- विनय कुमार पाण्डेय
शोध
सार : प्रस्तुत
शोध
आलेख
में
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
के
भारत
में
सूफीमत
के
आरम्भ
और
उसके
साहित्य
सम्बन्धी
आलोचनात्मक
अवदानों
का
विश्लेषण
किया
गया
है। सूफीमत के
भारत
में
आगमन
और
उसके
प्रचार-प्रसार
की
विवेचना
हिंदी
के
जिन
आरंभिक
आलोचकों
ने
की
उनमे
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
अग्रणी
हैं।
चतुर्वेदी
प्रथम ऐसे
आलोचक
हुए
जिन्होंने
अपने
ग्रन्थ
'सूफी
काव्यसंग्रह', 'हिंदी के
सूफी
प्रेमाख्यान', 'भारतीय प्रेमाख्यान
परम्परा' जैसे स्वतंत्र
ग्रंथों
के
माध्यम
से
सूफीमत
एवं उसके साहित्य
की
स्वतंत्र
आलोचना
प्रस्तुत
की।
आचार्य
जी
ने
सूफ़ीमत
को
मात्र
निर्गुण
काव्य
की
एक
शाखा
के
रूप
में
ही
नहीं
चित्रित
किया
बल्कि
सूफ़ी
सम्प्रदाय
और
मध्यकालीन
हिंदी
सूफ़ी
काव्य
के
लिए
वह
ज़मीन
भी
तैयार
की
जो
कि
आगे
के
आलोचकों
के
लिए
इस
क्षेत्र
में
एक
उर्वर
भूमि
की
भांति
सिद्ध
हुई।
हिंदी
साहित्य
के
निर्माण
में
सूफीमत
तथा
उसके
साहित्य
की
जो
देन
है
उसकी
उपेक्षा
नहीं
की
जा
सकती।
अरब
देशों
से
भारत
में
आने
के
बाद
सूफीवाद
और
सूफीकाव्य
भारतीय
जनमानस
में
जिस
तरह
घुल-मिलकर
यहीं
का
होता
चला
गया
सूफी
साहित्य
के
इन्ही
अवदानों
पर
आचार्य
जी
ने
जो
वैज्ञानिक
और
अनुसंधानात्मक
आलोचना
प्रस्तुत
की
है।
इस
आलेख
में
आलोचक
परशुराम
चतुर्वेदी
के
उन्ही
आलोचनात्मक
बिंदुओं
की
चर्चा
की
जा
रही
है।
बीज
शब्द : सूफीवाद, मध्यकाल, भक्तिआंदोलन, आलोचना
दृष्टि, अनुसंधानपरक
दृष्टिकोण, दर्शन, इस्लाम, सूफीकाव्य, निर्गुण, मध्ययुगीन
साहित्य, ऐतिहासिकता, सामाजिकता, धार्मिक, मुसलमान, चिश्ती, सुहरावर्दी, कादरी, सत्तारी।
मूल
आलेख : मध्यकालीन
भक्ति
आंदोलन
में
सूफीमत
का
उल्लेख
करना
भी
उतना
ही
आवश्यक
है
जितना
कि
संतमत, रामकाव्य
और
कृष्णकाव्य
परंपराओं
का।
सूफीमत
इस्लाम
के
रहस्यवादी, उदारवादी तथा
समन्वयवादी
दर्शन
की
संज्ञा
है।
सूफियों
ने
कुरान
की
रहस्यवादी
एवं
उदारवादी
व्याख्या
की
जिसे
तरीकत
कहा
गया।
एक
धर्म
के
रूप
में
सूफीमत
का
विकास
ईशा
की
9 वीं
सदी
में
हुआ।
सूफीवाद
में
संसार
की
सभी
प्रमुख
धार्मिक
विचारधाराओं
को
सम्मिलित
किया
गया।
इस्लाम
धर्म
के
अतिरिक्त
इस
धर्म
पर
हिंदू-वेदांत, बौद्ध, जैन,
यूनानी, ईसाई इत्यादि
मतों
के
सिद्धांत
का
भी
समावेश
किया
गया
था।
सूफीमत
भी
दर-उल-हर्ब
को
दार-उल-इस्लाम
में
बदलना
चाहता
था।
सिर्फ
अंतर
इतना
था
कि
सूफी
परिवर्तन
के
लिए
शांतिपूर्ण
एवं
नैतिक
साधनों
का
प्रयोग
करना
चाहते
थे।
सूफी
संतों
तथा
फकीरों
ने
भी
हिंदू-मुस्लिम
सामंजस्य
स्थापित
करने
की
दिशा
में
महत्त्वपूर्ण
कार्य
किया।
इस
संदर्भ
में
मत
है
कि-
“सूफीमत
इस्लामी
दर्शन
के
उत्तरवादी
संस्करण
जो
इस्लाम
की
कट्टरपंथी
कुरान
समर्पित
मान्यताओं
के
विरोधस्वरूप
अरब
में
परिवर्तित
हुआ
किंतु
फारस
में
जाकर
विकसित
हुआ
राज्याश्रय
के
लोभ
में
इसे
समय-समय पर
कुरान
की
मान्यताओं
को
स्वीकार
करने
के
लिए
विवश
होना
पड़ा।
बाद
में
यह
जैसे-जैसे
अन्य
धर्म, संस्कृति
तथा
दर्शन
के
संपर्क
में
बढ़ा,
वैसे-वैसे
इसने
अपनी
उदारता
से
उनसे
समन्वय
स्थापित
किया
और
अपने
सिद्धांतों
में
परिवर्तन
कर
लोकप्रियता
प्राप्त
की।”1
भारत
में
सूफी
संप्रदाय
का
आगमन
मुस्लिम
आक्रमण
के
साथ
ही
होता
है।
जैसे-जैसे
भारत
में
मुस्लिम
शासकों
का
प्रभाव
बढ़ता
गया
सूफीवाद
का
भी
उसी
क्रम
में
विकास
होता
गया
।
किंतु
इन
आक्रमणकारियों
और
सूफियों
में
विभेद
है
जहाँ
पहले
के
कारण
धार्मिक
कट्टरता
का
उन्माद
छाया
रहा
तो
वहीं
दूसरे
का
इस्लाम
के
मूल
सिद्धांतों
का
प्रचार-प्रसार
रहा, हालांकि दोनों
के
केंद्र
में
इस्लाम
का
प्रचार
ही
रहा।
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
ने
अपने
ग्रंथों
में
सूफीवाद
के
प्रचार-प्रसार और
उनके
साहित्य
की
विशद
