- के. एम. प्रतिभा
शोध
सार :
श्रम
मनुष्य
की
बुनियादी
जैव
आवश्यकताओं
में
से
एक
है।
मानव
समाज
की
उत्पत्ति
लोगों
की
श्रम
सक्रियता, भौतिक उत्पादन
के
विकास
के
साथ
अभिन्न
रूप
से
जुड़ी
हुई
है।
अपने
आधुनिक
अर्थों
में, श्रम कुछ
मौद्रिक
लाभों
के
लिए
किया
गया
वह
शारीरिक
या
मानसिक
कार्य
है
जिसके
बदले
में
मजदूरी
या
मेहनताने
की
प्राप्ति
होती
है।
परन्तु
महिलाओं
का
अधिकांश
श्रम
घर
की
चारदीवारी
में
संपन्न
होता
है
और
उसका
मौद्रिक
रूप
में
उन्हें
कोई
प्रतिफल
प्राप्त
नहीं
होता।
ऐसे
में
प्रश्न
उठता
है
कि
क्या
उनके
घरेलू
कार्यों
का
कोई
मूल्य
है
अथवा
नहीं
? बेशक
उन
कार्यों
का
मूल्य
है।
परन्तु
उनके
इन
कार्यों
को
‘घर का काम’
कहकर
उनकी
मेहनत
और
महत्ता
दोनों
को
दरकिनार
कर
दिया
जाता
है।
इन
घरेलू
कार्यों
के
लिए
उन्हें
वह
सम्मान
नहीं
प्राप्त
होता
है
जो
अन्य
कार्यों
को
मिलता
है।
यह
तो
रही
घरेलू
कार्यों
की
स्थिति।
परन्तु
जब
महिलाएँ
कामकाजी
के
तौर
पर
वैतनिक
कार्यों
के
लिए
घर
से
बाहर
निकलती
हैं, तो
अनेकों
समस्याएँ
उनके
समक्ष
प्रस्तुत
होती
हैं, जैसे- कार्यस्थल पर
शारीरिक, मानसिक शोषण, अनुचित मानदेय, चरित्र हनन
आदि
जैसे
न
जाने
कितनी
समस्याओं
से
उन्हें
जूझना
पड़ता
है।
अतः
हिंदी
उपन्यासों
के
माध्यम
से
महिला
श्रमिकों
की
इन्हीं
समस्याओं
एवं
चुनौतियों
का
अवलोकन
किया
गया
है।
बीज
शब्द :
श्रम, महिला श्रमिक, आर्थिक शोषण, शारीरिक शोषण, हिंदी उपन्यास, कार्यस्थल पर
शोषण, नारी स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता, पूंजीवादी शोषण, नौकरशाही, मजदूरी, बंधुआ मजदूर, आजीविका।
मूल
आलेख :
जैसा
कि
हम
जानते
हैं
हिंदी
उपन्यासों
का
आरम्भ
ही
स्त्री
समस्याओं
को
लेकर
हुआ
था
जिसमें
बाल
विवाह, अनमेल विवाह, दहेज़ तथा
बलात्कार
आदि
की
समस्या
प्रमुख
थी
और
इन्हीं उपन्यासों में
इन
सब
समस्याओं
का
निदान
भी
मौजूद
है
।
परन्तु
स्त्रियों
की
श्रमिक
स्थिति
पर
हिंदी
उपन्यास
बहुत
कम
ही
लिखे
गए
हैं।
इस
विषय
में
डॉ.
श्यामचरण
दुबे
का
कथन
उल्लेखनीय
है।
वे
कहते
हैं
कि
‘हिंदी उपन्यास
की
उल्लेखनीय
सफलताओं
के
बावजूद
भारत
के
सामाजिक
यथार्थ
के
आकलन
में
उसकी
सीमाएँ
और
न्यूनताएँ
चुभने
वाली
हैं...भूमिहीन
खेतिहरों, बंधुआ मजदूरों
और
औद्योगिक
श्रमिकों
पर
जो
लिखा
गया
है, वह
नाकाफी
है
और
संतोष
भी
नहीं
देता
।
आदिवासियों
व
दरिद्र
समाज
का
दर्द
भी
अभिव्यक्ति
नहीं
पा
सका
है...अधिकाँश
हिंदी
उपन्यास
अभी
भी
नगरों
और
कस्बों
के
इर्द-गिर्द
घूम
रहे
हैं, बहुत कम
लेखक
ग्रामीण
और
दलित
जीवन
से
तादात्म्य
स्थापित
कर
सके
हैं
।’
डॉ.
