आलेख : स्वाधीनता आंदोलन और हिन्दी के प्रतिबंधित नाटक / श्वेता यादव

स्वाधीनता आंदोलन और हिन्दी के प्रतिबंधित नाटक
- श्वेता यादव

सन् 1850 से लेकर 1947 तक का कालखंड भारत के इतिहास में अनेकानेक परिवर्तनों, राजनीतिक उथल-पुथल और सामाजिक हलचलों का समय था। हम जानते हैं कि इस दौर में अंग्रेजों के अत्याचारों से त्रस्त व हताश भारतीय जनता के मन में स्वाधीनता की चेतना जगाने का प्रयास साहित्यकारों ने किया। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध एक सशक्त राष्ट्रीय संघर्ष का विकास उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुआ। 1857 का विद्रोह पहले के सभी विद्रोहों से अधिक व्यापक था। हम यह मानकर चलते हैं कि यह विद्रोह ब्रिटिश सरकार के लिए एक गंभीर चुनौती के रूप में प्रकट हुआ। भारतीय इतिहास में स्वाधीनता आंदोलन के प्रारंभ की गणना 1857 से की जाती है। यह आंदोलन दो वर्षों तक चला जिसमें अनेकों वीर क्रांतिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1857 में ब्रिटिश सैनिकों ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया। 1858 में भारत पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के स्थान पर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का राज कायम हो गया। सन् 1859 के अंत तक भारत पर ब्रिटिश शासन पूरी तरह लागू हो चुका था। तत्कालीन व्यवस्था के उत्पीड़न से तंग आकर भारतीय जनता ने समय पाते ही विस्फोट कर दिया। यह विद्रोह जनता के हृदय का उमड़ता असंतोष था। ऐसे में हम यह भी देखते हैं कि यह समय अनेकों घटनाओं, व्यक्तियों के त्याग और समर्पण से भरा पड़ा है। इस भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का कमोबेश विस्तार पूरे देश में था। इस आंदोलन के लिए साधारण जनता में जो आक्रोश का भाव उत्पन्न हुआ था, उसमें हमारे भारतीय समाज सुधारकों एवं साहित्यकारों का बहुत बड़ा योगदान था। जिसके कारण नवयुवकों के भीतर चेतना की लहर उत्पन्न हुई और वे देश प्रेम के लिए तत्पर हुए। इन समाज सुधारकों ने अपने गौरवान्वित भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा की और भारतवासियों में आत्म गौरव का भाव जगाया। इस तरह भारतवासियों में नई शक्ति का संचार हुआ।

      इस आंदोलन से स्पष्ट होता है कि भारतीय जन मानस में नई राजनीतिक चेतना पनपने लगी थी। प्रत्येक क्षेत्र के लोगों ने किसी न किसी रूप में इस आंदोलन में भाग लिया। जिसमें एक तबका साहित्यकारों का भी था जो लेखन की पूरी शक्ति से अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर रहा था। भिन्न-भिन्न धर्म, जाति, भाषा तथा वर्ग के लोगों के मन में इस पराधीनता के विरोध में शब्द मुखरित होने लगे थे। समाज का हर वर्ग इस लड़ाई में अपने हथियारों को लेकर उतरने के लिए तैयार था। इस तरह विदेशी सत्ता के अत्याचारों से मुक्ति की ज़ोरदार तड़प न सही लेकिन उसके विरोध में असंतोष की आवाजें इस आंदोलन के माध्यम से भारत के विभिन्न हिस्सों से उठने लगी थी। इस विद्रोह में भारतीयों को निराशा मिली लेकिन हमें यह मानना पड़ता है कि 1857 की क्रांति के ही बदौलत तत्कालीन जनता नवजागरण की तरफ मुखरित हुई। वास्तव में भारतीय आत्मा और अस्मिता ने इसी युग में एक नया मोड़ लिया। इसके साथ ही जीवन के हर क्षेत्र का पुनर्निरीक्षण करने का प्रयास भी होने लगा। जिसके फलस्वरूप कई प्रमुख कार्य हुए जिससे वंचित, पिछड़े, दलित एवं महिलाओं आदि की समस्याएं भी सामने आने लगी। राजनीतिक, सामाजिक गतिविधियों के बीच लाचार जनता अंग्रेजी सत्ता की पीड़ाओं से थक चुकी थी। ऐसे में साहित्यकर्मी, चिंतक, समाजसेवक, पत्रकार और व्यवसायी सभी वर्ग के लोग ब्रिटिश अधीनता से मुक्ति पाने के लिए क्रांति की ललकार करने लगे। तब यह भी आवश्यक था कि तत्कालीन अशिक्षित जनता में जागरूकता और स्वाधीनता की चेतना उत्पन्न की जाए।

     ध्यातव्य है कि उन्नीसवीं शताब्दी में कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों के साथ ही राजनीतिक स्तर पर भी परिवर्तन हो रहे थे। इनमें क्रांतिकारी दलों की सक्रियता, कांग्रेस का उदय और छोटे मोटे किसान आंदोलन तथा मजदूरों की हड़तालें आदि भी होने लगी थीं। जिनका प्रभाव पूरे सामाजिक ढांचे पर पड़ रहा था। उन्नीसवीं शताब्दी के समाप्त होते-होते इस देश की परिस्थितियों में व्यापक परिवर्तन हुआ। सन् 1914 में आरंभ होने वाले प्रथम युद्ध की समाप्ति हो चुकी थी। उस युद्ध के अवसान काल सन 1918 में मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड की योजना के अनुसार विदेशी आंग्ल सत्ता ने यह बात कही कि भारतीय जनता को देश की शासन व्यवस्था में भी अधिकार प्राप्त होगा। किंतु आंग्लो ने अपने वचन की उपेक्षा कर हिंदुस्तान को जलियांवाला बाग हत्याकांड दिया। इस घटना से जनता मर्माहत हुई और देश का प्रत्येक कोना सिहर उठा। इस दौरान साहित्यकारों ने प्रहरी के रूप में कार्यरत होकर देश की जनता को जागरूक करने का प्रयास किया। लेखकों ने इस समय की सभी परिस्थितियों से जूझती जनता के वास्तविक रूप को उभारने का बेड़ा उठाया। उस दौर में साहित्य लेखन की सभी विधाओं में बेहतर ढंग से लिखने की एक होड़ सी चली। आज हम उन लेखकों की रचनाओं द्वारा ही भारत की तत्कालीन व्यवस्था और उसके घिनौने कुकृत्यों को समझ पाते हैं।

