(मीडिया के विशेष संदर्भ में)
- एजाज़ुल हक़
शोध सार :
भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी सामासिकता में निहित है। प्राचीन काल से ही अनेक जातियाँ, अनेक मत, अनेक संस्कृतियाँ आती रहीं और भारत में घुल-मिलकर एकाकार होती गईं। यह भारतीय संस्कृति की सामासिकता के कारण ही संभव हो सका। परस्पर मिल-जुलकर रहने से जब विभिन्न संस्कृतियाँ एक-दूसरे को परस्पर प्रभावित करने लगतीं हैं, एक-दूसरे से आदान-प्रदान करने लगती हैं, तो उस मिश्रित संस्कृति को ही सामासिक संस्कृति कहा जाता है। सामासिक संस्कृति में हिन्दू-मुस्लिम संबंध एक ऐसा पक्ष रहा है जो प्रारंभ से ही तनावपूर्ण रहा है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष और बहु-सांस्कृतिक राष्ट्र के लिए आज हिन्दू-मुस्लिम दोनों के बीच सामंजस्य होना अति आवश्यक है। धार्मिक मतों में भिन्नता के बाद भी दोनों का परस्पर भाईचारे के साथ रहना सामासिक संस्कृति की उपलब्धि है तो वहीं, परिस्थिति विशेष में दोनों के बीच का टकराव उसके लिए चुनौती। इस टकराव का सबसे बड़ा कारण सांप्रदायिकता है।
सांप्रदायिकता फैलाने में आज मीडिया जैसे प्रचार माध्यमों की अहम भूमिका है। मीडिया का जब राजनीतिक इस्तेमाल होने लगता है तब उसकी सांप्रदायिकता का एक हिंसक और विकराल रूप उभरकर सामने आता है। ऐसी सांप्रदायिकता भारतीय समाज की समरसता और बहुलता में एक नकारात्मक परिवर्तन लाती है। उस स्थिति में इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़कर समाज का धार्मिक ध्रुवीकरण किया जाता है। तब मीडिया इस प्रोपेगेंडे का एक सर्वसुलभ माध्यम बन जाता है।
बीज
शब्द : सामासिक
संस्कृति,
सांप्रदायिकता,
मीडिया,
धारावाहिक,
पौराणिक
आख्यान,
विविधता,
राजनीति,
बहुसंख्यकवाद,
जनमानस,
निष्पक्षता,
असुरक्षा
बोध
इत्यादि।
मूल
आलेख : सांप्रदायिकता
फैलाने
में
मीडिया
की
मुख्यतः
दो
भूमिकाएँ
होती
हैं।
पहली
अफवाह
फैलाने
के
रूप
में
और
दूसरी
सांप्रदायिक
शक्तियों
का
महिमामंडन
करने
के
रूप
में।
सांप्रदायिक
शक्तियों
द्वारा
विरोधी
संप्रदाय
के
प्रति
समाज
में
लम्बे
समय
तक
फैलायी
गई
घृणा
जल्द
ही
इन
अफवाहों
का
रूप
धारण
करने
लगती
हैं।
ये
अफवाहें
दूसरे
संप्रदाय
द्वारा
हिंसा
और
असुरक्षा
बोध
की
कल्पना
करके
उन्हें
आत्मरक्षा
के
नाम
पर
हिंसक
गतिविधियों
में
शामिल
करने
के
लिए
प्रेरित
भी
करती
हैं।
मीडिया
जब
सांप्रदायिक
शक्तियों
का
महिमामंडन
करता
है
तो
संबंधित
संप्रदाय
बेखौफ़
होकर
उन्मादी
भीड़
में
शामिल
होने
लगता
है।
उस
स्थिति
में
सांप्रदायिक
शक्तियों
को
घृणा
और
हिंसा
फैलाने
का
नैतिक
बल
प्राप्त
होता
है।
सांप्रदायिक
शक्तियाँ
तब
तक
हाशिए
पर
खड़ी
रहती
हैं
जब
तक
कि
उनकी
गतिविधियों
को
न्यायसंगत
ठहराने
के
लिए
उनके
पक्ष
में
प्रचारतंत्र
काम
नहीं
करता।
मीडिया
या
प्रचारतंत्र
के
माध्यम
से
सांप्रदायिक
शक्तियाँ
एक
कथित
जनमत
का
निर्माण
करती
हैं
और
अपनी
हर
गतिविधि
को
जनसमर्थन
के
नाम
पर
अंजाम
देकर
उसे
मुख्यधारा
में
लाने
का
काम
करती
हैं।
धार्मिक
कट्टरपंथी
ताकतों
ने, “मीडिया
और
उसके
हथकंडों
के
जरिये
जनमानस
के
रूझान
बदलने
की
तरकीब
आजमाकर
ये
तत्त्व
राजनीति
पर
हावी
हुए
हैं…”1 मीडिया
और
प्रचारतंत्र
के
अन्य
माध्यमों
की
भूमिका
सांप्रदायिक
घृणा
फैलाने
से
लेकर
धर्मनिपरेक्ष
सोच
रखने
वालों
के
सामने
कई
तरह
की
चुनौतियाँ
पैदा
करने
में
है।
यह
बहुसंख्यकवाद
के
सिद्धांत
पर
आधारित
होने
से
अल्पसंख्यकों
और
हाशिए
के
समाज
के
लिए
खतरा
उत्पन्न
करता
है,
“नस्लवादी,
जातीय
एवं