श्यामचरण
दुबे
की
हिंदी
औपन्यासिक
परिदृश्य
पर
की
गई
यह
टिप्पणी
हिंदी
उपन्यास
के
उस
खालीपन
को
इंगित
करता
है
जो
समाज
के
इतने
बड़े
वर्ग
और
उनकी
समस्याओं
को
संतोषजनक
रूप
में
नहीं
उठा
सका
है
जिसमें
दलित, आदिवासी जो
समाज
के
अहम्
हिस्से
हैं, न केवल
उनकी
ही, बल्कि आधी
आबादी
कही
जाने
वाली
महिलाओं
की
श्रम-सम्बन्धी
समस्याओं
की
भी
अनदेखी
की
गई
है।
यदि
हिंदी
उपन्यासों
में
उनकी
उपस्थिति
संतोषजनक
नहीं
है
तो
फिर
महिला
श्रमिकों
की
समस्याओं
एवं
चुनौतियों
की
स्थिति
क्या
होगी, इसका
अंदाज़ा
लगाना
कठिन
नहीं
रह
जाता
है।
परन्तु महिला
श्रमिकों
पर
उपन्यास
एकदम
से
नगण्य
नहीं
हैं।
इसलिए कुछ
ऐसे
ही
गिने-चुने
उपन्यासों
की
चर्चा
यहाँ
की
जा
रही
है।
जैसा कि
सर्वविदित
है
कि
प्रेमचंद
से
पूर्व
हिंदी
के
सामाजिक
उपन्यास
स्त्रियों
को
आदर्श
भारतीयता
का
पाठ
पढ़ाने
और
पश्चिमी
सभ्यता
के
बरअक्स
भारतीय
संस्कृति
और
सभ्यता
को
श्रेष्ठ
साबित
करने
के
उद्देश्य
से
लिखे
गये
थे।
परन्तु
प्रेमचंद
ही
सर्वप्रथम
ऐसे
उपन्यास-लेखक
हैं
जिन्होंने
केवल
आदर्श
की
स्थापना
के
लिए
ही
लेखन-कार्य
नहीं
किया
बल्कि
उन्होंने
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि
समस्याओं
पर
भी
यथार्थवादी
ढंग
से
उपन्यास
लिखें
हैं।
उनके
उपन्यासों
में
अन्य
समस्याओं
के
साथ-साथ
स्त्री-समस्याओं
को
गहन
तरीके
से
उठाया
गया
है।
‘गोदान’
(1936) प्रेमचंद के
लेखन-काल
के
चरमावस्था
की
रचना
है।
परमानन्द
श्रीवास्तव
के
शब्दों
में
कहें
तो
वस्तुतः
“ ‘गोदान’ किसान-चेतना
की
महागाथा
ही
नहीं
है, वह स्त्री-चेतना
की
महत्त्वपूर्ण
गाथा
भी
है।”1
प्रेमचंद द्वारा
महिलाओं
को
अपने
अधिकारों
के
लिए
आह्वान
करते
इस
कथन, “अपने को
मिटाने
से
काम
न
चलेगा.
नारी
को
समाज-कल्याण
के
लिए
अपने
अधिकारों
की
रक्षा
करनी
पड़ेगी।”2
से
स्पष्ट
है
कि
हिंदी
उपन्यास
में
स्त्रियों
को
सर्वप्रथम
आदर्श
की
प्रतिमूर्ति
से
परे, यथार्थ की
पृष्ठभूमि
पर, स्त्री-सुलभ
व्यवहारों
एवं
समस्याओं
के
साथ
उन्हें
अपने
अधिकारों
के
लिए
जागृत
करने
के
उद्देश्य
से
जिन्होंने
उपन्यास-लेखन
का
कार्य
किया, वह प्रेमचंद
ही
थे।
‘गोदान’ की
सर्वाधिक
मुखर
और
विद्रोहिणी
पात्र
धनिया
है।
उसका
विद्रोह
घर
और
बाहर
दोनों
ही
जगह
बराबर
का
रहता
है, होरी
द्वारा
उसकी
पिटाई
करने
और
पुलिस
द्वारा
घर
की
तलाशी
लेने
पर
इज्ज़त
की
दुहाई
देने
पर
चेतावनी
भरे
लहजे
में
वह
कहती
है, “अपनी महरिया
को
सारे
गाँव
के
सामने
लतियाने
से
इसकी
इज्ज़त
नहीं
जाती...तू
समझता
है, मैं इसे
रोटी-कपड़ा
देता
हूँ
।
आज
से
अपना
घर
संभाल
।
देख
तो
इसी
गाँव
में
तेरी
छाती
पर
मूँग
दल
कर
रहती
हूँ
कि
नहीं
और
इससे
अच्छा
खाऊँगी-पहनूँगी
।
इच्छा
हो
देख
लो
।
”3 धनिया के
इस
कथन
से
स्पष्ट
है
कि
स्त्रियों
के
शोषण
का
एक
बहुत
बड़ा
कारण
उसका
प्रत्यक्ष
रूप
से
घर
की
आर्थिक
स्थिति
में
सहयोग
न
देना
है
।
यद्यपि
घर
के
आर्थिक
सहयोग
को
अगर
छोड़
दिया
जाए
तो
कोई
ऐसा
कार्य
नहीं
बचता
है, जिसमें वह
जी
तोड़
मेहनत
नहीं
करती
हैं
।
वहीं
इस
उपन्यास
में, दूसरी तरफ
दातादीन
द्वारा
अपनी
जमीन-जायदाद
गिरवी
रखकर
होरी
को
किसान
से
मजदूर
बना
देने
पर
उसे
ललकारती
हुई
कहती
है, ‘भीख माँगो
तुम, जो भिखमंगे
की
जात
हो.
