भोजन-चिंतन और अस्मिता : एक प्रस्थान
- सौम्या गुप्ता
भूमिका : अकादमिक
दुनिया
में
क्रिटिकल
फ़ूड
स्टडीज़
(समालोचनात्मक
आहार
अध्ययन) एक
नवीन
क्षेत्र
है।
भोजन
और
भोजन
परंपराओं
पर
अकादमिक
कार्य
कुछ
20-25
साल
पहले
ही
आरम्भ
हुआ
है, इसके
पहले
यह
बौद्धिक
इलाक़ा
ही
नहीं
बना
था।
युरोप
और
अमेरिका
के
समाजशास्त्रीय
अध्ययनों
में
इसकी
उत्पत्ति
हुई, और
अगले
15-20
वर्षों
में
धीरे-धीरे
यह
एक
बड़े
अंतरानुशासी
(इंटरडिसिप्लिनरी) फ़ील्ड
के
रूप
में
उभरता
है।
हिंदुस्तान
और
विदेश
में
इस
विषय
में
शुरुआती
काम
अधिकतर
समाजशास्त्रियों
और
नृविज्ञानिकों
ने
किया।
जहाँ
तक
प्रविधि
का
सवाल
है, नृविज्ञान
में
भागीदारी
और
अवलोकन
शामिल
हैं, जिनके
माध्यम
से
उन्होंने
भोजन
के
सामाजिक
अर्थ
और
सांस्कृतिक
संदर्भ
पर
ध्यान
केंद्रित
किया।
नृविज्ञानी
महीनों
या
वर्षों
तक
देशज
समाजों
के
मध्य
रहकर
उनके
दैनिक
जीवन
में
भाग
लेते
हैं।
वे
उस
समुदाय
या
संस्कृति
की
भोजन-परंपराओं
का
अध्ययन
कर
खाद्य
प्रणालियों
और
मानव
व्यवहार
के
बीच
के
अंतर्संबंध
को
समझने-समझाने
की
कोशिश
करते
हैं।
भोजन
और
अनुष्ठान
तथा
भोजन
और
सामाजिक
संरचना
के
बीच
संबंधों
पर
काफ़ी
ध्यान
दिया
गया
है।
समाजशास्त्री
लेवी-स्ट्रॉस
ने
मानव
विचार
में
संस्कृति
और
प्रकृति
के
बीच
संबंध
दिखाने
के
लिए
अपने
मशहूर
पाक-त्रिकोण
का
निर्माण
किया।[1] इस
प्रकार
के
अध्ययन
में
यह
पाया
गया
कि
भोजन
का
सिर्फ़
भौतिक
ही
नहीं
बल्कि
एक
प्रतीकात्मक
मूल्य
भी
है।
यह
सिंबॉलिक
वैल्यू
बहुत
ही
महत्त्वपूर्ण
है।
भोजन
संचार
का
एक
ज़रिया
है।
व्यंजनों
के
विस्तार
के
साथ
भोजन
की
सामाजिक
संदेशों
को
सहन
करने
की
क्षमता
में
वृद्धि
हुई।[2] ठीक
ही
है: जैसे
अपने
यहाँ
पर
कभी
जन्म
या
मृत्यु
हो, अन्नप्राशन
या
श्राद्ध
हो, कोई
भी
ऐसा
आयोजन
या
संस्कार
नहीं, जिसमें
विशिष्ट
या
सामुदायिक
खाने
का
कोई
तत्त्व
नहीं
होता
है।
छठ
पूजा
और
सत्यनारायण
की
कथा
में
भी
प्रसाद
का
माहात्म्य
स्थापित
है।
दक्षिण
एशियाई
सभ्यता
में
भोजन
के
नैतिक
आयामों
पर
हमेशा
से
ज़ोर
दिया
गया
है
जो
हमारे
रोजमर्रा
के
खान-पान
को
आज
तक
प्रभावित
करते
हैं।[3]
इतिहासकारों की
दृष्टि
भोजन
के
इस
सामाजिक
और
प्रतीकात्मक
पहलू
पर
कुछ
देर
से
पड़ी।
भारतीय
इतिहासकारों
में
ओम
प्रकाश
का
फूड
एंड
ड्रिंक इन एंशिएंट इंडिया और
के. टी. आचार्य
लिखित इंडियन फूड: ए हिस्टोरिकल कम्पेनियन आहार
आधारित
शोध
की
प्रारम्भिक
कृतियाँ
हैं।[4] मुख्यतः
भोजन
और
व्यंजन
पर
ध्यान
सामाजिक
इतिहास
लेखन
के
विषय-विस्तार
से
जन्मा।
मेरा
स्वयं
का
भी
शोध
एक
शहर – कानपुर
(उत्तर
प्रदेश) - के
आधुनिक
इतिहास
पर
है।
मेरी
दिलचस्पी
इस
बात
में
थी
कि
शहर
कैसे
बदल
रहे
थे, शहरों
में
क्या
पॉलिटिक्स
हो
रही
थी, किस
प्रकार
से
शहरों
में
एक
नया
वर्ग
आकार
ले
रहा
था, इत्यादि।
साथ
ही
उच्च
तबक़े
की
राजनीति
और
राजनीतिक-सामाजिक
संस्कृति
के
अलावा
मेरी
रूचि
निम्न
तबक़ों
की
सामाजिक-सांस्कृतिक
संवेदनाओं
में
भी
थी।
शहर
में
बसने
वाले
कामगारों
की
क्या
रुचियाँ
थीं? खान-पान
हमारी
पहचान
का
सबसे
अंतरंग
क्षेत्र
माना
जाता
है
-
आप
जो
हैं, जो
आप
खाते
हैं, पीते
हैं, उससे
आप
अपनी
संस्कृति
विकसित
करते
हैं।
क्या
हम
उस
संस्कृति
से
परिचित
हैं? शहर
में
ग्रामीण
प्रवासी
कर्मचारी
कहाँ
और
कैसे
रहते
थे? जैसा
कि
हमने
कोरोना-काल
में
भी
देखा, प्रायः
कटाई-छँटाई
के
समय
वे
गाँव
चले
जाते
थे
और
फिर
मिल
में
काम
के
लिए
शहर
आते
थे – इनका
रहन-सहन, भोजन, आदि
इस
आवाजाही
से
कैसे
प्रभावित
होता
था, इत्यादि।
तो
इस
तरह
मैं
सामाजिक
इतिहास, दैनन्दिन
इतिहास
और
भोजन
संस्कृति
के
प्रश्नों
को
जोड़कर
देखना
काफ़ी
दिलचस्प
है।
इस
इतिहास
की
प्रेरणा
1980-90
