दक्षिण भारतीय स्त्री विद्रोह
(संदर्भ :- केरल के चाय बागान की महिला श्रमिक)
- डॉ. कृति कुमारी
शोध-सार : वर्तमान विकासवादी तकनीकी युग में हाशिए पर खड़े तमाम विमर्शों में स्त्री विमर्श अत्यंत सम्वेदनशील एवं ज्वलंत मुद्दा है। सामाजिक व आर्थिक रूप से पूँजीवादी शोषण, लिंग भेद की समस्या एवं मानवीय त्रासदी का शिकार होती केरल के चाय बागानों में मजदूरी करने वाली श्रमिक स्त्रियों ने तमाम विसंगतियों, उत्पीड़न, अन्याय एवं अत्याचार तंत्र के खिलाफ आवाज उठाई। अपने अस्तित्व की इस लड़ाई में उन्होंने महात्मा गाँधी के अहिंसात्मक प्रतिरोध का सहारा लिया, नैतिक अस्त्रों द्वारा अपने अधिकारों की रक्षा की तथा उच्च आदर्शों का निर्वाह किया। आधुनिक सभ्य समाज में सबसे पिछड़ी मानी जाने वाली दलित व आदिवासी जनजाति की इन अशिक्षित महिलाओं का एकजुट होकर अपने मूलभूत अधिकारों की माँग करना तथा बिना किसी ट्रेड यूनियन, राजनीतिक गुट या पुरुष के हस्तक्षेप के अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना सम्पूर्ण समाज के लिए एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है, जिसे आधुनिक स्त्री सशक्तिकरण के रूप में देखा जा सकता है।
बीज शब्द : स्त्री श्रमिक, केरल, मुन्नार चाय बागान, असमान पारिश्रमिक, ट्रेड यूनियन, पूँजीवादी शोषण, मूलभूत माँग, लिंग भेद, अस्तित्व का संघर्ष, स्त्री सशक्तिकरण, नैतिक अस्त्र, अहिंसात्मक प्रदर्शन इत्यादि।
मूल आलेख : भारतीय संस्कृति ने धरती व नदियों को माता का स्थान दिया है, जिसकी गोद में रहकर समृद्ध सभ्यताओं का विकास हुआ है। विरोधाभास ही है कि ऐसी संस्कृति में वर्ण, जाति व लिंग भेद जैसी समस्याएँ व्याप्त हैं। यह स्थिति किसी एक खास जाति या वर्ग विशेष की नहीं, बल्कि पूरे समाज की है। पितृसत्तात्मक समाज ने समस्त स्त्री जाति को हमेशा से निस्सहाय व कमजोर दृष्टि से आँका है। अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु पुरुषों ने समाज पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया है, जिसके कारण परिवार के भीतर से लेकर बाहर समाज में भी स्त्रियों का स्थान काफी सोचनीय एवं चिंताजनक रहा है। 'स्त्री के लिए जगह' पुस्तक में संबंधों का नया व्याकरण शीर्षक के अंतर्गत सुमिता ने स्त्री के इसी संघर्षमय जीवन को उजागर किया है कि "तमाम विरोधी परिस्थितियों के बीच खड़े होना और अपनी जगह बनाना आसान नहीं है। औरत के लिए यह संघर्ष दोहरा संघर्ष है। किसी भी सामान्य व्यक्ति की लड़ाई तो उसकी है ही, औरत होने की वजह से एक दूसरे स्तर पर भी उसे निरंतर मोर्चाबद्ध रहना होता है।"[1]
किसी देश में जब विकास की बात की जाती है तो इसका अर्थ किसी एक वर्ग विशेष से नहीं बल्कि उस समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के विकास से होता है। परंतु विकास के नाम पर जब समाज का कोई एक हिस्सा घर से लेकर दफ्तर तक स्त्री होने के पार्श्व प्रभाव और उसकी पीड़ा से बाकी के लोगों द्वारा शोषण तथा अमानवीयता के व्यवहार को सदियों से झेलता आ रहा हो, तो ऐसे समाज में असंतोष का