देश्य है। यह धार्मिक, सांस्कृतिक और नैतिकता का प्रचार-प्रसार करनेवाला पत्र है। इसके बिन्दु स्तम्भ में छोटे-छोटे सारगर्भित वाक्य दिये जाते हैं। ‘कल्याण’ के ‘पढ़ो समझो और करो’ नामक स्तम्भ के अन्तर्गत जीवन में घटित होनेवाली घटनाएँ वर्णित होती हैं जिन्हें पढ़कर मानव का सदाचरण की ओर रूझान बढ़ना स्वाभाविक है। नैतिक शिक्षा से सम्बन्धित पहलुओं का भी यह पत्र बड़ी बारीकी से अध्ययन करके उन पर लेख, कहानी, संस्मरण प्रकाशित करता रहता है। पुराण, महाभारत और उपनिषदों पर प्रकाशित इसके विशेषांक हमेशा संग्रहणीय रहे हैं।

    ‘कल्याण’ मासिक का अक्टूबर 1946 का अंक अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रतिबन्धित किया गया। यह एक सामान्य अंक न होकर अतिरिक्त अंक था। इस अतिरिक्त अंक के सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार थे जो कि घनश्याम दास जालान द्वारा गीता प्रेस, गोरखपुर से मुद्रित एवं प्रकाशित हुआ था। ‘कल्याण’ मासिक के इस अतिरिक्त अंक के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य सम्पादक ने यह अंक ‘क्यों और किसलिए’ शीर्षक के अन्तर्गत प्रतिपादित किया है—‘कल्याण’ का यह अंक इसी साल का अतिरिक्त अंक है। इस साल गीता प्रेस लगभग दो महीने बन्द रहा। इस आगामी वर्ष के विशेषांक के प्रकाशन में दो-तीन महीनों की देर हो गयी। पाठकों को इतने लम्बे समय तक ‘कल्याण’ की प्रतीक्षा में न रहना पड़े, इसलिए सोचा गया कि बीच में एक अंक और निकाल दिया जाये।’89  आगे भी अंक में लिखा है कि—इस अंक में प्रकाशित लेखों को पढ़कर उनके यथार्थ रहस्य पर न विचार करने के कारण सम्भवत: ‘कल्याण’ के अध्यात्म-रस-पिपासु लाखों पाठक-पाठिकाओं में से किन्हीं-किन्हीं के मन में ऐसा प्रश्न उठ सकता है कि ‘कल्याण’ में विशुद्ध अध्यात्म-चर्चा को छोड़कर यह सामयिक चर्चा क्यों की गयी है? क्या कल्याण की नीति बदल गयी?  इसका उत्तर यह है कि ऐसी कोई बात नहीं। न तो नीति ही बदली और न गहराई से देखने पर यही सिद्ध होगा कि इसमें आध्यात्मिक दृष्टि से छोड़कर अन्य किसी दृष्टि से कोई चर्चा की गयी है।90 
‘कल्याण’ मासिक पत्र के अतिरिक्तांक में मदनमोहन मालवीय से सम्बन्धित अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। राजनारायण दत्त द्वारा लिखित कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं—

