साक्षात्कार : ‘बहुत ज्यादा अंधेरा होने के बाद ही सूरज की रोशनी निकलती है।’ (कथाकार स्वयं प्रकाश से डॉ.ममता नारायण एवं डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर)

बहुत ज्यादा अंधेरा होने के बाद ही सूरज की रोशनी निकलती है
(कथाकार स्वयं प्रकाश से डॉ.ममता नारायण एवं डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर की बातचीत)

अनुभूतियाँ ही रचनाशील भावना से अनुरंजित होकर कहानी बन जाती है। प्रेमचंद के पश्चात कई साहित्यकारों ने उनके इस कथन को मील का पत्थर मानते हुए अपनी संवेदनाओं को लेखन द्वारा उड़ेला हैं। कुछ ऐसी ही लेखनी कथाकार स्वयंप्रकाश की भी है। जलते जहाज पर, ज्योति रथ के सारथी, उत्तर जीवन कथा,बीच में विनय, ईंधन जैसे कालजई उपन्यास और पार्टीशन, कानदाव, नाचने वाली, सूरज कब निकलेगा, आदमी जात का आदमीआधी रात का सफरनामा, नीला कांत का सफर  जैसी कई प्रसिद्ध कहानियों के भीतर आपने मानवीय संवेदनाओं को परत दर परत उतारने का कार्य आपने किया है। इसके अलावा फीनिक्स, चौबोली और सबका दुश्मन जैसे नाटक के साथ-साथ कई आलोचनात्मक निबंध भी लिखे हैं। 7 अगस्त, 2017 को आप मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के हिंदी विभाग में पधारें। दो स्वरचित कहानियों (कान दाव, नाचने वाली) के पाठ के पश्चात् आपके साथ प्रश्न-सत्र हुआ जिसमें शोधार्थियों ने अपने शोध और देश काल से जुड़ी घटनाओं के संदर्भ में कई प्रश्न पूछे, जिनका जवाब आपने पूरी बेबाकी से दिया। इस प्रश्न सत्र के बाद ममता नारायण बलाई एवं मोहम्मद हुसैन डायर ने कथाकार स्वयं प्रकाश से साक्षात्कार लेने की इच्छा जाहिर की, जिसकी आपने सहर्ष सहमति दे दी। वह भेंटवार्ता कुछ इस प्रकार रही -

अपने सरोकारों से भटके मीडिया की आलोचना जगजाहिर है, पर क्या आज का साहित्यकार अपने उन सरोकारों को पूरा कर पा रहा है जो प्रेमचंद द्वारा निर्धारित किए गए थे?

हाँ ! आज समाज में दो तरह के साहित्यकार हैं। एक वह है, जो आज भी व्यवस्था परिवर्तन में विश्वास रखते हैं और सोचते हैं कि समाज को और भी स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के अनुसार बनाया जा सकता हैं। दूसरे कुछ साहित्यकार ऐसे भी हैं, जिनको इन मूल्यों की कोई जरूरत नहीं हैं। मौजूदा परिस्थितियों से वह परम संतुष्ट है, उन्हें हम सुविधाभोगी भी कह सकते हैं।

वह कौन सी बाधाएँ हैं जिसके कारण साहित्यकार की आवाज आम जन तक नहीं पहुंच पा रही है ?

देखिए, हमारे यहाँ साहित्य की स्थिति हमेशा कोने में रही हैं। कभी भी केंद्र में नहीं रही है और अब तो हिंदी की उपस्थिति भी प्रश्नांकित हो चुकी हैं। हम देखते हैं कि हमारे घरों के अंदर बच्चे भी अब हिंदी की बजाय अंग्रेजी में बात करना पसंद करते है, साथ ही वे अपना सारा माहौल अंग्रेजी के प्रति प्रतिबद्ध करते हुए देखे जा सकते हैं। अखबार, न्यूज़ चैनल या कहे तो संचार के सभी साधनों में हिंदी के बजाए अंग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा हैं। ये सभी चिह्न इस बात के सूचक है कि हिंदी साहित्य को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है साथ ही साहित्य कला भी हैं। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कला के कद्रदान हमेशा से ही कम रहे हैं।

पार्टीशन कहानी लिखने के पीछे क्या अंतर्द्वंद्व रहा ?

सबसे बड़ा कारण यह रहा कि जब भी हम सांप्रदायिकता की बात करते हैं तब यह बात साहित्य की हर विधा में हिंदू-मुस्लिम एकता पर आकर खत्म हो जाती हैं। सांप्रदायिक समस्या को प्रायः हम हिंदू-मुस्लिम समस्या ही समझते हैं। आदर्शात्मक बातों के अलावा यथार्थ से जुड़े हुए मुद्दों पर हम हमेशा कन्नी काटते हुए दिखते हैं जिससे प्रायः समस्या का समाधान नहीं निकलता हैं। स्थितियाँ वैसी की वैसी रह जाती हैं परंतु मुझे लगता है कि यह हिंदू मुसलमान की समस्या नहीं है, बल्कि सभी धर्मों के बीच में संघर्ष देखा जा सकता है या फिर वह अपने ही धर्म के अलगअलग वर्ग जातियों से लड़ रहे हैं। एक संप्रदाय अपने हितों पर मंडराते खतरे का कारण जब दूसरे संप्रदाय की उपस्थिति को समझने लगता है तब ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है। वहाँ सांप्रदायिकता पैदा होती हैं। मेरे लिखने का एक मिशन रहा है कि मैं वह बातें लिखूं जो मेरे परिवेश से जुड़ी हुई हो। उस समय हो रही हलचल से मैं अलग नहीं रह सकता। इसी हलचल ने मुझे पार्टीशन कहानी लिखने के लिए मजबूर किया।

इस कहानी के नायक कुर्बान भाई की असहाय स्थिति एवं बुद्धिजीवी वर्ग की अकर्मण्य स्थिति का किस तरह विश्लेषण करें?