वातावरण पैदा होना स्वाभाविक है। ऐसे दोहरे वातावरण में सम्पूर्ण सामाजिक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। लिंग भेद के कारण स्त्रियों की क्षमता पर सवाल उठाते इस असम्वेदनशील समाज का चेहरा रोमिला दत्ता ने इंडिया टुडे पत्रिका के माध्यम से दिखाया है, जिसमें वे लिखती हैं कि "1991 में, एलआइसी नौकरियों के लिए आवेदन करने वाली महिलाओं को व्यक्तिगत विवरण वाले खाঁचे में एक कॉलम भरने के लिए कहा गया था- क्या उन्हें दर्दनाक मासिक धर्म होता है, क्या वे अतीत में गर्भवती हुई हैं? कानून ने इस पर रोक लगाई, लेकिन नियोक्ता आज भी नौकरियों में पुरुषों को पसंद करते हैं। उनको लगता है कि पुरुष ज्यादा उत्पादक हैं।"[2]
हड़ताल का केंद्र दक्षिण भारत के केरल का मुन्नार नामक स्थान का कन्नन देवन पहाड़ी का विशालकाय चाय बागान पट्टी है। इसके साथ ही झील, बांध, मनोरम एवं आकर्षक प्राकृतिक सुंदरता की दृष्टि से यह क्षेत्र अद्भुत है। प्राकृतिक संसाधनों से लैस होने के कारण यहाँ आय के स्त्रोतों की कोई कमी नहीं है। परन्तु यदि हम आर्थिक विकास के आधार पर सामाजिक विकास की तुलना करें तो यहाँ एक बहुत बड़ा अंतर दिखाई पड़ता है, और यह अंतर है पूँजीपति तथा मजदूर वर्ग के बीच का। 2011 की जनगणना के आधार पर केरल में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक पाई गई है। जिनमें से इन पहाड़ी अंचलों में रहनेवाली आदिवासी महिलाएँ चाय बागानों में मजदूरी का काम करने जाती है। इनकी प्रतिशत संख्या पुरुष श्रमिकों की तुलना में अधिक है। दिहाड़ी मजदूरी ही इनके जीवन यापन का आधार है, इसलिए कठिन परिस्थितियों में भी काम करना इनकी मजबूरी है, जिसका फायदा पूँजीपति वर्ग हमेशा उठाता आया है। मजदूर वर्ग को दबाना उसकी फितरत बन चुकी है, उस पर भी जब ये मजदूर स्त्रियाँ हों तो उनका मनोबल और बढ़ जाता है तथा वे उन्हें बेफिक्र नजरों से देखता है। पिछड़ी, दलित एवं आदिवासी स्त्रियों को बंधुआ मजदूर की तरह काम कराने के बाद भी उनका उचित पारिश्रमिक नहीं दिया जाता (कमाथ और रामानाथन, 2017)।[3] चाय बागानों से मुनाफे का एक बहुत बड़ा हिस्सा इनके मालिकों की जेब में जाता है, तो कुछ हिस्सा बड़े-बड़े राजनेताओं व बिचौलिए की तरह खड़े यूनियन के नेताओं की जेब में, जिनसे इनकी साँठ-गाँठ होती है। प्राकृतिक संसाधन तथा मानव श्रम को अपने अधीन करना इनका मुख्य उद्देश्य था जिसे स्पष्ट करते हुए ममता जैतली एवं श्रीप्रकाश शर्मा लिखते हैं कि "ग्रामीण आदिवासी समाजों से उनके परम्परागत रोजगार के साधन जल, जंगल, जमीन के सरकारीकरण से छिनते गए। एक तरफ उद्योगपति, सेठ, साहूकार, जमींदार और ठेकेदार या दलाल थे तो दूसरी तरफ सरकार। दोनों ही कम से कम मजदूरी देकर मजदूर से ज्यादा से ज्यादा काम करवाना चाहते थे।"