रोता जग सारा लोचनों में अश्रुधारा लिये।
सहज सहारा हा! हमारा आज खो गया।91  

    मदनमोहन मालवीय जी की मृत्यु अक्टूबर में हुई। अत: उनसे सम्बन्धित अनेक लेखों का प्रकाशन किया गया। मालवीय जी का अन्तिम वक्तव्य भी प्रकाशित हुआ—वर्तमान घटनाचक्र निरीक्षकों और आलोचकों से बहुतों का यह निश्चित मत है कि परिश्रुति का यह रूप क्षणिक नहीं है और हिन्दु जाति को यदि जीवित रहना है तो उसे कमर कसकर तैयार हो जाना चाहिए।92 ‘कल्याण’ के इसी प्रतिबन्धित हुए अंक में ‘वैदिक वीर गर्जना’ नामक पुस्तक से जो कि गुरुकुल कांगड़ी के प्रो. श्री रामनाथ वेदालंकार द्वारा लिखी गयी है, कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं जो कि विभिन्न वेदों के श्लोकों का संग्रह है। उन्हीं का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। भाव इस प्रकार हैं—उठो वीरो! तैयार हो जाओ, झण्डे हाथों में पकड़ लो। जो भुजंग है, लम्पट है, गैर है, राक्षस है, शत्रु है, उन पर धावा बोल दो।93 ‘कल्याण’ के इस प्रतिबन्धित अंक में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अध्यात्म-चर्चा के अलावा सामयिक, राजनैतिक एवं सामाजिक घटनाओं पर सटीक टीका-टिप्पणी की गयी है। बिहार में अंग्रेजी सरकार द्वारा किये गये दमन पर कई लेख प्रकाशित हुए हैं। ‘उठो जागो’ शीर्षक लेख के अन्तर्गत महाराज करपात्री जी ने हिन्दुओं का आह्वान करते हुए लिखा है—खेद है कि बंगाल की रोमांचकारी घटनाओं से भी हिन्दुओं की गाढ़ निद्रा भंग नहीं हो रही है। त्रस्त बंगाल की धन-जन से जितनी भी सहायता हम कर सकें, अवश्य करनी चाहिए। पर जब तक समस्त भारत के हिन्दू दूढ़ता के साथ सुसंगठित रूप से अपनी रक्षा के लिये कटिबद्ध नहीं होते, तब तक पूर्ण बंगाल के हिन्दुओं की रक्षा नहीं हो सकती।94 ‘कल्याण’ पत्र के सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार ने भी इस अंक में अनेक सारगर्भित लेख लिखे हैं। बंगाल में हुए भीषण् हिन्दू-मुस्लिम दंगों पर अपनी राय व्यक्त करते हुए एकता की बात की गयी है। ‘प्रेम में ही सुख और कल्याण है’ नामक निबन्ध में उन्होंने लिखा—असल में हिन्दू हो या मुसलमान, वे पहले मनुष्य हैं, उसके बाद हिन्दू एवं मुसलमान हैं। यदि मनुष्यत्व ही खो गया तो फिर पशु या पिशाच में न हिन्दुत्व रहेगा, न मुसलमानत्व। इस समय जैसी कार्यवाहियाँ हो रही हैं उनसे तो यही सिद्ध होता है कि हम लोग मनुष्यत्व की हत्या पर ही तुले हुए हैं, और वह करते भी हैं धर्म के पवित्र नाम पर।95  

    बंगाल और बिहार में घट रही उस समय की घटनाएँ ही ‘कल्याण’ में प्रमुखता से छापी गयी हैं। बिहार में हो रहे उपद्रव को बंगाल की प्रतिक्रिया मानते हुए लिखा गया है कि बिहार में जो कुछ हुआ है, वह कलकत्ता के हत्याकाण्ड के सिलसिले में ही हुआ है, वहाँ और यहाँ के उपद्रव को एक-दूसरे से अलग नहीं माना जा सकता।96  ‘धर्म की जय’ शीर्षक कविता में हिन्दुओं को जागृत करने की बात की गयी है जिसके रचयिता का नाम नहीं मिलता है—

हिन्दुओ सोच रहे क्या आज?
लुटाकर माँ बहिनों की लाज।
एक दिन ये सब के सरताज
बने वे दानों के मोहताज।97 

    इस तरह ‘कल्याण’ दु:ख, कष्ट व मानसिक अशान्ति से पीड़ित विश्व-मानवता को प्रेम, सदाचार, अहिंसा, सहिष्णुता एवं शान्ति का सन्देश पहुँचाने का पवित्र कार्य आज भी कर रहा है। भारतवर्ष में, विशेष रूप से पूर्वी उत्तरप्रदेश में नैतिकता, धर्म, अध्यात्म सम्बन्धी सन्देशों द्वारा इस पत्र ने एक नयी सात्त्विक चेतना जगायी है एवं देश-धर्म के साथ-साथ हिन्दी के गौरव में श्रीवृद्धि की है।