व्याख्या
प्रस्तुत
की
है।
आचार्य
चतुर्वेदी
ने
‘सूफी
काव्य
संग्रह’, ‘हिंदी के
सूफी
प्रेमाख्यान’, एवं ‘सूफी काव्य’ आदि
ग्रंथों
में
सूफीमत
और
उसके
अनेक
संप्रदायों
की
जितनी
गूढ़
व्याख्या
की
है
वह
अन्यत्र
किसी
भी
आलोचक
के
यहाँ
दुर्लभ
है।
अपनी
अनुसंधानपरक
दृष्टि
के
सहारे
वह
न
केवल
सूफियों
के
विभिन्न
मत, मतवादों, विचारों पर
आलोचनात्मक
टिप्पणी
करते
हैं
अपितु
सूफीमत
के
अनेकों
ज्ञात
और
अज्ञात
कवियों
के
बारे
में
जिस
तरह
से
उन्होंने
जानकारी
एकत्र
की
है
वह
हिंदी
के
किसी
अन्य
आलोचक
के
यहाँ
ढूँढना
असंभव
है।
सन
622 ई.-623 ई. में
मुख्य
रूप
से
फारस
में
जन्मा
सूफीमत
कालांतर
में
व्यवस्थित
स्वरूप
पाकर
भारत
में
प्रविष्ट
हुआ
तथा
12 वीं
शताब्दी
तक
धार्मिक
आधार
पाकर
प्रविष्ट
होता
चला
गया।
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
भी
भारत
और
अरब
के
संबंध
प्राचीनकाल
तक
देखते
हुए
इस्लाम
और
सूफी
की
जड़ें
उस
काल
में
भी
जाकर
खोजते
हैं।
जैसा
कि
उन्होंने
खुद
भी
स्वीकार
किया
है
कि
भारत
में
इस्लाम
का
प्रादुर्भाव
विक्रम
की
सातवीं
शताब्दी
में
हो
गया
था।
चतुर्वेदी
जी
का
यह
मानना
ऐतिहासिक
दृष्टि
से
भी
अक्षरशः
सत्य
प्रतीत
होता
है
क्योंकि
सातवीं
से
आठवीं
शताब्दी
के
मध्य
में
भारत
में
प्रथम
मुस्लिम
आक्रमणकारी
मोहम्मद
बिन
कासिम
का
भी
आक्रमण
हुआ।
आचार्य
चतुर्वेदी
का
इस
संबंध
में
मत
है- "व्यापारियों
के
साथ-साथ
अरब
तथा
उसके
पड़ोस
के
लोग
धर्म
उपदेश
के
लिए
भी
भारत
आने
लगे
और
मालाबार
के
समर्थक
एवं
मैलापुर(मद्रास)
तथा
पेशावर
की
और
उनके
धर्मोपदेश
का
कुछ
न
कुछ
आरंभ
होने
लगा
और
संवत
769 विक्रम
के
अंतर्गत
सिंध
प्रदेश
पर
मोहम्मद
बिन
कासिम
का
आक्रमण
भी
हो
गया।
उस
आक्रमण
के
समय
उमया
वंश
के
खलीफा
धर्म
के
प्रचार
में
लगे
हुए
थे
और
सूफी
मत
का
अभी
प्रथम
युग
चल
रहा
था।"2 सूफीमत
की
उत्पत्ति
मूलतः
संवेदना
के
मानवीय
पक्ष
में
निहित
है।
सूफी
संतों
ने
परमात्मा
और
मनुष्य
के
बीच
प्रेम
का
जो
मानवीय
पक्ष
रखा, उसे सामंतवादी
इस्लाम
नहीं
रख
सकता
था।
इस्लाम
का
धार्मिक
स्वरूप
जब
भावना
शून्य
हो
गया
और
मानवीय
सरोकार
गौण
तथा
नियमबद्धता
एवं
रूढ़ी
पालन
ही
मुख्य
हो
गए, तब उसी
के
बीच
में
सूफी
चिंतन
की
शुरुआत
होती
है।
इस
संबंध
में
शिवसहाय
पाठक
का
कथन
है
कि
"सूफीमत के आविर्भाव
का
मूल
कारण
इस्लाम
की
कट्टरता
है।
इसी
कट्टरता
की
प्रतिक्रिया
के
रूप
में
क्योंकि
सहज
स्वाभाविक
प्रेम-साधना
का
विकास
हुआ
है।
उस
समय
के
इस्लामी
शासकों
की
धर्मान्धता
और
विलासिता
के
साथ
ही
राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और
आर्थिक
परिस्थितियाँ
भी
इस
मत
के
विकास
में
सहायक
रही
हैं।"3 इसी
संदर्भ
में
डॉक्टर
मुक्तेश्वर
तिवारी
का
मत
है-
“सूफीमत
इस्लामी
दर्शन
का
उदारवादी
संस्करण
है
जो
इस्लाम
की
कट्टरपंथी, कुरान समर्पित
मान्यताओं
के
विरोधस्वरूप
अरब
में
परिवर्तित
हुआ, किंतु फारस
में
जाकर
विकसित
हुआ
कालांतर
में
जैसे-जैसे
अन्य
धर्म, संस्कृति, दर्शन
से
इसका
संपर्क
बढ़ा, इसने अपनी
उदारता
से
समन्वय
स्थापित
किया
और
अपने
सिद्धांतों
में
परिवर्तन
कर
लोकप्रियता
प्राप्त
की।"4 आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
इन
बातों
का
पूरी
तरह
से
समर्थन
नहीं
करते
हैं।
इस्लाम
को
ही
मूल
अंग
मानते
हुए
देशकाल, परिस्थितियों के
संपर्क
में
आते
जाने
के
कारण
इसके
अलग-अलग स्वरूप
की
व्याख्या
करते
हैं।
इससे
यह
बात
सिद्ध
होती
है
कि
सूफीमत
सभी
देशों
में
संभवत
एक
जैसा
नहीं
रहा
होगा।
अलग
देशों
के
धर्मों
और
उनके
अनुयायियों
के
प्रभाव
में
आकर
अवश्य
ही
इसने
अपना
स्वरूप
बदला
है।
उनका
मानना
है
कि
"सूफीमत इस्लाम धर्म
का
ही
एक
अंग
है
इसलिए
अपनी
पृष्ठभूमि
के
लिए
इसे
अंततः
मुस्लिम
धर्म
ग्रंथों
का
ही
आश्रय
ग्रहण
करना
पड़ता
है
और
उन्हीं
के
वातावरण
में
उत्पन्न