में
मशहूर
हुई
इतिहास-लेखन
की
एक
प्रसिद्ध
शाखा
या
विधा
जिसे
सबॉल्टर्न
स्टडीज़, या
निन्मवर्गीय
इतिहास
लेखन
कहा
जाता
है, उससे
मिली
है।
इतिहास-लेखन
की
इस
विधा
के
प्रणेता
रणजीत
गुहा
की
एक
महत्वपूर्ण
किताब
है “द स्मॉल वॉयस ऑफ हिस्ट्री",
जिसने
मेरे
शोध
को
एक
दिशा
दी।
गुहा
इतिहास
के
दबे-कुचले
स्वरों
पर
ध्यान
देने
का
आग्रह
करते
हैं।[5] व्यंजन-पुस्तिकाएँ
मेरे
लिए
ऐसे
ही
ऐतिहासिक
भोजन
संस्कृति
के
दैनंदिन
स्वरों
को
सुनने
का
उपलब्ध
ज़रिया
हैं।
खाद्य-विकास
क्रम
की
वैज्ञानिक और सांस्कृतिक कहानी
प्राणी जगत
में
इंसान
ही
एक
ऐसा
जानवर
है
जो
अपना
भोजन
पका
कर
ग्रहण
करता
है।
सभी
ज्ञात
मानव
समाज
पके
हुए
खाद्य-पदार्थ
खाते
हैं, और
जीवविज्ञानी
यह
मानते
हैं
खाना
पका
कर
खाने
से
मानव
शरीर
का
विकास
प्रभावित
हुआ।
आहार
में
यह
बदलाव
मानव
इतिहास
में
एक
निर्णायक
बिंदु
था।
60
लाख
से
12
हज़ार
साल
पहले, सभी
इंसान
और
हमारे
पूर्वज
शिकारी-संग्रहकर्ता
थे, जो
भोजन
के
लिए
शिकार
और
फल
वग़ैरह
संग्रह
करते
थे।
अधिकांश
शोधार्थियों
का
मानना
है
कि
लगभग
800,000
साल
पहले
होमिनिन
खाना
पकाने
के
लिए
ईंधन
या
आग
को
नियंत्रित
करने
में
समर्थ
थे
।
इस
बात
के
स्पष्ट
प्रमाण
हैं
कि
कम
से
कम
कुछ
प्राग-ऐतिहासिक
मनुष्य
आग
से
भोजन
पका
रहे
थे, और
नए
शोध
तो
यह
संकेत
दे
रहे
हैं
कि
पकाने
का
पुरातात्त्विक
रिकॉर्ड
सम्भवतः
15
से
20
लाख
साल
पहले
का
भी
हो
सकता
है।
अपनी पुस्तक
कैचिंग
फ़यार: हाउ कुकिंग मेड अस ह्यूमन
में
हार्वर्ड
के
प्राइमेटॉलजिस्ट
रिचर्ड
रैंगम
तर्क
देते
हैं
कि
मानव
आहार
में
सबसे
बड़ी
क्रांति
तब
हुई
जब
हमने
खाना
पकाना
सीखा।[6] यह
तर्क
खाना
पकाने
के
प्रमुख
पोषण
लाभों
पर
आधारित
है।
रैंगम
आहार
को
प्राइमेट
दिमाग़
के
विकास
का
एक
प्रमुख
चालक
मानते
हैं; मनुष्यों
के
विकास
क्रम
में
खाना
पकाने
की
अहम
भूमिका
रही
होगी।
पका
भोजन
खाने
से
मनुष्य
का
शरीर
और
मस्तिष्क
विकसित
हुआ।
"खाना
पकाने
से
नरम, ऊर्जायुक्त
खाद्य
पदार्थ
पैदा
होते
हैं,"
रैंगम
कहते
हैं।
अगर
रैंगम
सही
हैं, तो
खाना
पकाने
से
न
केवल
शुरुआती
इंसानों
को
बड़े
दिमाग़
के
निर्माण
के
लिए
आवश्यक
ऊर्जा
मिली, बल्कि
उन्हें
भोजन
से
अधिक
कैलरी
प्राप्त
करने
में
भी
मदद
मिली
जिससे
वे
अपना
वज़न
बढ़ा
पाए।
पका
खाना
खाने
से
हमारे
शरीर
में
भोजन
से
मिलने
वाली
ऊर्जा
की
मात्रा
बढ़
जाती
है।
सीधे
शब्दों
में
कहें
तो
पका
हुआ
खाना
-
चाहे
मांस
हो
या
अन्न, या
दोनों
-
खाने
से
पाचन
आसान
हो
जाता
है, और
इस
तरह
हमारा
पेट
छोटा
हो
सकता
है।
वह
ऊर्जा
जो
हम
पहले
पाचन
पर
ख़र्च
करते
थे
अब
हमारे
दिमाग़
को
बड़ा
और
सक्षम
बनाने
के
लिए
मुक्त
हो
गयी।
दाँतों
का
आकार
बदल
गया, शायद
इसलिए
कि
नरम
खाद्य
पदार्थों
को
चबाने
के
लिए
बड़े
दाँत
अनावश्यक
हो
गए
थे।
आप
देखेंगे
कि
हमारे
दाँत
बदल
गए, हमारी
आँतें
बदल
गईं, और
पूरी
शारीरिक
संरचना
बदल
गई, दिमाग़
विकसित
हुआ।
आग
द्वारा
प्रदान
की
गई
गर्मी
ने
हमें
अपने
शरीर
के
बालों
को
त्यागने
में
सक्षम
बनाया, ताकि
हम
अधिक
गर्म
न
हों
और
अधिक
शिकार
कर
सकें।
चूँकि
हम
आग
के
चारों
ओर
इकट्ठा
बैठते
थे, परिवार
बने, सामाजिक
मेल-जोल
बढ़ा, सामुदायिक
बंधन
मज़बूत
हुए।
अतः यह
कहा
जा
सकता
है
कि
अतिरिक्त
ऊर्जा
ने
पहले
मानव-रसोइयों
को
अभूतपूर्व
जैविक
लाभ
दिया।
खाना
पकाना
इंसान
द्वारा
विकसित
की
गई
पहली
प्रौद्योगिकी
थी, जिसके
परिणाम
दूरगामी
हुए।
खाना
पकाने
ने
मनुष्यों
को
कठोर-कच्चा
भोजन
चबाने
में
आधा
दिन
बिताने
से
मुक्त
किया
और
यह
समय
आरम्भिक
मनुष्य
ने
दीगर
उत्पादक
गतिविधियों
में
समर्पित
किया, अंततः
उपकरण, कृषि
और
सामाजिक
नेटवर्क
का
विकास
सम्भव
हुआ।
आहार
परिवर्तन
ने
मानव
जीवन
शैली
और