धार्मिक
सभी
प्रकार
की
उपद्रवी
ताकतों
की
अन्तरराष्ट्रीय
नेटवर्किंग
ने
सभी
धर्मनिरपेक्ष
ताक़तों
के
लिए
खतरा
उत्पन्न
कर
दिया
है,
जो
सामाजिक,
सांस्कृतिक,
शैक्षणिक
और
राजनीतिक
व्यवस्था
में
बहुमतवाद
के
सिद्धांत
को
समर्पित
है।
ये
मीडिया
और
इंटरनेट
का
व्यापक
प्रयोग
कर
रहे
हैं।”2
मीडिया
अफवाह
और
सांप्रदायिक
शक्तियों
का
महिमामंडन
करके
समाज
में
व्यापक
रूप
से
हिंसा
और
असुरक्षा
का
माहौल
पैदा
करने
की
क्षमता
रखती
है।
सूचना
क्रांति
के
इस
युग
में
किसी
भी
अफवाह
को
घर-घर
तक
पहुँचाने
में
मीडिया
को
मिनट
भी
नहीं
लगता।
तब
मीडिया
द्वारा
समाज
के
व्यापक
रूप
से
प्रभावित
होने
की
बात
से
इंकार
नहीं
किया
जा
सकता।
अगर
मीडिया
सांप्रदायिक
विचारधारा
का
वाहक
बन
जाए
तो
समाज
में
हर
समय
अस्थिरता
और
एक
भय
का
माहौल
बन
जाता
है।
भारतीय
समाज
में
मीडिया
के
माध्यम
से
पहली
बार
योजनाबद्ध
तरीके
से
टीवी
धारावाहिकों
ने
धर्म
और
राजनीति
का
घालमेल
किया।
इससे
सांप्रदायिक
समस्या
को
और
विकराल
बनाने
में
मदद
मिली।
नब्बे
के
दशक
में,
“मीडिया
ने
भारतीय
जीवन
के
हर
एक
पहलू
को
छुआ।
सरकार
और
शासक
(राजनीतिक) दल
ने
इसे
नियंत्रित
किया
और
इस
नई
सत्ता
के
उपकरण
का
पूरा
फायदा
उठाया।
मिथकीय
पुनर्निर्माण
के
जरिए
धर्म
और
राजनीति
का
एक-दूसरे
में
घाल-मेल
किया
गया,
जिससे
अभूतपूर्व
स्थिति
निर्मित
हुई
थी।
रामायण
जैसे
असाधारण
रूप
से
लोकप्रिय
हुए
टीवी
धारावाहिकों
ने
अयोध्या
में
राममंदिर
की
मुहिम
के
माहौल
को
बनाने
में
सहायक
स्थितियाँ
पैदा
की…”3 बाबरी
मस्जिद
प्रकरण
में
प्रेस
की
भूमिका
संदेह
के
घेरे
में
रहती
है
जिसे
इन
घटनाओं
का
अंदेशा
नहीं
हुआ।
ऊपर
से, “…स्थानीय प्रेस
ने
क्या
किया? सम्भवतः वे
भी
सांप्रदायिकता
का
उफान
लाने
में
अपने
आसपास
के
नेताओं
जितने
ही
जिम्मेदार
हैं,
जिनके
निकट
ही
वे
फलते-फूलते
हैं।”4
‘हमारा
शहर
उस
बरस’ उपन्यास में
शहर
में
सांप्रदायिक
तनाव
फैलता
है
तो
टी.
वी.
के
माध्यम
से
धार्मिक
गुरु
माहौल
को
और
सांप्रदायिक
बनाने
में
जुट
जाते
हैं।
टी.
वी.
पर
स्वामी
जैसे
दिखने
वाली
आकृति
बोलती
है,
“आज
हमारे
देश
की
राजनीति
हमारा
अपमान
कर
रही
है।
हमारे
लिए
अपने
धर्म
का
पालन
वर्जित
है।
हमें
अपने
त्योहारों
पर
आनंद
व्यक्त
करने
की
स्वतंत्रता
नहीं
है।
यह
कौनसी
स्वतंत्रता
हमारे
देश
को
मिली
है? क्या भारत
सच
में
स्वतंत्र
है? हम अपनी
भूमि
अपने
लिए
माँगते
हैं
तो
यह
सम्पत्ति
की
लोलुपता
नहीं
है,
केवल
अपने
चिथड़े
गए
मान
को
पुनः
जोड़ने
की
इच्छा
है…”5 टी.
वी.
पर
स्वामी
सरीखे
दिखने
वाले
शख्स
जहाँ
एक
तरफ़
‘वसुधैव
कुटुम्बकम्’ की बात
करता
है
तो
वहीं
दूसरी
तरफ़
‘आत्मसम्मान’ के नाम
पर
हिन्दुओं
को
ललकार
कर
‘रणक्षेत्र
की-सी
वाणी’ में अभिवादन
किया
जाता
है।
टी.
वी.
धार्मिक
प्रवचन
के
साथ-साथ
लोगों
की
सांप्रदायिक
मनोवृत्ति
निर्मित
करने
में
सहायक
हो
जाता
है।
अखबारों
की
बात
की
जाए
तो
वहाँ
सांप्रदायिकता
और
सांप्रदायिक
सौहार्द,
दोनों
तरह
के
विचार
रखने
वाले
अखबार
हैं।
एक
ही
घटना
को
कोई
अखबार
सांप्रदायिक
दृष्टि
से
बेचता
है
तो
कोई
अखबार
सांप्रदायिक
सद्भाव
बनाए
रखने
का
मिशन
लेकर
चलता
है।
‘हमारा
शहर
उस
बरस’ में दंगे
का
असर
पुलिस
अफ़सरों
के
तबादले
पर
भी
पड़ता
है।
उन
तबादलों
को
अखबार
कैसे
देखते
हैं
इसे
स्पष्ट
किया
गया
है,
“उसी
बरस
निरे
तबादलों
की
खबर
भी
आती
रही।
दंगा
हुआ
और
एक
गया।
दंगा
हुआ,
दूसरा
गया।
एक
अखबार
इल्जाम
दे
कि
वह
सांप्रदायिक
अफसर
था,
दूसरा
कहे
उसने
शहर
के
गुंडों
को
ठीक
कर
दिया
था
तो
उन्होंने
एम.
एल.
ए.
