उपेक्षित साहित्यकार राधाकृष्ण
- प्रमोद कुमार, डॉ. सुबोध कुमार सिंह 'शिवगीत'
शोध सार : प्रेमचंद के दुलारे राधाकृष्ण साधारण साहित्यकार नहीं बल्कि श्रष्टा और द्रष्टा की प्रतिमूर्ति थे। 18 सितंबर 1910 ई. से 3 फरवरी 1979 ई. तक अर्थात् 69 वर्ष के जीवन काल में भीषण आर्थिक संकट का सामना करते हुए इन्होंने विपुल साहित्य का सृजन किया। प्रतिकूल
परिस्थितियों में वे असहज व विचलित नहीं हुए और न ही इनका साहित्य इससे प्रभावित हुआ। राधाकृष्ण
धूल से उठकर फूल बने थे। परन्तु उस फूल की महक अर्थात् उनकी रचनाओं को हिंदी साहित्य जगत्
के कुछ चाटुकारों ने प्रसार
नहीं होने
दिया। हिंदी साहित्य में जो स्थान इन्हें मिलना चाहिये था, वह नहीं मिला। परिणाम यह हुआ कि जनसाधारण इनकी साहित्यिक
प्रतिभा व प्रभावशीलता से पूर्णतः परिचित नहीं हुए। ठीक उसी प्रकार जैसे सुनसान जगहों पर कोयल की कूक व्यर्थ हो जाती है।
आज समय की माँग है कि राधाकृष्ण व इनके विपुल साहित्य का पुनर्मूल्यांकन किया जाय। क्योंकि जो गलतियाँ पूर्व के आलोचकों व चापलूस साहित्यकारों ने की, उसे दोहराना हिंदी साहित्य पर एक और कलंक होगा। ज्ञात
हो कि इनकी रचनात्मक परिधि में वे सभी दृष्टिकोण
हैं जो जीवन, व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, भाषा, साहित्य, संस्कृति एवं धर्म-अध्यात्म के लिए आवश्यक है।
रचनाओं में हास्य के साथ उचित व्यंग्य का गठजोड़ भी है। इनका विपुल रचना-संसार हमारे सामने मौजूद है, जो राधाकृष्ण को अमरता प्रदान करेगा। इन्हें न्याय दिलाना हम हिंदी प्रेमियों की नैतिक जिम्मेदारी ही नहीं बल्कि कर्तव्य भी है। इसी आशा और विश्वास से आज के पाठकवर्ग और शोधार्थियों के द्वारा राधाकृष्ण की साहित्यिक उपलब्धियों व प्रभावशीलता को प्रकाश में लाया जा रहा है जो सराहनीय है।
बीज शब्द
: राधाकृष्ण,
उपेक्षित, साहित्य, प्रतिभा, झारखण्ड, राँची, आलोचक, सम्मान, जगत, संस्कृति, प्रेमचंद, न्याय, चाटुकार, समय,
मूल्यांकन।
मूल आलेख : राधाकृष्ण का
जन्म 18 सितम्बर
1910 ई० को
झारखण्ड के राँची में
हुआ। जब वे छः
वर्ष के थे तभी
उनके पिता मुंशी रामजतन
लाल का निधन हो
गया। माँ (सूर्यवंशी
कुवंर) किसी प्रकार
कुटौना-पिसौना
करके गुजारा चलाती थीं।
राधाकृष्ण बचपन से ही
जीवकोपार्जन के लिये संघर्ष
करते रहे। बाजार में
नमक बेचने से लेकर
कचहरी में मुहर्रिरी, फोटोग्राफी,
बस में कंडक्टरी आदि
कार्य किये। परिस्थितिवश इन्होंने
पाँचवी कक्षा तक ही
औपचारिक शिक्षा प्राप्त की।
इसके पश्चात उन्होंने पुस्तकाल
व स्वाध्याय के माध्यम से
ज्ञान अर्जन किया। साहित्यिक
रुचि तो बचपन से
ही जग गयी थी।
माँ से कहानी सुनने
की जिद्द और माना
दीदी की कविताएँ इन्हें
हिंदी साहित्य में प्रवृत्त
किया। 16 वर्ष
की उम्र से ही
वे साहित्यिक क्षेत्र में सक्रिय
हो गये थे। इनकी पहली कहानी 'सिन्हा साहब' मार्च, 1929
