शोध सार
: दुनिया भर में विकास की नीतियों के कारण विस्थापन की समस्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। जैसे-जैसे वातावरण और विकास से संबंधित सरकार की नीतियाँ बदल रही हैं, विस्थापन की यह समस्या और तेज हो रही है। विस्थापन की समस्या को सामाजिक आंदोलनों ने एक आलोचनात्म दृष्टिकोण से देखा है। इसमें विस्थापन एक बड़ा मुद्दा बन कर सामने आया। विकास का महत्व आम जनता की नजर में उसी तरह नहीं होता है, जिस तरह से कोई सरकार प्रस्तावित करती है। आम जन और सरकार के परिप्रेक्ष्य अलग-अलग होते हैं। इसीलिए प्रतिरोध और संघर्ष की स्थिति पैदा होती है। जन आंदोलन इस बात का दावा करते हैं कि उनका परिप्रेक्ष्य जनपक्षधर का है। लेकिन नए विमर्शों ने जनपक्षधरता को पुनः परिभाषित किया है। इस शोध पत्र में कनहर बचाओ आंदोलनों में महिलाओं की क्या भूमिका रही? आंदोलन में उनके अपने मुद्दे, हिस्सेदारी?
और नेतृत्व के सवाल को किस रूप में उठाया गया इसकी एक छोटी सी पड़ताल की गई है।
बीज शब्द
: विकास और विस्थापन, आन्दोलन, आदिवासी, महिलाएं, आमजनता, सरकार।
महिलाओं पर विकास के प्रभाव को समझने के लिए विकास के मॉडल को समझना ही जरुरी नहीं है बल्कि समाज में व्याप्त असमानता, प्रभुत्व और अधीनता के सम्बन्ध को समझना भी जरुरी है। विकास नीतियों के निर्माण, कार्यान्वयन
और मूल्यांकन का सामाजिक और आर्थिक सन्दर्भ है। जिसके बिना हम उनके प्रभाव को नहीं समझ सकते राज्यों में इन नीतियों का उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक संरचना से उपजी समस्याओं से निपटाना होता है। ताकि सामाजिक न्याय और समानता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। यदि विकास के लाभ औरतों तक नहीं पहुंचते हैं तो सिर्फ इतना काफी नहीं है कि उनका विकास में हिस्सा बढ़ाया जाए बल्कि विकास के स्वरुप को औरतों के अनुभवों और परिप्रेक्ष्य के सन्दर्भ में बदलने की जरुरत है। विकास की इस प्रक्रिया में एक खास तरह के खास वर्ग का हित अनदेखा कर दिया जाता है, जिसके शोषण से इस विकास की बुनियाद और मजबुत होती जाती है। महिलाएं लैंगिक आधार पर दोयम दर्जे पर हैं ही ओद्योगिक विकास परियोजनाओं ने महिलाओं को साझे संपत्ति संसाधनों और उनकी भविष्य की पीढ़ियों को संकट में डाल दिया है। भारतीय संदर्भ में पुनर्वास की नीतियां, कार्यक्रमों में लिंग पक्षपाती है और पुनर्वास लोगों के लिए एक कठिन प्रक्रिया है। महिलाएँ सिर्फ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक ही नहीं बल्कि शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित होती है|