से
मिलकर
उसे
निकलवा
दिया।”6
इस
उपन्यास
में
बाज़ार
का
भी
प्रभाव
अखबार
पर
दिखता
है।
अखबार
मिशन
के
बजाए
विशुद्ध
मुनाफे
का
सौदा
बनकर
रह
गया
है।
अब
अखबारों
में
वैसे
लेख
नहीं
छपते
जिनसे
सामाजिक
समरसता
को
बढ़ावा
मिले।
अब
तो
वैसे
लेख
धड़ल्ले
से
छपते
हैं
जो
अखबार
की
प्रतियों
को
अधिक-से-अधिक
ग्राहकों
तक
पहुँचाए।
भले
उसके
लिए
सनसनीखेज
और
भड़काऊ
बातें
क्यों
न
छापनी
पड़े।
बाबू
पेंटर
जैसे
अखबार
के
संपादकों
के
लिए
श्रुति
टिप्पणी
करती
है,
“आपको
तो
अपनी
रोजी
की
पड़ी
है
कि
अखबार
में
वह
लिखो,
जिससे
अखबार
बिके
और
इन
बातों
को
(समरसता बाली बातें)
तो
लोग
हेय
समझने
लगे
हैं,
लिखिए,
‘इस्लाम
के
पिल्ले’ तब फड़केंगे।”7 बाबू
पेंटर
जैसे
संपादक
का
मठ
के
महंत
की
पोल
खोलने
के
डर
में
श्रुति
बहुसंख्यकों
की
राय
से
सहमति
देखती
है।
वह
कहती
है,
“…आप एक
तरह
की
हवा
में विचरते हैं,
जिसका
रुख
वही
मेजॉरिटी
कम्यूनिटी
तय
कर
रही
है…”8
इस
उपन्यास
में
सांप्रदायिक
शक्तियाँ
अपने
प्रचार-प्रसार
के
लिए
केवल
मीडिया
पर
निर्भर
नहीं
हैं।
वे
आधुनिक
तकनीकी-प्रौद्योगिकी
का
इस्तेमाल
करने
में
भी
पीछे
नहीं
हैं।
वे
कैसेट
के
माध्यम
से
उत्तेजक-हिंसक
भाषण
प्रसारित
करती
हैं
तो
दूसरी
तरफ़
लाउडस्पीकरों
के
माध्यम
से
हिंसा
के
लिए
खुलेआम
ललकारती
हैं।
सांप्रदायिक
शक्तियाँ
अपनी
गतिविधियों
के
लिए
लाउडस्पीकरों
का
व्यापक
इस्तेमाल
पहले
ही
कर
लेती
हैं
जबकि
पुलिस-प्रशासन
उनके
द्वारा
फैलाई
गई
अफवाहों
पर
लगाम
लगाने
के
लिए
इसका
इस्तेमाल
बाद
में
करती
है।
‘काला
पहाड़’ उपन्यास में
बाबरी
मस्जिद
विध्वंस
की
वास्तविकता
से
मीडिया
आँखें
चुरा
रहा
था।
देशी
और
विदेशी
मीडिया
दोनों
दो
तरह
से
खबर
दे
रहे
थे।
देशी
मीडिया
पर
किसी
तरह
का
दबाव
स्पष्ट
देखा
जा
सकता
था,
“देर
रात
तक
रेडियो
और
दूरदर्शन
ने
अयोध्या
से
संबंधित
किसी
भी
अप्रिय
घटना
की
कोई
खबर
नहीं
दी
है
लेकिन
विदेशी
मीडिया
ने
अयोध्या
में
घटने
वाली
घटनाओं
का
ज्यों
का
त्यों
ऐसा
प्रसारण
किया
है
कि
अपने
स्वदेशी
मीडिया
की
दरिद्रता
पर
लोग
हँसे
बिना
नहीं
रह
सके।”9
‘आखिरी
कलाम’ उपन्यास में
मीडिया
के
कई
सांप्रदायिक
चेहरे
हैं।
वह
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष
हर
तरह
से
सांप्रदायिक
मानसिकता
का
वाहक
नजर
आता
है।
अप्रत्यक्ष
रूप
से
जब
उसे
सांप्रदायिक
गतिविधियों
में
शामिल
होना
होता
है
तो
वह
रोज़-रोज़
की
खबरों
से
लोगों
की
मानसिकता
बदलने
की
कोशिश
करता
है।
वही
रोज
की
खबरें
महीनों-बरसों
बाद
जनमानस
के
रूप
में
प्रचारित
की
जाने
लगती
हैं।
कथित
जनमानस
तैयार
करने
के
बाद
मीडिया
खुलकर
सांप्रदायिक
खबरें
प्रसारित
करने
लगता
है।
प्रोफेसर
तत्सम
पाण्डेय
द्वारा
‘किताबें
शक
पैदा
करती
हैं’ विषय पर
दिए
गए
व्याख्यान
अखबारों
के
लिए
सनसनीखेज
खबर
बन
जाती
हैं।
खबर
के
पीछे
अखबारों
का
सांप्रदायिक
एजेंडा
सामने
आने
लगता
है।
इस
उपन्यास
में
‘अखबार
एक
विचरना
है’ शीर्षक अध्याय
पूरी
तरह
से
अखबारों
की
सांप्रदायिक
मनोवृति
पर
केन्द्रित
है।
अखबारों
की
अप्रत्यक्ष
सांप्रदायिकता,
जो
कि
कथित
जनमानस
के
रूप
में
प्रचारित-निर्मित
की
जाती
हैं।
उस
पर
तत्सम
पाण्डेय
की
टिप्पणी
है, “कोई
घराना,
कोई
संपादक,
कोई
संवाददाता,
यहाँ
तक
कि
पाली
में
मेज़
पर
बैठा
हुआ
कोई