संस्कृतियों
में
बड़े
बदलाव
किए
-
शरीर
विज्ञान, पारिस्थितिकी, समूह
और
परिवार
की
रचना, जिसमें
क़स्बों
और
शहरों
का
विकास
इत्यादि
शामिल
हैं।
मानव आहार
ने
कृषि
के
आविष्कार
के
साथ
एक
और
बड़ा
मोड़
लिया।
ज्वार, जौ, गेहूँ, मक्का
और
चावल
जैसे
अनाजों
को
पालतू
बनाने, उनकी
खेती
करने
से
प्रचुर
मात्रा
में
और
अनुमानित
खाद्य
आपूर्ति
हुई।
लेकिन
अनाज
तो
साल
में
एक
या
दो
बार
पैदा
होता
है।
आप
अनाज
को
भी
पकाकर
खाते
हैं, कच्चा
गेहूँ
या
चावल
तो
नहीं
खाते
हैं।
फिर
इस
अनाज
का
भंडारण करना, भंडारण करने
के
लिए
घड़े, बर्तन
का
इंतज़ाम
करना।
इतिहास
के
छात्र
जानते
हैं
कि
मिट्टी
के
बर्तन
प्राकृतिक
उत्पादों
के
प्रसंस्करण
के
लिए
ज़रूरी
तकनीक
हैं।
कुम्हार
की
कला
का
बढ़ता
परिष्कार
ग्रामीण
कृषक
समुदाय
के
विकास
का
चिह्न
माना
जाता
है, जैसे
ऊपरी
गंगा-जमुना
घाटी
को
खेती
के
अंतर्गत
लाने
का
श्रेय
चित्रित
धूसर
संस्कृति
(painted
grey ware) इस्तेमाल करनेवाले
लोगों
को
जाता
है।[7]
हमारे आहार
में
अनाज
को
शामिल
करना
मानव
विकास
में
एक
महत्त्वपूर्ण
क़दम
माना
जाता
है
क्योंकि
अनाज
को
खाद्य
में
परिवर्तित
करने
का
मार्ग
अनेकों
तकनीकी
जटिलताओं, पाक
क्रिया
की
उत्पत्ति
और
उपयोग
के
माध्यम
से
होकर
जाता
है।
कहने
का
तात्पर्य
है
कि
यदि
भोजन
और
पकाने
को
एक
तकनीक
के
रूप
में
देखा
जाए
तो
एक
नया
अकादमिक
परिदृश्य
खुल
जाता
है।
जैसे
ही
हमारा
फ़ोकस
बदलता
हैं, हम
देखते
हैं
कि
सभ्यता
के
विकास
के
लिए
भोजन
और
खाना
पकाने
की
तकनीकें
कितनी
महत्वपूर्ण
हैं।
भोजन-प्रवाह और बदलता अस्मिता-बोध
आजकल तो
हमारे
पूरे
देश
में
भोजन
पर
ही
सबसे
ज़्यादा
राजनीति
हो
रही
है।
लेकिन
यह
भी
सच
है
कि
भोजन
हमारी
पहचान
का
सबसे
अंतरंग
तत्त्व
है।
भाषा, वस्त्र
और
भोजन
हमारी
सांस्कृतिक
अस्मिता
के
अभिन्न
अंग
हैं।
आम
तौर
पर
झगड़े
भी
इन्हीं
पर
होते
हैं
-
भाषा, वेशभूषा
और
खानपान।
सभ्यताएँ
और
संस्कृतियाँ
अलग-अलग
जगह
विकसित
हुईं
और
हमारे
उपभोग
की
वस्तुएँ
हमारे
मूल
वातावरण
पर
निर्भर
करती
हैं।
हम
जो
खाते
हैं
उसका
एक
पारिस्थितिक
तर्क
है।
रोज़मर्रा
की
ज़िंदगी
से
एक
उदाहरण
देती
हूँ – भारतीय
उपमहाद्वीप
में
आप
गेहूँ, जौ, बाजरा
आदि
की
रोटी
खाते
हैं।
कैसे
खाते
हैं? आप
आम
तौर
पर
उसे
रोज़
बनाते
हैं
और
खा
लेते
हैं।
अगर
युरोप
जाना
हुआ
तो
वहाँ
रोज़ाना
की
रोटी
को
ब्रेड
के
रूप
में
ग्रहण
करेंगे।
आम
तौर
पर
ब्रेड
बेकरी
से
लायी
जाती
है
या
घरेलू
अवन
में
बनी
ब्रेड
भी
हफ़्ते
या
10
दिन
तक
इस्तेमाल
होती
है
।
ठंडे
प्रदेशों
में
ईंधन
की
कमी
होती
है
और
वस्तुतः
कुछ
बड़े
घरों
में
ही
भट्ठियाँ
होती
थीं – आम
तौर
पर
ब्रेड
बाज़ार
से
ही
आती
थी।
हमारे
यहाँ
तो
संसाधन
उपलब्ध
हैं, जैसे
जंगल, पेड़, लकड़ी, और
ईंधन
की
कमी
नहीं
है
तो
हम
किसी
भी
चीज़
को
रोज़
बनाते
हैं, खाते
हैं।
गर्म
देश
है
इसलिए
पका
खाना
ख़राब
हो
जाता
है, तो
फ़्रिज
आने
से
पहले, बासी
न
खाने
की
संस्कृति
बनी।
ठंडे
जलवायु
के
प्रदेशों
में
रोज़
बनाकर
नहीं
खाते
हैं, इसलिए
ताज़ा
और
बासी
के
नियम
इतने
सख़्त
नहीं
हैं।
इसके
अलावा, हम
जो
रोज़मर्रा
के
फल
और
सब्ज़ियाँ
इस्तेमाल
में
लाते
हैं, उनमें
बहुतों
की
उत्पत्ति
भारतीय
महाद्वीप
के
बाहर
की
है।
आलू, टमाटर, गाजर, हरी
मिर्च
पुर्तगालियों
द्वारा
लायी
गयी
थी।
तो
गाजर
के
हलवे
का
चलन-आस्वादन
अमूमन
महज़
दो
सौ
साल
पुराना
है! यही
कहानी
टमाटर
की
है, जिसे
सौ
साल
पहले
तक
विलायती
बैंगन
कहा
जाता
था, और
रोज़मर्रा
के
खाने
में
कम
ही
इस्तेमाल
किया
जाता
था।
जब
आप
कहीं
बाहर
खाने
जाते
हैं
तो
शाकाहारी
भोजन
में
पनीर
के
व्यंजन
बहुत
पसंद
किए
जाते
हैं,
लेकिन
प्राचीन
सनातन
संस्कृति
में
तो
पनीर
था
ही
नहीं! पनीर
दूध
को
फाड़
