भारतीय संस्कृति में गुरु का महत्व: श्रीराम परिहार के निबन्धों के सन्दर्भ में
मीनाक्षी
शोध सार :शिक्षा मनुष्य जीवन का निर्माण करती है। जन्म के समय मनुष्य प्राकृत अवस्था में होता है उसका हृदय व मस्तिष्क कोरे कागज की भाँति होते हैं। प्राकृत से सुसंस्कृत बनाने में संस्कार व आचरण की महत्वपूर्ण भूमिका है जो मनुष्य को समाज, राष्ट्र व विश्व से जोड़ते हैं। सुसंस्कृत बनाने की यह प्रक्रिया गुरु के माध्यम से सम्पन्न होती है। भारतीय संस्कृति में गुरु को ईश्वर से ऊँचा स्थान प्राप्त है। हिन्दी के ललित निबन्धकार श्रीराम परिहार ने अपने ललित निबन्धों में गुरु की महानता व गुरु-शिष्य के सम्बन्धों पर अपनी अभिव्यक्ति दी है। लेखक कहते हैं कि मनुष्य के भीतर का संसार व बाहर की दुनिया अलग-अलग है। पहला जो हमारे भीतर है, जिसका संचालन व नियंत्रण आत्मा करती है यही आत्मबोध होता है। दूसरा जो हमारे बाहर का संसार है जिसका संचालन व नियंत्रण विवेक से उत्पन्न संस्कारों से होता है। गुरु हमें इन दोनों पक्षों से अवगत कराते हैं। पुरातन सनातन संस्कृति में गुरु सर्वज्ञानी, सर्वगुण सम्पन्न होते थे अपने शिष्यों को अपना प्रतिबिम्ब बनाने का हरसम्भव प्रयास करते थे। गुरु शिष्य को प्रारम्भ में सांसारिक शिक्षा देते हैं यह प्रक्रिया आगे बढ़ते हुए अंत में आत्मज्ञान तक पहुँचती थी। इस प्रकार शिष्य को बाहरी व भीतरी दुनिया का पूर्ण ज्ञान हो जाता था। राम, कृष्ण, बलराम, अर्जुन, कर्ण, कबीर, मीरा, स्वामी विवेकानन्द आदि महापुरुषों ने गुरु की महिमा को समझा व विधिवत् अपने गुरु से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। साथ ही भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य की परम्परा को बढ़ाया। तब गुरुज्ञान के भण्डार थे तो शिष्य शील-सौम्य याचक की भाँति ज्ञान ग्रहण करते तथा उनकी समस्त जिज्ञासाऐं शान्त होती थी। समय के साथ गुरु के स्थान व गुरु-शिष्य के सम्बन्धों की गुणवत्ता में गिरावट आ गई। पाश्चात्य शिक्षा का भारत में प्रचार-प्रसार के परिणामस्वरूप चारित्रिक शिक्षा के स्थान पर भोगवादी शिक्षा ने स्थान ग्रहण कर लिया। चरित्र व्यक्ति का व्यवहार, समाज, राष्ट्र व विश्व को प्रभावित करता है। मूल्य आधारित चारित्रक शिक्षा देने का कार्य गुरु भली-भाँति कर सकते हैं। यह गुरु शिक्षा विश्वहित में सकारात्मक सिद्ध हो सकती है।
बीज शब्द - गुरु-शिष्य परम्परा, गुरुकुल, चरित्र-निर्माण, आत्मज्ञान, सुसंस्कृत समाज, विश्वगुरु।
पर्व, त्यौहार व संस्कारों के इस भारत भूमि में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। गुरुओं ने अपने त्याग, तपस्या व साधना से भारत व विश्व को भवसागर से पार उतरने का मार्ग बताया है। श्रीराम परिहार गुरु के आदर्श गुणों के बारे में कहते हैं कि भारतीय संस्कृति के प्राचीन गुरु शारीरिक, मानसिक, नैतिक व वैयक्तिक गुणों के तेज से युक्त थे। अच्छा स्वास्थ्य था इससे विद्यादान में उल्लास व स्फूर्ति थी। वाणी में आकर्षण, उच्चारण व लेखनी में भाषा की शुद्धता, अपने विषय के