हम
तो
मजूर
ठहरे, जहाँ काम
करेंगे, वहीं चार
पैसे
पाएँगे.’
वीरेंद्र
यादव
के
शब्दों
में, “प्रेमचंद यहाँ
नारी
स्वतंत्रता
को
नारी
श्रम
से
जोड़ते
हुए
पितृसत्तात्मक
समाज
की
दासता
से
मुक्ति
का
जो
रास्ता
दिखाते
हैं, वह स्त्री
की
आत्मनिर्भरता
का
ही
नहीं, बल्कि आत्मनिर्णय
का
भी
द्वार
खोलता
है।”4
‘गोदान’ में
किसानों
के
ऋण
की
समस्या
को
उठाया
गया
है
।
परन्तु
कहीं-न-कहीं
प्रेमचंद
ने
हिंदी
उपन्यासों
में
पहली
बार
महिलाओं
की
बंधुआ
स्थिति
जैसे
कटु
सत्य
को
भी
उभारा
है।
दातादीन
सिलिया
के
बारे
में
कहता
है, “सिलिया अकेले
तीन
आदमियों
का
काम
करती
है, और मैं
रोटी
के
सिवा
और
क्या
देता
हूँ ? बहुत
हुआ
तो
साल
में
एक
धोती
दे
दी।”5
इतना ही नहीं, वह “सिलिया
का
तन
और
मन, दोनों लेकर
भी
बदले
में
कुछ
न
देना
चाहता
था।
सिलिया
अब
उसकी
निगाह
में
केवल
काम
करने
की
मशीन
थी
और
कुछ
नहीं।”6
इस तरह स्त्रियों
के
श्रम
का
बेहिसाब
दोहन
होता
है
परन्तु
उसका
मानदेय
तो
दूर
उसे
वह
बुनियादी
सम्मान
या
सराहना
भी
नसीब
नहीं
होता
जिसकी
वह
हकदार
हैं।
इस
तरह
उनका
आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, लैंगिक, नैतिक आदि
हर
तरह
का
शोषण
निरंतर
होता
रहता
है।
स्त्री जब
घर
से
निकलती
है
तो
उस
पर
तमाम
तरह
के
लांछन
लगाये
जाते
हैं।
प्रेमचंद
ने
इस
बात
को
बखूबी
पहचान
लिया
था।
नोहरी
को
‘चटपटी रंगीली’ स्त्री, जो ‘मर्दों
को
नचाने
की
कला
जानती
है’
के
रूप
में
परिचित
किया
जाता
है
क्योंकि
वह
अपने
परिवार
का
पालन-पोषण
करने
के
लिए
मजदूरी
करने
घर
से
बाहर
निकलती
है।
नोहरी
अपने
पति
से
कहती
है
कि
“जब तुम मुझे
परदे
में
नहीं
रख
सकते, मुझे दूसरों
की
मजूरी
करनी
पड़ती
है, तो यह
कैसे
निभ
सकता
है
कि
मैं
न
किसी
से
हँसूँ, न बोलूँ, न कोई
मेरी
ओर
ताके, न हँसे.
यह
सब
तो
परदे
में
ही
हो
सकता
है...फिर
मेल-मुहब्बत
से
आदमी
के
सौ
काम
निकलते
हैं...मेरे
घर
तो
भैंस
लगती
थी, लेकिन अब
तो
मजूरिन
हूँ।”7
दरअसल, यह
पूरा
मुद्दा
स्त्री
की
श्रमिक
स्थिति
का
है
जिसके आर्थिक
मुनाफ़े
का
हक़दार
न
केवल
पिता-पति
हैं, बल्कि पूरा
महाजनी
ढाँचा
है, लेकिन उसके
बुनियादी
सम्मान
की
रक्षा
करने
का
जिम्मा
कोई
नहीं
उठाता
है
और
यह
बात
जस-की-तस
आज
भी
बनी
हुई
है।
आज
भी
स्त्री
मजदूरी
करने
घर
से
निकले
अथवा
किसी
पद प्रतिष्ठित संस्थान
में
नौकरी
करने
जाए, उसकी तरक्की
के
पीछे
उसकी
अपनी
मेहनत
को
न
केवल
नज़रंदाज़
किया
जाता
है
बल्कि
उस
पर
चरित्रहीन
होने
का
ठप्पा
भी
चस्पा
कर
दिया
जाता
है।
इस
प्रकार
प्रेमचंद
हिंदी
उपन्यास
के
क्षेत्र
में
पहली
बार
महिला
मजदूर
एवं
उनकी