संस्कार
इसे
स्वभावतः
अनुप्राणित
भी
किया
करते
हैं।
फिर
भी
भिन्न-भिन्न
देशों
और
अनेक
महापुरुषों
के
प्रभाव
निरंतर
बढ़ते
रहने
के
कारण
इसमें
कई
अन्य
बातों
का
भी
समावेश
हो
गया
और
इसके
मौलिक
सिद्धांतों
एवं
साधनाओं
में
बहुत
कुछ
मतभेद
आ
गया।"5
सूफी
मत
के
विकास
के
इस
तेज़ी
के
पीछे
कुछ
ऐतिहासिक
और
सामाजिक
कारणों
ने
महती
भूमिका
निभाई।
एक
तो
सूफीमत
के
भारत
में
आगमन
से
पूर्व
भारत
के
साथ
अरबों
के
संबंध
स्थापित
हो
चुके
थे
जिससे
व्यापारिक
और
राजनीतिक
संबंधों
के
साथ-साथ
वे
यहाँ
के
लोगों
के
रहन-सहन, धर्म, साधना
पद्धति
आदि
के
संपर्क
में
भी
आ
चुके
थे।
इसलिए
अरब
से
जो
सूफी
संत
अपने
मत
के
प्रचार
के
लिए
भारत
आए
थे
उन्होंने
भारत
के
ही
ऐतिहासिक, अर्द्ध-ऐतिहासिक
कथानकों
और
मिथकों
आदि
के
माध्यम
से
अपने
मत
का
प्रचार
किया।
शायद
यही
कारण
था
कि
भारतीय
जनता
ने
सूफीमत
को
तेज़ी
से
स्वीकार
करने
में
किसी
प्रकार
की
कठिनाई
का
अनुभव
नहीं
किया
जिसका
वर्णन
उचित
संदर्भों
में
आचार्य
चतुर्वेदी
व
अन्य
विद्वान
भी
करते
हैं।
यद्यपि
एक
प्रश्न
यह
भी
खड़ा
होता
है
कि
उन
दिनों
जबकि
हिंदुओं
और
मुसलमानों
की
लड़ाई
आम
बात
थी
और
दोनों
वर्गों
के
मध्य
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष टकराहट
मौजूद
थी
फिर
मुसलमान
सूफी
संत
भारत
में
अपने
मत
का
प्रचार
करने
में
कैसे
सफल
हुए? इसका उत्तर
आचार्य
हजारीप्रसाद
द्विवेदी
देते
हुए
कहते
हैं
कि
"मध्ययुग बहुत कुछ
करामातों
का
युग
था
उस
युग
के
प्रत्येक
साधु-संत के
नाम
पर
दो
चार
करामाती
किस्से
मिल
जाते
हैं।
इन
करामातों
और
उसकी
स्थिति
से
लोग
परस्पर
एक
दूसरे
की
तरफ़
आकृष्ट
होते
थे
दोनों
ज्यों-ज्यों निकट
आते
गए
त्यों-त्यों अधिकाधिक
अनुभव
करने
लगे
दोनों
में
तात्विक
मतभेद
बहुत
कम
हैं।"6
भारत
में
सूफीमत
के
विकास
का
एक
क्रम
मिलता
है।
प्रारंभिक
स्थिति
में
सूफी
संतों
का
जीवन
एक
फकीरी
जीवन
था।
वे
संसार
से
विरक्त
होकर
सादा
और
कष्टमय
जीवन
व्यतीत
करने
में
आत्मिक
सुख
एवं
शांति
का
अनुभव
करते
थे।
लेकिन
इस
वैराग्य
में
भी
वह
मानवीय
सरोकारों
से
भरे
रहते
थे।
इस
वैराग्य
को
स्पष्ट
करते
हुए
के. दामोदरन
ने
लिखा
है
"उनका यह वैराग्य
भारतीय
समाज
विकास
की
उस
विशिष्ट
अवस्था
में
जीवात्मा
और
यथार्थ
के
बीच
अन्तर्विरोध
की
अभिव्यक्ति
था।
शारीरिक
सुखों
की
विरक्ति
की
इच्छा
इस
विरोध
की
आध्यात्मिक
अभिव्यक्ति
थी।"7 कहने
का
आशय
यह
है
कि
इस
प्रकार
के
क्रियाकलापों
के
द्वारा
भी
सूफी
संतों
ने
हिंदू
जनता
में
अपनी
पैठ
जमाने
में
कामयाबी
हासिल
की।
आचार्य
चतुर्वेदी
सूफियों
की
भारत
में
प्रारंभिक
स्थिति
तकरीबन
1110 ई. के
आसपास
देखते
हैं
जिसके
पीछे
वे
किसी
संभावना
अथवा
आकलन
के
तर्क
का
सहारा
ना
लेकर
ऐतिहासिक
आधार
लेते
हैं
जिसमें
वे
भारत
में
सूफियों
की
प्रारंभिक
उपस्थित
उस
समय
को
मानते
हैं
जब
पहले
सूफी
संत
अल
हुज्विरी
का
भारत
में
आगमन
होता
है
और
यह
लगभग
वही
समय
है
जिसके
बारे
में
ऊपर
बताया
गया
है।
उनका
मानना
है
कि
"भारत में सूफीमत
के
प्रचार
का
आरंभ
वास्तव
में
उस
समय
से
होता
है
जब
विक्रम
की
12 वीं
शताब्दी
के
प्रथम
चरण
में
यहाँ
के
प्रसिद्ध
सूफी
अल
हुज्विरी
का
आगमन
हुआ।"8
दरअसल
आचार्य
चतुर्वेदी
भारत
में
सूफियों
के
उद्भव
और
विकास
को
तीन
चरणों
में
देखते
हैं
जिसमें
से
तीसरा
व
अंतिम
चरण
वही
है
जहाँ
से
सूफियों
द्वारा
इस्लाम
के
प्रचार-प्रसार
को
भारत
में
बढ़ाया
गया।
यहीं
से
भारत
में
सूफी
संत
परंपरा
और
उसके
साहित्य
का
वास्तव
में
विकास
आरंभ
होता
है।
आचार्य
चतुर्वेदी
का
यह
मानना
है
कि
यही
वह
अल
हुज्विरी
ही
थे
जो
‘हजरत
दातागंज’ के
नाम
से
भी
प्रसिद्ध
थे
जिनकी
एक
‘कुशफुल
महजूब’ नाम
की
प्रारंभिक
रचना
भी
स्वीकार
की
जाती
है।
जिसमें
उन्होंने
सूफीमत
की
अनेक
बातों
का
स्पष्टीकरण
करने
के
साथ-साथ
अपने
समय
तक
प्रचलित
विभिन्न