            हिन्दी नाट्य साहित्य के शुरुआती दौर में पारसी रंगमंच ने बहुत बड़ा काम किया भले ही बाद में उसके अवदान पर कई आरोप लगाये गए। लेकिन इस बात से तनिक भी आशंकित नहीं होना चाहिए कि निराश जनता में फिर से ऊर्जा का संचार करने के लिए पारसी नाटकों एवं रंगमंच का बहुत बड़ा हाथ था। यह भी सच है कि उनके प्रदर्शन मनोरंजन के उद्देश्य से तैयार किए जाते थे। किंतु इस बात को भी समझना आवश्यक है कि जब हर ओर से अपनी बात को रखने की मनाही थी। तब पारसी नाटककारों ने समाज में राष्ट्रीय चेतना प्रसार करने का भारी काम किया। बाद में भले ही पारसी नाटकों को भोंडा, चमत्कारपूर्ण प्रदर्शनों आदि से भरा कहकर नकार दिया गया। लेकिन आम जनता ने पारसी नाटककारों पर विश्वास जताया था जो इन टिप्पणियों को ख़ारिज कर देता है। तब यह आवश्यक है कि इन बातों पर नए सिरे से सोचा जाए। क्योंकि नाटकों के प्रदर्शन में पारसी रंगमंच की प्रमुख भूमिका रही थी। कहीं न कहीं जनता से सीधे जुड़ने का मार्ग इसी ने सशक्त किया। इन सब के बीच ही नारायण प्रसाद बेताब, तुलसीदत्त शैदा, हरिकृष्ण जौहर, विश्वंभर नाथ शर्मा ने ऐतिहासिक पौराणिक कथानक लेकर धर्म, भक्ति, संस्कृति को लेते हुए तत्कालीन समस्याओं और साधारण जनता की पीड़ाओं को केंद्र में रखकर कई नाटक लिखे और प्रदर्शन भी कराएं। पौराणिक नाटकों का आधार लेकर कथ्य निर्माण के पीछे समाज सुधार, राष्ट्रीयता की भावना, क्रांति की चेतना निहित होती थी। इन पौराणिक कथानकों का उद्देश्य केवल उपदेश देना नहीं था। बल्कि देशभक्ति की उन्मुखी भावनाओ का विकास भी करना था। प्रमुख नाटककार लक्ष्मीनारायण लाल ने पारसी नाटक व रंगमंच को लेकर महत्वपूर्ण काम किया है। उन्होंने पारसी नाटक के महत्व एवं प्रभावों को रेखांकित किया। 'पारसी हिन्दी रंगमंच' में राधेश्याम कथावाचक के नाटकों के संदर्भ में उन्होंने लिखा है कि "वीर अभिमन्यु में राधेश्याम ने जहाँ पौराणिक चरित्रों के माध्यम से महान तेजस्वी कर्मठ बलिदानी युद्धवीर धर्मवीर की चेतना सामने रखी है, वहाँ प्रह्लाद नाटक में उन्होंने ब्रिटिश हुकुमत के विरुद्ध राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति बड़ी सांकेतिक और प्रतीकात्मक रूप में की। इस नाटक में हिरण्यकशिपु को राधेश्याम ने अंग्रेजों का प्रतीक बनाया और प्रह्लाद को उस स्वतंत्र चेतना का उदाहरण बनकर पेश किया, जो हिरण्यकशिपु की गुलामी किसी तरह से भी सहने को तैयार नहीं।" ('पारसी हिन्दी रंगमंच' पृष्ठ-42,43)

अतः यह स्पष्ट होता है कि हिन्दी नाट्य साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु एवं प्रसाद युग के समस्त नाटककारों के साथ ही पारसी नाटककारों ने भी भारतीय जनता के भीतर राष्ट्रीय चेतना विकसित करने के लिए कई महत्वपूर्ण नाटक लिखें। हिन्दी नाटक एवं रंगमंच के विकास परम्परा में भारतेन्दु और प्रसाद युग के नाटककारों का अमूल्य योगदान रहा। इस बात से हम सभी परिचित हैं। लेकिन सोचने की बात यह है कि वह कौन सी शक्ति थी जिसने नाटककारों को नाटक लिखने की प्रेरणा दी। पराधीनता की आग में जलते हुए जब भारतीय असहाय महसूस करने लगे थे। तब देश को विदेशी सत्ता के चंगुल से छुड़ाने के लिए साहित्यकारों ने साहित्य की प्रत्येक विधा में जमकर लिखा। वहीं स्वाधीनता की चेतना प्रदान करने के लिए नाटककारों ने ऐसे कई नाटक लिखें, जिसने आन्दोलन रूपी विजयरथ को और भी तीव्र गति से चलायमान किया। राष्ट्रीय चेतना प्रदान करने वाले इन नाटकों में उन सभी घटनाओं का आधार समाहित है जिससे तत्कालीन भारतीय जनता आहत हुई थी। जलिययाँवाला बाग हत्याकांड, असहयोग आन्दोलन, साइमन कमीशन, भारत छोड़ो आन्दोलन आदि के साथ गुलामी की जंजीरों से जकड़ी हुई आम जनता को सामने रखकर इन लेखकों ने नाटकों की पृष्ठभूमि तैयार की। साथ ही इन लेखकों ने उन वीर पुरुषों की क्रांति गाथाओं के गीत गाकर समाज में चेतना उत्पन्न की। नाटकों की कथावस्तु में उन महानायकों की वीरता की कहानी है जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। जिसमें महारानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, तात्या टोपे, महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस आदि की समर्पण गाथा है। ऐसे में तत्कालीन उत्पीड़ित जनता की सच्ची तस्वीर और सामाजिक गतिविधियों को सामने रखने के लिए लेखकों ने अंग्रेजों के कुकर्मों पर कटाक्ष किया। इन नाटककारों ने व्यंग्य के माध्यम से अपनी बात रखी थी लेकिन उसकी कौंध इतनी तीक्ष्ण थी कि ब्रिटिश सरकार इन रचनाओं को प्रकाशित होने से जबरन रोकने लगी।
   