उप-संपादक
भी
जहाँ
चाहे
वहाँ
किसी
घटना
को
तोड़-मरोड़
देते
हैं।
उस
पर
अपना
रंग,
या
कहिए
अपनी
व्याख्याएँ
मढ़
देते
हैं।…यह
मत
समझिए
कि
अखबार
एक
तात्कालिक,
क्षणभंगुर
सूचना
या
व्याख्या
भर
है।
रोज़-रोज़
मिलकर,
तिल-तिल
वह
एक
पाठक
के
भीतर
नई-नई
झल्लाहटें
पैदा
करता
है।
फिर
कई
रोज़।
दिन-महीने
और
बरस।
और
फिर
जो
तैयार
होता
है
उसे
इन
दिनों
कहते
है—‘जनमानस।’
…‘जनमानस’ के इन्हीं
निर्देशित
हमलावरों
का
जमावड़ा
उन
दिनों
अयोध्या
और
फैजाबाद
में
था…”10 तत्सम
पाण्डेय
बाबरी
मस्जिद
विध्वंस
के
नाम
पर
अयोध्या
में
घटित
होने
वाली
घटना
में
अखबारों
द्वारा
उकसाए
जाने
का
भी
एक
पक्ष
देखते
हैं।
अखबार
का
वही
पक्षपातपूर्ण
रवैया
उन
दिनों
छोटी
से
छोटी
घटना
का
एक
सांप्रदायिक
रंग
देने
को
आतुर
दिखता
था।
‘सचल
ग्रामीण
पुस्तकालय’ को आग
के
हवाले
करने
का
एक
बड़ा
कारण
अखबारों
का
यही
रवैया
था।11
घटना
कोई
भी
घटे
अखबार
वही
खबर
छापने
को
प्रतिबद्ध
थे
जिनसे
सांप्रदायिक
भावनाएँ
भड़कती
हों।
‘सचल
ग्रामीण
पुस्तकालय’ के उद्घाटन-अवसर
पर
एक-दो
संवाददाताओं
को
छोड़कर
कोई
उपस्थित
नहीं
था।
लेकिन
तत्सम
पाण्डेय
के
वक्तव्य
को
तोड़-मरोड़कर
लगभग
सभी
अखबार
ऐसे
खबर
छाप
रहे
थे
जिनसे
संवाददाताओं
का
प्रत्यक्षदर्शी
होने
का
पूरा
विश्वास
हो
जाए।
प्रत्यक्षदर्शी
के
माध्यम
से
प्रसारित
खबरों
पर
संदेह
की
गुंजाइश
न
के
बराबर
होती
है।
यही
कारण
है
कि
संवाददाता
कथित
प्रत्यक्षदर्शी
होने
का
फायदा
उठाकर
ऐसी
खबरें
दे
रहे
थे
जिनसे
तत्सम
पाण्डेय
के
प्रति
लोगों
की
धार्मिक
भावनाएँ
ज़्यादा-से-ज़्यादा
भड़कायी
जा
सकें।
अखबारों
की
खबर
का
एक
ही
निष्कर्ष
था
कि
तत्सम
पाण्डेय
ने
हिन्दू
धर्म
का
अपमान
किया
है।
हिन्दू
धर्म
के
अपमान
के
नाम
पर
अखबार
बाबरी
मस्जिद
पर
लोगों
का
गुस्सा
भड़काने
की
जुगत
में
भी
लगे
थे।
इसका
एक
उदाहरण
है
‘कठमुल्ला
फिर
आया’ शीर्षक से
की
गई
रिपोर्टिंग,
“रामलला
की
पावन
नगरी
अयोध्या
में
धर्म
की
हानि
करने
के
लिए
कठमुल्ला
बार-बार
आता
है।
देखने
में
आया
है
कि
छह
वर्षों
बाद
वह
पुनः
अयोध्या
में
दिखाई
पड़ा।
जिसे
विद्वान
लोग,
पुलिस
और
सारे
अखबारनवीस
प्रोफेसर
तत्सम
पांडेय
समझ
रहे
हैं,
वह
एक
भारी
भ्रम
है।
अयोध्या
की
सारी
गढ़ियाँ,
और
मठ,
और
अखाड़े,
ज्योतिष्पीठ,
भविष्यद्रष्टा
और
साथ
ही
हमारी
धर्मप्राण
जनता
सभी
का
मानना
है
कि
प्रोफेसर
पांडेय
और
कोई
नहीं,
यह
वही
कठमुल्ला
है
जो
पहली
बार
1862 में आया था।
फिर
सन
1906 में। आज़ादी के
बाद
वह
अयोध्या
में
दो
बार
देखा
गया-
पहली
बार
सन्
1949 में और दूसरी
बार
1987 में। हर बार
वह
रामजन्म
भूमि
पर
पच्छिम
की
ओर
से
चढ़ता
है।”12 हिन्दुओं
की
धार्मिक
भावना
आहत
होने
के
नाम
पर
अखबार
ने
जो
प्रतीक
गढ़ा
है
उसमें
तत्सम
पाण्डेय
के
बजाए
अनायास
किसी
मुसलमान
खलनायक
का
बिम्ब
उभर
आता
है।
राममंदिर
बनने
में
बाबरी
मस्जिद
बाधा
है
जो
कि
मुसलमानों
का
उपासना-स्थल
है।
अखबार
को
इसलिए
मुसलमान
खलनायक
बनाना
ज़रूरी
लगता
है
जो
कि
कठमुल्ले
के
रूप
में
सामने
लाया
जाता
है।
उसकी
पूरी
पहचान
ही
मुसलमानों
का
पहनावा-ओढ़ावा
ली
हुई
है
ताकि
राममंदिर
बनाने
में
विघ्न
डालने
के
रूप
में
उसका
आसानी
से
जनमानस
में
बिम्ब
बन
सके।
वे
धार्मिक
पहचान
हैं-
मुस्लिम
धर्म
में
पच्छिम
दिशा
को