ई. में बनारस से निकलने वाली पत्रिका 'हिंदी गल्प-माला' में छपी थीं। इस कहानी के प्रकाशन के बाद राधाकृष्ण की अनेक कहानियाँ हिंदी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होने लगी। वैसे तो इन्होंने लेखन की शुरुआत कहानी से की, पर आगे चलकर उपन्यास, संस्मरण, हास्य-व्यंग्य, गद्य-गीत, नाटक, एकांकी आदि विधाओं पर भी अपनी कलम चलाई और बच्चों के लिए तो खूब मन से लिखा। इनके पाँच कहानी संग्रह, छः उपन्यास, दो नाटक, एक एकांकी, अनेक बाल साहित्य आदि पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। कई रचनाएँ अप्रकाशित व पत्र-पत्रिकाओं में दबी पड़ी हैं जिसे आज संचित कर प्रकाशित कराने की जरूरत है। यह भूलना नहीं चाहिए कि राधाकृष्ण जनजातीय जीवन के सम्भवतः पहले कहानीकार हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वे आधुनिक हास्य-व्यंग्य के पुरोधा हैं। आदिवासी-जनजातीय समाज की संस्कृति, भाषा और साहित्य के प्रति इनका काफी लगाव रहा है। खासकर इन्होंने झारखंड की संस्कृति व जनजीवन को अपने साहित्य में बखूबी चित्रित किया है। वे 'सोमनाथ' उपनाम से गद्यगीत लिखते थे। गंभीर रचनाएँ 'राधाकृष्ण' के नाम से तथा हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ 'घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी' के नाम से करते थे। प्रेमचंद इनकी आरम्भिक कहानियों से ही प्रभावित हो गये थे और कह दिए- "मैंने छोटानागपुर के कोयला खान से एक हीरा ढूंढ निकाला है।"1 आगे वे इनकी तेजस्विनी
प्रतिभा से भी बहुत प्रभावित हुए और कहा कि- "यदि हिंदी के उत्कृष्ट कथाशिल्पियों की संख्या काट-छांट कर पाँच भी कर दी जाये तो उनमें एक नाम राधाकृष्ण का होगा।"2
इस
प्रकार की प्रशंसा इतने कम उम्र के किसी युवा कथाकार की शायद ही हुई होगी।
यह अत्यंत विचारणीय है कि जिस राधाकृष्ण
ने अपनी प्रतिभा से डॉ० राजेंद्र प्रसाद (राष्ट्रपति), प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, भगवती चरण वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतराय, विष्णु प्रभाकर, डॉ० कामिल बुल्के आदि को अपना प्रशंसक बना लिया, उसे हिंदी के आलोचकों ने चर्चा के योग्य भी नहीं समझा।
पर, अब
इन्हें ओझल नहीं रखा
जा सकता है, क्योंकि बातें तो
अब शुरू हो गई
है। यह सच भी है कि व्यक्ति की मृत्यु के बाद बात खत्म नहीं होती। क्योंकि मरने वाला तो मर गया परंतु लोगों के हृदय में वह कितना जीवित है यह बात मायने रखती है। बहुतों के मरने के बाद ही उसकी असल जिंदगी की शुरुआत होती है। यह बात एक साहित्यकार पर भी लागू होती है
क्योंकि रचना व रचनाकार वह चीज है जो कभी खत्म नहीं होता। यह भी सत्य है कि हर युग में साहित्यकारों की उपेक्षा होती रही है। राधाकृष्ण ने अपने एक आलेख में किसी साहित्यकार