अतः स्वाधीनता आंदोलन के दौर में इन नाटकों के प्रदर्शन से जनता में जागरूकता का भाव जगा।हम सभी जानते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में साहित्यिक जगत की प्रत्येक घटना को रेखांकित किया गया है।परन्तु साहित्य के इतिहास में यह विडंबना ही है कि भारत में अंग्रेजी राज के दौरान लिखी गई रचनाओं को जिसे ज़ब्त कर लिया गया था उस पर कोई विचार व्यक्त नहीं किया गया। आज यह आवश्यक है कि उन ज़ब्त हुई रचनाओं का उचित मूल्यांकन किया जाए।जिससे यह ज्ञात हो सके कि आखिर उन रचनाओं में ऐसा क्या लिखा गया था,जिससे ब्रिटिश सरकार भयभीत हुई और उन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।हम देखते हैं कि हिंदी साहित्य के इतिहास में स्वाधीनता से संबंधित क्रांतिकारी आन्दोलन और जन आन्दोलन पर व्यापक स्तर पर लेखन हुआ।उन आन्दोलनो के क्रांतिकारी नेता जो देश के विभिन्न हिस्सों में स्वाधीन चेतना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।साहित्यकारों ने उनको अपनी रचनाओं का नायक बनाया।इस तरह इन क्रांतिकारी नेताओं को नायक के रूप में प्रस्तुत करके ज़ोरदार ढंग से लिखा गया जिसकी चुभन अंग्रेज़ी सत्ता को हुई और उन्होंने इन रचनाओं को प्रतिबंधित कर दिया।इस पूरे दौर में ऐसी घटनाओं की एक श्रृंखला सामने आई। जो दमन और शोषण के विरुद्ध साधारण जनता के विरोध और प्रतिरोध को व्यक्त करती थी।अगर इन नाटककारों के महनीय योगदान पर बात की जाती है तो यह निश्चित होता है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में हिंदी नाटकों ने राष्ट्रीयता की अलख को जगाए रखा।जैसा कि यह माना जाता है कि प्रत्येक कला के दो प्रयोजन होते हैं शुद्ध मनोरंजन और दूसरा वैचारिक जागरूकता, लोक क्रांति की अभिव्यक्ति, सत्ता के विरुद्ध अपने रोष को प्रकट करना।तब इस तथ्य को प्रमाणित करते हुए  इन नाटककारों ने अपने नाटकों के माध्यम से ऐसे ज़ोरदार विषयों को लेकर तत्कालीन परिस्थितियों का खाका प्रस्तुत किया जिसे अंग्रजी सरकार ने तुरंत प्रतिबंधित कर दिया।लेकिन आज यह सोचने की बात है कि इन रचनाओं को ज़ब्त करने की वजहें क्या थीं? उस दौर में जब अपनी बात को कहने या बोलने को जुर्म माना जाता था तब इन साहित्यकारों ने बहुत बड़ा काम किया।उन्होंने समाज में राष्ट्रीय चेतना और अंग्रेजों की अधीनता से मुक्त होने की भावना से भारतीय जनता को प्रेरित किया।उस काल के रचनाकारों को पराधीनता के बंधन से मुक्त होने की आकांक्षा तथा उन बेड़ियों को तोड़ देने की प्रबल भावना ने क्रांतिकारी स्वर से भर दिया।इन लेखकों ने ओज पूर्ण भाषा को अपना हथियार बनाया और तत्कालीन समाज की नंगी तस्वीर सामने रख दी।जिसमें भूखे और बिलखते भारतीय समाज का वास्तविक रूप दिखाई देता है।हम देखते हैं कि ये वहीं रचनाएं है जिनमें स्वतंत्रता प्राप्ति की अग्नि विद्यमान है।अंग्रेजी सरकार ने साहित्य के प्रत्येक विधा में लिखी रचनाएं जो जनता के आक्रोश को उद्दीप्त करने में सहायक थीं,उनको प्रतिबंधित कर दिया।ध्यान देने की बात यह है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रतिबंधित उन रचनाओं को क्यों भुला दिया गया।यह आश्चर्य में डालने वाला प्रश्न है कि क्यों उन रचनाओं को लेकर आलोचकों ने उस तरह से विचार नहीं किया।इन रचनाओं को पराधीन भारत में ब्रिटिश सरकार के दंड का भागी तो बनना ही पड़ा था लेकिन बाद में भी इन रचनाओं को साहित्य के इतिहासकारों और आलोचकों द्वारा उपेक्षित किया गया।इस तरह एक बार फिर इन रचनाओं के प्रति अन्याय हुआ।पिछले वर्षों कुछ विद्वानों ने प्रतिबंधित रचनाओं को लेकर चिंता जाहिर की है जो ज़ब्त रचनाओं को जानने के लिए सराहनीय कदम है।भगवान दास माहौर ने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया।उन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य के विभिन्न रूपों का व्यवस्थित विश्लेषण करते हुए एक शोध प्रबंध प्रस्तुत किया था।एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य 'प्रतिबंधित साहित्य' नाम से पुस्तक प्रकाशित करके रुस्तम राय ने किया।इन पुस्तकों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि वे कौन से तात्कालिक कारण थे,जिसके लिए इन रचनाओं को प्रतिबंधित कर दिया गया।जब हर ओर से लेखकों को अपने विचार व्यक्त करने की मनाही थी।तब इन साहित्यकारों ने क्रांति की चेतना को निरंतर प्रवाहित किया।जिसके लिए उन्होंने महत्वपूर्ण भारतीय कथा-कहानियों की आड़ में अंग्रेजों की कूटनीति,अत्याचार आदि को अभिव्यक्त किया ।उस वक्त अंग्रेजी सरकार ने भारतीय लेखकों के लिए कई नियम बनाए थे, जिससे कोई भी लेखक ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ आवाज न उठा सके। सरकार ने पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी कड़े नियम लागू किए थे।प्रेसों के लिए भी अलग कानून बनाए गए थे ।जिसके कारण कई संपादकों ने पत्र-पत्रिकाओं में आने वाले लेखों को छापने से मना कर दिया था। ऐसी ही स्थिति नाटकों को लेकर थी।क्योंकि इन नाटकों के मंचन से अंग्रेजी सरकार की कूटनीतियों का पर्दाफाश होता था,जिससे जनता प्रभावित हुए बिना न रह पाती थी और उनका हृदय स्वाधीनता के उमंग और उत्साह से भर जाता था।इसलिए अंग्रेज़ी सरकार ने इन नाटकों के लेखन और मंचन पर प्रतिबंध लगा दिया। प्रतिबंधित नाटकों को लेकर हिन्दी साहित्य में जो महत्वपूर्ण कार्य हुआ उसके लिए सत्येंद्र कुमार तनेजा का नाम महत्वपूर्ण है। उनकी पुस्तक 'सितम की इंतिहा क्या है'(2010) में प्रकाशित हुई। इसमें एक ओर 1916 से लेकर 1931 तक के प्रतिबंधित हिन्दी के सात नाटकों का संग्रह है। इसमें अंग्रेज़ी राज में लिखे और मंचित हुए नाटकों पर प्रतिबंधित इतिहास का विश्लेषण करने वाली एक भूमिका भी लिखी है। इसके परिशिष्ट में एक बंगला, गुजराती, मराठी, तेलगु, कन्नड़ और उर्दू के प्रतिबंधित नाटकों की सूची भी है। इस संग्रह में जिन सात प्रतिबंधित नाटकों को लिया गया है, वे निम्न हैं -