के
बनाया
जाता
है, जो
अच्छा
नहीं
माना
जाता
था।
परंतु
हमारे
फ़ूड
कल्चर
में
आज
पनीर
से
ज्यादा
वेजिटेरियन
कुछ
नहीं
है।[8]
आलू की
कहानी
तो
और
भी
निराली
है।
आलू
भी
पुर्तगालयों
के
साथ
ही
भारत
आया
था।
उससे
पहले
हिंदुस्तान
में
आलू
का
कोई
इस्तेमाल
था
ही
नहीं।
परंतु
अब
आलू
हमारी
खाद्य
परम्परा
का
एक
अभिन्न
अंग
हैं।
हम
उसे
रोज़
इस्तेमाल
करते
हैं
और
व्रत-उपवास
में
में
भी
हम
इसका
उपयोग
करते
हैं, ईश्वर
के
भोग
में
भी
आलू
का
उपयोग
करते
हैं।
यह
एक
ऐसी
वस्तु
है
जो
हमारी
संस्कृति
में
कुछ
500
साल
पहले
आई, और
और
मात्र
200
साल
पहले
आपके
खाने
का
हिस्सा
बनी
।
इतिहास
में
दर्ज
है
की
1820
और
1830
के
दशक
में
उत्तराखंड
में
अंग्रेज़
कलेक्टर
किसानों
को
आलू
उगाने
के
लिए
के
लिए
विभिन्न
प्रकार
के
प्रलोभन
और
सुविधाएँ
दे
रहे
थे।
1870
तक
भी
कुछ
ब्राह्मण
और
राजपूत
गुट
आलू
से
परहेज़
करते
थे।
इसी
प्रकार
उस
समय
गाजर
आम
तौर
पर
इसलिए
उगाई
जाती
थी
कि
जानवरों
को
खिलाई
जा
सके।
तात्पर्य
यह
कि
जिन
वस्तुओं
को
आज
पारम्परिक
या
शाश्वत
माना
जाता
है, वे
500
साल
पहले
इस
संस्कृति
का
हिस्सा
थी
ही
नहीं! लगभग
हर
पारम्परिक
भोज
में
आलू
की
तरकारी
बनती
है, हो
सकता
है
आज
से
500
साल
बाद
शायद
मैगी
भी
पारम्परिक
भोज
का
हिस्सा
बन
जाए।
आज
यह
कल्पना
मुश्किल
है
परंतु
तर्क
वही
है।
सारांश
यह
है
कि
हमारे
सांस्कृतिक
आग्रह
और
विग्रह
प्राचीन
नहीं
है
बल्कि
समकालीन
राजनीति
की
पैदाइश
हैं।
हमारी
पुरानी
संस्कृति
से
इनका
कुछ
लेना-देना
नहीं
है।
हम
लोग
पारम्परिक
खाने
की
इतनी
बात
तो
करते
हैं, पर
यह
नहीं
देखते
की
पुराने
समय
में
हम
उन
वस्तुओं
को
ग्रहण
भी
करते
थे
या
नहीं
।
और
यह
अनुभव
केवल
हमारे
ही
नहीं
है।
युरोप
में
भी
आलू, टमाटर, चाय, कॉफ़ी
चीनी
15-16
शताब्दी
से
ही
प्रयोग
में
लायी
जा
रही
हैं।[9] 19वीं
सदी
तक
आलू
को
ग़रीबों
का
सोना
कहा
जाता
था
और
वह
ग़रीब
किसानो
का
मुख्य
आहार
बन
गया।
तीस
करोड़
से
अधिक
आयरिश
किसान
केवल
आलू
पर
ही
निर्वाह
करते
थे।
1846
और
1851
के
मध्य
आलू
में
कीड़ा
लग
गया।
इसके
परिणामस्वरूप
10
लाख
से
अधिक
लोग
मारे
गए।[10] अकाल
के
बाद
आम
लोगों
द्वारा
खाया
जाने
वाला
आहार
नाटकीय
रूप
से
बदल
गया।
आलू
महत्वपूर्ण
बना
रहा, लेकिन
मुख्य
रूप
से
अमेरिका
से
आयातित
सस्ता
कॉर्नमील(मक्के
का
घट्ठा) और
ओट्मील(जई
का
दलिया) ग़रीबों
के
लिए
एक
वैकल्पिक
और
सस्ता
भोजन
स्रोत
बना।
तो भोजन-आधारित
अस्मिताएँ
काफ़ी
फ़्लूइड
होती
हैं – सतत
प्रवाह
में
रहती
हैं, देशकाल
के
अनुरूप
निरंतर
पुनर्गठित
होती
रहती
हैं।
फलतः
अस्मिता
के
ऊपर
जितनी
भी
लड़ाइयाँ
होती
हैं
सब
समकालीन
प्रश्नों
की
तरफ़
इशारा
करती
हैं।
इन
विग्रहों
को
केवल
संस्कृति
का
जामा
पहना
दिया
जाता
है
जिससे
इनके
इर्द-गिर्द
ऊपजे
संघर्ष
पुरातन, प्रामाणिक
और
वैध
माने
जाएँ।
आज
खान-पान
की
परंपराएँ
धर्म
और
जाति
के
आधार
पर
बँटी
हैं।
साथ
ही
उच्चवर्गीय
भोजन
और
निम्नवर्गीय
भोजन
के
आधार
पर
भी।
परंतु
भोजन
का
इतिहास
बताता
है
कि
खाद्य
परंपराओं
से
ज़्यादा
हाइब्रिड, मिला-जुला
या
संकर
कुछ
भी
नहीं
है।
भोजन-पुस्तिकाओं के साक्ष्य
आजकल व्यंजन
और
उनके
नये
नुस्ख़ों
या
रेसिपी
को
लेकर
मीडिया
में
काफ़ी
उत्साह
नज़र
आता
है।
भोजन
की
संस्कृति
या
व्यंजनों
के
अनेक
प्रकार
सांस्कृतिक
समृद्धि
का
परिचायक
होते
हैं।
रेसिपी
बुक्स
कब
पैदा
होती
हैं? रेसिपी
बुक्स
सुविधा-संपन्नता
की
निशानी
हैं।
आम
आदमी
के
खाने
को
अमूमन
पाकशास्त्र
या
पाकशैली
का
दर्जा
नहीं
दिया
जाता
था।
उन्नत
पाक
शैली
उच्च
वर्ग, ऊँची
संस्कृति
की
निशानी
मानी
जाती
रही
है।
अगर
आप
इतिहास
में
झाँकें
तो
रेसिपी
बुक
राजाओं
और
नवाबों
के
द्वारा
लिखवाई
जाती
थीं।
संस्कृत
में