मूल आलेख : आंदोलन की प्रकृति: आदिवासी आंदोलनः इस आंदोलन का प्रभाव उत्तर प्रदेश झारखण्ड और छत्तीसगढ़ तक फैला हुआ है। जल जंगल और जमीन के मुद्दों पर चलने वाले आंदोलनों को आमतौर पर आजीविका के तात्कालिक हल के रूप में देखा जाता है। यह आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ा हुआ मामला है और आदिवासियों के जंगल के हक की भी लड़ाई है। चुँकि कनहर बाँध से प्रभावित लोग व्यापक तौर पर आदिवासी और जनजाति सामाजिक वर्ग के लोग हैं इसलिए आंदोलनों से जुड़ा मुद्दा वर्गीय प्रकृति का भी है। राज्य प्रशासन और स्थानीय समुदायों के बीच के संघर्ष का 40 साल पुराना इतिहास रहा है। सोनभद्र जिले का आधा हिस्सा सरकारी रूप से वन क्षेत्र के नाम पर वर्गीकृत है और वन विभाग ही इसका नियंत्रण करता है। विडम्बना यह है कि एक तरफ अधिकतर वन क्षेत्र उद्योगों खनन और प्रबल लोगों के कार्य के लिए परिवर्तित हो गए हैं और वहीं दूसरी तरफ अधिकांश दलित और आदिवासियों को वन विभाग और सरकारी अधिकारियों के द्वारा लगातार डरा धमका के रखा जा रहा है। वन अधिकार कानून में दिए गए अधिकारों की मांग करते हुए आदिवासी और दलितों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा की बहुत सी रिपोर्ट दर्ज है।
कनहर बचाओ आंदोलन और महिलाए : कनहर बचाओ आंदोलन विभिन्न कारणों से अलग है यह अपने जातीय, नस्लीय आधार पर भी अलग आंदोलन है। कनहर आंदोलन को इतनी कवरेज नहीं मिली और न ही बहुत सारे राजनीतिक दलों का समर्थन ही मिला। हर चरण में आदिवासी जीवन भिन्न-भिन्न तरह से उतार चढ़ाव देखता रहता रहा है। इसमें हमेशा इस उतार चढ़ाव का असर आदिवासी महिलाओं के ऊपर अधिक पड़ता रहा है। ब्रिटिश शासन से पहले भी महिलाएँ खेत जोतने बोने और अन्य कृषि गतिविधियों में शामिल होती थीं। जमीन प्रबंधन और कारखानों के कार्य आने के बाद महिलाओं के जीवन में इस तरह की गतिविधियों का भार दोगुना हुआ है। इसीलिए जब विस्थापन होता है तो सांस्कृतिक संक्रमण भी होता है और इसका असर महिलाओं के ऊपर अनेक तरह से पड़ता है। “गरीब किसान और आदिवासी महिलाएँ पारम्परिक तौर पर ईंधन और खाद्य सामग्री एकत्रित करने के लिए जिम्मेदार रही हैं और पहाड़ी तथा आदिवासी समुदाय प्रायः मुख्य खेती करने वाले होते हैं। इसलिए पर्यावरण के क्षरण के कारण वे भयानक रूप से, खास तौर से प्रभावित होते हैं। महिलाओं और पुरुषों का पर्यावरण के साथ संबंध उनकी भौतिक जरूरतों के कारण होता है। इसलिए क्योंकि समाज में जेंडर और वर्ग के आधार पर श्रम और सम्पत्ति और शक्ति का विभाजन होता है। जेंडर और वर्ग प्रकृति के साथ लोगों के संबंध को निर्धारित करतें हैं” औरत के नेतृत्व में चलने वाले इस समुदाय ने आंदोलन में धीरे धीरे राजनैतिक तौर पर क्रांतिकारी बदलाव लाने शुरू किए, चाहे फिर वो नदी की सुरक्षा की बात हो या जल, जमीन पर समुदाय के हक की। बड़े पैमाने पर इस नए जनआंदोलन के उभरने से स्थानीय प्रबल लोगों का समूह और राजनैतिक नेता डर गए और वे इस आंदोलन को नष्ट करने के लिए खुलेआम प्रशासन के साथ जुड़ गए और इसी के चलते जिला प्रशासन और उच्च श्रेणी, उच्च जाति के लोगों के नेतृत्व में 14 और 18 अप्रैल को आंदोलन पर दो बड़े हमले करवाये