लक्ष्मण सिंह का नाटक 'कुली प्रथा'(1916), किशनचंद जेबा का नाटक 'ज़ख्मी पंजाब'(1922), पांडेय बेचन शर्मा उग्र का नाटक 'लाल क्रांति के पंजे में’(1922), देवदत्त पाठक का नाटक 'शासन की पोल'(1922), गोबिंद राम का नाटक 'बर्बादिए हिन्द'(1929), 'रक्तध्वज' (अज्ञात)1931, बुद्धिनाथ झा 'कैरव' का नाटक 'लवणलीला'।
 
यहाँ 'सितम की इंतिहा क्या है' में संलग्न नाटक 'कुली प्रथा' का विश्लेषण है। इस नाटक में तत्कालीन भारत की राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों का लेखा जोखा है। कुली प्रथा नाटक के लेखक लक्ष्मण सिंह हैं। यह नाटक 1916 में प्रकाशित हुआ और 1917 में ज़ब्त हो गया। तीखे तेवर में लिखे इस नाटक का प्रत्येक दृश्य भारतीयों की टीस और पीड़ा की अभिव्यक्ति करता है। नाटक कुली प्रथा में ब्रिटिश सत्ता की निर्ममता को लेकर लक्ष्मण सिंह ने पैने व्यंग्य किए है। नाटक के पात्र शंकर के बहाने से नाटककार ने युवा पीढ़ी का आह्वान किया है। नाटककार ने इस नाटक के माध्यम से दिग्भ्रमित हुई उस नई पीढ़ी को जागरूक करने का सार्थक प्रयास किया है, क्योंकि उस समय का युवा चेतनाविहीन और हताश हो चुका था। ऐसे में ज़रूरी था कि इनके भीतर ऊर्जा का संचार किया जाए। तब नाटककार ने 'कुली प्रथा' जैसे नाटक लिखकर समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का निर्वाह किया। यह नाटक उस दौर की अभिव्यक्ति है जिन दिनों लक्ष्मण सिंह अभी आगरा में छात्र जीवन बिता रहे थे तभी फ़िजी तथा अन्य उपनिवेशों में गुलामों की खरीद के कुचक्र की खबरें सुर्खियों में थीं।
 
यदि नाटककार लक्ष्मण सिंह के व्यक्तित्व को लेकर बात की जाए तो माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा उन्हें अर्पित की गई भावभीनी टिप्पणियां मुख्य रूप से रेखांकित होंगी। लक्ष्मण सिंह की शोकांजलि (1953) में माखनलाल ने लिखा है कि "देश समाज की विरोधिनी शक्तियों से लोहा लेना और लड़ते-लड़ते काम आ जाना यही उनका बाना रहा है….कैसी मीठी हैं वे बहादुर जिंदगियाँ जो टूट गईं पर झुकी नहीं…..।" (पृष्ठ.130)
 