[4] परन्तु जिनकी बदौलत ये विश्व बाजार में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं तथा आलिशान बंगलों और गाड़ियों में घूमते हैं, उन गरीब श्रमिकों के प्रति ये सामंतवादी व्यवहार रखते हैं। चाय बागानों की श्रम शक्ति का लगभग 70% हिस्सा इन महिलाओं का होने के बावजूद बढ़ती महঁगाई में न्यूनतम श्रम व तमाम वैषम्य स्थितियों से तंग आकर इस असमानता, भ्रष्टाचार व अन्याय के विरोध में इन चाय बागानों में काम करने वाली श्रमिक महिलाओं ने एकजुट होकर 5 सितम्बर 2015 को एक महीने के लिए हड़ताल कर दिया। जिन्हें पेम्बिल्लई ओरुमाई अर्थात महिला एकता के नाम से जाना गया (राज, 2019)।[5] इस हड़ताल का मुख्य उद्देश्य उनके दैनिक वेतन तथा वार्षिक बोनस में वृद्धि करने के साथ-साथ प्रबल शक्तियों व शोषणकारी नीतियों का दमन, ट्रेड यूनियन नेताओं के भ्रष्टाचार से मुक्ति आदि था। जिसके कारण आज तक इन्हें आर्थिक संघर्षों का सामना करना पड़ा (लेवी, 2017)।[6]
जंगल और औरत दोनों प्रकृति के रूप हैं। परंतु इस कृत्रिम और भोगवादी संस्कृति में स्त्री के वजूद को तोड़ा गया। कब्जियत की प्रवृत्ति के कारण पहले पूँजीपतियों ने जंगलों को अपने कब्जे में कर लिया फिर औरतों को। अभी हाल ही में इंडिया टूडे की रिपोर्ट में 'पहचान और जमीन की खातिर पदयात्रा' शीर्षक के अंतर्गत ओडिशा किसान और खारिया समुदाय के लगभग 4000 आदिवासियों की पदयात्रा देखी गई है, जिनमें अधिकतर महिलाएঁ हैं। इसमें ओडिशा सरकार के कृषि भूमि के अधिग्रहन प्रस्ताव से आम जनता की रोजी-रोटी तथा हजारों आदिवासियों का विस्थापन शामिल है। अवैध रूप से पहले प्रशासन इन गरीब आदिवासियों की जमीनें अपने कब्जे में करके उन्हें सरकारी मुआवजे का हवाला देकर उन्हीं की जमीन से उन्हें बेदखल करने की शाजिस रचता है। नेताओं की बड़े उद्योगपतियों से मोटा पैसा खाने तथा गलत तरीके से गरीबों की जमीन हड़पने की इस नीति का विरोध करती हुई स्वयं भुक्तभोगी महिला लीला सुशीला टोप्पो कहती है कि "पैसे में मेरी दिलचस्पी नहीं है। मैं पुश्तैनी जमीन नहीं दूঁगी, यह मेरी पहचान है। और, सरकारी अधिसूचनाएঁ (फरवरी 2020 और फरवरी 2021 में) अवैध है। जब ग्रामसभा ने जमीनें देने से इनकार किया है, तो सरकार आदेश कैसे जारी कर सकती है?"[7]
इस सभ्यता ने प्रकृति व स्त्री जाति से सब कुछ लिया परंतु बदले में उन्हें ही नष्ट किया, उत्पीड़ित किया और आज यह केवल विमर्श का मुद्दा बनकर रह गया है। मानवीय त्रासदी की चपेट में आया स्त्रियों का यह दलित व आदिवासी समुदाय सभ्य कहे जाने वाले आधुनिक व उच्च सामाजिक संस्कृति के षड़्यंत्र से दूर रहने के कारण सामाजिक स्पर्धा की प्रवृत्ति से कम परिचित था, जिसका फायदा पूँजीपति व उद्योगपतियों ने उठाया। सामाजिक व आर्थिक तौर पर ये महिलाएँ हमेशा से दोहरे शोषण का शिकार हुई हैं। एक तो गरीबी से क्षुब्ध पुरुष वर्ग शराब पीने में अपना सारा पैसा खर्च कर देता है, ऊपर से घर आकर वह अपनी सारी कुंठा का शिकार अपनी स्त्री और बच्चों को बनाता है। इस तरह की घरेलू हिंसा के बाद भी वह स्त्री अपने परिवार का पेट भरने की जद्दोजहद में लगी रहती है। उस परिस्थिति में स्त्री की कमाई ही उसकी गृहस्थी के चरखे में तेल डालती है परंतु घर से लेकर बाहर तक की जिम्मेदारियों का वहन करने की इनके अथक प्रयास में अमानवीयता, असमानता व लिंग भेद जैसी समस्याओं ने इन्हें और भी