    सन् 1932 में ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ का प्रकाशन उरई से प्रारम्भ हुआ। इसके प्रकाशक दीवान शत्रुघ्न सिंह थे। सम्पादक का कार्यभार रामेश्वर प्रसाद शर्मा एवं रामगोपाल गुप्त देखते थे। ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ पूर्णतया साइक्लोस्टाइल पत्र था। इस पत्र ने 1935 तक सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में राष्ट्रीय चेतना एवं जन-जागरण को प्रोत्साहित किया। इसके सम्पादक रामगोपाल गुप्त ग्राम के खँडहरों में बैठकर लेख लिखा करते थे। आन्दोलन के सामाचारों को विभिन्न तरीकों से एकत्र कर पत्र में छापते थे। ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ की प्रतियाँ जिले के कोन-कोन में वितरित होती थीं और अधिकारियों के घरों में भी भेजी जाती थीं। जराखर-निवासी रामदयाल और सुखलाल पत्र की प्रतियाँ ढोते और उन्हें यथा-स्थान पहँुचाते थे।98 

    ब्रिटिश सरकार द्वारा इस दौरान जब्त किये गये प्रकाशनों में एक अनियतकालीन पत्र यह भी था जिसका 18 दिसम्बर, 1933 का अंक जब्त कर लिया गया।99  जब्त किये गये ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के अंक के सम्पादक रणधीर थे। यह स्वतन्त्र प्रेस, बुन्देलखण्ड द्वारा मुद्रित एवं प्रकाशित है। ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के इस जब्तशुदा अंक में सारी विस्फोटक सामग्री का प्रकाशन हुआ। इसमें ‘हमारी कलम से’ नामक सम्पादकीय में सम्पादक ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है—बुन्देलखण्ड केसरी का यह छोटा-सा विशेषांक हम उन व्यक्तियों को सहर्ष समर्पित्त करते हैं जो कि बुन्देलखण्डी हैं, बुन्देलखण्डी से प्रेम रखते हैं और जो बुन्देलखण्ड से जरा भी परिचित हैं। खासकर हम यह अंक उन नवयुवकों के हाथ में देना चाहते हैं जो कि अपनी माँ के लिए, अपनी जननी जन्मभूमि के प्रति अपना कुछ कर्त्तव्य समझते हैं। वे इसे पढ़ें और अपना कर्त्तव्य, अपना पथ निश्चय करें और देश को दासता-पाश से मुक्त करें।100  ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ एकमात्र ऐसा पत्र था जो जनता को तत्कालीन सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तैयारी तथा नेताओं के विचार, विभिन्न क्षेत्रों में आन्दोलन का श्रीगणेश, क्रियान्वयन एवं सरकारी प्रतिक्रिया की रिपोर्ट देता था। गाँव का मुखिया कांग्रेस का कार्यकर्त्ता था। शिक्षक जो भी उपलब्ध हो, अपढ़ ग्रामीणों के मध्य ऊँची आवाज में खबरें पढ़ता था। लोग पत्र के समाचार जानने के लिये उत्सुक रहते थे। समय-समय पर जारी सरकारी रिपोर्ट से पता चलता है कि अनायास ही सम्पादकों को चेतावनी देना, पत्रों को जब्त कर लेना या प्रेस को तहस-नहस कर देना, उच्चाधिकारियों का शौक बन गया था। सरकारी दबाव एवं आर्थिक परेशानियाँ ऐसी थीं कि ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ को अपने अस्तित्व की रक्षा करना हर पल कठिन प्रतीत होता था।

    ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त किये गये अंक में कुल पृष्ठों की संख्या चालीस है। इस विशेषांक के बारे में सम्पादक ने सम्पादकीय ‘हमारी कलम से’ के अन्तर्गत लिखा है—तथापि हमें बड़ा सन्तोष है कि हमारा ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ इतनी सजधज के साथ आपके सामने उपस्थित हुआ है। फिर ऐसी विकट परिस्थितियों में जब उसके विरुद्ध एक सुसंगठित सरकार हो और उसके सैकड़ों लोग पता लगाने में दत्तचित्त हैं। पर यह हमारा सौभाग्य है कि हमने अभी तक उसके दाँत खट्टे किये हैं और आये तो उसमें टाटरी भी प्रयोग करेंगे।101 ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ में मुख्यतया जोशीले गीत, वीरता से ओजपूर्ण कविताएँ तथा महात्मा गाँधी का गुणगान प्रकाशित होता था। परन्तु इसके प्रकाशन-स्थल का लाख कोशिश करने पर भी पुलिस पता न पा सकी। रण निमन्त्रण, रणभेरी, केसरिया बाना, राष्ट्र-भावना102 शीर्षक के अन्तर्गत ओजपूर्ण कविताएँ जब्तशुदा अंक में प्रकाशित हुईं। इसी अंक में ‘महाराज छत्रसाल’103 शीर्षक के अन्तर्गत छत्रसाल, शिवाजी का परिचय एवं उनकी शौर्य की गाथा को सामने रखकर भारतीयों में राष्ट्रीय भावना जागृत करने की कोशिश की गयी है। ‘धन्यवाद एवं समवेदना’104 शीर्षक के अन्तर्गत उन व्यक्तियों के प्रति आभार प्रकट किया गया है जिनसे ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के बारे में पूछताछ की गयी, जेल गये तथा अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ की रक्षा के लिये नवयुवकों को धन्यवाद भी दिया गया है। हम उन सबको हृदय से धन्यवाद देते हैं जिन्हें कि ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के सम्बन्ध में कष्ट उठाने पड़े हैं, जिन्होंने केसरी की मदद की है, और जिन्होंने उसे इस प्रकार के संग्राम के लिये आगे बढ़ाया है।105

    भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की विषम परिस्थितियों में दीवान शत्रुघ्न सिंह ने महोबा में 2 जुलाई, 1932 को जिला राजनीतिक सम्मेलन करने का निश्चय किया था ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि इतना दमन होने पर भी इस जिले में कांग्रेस का अस्तित्व कायम है। ब्रिटिश भक्तों के अलावा यहाँ आने-जाने के लिये सभी को रोक थी। कुलपहाड़ परगने का पचास सत्याग्रहियों का जत्था बालेन्दु जी के नेतृत्व में गया और सत्तर सत्याग्रहियों का जत्था शत्रुघ्न सिंह राठ से लेकर पहुँचे।106 जब ब्रिटिश सरकार ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के संस्थापक दीवान शत्रुघ्न सिंह को गिरफ्तार करने में असफल रही तो उसने विधान का आश्रय लेकर उनके मगरौठ स्थित मकान की चल-अचल सम्पत्ति की कुर्की करके उसे नीलाम करना चाहा, किन्तु उसे कोई नीलाम की बोली बोलनेवाला नहीं मिला। अन्त में अपने गुर्गों के नाम उसे नीलाम कर दिया। अपनी लगातार असफलताओं पर पुलिस झुँझला उठी और उसने गाँधी आश्रम राठ पर छापा मारा। आश्रम के प्रमुख कार्यवर्त्ताओं रामधारी भाई और खरेलाल काण्टा को गिरफ्तार कर लिया और आश्रम से आने तक उन पर जूतों की बौछार की जिसके फलस्वरूप दोनों बेहोश हो गये। होश आने पर उनसे दीवान शत्रुघ्न सिंह और ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के बारे में पूछा गया और जब वे न बता सके तो उन्हें जेल भेज दिया गया।107  ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ ने जब्त किये गये अंक में ‘बुन्देलखण्ड केसरी की तलाश में’ नाम से एक वार्त्तालाप भी प्रकाशित हुआ जिसमें अंग्रेज पुलिस के एक अधिकारी का कथन है—इस कमबख्त ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के मारे नाकों दम है। यह मेरे थानेदारों की पोल खोलता है, किसानों को भड़काता है, सरकारी भण्डाफोड़ करता है।108  ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ का मुख्य ध्येय था पूर्ण स्वतन्त्रता। पत्र के द्वितीय पृष्ठ पर हस्तनिर्मित भारतमाता की तस्वीर तिरंगा झण्डा लिये अंकित है, जिसमें निम्नलिखित पंक्तियाँ उल्लिखित हैं—