नाटक 'कुली प्रथा' की कथावस्तु में दास बनाकर भारतीयों को अन्य औपनिवेशिक देशों और विदेशों में भेजे जाने की दास्तान है। नाटक के केंद्र में भोला-कुंती और उनके बेटे शंकर की कहानी है। मुख्यतः इन पात्रों से ही कथा विन्यास घिरा हुआ है। जिसमें बीसवीं सदी के भारत का उमड़ता समाज समाहित है। नाटक 'कुली प्रथा' में नाटककार ने तत्कालीन भारत के धधकते इतिहास को दिखाने की कोशिश की है। बनवारी लाल भारतीयों को धोखे से अन्य देशों में गुलाम बनाकर भेजता है। शंकर पढ़ाई करने अमेरिका जाना चाहता है। इस बात का फायदा उठाकर बनवारी लाल उसे झांसा देकर फिजी भेज देता है। जब शंकर के माता-पिता उसकी खोज में जगन्नाथ मन्दिर जाते हैं तो उन्हें भी धोखे से फिजी भेज देता है। अतः इस नाटक में बहला फुसलाकर फिजी जैसे देशों में कुली बनाकर भेजे जाने वाले लोगों की मार्मिक पीड़ा का चित्रण हुआ है। 'कुली प्रथा' नाटक के बारे में नाटककार ने लिखा है कि "काव्य की दृष्टि से इसमें अनेकानेक दोष मिलेंगे। परन्तु पाठक, आप इसे काव्य न समझिए, यह घर में चोरों को लूट मचाते देखकर एक सेवक का चिल्लाना है।" (सितम की इंतिहा क्या है, पृष्ठ.151)
 
नाटक तीन अंकों में विभाजित है। नाटक का प्रत्येक दृश्य उस दौर के सामाजिक राजनीतिक विडंबनाओं का वास्तविक रूप प्रकट करता है। नाटक का आरंभ सूत्रधार और नटी के संवादों से होता है। नटी बताती है कि वर्तमान समय में नाटक के उस स्वरूप को दिखाना होगा जिससे लोगों का आत्मबल बढ़े। इस प्रकार नाटककार ने कुली प्रथा नाटक के माध्यम से नया प्रयोग करते हुए नाटक लिखने की परिपाटी में बदलाव किया है।

सूत्रधार : "….यह तो बतलाओ कि तुम किस दिव्य पुरुष के जीवन-चरित्र से किस बहुमूल्य शिक्षा का प्रकाश (दर्शकों की ओर) इन पर डालोगी?.....किसी वीर के साहस और पराक्रम से उसकी मातृभूमि स्वतंत्र कराओगी, अथवा धर्म के लिए किसी भोले और वीर पुरुष को मरवा के जिलाओगी।"

नटी: "महाराज, आपने अपने आनंदी स्वभाव तथा रूढ़ि के अनुसार ठीक ही सोचा। किन्तु हमें अब रूढ़ि त्यागनी होगी। समय और स्थिति पलट गई है। भारत के ऐतिहासिक चित्रपट का वह सिरा, जहाँ दिव्य पुरुषों के चरित्र चित्रित थे, भूतकाल के निविड़ अंधकार में पड़ा है।….राजाओं और महलों को छोड़, अब गरीबों और झोपड़ियों के ही खेल खेलने होंगे।" (पृष्ठ.154)
 
'कुली प्रथा' नाटक उस दौरान लिखा गया जब भारत में अंग्रेजों का अत्याचार चरम पर था। समाज में भूख से बिलखते लोगों की पीड़ा थी। औपनिवेशिक भारत में आम जनता ब्रिटिश सरकार की क्रूरता से त्रस्त हो चुकी थी। अतः यह नाटक बीसवीं सदी के आरंभिक समय की विसंगतियों को दिखाता है। जिसमें गुलामी से जकड़े, लाचार भारतीयों की मार्मिक गाथा है। नाटक का प्रथम अंक मन्दिर में जगन्नाथ जी की आरती से शुरू होता है। इसी अंक के दूसरे दृश्य में बृजलाल सामने आता है। यह अंग्रेज़ों का चाटुकार है। इस पात्र के द्वारा नाटककार ने तत्कालीन स्वार्थी, मौकापरस्त लोगों की असलियत को उजागर किया है। ब्रजलाल के लिए लाट साहब का पत्र आता है जिसमें लिखा है कि 'दस कुलियों की आवश्यकता है, प्रति मनुष्य 210 रुपए इनाम मिलेंगे।' अतः बृजलाल दस भारतीयों को गुलाम बनाकर भेज देगा तो उसे पैसे मिलेंगे। तब वे और उसके साथी मिलकर ठगी करते हैं। वे लोगों को बड़ी चालाकी से अपने जाल में फंसा लेते हैं। उनके लिए दस व्यक्तियों की व्यवस्था करना बहुत आसान है। क्योंकि वे मानते हैं कि 'हिन्दू लोग धर्म के लिए तो अंधे ही हो जाते हैं।' इसलिए जगन्नाथ जी के दर्शन करने आए तीर्थ यात्रियों को अपने जाल में फँसाने की योजना बनाते हैं। सेठ बृजलाल कहता है कि "….हम वैश्य पुत्र ठहरे, व्यापार करना हमारा धर्म है, फिर वह व्यापार उत्तम का हो अथवा निकृष्ट!" (वही,पृष्ठ.157 )
 
यात्रियों को बहकाने के लिए वे ढोंग करते हैं। वे यात्रियों से दिव्य गौरांग देव की कृपा का बखान करते हैं। वे बताते हैं कि गौरांग देव का भी आदिस्थान शेषशायी विष्णु के समान समुद्र है और फिजी में उनके कई मन्दिर है। जिनकी कृपा से लोगों के सारे दुख दूर हो जाते हैं। इनकी बातों में आकर तीर्थयात्री गौरांग देव के दर्शन के लिए व्याकुल हो उठते हैं। इस प्रकार बनवारी लाल अपने उद्देश्यों में सफल हो जाता है और उन्हें फ़िजी भेजने के लिए राज़ी कर लेता है। भोला और कुन्ती भी अपने बेटे को पाने की लालसा में गौरांग देव के दर्शन करना चाहते हैं। अतः वे भी फ़िजी जाने के लिए उत्सुक होते हैं। तब सेठ बृजलाल उनसे कहता है "कि आप लोग जहाँ जा रहे हैं वहाँ हमारे अंग्रेज़ बहादुर का ही राज्य है।...एक अंग्रेज़ बहादुर आप सबको देखेंगे और आपको पास करेंगे, याने वहाँ जाने की आज्ञा देंगे। आपसे पूछेंगे कि, 'फ़िजी जाओगे?' तो उत्तर देना, 'हां, हुजूर जावेंगे।' फिर वे कहेंगे कि पांच वर्ष तक रहना होगा, तो कहना कि, 'हां, हुजूर रहेंगे।'"