विषम परिस्थिति में डाल दिया है। जबकि कृषक महिलाओं के आंकड़ों की बात करें तो "ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं में 90.2 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनमें से 85 प्रतिशत, सीमांत कृषि श्रमिक रूप से काम करती हैं। कृषि विभाग के राज्य स्तरीय अधिकारियों से लेकर जिला स्तरीय अधिकारियों तक, सब यह स्वीकारते हैं कि खेतीबाड़ी के जितने भी कठिन, श्रमसाध्य, हाड़तोड़ काम हैं वे अधिकांश काम औरतें ही सम्भालती हैं। कृषि सम्बंधी कुल गतिविधियों को 75 प्रतिशत से 85 प्रतिशत दरअसल उनके द्वारा किया जाता है। जिन गतिविधिओं का मशीनीकरण हुआ है उनसे पुरुष का काम हल्का जरूर हुआ है, पर महिलाओं का नहीं।"[8]
केरल के चाय बगानों में काम करने वाली तमाम महिला मजदूरों का जीवन आर्थिक असमानता व दोहरे शोषण की बलि चढ़ता आया है। स्त्री को कम सक्षम व नाजुक घोषित कर पुरुषों से अधिक कार्य-घंटे श्रम लिया गया जबकि असमानता का यह तर्क ही अपने आप में गलत है जिसे रमणिका गुप्ता के कथन से सिद्ध किया जा सकता है। वे लिखती हैं कि "आदिवासी स्त्रियाঁ मेहनत करने के मामले में पुरुषों से ज्यादा ही क्षमतावान होती हैं। चाहे जंगल से लकड़ी काटना हो या खेत का काम अथवा शिकार, कहीं भी सामाजिक तौर पर गैरबराबरी नहीं थी।"[9] पूঁजीपतियों द्वारा अपनाए गए इस असमानता के बावजूद स्त्रियों को उनका उचित पारिश्रमिक न देना, उनसे अमानवीयता का आचरण करना, विरोध करने पर काम से निकाल देने की धमकी देना, डरा-धमकाकर काम करने को बाध्य करना, शारीरिक शोषण करने जैसी घटनाएঁ आम बात हो गई थी। लैंगिक श्रम विभाजन की इस संस्कृति में स्त्री का चेहरा संघर्षरत व उत्पीड़ित हो चुका था जिसका विरोध किया जाना अब उनके लिए आवश्यक हो चुका था।
सरकार द्वारा सन् 1993 में स्थानीय स्वशासन वाली पंचायती राज संस्थाओं में केरल को लेकर कुल 20 राज्यों में महिलाओं के लिए 50% सीटें आरक्षित की गई, परंतु इसके बाद भी स्त्रियों की दयनीय स्थिति एवं असमानता भारत के लिए चिंता का विषय है। परिस्थिति की जाँच करने पर पता चलता है कि इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि महिलाओं को आरक्षण देकर इन पुरुषों ने ही चुनाव में प्रतिनिधि बनाकर उतारा परंतु अपनी कठपुतली बनाकर। इन महिलाओं के नाम पर इनके परिवार के पुरुष ही इनका सारा कामकाज चलाते हैं, इसलिए सुविधाओं के बाद भी महिलाओं का आशानुकूल विकास नहीं हो पाता। प्रजातांत्रिक मूल्यों का हनन करती वोट की इस राजनीति को अलग रखते हुए सामंती परिवेश से मुक्ति हेतु स्त्रियों का संगठित होना आवश्यक था (रमन, 2020)।[10] असंतोष के कारण विद्रोह जैसा कदम उठाना इसलिए भी आवश्यक हो गया था क्योंकि न्यायालय तथा कानून व्यवस्था से उनका विश्वास उठ चुका था। वे जानती थीं कि कानून और राजनेता उद्योगपतियों की जेब में है। "सीटू के साथ सक्रियता से जुड़े रहे उच्च न्यायालय में वकीय श्री पी.के. शर्मा बताते हैं कि- महिला मजदूरों के सवाल पर यूनियन में चर्चा होती थी। जागरूकता के कार्यक्रम और वर्ग विशेष की बात भी होती थी। पर लैंगिक जागरूकता नहीं थी। उस खाई को भरने के लिए चर्चाएँ होती थीं पर व्यक्तिगत या विशिष्ट केस पर काम नहीं करते थे। कभी व्यक्तिगत रूप से मदद कर देते थे। डर था कि केस करें तो यूनियन ब्रेक हो जायेगी। महिला मजदूरों का स्टेगनेशन था, प्रमोशन नहीं। आदमियों का प्रमोशन ज्यादा आसान था।"[11]
गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों को रोजगार प्रदान करना, उन्हें मूलभूत सुविधाएँ प्रदान करना, हर स्तर पर उनके साथ हो रहे शोषण को समाप्त करना जैसे उपाय केवल एक छलावे की तरह दिखते। केवल कानून में लिखित सुविधाएँ दर्ज कर दी गयी जिसका कोई लाभ इन मजदूरों को कभी नहीं मिला। उनकी पैसों की कमी, कुपोषण का शिकार होते बच्चे, तमाम बीमारियाँ एवं सरकारी सुविधाएँ आदि उन तक नहीं पहुँच पायी क्योंकि इसे लागू करने में सरकार ने कोई सख्त कदम नहीं उठाया और अब जब विवश होकर दलित स्त्रियों ने आवाज उठायी तो अपनी सियासी रोटी सेकने के लिए कई राजनीतिक पार्टियाँ उठकर आ गई तथा इस आंदोलन से जुड़ने का प्रयास किया। इन गरीबों को सहयोग करने के स्थान पर पुलिस भी इनके साथ कम अत्याचार नहीं करती। गरीब होने के कारण पुलिस भी इन्हें हमेशा शक के बिनाह पर पकड़ लेती है और आसान शिकार होने की वजह से अपराधी करार कर देती है। पुलिस का अत्याचार व अपनी बदहाली स्थिति के कारण युवा वर्ग गलत रास्तों पर चले जाते हैं। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए रमणिका गुप्ता ने लिखा है कि ''शोसकों के साथ मिलकर जनता पर, खासकर आदिवासियों पर जुल्म करते हैं पुलिस और प्रशासन! न्यायालय से न्याय में देरी होने या न्याय न मिलने पर अथवा निर्दोषों को बिना वजह पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए जाने से भी असंतोष पनपता है। आदिवासियों व वंचित जमातों में पनप रहे इस असंतोष का परिणाम नक्सलवाद है।"[12] वास्तविकता है कि जब पेट भूखा हो तो कोई धर्म नहीं दिखता, न स्त्री धर्म, न पुरुष धर्म और न ही किसी संगठन का धर्म, उस समय रोटी ही धर्म बन जाता है और उस तक पहुँचने का मार्ग साधना।
कम पढ़ी-लिखी व अनपढ़ गरीब महिलाओं को न्यूनतम मजदूरी, जातिगत भेदभाव, अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई आदि के विरोध में निडर होकर सड़क पर नारे लगाकर बोलना अन्य स्त्रियों को भी हिम्मत देता है। इस विरोध में सबसे बड़ी यह थी कि श्रमिक महिलाओं की क्रांति में हिंसा का कोई स्वर नहीं था, केवल समानता के अधिकार की माँग थी। साथ ही बिना किसी ट्रेड यूनियन या पुरुष के दखल के स्त्रियों ने यह लड़ाई अपने दम पर लड़ी और जीत भी हासिल की (भौमिक, 2015)।