पवित्र
मानने
के
कारण
‘रामजन्म
भूमि
पर
विघ्न
डालने
के
लिए
चढ़ने
वाले
शख्स
का
पच्छिम
की
ओर’ से चढ़ना।
विघ्न
डालने
वाले
शख्स
का
लूँगी
पहना
होना
जो
कि
मुसलमानों
का
पहनावा
माना
जाता
है, ‘उसने
अपनी
चारखाने
की
लुंगी
खोलकर
हवा
में
झंडे
की
तरह
लहराई
और
चीखने
लगा’13 और
खुद
को
नमाजी
बताना,
‘मैं
कठमुल्ला
हूँ
और
पाँचों
वक़्त
की
नमाज
अदा
करता
हूँ।’14 इन
सभी
मुस्लिम
प्रतीकों
के
माध्यम
से
अखबार
अपना
सांप्रदायिक
एजेंडा
आगे
बढ़ाना
चाहता
था।
राममंदिर
आंदोलन
को
मीडिया
ने
किस
सांप्रदायिक
दृष्टि
से
देखा
था
इसका
एक
उदाहरण
है,
“...कमण्डल आन्दोलन
या
लालकृष्ण
आडवाणी
की
रथयात्रा
को
हिन्दू
पुनरुत्थान
के
रूप
में
जनता
के
समक्ष
प्रस्तुत
किया
गया।
हिन्दी
पत्रकारिता
की
यह
त्रासद
स्थिति
थी।”15
अयोध्या
में
कारसेवकों
का
मंदिर
आन्दोलन
के
दौरान
एक
अखबार
वहाँ
विदेशी
जासूस
पाए
जाने
की
खबर
लिखता
है।
विदेशी
जासूस
मंदिर
आन्दोलन
में
बाधा
पहुँचाने
वाले
या
बहुसंख्यक
हिन्दू
समाज
के
लिए
खतरे
के
रूप
में
पेश
किया
गया
है
ताकि
असुरक्षा
के
नाम
पर
उन्हें
संगठित
किया
जा
सके।
‘अयोध्या
में
एक
विदेशी
जासूस’ शीर्षक से
अखबार
लिखता
है,
“सुनने
में
आया
है
कि
प्रोफेसर
(तत्सम पाण्डेय)
इस
दुर्घटना
के
बाद
उस
तथाकथित
देश
के
लिए
रवाना
हो
चुके
हैं
जिसके
वे
एजेंट
हैं।
…उनके साथ आए
उन
दो
विदेशियों
का
भी
कहीं
अता-पता
नहीं
है।”16 तत्सम
पाण्डेय
विदेशी
एजेंट
तथा
उनके
साथ
आए
बिल्लेश्वर
(गोद लिया पुत्र)
और
सर्वात्मन(शिष्य)
विदेशी
करार
दिए
जाते
हैं।
किसी
भारतीय
को
विदेशी
एजेंट
या
विदेशी
ताकतों
के
लिए
काम
करने
का
आरोप
लगाने
में
उसे
हिन्दुओं
के
लिए
खतरा
बताने
की
रणनीति
छिपी
रहती
है।
यह
अंधराष्ट्रवादी
प्रतिक्रिया,
“हिन्दू
प्रतिक्रिया
का
रूप
लेती
जा
रही
है।
इसके
पीछे
दो
प्रमुख
धारणाएँ
काम
करती
हैं
और
इसे
मजबूती
प्रदान
करती
हैं।
ये
धारणाएँ
आज
हिन्दुओं
के
मन
में
घर
करती
जा
रही
हैं।
पहली
धारणा
यह
है
कि
राष्ट्र
और
राष्ट्रीय
एकता
खतरे
में
है।
शासक
समूह
लोगों
में
यह
भावना
भरने
में
कामयाब
रहा
है।
परिणामस्वरूप,
लगभग
हर
तबके
के
लोगों
में
इस
बात
को
लेकर
बेचैनी
है
कि
हमारे
देश
की
हालत
काफी
बुरी
है,
हम
बिखराव
की
ओर
बढ़
रहे
हैं
और
इसके
लिए
मूलतः
अल्पसंख्यकों
की
राजनीति
और
विदेशी
प्रभाव,
यानी
बहुचर्चित
‘विदेशी
हाथ’ जिम्मेदार है।”17 दुर्भाग्य
से
विदेशी
हाथ
को
भारत
में
रहने
वाले
अल्पसंख्यक
समुदायों
के
साथ
जोड़
दिया
जाता
है
जिनमें
मुसलमानों
को
पाकिस्तान
के
साथ
और
पश्चिमी
देशों
को
ईसाइयों
के
साथ
जोड़ना
शामिल
है।18
इस
तरह
‘विदेशी
हाथ’ या ‘विदेशी जासूस’ में एक
तरह
से
सांप्रदायिक
सोच
निहित
है
जो
कि
अल्पसंख्यक
विरोध
पर
आधारित
है।
नब्बे
के
दशक
में
टी.
वी.,
इंटरनेट
जैसे
जनसंचार
के
नए
माध्यमों
ने
धार्मिक
चमत्कारों
के
व्यापक
प्रसारण
के
माध्यम
से
लोगों
की
तार्किकता
और
विवेक
पर
असर
डालना
शुरू
किया।
धार्मिक
चमत्कारों
की
अफवाहें
फैलाकर
संचार
के
ये
नए
माध्यम
लोगों
की
सामूहिक
चेतना
को
अपेक्षाकृत
अधिक
धार्मिक
और
संकीर्ण
बनाना
शुरू
कर
चुके
थे।
‘दस
बरस
का
भँवर’ उपन्यास में
गणेश
जी
की
मूर्ति
को
दूध
पिलाने
की
घटना
का
जिक्र
आया
है
जिसे
टी.
वी.
ने
बड़े
पैमाने
पर
प्रचारित
किया
था,
“…टी. वी.