एक इंस्पेक्टर फिजी जाने वाले भारतीयों से कहता है कि फिजी में अंग्रेजों का राज है। वहाँ उनके साथ हिंदुस्तान के मजदूरों जैसा सलूक नहीं होगा बल्कि वे वहाँ नवाब की तरह रहेंगे। इंस्पेक्टर कहता है "फ़िजी बहिष्ट है। भगवान का, खुदा का, घर है। टूम वहाँ बड़ा अमीर हो जावेगा।"
 
प्रथम अंक के चौथे दृश्य में कुछ युवकों द्वारा नाटककार ने कुली बनाकर भेजे जाने वाले भारतीयों की स्थिति पर टिप्पणी की है। गुलाम बनाकर भेजे जाने वाले लोगों को अंग्रेजी उपनिवेशों में ही नहीं किन्तु विदेशी उपनिवेशों में भी भेजा जाता है। जिनका अत्यधिक शोषण किया जाता है। युवक बात करते हैं कि ".....अपने देश भारतवर्ष में भी हमारी दशा शोचनीय है। कहीं निलहे कोठीवाले दुहरा लगान वसूल करते हैं, कहीं चाय बगान वाले नादिरशाही मचाते हैं, कहीं बेगारवाले औरंगजेबी करते और कहीं बात बात पर ठोंकरे पड़ती हैं। और हा! ये सब दुख और अपमान हमें मूकभाव से सह लेने पड़ते हैं।"(सितम की इंतिहा क्या है,पृष्ठ.167)

इस प्रकार पराधीन भारत की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों और जनता की वास्तविक स्थितियों को नाटककार ने बड़ी ही संजीदगी से लिखा है। नाटककार ने बृजलाल और बनवारीलाल के चरित्र द्वारा स्वार्थपूर्ति हेतु दूसरों के तलवे चाटने वाले लोगों की असली तस्वीर को स्पष्ट किया है। लाट साहब ने बनवारीलाल को पत्र लिखा है कि उपनिवेशों में भारतवासियों की दशा की जांच करने के लिए एक कमीशन भेजने का विचार सरकार कर रही है। बनवारीलाल अपने भतीजे को कमीशन की रिपोर्ट तैयार करने के लिए फ़िजी भेजता है। क्योंकि लाट साहब ने बनवारीलाल को सी.आई.ई. की उपाधि देने और उसके भतीजे सुखबासी को डिप्टी कलेक्टर बना देने का लालच दिया है। जिससे खुश होकर बनवारीलाल कहता है "हुजूर, हम तो आपके जूतों की धूल हैं। हम भला क्या कर सकते हैं। हम लोगों को तो आपके कुत्ते होने का सुभाग हात लगा है। कुत्ते का काम छे, मालिक की सी कहे, उणका माल की रच्छा करे।" (वही,पृष्ठ.178)
  नाटक के दूसरे अंक में शंकर, ब्रजलाल को पत्र लिखता है। इस दृश्य में वह अपने देश भारत को याद करके भाव विहवल हो उठता है। नाटककार यहाँ देश-प्रेम की भावना दिखा पाने में सफल होते हैं। वह भारतीयों के साथ हो रहे अत्याचारों को प्रकट करता है :-:-
    
"रहता भूखा तीन दिवस मैं सात दिवस में,
    शक्ति जरा भी नहीं रही है मेरी नस में।
    तिस पर भी यदि कार्य नहीं मैं कर पाऊँगा,
    तो फिर घूंसे बैंत बूट ठोंकर खाऊँगा।
    होता शतधा हृदय याद कर निर्दयता को
    मानवता में भरी देखता हूँ पशुता को।"
   
  इससे यह पता चलता है कि किस प्रकार का सलूक भारतीयों के साथ वहाँ किया जाता था। उनसे दिन रात काम करवाकर पशुओं की तरह रखा जाता था। उनकी स्त्रियों का शोषण होता था। भारतीयों की स्थिति वहाँ कैदियों से भी बदतर थी। शंकर कहता है "जब देखता हूँ कि यह भारत का घर नहीं है कुलियों की झोपड़ी है; स्कूल की पुस्तकें नहीं हैं ये हंसिया और फावड़े हैं, और मैं। स्वयं स्वतंत्र नहीं बल्कि कुली शंकर हूँ, तब अत्यंत दुःख होता है।"(सितम की इंतिहा क्या है,पृष्ठ.186)
 