गए। सरकार, राजनैतिक नेता और स्थानीय मीडिया के सक्रिय भागीदारी ने कनहर आंदोलन पर इस हिंसक हमले को असलियत बना दिया। ये सारी प्रबल ताकतें ओ0बी0सी0 के लोगों को बेहतर मुआवजा और रोजगार देने का वादा करके प्रभावित लोगों के गठबंधन को तोड़ने की कोशिश कर रही हैं। श्रेण जाति के संघर्ष की यह गतिशीलता आंदोलन के भविष्य की गतिविधियाँ तय करेंगी। जैसे-जैसे कनहर नदी बहेगी वैसे-वैसे यह प्रभावित समूहों का संघर्ष बढ़ेगा।
आंदोलन में शामिल कुछ महिलाओं के साक्षात्कार से आंदोलन में महिलाओं की विशेष स्थिति, उनकी चेतना का पता चलता है।
राजकुमारी भुईया : ग्राम धूमा, थाना-बिढ़मगंज, ब्लाक-दुद्धी, जिला सोनभद्र की रहने वाली हैं। यह अशिक्षित हैं। इनकी उम्र 50 वर्ष है। यह कहती है सुकालो, जिनका भीसुर गाँव में ही मैका पड़ता है। उनसे मिलकर हम ‘अखिल भारतीय वन श्रमजीवी संगठन’ में जाकर अपनी बात रखे कि जिनके नाम से जमीन है, उनको मुआवजा मिल रहा है। जिनके नाम कोई जमीन नहीं है और वो घर बना के रह रहे हैं, तो वो लोग कहाँ जायेंगे। तब यह बात संगठन के ऊपर के लोगों तक पहुँची। फिर संगठन के लोगों ने कहा कि हम वन अधिकार के लिए तो लड़ाई लड़ते ही रहे हैं, तो क्यूँ नहीं कनहर आन्दोलन के मुद्दे को देखा जाए। हम लोग फिर बाँध को देखने गये। देखने के बाद मन इतना दुःखित हुआ कि डूब के प्रभावित लोग जाए तो जायेंगे कहाँ? मान लो जिनके पास जमीन है उनको तो एक उम्मीद है कि मुआवजा मिलेगा तो वो कहीं चले ही जायेंगे। लेकिन जिसके पास जमीन ही नहीं है वो कहाँ जायेंगे। तब हमने मुद्दा बनाया कि घर के बदले घर और जमीन के बदले जमीन (खेत) सरकार दे। यह सब हमें मिल जाएँ तो हम कमा खा लेंगे। अगर यहीं नहीं दिया जायेगा तो हम कैसे अपना जीवन बसर करेंगें? हम कनहर के लोगों से मिल कर आन्दोलन में शामिल हो गये। आन्दोलन तो धीरे-धीरे चलता रहा। 14 अप्रैल 2014 को धरना स्थल पर जब गोली काण्ड हुआ तो सब लोग डर गये। कुछ आंदोलनकारी फूटकर सरकार के एजेंट बन गये। कुछ ठेकेदार से मिल गये और कुछ लोगों ने सच में जान जाने के डर से भी आंदोलन को छोड़ दिया। मुझे भी गिरफ्रतार किया गया था। उस समय मैं अपने घर जा रही थी बड़खर गाँव में। जब मैं घुसी, करीब शाम के 4 बज रहे थे, तभी मुझे पुरूष काँस्टेबल ने आकर पकड़ लिया, धक्का-मुक्की से थोड़ी चोट भी आई। मेरा थाना बिढ़मगंज था। वहाँ नहीं लेके गये। मुझे दुद्धी थाने पर लेकर गये। बिढ़मगंज इस वजह से नहीं लेकर गये कि मेरे संगठन के लोग जान जाते और थाने पहुँच कर घेर लेते। मुझे प्यास लगी थी पानी माँगती रही पर किसी ने पानी नहीं दिया। मुझे भूख भी लगी थी। मैंने माँगा पर खाने को भी कुछ नहीं दिया। मेरे ऊपर इतनी धाराओं 147,