पर
रात
की
खबर
थी—
सिर्फ़
जगह-जगह
गणेश
जी
ने
दूध
पिया।
मन्दिरों
में
दूध
के
कटोरे
लिए
भक्तों
की
कतारें
थीं। भक्त हर
उम्र
के
थे।
सबको
कोई-न-कोई
हाजत
थी।
स्त्रियाँ
कुछ
ज्यादा
थीं।
क्या
आपको
लगता
है
कि
गणेश
जी
दूध
पी
रहे
हैं? संवाददाता सवाल
पूछकर
माइक
भक्त
के
मुँह
में
लगा
देता
है।
भक्त
कहता,
गणेश
जी
की
लीला
है,
वे
कुछ
भी
कर
सकते
हैं! गणेश जी
को
अपने
हाथ
से
दूध
पिलाना
कोई
मनोकामना
पूरी
होते
देखने
की
तरह
था।”19 ऐसी
चमत्कारिक
घटनाओं
का
मीडिया
द्वारा
प्रसारित
होना
जनचेतना
को
धार्मिक
रूप
से
संकीर्ण
बनाने
जैसे
था।
“टीवी,
इंटरनेट
और
मोबाइल
जैसे
तकनीकी
विकासों
ने
धार्मिक
और
संकीर्ण
सामुदायिक
शिक्षाओं
को
और
भी
आसान
और
प्रभावी
बना
दिया।
इन
‘तकनीकी
चमत्कारों’ ने धार्मिक
चमत्कारों
को
पुनर्स्थापित
कर
दिया
था।
1995 में, भगवान गणेश
के
दूध
पीने
की
खबर
आग
की
तरह
फैली
थी
और
हजारों
लीटर
बेशकीमती
दूध
नालों
में
बहा
दिया
गया।”20
‘अपवित्र
आख्यान’ उपन्यास में
मीडिया
की
सांप्रदायिकता
के
दो
माध्यम
हैं—
एक
तो
अखबार
और
दूसरा
पत्र-पत्रिका।
अखबार
और
पत्र-पत्रिका
दोनों
का
सांप्रदायिकता
को
लेकर
एक
जैसा
पूर्वाग्रह
है।
पहला
दंगे
के
दौरान
ज्यादा
पक्षपाती
हो
जाता
है
तो
दूसरा
साहित्यिक
गतिविधियों
के
माध्यम
से
सांप्रदायिकता
के
लिए
वैचारिक
धरातल
तैयार
करता
है।
इकबाल
अहमद
को
‘भाग्य
विधाता’ नामक अखबार
में
तब
पत्रकार
की
नौकरी
मिलती
है
जब
वह
अपनी
पहचान
छिपाकर
इकबाल
बहादुर
राय
हिन्दू
नाम
रख
लेता
है।
वह
अपने
अखबार
के
बारे
में
टिप्पणी
करता
है,
“…हमारे दफ्तर
में
ईद,
बकरीद,
मुहर्रम
वगैरह
की
छुट्टी
नहीं
होती।
प्रेस
में
एक
मुसलमान
मज़दूर
है,
जिसे
बाक़ायदा
दरख्वास्त
देकर
छुट्टी
लेनी
पड़ती
है
और
उस
दिन
की
उसे
तनख्वाह
नहीं
मिलती।
ईद
की
नमाज
मैं
उसी
साल
पढ़ता
हूँ
जिस
साल
संडे
को
ईद
होती
है।
हमारे
अखबार
में
नवरात्र,
गणेश-पूजन
और
न
जाने
कौन-कौन
से
त्योहारों
के
विवरण
छपते
हैं— सचित्र, पर
हमारे
त्योहारों
की
न्यूज़
रद्दी
की
टोकरी
में
डाल
दी
जाती
है।
दंगों
की
खबरें
इस
तरह
छापी
जाती
हैं
कि
मुसलमान
ही
दंगाई
साबित
हों।…”21 इकबाल
हिन्दू
मालिक
के
अखबार
में
काम
करता
है
तो
उस
पर
हिन्दू
सांप्रदायिकता
का
असर
देखता
है
लेकिन
वहीं
अखबार
का
मालिक
मुसलमान
होता
तो
मुस्लिम
सांप्रदायिकता
का
असर
देखने
को
मिलता।
जमील
इकबाल
के
कथन
का
यही
दूसरा
पक्ष
देखता
है,
“…मान
लीजिए
कि
अखबार
का
मालिक
कोई
मुसलमान
होता
तो?”22 कहने
का
अर्थ
यह
है
कि
आज
अखबार
का
काम
निष्पक्ष
न
होकर
परिस्थिति
विशेष
में
किसी
धर्म
विशेष
के
प्रति
दुर्भावना
का
प्रचार
करना
हो
गया
है।
समाज
में
किसी
धर्म
विशेष
के
प्रति
जो
विद्वेष
फैलाया
जाता
है,
अफवाह
फैलाकर
कथित
कट्टरता
की
शिनाख्त
की
जाती
है,
एक
धर्म
का
दूसरे
धर्म
के
प्रति
कथित
हिंसा
की
कल्पना
करके
जो
असुरक्षा
की
भावना
भरी
जाती
है,
वे
सभी
अखबारों,
पत्र-पत्रिकाओं
के
माध्यम
से
जनमानस
में
वैधता
पा
लेती
हैं।
यही
कारण
है
कि
‘तूणीर’ पत्रिका का
संपादक
श्री
रामप्रसाद
‘हठी’ मुस्लिम समाज
पर
अपनी
पत्रिका
के
लिए
लेख
माँगते
हैं
तो
मुसलमानों
की
अलग
पहचान
के
रूप
में
जिन
प्रवृत्तियों
को
रेखांकित
करते
हैं
वे
घोर
सांप्रदायिक
होती
हैं।
संपादक
जैसे
पद
पर
बैठा
व्यक्ति
मुसलमानों
की
जो
अलग
पहचान
अपने
मानस
में
बैठाए
रहता
है
वह
उन्हें
हिंसक,
असहिष्णु
और
कट्टर
करार
देता
है।
जमील
को
‘तूणीर’ के लिए
मुसलमानों
पर
लेख
लिखने
के
क्रम
में
वे
विषय
सुझाते
हैं-
‘मुसलमान
लोग
एक
से
अधिक
शादियाँ
करते
हैं।…’23, ‘मुसलमानों
में
उतनी
सहिष्णुता
नहीं
होती
जितनी
औरों
में
होती
है।
…’24, ‘धार्मिक
मामलों
में
मुसलमान
बहुत
कट्टर
होते
हैं।
वे
अपनी
आलोचना
बर्दाश्त
नहीं