पूर्ण ज्ञान के साथ रुचिकर शिक्षण विधियों तथा शिष्यों के मनोविज्ञान को जानने व समझने में महारथ हासिल था। वेश-भूषा पद व कार्य के अनुरूप थी। उन गुरुओं को अपनी संस्कृति व ज्ञान परम्परा का बोध था। न्यायशीलता निष्कपटता व आत्मविश्वास से भरी प्रबल इच्छाशक्ति के धनी, दया, करुणा व धौर्य के सागर, अपने कार्य के प्रति इतने समर्पित कि असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाये। ऐसे सच्चे गुरुओं की परम्परा भारतीय संस्कृति में रही है। गुरु के साथ शिष्य भी पूर्णमनोयोग से स्वाध्याय में लगे रहते। शंका के समाधान में अधिक समय लगने पर भी गुरु को अज्ञानी होने का दोष नहीं देते थे। समयानुसार शंका निवारण किया जाता था। उस काल में शिष्य गुरु के छोटे-छोटे दोषों को ध्यान न देकर उनका यशगान करते रहते ओर सेवा-सुश्रूषा, आदेशों को शिरोधार्य करना शिष्य के लिए गौरव की बात थी। गुरु-शिष्य की यह अद्भुत परम्परा कैसी रही होगी इस दृश्य को श्रीराम परिहार कल्पना में विचरण करते हुए लिखते हैं- ‘‘गुरु बैठे हैं। सामने शिष्य मन का खाली दोना लिये बैठा है। गुरु के ललाट पर ज्योति-बिन्दु झल-झल है। ज्ञान तेज बनकर रोम-रोम के गवाक्षों से देख रहा है। गुरु की दृष्टि शिष्य पर है आसपास जाती है। प्रकृति परिवेश को नहलाती है और दृष्टि की वह कोर क्षितिजों पर फैलती जाती है। शिष्य निहाल हो जाता है। गुरु शिष्य को गढ़ रहा है। उसे समय की शिला पर खड़े राष्ट्र के अनुकूल व्यक्तित्व दे रहा है। शिष्य के प्रश्न बर्फ के ढेलों सा पिघलकर पानी हो रहे हैं। शिष्य के भीतर तरलता भर रही है। गुरु शिष्य को निरूवार रहा है। शिक्षा संस्कार-व्यवस्था बनकर आप्लावित सिंधु के संतरण की हिम्मत बँधा रही है।"1 प्राचीनकाल में गुरु का ज्ञान, नैतिक बल, मौलिकता, शिष्यों के प्रति स्नेह-संरक्षक-निःस्वार्थ ज्ञान प्रदान करने का भाव गुरु शिष्य परम्परा का आधार था। शिष्य भी गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण, आज्ञाकारिता, श्रद्धाभाव, क्षमता, अनुशासन के साथ इस परम्परा को मजबूत करते थे। श्रीमद्भागवत् गीता के अनुसार गुरु-शिष्य परम्परा पहले सांसारिक ज्ञान से प्रारम्भ होती थी उसके बाद अपने चरमोत्कर्ष में भगवत मिलन या मोक्ष की प्राप्ति से पूर्ण होती थी। उस समय जो गुरु की वाणी में होता वही आचरण में भी था। कथनी व करनी में कोई भेद नहीं। एक समय में भारत को विश्वगुरु कहा जाता था, इसका एक प्रमुख कारण भारत की प्राचीन शिक्षा-पद्धति भी थी। योग, ज्योतिषशास्त्र, चिकित्सा आदि समस्त विषयों पर हमारे ऋषि-मुनियों ने इतने उत्कृष्ट ग्रन्थों के निर्माण करे; तो उन्होंने अपने शिष्यों को भी उच्च स्तर की शिक्षा-दीक्षा दी थी और आगे की पीढ़ियों में संस्कार व ज्ञान प्रत्यारोपित किये। जिससे स्पष्ट है कि उस समय की शिक्षा आत्मसात करके सीखी जाती थी।
गुरु ही इस संसार में सभी बंधनों से मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं इसलिए भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से भी ऊँचा स्थान प्राप्त है। संत कबीर ने गुरु महिमा गाते हुए कहा है-
"गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।"2
कबीर भी मानते हैं कि यदि गुरु ना हो तो गोविन्द तक कौन पहुँचायेगा? इस मनुष्य जन्म का सर्वोपरि लक्ष्य कैसे प्राप्त होगा? बिना गुरु आत्मदर्शन व परमात्मा दर्शन नहीं हो सकते। गुरु ही गोविन्द तक पहुँचने का मार्ग बताते हैं। इसलिए गुरु गोविन्द से श्रेष्ठ हैं। गुरु द्वारा बताये गये सद्मार्ग व शिष्य के आचरण से ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग सुगम हो जाता है। कई बार यह कहते हुए सुना जाता है कि कन्यादान सबसे बड़ा दान होता है लेकिन श्रीराम परिहार विद्यादान को सबसे बड़ा दान और शिक्षकीय कर्म को सबसे बड़ा पुण्यकर्म मानते हैं। संत कबीर ने विद्या को तीनों लोकों की सम्पदा तथा गुरु को यह सम्पदा दान करने वाला श्रेष्ठ दाता कहा है-
"गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्हीं दान।।"3
संत कबीर को गुरु बनाने का महत्व बहुत अच्छे से पता था तभी तो वे पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर ब्रह्म मुहूर्त के अंधेरे में लेट गये, तभी गुरु रामानन्द उन सीढ़ियों से उतरे तो कबीर के स्पर्श से उनके मुँह से राम-राम निकला। यही राम नाम कबीर ने अपना दीक्षा मन्त्र मान लिया तथा रामानन्द को अपना गुरु बना लिया। गुरु कृपा से ही कबीर राम के और राम कबीर के हो गये।
गुरु ज्योति है। वह अपनी रोशनी से समाज व इन्द्रियों से परे आत्मज्ञान का बोध कराते हैं। गुरु की आँखों में जीवन को प्राण देने का सपना, समय को शब्द देकर उसकी वाणी में अभिव्यक्त होने की अभिलाषा होती है। समय की आवश्यकतानुसार सुयोग्य पीढ़ियों का निर्माण कर सुसंस्कृत समाज का निर्माण करते हैं। इसका उदाहरण गुरु वशिष्ठ व विश्वामित्र हैं। वशिष्ठ व विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को अपना शिष्य स्वीकार कर एक सुदृढ़ समाज बनाने की जिम्मेदारी ली। श्रीराम व उनके भाई भी सुपात्र थे। उन्होंने भी गुरु की आज्ञानुसार अपने कर्तव्यों का पालन किया। राम का जीवन संघर्ष का पर्याय था। यह संघर्ष गुरुकुल से ही प्रारम्भ हो गया था। दोनों गुरुओं ने अस्त्र-शस्त्र-शास्त्र शिक्षा के साथ-साथ उन्हें जीवन में आने वाली प्रत्येक कठिनाई के लिए तैयार किया परिणामस्वरूप अधर्म का नाश कर श्रीराम राम से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बन गये। रामायण का आज विशेष महत्व है इसलिए आज सभी रामराज की कल्पना करते हैं। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है-
"गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई।
जौ बिरंचि संकर सम होई।।"4