सूफी
संप्रदायों
का
भी
उल्लेख
किया
है
और
उनमें
से
सर्वप्रथम
12 का
वर्गीकरण
करके
उनकी
विशेषताओं
का
न्यूनाधिक
परिचय
भी
दिया
है।
परंतु
मुख्य-मुख्य चार
ऐसे
संप्रदायों
का
विशेष
प्रचार
भारत
में
हुआ
उनका
स्पष्ट
विवरण
उनके
उक्त
ग्रंथों
में
नहीं
पाया
जाता।
आचार्य
चतुर्वेदी
के
इस
तथ्य
से
यह
स्पष्ट
होता
है
कि
जो
चार
संप्रदाय
भारत
में
प्रचलित
हुए
उनसे
पहले
और
उनके
अलावा
भी
अन्य
सूफी
संप्रदाय
भारत
और
उसके
आसपास
के
देशों
में
सक्रिय
थे।
सूफी
संप्रदाय
की
जिस
तीसरी
अवस्था
का
वर्णन
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
करते
हैं
उसका
प्रारंभ
तब
होता
है
जब
सूफी
संत
भिन्न-भिन्न
संप्रदायों
के
रूप
में
संगठित
होने
लगते
हैं।
वेदांत
की
तरह
ही
सूफीमत
भी
अनेकानेक
पंथों
में
बंटता
चला
गया।
सूफी
संत
जो
अलग-अलग
सिलसिलों
में
संगठित
थे
अपने
अपने
सिद्धांतों
का
प्रचार
करते
हुए
दर-दर
घूमने
लगे।
12 वीं
और
16 वीं
शताब्दी
के
बीच
कितने
ही
सूफीमतों
की
स्थापना
हुई।
चिश्ती, सुहरावर्दी, कादरी, सत्तारिया और
नक्शबंदी
सर्वाधिक
प्रभावशाली
हुए।
इनके
अलावा
कुछ
अन्य
संप्रदाय
भी
संगठित
हुए
जो
इस्लाम
में
विधर्मी
माने
जाते
हैं।
इनमे
‘मेहंदी’ और
‘रोशनी’ सम्प्रदायों
का
नाम
लिया
जा
सकता
है।
यह
संप्रदाय
दरअसल
सामाजिक
समरसता
पर
आधारित
थे।
इसलिए
निम्न
वर्गों
में
इन्हें
व्यापक
आधार
मिला।
के. दामोदरन
के
शब्दों
में
"मेहंदी आंदोलन ने
15 वीं
शताब्दी
के
उत्तरार्द्ध
में
भारत
में
निश्चित
रूप
और
आकार
ग्रहण
किया।
मेहंदी
आंदोलन
व्यापारियों, लकड़हारों, भिश्तियों
और आबादी
के
दूसरे
गरीब
हिस्सों
में
विशेष
रूप
से
फैल
गया
था।"9
सूफी
संतों
ने
मध्ययुग
के
उत्तरार्द्ध
में
सामाजिक
विचार
प्रणाली
के
समूचे
विकास
पर
गहरा
प्रभाव
डाला।
वस्तुतः
इन
पंथों
का
संघर्ष
ना
तो
किसी
धर्म
विशेष
के
ख़िलाफ़
था
और
ना
ही
उनके
समुदायों
के
प्रति, इस प्रकार
सूफीवाद
भारत
में
अपने
जड़े
जमाता
गया
और
आगे
चलकर
भारत
भूमि
में
भारतीय
होकर
रह
गया।
इन्होंने
भारतीय
और
मुस्लिम
संस्कृति
का
विनिमय
पूर्वग्राही
तेवर
से
सर्वदा
अलग
होकर
सौमनस्य
पूर्ण
वातावरण
में
किया
जिससे
इन्हें
भारत
में
हिंदू
मुस्लिम
दोनों
वर्गों
में
लोकप्रियता
हासिल
हुई।
सूफियों
की
धर्म
पद्धति
में
आरंभ
में
यह
मान्यता
थी
कि
मुस्लिम
धार्मिक
व्यक्ति
बहुधा
अल्लाह
की
दंड
प्रणाली
से
बहुत
भयभीत
रहता
था
जिसके
कारण
वह
संसार
रूपी
प्रपंच
से
बचने
के
लिए
हमेशा
भ्रमणरत
रहते
थे।
जिसमें
कुछ
प्रसिद्ध
धार्मिक
व्यक्ति
भी
हुआ
करते
थे
जिनके
बहुत
से
मुरीद
भी
होते
थे
जिनसे
मंडली
का
निर्माण
हो
जाता
था।
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
का
मानना
है
कि
"इन भ्रमणशील
मंडलियों
को
ही
कालांतर
में
‘अत
तारीख’ कहा जाने
लगा
और
वही
पीछे
संप्रदाय
का
रूप
लेकर
प्रसिद्ध
हुए।"10 अध्ययन
से
यह
भी
पता
चलता
है
कि
इन
संप्रदायों
के
अलग-अलग
प्रधान
होते
थे
किंतु
अनेक
संप्रदायों
ने
अपने-अपने
पंथों
का
मूल
स्रोत
स्वयं
हजरत
मोहम्मद
अथवा
उनके
प्राचीन
खलीफा
तक
सिद्ध
करने
की
चेष्टा
की
है।
आचार्य
चतुर्वेदी
ने
भी
इस्लाम
में
सूफी
की
श्रेष्ठता
सिद्ध
करते
हुए
कहा
है
कि
"स्वयं हजरत मोहम्मद
एवं
उनके
प्राचीन
खलीफाओं
ने
सिद्ध
करने
का
प्रयास
किया
है
और
सूफीमत
को
ही
इस
प्रकार
मूल
इस्लाम
धर्म
का
वास्तविक
रूप
ठहराया
है।
जिनमें
हजरत
अली
कदाचित
सबसे
अधिक
अपनाए
गए
हैं
और
सूफियों
की
दृष्टि
से
महत्त्व
के
अनुसार
इनके
अनंतर
अबू
बकर
का
भी
नाम
आता
है।"11
इस
प्रकार
से
भारत
में
भी
सूफी
संप्रदाय
के
विकास
का
आधार
भी
कुछ
ऐसा
रहा
किंतु
यहाँ
पर
कुछ
गिने-चुने
संप्रदाय
अपना
अस्तित्व
कायम
रखने
मैं
सफल
रह
पाए
जिसमें
प्रमुख
है
चिश्तिया
संप्रदाय, सुहरावर्दी संप्रदाय, कादरिया संप्रदाय, और नक्शबंदी
संप्रदाय।
इसके
अलावा
कुछ
अन्य
संप्रदाय
भी
भारत
में