कर
सकते…’25
‘तूणीर’ के जिस
अंक
को
मुसलमानों
की
पहचान
पर
केन्द्रित
करने
की
योजना
थी
उसमें
संपादक
के
नजरिए
में
अलग
पहचान
से
मतलब
बहुसंख्यक
समाज
के
सामने
उनको
प्रतिपक्ष
के
रूप
में
प्रस्तुत
करना
है।
ऐसा
प्रतिपक्ष
जिनके
मूल्य
और
नैतिकता
बहुसंख्यक
समाज
के
विरोध
पर
आधारित
हों।
‘एक
गन्धर्व
का
दुःस्वप्न’ उपन्यास में
अखबारों
का
जो
सांप्रदायिक
चेहरा
है
वह
सांप्रदायिक
शक्तियों
को
उनकी
गतिविधियों
के
लिए
आह्वान
करता
है
तो
दूसरी
तरफ
गतिविधि
के
बाद
उनका
महिमामंडन
करता
है।
बाबरी
मस्जिद
विध्वंस
से
पहले
ही
कुछ
अखबारों
ने
उस
विध्वंस
के
लिए
उन्मादी
माहौल
तैयार
करने
का
काम
शुरू
कर
दिया
था।
30 अक्टूबर, 1990 को
‘दिन
दोपहर
12 बजकर 20 मिनट पर
करीब
तीन
सौ
कारसेवकों
के
एक
हरावल
दस्ते
ने
हिंदुत्व
(हिंदू धर्म नहीं,
बल्कि
हिंदू
राष्ट्रवाद
या
राजनीतिक
हिंदुत्व)
के
उग्र
प्रतिनिधियों
की
भूमिका
अदा
करते
हुए
बाबरी
मस्जिद
को
क्षति
पहुँचाने
की
कोशिश
की।’26 उसे
हिन्दी
अखबार
इस
उपन्यास
में
हिन्दू
गौरव
से
जोड़कर
देखता
है,
“आज
दिनाँक
30-10-1990 के एक
लोकप्रिय
हिन्दी
अखबार
में
आह्वान
किया
गया
था
कि
सावधान
हिन्दू
जाग
गया
है।
असुर
भारत
का
विध्वंस
कर
रहे
हैं।
चलो
असुर
का
विध्वंस
करो।”27 हिंसा
के
लिए
ललकारने
की
भूमिका
अदा
करने
वाले
अखबार
सांप्रदायिक
शक्तियों
का
महिमामंडन
करने
में
भी
पीछे
नहीं
थे,
“अखबार
उनकी
सांगठनिक
चतुराई
पर
फिदा
थे।
गुप्तचर
एजेंसियाँ
उनसे
पूछ-पूछकर
रिपोर्ट
दे
रही
थीं।”28 अगले
दिन
अखबारों
की
रिपोर्टिंग
सांप्रदायिक
और
दुर्भावना
से
ग्रस्त
था।
अखबार
एक
खास
विचारधारा
पर
उतारू
हो
गए
थे
जिनका
मकसद
समाज
में
धार्मिक
ध्रुवीकरण
के
लिए
उकसाना
था,
“अयोध्या
में
नरसंहार,
शहीदों
की
भरमार
और
मुख्यमंत्री
की
ललकार
कि
परिन्दा
भी
पर
नहीं
मार
पाएगा,
के
उपहास
से
अखबार
का
मुखपृष्ठ
फटा
पड़
रहा
था।
बाबरी
मस्जिद
पर
कारसेवकों
ने
भगवा
फहराया
और
इसके
साथ-साथ
आदि
इत्यादि
का
विस्तृत
वर्णन,
कुछ
झाँकियाँ
भी।
वह
दिन
तिरंगे
का
नहीं
था।”29
उक्त
घटना
के
संदर्भ
में
उपन्यास
में
जो
अखबारों
का
पक्षपात
देखने
को
मिलता
है
वह
उपन्यासकार
की
महज
कल्पना
भर
नहीं
है
बल्कि
तात्कालिक
अखबारों
का
वह
वास्तविक
चरित्र
था।
इसकी
पड़ताल
भी
की
गई
है
कि,
“स्थानीय
पत्रकारों
ने
30 अक्टूबर, 1990 का
दिन
‘महान
विजय’ के दिन
के
रूप
में
मनाया।
बाद
में
आंदोलन
के
नेताओं
द्वारा
महान
विजय
के
दिन
की
तुलना
विजयदशमी
से
की
जाने
लगी।
लेकिन,
कारसेवा
की
भावना
में
पत्रकारों
की
यह
भागीदारी
पहली
बार
नहीं
थी।
दरअसल,
आंदोलन
की
असली
विजय
तो
स्थानीय
अखबारों
के
कॉलमों
में
ही
हुई
थी।
30 अक्टूबर से पहले
ही
हिंदी
के
दो
प्रमुख
अखबार
दैनिक
जागरण
(कानपुर, लखनऊ, झाँसी,
गोरखपुर,
वाराणसी,
मेरठ,
आगरा,
बरेली
और
दिल्ली
से
प्रकाशित)
एवं
आज
अपनी
कारसेवा
शुरू
कर
चुके
थे।
समाचारों,
संपादकीयों
और
हर
तरह
के
हिंदू
नेताओं
के
बयानों
को
प्रकाशित
करने
के
जरिये
इन
अखबारों
ने
पाठकों
से
लगातार
अपील
की
थी
कि
वे
30 अक्टूबर के दिन
अपना
पक्ष
खुलकर
स्पष्ट
कर
दें।”30
नमिता
सिंह
द्वारा
लिखित
‘लेडिज
क्लब’ उपन्यास
में
सांप्रदायिक
विवाद
बढ़ाने
वाली
घटनाओं
की
रिपोर्टिंग
के
संदर्भ
में
मीडिया
की
असंवेदनशीलता
का
जिक्र
आता
है।
मीडिया
सांप्रदायिक
घटना
संबंधी
अफवाहों
की
भी
प्रत्यक्षदर्शी
जैसी
रिपोर्टिंग
करने
लगता
है।
किसी
धर्मग्रंथ
का
पन्ना
जले
होने
की
अफवाह
को
मीडिया
जैसे
रिपोर्टिंग
करता
है
उस
पर
इस
उपन्यास
में
व्यंग्य
किया
गया
है,
“...अब धर्मग्रन्थ
किस
समुदाय
का
था,
इसे
बिना
कहे
सब
जान
गए
थे।
अखबार
की
खबरों
का
यही
तो
चमत्कार
है।
खबर
एक
तरफ
से
छिपाई
जाती
है
तो
दस
तरह
से
उघाड़ी
जाती
है।”31
निष्कर्ष : अतः कहा