के निधन पर लिखा है- "लोग कहते हैं कि अमुक मर गया। चलो, उसकी बात खत्म हो गई, मगर मैं देखता हूँ कि मरने के बाद बात खत्म नहीं होती। असल बात तो मरने के बाद से ही शुरू होती है। मरने वाला मर गया, मगर वह लोगों के हृदयों में कितना जीवित है? जैसी जिसकी जिंदगी होती है उसी प्रकार दीर्घकाल तक उसका जीवन लोगों के मन में बना रहता है : खासतौर पर जिसने साहित्य से जरा भी सरोकार रखा उसका जीवन तो मरने के बाद से ही आरंभ होता है। उस जमाने में प्रेमचंद को मृत्यु के बाद जीते हुए देखा था। इस जमाने में दिनकर और रेणु के मरने के बाद ही जीना आरंभ किया।"3
बीमारी से ग्रसित होने के कारण वे इसके आगे नहीं लिख सके। परन्तु यह उद्धरण राधाकृष्ण के जीवन पर भी लागू होता है। क्योंकि इनका जीवन भी मरने के बाद ही आरंभ होता है।
अमृतराय इनके निधन पर व्यथित मन से लिखते हैं-
"कुछ ऐसी नियति रही उनकी कि जैसी गुमनामी में उनकी जिंदगी बीती, कुछ वैसी ही गुमनामी में वे इस दुनिया से चले भी गये।"4
हालांकि इनका मानना है कि एक समय ऐसा भी आएगा जब लोग राधाकृष्ण को बड़ी श्रद्धा व प्रेम से पढ़ रहे होंगे और याद
कर रहे होंगे। इस
बात को सच करने
के लिये राधाकृष्ण पर न्याय करना आज
के समय
का मांग है।
श्रवणकुमार गोस्वामी
राधाकृष्ण पर उचित न्याय की मांग करते हुए लिखते हैं- "यह कोई नई बात नहीं है। हर युग में आलोचक किसी ऐसे साहित्यकार
की उपेक्षा जरूर कर जाते हैं, जो उपेक्षा उनके माथे पर कलंक का टीका लगा जाती है आगे चलकर। जहाँ कबीर को भी हाशिये में डाला जा सकता है, वहाँ अगर राधाकृष्ण को ही हाशिये में डाल दिया गया, तो यह कोई बड़ी बात नहीं ही मानी जायेगी। मगर यह बात खटकती जरूर है कि जो लोग प्रेमचंद की 'कफन' कहानी के साथ-साथ राधाकृष्ण की 'रामलीला' कहानी पढ़कर बड़े हुए हैं, उन लोगों ने आज राधाकृष्ण को कैसे भुला दिया है? राधाकृष्ण जिस सम्मान के अधिकारी थे, उन्हें उस सम्मान से वंचित क्यों रखा गया है?"5 वैसे यह प्रश्न आज तमाम हिंदी प्रेमियों
व पाठकों के द्वारा भी उठाया जा रहा है।
आश्चर्य तो
तब होता है, जब राधाकृष्ण का नाम आते ही लोगों में यह भ्रम होने लगता है कि उनके सामने किसी साहित्यकार
का नाम न लेकर डॉ० राधाकृष्णन या भक्तिकाल के राधा और कृष्ण का नाम लिया जा रहा है। यहाँ तक कि हिंदी प्रेमियों व पाठकों में भी राधाकृष्ण के नाम को लेकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। किन्हीं
को तो ये राधाकृष्ण
दास (भारतेंदु
के फुफेरे भाई) प्रतीत होते
हैं। आखिर राधाकृष्ण
को हम भूल कैसे गएं? यह प्रश्न कचोटता है। संजय कृष्ण हिंदी साहित्य समाज से इनपर इंसाफ की
मांग करते हुए लिखते
हैं- "इस समाज से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह राधाकृष्ण को याद करेगा। उस राधाकृष्ण को, जिसे प्रेमचंद अपने पुत्र की तरह मानते थे, उनका खर्च चलाते थे।"6 प्रेमचंद के अलावा कई लेखक व कवि राधाकृष्ण
के प्रशंसक बन
गये थे। इनकी लेखन की प्रतिभा से प्रभावित रामधारी सिंह दिनकर मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं-