कोई भी व्यक्ति भगवान शंकर या ब्रह्मा के समान ही क्यों न हो वह गुरु के बिना भवसागर पार नहीं हो सकता। ईश्वर का अवतार होने पर भी श्रीरामचन्द्र ने गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वहन किया। इसी तरह कृष्ण व बलराम भी ईश्वर के अवतार माने जाते हैं, उन्होंने भी अपने गुरु महर्षि सांदीपनि की शरण में जाकर विधिवत शिक्षा ग्रहण की। गुरु के दिये ज्ञान व संस्कारों से श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भवद्गीता रूपी मुक्ति धारा प्रवाहित की। देवताओं के गुरु बृहस्पति तथा दानवों के गुरु शुक्राचार्य थे। दोनों गुरुओं व उनके शिष्यों के मनोभावों व लक्ष्यों में अन्तर था। गुरु बृहस्पति ने देवताओं को धर्मनीति सम्मत शिक्षा दी लेकिन गुरु शुक्राचार्य ने दानवों को अधर्म प्रवृत्ति कार्यों में सहायता की। धर्म-अधर्म का ज्ञान बृहस्पति व शुक्राचार्य दोनों गुरुओं को था लेकिन दोनों ही गुरु व उनके शिष्यों के विपरीत मानसिकता के कारण आगे की पीढ़ियों में भी वैसे ही गुण-अवगुण प्रत्यारोपित होते गये। एक श्रेष्ठ गुरु के साथ एक योग्य शिष्य के चुनाव से भी कार्यों के परिणाम बदल जाते हैं। एक योग्य शिष्य के चुनाव पर श्रीराम परिहार लिखते हैं- ‘‘गुरु वशिष्ठ, विश्वामित्र, सांदीपनि हो या द्रोणाचार्य, वह अपने चिन्तन के अनुकूल शिष्य चाहता है। युग की शिला पर खड़े होकर ललकार लगाने वाला व्यक्ति चाहता है। गुरु की दृष्टि पथ में राम, कृष्ण, अर्जुन, चन्द्रगुप्त या विवेकानन्द आते हैं। गुरु की दृष्टि रोशनी की किरण बन जाती है। वह शिष्य के माध्यम से पूरा एक युग गढ़ने लगता है।
गुरु कुम्हार शिष्य घट है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर मारै चोट।।"5
लेखक ने कबीर के दोहे के माध्यम से मर्मस्पर्शी बात लिखी है। कुछ अच्छा बनाने की धुन में गुरु रूपी कुम्हार शिष्य रूपी घड़े को भीतर से सहारा देकर बाहर से हल्की हल्की चोट दे रहे हैं। गुरु अपने विचारों व परम्परा को बढ़ाते हुए शिष्य को स्वरूप देते हैं। गुरु स्वयं को भूलकर अपना प्रतिरूप शिष्य में ही सृजित करते हैं। गुरु का जैसा स्वयं का व्यक्तित्व होगा वह शिष्य को भी वैसा ही बनाते हैं। वर्तमान समय में सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित है। जो भी आज आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त हैं उनको आतंकवादी प्रशिक्षण देने वाला कोई तो व्यक्ति होता ही है। यहाँ ऐसे व्यक्तियों को गुरु कहना सर्वथा अशोभनीय है क्योंकि गुरु तो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं। ये तो मानवता के दुश्मन हैं। एक ऐसा व्यक्ति जो किसी के मन को मानवता के प्रति नफरत से भर देता है, संकीर्ण मानसिकता पैदा कर आत्मघाती बना डालता है उनके लिए समाज, दया, प्रेम, जीवन आदि सब तुच्छ चीजें हो जाती हैं। ऐसे व्यक्तियों के पास विशेष क्षमताऐं एवं उच्च बुद्धि स्तर होता है। यदि वे व्यक्ति सद्भावना, शान्ति व मानवता के मूल्यों से स्वयं पूर्ण होते तो कभी भी ऐसी आतंकी गतिविधियों की शिक्षा न देते और इतनी ही बुद्धि व क्षमता के साथ विश्वशान्ति, विकास व चारित्रिक शिक्षा पर बल देते तो ये समाज में सम्माननीय व आदर्श होते। यह सत्य है कि गुरु के पास जो होता है वह शिष्य को वही देता है। इसी संदर्भ में चाणक्य व चन्द्रगुप्त की गुरु-शिष्य सम्बन्धी कहानी विश्वविख्यात है। चाणक्य राजनीति व ज्योतिषशास्त्र के साथ अन्य शास्त्रों के विद्वान