हूँ जग माता विश्व विधाता, देश स्वतन्त्र बनाऊँ मैं।
आश्रयदाता, कष्ट निपाता, बन्धन मात्र हटाऊँ मैं।109 
आगे की पंक्तियों में स्वतन्त्रता का स्पष्ट उद्घोष है—
अधीन होकर बुरा है जीना, मरना अच्छा स्वतन्त्र होकर।
सरल को तज कर गरल का प्याला है पीना अच्छा स्वतन्त्र होकर।
मिले उपाधि या मान पदवी, जो सेवा करके तो व्यर्थ है सब।
गढ़े में घिरणा के होके व्याकुल उतरना अच्छा स्वतन्त्र होकर।110  

    इस प्रकार की अनेक रचनाएँ ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ में प्रकाशित हुईं जो अंग्रजों को खुली चुनौती थीं। कविताओं के अलावा वार्त्तालाप, नाटक, संक्षिप्त समाचार भी प्रकाशित होते थे। पत्र के इसी अंक में सजा पाये हुए हमीरपुर जिले के लोगों के नामों की सूची दी गयी है जिसमें पता, स़जा की अवधि एवं जुर्माना की राशि का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के इसी संस्करण में हमीरपुर के स्वाधीनता-आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास111 प्रस्तुत किया गया है।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि तत्कालीन विषम परिस्थितियों में तथा सीमित साधनों के होते हुए  भी ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ ने सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड-क्षेत्र में स्वाधीनता की अलख जगायी। पुलिस के सी.आई.डी. विभाग ने खबर दी कि ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ का प्रेस, उसके संचालक और सम्पादक तथा अन्य बहुत-से कांग्रेसी मन्नीलाल गुरुदेव, गहरौली के मकान में शरण लेते हैं। खबर सही थी, पर गुरुदेव की सतर्कता ने पुलिस के छापे को असफल कर दिया। केवल सन्देह में ही मन्नीलाल गुरुदेव बन्दी बनाकर जेल भेज दिये गये।112 