"श्री राधाकृष्ण हिंदी के श्रेष्ठ कहानी-लेखकों में से हैं। मैं उनकी लेखनी से पूरी तरह परिचित और प्रभावित हूँ। अपने निबंधों में मैंने उनका यथावसर उल्लेख किया है।"7 दिनकर जी
राधाकृष्ण को उच्चकोटि के
लेखक मानते थे।
राधाकृष्ण ने अपने जीवन काल में
दीनता, गरीबी, नैराश्य, उपहास के
जिस दंश
को झेला, उससे कभी वे टूटे नहीं। विपत्तियाँ
और तनाव तो इनके जीवन का हिस्सा बन चुका था, फिर भी वे असहज व विचलित नहीं हुए और न ही इनकी रचनाएँ इससे प्रभावित हुई।
एक लेखक के रूप में राधाकृष्ण ने जिन कष्टों व दंश को अपने जीवन में झेला था, उस वेदना को उन्होंने ‛लेखक की जिंदगी’ और ‛वसीयतनामा’ कहानी में उल्लेखित किया है। ‛वसीयतनामा’ की यह पंक्ति काफी चुभन देती है- "उनकी इमारत आसमान की ओर बढ़ती जाती है, मेरी झोपड़ी जमीन चूमने के लिए तैयार है। आज इस जमाने में भी वे जापानी टाइल्स और संगमरमर की पटिया खोज रहे हैं, और उन्हें मिलती है। मैं पन्द्रह-बीस कर्ज खोजता हूँ, और मुझे वह भी नहीं मिलता। सेठजी बॉक्साइट और तांबे की खान खरीदने वाले हैं, मैं अपनी थोड़ी-सी रैयती जमीन बेचनेवाला
हूँ..... मुझमें और सेठजी में खासा अंतर है- वे व्यापारी, मैं हिंदी का लेखक।"8 इस
उद्धरण से
स्पष्ट होता है कि
जहाँ गरीब, मजदूर एवं निम्न मध्यमवर्गीय लोग
धनी, व्यापारी, जमींदार
जैसे शोषक के शोषण से त्रस्त होते हैं, वहीं साहित्यकार
भी ऐसे ही शोषण से त्रस्त
होते हैं। राधाकृष्ण ने
समाज के इस यथार्थ
को अपनी रचनाओं में
प्रभावपूर्ण चित्रण किया है।
एक लेखक, जो जीवन
भर साहित्य के
प्रति समर्पित होता है।
इसके बावजूद इसे सम्मान व आर्थिक मदद नहीं मिलता है तो उसका जीवन दारुण हो जाता है। 'लेखक की जिंदगी'
ऐसी ही करुण कहानी
है। कहानी का नायक सुरेन्द्र
एक सफल साहित्यकार तो है पर वह अपने जीवन में सफल नहीं हो पाता क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय है। फिर
भी उसका पूरा मन, कर्म और धर्म साहित्यिक
विकास में ही लगा रहता है। वैसे संसार
में साहित्य के प्रति
समर्पित कई लेखक हैं जो
विपन्नता से गुजर रहे होते
हैं। राधाकृष्ण का जीवन भी
कष्टपूर्ण रहा। इस अनुभव तथा
लेखक की व्यथा को वे
सुरेंद्र की आर्थिक पृष्ठभूमि के माध्यम
से उजागर करते हुए लिखते हैं-
"उसने साहित्य की कितनी बड़ी सेवा की; लेकिन इसके बदले उसे जनता ने, प्रकाशकों ने भूखा रखा। और केवल उसे ही नहीं, उसकी बीवी-बच्चे सबको। यही भारतवर्ष की समुचित संस्कृति, सुरुचि और सभ्यता का दिव्य इतिहास है जिसका ढिंढोरा यूरोप, अमेरिका, सब जगह पीटा जाता है। सुरेंद्र की आँखों में आँसू आ गये। अपने खोखले जीवन के इन पैंतालीस वर्षों में उसने आज तक क्या पाया? व्यर्थ का ढकोसला, दिखलावे का आदर और सम्मान। इन्हें लेकर वह क्या करे?"9
सुरेंद्र की यह व्यथा कई लेखकों की आत्मव्यथा कही जा सकती है। सुरेंद्र की यह आत्मव्यथा जब घनीभूत हो जाती है तो वह लोक विधवाश्रम