12वीं
शताब्दी
में
रची
मानसोल्लास और
16वीं
सदी
में
लिखित
सूपशास्त्र (1508 ई.) दक्कन
के
शासकों
द्वारा
संकलित
किए
गए, जिनमें
शाकाहारी
और
मांसाहारी
व्यंजनो
का
वर्णन
है।
फ़ारसी
में
नेमतनामा मालवा
के
नवाब
द्वारा
प्रायोजित
या
संकलित
ग्रंथ
है।
मुग़ल
काल
में
आईन-ए-अकबरी, और
नुस्ख़ा-ए-शाहजहानी
उपलब्ध
हैं।
पर
ऐसी
किताबें
कम
ही
मिलेंगी
जो
रोज़मर्रा
के
भोजन
के
बारे
में
हों।
हिंदी
में
पठन
पाठन
और
प्रिंट
उन्नीसवीं
सदी
के
आख़िरी
सालों
से
ही
उल्लेखनीय
गति
पकड़ता
है।
तब
से
ही
हिंदी
में
मिठाई-चरित्र-जैसी
पाक
पुस्तकें
मिलती
हैं, और
पत्रिकाओं
में
दादी
माँ
के
नुस्ख़े
जैसे
स्तंभ
छपने
लगे।[11] जैसे-जैसे
पाठक
वर्ग
बना
वैसे-वैसे
पुस्तकें
बनती
गई।
यह
भी
सत्य
है
कि
पाक-कला
पढ़के
सीखने
की
विधा
नहीं
समझी
जाती
थी।
यह
संयुक्त
परिवारों
में
माँओं
से
बेटियों
को
दी
जाने
वाली
सीख
थी।
जैसे-जैसे
एकल
परिवार
बढ़े, पुरानी
पाक
परंपरायें
क़लमबंद
की
जाने
लगी।
हमारे इतिहास
में
एक
और
बड़ा
सवाल
भोजनाभाव
का
है।
190
साल
के
अंग्रेज़ी
उपनिवेशवाद
का
एक
बहुत
बड़ा
त्रास
था- दुर्भिक्ष
या
अकाल।
अंग्रेज़ी
राज
का
आरम्भ
1770
के
बंगाल
दुर्भिक्ष
से
हुआ
और
अंत
भी
1943
के
बंगाल
के
अकाल
से।
अमर्त्य
सेन
के
अनुसार
अकाल
भोजन
की
कमी
से
नहीं, वरन
मानवीय
प्रबंधन
में
त्रुटियों
का
परिणाम
होता
है
और
अंग्रेज़ी
राज्य
का
दुष्प्रबंधन
इन
अकालों
का
मुख्य
कारण
था।[12] जब
भारत
आज़ाद
हुआ
तो
1943
के
दुर्भिक्ष
की
स्मृति
ताज़ा
थी।
आज़ादी
के
पहले
20-30
साल
तक
भारत
में
खाने
को
लेकर
नीतिगत
स्तर
पर, साहित्य
में, कविताओं
में, कहानी
में
खाने
की
कमी
का
भय
हमेशा
झलकता
है।
चाहे
आप
फ़िल्मी
गीत
उठा
लें
या
राष्ट्रकवि
दिनकर
की
कविता
देखें – 'रोटी
और
स्वाधीनता', या
प्रसिद्ध
पंक्तियाँ
“श्वानों
को
मिलते
वस्त्र-दूध, भूखे
बालक
अकुलाते
हैं” - हर
जगह
भोजन
की
कमी
का
विकल
विवरण
है, उससे
जूझने
का
उत्कट
आह्वान
है।
यही
आगे
जा
कर
हरित
क्रांति
और
सार्वजनिक
वितरण
प्रणाली
(PDS)
की
प्रेरणा
बनता
है।
कह
सकते
हैं
कि
सरकार
और
जनता, नीति
और
साहित्य
आम
तौर
पर
पाककला
की
उन्नति
के
बजाय
भोजन
की
अनुपलब्धता
कर
केंद्रित
थे।
इसीलिए आज़ाद
भारत
के
आरम्भिक
दशकों
में
खाना
बनाने
पर
किताबें
कम
मिलती
हैं।
इसके
विपरीत
आजकल
पाक-कला
पर
किताबें
काफ़ी
छप
रही
हैं
और
उससे
भी
ज़्यादा
इंटरनेट
और
यूटूब
की
दुनिया
में
खाना
और
पकाना
छाया
हुआ
है।
यह
बात
भी
विलक्षण
है
कि
जितने
ज़्यादा ‘कुकरी
शोज़’ आजकल
देखे
जाते
हैं
उतना
ही
कम
खाना
पकाया
जा
रहा
है
--
खाना
पकाना
कम
हो
गया
है, खाना
पकते
देखना
ज़्यादा
हो
गया
है! युवा
पीढ़ी
के
शोज़
में
प्लेटिंग
और
भोजन
की
सजावट
ज़्यादा
महत्त्वपूर्ण
है, क्योंकि
उसका
उपभोग
मीडिया
के
माध्यम
से
ही
हो
रहा
है, इसलिए
उसकी
प्रभावी
पेशकश
अनिवार्य
हो
गई
लगती
है, और
डिजिटल
पाक-कला
एक
स्वतंत्र
उद्योग
बन
चुका
है।
एक अन्य
कोण
से
यह
भी
ग़ौर
तलब
है
कि
पाकशास्त्र
या
उन्नत
भोजन
संस्कृति
एक
आत्मविश्वासी
और
आश्वस्त
संस्कृति
की
परिचायक
होती
है।
आश्वस्त
संस्कृतियाँ
निडर
हो
कर
आदान-प्रदान
करती
हैं – नवाचार
से
उन्हें
डर
नहीं
लगता
है।
जैसे
मध्यकालीन
भारत
में
भोजन
पर
जाने
कितने
प्रयोग
हुए।
ईरान
और
अफ़ग़ानिस्तान
की
व्यंजन-परंपराएँ
हिंदुस्तानी
परंपराओं
के
सम्पर्क
में
आयीं
और
एक
ऐसी
भोजन-संस्कृति
विकसित
हुई
जिसे
हम
आज
एक
विशिष्ट
भारतीय
भोजन
परम्परा
के
रूप
में
जानते
हैं।
इसके उलट, जब
हम
संस्कृति
के
बारे
में
भयभीत
होते
हैं
तो
भी
किताबें
लिखते
हैं।
आधुनिकता
के
समकक्ष
पुरानी
परंपराओं
के
लुप्त
होने
का
भय
उन्हें
रिकॉर्ड
करने
का
प्रेरणा-स्रोत
बनता
है।
हिंदी
पट्टी
में
बहुत
सारे
लोगों
ने