जा
सकता
है
कि
हम
मीडिया
से
जिस
निष्पक्षता
की
उम्मीद
करते
हैं,
सांप्रदायिक
घटनाओं
के
समय
उसका
रवैया
बहुसंख्यकवाद
के
पक्ष
में
हो
जाता
है।
समाज
का
जो
धार्मिक
पूर्वाग्रह
होता
है
वह
मीडिया
रिपोर्टिंग
में
भी
स्पष्ट
दिखाई
देता
है।
कई
बार
मीडिया
के
माध्यम
से
आम
लोगों
की
राय
बदलने
की
कोशिश
की
जाती
है।
मीडिया
जो
अपना
धार्मिक
पूर्वाग्रह
उक्त
लोगों
तक
पहुँचाता
है
कुछ
समय
बाद
उनका
मानस
अपने
अनुकूल
बनाकर
उसे
जनमानस
के
रूप
में
गढ़
देता
है।
संचार
क्रांति
के
इस
युग
में
एक
अफवाह
को
देश
के
सुदूर
हिस्से
तक
पलक
झपकते
पहुँचायी
जा
सकती
है।
तब
मीडिया
का
कर्तव्य
और
संवेदनशीलता
किसी
भी
सांप्रदायिक
घटनाओं
को
लेकर
ज़्यादा
सजग
हो
उठता
है।
मगर
अफसोस
की
बात
है
कि
मीडिया
परिस्थिति
विशेष
में
अपने
पूर्वाग्रह
से
ऊपर
नहीं
उठ
पाता।
इसका
सबसे
ज़्यादा
नुकसान
सामासिक
संस्कृति
को
उठाना
पड़ता
है।
चूँकि
भारत
एक
बहुसंस्कृतिक
और
धर्मनिरपेक्ष
राष्ट्र
है।
इस
स्थिति
में
उसकी
विविधता
और
उसकी
बहुसांस्कृतिक
एकता
को
बनाए
रखने
के
लिए
संवैधानिक
संस्थाओं
से
लेकर
मीडिया
की
निष्पक्षता
अति
आवश्यक
है।
2. विभूति पटेल : ‘रूढ़िवाद, सांप्रदायिकता एवं लैंगिक न्याय’, धर्म सत्ता और हिंसा (सम्पा. राम पुनियानी), राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2016, पृ.176-77
3. दीपक कुमार, त्रिशंकु राष्ट्र : स्मृति, स्व और समाज, (अनु. गणपत तेली), राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2019, पृ. 126
4. वही, पृ. 129
5. गीतांजलि श्री, हमारा शहर उस बरस, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण, 2022, पृ. 39
6. वही, पृ. 85
7. वही, पृ.169
8. वही, पृ. 170
9. भगवानदास मोरवाल, काला पहाड़, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण, 2017, पृ. 411
10. दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, चौथा संस्करण, 2021, पृ. 223-24
11. वही, पृ. 224
12. वही, पृ. 233
13. वही, पृ. 233
14. वही, पृ. 233
15. रामशरण जोशी, ‘आजादी के बाद पत्रकारिता : एक सर्वेक्षण’, मीडिया का वर्तमान (सम्पा. अकबर रिजवी), अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृ. 30
16. दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ. 233
17. रजनी कोठारी, राजनीति की किताब : रजनी कोठारी का कृतित्व, (सम्पा. अभय कुमार दुबे), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003, पृ. 264
18. वही, पृ. 264
19. रवीन्द्र वर्मा, दस बरस का भँवर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007, पृ. 55
20. दीपक कुमार, त्रिशंकु राष्ट्र : स्मृति, स्व और समाज, (अनु. गणपत तेली), पृ. 175
21. अब्दुल बिस्मिल्लाह, अपवित्र आख्यान, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 2022, पृ. 36
22. वही, पृ. 36
23. वही, पृ. 131
24. वही, पृ. 132
25. वही, पृ. 133
26. आशिस नंदी, शिखा त्रिवेदी व अन्य, राष्ट्रवाद का अयोध्या कांड : रामजन्मभूमि आंदोलन और आत्मभय की राजनीति, (अनु. अभय कुमार दुबे), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005, पृ. 27-28
27. हरी चरण प्रकाश, एक गन्धर्व का दुःस्वप्न, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008, पृ. 149
28. वही, पृ. 149
29. वही, पृ. 150
30. आशिस नंदी, शिखा त्रिवेदी व अन्य, राष्ट्रवाद का अयोध्या कांड : रामजन्मभूमि आंदोलन और आत्मभय की राजनीति, (अनु. अभय कुमार दुबे), पृ. 60
31. नमिता सिंह, लेडिज क्लब, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 2013, पृ. 79-80
पीएच.डी. (हिन्दी)
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