तथा अनाथालय की तरह ‛लेखकालय’ भी खोलने की बात बात करता है क्योंकि लेखक की जिंदगी विधवा और अनाथ से कम निराधार, पराश्रित एवं विवश नहीं होता।
इनकी कहानियों में स्वयं के जीवन-संघर्ष का यथार्थ और मार्मिक अनुभव
का चित्र भी है। श्रवण कुमार गोस्वामी लिखते भी हैं-
"राधाकृष्ण की कहानियाँ इस बात की बानगी हैं कि उनमें जिस हर्ष-विषाद, आशा-निराशा, अभिलाषा-हताशा, जिजीविषा, संघर्ष, विसंगति आदि का चित्रण है, वह उधार की अनुभूति न होकर लेखक का भोगा हुआ अपना यथार्थ है।"10 इनकी
कहानियों में हास्य-व्यंग्य की प्रधानता
भी है। परन्तु इनके लेखन में उभरे व्यंग्य समसामयिक जीवन, परिस्थितियों
व यथार्थ का ही द्योतक है, जिसका मूल सरोकार समाज से है। वे
अपनी औपन्यासिक सृजनात्मक प्रतिभा से
भी पाठकों को काफी हद तक प्रभावित करते
हैं। उन्होंने लोककथा के माध्यम से, कभी गप्प, कभी कल्पना में विचरण कर, कभी चिंतक की मुद्रा में आकर उपन्यासों की रचना की।
उन्हें गप्प करने का बहुत शौक था। वे मित्र-मंडलियों के साथ बहुत गप्प लड़ाते थे। यही गप्प उनके कथा-शिल्प का एक प्रमुख अंग भी बन गया। 'सपने बिकाऊ हैं', 'सनसनाते सपने', और 'बोगस' उपन्यास को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इसके बावजूद समकालीन जीवन की विभिन्न समस्याओं के प्रति इनकी पैनी दृष्टि थी। इस दृष्टि को कभी ओझल होने नहीं दिया। इसका प्रमाण है इनका यथार्थपरक उपन्यास 'फुटपाथ' और जीवन-मूल्यों से ओतप्रोत 'रूपांतर'।
राधाकृष्ण
जिस समय लिखना शुरू किए थे उस समय प्रेमचंद के द्वारा हिंदी
कहानी की उर्वर भूमि तैयार हो रही थी।
फिर भी उस दौर में कहानियाँ विभिन्न दिशाओं की ओर अग्रसर थीं। प्रसाद की भावप्रधान कहानियाँ, प्रेमचंद की आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहानियाँ, जैनेंद्र की आत्मनिष्ठ कहानियाँ, अज्ञेय की मनोविश्लेषण प्रधान कहानियाँ तथा मार्क्सवादी पर आधारित अनेक कहानियाँ लिखी जा रही थीं। राधाकृष्ण ने तत्कालीन इन सभी प्रवृत्तियों से भिन्न मार्ग का निर्माण किया और उसी मार्ग पर चलते
हुए आत्मविश्वास के साथ
रचनाएँ करते गये। यह राधाकृष्ण की परिपक्वता एवं समझदारी ही थी कि इन्होंने उपरोक्त समर्थ कथाकारों की कहानी-कला से अपने को आक्रांत नहीं होने दिया।
वे मानते थे कि इनमें से किसी का भी अनुसरण कर तात्कालिक
वाह-वाही तो लूटी
जा सकती है, मगर ऐसा करने
से स्वतंत्र लेखकीय व्यक्तित्व
कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता था। इस
तरह वे किसी वाद या किसी व्यक्ति के दबाव से लेखक नहीं बने थे। बल्कि वे
स्वयं के जीवन-स्थितियों
के दबाव से प्रेरित
होकर लेखक बने थे। श्रवणकुमार गोस्वामी लिखते हैं- "उनके पास जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों का एक विपुल कोष था। यही उनकी जमा पूँजी थी और इसकी वृद्धि के लिए उन्होंने आजीवन तरह-तरह की चुनौतियाँ एवं समस्याओं का मुकाबला किया था। जो व्यक्ति ऐसा संघर्षशील रहा हो, उसे उधार की कोई चीज कैसे स्वीकार हो सकती थी- चाहे वह किसी समर्थ लेखक का लेखकीय व्यक्तित्व हो या फिर किसी वाद के भोंपू बनने का टटका तथा आसन लाभ।"11 इस प्रकार