149, 307, 325, 323 ,352 ,353 और 504 के तहत मामला दर्ज किया गया। लक्ष्मण और अशरफीलाल को भी पुलिस वालों ने उठाया। उसके बाद मुझे और गम्भीरा प्रसाद को भी उठाया गया और हमारे गिरफ्तारी के 2 महीने बाद रोमा मलिक और सुकालो को भी उठाया गया। कई औरतों की गिरफ्रतारी की गई, वो भी पुरूष पुलिस उठा कर ले गई। मामला दर्ज करने के बाद महिला कांस्टेबल के साथ चलान कर राबर्टस्गंज भेजा गया और 4 महीने रखा गया। खाना कुछ भी ठीक-ठाक नहीं देते थे, पर जब रोमा मलिक गईं तो ठीक-ठाक खाना मिलने लगा। रिहाई के बाद भी पुलिस इन्क्वायरी करती रहती है। बहुत दबाव बना कर रखा हुआ है, प्रमिला गुलबसिया भी इन्हीं सवालों के साथ इस आंदोलन को समर्थन देती हैं।”
यहाँ कुछ साक्षात्कर्ताओं के बयानों के आधार पर विकास का क्या मतलब होता है, उसे समझने की कोशिश करेंगे।
शैरून निशा अंसारी : “30 साल पहले जिस बाँध की नींव रखी गयी, उसके बाद जो भी सरकारें नींव रखती गईं, उस बाँध के बजट के पैसे का जो बन्दर बांट हुआ, मुझे उससे कोई मतलब नहीं है। मुझे आप 30 साल से डूब क्षेत्र के नाम पर जो विकास रूका हुआ है उसका आप हमें ब्योरा दें। स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़कें, शौचालय, यह सब गाँव तक क्यूँ नहीं पहुँचा? 30 साल से डूब क्षेत्र के नाम पर हम 60 साल पीछे चले गये हैं। उसका हिसाब कौन देगा?” विकास किसे कहतें है वो आज तक नहीं समझ पाई हैं क्योंकि उनकी अपनी एक दुनिया है। मेरा एक सवाल उनसे था कि आप इस बाँध का विरोध क्यों कर रही हैं? उनका जवाब यह था कि हम विरोध नहीं कर रहे हैं। हम बस अपना वाजिब हक और उसके बदले में जो मुआवजा बनता है उसको माँग रहे हैं। जितना बड़ा मेरा घर है उतना बड़ा घर मुझे दें। जिसके आस-पास हम झींगी, नेनुआ, करेली, सेम, बैगन, पहटूल, सरपूतिया, लौकी और भी जंगली साग सब्जी उगा सकें। मुर्गी, गाय, भैंस, बैल, बकरी, रखने तक कि जमीन दें। गोबर (गोइठा) पाथने तक की जमीन दें। हमें वो पेड़ भी चाहिए जिससे महुआ की रोटी बना सकें और तरल पदार्थ भी निकाल सकें और बीड़ी बनाकर उसे बाजार में बेच सकें। जमीन के बदले जमीन दें। खेत के बदले खेत दें। हमें नौकरी नहीं चाहिए। हम थोड़ा धान, गेहूँ, मक्का, तील, उरद, अरहर, झरंगा, धान, उगा के अपनी जीविका चला लेंगे। सिर्फ पति को नौकरी देने से हमारी समस्या का हल नहीं है। जबकि अब तो नौकरी भी नहीं मिलेगी।” उन महिलाओं का यह भी कहना है ‘अगर आप यह सब नहीं दे सकते हैं तो आप हमें किसी जंगल में ही बसा दें, जहाँ हमारी गाय, भैंस, बकरियाँ जंगल में चर सकें, घूम सकें। हम ईंधन के लिये लकडि़याँ ला सकें और जो जंगली औषधियाँ हैं उसे इस्तेमाल कर सकें और वहाँ नदी भी बहनी चाहिए, जहाँ से हम शुद्ध पानी को भी पी सकें। हमारा जल, जंगल, जमीन, पहाड़ से जो लगाव है, उसे तो कभी समझ नहीं सकते हैं। हमारी पहली प्राथमिकता भूख है फिर स्वास्थ्य, फिर शिक्षा, फिर शौचालय है, सड़कें आदि आदि। 15/10 के कमरे में एक चौकी के अलावा क्या-क्या आयेगा यही दिया जा रहा है, इसमें हमारा गुजर-बसर कैसे होगा? आप ही बताइये हमारे पास क्या रास्ता छोड़ा है सरकारों ने?”