थे। चन्द्रगुप्त के साहस, बुद्धिमत्ता, नेतृत्व क्षमता व आत्मबल को देखकर चाणक्य ने अपना शिष्य बना लिया। चाणक्य के ज्ञान तथा चन्द्रगुप्त की वीरता व साहस ने भारत में अखण्ड साम्राज्य की स्थापना कर दी। गुरु की महानता पर श्रीराम परिहार लिखते हैं-‘‘गुरु पथ प्रदर्शक है। गुरु जीवन को लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करता है। हरि के रूठ जाने पर गुरु के पास शरण मिल सकती है। गुरु रूठ जाने पर कही ठौर नहीं मिलता है। गुरु जीवन जगत का रहस्य खोलता है। गुरु ब्रह्मा से साक्षात्कार कराता है। सप्तद्वीप नवखण्ड में गुरु से बड़ा न कोय।"6
जब भी श्रेष्ठ गुरु को योग्य शिष्य मिले इतिहास में अद्भुत घटनाऐं लिखी गई। यदि गुरु द्रोणाचार्य न होते तो शिष्य अर्जुन महायोद्धा न होता, गुरु परशुराम न होते तो शिष्य कर्ण महादानी न बनते। चाणक्य न होते तो चन्द्रगुप्त अखण्ड साम्राज्य का विजेता न होता। कबीर, मीरा, विवेकानन्द आदि अनेक शिष्यों ने यह प्रमाणित कर दिया कि जीवन का उद्देश्य गुरु के बिना पूर्ण नहीं हो सकता। गुरु-शिष्य परम्परा भारतीय संस्कृति में समाज को सुचारू रूप से चलाने की पुरातन व्यवस्था है। इसी व्यवस्था ने प्राचीन काल से लेकर आज तक मनुष्य को इसी गुरु-श्ष्यि परम्परा का मार्ग दर्शन कराया।
गुरु और शिष्य आज के परिप्रेक्ष्य में मात्र संबोधन नहीं बल्कि अपने में पूर्ण, अर्थ परम्परा लिये हुए हैं और शिक्षा मात्र अक्षर ज्ञान तक सीमित नहीं है बल्कि यह जनकल्याण, जीवन निर्माण व विश्वकल्याण के साथ चलती है। इसमें गुरु एक फलदार वृक्ष की भूमिका में है जिसकी छाया में आने वाला प्रत्येक पथिक आत्मा व शरीर से तृप्त हो उठता है। गुरु द्वारा दिये गये सद्भावना, संस्कार व ज्ञानरूपी फल से शिष्य को तृप्त कर एक संस्कारी व समाज की नींव रख दी जाती है- ‘‘आज का विद्यार्थी कल का राष्ट्र निर्माता बनेगा, राष्ट्र की भूमिका विश्व के परिचालन व संवर्धन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रेखांकित होती है। शिक्षा के परिणाम और सुफल आज ही प्राप्त नहीं हो जाते। यह लेन देन का सौदा नहीं है। यह युग-युगों की नींव गढ़ने और वैश्विक अंतरिक्ष में समभाव और सद्भाव को शांति की हवाओं में घोलने-मिलाने का पुण्यकार्य है।"7 स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुरु के साथ माता-पिता, सगे सम्बन्धियों को भी जोड़ा है क्योंकि ये सभी किसी न किसी रूप में शिक्षा द्वारा संस्कार व चरित्र निर्माण में अपनी भूमिका निभाते हैं। सूर्य ब्रह्माण्ड के केन्द्र में होने से समस्त ब्रह्माण्ड प्रकाशवान होता है जो कल्याणकारी भी है। वैसे ही पृथ्वी के केन्द्र में मनुष्य है जो कि श्रेष्ठ चेतनायुक्त प्राणी है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को शान्ति, सद्भावना व विश्वकल्याणकारी गुणों से युक्त होना आवश्यक है। गुरु व्यक्ति के चरित्र निर्माण में अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका निभाते हैं। विद्यालयों-महाविद्यालयों में अध्ययनरत विद्यार्थी राष्ट्र का भविष्य निर्धारित करेंगे। इसके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व संस्कारों पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है जिससे सुसंस्कृत व शिक्षित राष्ट्र का निर्माण हो सके।