राधाकृष्ण ने स्वानुभूति को अपनी
कृतियों में विशेष महत्त्व दिया है।
राधाकृष्ण तो आज नहीं हैं, परन्तु उनका साहित्य आज अमर है। इनका विपुल साहित्य व श्रेष्ठ रचनाएँ आज पूरे हिंदी साहित्य जगत से संरक्षण, सुरक्षा
व न्याय की मांग कर रही हैं। इनके रचना-संसार के संबंध में श्रवण कुमार गोस्वामी कहते हैं-
"राधाकृष्ण का निधन 3 फरवरी, 1979 को हुआ। उनके गुजरे बहुत दिन नहीं हुए हैं, पर अभी ही यह देखकर आश्चर्य होता है कि राधाकृष्ण की रचनाएँ तेजी से दुर्लभ होती चली जा रही हैं। इसका एक कारण तो यह रहा कि स्वयं राधाकृष्ण ही अपनी रचनाओं की सुरक्षा के लिए कभी बहुत गंभीर नहीं रहे। उन्होंने व्यवस्थित ढंग से अपनी प्रकाशित या अप्रकाशित रचनाओं को संभाल कर रखने में बहुत रुचि नहीं ली। उनके निधन के बाद उनकी प्रकाशित, अप्रकाशित तथा अधूरी रचनाओं को सुरक्षित रखने का प्रयास उनके पुत्र सुधीर कुमार लाल कर रहे हैं। इसके बावजूद राधाकृष्ण के रचना-संसार के संबंध में अंतिम रूप से कुछ कहना संभव नहीं लगता। अनेक ऐसी रचनाएँ हैं जिनकी चर्चा तो सुनने को मिलती है, मगर वे कहीं से प्राप्त नहीं हो पातीं। फिर भी राधाकृष्ण की रचनाओं के संबंध में जानकारी प्राप्त करने का मुख्य स्रोत आज भी राधाकृष्ण का परिवार ही है।"12
ऐसे महान साहित्यकार की रचनाएँ इस तरह विलुप्त होना हिंदी जगत के लिए शोभनीय नहीं है।
बल्कि आज
जरूरत है कि संग्रहालय, पुस्तकालय
एवं पत्र-पत्रिकाओं में
दबी पड़ी इनकी
रचनाओं को खोज-खोज कर पुनः
प्रकाशन कराया जाय।
राधाकृष्ण
ने अपना सम्पूर्ण जीवन
राँची में गुजारते हुए निःस्वार्थ
भाव से हिंदी साहित्यिक
क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया। फिर भी उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया। एक तरह से हिंदी के आलोचकों ने राँची के इस साहित्यकार को अनदेखा कर दिया।
वे इस
उपेक्षा के पीछे राँची जैसे छोटे शहर को भी एक कारण के रूप में देखते हैं। उनका मानना था कि किसी साहित्य के प्रचार-प्रसार व प्रसिद्धि के पीछे एक बड़ा शहर का होना अति आवश्यक है। इस संबंध में वे 'इतना ही कहना है' लेख में लिखते भी हैं- "उन दिनों बंगला के सुप्रसिद्ध
साहित्यकार सैयद मुजतबा अली पटना आकाशवाणी में स्टेशन डायरेक्टर थे। बड़े स्पष्ट ढंग से दो टूक बातें करते थे। भिन्न-भिन्न भाषाओं और साहित्य का ऐसा विद्वान अब तक मेरी नजर से दूसरा नहीं गुजरा है। साहित्य के प्रचार-प्रसार के सम्बन्ध में भी उनकी कुछ मान्यताएँ थीं। वे कहा करते थे कि