अकलू चेरो : का साक्षात्कार राज्य द्वारा क्रूर दमन की कहानी कहता है। अकलू चेरो- इनकी उम्र 52 वर्ष है और यह बाँध के सटे ग्राम सुन्दरी के रहने वाले हैं। यह अनपढ़ हैं, ये बतातें हैं कि “18 अप्रैल 2015 कनहर बचाओ आन्दोलन के तहत प्रशासन के द्वारा, कोतवाल ने गोली चलाई और गोली मेरे सीने के आर-पार हो गई, फिर भी मैं जिंदा बच गया। मुझे दुद्धी अस्पताल ले जाया गया। वहाँ से दवा दिया, फिर रफेर कर राबर्टस्गंज भेज दिया गया। वहाँ अस्पताल के अन्दर भी नहीं घुसा था कि बनारस के अस्पताल भेज दिया गया। वहाँ कोतवाल भी पहुँच गया। उसने खुद अपने हाथ से अपने हाथ में गोली मार लिया था। डॉक्टर ने हमें एक ही रूम में भर्ती कर दिया। वहाँ भी उसने बहस करना शुरू कर दिया। तब डॉक्टर ने हमें अलग-अलग कमरे में भर्ती किया। मेरे साथ असरफी थे। इनको पुलिस ने चालान काट कर जेल भेज दिया। वो लोग 4 महीनें जेल काट कर रिहा हुए हैं।
मेरे दवा करने की जिम्मेदारी
बाँध कम्पनी ने ली थी। मैं सात दिन अस्पताल में रहा। मुझें कम्पनी के द्वारा 20,000 रुपये दिए गये जो उसी दिन घर लौटते वक्त गाड़ी में किसी ने चुरा लिए। पुलिस लगातार इन्क्यारी करती रहती है। लगभग धमकाती रहती है कि अकलू कहीं कोई मीन्टिग तो नहीं रखे हो? घर का एक ही सहारा हो बुझ जाओगे। मुझे बाँध कम्पनी ने एक नौकरी दे रखी है, जो कि सरकारी नहीं है। इसकी कोई पक्की रसीद भी नहीं है। जब तक बाँध बनेगा तब तक काम है, उसके बाद नौकरी खत्म। तब मै क्या करूँगा? गोली लगने के बाद मैं
कोई खेती का काम नहीं कर पाता हूँ। सब मेरी पत्नी खेत-खलिहान का काम करती है। गोली काण्ड होने के बाद तब से आंदोलन भी तितर-बितर हो गया है। कोतवाल के ऊपर मैं एफ.आई.आर. करवाना चाहता था, पर नहीं हो पाया। पता नहीं मेरे केस का क्या हुआ?
मेरे 10 बच्चें हैं जिसमें 5 बेटी और 5 बेटा हैं। एक बेटा पाँचवी तक पढ़ा है। एक बेटी भी पाँचवी तक पढ़ी है। उसके बाद के सभी बच्चे नहीं पढ़ते हैं। पढ़े भी भला कैसे, स्कूल के लिए जंगल, पहाड़, पत्थर के रास्ते कैसे तय करें और स्कूल लगभग 20 किलोमीटर दूर है। गाँव में इनके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें, मनोरंजन का कोई साधन ही नहीं है। बच्चे लगभग कुपोषित हैं।’ इनका परिवार कुँए का पानी पीता है। इनकी पत्नी भी कुपोषित हैं। मैं उनसे मिलने गई, दुद्धि तहसील से लगभग 30 से 40 किलोमीटर जंगल, पहाड़, नदी के पुल के रास्ते सड़कें छत-बिछत, टूटे-फूटे रास्ते से गुजरते हुए मिट्टी की रेत से भरी पकडंडियों, पतले रास्ते, एक दम सन्नाटे रास्ते के सहारे पगन नदी के उस पार छत्तीसगढ़ में जैसे-तैसे उनके घर पहुँची। उनका एक पाही का भी घर है, जहाँ उनके भाई रहते हैं। अकलू का घर मिट्टी की दीवार व खपड़े से छत बना हुआ है। उनकी पत्नी से बात हुई तो पहली बात यही कहीं कि “मेरे पति की मृत्यु हो जाती तो मैं कैसे इन बच्चों का निर्वहन करती?” यहाँ हम स्पष्ट देख सकते हैं कि अकलू की माली हालत बहुत अच्छी नहीं है। ये आदिवासी समुदाय से हैं। इसीलिए राज्य दमन की क्रूरता में उनकी सामाजिक