सक्रिय
रहे
किंतु
उनकी
सक्रियता
या
तो
क्षेत्र
विशेष
में
सिमटकर
रह
गई
या
फिर
उसकी
साधना
का
मार्ग
कुछ
ऐसा
था
कि
लोगों
में
वह
अपना
अस्तित्व
स्थापित
नहीं
कर
पाया।
सूफी
साहित्य
के
अन्य
आलोचकों
की
भांति
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
ने
भी
सूफी
संप्रदाय
के
इन
चार
मतों
को
ही
अपनी
आलोचना
के
केंद्र
में
रखा।
यद्यपि
अपनी
अनुसंधानात्मक
प्रवृत्ति
के
चलते
इन्होंने
इनके
अतिरिक्त
अन्य
सूफी
संप्रदायों
पर
काफी
शोध
किया
किंतु
मुख्य
चार
ही
हैं।
ऊपर
जिन
चार
सूफीमतों
के
बारे
में
बताया
गया
है
वह
चारों
मत
मुख्य
रूप
से
उत्तरी
भारत
में
सक्रिय
रहे
इनकी
व्यापकता
तो
लगभग
समस्त
भारत
में
थी
किंतु
उत्तर
भारत
में
इन
संप्रदायों
ने
अपना
एक
विशेष
स्थान
बनाया
जिसकी
आगे
की
परिणति
हमें
हिंदी
के
सूफी
साहित्य
के
रूप
में
देखने
को
मिलती
है।
सातवीं-आठवीं शताब्दी
में
अनेक
सूफी
संतों
के
भारत
में
आगमन
का
और
भारतीय
विविध
धर्म
साधनाओं
से
इनके
संपर्क
का
भारतीय
इतिहास
में
महत्त्वपूर्ण
स्थान
है।
इन
संतो
ने
अपने
विचार
व्यवहार
एवं
दर्शन
से
भारतीय
जनमानस
को
प्रभावित
करने
की
व्यापक
संभावनाओं
के
साथ
भारत
में
प्रवेश
किया
तथा
स्वयं
भारतीय
धर्म
एवं
वाङ्गमय
से
परिचित
होकर
उनके
गतिशील
तत्त्वों
को
ग्रहण
करने
की
सार्थक
पहल
भी
की।
"यद्यपि इनका भारत
के
साथ
आध्यात्मिक
संबंध
सातवीं-आठवीं शताब्दी
से
ही
मिलने
लगता
है
किंतु
भारत
में
सूफीमत
का
क्रमिक
विकास
12वीं
शताब्दी
से
प्रारंभ
होता
है।"12 प्रारंभ
में
पंजाब
और
सिंध
प्रांत
सूफियों
के
केंद्र
बने, वहाँ से
धीरे-धीरे
यह
सारे
भारत
में
फैल
गए।
यहाँ
इनकी
उदारता,
सहिष्णुता
एवं
समन्वय
भावना
ने
भारतीयों
को
इतना
प्रभावित
किया
कि
आगे
चलकर
इनके
अनेक
केंद्र
स्थापित
हो
गए।
सूफियों
के
संप्रदायों
का
प्रारंभ
चार
पीरों
से
माना
जाता
है।
यद्यपि
इन
पीरों
के
नाम
में
एकमत
हैं
कि
नहीं
हैं
किंतु
प्रोफ़ेसर
जय
बहादुर
के
अनुसार
"अधिकांश संप्रदाय
जिन
नामों
से
जुड़े
हैं
वे
हैं
पीर
हजरत
मुर्तजा
अली, ख्वाजा हसन
बसरी, ख्वाजा हबीब
आज़मी
तथा
अब्दुल
वहीद
विन
जैदी
कूकी।"13 इनकी
परंपरा
भारत
में
भी
विकसित
हुई
जिनमें
चिश्तिया, कादरी, सुहुरावर्दी और
नक्शबंदी
प्रमुख
है।
इनमें
से
प्रथम
तीन
हसन
अली
बसरी
से
संबंध
है
तथा
चौथा
अबू
बकर
से।
इन
संप्रदायों
के
साधना
मार्ग
तथा
संप्रदायों
को
लेकर
जो
अलगाव
है
उसकी
चर्चा
करते
हुए
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
इस
संदर्भ
में
जो
भी
आलोचनात्मक
अनुसंधान
करते
हैं
उसे
यहाँ
स्पष्ट
किया
जा
रहा
है।
सूफी
संप्रदाय
का
प्रथम
प्रमुख
संप्रदाय
चिश्तिया
संप्रदाय
है।
यह
संप्रदाय
भारत
में
अन्य
धर्म
का
प्रचार
करने
वाला
प्रथम
संप्रदाय
था
और
सभी
अन्य
संप्रदायों
से
प्रसिद्ध
था।
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
ने
इस
संप्रदाय
के
भारत
में
अपने
जड़े
मजबूत
करने
की
समूचे
इतिहास
को
अपने
ग्रंथ
‘सूफ़ी
काव्य
संग्रह’ में
बहुत
ही
गहन
अनुसंधान
और
ऐतिहासिक
शोध
के
बाद
विस्तार
दिया
है।
चिश्ती
संप्रदाय
का
भारत
में
आना
उसके
प्रथम
प्रचारक
तथा
भारत
के
विभिन्न
भागों
में
या
संप्रदाय
अपने
धर्म
और
ज्ञान
का
प्रकाश
किस
प्रकार
फैलाता
है
इसका
जितना
विशद
और
अनुसंधानात्मक
वर्णन
आचार्य
चतुर्वेदी
का
है
वह
अन्य
किसी
भी
आलोचक
के
यहाँ
दुर्लभ
है।
चिश्ती
संप्रदाय
का
प्रथम
प्रचारक
भारत
में
कौन
था
इसको
लेकर
विद्वानों
में
मतभेद
है, किंतु ज़्यादातर
विद्वान
ख्वाजा
अबू
इशहाक
शामी
चिश्ती
को
ही
मानते
हैं।
आचार्य
चतुर्वेदी
भी
इन
अधिकतर
विद्वानों
की
ही
भांति
उन्हें
ही
भारत
में
चिश्ती
संप्रदाय
का
प्रथम
प्रचारक
मानते
हैं
"ख्वाजा अबू इशहाकशामी, चिश्ती
हजरत
अली
से
नौवीं
पीढ़ी
में
माने
जाते
हैं
और
वे
ही
इसके
प्रथम
प्रचारक
समझे
जाते
हैं।
वे
एशिया
माइनर
से
चलकर
खुरासन
के