किसी भी भाषा के साहित्य के विकास के लिए एक महानगर का होना बहुत जरूरी है। वे बंगला का उदाहरण देते थे। कहते थे कि अगर बंगला को कलकत्ते के समान महानगर नहीं मिला होता तो बंगला-साहित्य इस प्रकार आगे बढ़ा हुआ दिखलाई नहीं देता। कहते थे कि मराठी के लिए बम्बई और पूना है, गुजराती-साहित्य के लिए अहमदाबाद और सूरत जैसे नगर हैं, मगर हिन्दी-साहित्य के विकास के लिए कोई बहुत बड़ा नगर नहीं मिल पाया। अब हिन्दी दिल्ली में पहुँच गई है। अब देखो हिन्दी-साहित्य का विकास कितनी तेजी से होता है। स्वर्गीय मुजतबा अली की बात साहित्य के विकास और प्रसार के लिए ठीक हो या न हो, लेखक के लिए कोई ऐसा नगर होना बहुत जरूरी है जहाँ उसका विकास हो सके। मैं तमाम जिन्दगी राँची में रह गया। फल हुआ कि मुझे जिस रूप में प्रकाशित होना चाहिए था वैसा नहीं हो पाया।"13
यह बात कुछ हद तक सही है कि राँची जैसे छोटे शहर होने के कारण राधाकृष्ण को उचित सम्मान नहीं मिल पाया। आखिर कब तक इनके विशाल साहित्य को अनदेखा किया जाएगा? यह प्रश्न गम्भीर और विचारणीय है।
यह भी
विचारणीय है कि इनके विपुल और
प्रसिद्ध साहित्य को कोई बड़ा पुरस्कार नहीं मिला।
पुरस्कार योजनाओं के संचालकों की दृष्टि राधाकृष्ण
के साहित्य पर नहीं
पड़ने के पीछे का
कारण कहीं न कहीं
राधाकृष्ण का दिल्ली, कोलकाता, मुंबई जैसे बड़े शहरों में न रहना और बड़े प्रकाशनों से उनकी पुस्तकों का प्रकाशन न होना भी माना जा सकता है। परन्तु राधाकृष्ण इस मामले में एक सच्चे साहित्यकार थे जिन्होंने
किसी का खुशामद नहीं किया। यह सत्य है कि सरल और सच्चरित्र
स्वभाव ही इनकी प्रसिद्धि का मार्ग भी रोका। इस संबंध में अमृतराय लिखते हैं- "मगर उसमें एक बड़ी बुराई थी, वो एक बहुत ही सीधा-सादा, सरल निस्पृह आदमी था। ऐसे नितांत गऊ लोगों को दुनिया घास नहीं डालती। इसलिए उसे अपना प्राप्य कुछ भी नहीं मिला। यों तो अपने यहाँ, कम से कम हिंदी में, शायद ही किसी को भी अपना प्राप्य मिलता हो पर लालबाबू तो विशेष रूप अभागे रहे।"14 राधाकृष्ण
चाहते तो देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों से सम्मान, पद और प्रतिष्ठा आसानी से प्राप्त कर सकते थे
क्योंकि स्वतंत्रता
व राष्ट्रीय
आंदोलनों में
उनकी सक्रिय भागीदारी रही
थी। देश की आजादी से पहले
कांग्रेस पार्टी
में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान
व योगदान भी रहा
था। पर आजादी के बाद भारत का असली चेहरा उन्हें स्पष्ट हो गया था और उनका मोहभंग भी तेजी से हुआ। इन्होंने समाज में
व्याप्त अंतर्विरोध एवं विसंगतियों पर व्यंग्य के माध्यम से से प्रहार करना
शुरू कर दिया। वे राजनीतिक पार्टियों का पिछलग्गू बनना दुष्कर्म समझते थे
और स्पष्ट लिखते भी हैं-
"मैं इस बात की परवाह नहीं करता कि इस युग में समालोचक, जो स्वयं जाति-जंजाल में लिप्त हैं, जो साहित्य को किसी राजनैतिक पार्टी का पुछल्ला बनाकर चलना चाहते हैं, या जो ठकुरसुहाती
से ही मगन मन होकर कलम उठाते हैं, ऐसे संपादक-आलोचक आदि क्या लिख रहे हैं, किसके सिर कितना चमेली का तेल डाल रहे हैं या किसका कितना विज्ञापन कर रहे हैं, ऐसी बातों से मैं दिलचस्पी नहीं लेता।"15 इन्होंने अपने जीवन में कई चाटुकारों को गलत तरीके से प्रसिद्धि पाते हुए देखा। वे कहते भी