स्थिति भी आधार बनती है। टिहरी बाँध विरोधी आंदोलन में गोली चलने का कहीं कोई मामला नहीं दिखता है, लेकिन यहाँ तो राज्य व्यवस्था आदिवासी नागरिकों के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह व्यवहार करती नजर आ रही है। दमन के बाद जब वह काम करने की स्थिति में नहीं है तो नौकरी तो उसकी पत्नी को मिलनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अकलू की भी मांग में कहीं कोई इस तरह का मुद्दा नहीं दिखता है, जिससे यह कहा जा सके कि उसकी मांग महिला की स्थिति को केन्द्र में रखकर की गयी है। इसी तरह की कहानी गम्भीरा प्रसाद जी की भी है।
आंदोलन का तरीकाः इस आंदोलन में बाँध पर ही डेरा डालकर रहना, सामूहिक रूप से अनाज इकठ्ठा करके भोजन बनाकर खाना, धरना देना, आंदोलनों में लाठी-डण्डा, हंसिया-खुरपी लेकर आना, पुतला फूंकना, झण्डा लेकर चलना, पत्थरों से रास्ते जाम करना ताकि बड़ी मशीने बाँध स्थल तक न पहुँच पायें। धरना स्थल पर पूरा सामान कपड़ा, बरतन, विस्तर लेकर रहना आदि तरीके अपनाये जाते थे।
कनहर बचाओ आंदोनलन में भी महिलाओं की भागीदारी खूब है। वे अपने पारम्परिक
लाठी-डण्डे के साथ आंदोलन में शामिल होती हैं। आंदोलन में पुरूषों के बराबर कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं। कनहर बचाओ आंदोलन भी पुनर्वास, वैकल्पिक रोजगार, खेत के बदले खेत, घर के बदले घर, उचित मुआवजा आदि जैसी माँगें प्रमुख थीं। कनहर बचाओ आंदोलन के लोगों अनुभव बिल्कुल अलग है। यह आंदोलन अपने आरम्भ से ही समझौताविहीन था। सोनभद्र का वह इलाका हिन्दू-मुश्लिम साझी विरासत के लिए जाना जाता है। इस क्षेत्र में यह सांस्कृतिक विरासत बहुत मजबूत है। इनमें साम्प्रदायिक भावना न पनप पाने का एक और महत्वपूर्ण कारण वहा के लोगों में अम्बेडकरी चेतना से लैस होना भी हो सकता है। इस बात की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि वहां के आंदोलन कर्ता अपने आंदोलन का दिन अम्बेडकर के जन्म दिवस को चुनते हैं। इस आंदोलन को तोड़ने के लिए सत्ता ने क्रूर दमन का सहारा लिया। लगभग 15-16 वर्षों बाद आज भी इस मामले में काफी सख्ती है कि किसी भी तरह का आंदोलन फिर से जन्म न ले ले। इस आंदोलन को किसी बड़े राजनीतिक दल का सक्रिय समर्थन भी नहीं मिला। सोनभद्र औद्योगिक क्षेत्र है। इतना प्रदूषण है कि यहाँ के पानी में पारा, आयरन की मात्र ज्यादा है। जिसके वजह से महिलाओं को आये दिन यहाँ पीलिया, खून की कमी, कमजोरी, कुपोषण और गर्भवती महिलाओं के गर्भ का न रुकना, गर्भ रुक भी गया तो जल्द ही खुद से गर्भपात का होना, कुपोषित बच्चे का पैदा होना, माहवारी का समय से न आना सबसे बड़ी समस्याएँ हैं। जिसके वजह से वहाँ के पुरुष दूसरी, तीसरी, शादियाँ कर रहे हैं। जिससे महिलाओं के ऊपर शोषण की चौतरफा मार पड़ रही है। यह सब आंदोलन के बड़े मुद्दे नहीं बन पाते हैं और आंदोलन के नेतृत्व और कर्ता-धर्ता को यह सब सामान्य लगता है।