[13] उन्होंने संसार को यह सिद्ध करके दिखाया कि अपने अधिकारों की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग हिंसा कभी नहीं हो सकता। हड़ताल के उपरांत यह क्रांति केवल चाय बगानों तक ही सीमित न रहकर कॉफी, दालचीनी आदि वृक्षारोपण क्षेत्रों को भी प्रभावित किया। यह समस्या केवल विकासशील ही नहीं विकसित राष्ट्रों में भी विद्यमान है और जब तक सरकार इस ओर गम्भीर नहीं होगी, आंदोलन होते रहेंगे। इस हड़ताल की सफलता के बाद स्त्रियों ने पंचायत का चुनाव भी जीता तथा अपने अधिकार की लड़ाई में अग्रसर रहीं। दरअसल स्त्री-पुरुष का समान अधिकार समाज में समानता लाता है तथा भेद-भाव को पनपने ही नहीं देता है परंतु महिलाओं को अस्मिता, सम्मान व समानता के लिए हर स्तर पर संघर्ष करना पड़ा है। आज भी कई सारे क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम वेतन दिया जाता है। इसलिए एक समतावादी समाज की स्थापना हेतु यह आवश्यक है कि केवल शोषित महिला वर्ग ही नहीं अपितु हम सभी मिलकर इन श्रमिक महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने हेतु आगे आएँ क्योंकि यह लड़ाई केवल उनकी नहीं बल्कि सम्पूर्ण असामाजिक तत्वों, अमानवीय संरचनाओं व भ्रष्टाचार के विरोध की है।
निष्कर्ष : समग्र रूप में यह पितृसत्तात्मक समाज का विरोध, अत्यधिक श्रम एवं न्यूनतम पारिश्रमिक, घरेलू हिंसा, उत्तराधिकार में समानता की लड़ाई, पति द्वारा परित्यक्त होने के बाद भरण-पोषण का संघर्ष, यौन उत्पीड़न, लिंग भेद की समस्या से त्रस्त स्त्री की संघर्ष गाथा है। किंतु इस रोटी तथा सम्मान तक पहुँचने के लिए जो अहिंसा और मानवता का मार्ग चुना गया, वह आज के आधुनिक युग को एकता एवं मानवता का संदेश देता है। इन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षियों, जंगलों, खेत-खलिहानों व समग्र प्रकृति से सदैव प्रेम किया है परंतु हमारे समाज का यह हिस्सा सदियों से पुरुषों द्वारा छला गया है, इसके बावजूद अहिंसा तथा सत्य की आस्था व विश्वास इनके जीवन का आधार बना हुआ है। प्रसिद्ध मजदूर किसान शक्ति संगठन की संस्थापिका एवं अध्यक्ष अरुणा रॉय 'आधी आबादी का संघर्ष' पुस्तक की भूमिका में फ्लेविया एग्नेस की उक्ति याद करते हुए लिखती हैं कि "मध्यमवर्गीय औरतों के लिए 'Personal is political' है वहीं मजदूर महिलाओं के लिए 'Political is personal' है। इसी कारण नारी आंदोलन समता, समानता और न्याय का आकांक्षी आंदोलन होकर भी टकराव या पुरुष विरोधी आंदोलन बनने के बजाय समाज को नैतिक आदर्शों से युक्त मानवीय गुणों की प्रेरणा देने वाला आंदोलन बना जो कि अपने आप में ही ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण है जो सदैव प्रशंसनीय और अनुकरणीय है।"[14] गाँधीजी भी हमेशा एक वर्गविहीन, जातिविहीन, शोषण-मुक्त समाज की स्थापना करना चाहते थे। सर्वोदय की कल्पना कर ही उन्होंने ट्रस्टीशिप का प्रतिपादन किया था कि इसके माध्यम से अमीर लोग गरीब लोगों की मदद कर सकेंगे। परंतु आज वह सब कुछ विपरीत हो चुका है। आज अमीर बस इसी ताक पर रहता है कि गरीबों को और कितना लूट लिया जाए। स्त्रियों के लिए वे विशेषकर यह चाहते थे कि "स्त्रियों को बराबरी का अधिकार मिले, उन्हें सम्मान हासिल हो। धार्मिक घृणा-द्वेष का अंत हो। हिंदू धर्म को छुआछूत और गैर-बराबरी के कलंक से मुक्त किया जाए। देखा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में सत्ताएँ बदली, पर भिन्न व्यवस्था न आ सकी।"