सन्दर्भ

1.पुलिस फाइल 1205/1932, पृ. 29 (उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ)
2.होम पॉलिटिकल फाइल 230/1932, पृ. 6 (भा. रा. अभिलेखागार दिल्ली)
3.गवर्नमेण्ट नोटिफिकेशन नं. 3391/8-1684/1931 द्रष्टव्य—होम पॉलिटिकल फाइल 117/1932, पृ. 258 (भा. रा. अभिलेखागार, दिल्ली)
4.आज, 10 अगस्त, 1942.
5. सन् 1932-33 के प्रतिबन्धित प्रकाशकों के लिये देखिये होम पॉलिटिकल फाइल 149/1932,207/1932, 208/1932, 48/4/1932 (भा. रा. अभिलेखागार)। पुलिस फाइल-1589/1931, 1193/1933, 1107/1934, उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ
6. उ. प्र. सरकार के पुलिस विभाग की विज्ञप्ति संख्या 3644/8-184 (6), 26 सितम्बर, 1939, देखिये—होम पॉलिटिकल फाइल 37/34/1939, पृ. 9, सीरियल नं. 5 (भा. रा. अभिलेखागार, दिल्ली)
7. होम पॉलिटिकल फाइल 28/1930, देखिये स्टेटमेण्ट ऑफ प्रेस्क्रीप्शन, भा. रा. अभिलेखागार, दिल्ली
8. यू. पी. गवर्नमेण्ट नोटिफिकेशन नं. 2758/8-1573, 16 सितम्बर, 1931, देखिये होम पॉलिटिकल फाइल 117/1932, पृ.  204, भा. रा. अभिलेखागार, दिल्ली
9. स्टेटमेण्ट ऑफ न्यूजपेपर्स, यू. पी. 1925 होम पॉलिटिकल फाइल 261/1926 (उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ)
10. पुलिस फाइल 1563/1934, उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ
11. वही
12. 4 फरवरी, 1931 का पत्र उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ
13. मेमोरंडम ऑफ न्यूजपेपर्स, यू. पी. 1932, पृ. 4, दृष्टव्य-होम पॉलिटिकल फाइल 196/1933, भा. रा. उ. प्र. अभिलेखागार, दिल्ली
14. मेमोरण्डम ऑन न्यूजपेपर्स , यू. पी. 1931, पृ. 5-6, दृष्टव्य—होम पॉलिटिकल फाइल 230/1932, भा. रा. उ. प्र. अभिलेखागार, दिल्ली
15. पुलिस फाइल 203/1940 एवं 271/1940, उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ, दृष्टव्य—होम पॉलिटिकल (1) फाइल 3/15/1941, नोट ऑन दि सैनिक केस, पैरा 1.16, पृष्ठ 109-13 भा. रा. अभिलेखागार, दिल्ली।
16. वही भारत सरकार (गृह विभाग) एवं उ. प्र. सरकार का तार, क्रमश: 20 एवं 22 मई, 1941, पृ. 115-16.
17. नया हिन्दुस्तान, 17 सितम्बर, 1939, पृ. 2.
18. वही
19. वही, पृ. 3.
20. वही, पृ. 9.
21. वही, पृ. 2.
22. वही, पृ. 11.
23. होम पुलिस (ए.) फाइल 274/1918, पृ. 559, उत्तर प्रदेश अभिलेखागार, लखनऊ
24. पुलिस डिपार्टमेण्ट नोटिफिकेशन नं. 762/8-411, 19 फरवरी, 1925, यू.पी, गवर्नमेण्ट। दृष्टव्य—होम पॉलिटिकल फाइल 33/3/1925, भा. रा. अभिलेखागार, दिल्ली
25. वही
26. स्वदेश, विजयांक—7 अक्टूबर 1924, पृष्ठ 1.
27. पुलिस फाइल 411/1923, पृ. 34 (उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ)
28. वही, पृ. 50.
29. होम पॉलिटिकल फाइल 214/1925 (भा. रा. अभिलेखागार, लखनऊ)
30. स्वदेश 10 अपै्रल, 1921 का अग्रलेख
31. आज, पं. बेचन शर्मा उग्र, श्रद्धांजलि विशेषांक 16 अप्रैल, 1997
32. पुलिस विभाग की सूचना संख्या 762/8-411, 19.2.1925
33. स्वदेश विजायक, 7 अक्टूबर, पृ. 37.
34. वही, पृ. 5.