चिश्तीनगर
में
निवास
करते
थे
जिस
कारण
उन्हें
चिश्ती
कहा
जाता
है।"14 आगे
चलकर
आचार्य
चतुर्वेदी
यह
भी
स्वीकार
करते
हैं
कि
जिन
ख्वाजा
मोइनुद्दीन
चिश्ती
ने
भारत
में
चिश्ती
संप्रदाय
की
विस्तृत
पैमाने
पर
आधारशिला
रखी
और
जिसने
भारत
के
विभिन्न
कोनों
में
इस
संप्रदाय
का
प्रचार-प्रसार किया
वह
भी
ख्वाजा
अबू
इशहाकशामी
के
ही
वंशज
थे-
"ख्वाब इशहाकशामी
के
उत्तराधिकारी
अबू
अहमद
अवघल
की
मृत्यु
के
बाद
उन्हीं
के
सातवीं
पीढ़ी
में
प्रसिद्ध
ख्वाजा
मोइनुद्दीन
चिश्ती
अजमेरी
हुए
थे
जिन्होंने
इस
संप्रदाय
द्वारा
सूफीमत
का
प्रचार
सर्वप्रथम
भारत
वर्ष
में
किया
था।"15
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
ने
अपने
अनुसंधानात्मक आलोचना से
न
केवल
चिश्ती
संप्रदाय
के
प्रवर्तक
और
भारत
में
उसके
प्रचार
के
बारे
में
बताया
बल्कि
इस
संप्रदाय
के
अनेक
ऐसे
आरंभिक
और
प्रवृत्ति
संतों
का
भी
वर्णन
किया
है
जो
इस
संप्रदाय
में
अपना
प्रमुख
स्थान
रखते
हुए
भी
आलोचकों
के
वर्ण्यविषय
में
प्रमुखता
न
पा
सके।
आचार्य
चतुर्वेदी
ने
जिन-जिन संतों
का
जिक्र
किया
है
उनमें
‘काकी’ और ‘शकरगंज’, ‘औलिया’ व ‘साबिर’ आदि प्रमुख
हैं।
‘ख्वाजा
मोइनुद्दीन
चिश्ती’ के अनुयायियों
में
सबसे
प्रमुख
‘कुतुबुद्दीन
काकी’ थे इन्हीं
की
शिष्य
परंपरा
में
शकरगंज
भी
हुए।
आगे
चलकर
इन्हीं
शकरगंज
के
परम्परा
से
‘निजामुद्दीन
औलिया’ तथा ‘अलाउद्दीन साबिर’ हुए जिनमें
निजामुद्दीन
औलिया
उत्तर
भारत
के
सर्वाधिक
प्रसिद्ध
सूफी
हुए।
परशुराम
चतुर्वेदी
ने
जिस
शोधपरक
दृष्टि
से
इन
सूफी
संतो
के
बारे
में
अपना
गहन
अध्ययन
प्रस्तुत
किया
है
वह
अद्भुत
है।
उनके
जैसे
विषय
को
व्यापकता
प्रदान
करने
वाले
आलोचक
के
लिए
ही
यह
संभव
हो
सकता
था
जिसका
प्रमाण
सूफी
साहित्य
पर
उनका
अपना
अध्ययन
था।
आचार्य
चतुर्वेदी
ने
अपने
अध्ययन
के
द्वारा
सूफी
संप्रदाय
के
विभिन्न
उप-संप्रदायों, प्रवर्तकों उनके
दर्शन, उनके जीवन, और उनके
जीवन
के
अन्य
पहलुओं
का
भी
विस्तार
से
वर्णन
किया
है।
शकरगंज
के
अध्ययन
में
उन्होंने
यह
भी
बताया
है
कि
“यह
फरीद
के
नाम
से
भी
जाने
जाते
थे
इन्हीं
के
नाम
पर
चिट्टियां
संप्रदाय
का
उप
संप्रदाय
’फरीदिया
कहलाकर
प्रसिद्ध
हुआ।"16
इसी
प्रकार
से
उन्होंने
चिश्ती
संप्रदाय
के
अन्य
उप-संप्रदायों
का
भी
परिचय
दिया
जिससे
उनकी
आलोचना
के
विस्तारवादी
दृष्टिकोण
का
पता
चलता
है।
इनके
अनुसार
"निजामुद्दीन औलिया
के
नाम
पर
‘निजामिया’ उप संप्रदाय
बना
और
इसी
‘निजामिया’ उप संप्रदाय
में
भी
आगे
चलकर
‘हीजामिया’ एवं ‘हम्ज शाही’ नाम की
भी
दो
शाखाएं
प्रचलित
हुई।
दूसरे
के
एक
प्रचारक
‘सैयद
गेसूदराज’ हुए जिनकी
समाधि
दक्षिण
भारत
में
गुलबर्गा
में
बनी
हुई
है।"17 इसके
अलावा
भी
आचार्य
चतुर्वेदी
ने
इस
संप्रदाय
की
विभिन्न
विशेषताओं
को
इंगित
किया
है
जैसे
इस
संप्रदायिक
में
संगीत
को
प्रधानता
दी
गई
है।
साधक
को
मस्जिद
या
किसी
एकांत
जगह
में
रहना
पड़ता
है
जिसे
‘चिल्ल’ कहते हैं।
सारा
समय
परमात्मा
के
चिंतन
और
प्रार्थना
में
लगता
है।
चिश्तिया
लोग
बड़े-बड़े
बाल
कैसे
रखते
हैं
तथा
रंगीन
वस्त्र
धारण
करते
हैं।
यह
अली
को
परमात्मा
तथा
मोहम्मद
के
समकक्ष
मानते
हैं।
सुहरावर्दी
संप्रदाय
सूफी
संप्रदाय
का
दूसरा
प्रमुख
संप्रदाय
है।
भारत
में
इस
संप्रदाय
का
काफी
प्रचार
हुआ।
लेकिन
इस
संप्रदाय
का
परवर्तन
भारत
में
उसके
प्रवर्तक
‘शहाबुद्दीन सुहरावर्दी’ से
नहीं
अपितु
उनके
शिष्यों
द्वारा
हुआ।
इस
संप्रदाय
के
भारत
में
प्रचार
के
संबंध
में
आचार्य
चतुर्वेदी
का
मत
है-
"सुहरावर्दी संप्रदाय
का
भारत
में
इतिहास
शहाबुद्दीन
सुहरावर्दी
के
बगदाद
से
आए
हुए
शिष्यों
से
आरंभ
होता
है।
यह
‘कुतुबुद्दीन
काकी’ के समसामयिक
थे
और
उनसे
बहुत
कुछ
प्रभावित
भी
हुए
थे।
किंतु
भारत
में
इस
संप्रदाय
के
लिए
सबसे
अधिक
कार्य
करने
वालों
में
बहाउद्दीन
जकारिया
थे
जो