अब
अपने
घरों
की
खाद्य
परंपराओं
को
दर्ज
करना
शुरू
कर
दिया
है।
आप
विनीत
कुमार
के
काम
को
देखिए
-
उसमें
एक
नए
तरीक़े
का
संबंध
है
भोजन
के
साथ: उसमें
नॉस्टैल्जिया
है, आर्काइविंग
है, जेंडर
और
डोमेस्टिसिटी
की
नयी
समझ
है।
विनीत
के
जैसे
ब्लॉग
समकालीन
संस्कृति
में
हो
रहे
परिवर्तनो
को
रसोई
के
नुस्ख़ो
और
व्यंजनों
के
माध्यम
से
चिह्नित
करता
है।
इस
प्रकार
के
ब्लॉग
खाने
की
किताबों
के
नवीन
संस्करण
ही
हैं।
वैश्वीकरण, बाज़ारवाद और क्षेत्रीय रिवायतें
संकटापन्न क्षेत्रीय
रिवायतों
पर
हम
कोई
स्याह-सफ़ेद
(ब्लैक
ऐंड
व्हाइट) मंतव्य
नहीं
दे
सकते
हैं।
एक
डर
तो
स्वाभाविक
है
कि
जैसे-जैसे
गहन
शहरीकरण
हो
रहा
है
और
हमारे
शहर
ग्लोबल
शहर
बनते
जा
रहे
हैं, हम
पुरानी, और
क्षेत्रीय
परंपराओं
से
दूर
होते
जा
रहे
हैं।
अगर
हम
20वीं
सदी
के
आरम्भ
में
छपी
खाने
की
किताबों
को
देखें, तो
उनमें
अपने
इलाक़े
के
अलावा
कहीं
और
के
व्यंजन
कम
ही
दिखते
हैं।
खाद्य
व्यापार
तो
था, पर
रफ़्तार
धीमी
थी।
नये
उपादानो
को
रचने-बसने
में
समय
लगता
था – जैसे
टमाटर
को
सैंकड़ों
साल
लगे
भारतीय
भोजन
का
हिस्सा
बनने
में।
व्यंजन
परंपराएँ
ख़ास
इलाक़ाई
सामग्रियों
पर
निर्भर
करती
थीं, फलती-फूलती
थीं, और
इस
तरह
एक
क्षेत्र
का
पर्याय
बन
जाती
थीं,
उस
नाम
से
ही
जानी
जाती
थीं।
अब वैश्वीकरण
के
कारण
एक
तरफ़
तो
यह
डर
है
कि
हमारी
पुरानी
संस्कृति
लुप्त
हो
जाएगी, वहीं
दूसरी
तरफ़
एक
प्रकार
का
उत्साह
है
कि
लुप्तप्राय
परंपराओ
को
डिजिटल
दुनिया
में
ज़िंदा
रखा
जा
सकता
है।
कई
क्षेत्रीय
कुकबुक्स, ब्लॉग
और
वीडियो
अपने
इलाक़ाई
व्यंजनो
को
सहेज
रहे
हैं।
न
केवल
क्षेत्रीय, बल्कि
समुदाय
और
जाति-आधारित
पाक
परंपराओं
में
भी
पुनः
रुचि
जगी
है।
अब
एक
तरफ़
मराठी
कुकबुक
और
पारसी
कुकबुक
हैं, तो
दूसरी
तरफ़
सारस्वत
ब्राह्मण
कुकबुक
और
अयंगर
खाना।
तो
क्षेत्रीय
से
भी
नीचे
की
पहचान
सहेजी
जा
रही
है
-
आप
गुजराती
खाने
के
बाद
कच्छ
का
खाना
संग्रहित
कर
रहे
हैं, राजस्थान
जाएँगे
तो
वहाँ
भी
आपको
कहा
जाएगा
की
मारवाड़
का
खाना
अलग
है
और
मेवाड़
का
अलग
है।
इनको
अब
डॉक्युमेंट
किया
जा
रहा
है।
दस-बारह
सालों
से
टीवी
पर
कितने
सारे
कार्यक्रम
आते
हैं, ‘लॉस्ट
रेसिपीज़’ के
नाम
से।
लॉस्ट
रेसिपीज़
एक
तरीक़े
से
क्षेत्रीय
रेसिपीज़
है, सामुदायिक
रेसिपीज़
हैं, जिनका
आजकल
की
दुनिया
में
ज़िंदा
रहना
मुश्किल
है।
यह भी
सच
है
कि
आज
की
व्यस्त
दिनचर्या
में
पुराने
ख़रामा-ख़रामा
तरीक़े
से
पकाना
मुश्किल
है।
पुराने
ज़माने
के
स्वाद
के
लिए
समय
चाहिए
था।
हमारी
जिंदगी
में
अब
उस
तरह
विश्राम
या
अवकाश
नहीं
है।
एक
निजी
मिसाल
लूँ
तो
हमारे
पूरे
मोहल्ले
में
मेरी
माँ
पहली
महिला
होंगी
जिन्होंने
मिक्सी
का
उपयोग
करना
शुरू
किया।
तब
और
आज
भी
यह
कहा
जाता
है
कि
सिलबट्टे
पर
पिसे
मसाले, चटनियाँ
ज़्यादा
स्वादिष्ट
लगती
हैं, या
गैस
के
मुक़ाबले
चूल्हे
पर
बनी
रोटी
ज़्यादा
अच्छी
लगती
हैं।
ये
सब
सच
हो
सकता
है
लेकिन
कामकाजी
महिलाओं
के
लिए
इतना
समय
निकालना
मुश्किल
होता
है।
चूँकि
उन्हें
साथ-साथ
घर
और
बाहर
दोनों
मैनेज
करना
है
तब
उनके
लिए
ये
किचन-गैजेट
समय-प्रबंधन
के
औज़ार
हैं।
मिक्सी
आपको
अतिरिक्त
टाइम
देती
है, उस
टाइम
के
लिए
आप
स्वाद
का
सैक्रिफ़ाइस
या
त्याग
करने
के
लिए
तैयार
हैं।
तो
जो
क्षेत्रीय
व्यंजन
हैं
उनको
बनाने
में
भी
टाइम
लगता
है, उनके
निर्माणी
तत्त्व
अलग
हैं।
शहरी
ज़िंदगी
में
उसको
अपनाना
मुश्किल
हो
गया
है, लेकिन
फिर
भी
कहा
जा
सकता
है
कि
इस
नए, डिजिटल
युग
में
वह
फिर
से
नया
वर्चुअल
या
आभासी
जीवन
पा
रही
है।
पुराने तरीक़े
पूरी
तरह
नही
बचेंगे, इसमें
कोई
दो
राय
नहीं
है, लेकिन
पुरानी
चीज़ें
बचाने
की
अब
कोशिशें
शुरू
हो
गई
हैं, और