कुछ
मूलभूत
समस्याओं
एवं
चुनौतियों
का
चित्रण
करते
हैं।
इसी क्रम
में, नागार्जुन का
‘बलचनमा’(1952) उपन्यास
अधिक
चर्चित
न
होने
के
बावजूद
भी
इसलिए
उल्लेखनीय
है
क्योंकि
इसमें
पहली
बार
मजदूर
स्त्री
के
कार्यस्थल
पर
शोषण
का
ज़िक्र
आता
है।
बलचनमा इस
उपन्यास
का
प्रमुख
पात्र
है
जो
सम्पूर्ण
निम्नवर्ग
का
प्रतीक
है, उस निम्नवर्ग
का—
जो
सदियों
से
जमींदारों
के
शोषण
और
दमन
का
शिकार
होता
रहा
है
जिसमें
न
केवल
पुरूष
बल्कि
बच्चे
और
स्त्रियाँ
भी
शामिल
हैं, जिनसे जमींदार
पालतू
पशुओं
की
तरह
काम
कराता
है।
बलचनमा
ऐसे
ही
परिवार
का
सदस्य
है, जिसमें सब
मजदूर
हैं।
उसकी
माँ
और
बहन
भी
जमींदार
के
यहाँ
‘खवासी’ करते हैं।
इतना
ही
नहीं, जमींदार उसकी
बहन
को
अपनी
कामवासना
का
शिकार
बनाने
की
भी
कोशिश
करता
है।
बलचनमा
मजदूर
यूनियन
में
काम
करता
है, वह जमींदार
के
इस
हरकत
का
विरोध
करता
है।
इस
तरह
मजदूर
स्त्रियों
के
कार्यस्थल
पर
शोषण
की
समस्या
को
पहली
बार
नागार्जुन
ने
उठाया।
‘अनारो’ (मंजुल
भगत, 1977) उपन्यास
की
कथावस्तु
अपने
आप
में
नयी
और
अनोखी
है
क्योंकि
भले
ही, स्त्री समस्याओं
पर
हिंदी
में
उपन्यास
भरे
पड़े
हों, लेकिन महानगरीय
झुग्गी
कॉलोनी
में
रहकर
कोठियों
में
खटने वाली अनारो
आर्थिक
अभावों, सामजिक रूढ़ियों
और
पुरूष
अत्याचार
से
जूझते
हुए
सम्मान
से
जीने
की
जो
जिजीविषा
दिखाती
है, वह
अप्रत्याशित
है।
जैसा
कि
हम
देखते
आए
हैं
कि
निम्न
वर्ग
की
महिलाएँ
अपने
और
परिवार
के
जीवनयापन
के
लिए
जी
तोड़
मेहनत
करती
हैं।
लेकिन
चूँकि
समाज
में
यह
रूढ़
मान्यता
है
कि
घर
को
चलाने
और
परिवारजनों
का
पालन-पोषण
करने
के
लिए
आर्थिक
साधन
पुरूष
ही
मुहैया
कराता
है, इसलिए अधिकांश
स्त्रियाँ
घर
की
आर्थिक
स्थिति
में
सहयोग
केवल
तब
करती
हैं
जब
पुरूष
सदस्य
घर
में
आर्थिक
सहयोग
देने
में
किसी
भी
तरह
से
सक्षम
न
हो
या
किसी
कारणवश
वह
अपना
सहयोग
न
दे
पा
रहे
हों।
अनारो
की
समस्या
भी
यही
है, वह
भी
अपने
‘भगोड़े’ और नशेड़ी
पति
के
निकम्मेपन
से
परेशान
होकर
ही
कोठियों
में
मजदूरी
करने
जाती
है।
अनारो
कहती
है, “गंजी का
बाप
अगर
भगोड़ा
न
होता
तो
काहे
को
अनारो
को
इतना
खटना
पड़ता
! काम न करे
तो
क्या
बच्चों
को
खाने
गुरूद्वारे
भेज
दे
?”8 अपनी
आर्थिक
तंगी
के
बावजूद
भी
वह
स्वाभिमानिनी
बनी
रहती
है।
परन्तु
सामाजिक
रूढ़ियों
को
लेकर
उसका
मानसिक
अनुकूलन
इस
रूप
में
हो
चुका
है
कि
आर्थिक
तंगी
से
त्रस्त
होने
पर
भी
वह
गंजी
का
विवाह
धूमधाम
से
करना
चाहती
है
और
पति
की
मदद
के
बिना
ही
करती
है।
अनारो
स्वास्थ्य
की
समस्या
के
साथ-साथ
पति
के
निकम्मेपन
और
सौत
की
