डॉ. वंदना भारती की कविताएँ
(1)
रूहानी इश्क़
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बानो आपा आप कितना सही
कही हैं कि
मियां–बीबी एक–दूसरे में
रूहानी इश्क़ ढूंढ़ते हैं
जबकि यह तो वह शय है
जहां एक को दूसरे के
जिस्मानी ताल्लुकात से
राब्ता ही ना हो
वह परिंदें की तरह आज़ाद हो
कि जब भी लगे दूजे की कमी
इक ज़रा गर्दन झुकाई
और पा ले
इसमें भी शायद कुछ दूरी हो
बस सोच भर लो किसी को
और वो आपके दिलो
दिमाग में छा जाए
इश्क़ की गुलाबी खुश्बू
की महक
इस कायनात की नेमत है
जब आपको इस जहां से
ही मुहब्बत हो जाए
सिर्फ अपने पाकीज़ा
इश्क़ के कारण
और कहना पड़े
जरा धीमे गाड़ी हांको
ओ गाड़ीवाले ..
वहीं रूहानी इश्क़ है!
(2)
आयो घोष बड़े व्यापारी
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दिसंबर की धूप में
फूस से छन-छन कर
आती हुई सुनहली
धूप सी तुम्हारी छवि
टंकी हुई है
मन में, हृदय में
कि जब भी कभी
तकाज़ा करता है
मनचली सर्दियों का थोक व्यापारी
इसे खुदरा-खुदरा निकाल
खर्चती हूं
मध्यवर्गीय गृहणियों की तरह
तेरी याद का गुल्लक
हर बसंत में
गुलाबी हो दमकता है ..
सर्दियों में तुम और भी
करीब होते हो
बसंत के इंतज़ार में ..!
(3)
भाव/विभाव
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कभी–कभी सारे भाव
ना जाने कहां तिरोहित
हो जाते हैं
बहुत कोशिश के बाद भी
महीनों उस गिरफ्त से
आज़ाद नही होता है मन
दिल कहता है कि
डूब जाओ लहरों पे सवार हो
दिमाग़ कहता है
सब माया मोह है
नाव को मंझधार में ले ही
क्यूं जाना
तोड़ डालो हर उस भ्रम को
नदी में गहरे उतरने से पहले
ना जाने क्यूं उसके समक्ष
यह चालीस साल से धड़कता दिल
बन जाता है इक मासूम बच्चा
जो कि अपना ही अच्छा
बुरा नही समझता
और छत के मुंडेर पर
खड़े हो
लगा देता है छलांग
उड़ती हुई पतंग के पिछे !
(4)
अनिवर्चनीय सुख
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इस जाते हुए साल ने मुझे
जो दिया
वह गूंगे का गुड़ है
जिसे मैं रेशा–रेशा
ख़ुद में जब्त होते देखती रही
कभी भोक्ता बनकर
तो कभी द्रष्टा बनकर
अगर कोई कभी
मेरी नातिन या बेटियां
उन यादों की संदूकची
खोलने में कामयाब हो जाए
अदेखे भविष्य में
तो उसके हाथ हीरा
ही लगेगा
बशर्ते उस हीरे की परख
करने का माद्दा हो उनमें
बहुत कुछ छूटा
बहुत कुछ टूटा
लेकिन जो मिला वह
अनिवर्चनीय सुख है
जो वर्णनातीत है
और सिर्फ़ और सिर्फ़
मेरा है, अपना है !
डॉ. वंदना भारती
सहायक प्रोफेसर
पूर्णियां विश्वविद्यालय, पूर्णियां (बिहार)
bbharti.jnu20@gmail.com
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
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