मुझे
पूरा
भरोसा
है
कि
किसी
न
किसी
रूप
में
उनमें
से
कुछ
चीज़ें
तो
बचेंगी
ही।
उदाहरण
के
तौर
पर
प्रवासी
भारतीयों
में
इतनी
व्याकुलता
है,
अपने
बचपन
के
भोजन
को
लेकर
कितनी
व्याकुलता
दिखती
है
और
वह
विदेश
में
उन्हें
पुनर्जीवित
करने
की
कोशिश
कर
रहे
हैं।
हाल
ही
'मास्टर
शेफ़' जैसे
इंटरनैशनल
प्रोग्राम
में
बांग्लादेशी
मूल
की
प्रतियोगी
किश्वर
चौधरी
ने
'पाँता
भात' प्रस्तुत
किया।
पाँता
भात
अविभाजित
भारतीय
उपमहाद्वीप
के
पूर्वी
क्षेत्र
में
लोकप्रिय
एक
साधारण, ग़रीब
व्यक्ति
का
व्यंजन
है, जिसे
अब ‘स्मोक्ड
राइस
वाटर’ के
अवतार
में
प्रस्तुत
किया
गया[13]।
पुरानी
परंपराएँ
अब
नए
रूप
ग्रहण
कर
रही
हैं, जिसकी
अपनी
समस्या
हो
सकती
है।
अगर
आप
किसी
क्विज़ीन
को ‘बचा’ कर
रखना
चाहते
हैं
तो
वो
तो
यह
एलीट
या
अभिजन
प्रयास
ही
हो
सकता
है।
ग़रीब
आदमी
यह
नहीं
सोचता
कि
हम
क्या
बचा
रहे
हैं
और
क्या
नहीं
बचा
रहे
हैं: उसे
जो
मिलता
है, वही
उसका
आहार
है।
अमीर-ग़रीब का सवाल: सवर्ण भोजन, दलित भोजन
व्यंजन की
बात
करते
हुए
तथाकथित
निचली
जाति
की
भोजन-परंपराओं
के
बारे
में
आम
तौर
पर
बात
की
नहीं
जाती।
वो
वही
खाते
हैं
जो
उनको
मिल
जाता
है।
उनको
जब
कुछ
भी
नहीं
मिल
रहा
है
खाने
के
लिए
तो
उनको
जो
भी
प्रोटीन
मिलेगा, वे
वही
खाएँगे।
बिहार
की
मुसहर
नामक
जाति
के
लोग
चूहे
खाते
थे, फिर
धीरे-धीरे
वो
स्वाद
उनकी
परम्परा
का
हिस्सा
बन
जाता
है।
दलित
चिंतक
चंद्रभान
प्रसाद
ने
एक
वेबसाइट
के
माध्यम
से
हाल
में
दलित
भोजन
की
विशिष्टता
की
बात
रेखांकित
की
है, और
उसे
बाज़ार
में
भी
उतारने
की
कोशिश
भी
की।
लेकिन
आहार
से
दलित
जातियों
का
एक
विषम
सामाजिक
संबंध
भी
ऐतिहासिक
तौर
पर
उतना
ही
अहम
है, जिनके
प्रमाण
ओमप्रकाश
वाल्मीकि
के
जूठन और
दया
पवार
के बलूता
सरीखी
आत्मकथात्मक
कृतियों
में
प्रचुर
मात्रा
में
उपलब्ध
हैं, और
हिन्दी
के
आलोचकों
ने
इनकी
ख़ूब
चर्चा
भी
की
है।[14] इन
तजुर्बों
में
त्यक्त
भोजन
पर
जीवन-निर्वाह
रोज़ाना
और
आम
है, आहार
खोजना
अब
भी
एक
बड़ा
काम
है।
इसी प्रकार
वेजिटेरियनिज़म
का
पूरा
विमर्श
एक
उच्च
वर्ग/जाति
का
विमर्श
है।
ग़रीबों-खेतिहरों
को
खेती
करने
के
लिए
सबसे
बंजर
जमीन
दी
जाती
थी।
उस
पर
वही
फ़सलें
उगतीं
थीं
जिनमें
कम
पानी
और
मेहनत
लगती
थी
जैसे
कि
बाजरा, मड़ुआ, जौ, इत्यादि।
ग़रीब
खेतिहर
जो
अक्सर
निचली
जाति
के
भी
होते
थे, यही
खाते
थे, गेहूँ
नहीं।
अगर
वेजिटेरियन
थाली
की
बात
करें, तो
ध्यान
जाएगा
कि
वेजिटेरियन
थाली
में
कितने
सारे
व्यंजन
होते
हैं।
कौन-सा
ग़रीब
भला
इतने
व्यंजनों
का
ख़र्च
वहन
कर
सकता
है? मांसाहार
हो
या
शाकाहार, ग़रीब
के
लिए
तो
खाना
होना
ही
स्वाद
है।
यह
प्रवृत्ति
भक्ष्य-अभक्ष्य
की
हमारी
मध्यवर्गीय
चिंताओं
से
किंचित
दूर
है।
जेंडर का मसला
स्पष्ट है
कि
भोजन
हमारी
पहचान
का
प्रतीक
भी
है, और
विमर्श
का
विषय
भी।
भोजन
और
लिंग
विमर्श
आपस
में
नाभिनाल
जुड़े
हुए
हैं।
पारम्परिक
समाजों
में
पुरुषों
और
महिलाओं
के
मांसाहार
पर
दृष्टिकोण
भिन्न
हैं।
महिलाओं
से
दयालु
और
गुणी
होने
की
अपेक्षा
की
जाती
है, इसलिए
शाकाहार
स्त्री
का
विशिष्ट
गुण
माना
जाता
है।
पुरुष
सख़्त
माने
जाते
हैं, इसलिए
मांस
खाना
मर्दाना
लक्षण
और
मर्दानगी
का
प्रतीक
माना
जाता
है।
आयुर्वेद
में
भी
मांस
को
राजसिक
या
तामसिक
माना
गया
है।
रजस
को
तनाव
और
अति
उत्तेजना
से
और
तमस
को
निराशावाद
और
आलस्य
से
जोड़ा
जाता
है।
उत्तेजित
या
आलसी
महिलायें
पुरुष
सत्ता
और
नियमों
को
चुनौती
दे
सकती
हैं, जबकि
महिलाओं
को
शांत
और
सहनशील
बनाना
सिखाया
जाता
है।
आमिष
भोजन
उनके
लिए
पूरी
तरह
वर्जित
न
भी
हो
तो
त्याज्य
अवश्य
है।
फिर
यह
महँगा
भी
होता
है
तो
ज़ाहिर
है
पुरुषों
को
पहले
परोसा
जाता
है।