समस्या से भी
जूझते
हुए
अपने
स्वाभिमान
की
रक्षा
करती
है।
‘बसंती’ (1980) उपन्यास
स्त्री
की
इसी
छवि
की
तलाश
करता
प्रतीत
होता
है।
बसंती
उपन्यास
की
कथाभूमि
उन
निम्नवर्गीय
समुदायों
पर
आधारित
है
जो
हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश
आदि
के
गाँवों
में
सूखा, अकाल, भुखमरी से
तबाह
होकर
दिल्ली
जैसे
महानगर
के
रमेश
नगर
में
रोजी-रोटी
की
तलाश
में
आ
पहुँचे
हैं।
परन्तु
पूंजीवादी
शोषण
और
नौकरशाही
तथा
पुलिस
दमन
का
शिकार
होकर
बार-बार
उजड़ते-बसते
हुए
जीवन
से
संघर्ष
करते
हैं।
इन्हीं
परिस्थितियों
में
बसंती
मेहनत-मजदूरी
करने
के
लिए
महानगर
में
आए
ग्रामीण
परिवार
की
कठिनाइयों
के
साथ-साथ
बड़ी
होती
है और निरंतर
संघर्ष
करती
है।
चौदह वर्ष
की
उम्र
में
पैसों
के
लालच
में
पिता
द्वारा
उसे
बुलाकी
को
बेंच
देने
से
लेकर
घर
की
आर्थिक
स्थिति
में
मदद
करने
के
लिए
श्यामा
बीबी
के
घर
चौका-बर्तन
करते
हुए
दीनू
के
साथ
भागकर
उसके
साथ
रहना, दीनू के
संसर्ग
में
पप्पू
को
जन्म
देने
से
लेकर, दीनू की
पहली
शादी
का
पता
लगना
और
फिर
दीनू
द्वारा
उसे
बरडू
को
बेंच
देना—
इस
लम्बे
संघर्ष
के
बावजूद
भी
बसंती
सपने
देखना
नहीं
छोड़ती
है, “बसंती के
जीवन
की
विडम्बना
भी
इसी
में
थी
कि
न
तो
विषमताएँ
बसंती
का
पीछा
छोड़ती
थी
और
न
बसंती
का
सपने
देखने
वाला
स्वभाव
ही
बदल
पाता
था।”9
वह नई परिस्थितियों
के
अनुसार
खुद
को
ढाल
लेती
है
।
बसंती
भले
ही
कोमल
हृदय
और
स्वभाव
की
हो, परन्तु पिता
और
पति
द्वारा
वह
केवल
रूपये
कमाने
का
साधन
बन
जाना
स्वीकार
नहीं
करती
और
यह
सब
मुमकिन
इसलिए
हो
पाया
है
क्योंकि
वह
श्रम
करती
है
और
आर्थिक
तौर
पर
आत्मनिर्भर
है
जो
स्त्री-चेतना
का
प्रखर
रूप
है।
रामदरश मिश्र
का
उपन्यास
‘बिना दरवाजे का
मकान’
(1984) आर्थिक विपन्नता
से
ग्रस्त
निम्नवर्गीय
दीपा
की
कहानी
है
जो
पति
के
दुर्घटना
के
शिकार
हो
जाने
के
कारण
आजीविका
के
लिए
घर
से
बाहर
निकलती
है
तो
समाज
के
भूखे
भेड़िए
उसे
ललचाई
नज़रों
से
देखने
लगते
हैं।
वह
आस-पास
के
मध्यवर्गीय
घरों
में
चूल्हे-चौके
और
बर्तन
आदि
जैसे
बेगारी
के
काम
पकड़
लेती
है।
परन्तु
‘अपने मकान’ के
लिए
उसने
न
केवल
अपने
मालकिनों
से
बल्कि
व्यापारियों
से
भी
क़र्ज़
ले
रखा
है
जिसकी
पूर्ति
करते-करते
वह
गरीबी
और
बेइज्जती
से
जूझते
हुए
हताश-निराश
हो
जाती
है।
उसकी
यह
हताशा
उसके
इस
कथन
से
स्पष्ट
जाहिर
होती
है।
वह
कहती
है-
“कितने दिन हो
गए
इस
तरह
की
ज़िन्दगी
जीते।
और
तब
से
मैं
कितनी
अकेली
पड़
गई
हूँ? जब कभी
बहादुर
मेरी
ओर
देखकर
अपनी
बेबस
ज़िन्दगी
का
इजहार
करता
है
तो
मेरी
छाती
फट
जाती
है.