[15] आधुनिक कहे जाने वाले लोगों में गाँधी भले ही मर चुके हैं परंतु पिछड़े कहे जाने वाले लोगों में गाँधी आज भी जिन्दा हैं। वास्तव में गाँधीजी के सत्य को ईश्वर मानना तथा सत्य के संघर्ष के लिए अहिंसा का मार्ग अपनाने के सिद्धांतों को इन अशिक्षित व गरीब महिलाओं ने सार्थक किया है। परंतु असमानता की इस अग्नि में स्त्रियों के भविष्य का खतरा अब भी बना हुआ है। अत: अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए उनके भोगे हुए दर्द व पीड़ा को समझना तथा समाज में समता लाना सम्पूर्ण समाज के विकास के लिए आवश्यक है।
संदर्भ :
[1] सुमिता, स्त्री के लिए जगह, अंक 7, सम्पादक- राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, तृतीय संस्करण 2006, आवृत्ति 2014, पृष्ठ संख्या 156
[2] रोमिला दत्ता, इंडिया टुडे, 31 अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 105
[3] Kamath, R., & Ramanathan, S. (2017). Women tea plantation workers’ strike in Munnar, Kerala: Lessons for trade unions in contemporary India. Critical Asian Studies, 49(2), 244-256.
[4] ममता जैतली, श्रीप्रकाश शर्मा, आधी आबादी का संघर्ष, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2011, पृष्ठ संख्या 173
[5] Raj, J. (2019). Beyond the unions: The Pembillai Orumai women's strike in the south Indian tea belt. Journal of Agrarian Change, 19(4), 671-689.
[6] Levy, S. (2017). Munnar plantation strike, 2015: A case study of Keralan female tea workers’ fight for justice.
[7] रोमिला दत्ता, इंडिया टुडे, 9 नवम्बर 2022, पृष्ठ संख्या- 12
[8] ममता जैतली, श्रीप्रकाश शर्मा, आधी आबादी का संघर्ष, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2011, पृष्ठ संख्या 79
[9] रमणिका गुप्ता, आदिवसी अस्मिता का संकट, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृष्ठ संख्या 76
[10] Raman, K. R. (2020). Can the Dalit woman speak? How ‘intersectionality’helps advance postcolonial organization studies. Organization, 27(2), 272-290.
[11] ममता जैतली, श्रीप्रकाश शर्मा, आधी आबादी का संघर्ष, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2011, पृष्ठ संख्या 168
[12] रमणिका गुप्ता, आदिवसी अस्मिता का संकट, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृष्ठ संख्या 33
[13] Bhowmik, S. K. (2015). Living conditions of tea plantation workers. Economic and political weekly, 29-32
[14] ममता जैतली, श्रीप्रकाश शर्मा, आधी आबादी का संघर्ष, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2011, पृष्ठ संख्या 13
[15] शंभुनाथ(सम्पादक), वागर्थ, अंक 279, अक्टूबर 2018, पृष्ठ संख्या 9
डॉ. कृति कुमारी
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सुराना कॉलेज, बेंगलुरु विश्वविद्यालय
सम्पर्क : kritikumari.hin@suranacollege.edu.in,9452980420
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
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