वह ब्रजलाल के नीचतापूर्ण कार्यों के लिए उसे धिक्कारता है। वह लिखता है कि 'अपने परिवार से बहकाए जाकर बिछड़े हुओं की आहें तुम्हारे शरीर को झुलस देंगी।' लेकिन ब्रजलाल और उसके साथी मानते हैं कि "भारत की जनसंख्या बहुत बढ़ गई है, अतः कुछ आदमी बाहर जाना ही चाहिए, नहीं तो वहाँ के मनुष्य भूखे मरेंगे। हम उन्हें उपनिवेशों में भेजकर यहाँ के वासियों को दुर्भिक्ष से बचा रहे हैं तिस पर भी हम देशद्रोही कहलाएं।" (वही,पृष्ठ.183) नाटक में नाटककार ने बड़ी ही बारीकी से भारतीयों के प्रति अंग्रेजों की मानसिकता को उभारा है। अंग्रेज़, भारतीयों से अपने सारे काम तो करवाते थे लेकिन व्यवहार उनसे पशुओं-सा रखते थे। इस संदर्भ में लेखक ने ऐसे प्रसंग को जोड़ा है जिसे पढ़कर नाटककार के रचनात्मक कौशल का ज्ञान तो होता ही है, उसके साथ ही भारतीयों के साथ हो रही नृशंसता का भी पता चलता है। लेखक दिखाते हैं कि एक दिन अंग्रेज़ी मैम अपने कुत्ते को लेकर बगीचे में टहल रही थी। थोड़ी ही देर बाद वह कमरे में घबराती हुई आई। अपने पति (साहब)से बताती है कि बगीचे में कुछ भारतीयों को देखकर वह कैसे डर गई थी - "…..आज अभी मैं चमेली की कुंज तक गई थी। तमाम कुंज नव-कुसुमित हो श्वेतता में छिपा हुआ सा था, परन्तु आश्चर्य कि वहाँ पर सुवास का नाम तक न था। खोज के पश्चात् मैं समझी, वहीं पर चार काले आदमी काम कर रहे थे।….. मैं बहुत डरी। मुझे विदित हो गया कि उनके मैले शरीरों की दुर्गंधि ने ही चमेली कुंज की सुगंधि मार दी होगी। आप कृपाकर अब से उन काले आदमियों को यह आज्ञा दे दीजिए कि जब मेम साहब उद्यान में जानेवाली हों तब वे सब बाहर चले जाया करें।"(वही,पृष्ठ.188)
 
इससे यह ज्ञात होता है कि अंग्रेजों की दृष्टि भारतीयों के लिए किस प्रकार की थी। केवल यही नहीं भारतीयों का शोषण और अत्याचार करके वे अपना मनोरंजन भी करते थे। एक बूढ़े भारतीय कुली को जो बीमार है उसे बंद कोठरी में रीछ के साथ रखा जाने का निर्णय हुआ है। इस क्रूरता को साहब खेल या तमाशा बताता है जिसे देखने के लिए साहब की पत्नी उत्साहित होती है। इसी बीच पता चलता है कि इंस्पेक्टर की मार के कारण वह बूढ़ा कुली मर गया। वह बूढ़ा बीमार भोला है। फिजियन कहता है कि ये कुली ठीक से काम नहीं करते। इसलिए इंस्पेक्टर साहब ने काम कराने के लिए उसे मारा था, पर वह मर गया। नाटक में कुन्ती पात्र के माध्यम से स्त्रियों की समस्याओं को प्रकट किया गया है। क्योंकि अंग्रेज़ अफसर स्त्रियों का यौन शोषण करते थे। उनके साथ जोर जबरदस्ती करके उनके बच्चों-पतियों को भी मरवा डालते थे। ताकि वे स्त्रियां बेसहारा हो जाएं। इंस्पेक्टर की दृष्टि कुन्ती पर है इसलिए उसने भोला की हत्या कर दी।

उधर कुन्ती पति की मृत्यु से अनभिज्ञ अपने बच्चे को खेला रही होती है। इसी समय साहब आता है और उसके काम पर नहीं आने का कारण पूछता है। तब कुन्ती बताती है कि उसने बच्चे को जन्म दिया है और प्रसूतिपीड़ा के कारण नहीं आ सकी। साहब उसे लात घूंसों से मारकर जबरदस्ती काम पर ले जाता है। जिस स्त्री ने हाल ही में बच्चे को जन्म दिया हो और जिसके पति की अभी अभी ही मृत्यु हुई हो ,उस स्त्री को वे घसीट कर ले जाते हैं। साहब कहता है कि "हिंदुस्तान एक जंगली देश है। वहाँ के कायदे यहाँ नहीं चल सकते। यहाँ के कानून के अनुसार इनका विवाह नहीं हुआ था।" (वही,पृष्ठ.194)
 
यद्यपि फिजी में कुली स्त्रियों का खुलेआम बलात्कार होता था। अंग्रेज़ अपनी हवस मिटाने के लिए इन स्त्रियों के दुधमुंहे बच्चों का गला तक घोट देते थे। इंस्पेक्टर, कुन्ती के साथ दुर्व्यवहार करने का प्रयास करता है। नाटककार कुन्ती द्वारा भारतीय स्त्री के स्वाभिमान को प्रदर्शित करने में सफल होते हैं। कुन्ती क्रोधित होकर इंस्पेक्टर से कहती है -

"फोड़ दूंगी उंगलियों से मैं तेरी आंखें जभी।
खींच लेऊंगी तेरे इस पेट की आंतें सभी।।
रगड़ दूंगी एड़ियों से नीचे तेरा हृदय भी।
बस दुखमय इस जगत में मैं शांति पाऊंगी तभी।।"

  इस प्रकार कुन्ती के प्रसंग से नाटककार ने स्त्रियों पर होने वाले निर्मम अत्याचारों के घिनौने रूप को प्रकट किया है। वह दिखाते हैं कि किस प्रकार अफसर दस बारह स्त्रियों को कतार में खड़ी करके उनके बिलखते बच्चों के सामने उन पर कोड़े लगवाते थे। वे अफसर कैसे काम पर आई स्त्रियों के दूध पीते बच्चों को खींच कर नदी में फेंक देते थे। इस डर के कारण सभी स्त्रियां अपने बच्चों को ताला में बंद करके काम पर आती थीं। इंस्पेक्टर, कुन्ती का सतीत्व भंग करना चाहता था। अतः अपनी प्राणरक्षा के लिए कुन्ती नदी में कूद जाती है। इसी बीच निप्पो और शंकर, इंस्पेक्टर को पकड़ लेते हैं और कुन्ती का उपचार कराते हैं। यहीं शंकर को ज्ञात होता है कि कुन्ती उसकी मां है। वह बताती है कि कैसे उसके माता-पिता बेटे की खोज में फिजी आए और कैसे उसके पिता की मृत्यु होती है। कुन्ती बताती है कि उसके छोटे भाई को किस प्रकार अंग्रेज़ी मेम के कुत्ते ने फाड़ डाला। इतना सब होने के कारण कुन्ती अपना मानसिक संतुलन खो देती है और आत्महत्या कर लेती है। यह सब देखकर शंकर की आत्मा धिक्कारने लगती है। वह अपने माता-पिता और भाई के हत्यारे इंस्पेक्टर को जान से मार देने को उद्धत होता है। शंकर कहता है कि "यदि मैं इंस्पेक्टर को मारता हूँ तो जैसा मैंने अभी कहा, एक तरह से धर्म ही करूंगा। और यदि उसमें मारा गया तो क्या चिंता, क्योंकि