कभी-कभी
मैं
बहादुर
पर
झल्ला
जाती
हूँ।
आखिर
क्या
करूँ
मैं? लगातार बीमारी
में
होनेवाला
खर्च, रोजी-रोटी
का
खर्च, घर से
आने वाली पैसे
की
माँग
और
अब
मकान
जो
बनवाया, उसका कर्ज।
सभी
तो
दिमाग
पर
चढ़े
रहते
हैं
तिस
पर
बाहर
जब
कोई
बेइज्जत
करता
है
तो
टूट
जाती
हूँ, बिखर जाती
हूँ, आपे में
नहीं
रहती।”10
इसके
बावजूद
भी
उसे
अपनी
बँधुआ
स्थिति
मंजूर
नहीं
है।
वह
अपने
मालिकों
का
उस
पर
अपना
हक़
जताने
का
विरोध
करती
है।
स्त्री
जब
एक
कामगार
के
तौर
पर
घर
से
बाहर
निकलती
है
तो
भूखे
भेड़िए
शिकार
के
लिए
तैयार
खड़े
होते
हैं।
दीपा
को
भी
न
केवल
अपरिचित
बल्कि
परिचित
लोगों
द्वारा
भी
उसका
शारीरिक
शोषण
करने
का
प्रयत्न
किया
जाता
है
लेकिन
भले
ही
वह
गरीब, बेबस है
लेकिन
अपने
स्वाभिमान
से
समझौता
नहीं
करती
है।
हाँ, यह अवश्य
है
कि
वह
अपनी
शारीरिक
भूख
को
मिटाने
के
लिए
अपने
मनपसंद
व्यक्ति
को
चुनती
है।
श्रीलाल शुक्ल
के
उपन्यास
‘पहला पड़ाव’
(1987) की कहानी
जितनी
संतोष
कुमार
उर्फ़
सत्ते
की
है
उतनी
ही
जसोदा
की
भी है। उपन्यास
के
आरम्भ
में
ही
जसोदा
उर्फ़
मेमसाहब
का
परिचय
कुछ
इस
तरह
से
होता
है, “...उन्हें भी
अपने
गाँव
की
याद
सता
रही
है।
ऐसा
कई
दिन
से
हो
रहा
था।
काम
के
वक़्त
भी
मेमसाहब
इधर-उधर
कुछ
उखड़ी-उखड़ी
रहतीं
थीं।
खोपड़ी
पर
सीमेंट
की
फटी
बोरी
की
एक
एँडर
रक्खे, उस पर
छह
मंजिलों
में
सजी
ग्यारह
ईंटें
लिए
जब
वह
मिस्त्री
के
पास
पहुंचती
तो
उन्हें
अब
पहलेवाली
फुर्ती
से
न
फेंकती; वे पहले
नेता
को
धिक्कारतीं।”11
इन कथनों से
यह
जाहिर
है
कि
जसोदा
प्रवासी
मजदूर
है
जो
ईंटे-गारे
का
काम
करती
है।
डेली पैसेंजरों
के
वर्ग
से
आए
प्रेमवल्लभ
द्वारा
लड़कियों, महिलाओं के
बारे
में
दिए
जा
रहे
फतवों
के
विरोध
में
सत्ते
की
टिप्पणी
कहीं-न-कहीं
गोदान
की
नोहरी
वाले
प्रसंग
से
जाकर
जुड़
जाती
है।
सत्ते
द्वारा
महिलाओं
के
पक्ष
में
कही
गई
बातें
उस
पूरे
पुरूषप्रधान
समाज
के
लिए
चेतावनी
है
जो
हर
क्षण
स्त्रियों
का
चरित्रहनन
करने
में
लगा
होता
है।
वह
कहता
है, “...जिन लड़कियों
के
लिए
तुम
बकवास
कर
रहे
हो, उनकी हालत
का
तुम्हें
कुछ
पता
भी
है
? ये
सोलह-सोलह
अठारह-अठारह
साल
की
लड़कियाँ, या बच्चे
को
पेट
या
गोद
में
लेकर
घूमती
हुई
औरतें, जो यहाँ
मकान
बना
रही
हैं
या
उधर
भट्ठों
पर
ईंटों
का
काम
कर
रही
हैं
ज्यादातर
छतीसगढ़
से
आयी
हैं।
वहाँ
इनके
पास
कुछ
नहीं
है...मजदूरों
के
दलाल
उन्हें
एडवांस
देकर
यहाँ
ले
आते
हैं।
पर
पूरे
खानदान
के
खानदान
मजदूरी
की
तलाश
में
इतनी
दूर
आकर
क्या
पाते
हैं—आधी-तिहाई
मजदूरी, सुवरबाड़े जैसी
झोपड़ियाँ, बेइज्जती, बीमार कानून
में
बंधुआ
न
होते
हुए
भी
ये
सबसे
कड़ी
जकड़
में
फँसे
हुए
बंधुआ
मजदूर
हैं।”12 महिला मजदूरों
के
विषय
में
हिंदी
उपन्यास
साहित्य
में
इस
तरह
की
टिप्पणी
हमें
पहली
बार
दिखाई
पड़ती
है।
इन
मजदूर
स्त्रियों
के
यौन-शोषण
का
प्रसंग
भी
उपन्यास
में
बीच-बीच
में
चलता
है।
मजदूरनी
मेमसाहब
जब
यह
कहती
हैं
कि
‘और सब कुछ
करूंगी, ठेकेदार के
कहने
से
भट्ठे
पर
न
जाऊँगी’
तो
वह
इसी
तरफ
इशारा
करती
है।
परन्तु इस
उपन्यास
में
श्रीलाल
शुक्ल
जसोदा
का
नख-शिख
वर्णन
जिस
तरह
से
करते
हैं
उससे
उनके
अभिजात्यवादी
नजरिए
का
परिचय
मिलता
है
: “मेमसाहब का दिल
ही
मुलायम
नहीं
था, उनमें और
भी
बहुत
कुछ
था।
उनकी
आँखें
बड़ी-बड़ी
और
बेझिझक
थीं, भौंहें बिलकुल
वैसी
जैसी
फैशनेबुल
लड़कियाँ
बड़ी
मेहनत
से
बाल
प्लक
करके
और
पेन्सिल
की
मदद
लेकर
तैयार
करती
हैं.