हमारे अधिकांश बुद्धिजीवी मध्यमवर्ग से आते है और इस वर्ग की विशेषता रही है कि बातें  बहुत बड़ी-बड़ी और काम में कुछ नहीं। जब सीधा सामना करना होता है यानी मानवता विरोधी मुहिम से लड़ना होता है तब यह वर्ग पीछे रह जाता है। आगे आने वाला वर्ग हमेशा किसान और मजदूर होता है जिसका सब कुछ दाव पर लगा होता हैं। यद्यपि यह सच है कि सबसे अच्छे अध्यापक भी इसी श्रेणी से आते है, नेता और क्रांतिकारी भी प्रायः मध्यमवर्ग से ही आते है क्योंकि यह जागरूक तबका हैं। जहाँ सही बात कहने की जरूरत होती है, वहाँ इस वर्ग से जुड़े कुछ साहसी व्यक्ति अपनी बात कहने से भी नहीं चूकते हैं, पर इनसे आगे आकर मुकाबला करने की अपेक्षा करना बेमानी हैं। वर्गीय दृष्टिकोण से देखें तो समाज को बदलने का काम सर्वहारा वर्ग करता है, क्योंकि उसका सब कुछ दाव पर लगा होता है जबकि मध्यम वर्ग का कुछ भी दांव पर नहीं लगता हैं। वह अपनी सुविधा के अनुसार कदम बढ़ाता हैं। अगर आपने पवन कुमार वर्मा की ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास पढ़ी है तो उसमें मिलेगा कि हिंदुस्तान में बहुत बड़ा मध्यमवर्ग तैयार हो गया है जो उच्च वर्ग की ओर बढ़ने की अभिलाषा रखता हैं। यह परिस्थिति पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत ही सुविधाजनक आनंददायक है क्योंकि पूंजीपति चाहता है कि सर्वहारा वर्ग का मध्यवर्गीकरण हो जाए जिससे सर्वहारा वर्ग हमसे लड़ना बंद कर दे। आप देखिए कि झुग्गी झोपड़ियों में जहाँ पीने का पानी और शौचालय की सुविधा नहीं है, वहाँ टी.वी. और मोबाइल मिल जाएँगे। यह क्यों हो रहा है? इसके पीछे का राज सर्वहारा वर्ग को कमजोर करना है।

हिंदी साहित्य के आधुनिक इतिहास पर नजर डालें तो ज्यादातर साहित्यकार मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित दिखते हैं, ऐसा क्यों?

इस बात का ध्यान रखना होगा कि दुनिया को बदलने का सबसे वैज्ञानिक रोड मैप कार्ल मार्क्स के विचार हैं। उनके बाद जितने भी दर्शन आए जैसे अस्तित्ववाद, व्यक्तिवाद या उत्तर आधुनिकतावाद हैं, ये सभी किसी किसी रूप में अपूर्ण है और अपने को पूर्ण बनाने में वह मार्क्स के दृष्टिकोण को नजरअंदाज नहीं कर पाए। उनका दृष्टिकोण भी विश्लेषकों को उस पैमाने पर खींचने में असफल रहा जितना मार्क्स ने खींचा। मार्क्स को पढ़ते वक्त ऐसा लगता है कि उस व्यक्ति के सामने सारी स्थिति स्पष्ट है। इसका मतलब यह नहीं है कि 18 वीं शताब्दी के विचारों से हम 21वीं शताब्दी की समस्याओं का सही रूप में हल करने का प्रयास करें। शायद इसी विशेषता के कारण मार्क्सवाद को विज्ञान भी माना गया हैं। विज्ञान एक सूत्र है जिसके आधार पर आप आगे आविष्कार खोज कर सकते हैं।

एशियन पत्रिका में छपे प्रेस नोट के अनुसार गांधी ट्रस्ट नेभारत, पाक बांग्लादेश महासंघ बनाओविषय पर 9 अगस्त,2017 को सम्मेलन रखा गया जिसमें कई बुद्धिजीवी शामिल हुए हैं। युद्ध उन्माद, सीमाओं पर तनाव धार्मिक राष्ट्रवाद की हवा के समय ऐसे सम्मेलन की प्रासंगिकता किस प्रकार तय करें?

यह तो सम्मेलन को आयोजित करने वालों की सोच पर निर्भर करता है कि वे कितना मानवतावादी सोचते हैं। अगर ऐसा संघ बनता है तो अच्छा है। मैं तो इससे आगे कहना चाहूँगा कि केवल तीन देशों को लेकर ही महासंघ क्यों बने? पूरे दक्षिण एशिया को मिलाकर यूरोपीय संघ के समान हमारा भी दक्षिण एशिया संघ बने। अगर जनता को यह विचार स्वीकार हुआ तो मानवता के लिए यह बहुत बड़ी सफलता होगी। जहाँ तक माहौल की बात है, हमें इतना निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि बहुत ज्यादा अंधेरा होने के बाद ही सूरज की रोशनी निकलती है।


डॉ. ममता नारायण बलाई
वरिष्ठ अध्यापक हिंदी
रा मा वि नांदशा, ब्लॉक सहाड़ा, जिला भीलवाड़ा

डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर 
अपनी माटी पत्रिका के सह संपादक और वर्तमान में रा मा वि आलमास, ब्लॉक मांडल, जिला भीलवाड़ा में व्याख्याता हिंदी साहित्य के पद पर कार्यरत है।

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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