मक्का
से
आते
समय
इनके
शिष्य
बन
गए
थे।"18 किंतु
डॉक्टर
रामकुमार
वर्मा
के
अनुसार-
"भारत में सर्वप्रथम
इस
संप्रदाय
को
प्रचलित
करने
का
श्रेय
सैयद
जलालुद्दीन
सुर्खपाश
को
है
जो
बुखारा
में
उत्पन्न
हुए
और
स्थाई
रूप
से
सिंध
में
आकर
बस
गए।"19 इन
दोनों
विचारों
में
ज़्यादा
संगत
आचार्य
चतुर्वेदी
का
मत
है
क्योंकि
यह
इतिहास
सम्मत
भी
है
और
सर्वग्राही
भी।
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
ने
इस
संप्रदाय
के
संबंध
में
इस
ओर
भी
संकेत
किया
है
की
कुछ
ने
अपनी
नेमावली
ठेठ
इस्लाम
धर्म
की
स्वीकृत
बातों
के
प्रतिकूल
चलकर
ही
बनाने
की
चेष्टा
की
जिसके
कारण
वे
मलामती(निंदनीय)
कहलाये।
इनका
वर्गीकरण
भी
बशरा(वैध)
एवं
बेशरा(अवैध)
संकेतों
द्वारा
किया
गया
जिसके
द्वारा
इसके
दो
शाखाएँ
निकलीं
प्रथम
बशरा
सुहरावर्दी
शाखा
द्वितीय
बेशरा
सुहरावर्दी
शाखा।
सूफी
संप्रदाय
का
भारत
में
तीसरा
बड़ा
संप्रदाय
‘कादरिया
संप्रदाय’ है। आचार्य
चतुर्वेदी
ने
इस
संप्रदाय
के
भारतीय
उत्थान
का
बहुत
ही
बारीकी
से
अध्ययन
करके
अपनी
आलोचनात्मक
टिप्पणियाँ
दी
है।
इस
संप्रदाय
का
प्रवर्तक
‘अब्दुल
कादिर
अली
जिलानी’ को माना
जाता
है।
किंतु
यह
फारस
के
रहने
वाले
थे
और
उन्होंने
लगभग
फारस
के
आसपास
ही
इस
संप्रदाय
का
प्रचार-प्रसार
किया।
भारत
में
इस
धर्म
के
प्रवर्तक
को
लेकर
लगभग
सभी
विद्वानों
में
मतैक्य
है।
सभी
ने
एक
स्वर
में
सैयद
मोहम्मद
गौस
को
इस
संप्रदाय
का
भारत
में
आदि
प्रवर्तक
माना
है।
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
ने
भी
वही
स्वीकार
किया
है।
वे
कहते
हैं
"भारत में कादरिया
संप्रदाय
अपने
मूल
प्रवर्तक
‘अब्दुल
कादिर
जिलानी’ की मृत्यु
के
लगभग
300 साल
पीछे
स्थापित
हुआ।
भारत
में
इसके
सर्वप्रथम
प्रचारक
‘मोहम्मद
गौस
वालापीर’ थे
जो
जिलानी
से
10 वीं
पीढ़ी
में
थे।"20
इस
संप्रदाय
के
लोग
संगीत
को
महत्त्व
नहीं
देते
किंतु
इसके
एक
संप्रदाय
नवशाही
में
हाल
उत्पन्न
करने
के
लिए
संगीत
की
सहायता
ली
जाती
है।
इनकी
विशेषता
यह
होती
है
कि
यह
हरे
रंग
की
पगड़ी
बाँधते
हैं, उनके
वस्त्रों
में
कम
से
कम
एक
अवश्य
गेरुआ
रंग
में
रंगा
रहता
है।
इस
संप्रदाय
में
कितने
उप-संप्रदाय
बने
इसकी
कोई
निश्चित
गणना
नहीं
है।
आचार्य
चतुर्वेदी
ने
इस
संप्रदाय
के
कुछ
प्रमुख
उप-संप्रदायों
की
चर्चा
की
है
जिनमें
‘शाह
कुमेश’ की
‘कुमेशिया’ बंगाल
प्रांत
में
प्रचलित
हुई।
इसी
प्रकार
से
रावलपिंडी
में
‘बाहलूलशाही
शाखा’ तथा
लाहौर
में
‘मुकीम
साही
शाखा’ प्रसिद्ध है।"21
कादरिया
संप्रदाय
के
बारे
में
यह
धारणा
है
कि
इसमें
संगीत
का
महत्त्व
नहीं
है।
किंतु
आचार्य
चतुर्वेदी
ने
अपने
अनुसंधान
से
यह
बताया
कि
इसकी
एक
शाखा
ऐसी
भी
थी
कि
जिसमें
संगीत
के
साथ
नृत्य
का
भी
प्रचलन
हो
चला
था।
वे
लिखते
हैं-
"पश्चिमी भारत के
ही
कुछ
प्रांतों
में
हाजी
मोहम्मद
की
‘नौशाही
शाखा’ का
प्रचार
है
जिसके
अनुयायी
मूल
कादरिया
संप्रदाय
की
परंपरा
के
विरुद्ध
संगीत
को
अधिक
अपनाने
लगे
और
गाते-गाते अपना
सिर
बड़े
झोंके
के
साथ
हिलाया
करते
थे।
इस
संप्रदाय
की
एक
शाखा
शाहलाल
हुसैन
की
हुसैनशाही
कहलाती
है
और
इसके
अनुसार
नृत्य
तक
विरुद्ध
नहीं
है।"22 इस
संप्रदाय
की
एक
विशेषता
यह
भी
है
कि
इसमें
‘जिक्रे
शफी’ और
‘जिक्रे
जली’ दोनों
का
प्रचलन
है।
सूफीमत
का
भारत
में
अंतिम
प्रमुख
संप्रदाय
‘नक्शबंदी
संप्रदाय’ है।
सम्राट
अकबर
के
समय
में
‘हजरत
ख्वाजा
बकी
बिल्लाह
बेरंग’ ने भारत
में
सर्वप्रथम
नक्शबंदी
संप्रदाय
को
स्थापित
किया
था
जिसे
उनके
शिष्य
‘शेख
सरहिंदी’ ने लोकप्रियता
प्रदान
की।
इस
संप्रदाय
का
प्रचार
भारत
में
लगभग
16 वीं
सदी
के
अंत
में
हुआ।
आचार्य
चतुर्वेदी
ने
भी
इन्हीं
को
भारत
में
नक्शबंदी
संप्रदाय
के
प्रवर्तक
का
श्रेय
दिया
है।
"नक्शबंदी संप्रदाय
को
ख्वाजा
बहाउद्दीन
नक्शबंद
ने
ही
चलाया
था............