निष्कर्ष : चूँकि, आदिवासी समाज तथाकथित सभ्य समाज से अलग तरह का जीवन जीता रहा है। और उसकी संस्कृति के बारे में यह धारणा है कि वह अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक है। अर्थात स्त्री और पुरूष सबंध वर्चस्व की संरचना पर नहीं टिके हुए हैं, लेकिन किसी भी तरह के विकास और विस्थापन के परिस्थिति में उनका पूर्व स्थापित संस्कृति का अतिक्रमण होता है हालांकि यह बात किसी भी समाज के विस्थापन पर लागू होती है। लेकिन आदिवासी समुदाय के संदर्भ में स्त्री-पुरुष की संरचना जिस तरह से बदली है, उसे सकारात्मक से नकारात्मक बदलाव माना जा सकता है। जबकि अन्य समाजों के विस्थापन में होने वाले स्त्री-पुरुष सबंध के बदलाव को नकारात्मक से और अधिक नकारात्मक माना जा सकता है। विस्थापन की वजह से उनकी पारंपरिक जीवन-शैली, सामाजिक ताना-बाना और सांस्कृतिक अभ्यास सभी बिगड़ जाते हैं तथा इसका असर उनपर मनोवैज्ञानिक ढंग से पड़ता है। इन सबके अलावा एक समाज जो पूरी तरह पैसों पर आधारित अर्थव्यवस्था से इतर एक अनौपचारिक जीवन जी रहा था, अचानक एक ताकतवर, औपचारिक प्रधान-केंद्रित समाज में जबरन धकेल दिया जाता है, जिनके साथ ताल-मेल बिठाने तक की उसकी तैयारी नहीं होती। इस हालत में वे उस संस्कृति को आत्मसात करने की कोशिश करते हैं। जो परियोजना से जुडे़ बाहरी लोग अपने साथ लाते हैं। बाहरी लोग खुद को उनसे बेहतर मानते हैं। ऐसे में स्थानीय लोग खुद को कमतर आंकने लगते हैं और अपने समुदाय को भी हीनभावना से देखने लगते हैं। यह स्थिति विस्थापितों को हाशिए पर धकेले जाने के लिए अंतर्निहित है और आर्थिक बदहाली से बाद कि स्थिति और भी खराब हो जाती है। इससे उनकी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर एक नये वर्ग की उत्पति होती है।
सन्दर्भ :
2. छत्तीसगढ समाचार,14 मई 2015 पृष्ठ 8
3. मणिशंकर- अय्यर, जनजातियों और पारम्परिक वनवासियों के वन अधिकारों को लागू करने में ग्राम सभा की भूमिका, योजना, सितम्बर 2008 http://hindi.indiawaterportal.org/node/49115
4. छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन की प्रकाशित रिपोर्ट https://naidunia.jagran.com/Chhattisgarh/Raipur-chhattsgarh-21-village-submerged-in-kanhar-dam-353860
5. Rangarajan, Mahesh , (Eds) 2007, Environmental Issues in India A Reader , delhi: Dorling Kindersley, p. 323
6. शैरून निशा अंशारी गाँव -सुंदरी 23-10-2016 रविवार 1:30 PM साक्षात्कार लिया गया।
7. कलावती गाँव -भिसूर 17-10-2016 को साक्षात्कार लिया गया। फुलवंती गाँव -बघाड़ू 18-10-2016 को साक्षात्कार लिया गया।
8. राजकुमारी गाँव -धूमा 18-10-2016 मंगलवार 2:30 PM साक्षात्कार लिया गया।
9. गुलबसिय गाँव -धूमा 18-10-2016 मंगलवार 2:30 PM साक्षात्कार लिया गया।
10. प्रमिला गाँव-धूमा 18-10-2016 मंगलवार 2:30 PM साक्षात्कार लिया गया।
11. अकलू चेरो गाँव-सुंदरी 23-10-2016 रविवार 2:30 PM साक्षात्कार लिया गया।
पूर्व शोधार्थी (पीएच.डी.), दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
सम्पर्क : gudiya.sushila@gmail.com, 9616508932
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