रंग
गोरा, गाल देखने
में
चिकने, छूने में
न
जाने
और
कितने
चिकने
होंगे, कद औसत
से
ऊँचा, पीठ तनी
हुई, और दाँत, जो मुझे
खासतौर
से
अच्छे
लगते—
उजले
और
सुडौल...मेमसाहब
की
उपाधि
उन्हें
अपनी
बातचीत
के
हाकिमाना
अंदाज़
से
नहीं, गोरे चेहरे
और
इन
लम्बे
घने
बालों
के
कारण
मिली
थी।”13
यहाँ मजदूर जसोदा
निराला
की
‘तोड़ती पत्थर से
भिन्न
रूप
में
है
‘जो मार खा
रोई
नहीं’।
एक
तरफ
जहाँ
“निराला की आँख
भी
उसके
‘श्याम तन, भर बंधा
यौवन’
को
देखती
है, लेकिन उनकी
‘दृष्टि’ देह की
मांसलता
का
अतिक्रमण
करते
हुए
‘नत नयन प्रिय/कर्म
रत
मन/गुरु
हथौड़ा
हाथ’
पर
टिकती
है, इसलिए वे
कविता
का
अंत
इस
प्रकार
करते
हैं : “ढुलक
माथे
से
गिरे
सीकर/लीन
होते
कर्म
में
फिर
ज्यों
कहा-
मैं
तोड़ती
पत्थर।”
निराला
की
अपने
कथ्य, परिवेश और
चरित्र
के
प्रति
गहरी
संलग्नता
और
सहानुभूति
से
पूर्ण
रचना
दृष्टि
के
विपरीत
श्रीलाल
शुक्ल
की
खिलंदड़ी
दृष्टि
उन
प्रभुत्ववादी
मूल्यों
से
निःसृत
है
जो
श्रमिक
समुदाय, हाशिए के
लोगों
व
दलित
जन
के
प्रति
सहानुभूति
के
स्थान
पर
मनोविनोद
का
भाव
रखती
है।
यह
मनोविनोद
जब
स्त्री
केन्द्रित
हो
तो
पुरुषवादी
रतिक
दृष्टि
स्वाभाविक
ही
है।”14
इस तरह ‘पहला
पड़ाव’
में
श्रीलाल
शुक्ल
की
एक
मजदूर
स्त्री
के
प्रति
सौन्दर्य-दृष्टि
खटकती
है।
परन्तु
आगे
चलकर
‘विश्रामपुर के
संत’(1998)
उपन्यास
में
उनकी
दृष्टि
में
बदलाव
लक्षित
किया
जा
सकता
है, जब वे
भद्र
सुसंस्कृत
भूदान
कार्यकर्त्री
सुंदरी
की
श्रमिक
छवि
का
चित्रण
करते
हैं, “सुंदरी के
चेहरे
से
उसके
पाँवों
के
सुनहरेपन
और
सुकुमारता
का
जो
ख्वाब
बनता
था, महीनों से
चला
आनेवाला
धूल
और
मिट्टी
का
संसर्ग
उसे
निर्दयता
से
चकनाचूर
कर
रहा
था।
एड़ियाँ
काली
पड़
गई
थीं, उनमें झलकती
हुई
लकीरें
बिवाइयों
की
शुरुआत
का
पता
दे
रहीं
थीं।
वे
पाँव
दिन
भर
खेतों
में
खटनेवाली
किसी
अधेड़
मजदूरनी
के
थे।”15
असल मायने में, मजदूर स्त्री
की
छवि
को
प्रस्तुत
करने
के
लिए
जिस
सौन्दर्य-दृष्टि
की
अपेक्षा
थी, यानी निराला
के
सौन्दर्य-बिम्ब
की
तरह, या फिर
उससे
भी
अधिक
मार्मिक
और
सहानुभूतिपूर्ण, वह कुछ
हद
तक
यहाँ
पूर्णता
प्राप्त
कर
लेता
है।
चित्रा मुद्गलकृत उपन्यास ‘आवां’ (2000) श्रमिक राजनीति पर लिखा गया महत्वपूर्ण उपन्यास है। अन्य आन्दोलनों की तरह ही, श्रमिक आन्दोलन भी भले ही मानवीय उद्देश्यों के साथ उठाया गया है, परन्तु आन्दोलन का अमानवीय पक्ष भी इस उपन्यास में उजागर किया गया है। आवां की नायिका नमिता पांडे कामगार अघाड़ी में ट्रेड यूनियन का काम करने वाले मजदूर नेता, जो आन्दोलन के दौरान हुए जानलेवा हमले में पक्षाघात के शिकार हो गए, उनकी बेटी है। उसके पिता की जगह अन्ना साहब उसे नौकरी पर रखते हैं। परन्तु अन्ना द्वारा उसके यौन शोषण करने के प्रयत्न करने के बाद वह अन्य काम खोजती है। परन्तु पिता की अपाहिज स्थिति और उसकी आजीविका के लिए कार्य करने की मज़बूरी उसे कई स्तरों पर ठगती है। उसके जीवन में आए हर मर्द ने उसे ठगा।
निष्कर्ष
: इस प्रकार
महिला
श्रमिक
जब
घर
से
बाहर
कार्य
करने
के
लिए
निकलती
हैं
तो
उन्हें
तमाम
तरह
के
रूढ़
मान्यताओं
और
जड़
मानसिकताओं
से
जूझना
पड़ता
है।
जैसा
कि
ऊपर
कहा
जा