वर्तमान समय में गुरु के महत्व तथा गुरु-शिष्य के सम्बन्धों में परिवर्तन आये हैं। इसका कारण भारतीय संस्कृति की प्राचीन शिक्षा पद्धति का धीरे-धीरे नष्ट होना है। बाहरी आक्रान्ताओं ने हमारी शिक्षा पद्धति को प्रभावित किया। लॉर्ड मैकाले की पाश्चात्य शिक्षा नीति का पहला प्रहार भारत के गुरुकुलों पर पड़ा। गुरु के आश्रम में शिष्य ही नहीं रह पाये। पाश्चात्य शिक्षा को भारतीयों पर थोप दिया गया आजादी के बाद भी यह अंग्रेजी शिक्षा अपने पूर्ण प्रभाव में हैं। इससे संस्कारों का स्तर गिरा। पहले गुरु को गुरुदेव सम्मानजनक शब्द से सम्बोधित किया जाता था आज सर, मेम, मास्टरजी, मास्टरनीजी जैसे शब्दों का प्रयोग होने लगा है। शिक्षक को अपने अध्यापन क्षेत्र में न तो उत्साह है और न ही समर्पण भाव। पहले शिक्षादान महादान माना जाता था, आज यह व्यवसाय है। परिवार के भरण-पोषण का साधन बन गया है। इसं संदर्भ में लेख श्रीराम परिहार लिखते हैं- ‘‘अंग्रेजी शिक्षा के आगमन के कारण और आज के आस्थाहीन समय की खुरापात के चलते शिक्षक शब्द बहुत ऊसर भूमि तक चला आया है। शिष्य छात्र हो जाता है। शिक्षक कर्मचारी हो जाता है। शिक्षक कभी स्नेह का बादल होता था। अब वह नहीं है। अब वह तौल-तराजू लेकर बैठा है। शिक्षक कक्षा में औपचारिक हो जाता है। वह कर्तव्य-निर्वाह का निमित्त हो जाता है। वह महिने, दिनों, काल खण्डों और ज्यादातर छुट्टियों में जीता है। कभी गुरु के हृदय में बटुकों की मंडली बैठती थी। अब शिक्षक के घर कक्षा लगती है। समाज व शासन की शिक्षा व्यवस्था चलती है। कर्तव्य और शिक्षकीय कर्म समय के हिस्सों के हवाले हो जाता है। गुणवत्ता छात्रों की क्षमता और युवाओं के भाग्य पर छोड़ दी जाती है।"8 आज शिष्य गुरु के चरण स्पर्श के बजाय गुड मॉर्निंग, गुड आफ्टरनून तक सीमित है। कुछ नया सीखने व प्रश्न उत्तर की जिज्ञासा समाप्त होकर कक्षा में ‘बोर‘ शब्द ने जगह बना ली है। आधुनिक शिक्षा पद्धति यंत्रों पर आधारित है जिनमें कोई संवेदना नहीं होती। मनुष्य में संवेदना व विवेकशीलता है। जिससे वह अपने अपेक्षित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। जो शिक्षक चरित्र व राष्ट्र निर्माण की बात करते हैं उनको छात्र पिछड़ेपन के पैमाने पर नापते हैं। शिक्षक जो पढ़ा-लिखा रहे हैं उसे शिक्षक ही समझते हैं। छात्र समझे या ना समझे यह उनकी स्वतंत्रता है। आज की शिक्षा व्यवस्था में सारा ज्ञान शिक्षक से बच्चों की ओर जा रहा है। यह एक तरफा ज्ञान है। इस शिक्षा में बच्चों के ज्ञान की कोई जगह नहीं है।