35. वही, पृ. 5.
36. स्वदेश, मई 1919.
37. आज सम्पादकीय टिप्पणी, 17 अक्टूबर, 1924.
38. स्वदेश अंक 25 जून, 1925.
39. आज सम्पादकीय टिप्पणी, 25 जून, 1925.
40. स्वदेश, विजायांक, 7 अक्टूबर, 1924.
41. वालण्टियर, दिसम्बर 1924, पृ. 1.
42. वही, पृ. 7.
43. वालण्टियर, दिसम्बर 1924, पृ. 10.
44. वही, पृ. 15.
45. वही, पृ. 25.
46. वालण्टियर, दिसम्बर 1924, पृ. 27.
47. चाँद, भाग 1, नवम्बर 1922, सम्पादकीय, पृ. 3.
48. चाँद, (फाँसी अंक)—सम्पादक चतुरसेन शास्त्री, नवम्बर 1928, पृ. 1.
49. वही, पृ. 3.
50. कर्मवीर, 5 जनवरी, 1930, पृ. 4.
51. चाँद का फाँसी अंक, नवम्बर, 1928, पृष्ठ 106.
52. वही, पृ. 149.
53. चाँद का फाँसी अंक, नवम्बर, 1928, पृष्ठ 149.
54. वही, पृ. 95.
55. बलिदान (नववर्षांक) अप्रैल, 1935, पृ. 11.
56. वही, पृ. 11.
57. बलिदान (नववर्षांक) अप्रैल, 1935, पृ. 11.
58. वही, पृ. 16.
59. वही, पृ. 24.
60. वही, पृ. 40.
61. वही, पृ. 50.
62. बलिदान (नववर्षांक) अप्रैल 1935, पृ. 80.
63. वही, पृ. 82
64. अलंकार, दिसम्बर 1934, पृ. 1.
65. वही, पृ. 7.
66. वही, पृ. 12.
67. वही, पृ. 57.
68. होम पॉलिटिकल फाइल 37/34/1939, पृ. 9 सीरियल नं. 5, भा. रा. अभिलेखागार, दिल्ली
69. क्रान्ति, सितम्बर 1939, पृ. 1.
70. वही, पृ. 3.
71. वही, पृ. 9.
72. वही, पृ. 11-13.
73. वही, पृ. 30.
74. वही, पृ. 33.
75. क्रान्ति, अक्टूबर 1939, पृ. 2.
76. वही
77. वही, पृ. 19.
78. विप्लव, प्रथमांक, नवम्बर 1938.
79. विप्लव, अप्रैल 1939, पृ. 9.
80. वही, पृ. 18.
81. वही, पृ. 15.
82. विप्लव, अप्रैल 1939, पृ. 34.
83. वही, पृ. 40.
84. वही, पृ. 35.
85. विप्लव, अप्रैल, 1939, पृ. 69.
86. रामरतन भटनागर, दि राइज ऐण्ड ग्रोथ ऑफ हिन्दी जर्नलिज्म, पृ. 459.
87. पूर्वांचला—डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृ. 52-53.
88. कल्याण—भाग 1, संख्या 1, श्रावण सं. 1983, पृ. 1.
89. कल्याण, अक्टूबर 1946, पृ. 1440.
90. वही
91. वही, पृ. 1386.
92. वही, पृ. 1389.
93. वही, पृ. 1393.
94. वही
95. कल्याण, अक्टूबर, 1936, पृ. 1397.
96. वही, पृ. 1411.
97. कल्याण, अक्टूबर, 1946, पृ. 1421.
98. दीवान शत्रुधन सिंह अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 44.
99. पुलिस फाइल 1107/1934 (उ. प्र. अभिलेखागार, लखनऊ)
100. बुन्देलखण्ड केसरी, 18 दिसम्बर 1933, पृ. 4.
101. बुन्देलखण्ड केसरी, दिसम्बर 1933, पृ. 4.
102. वही, पृ. 6.
103. वही, पृ. 7.
104. वही, पृ. 4.
105. वही
106. दीवान शत्रुधन सिंह अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 53.
107. वही, पृ. 44-55
108. बुन्देलखण्ड केसरी, दिसम्बर, 1933, पृ. 16-17.
109. वही, पृ. 2.
110. वही
111. वही, पृ. 18.
112. दीवान शत्रुधन सिंह अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 45.


संतोष  भदौरिया 
हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय,प्रयागराज 

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

Post a Comment

और नया पुराने