चुका
है
कि
भारतीय
समाज
में
अक्सर
महिलाएँ
केवल
तभी
घर
की
आर्थिक
स्थिति
में
सहयोग
करती
हैं, जब घर
में
कोई
पुरुष
कमाने
वाला
न
हो।
इसके
पीछे
वह
जड़
मानसिकता
है, जो इस
बात
को
कतई
स्वीकार
नहीं
कर
पाती
है
कि
महिलाएँ
भी
घर
की
आर्थिक
स्थिति
में
सहयोग
कर
सकती
हैं।
परन्तु
मजबूरीवश
ही
सही, जब महिलाएँ
कामगार
के
तौर
पर
घर
से
बाहर
निकलती
हैं
तो
अनेकों
समस्याएँ
और
चुनौतियाँ
उनके
समक्ष
उपस्थित
होती
हैं।
उन्हें
तमाम
शोषण
का
सामना
करना
पड़ता
है।
महिलाओं
की
आम
समस्या
है—
उनका
शारीरिक
शोषण।
वैवाहिक
बलात्कार
जैसी
घटनाएं
तो
अक्सर
महिलाओं
के
साथ
होती
रहती
हैं, जिसे उन्होंने
जज़्ब
कर
लिया
है।
परन्तु
जब
वह
घर
से
बाहर
एक
कामगार
के
तौर
पर
निकलती
हैं
तो
उनका
यह
शोषण
दोहरा
हो
जाता
है।
अपनी
शारीरिक
संरचना
की
बदौलत
उन्हें
स्वास्थ्य-सम्बन्धी
समस्याओं
से
भी
लड़ना
होता
है।
लेकिन
गरीबी
से
जूझते
हुए, घर की
आजीविका
के
लिए
निरंतर
संघर्षरत
रहना, कार्यस्थल पर
छींटाकशी
से
लेकर
बलात्कार
जैसी
घटनाओं
से
जूझना
और
अपने
स्वाभिमान
और
अस्मिता
की
रक्षा
करना—
बहुत
बड़ी
और
लम्बी
लड़ाईयाँ
उन्हें
लड़नी
पड़ती
हैं।
इतना
ही
नहीं, मजदूरों के
कल्याण
के
लिए
भी
चलाए
जा
रहे
ट्रेड
यूनियन
आन्दोलनों
तक
में
भी
उनके
शोषण
होते
हैं।
उपरोक्त
उपन्यासों
के
जरिए
महिलाओं
की
इन्हीं
सभी
समस्याओं
को
उठाया
गया
है।
अंततः
हम
कह
सकते
हैं
कि
उपन्यास
के
क्षेत्र
में, स्त्री की
मजदूर
छवि
अब
गैरजरूरी
नहीं
रह
गये
हैं।
परन्तु
स्त्रियों
की
श्रमिक
स्थिति
और
उनकी
समस्याओं
और
चुनौतियों
को
उजागर
करने
के
लिए
जिस
व्यापक
लेखन
की
दरकार
है
वह
कहीं-न-कहीं
संतोषजनक
नहीं
है।
1. परमानंद श्रीवास्तव, उपन्यास का पुनर्जन्म, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, 2015, पृष्ठ सं. 23.
2. प्रेमचंद, गोदान, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, 2018, पृष्ठ सं. 317.
3. वही, पृष्ठ सं. 117.
4. वीरेंद्र यादव, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, 2017, पृष्ठ सं. 45.
5. प्रेमचंद, गोदान, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, 2018, पृष्ठ सं. 40-41.
6. वही, पृष्ठ सं. 41.
7. वही, पृष्ठ सं. 281.
8. मंजुल भगत, अनारो, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, 2014, पृष्ठ सं. 8.
9. भीष्म साहनी, बसंती, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2021, पृष्ठ सं. 93.
10. रामदरश मिश्र, बिना दरवाजे का मकान, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020, पृष्ठ सं. 24.
11. श्रीलाल शुक्ल, पहला पड़ाव, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1989, पृष्ठ सं. 7.
12. वही, पृष्ठ सं. 63.
13. वही, पृष्ठ सं. 32.
14. वीरेंद्र यादव, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2017, पृष्ठ सं. 120.
15. श्रीलाल शुक्ल, बिश्रामपुर का संत, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019, पृष्ठ सं. 26.
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली-110067सम्पर्क :
pratibhajnu7@gmail.com, 9971438946
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