9 आज शिक्षक न तो अपने शिक्षण कार्य में गर्व महसूस करते हैं और न ही पाश्चाताप। भारतीय पुरातन संस्कृति गुरु का जो ऊँचा स्थान था वह नीचे खिसकता जा रहा है। इन सबके बीच में भी गुरु का स्थान व गुरु-शिष्य की पुरानी परम्परा को वापस लाने का एक सपना दिखता है। आज भी विद्या मन्दिर खुले हैं जहाँ शिक्षक गुरुदेव हो गये हैं। वर्तमान शिक्षा पद्धति में संस्कारों पर विशेष जोर दिया जा रहा है। रामायण, महाभारत, श्रीमदभागवतगीता, वेद, पुराण आदि को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाने लगा है। आज भी शिक्षकों के भीतर गुरुदेव बैठे हैं। आज भारतीयों का मन अपनी भारतीयता को तलाशने पर जोर दे रहा है।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति में गुरु की महिमा का सिर्फ बखान ही नहीं किया गया है बल्कि गुरु स्वयं ईश्वर के समान अद्वितीय गुणों व ज्ञान के भण्डार भी थे। गुरु के आशीर्वाद से ही नये कार्यों का शुभारम्भ होता था। भारत-भूमि में ऐसा कोई भी महापुरुष, ज्ञानी या धर्मात्मा नहीं जिनका गुरु न हो। यहाँ तक कि हिन्दू धर्म के जितने भी भगवान हैं सभी के गुरु हैं। हिन्दू धर्म के साथ अन्य धर्मों ने भी गुरु की महानता को स्वीकारा है। प्राचीन काल के गुरुकुलों की गुरु शिष्य परम्परा अखण्ड भारत की नींव थी, इन्हीं गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त कर अनेक राजाओं ने अपनी जनता का ध्यान रखा। पाश्चात्य संस्कृति ने गुरु की महानता कम कर दी है शिष्य का ध्यान भटका दिया है। इन सब के बीच में एक वर्ग ऐसा भी है जो भारत को उसकी प्राचीनतम संस्कृति के आधार पर स्थापित करना चाहता है। वह गुरु व शिष्य को नजदीक लाना चाहता है। गुरु को उनका स्थान दिलाना चाहता है। हमारा भारत फिर से विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1. 1.बजे तो वंशी गूँजे तो शंख - श्रीराम परिहार, पृष्ठ सं० 30, प्रकाशन-1999, द्वितीय संस्करण-2011, प्रकाशक-वैभव प्रकाशन
2. 2. https://panotbook.com
3. 3. https://satyaloy.wordpress.com
4. 4. श्रीरामचरितमानस-गोस्वामी तुलसीदास, पृष्ठ सं०-1075, गीता प्रेस गोरखपुर नौवा संस्करण-2021 -प्रकाशक मनोज पब्लिकेशन्स दिल्ली
5. 5. बजे तो वंशी गूँजे तो शंख - श्रीराम परिहार, पृष्ठ सं० 32, प्रकाशन-1999, द्वितीय संस्करण-2011, प्रकाशक-वैभव प्रकाशन, रायपुर (छ०ग०)
6. 6. वेणु गुजै गगन गाजै - श्रीराम परिहार, पृष्ठ सं० - 42, प्रकाशक-राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत प्रकाशन, वर्ष-2020 (प्रथम संस्करण-2020)
7. 7. शब्द-शब्द झरते अर्थ - श्रीराम परिहार, पृष्ठ संख्या - 157-158, प्रकाशन-2017, प्रकाशक-ज्ञानगंगा प्रकाशन, दिल्ली
8. 8. बजे तो वंशी गूँजे तो शंख - श्रीराम परिहार, पृष्ठ सं० 35, प्रकाशन-1999, द्वितीय संस्करण-2011, प्रकाशक-वैभव प्रकाशन, रायपुर (छ०ग०)
9. 9. भय के बीच भरोसा-श्रीराम परिहार, पृष्ठ संख्या-82, प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस जयपुर, प्रकाशन वर्ष-2010, (प्रथम संस्करण-2010)
मीनाक्षी, शोधार्थी (हिन्दी विभाग)
इन्दिरा प्रियदर्शिनी राजकीय महिला स्नातकोत्तर वाणिज्य महाविद्यालय
हल्द्वानी (नैनीताल) उत्तराखण्ड
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
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