हैं- "पीतल को सोना बनते हुए और काँच को कंचन कहलाते हुए देखा। लोगों को अपनी आत्मा और अंतःकरण का सौदा करते हुए और गिड़गिड़ाते हुए देखा। खुशामद का आरंभ और अतिरेक देखा।"16 ऐसा होते देख राधाकृष्ण
के मन में कभी भी ऐसी नीच भावना नहीं जगी। और न ही अपने जीवन में उन्होंने किसी से खुशामद की। वे अपनी बहुआयामी प्रतिभा से जीवन व साहित्य के क्षेत्रों में सफलतापूर्वक कार्य करते रहे। भले ही उन पर लक्ष्मी की कृपा नहीं रही, परन्तु
सरस्वती ने उन्हें मुक्तहस्त से जो वरदान दिया, उसका प्रतिपादन समाज तथा देश के हित में किया। वस्तुतः वे केवल एक लेखक ही नहीं अपितु अपने आप में एक संस्थान थे जहाँ कई रचनाकारों को अपनी सुप्त प्रतिभा को जगाने व चमकाने की प्रेरणा मिली। स्पष्टतः अपनी लेखनी से उन्होंने जिस दूरदर्शिता
का परिचय दिया है, उससे उनकी रचनाएँ आज अत्यधिक प्रासंगिक और समकालीन प्रतीत होती हैं।
निष्कर्ष : निष्कर्षतः राधाकृष्ण की प्रसिद्धि को साहित्य
जगत के कुछ ठेकेदारों ने षड्यंत्र के तहत गुमनाम रखा। इनकी रचनाओं को हिंदी साहित्य में स्थान नहीं दिया।
इस तरह आखिर कब तक राधाकृष्ण
की महानता और श्रेष्ठता पर धूल डालकर इन्हें हिंदी साहित्य-संसार से उपेक्षित रखा जाएगा।
इसपर आज अमल करने
की जरूरत है। आज इनके समृद्ध
रचना-संसार
को अध्ययन व शोध
से एक फलक पर लाकर सम्मान देने की
जरूरत है। दुर्लभ होती रचनाओं का पुनर्प्रकाशन
के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में दबी पड़ी इनकी रचनाओं को एकत्रित कर संकलन रूप में प्रकाशित कराने की भी
आवश्यकता है। इनकी कई रचनाएँ अधूरी व अप्रकाशित
हैं, उन्हें भी प्रकाश में
लाना समय की मांग है। निःसंदेह हम
हिंदी प्रेमियों के इस आवश्यक
कदम से ही राधाकृष्ण
व इनकी रचनाओं को
हिंदी साहित्य में उचित
स्थान व सम्मान मिलेगा।
अतः प्रेमचंद के दुलारे राधाकृष्ण का समुचित मूल्यांकन
कर न्याय दिलाना हमारा
कर्तव्य है क्योंकि उन्होंने
अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य संसार की अभिवृद्धि में जो योगदान दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
अतएव आशा और विश्वास
है कि आगे जब भी हिंदी साहित्य के इतिहास का पुनर्लेखन होगा तो इस शख्सियत का नाम अग्र
पंक्तियों में होगा।
12. वही, पृ० 22.
14. गोस्वामी, श्रवणकुमार. हिंदी के साहित्य निर्माता राधाकृष्ण. राँची : सेवा संकल्प, प्रथम संस्करण, 1998, पृ० 20.
15. वही, पृ० 121.
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, सरिया कॉलेज, सरिया, गिरिडीह (झारखण्ड) - 825320
डॉ. सुबोध कुमार सिंह 'शिवगीत'
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग (झारखण्ड)- 825301
प्रभावी लेखन
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