कई
महिलाओं
ने
भी
इस
बँटवारों
को
आत्मसात्
कर
लिया
है
और
कई
घरों
में
तो
महिलाएँ
पुरुषों
के
लिए
मांस
पकाती
है
पर
ख़ुद
खाने
से
परहेज़
करती
हैं
।
यहाँ
यह
समझना
ज़रूरी
है
कि
औरतों
से
उनकी
पसंद
कभी
पूछी
नहीं
जाती, पुरुषों
की
पसंद
उन
पर
लादी
जाती
है।
इसके इतर
यह
प्रश्न
शाकाहार
के
धार्मिक
आग्रह
से
भी
जुड़ा
हुआ
है।
आहार-शुद्धता
और
शाकाहार
का
भार
पुरुषों
की
तुलना
में
महिलाओं
पर
अधिक
है।
इस
पहेली
का
उत्तर
हमें
इतिहास
में
मिलता
है।
1890
में
एक
क़ानून
लाया
गया
था
कि
शादी
में
यौन
सहमति
की
आयु
13
वर्ष
निर्धारित
कर
दी
गयी।
हमारे
राष्ट्रीय
आंदोलन
के
पुरोधाओं
ने
इस
क़ानून
का, और
पारिवारिक
संबंधो
पर
किसी
भी
क़ानूनी
बंधन
का, विरोध
किया।
महिलाओं
के
सवाल
को
औपनिवेशिक
सरकार
के
हस्तक्षेप
के
दायरे
से
बाहर
रखा
गया।
पार्थ
चटर्जी
के
अनुसार, यद्यपि ‘बाह्य' या
विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति
के
क्षेत्र
में
पश्चिम
की
नक़ल
करना
मान्य
था, ‘घर’ या
धर्म और
संस्कृति
के
आंतरिक
क्षेत्र
को
औपनिवेशिक
आधुनिकता
से
स्वतंत्र
रखना
उतना
ही
आवश्यक।
स्वाधीनता
आंदोलन
का
यह
एक
दार्शनिक
या
कह
सकते
हैं
कि
राजनीतिक
विमर्श
था
:
घर
और
बाहर।[15] बाहर
की
दुनिया
में
हम
अंग्रेज़ी
राज
के
पराधीन
हैं
और
वहाँ
हमारे
पास
कोई
विकल्प
नहीं
है।
पुरुष
इस
बाह्य
दुनिया
में
रहते
हैं, उनको
आधुनिकता
स्वीकारनी
पड़ेगी, अंग्रेज़ी
भाषा, अंग्रेज़ी
कपड़े, अंग्रेज़ी
भोजन
अपनाना
पड़ेगा।
परंतु
घर
स्वतंत्र, पारम्परिक
और
सात्विक
बना
रहना
चाहिये
और
यह
ज़िम्मेदारी
महिलाओं
पर
डाली
गयी।
अस्तु, महिलाओं
पर
सारी
परंपराओं
को
निभाने
का
बोझ
आ
गया, तो
चाहे
वह
कपड़े
हों
या
चौका-चूल्हा
या
भोजन
हो।
यह
पितृसत्तात्मक
समाज
द्वारा
दिया
जाने
वाला
बहुत
आरामपरस्त
तर्क
है।
औरतों
को
संस्कृति
का
वाहक
बना
कर
उन
पर
नियंत्रण
करने
की
सत्ता
की
राजनीति
का
ही
एक
रूप
है।
निष्कर्ष : संक्षेप में, फ़्रांसीसी
दार्शनिक
रोलाँ
बार्थ
ने
कहा
था
कि
आहार
जीवन
जीने
का
ज़रिया-भर
नहीं
बल्कि
वह
बहुआयामी
तत्त्व
है
जो
हमारे
समाज
व
मानस
को
भी
गढ़ता
है।[16] ज़ाहिर
है
कि
यहाँ
प्रस्तुत
अवलोकन
आलोचनात्मक
आहार
अध्ययन
के
बारे
में
चंद
इशारे
ही
कर
पाया
है।
यह
एक
नया
उभरता
अध्ययन
क्षेत्र
है
और
इसमें
हर
तरह
के
आयाम
जोड़े
जा
सकते
हैं।
भोजन
और
आहार
की
परंपराओं
के
ज़रिये
हम
समाज
को
समझने
के
नये
ऐतिहासिक
पाठ
विकसित
कर
सकते
हैं।
भोजन
और
संस्कृति
के
बीच
के
गहन
संबंध
हमारी
अस्मिता, पर्यावरण, व्यापार
व
उद्योग
से
जुड़े
मसलों
पर
चिंतन
या
सामाजिक
इतिहास
को
नई
दिशा
देने
में
सक्षम
हैं।
संदर्भ :
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https://indianexpress.com/article/lifestyle/food-wine/masterchef-australia-contestant-panta-bhaat-aloo-bhorta-finale-dish-7401289/
[14] ओमप्रकाश वाल्मीकि 2015. झूठन, राधा कृष्ण प्रकाशन, 2011वां संस्करण; दया पवार 2019. अछूत ,राधा कृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 8 वां संस्करण.
[15] ‘द नैशनलिस्ट रेज़ोलूशन ऑफ़ द वीमेन्स क्वेश्वन’ 1989. कुमकुम संगारी और सुदेश वैद, संपा.
रीकास्टिंग वीमेन. काली फ़ॉर वीमेन, नई दिल्ली.
[16] रोलाँ बार्थ 1979. "टूवर्ड्स अ सायकोसोसियोलजी ऑफ़ कन्टेम्पररी फ़ूड कन्ज़म्प्शन" फ़ूड ऐण्ड ड्रिन्क्स इन हिस्टरी, संपा. आर. फ़ॉस्टर और ओ. रानम जॉन हॉपकिन्स प्रेस. पृ. सं.
163-73.
फ़ेलो, नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम व पुस्तकालय
सह आचार्य, जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
एक अलग चिंतन का विषय
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