इन्हीं
की
सातवीं
पीढ़ी
में
ख्वाजा
बाकी
बिल्ला
बेरंग
हुए
जिन्होंने
इसे
भारत
में
सर्वप्रथम
प्रसिद्ध
किया
है।"23 इस
संप्रदाय
का
नाम
नक्शबंदी
संभवत:
इसलिए
पड़ा
क्योंकि
इस
संप्रदाय
के
प्रवर्तक
कपड़ों
पर
चित्र
छापकर
अपनी
जीविका
कमाते
थे।
आचार्य
चतुर्वेदी
किसी
मुस्लिम
लेखक
का
हवाला
देते
हुए
यह
भी
लिखते
हैं
कि-
‘इसके
आदि
प्रवर्तक
को
यह
पदवी
इसलिए
मिली
क्योंकि
वह
अपनी
विद्या
संबंधी
गूढ़
से
गूढ़
भावों
का
चित्र
प्रस्तुत
करने
में
समर्थ
थे।’
इसके
अलावा
भी
आचार्य
चतुर्वेदी
ने
कुछ
अन्य
संप्रदायों
का
भी
जिक्र
किया
जिनमें
‘उबैसी’, ‘मदारी’, ‘शत्तारी’, ‘कलंदरिया’ और
‘मलामती’ आदि
प्रमुख
है।
किंतु
मुख्य
रूप
से
वही
चार
संप्रदाय
हैं
जिनका
विवेचन
ऊपर
किया
गया
है।
निष्कर्ष : यही कहा जा सकता है कि सूफी संप्रदाय के भारत में उत्पत्ति और उत्थान को लेकर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने अपने आलोचना कर्म में जो व्यापकता प्रस्तुत की है वह उनके अनुसंधानात्मक एवं ऐतिहासिक आलोचनात्मक पद्धति के कारण संभव हुआ है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी अपनी रचना प्रक्रिया में यदि एक ओर इतिहास की निरंतरता को स्वीकार करते हैं तो दूसरी ओर उसके किसी बिंदु पर घटित होने वाले परिवर्तन की प्रक्रिया को नितांत सामयिक ढंग से देखना भी ज़रूरी समझते है। सूफी साहित्य के सम्बन्ध में इतिहास के क्रमिक विकासवादी दृष्टिकोण को स्वीकार करने के साथ आचार्य जी आलोचना में घोर शोधमूलक दृष्टि के समर्थक भी है। इस प्रकार से आचार्य चतुर्वेदी की यह ऐतिहासिक आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपने पूर्ववर्ती आलोचकों के इतिहास दर्शन का अतिक्रमण करती हुई प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जा सकता है कि निर्गुण साहित्य के सम्बन्ध में आचार्य जी ने सूफी साहित्य को लेकर जो समीक्षा प्रस्तुत की है वह सूफी ग्रंथों और उनके इतिहास का सामान्य समीक्षा ही नहीं है अपितु आलोच्य विषय के संबंध मे अपना स्वतंत्र चिंतन और नई स्थापनाएँ भी देती है। भारत में सूफीवाद के उद्भव और विकास को लेकर आचार्य जी ने जो स्थापनाएँ दी है वह सूफी साहित्य सम्बन्धी आलोचना का प्रथम प्रयास होने के साथ-साथ उन अनछुए पहलुओं को भी उद्घाटित करता है जो कि आगे के आलोचकों और शोधार्थियों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करती है। इसके अतिरिक्त सूफी संप्रदाय के इन चार संप्रदाय पर जितनी अनकही और अनछुए पहलू रहे हैं उनका सफल विश्लेषण भी आचार्य चतुर्वेदी ने किया है और उसमें वे पूरी तरह सफल भी रहे हैं।
1. डॉ. मुक्तेश्वर तिवारी,
मध्ययुगीन सूफ़ी और संत साहित्य, सरस्वती
प्रकाशन मंदिर इलाहाबाद, 1980, पृ. 44
2. आचार्य परशुराम
चतुर्वेदी, सूफी काव्य संग्रह, हिंदी
साहित्य सम्मलेन प्रयाग,2000, पृ. 35
3. डॉक्टर शिवसहाय पाठक,
हिंदी सूफी काव्य का समग्र अनुशीलन, आर्य बुक
डिपो,1953, पृ. 27,
4. डॉ.मुक्तेश्वर तिवारी,
मध्ययुगीन सूफी और संत साहित्य,सरस्वती
प्रकाशन मंदिर इलाहाबाद, 1980, पृ. 44,
5. आचार्य परशुराम
चतुर्वेदी, सूफ़ी काव्य संग्रह, भूमिका,
पृ. 19, हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग,
2000
6. हिंदी साहित्य की
भूमिका, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 69, राजकमल प्रकाशन,2015
7. के. दामोदरन,
भारतीय चिंतन परंपरा, अनुवाद, जी.श्रीधरन, राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली, 2017, पृ. 317
8. आचार्य परशुराम
चतुर्वेदी, सूफी काव्य संग्रह, हिंदी
साहित्य सम्मलेन प्रयाग, 2000, पृ. 35
9. के. दामोदरन,
भारतीय चिंतन परंपरा, अनुवाद जी. श्रीधरन,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 322
10. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, सूफी
काव्य संग्रह, हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग, 2000, पृ.
36
11. वही, पृ. 36
12. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, हिंदी
के सूफी प्रेमाख्यान, भारती भण्डार, लीडर
रोड इलाहाबाद, 1962, पृ. 10
13. प्रोफ़ेसर जय बहादुर सिंह, सूफी,
संत साहित्य का उद्भव और विकास, पृ. 47
14. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, सूफी
काव्य संग्रह, हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग, 2000, पृ. 37
15. वही, पृ. 37
16. वही, पृ. 38
17. वही, पृ. 39
18. वही, पृ. 39
19. डॉ. रामकुमार वर्मा, हिंदी
साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, राम नारायण लाल प्रकाशक एवं
पुस्तक विक्रेता, इलाहाबाद,1958,
पृ. 304
20. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, सूफ़ी
काव्य संग्रह, हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग, 2000, पृ. 42
21. वही, पृ. 42
22. वही, पृ. 43
23. वही, पृ. 43
शोधार्थी (पीएचडी हिंदी), जामिया मिल्लिया इस्लामियां नई दिल्ली
सम्पर्क : innocysmarty.vinay@gmail.com, 8826868907
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
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