जो मरता धर्म करने में वह मर के भी नहीं मरता,
अमरता उसको मिलती है, जो मरने से नहीं डरता।
है नश्वर देह सब कहते यह मर जावें तो अचरज क्या?
समर में कट के मर जाना भला शय्या के मरने से
वह मर के स्वर्ग जाता है यह मर के नर्क में सड़ता।"

  निप्पों और शंकर, इंस्पेक्टर के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने वाले हैं यह जानकर इंस्पेक्टर उन दोनों की हत्या करा देना चाहता है। इसके लिए वह अब्बास को धमकाता है। इंस्पेक्टर इस हत्या को अब्बास से कराना चाहता है। इसलिए इंस्पेक्टर कहता है कि वह कुन्ती पर गलत निगाह रखता था और उसने ही कुन्ती के पति को मार डाला है। यह सुनते ही अब्बास घबरा जाता है। अब्बास सिर्फ कुछ ही दिनों में गिरमिट मुक्त होने वाला है यह बात इंस्पेक्टर जानता है लेकिन यह बात अब्बास को नहीं बताता है। वह अब्बास से कहता है कि यदि जल्दी मुक्त होना चाहता है तो उसे निप्पो और शंकर की हत्या करनी होगी। इंस्पेक्टर उसे बहुत सारा धन देने की बात करता है। लेकिन वह हत्या करने  साफ इंकार कर देता है। अंततः अब्बास इंस्पेक्टर की हत्या कर देता है।
 
दूसरे अंक के पांचवें दृश्य में सुखवासीलाल का एक लंबा वक्तव्य है। इस स्वगत में सुखवासी भारतीयों के साथ हो रहे अन्याय को देखने के बाद भी झूठी रिपोर्ट तैयार करता है। क्योंकि डिप्टी कलेक्टर बनने के लिए ऐसा करने का उसे आदेश है। वह कहता है- "डिप्यूटी गिरी चाहने वाले पुरुष के मुख से सरकार की बुराई नहीं निकलनी चाहिए। यह मेरा स्वार्थधर्म या मनेच्छा धर्म है, और मनु धर्म भी यही है कि राजा या सरकार परमेश्वर का अवतार है, इसके विरुद्ध कोई बात किसी को भी न कहना चाहिए।" इस प्रसंग के माध्यम से नाटककार उस दौर के तमाम स्वार्थपूर्ति का जरिया तलाशने वाले लोगों पर तंज कसते हैं। सुखवासी, फिजी में भारतीयों की असली हालातों से परिचित होने के बावजूद गवर्नर के सामने चुप रहता है। वहाँ भारतीयों की जैसी स्थिति है उसे देखकर वह सोचता है "...जैसे एक ही बाड़े में बहुत से नर मादा जानवर रखे जाते हैं वैसा ही इनका हाल है। "लेकिन यदि उसे डिप्टी सुखवासी लाल बनना है तो अपना मुंह बंद रखना होगा। इसलिए वह गवर्नर से बताता है कि "माई लार्ड, ये लोग बड़े आराम से रहते हैं। मैं धर्म से कहता हूँ कि ऐसे पक्के मकान इन्हें हिंदुस्तान में मुअस्सर भी नहीं।" (वही,पृष्ठ.218) निप्पो, शंकर को बताता है कि इसी जहाज से सुखवासीलाल भी भारत जा रहे हैं। अतः शंकर को उनसे भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों पर बात करनी चाहिए। शंकर निप्पो से बताता है कि "भारतवर्ष में रायबहादुरी रुपयों के चकों की गाड़ी पर दौड़ती फिरती है, और वहाँ के कई माननीय अपने देशवासियों को फँसाकर माननीय बैठे हैं।"यद्यपि नाटक का अंत कारुणिक है। किन्तु निप्पो का कथन नाटक के अंत को उदात्त बना देता है। शंकर को समझाते हुए निप्पो कहता है "राष्ट्र की सच्ची शक्ति वहाँ की साधारण जनता ही हुआ करती है, अतएव तुम अपने सिद्धांतों पर अटल रहकर सर्वसाधारण से मिलकर प्रयत्न करो। उन्हीं को उन्नत करो। देश को ही अपना कुटुम्ब समझो और उसी की सेवा में रत रहो।"(सितम की इंतिहा क्या है,पृष्ठ.220)
 
इस प्रकार कुली प्रथा नाटक के द्वारा हम 20 सदी के भारत की वास्तविकता को जान पाते हैं। नाटककार ने तड़पते-बिलखते भारतीयों के साथ ही मौकापरस्त सत्ताधारियों पर कटाक्ष किया है। जिन्होंने अपने ही लोगों की दुर्दशा करने में ब्रिटिश सरकार का पूरा साथ दिया था उनके बारे में नाटककार ने खुलकर लिखा है।
    
यदि नाटक की रचनात्मकता पर बात करें तो कथ्य और संवेदना के स्तर पर नाटक सुगठित है। किन्तु कुली प्रथा नाटक को प्रदर्शनकरी कलात्मक संयोजन में बांधकर रख पाना मुश्किल सा दिखाई देता है। क्योंकि नाटक का कथ्य एक सीध में न चलकर कई ऊहापोहों को समेटे हुए है। यह भी स्पष्ट है कि जिस दौर में यह नाटक लिखा गया उस समय तक हिन्दी का रंगमंच विकसित अवस्था में न था। वह समय नाट्य लेखन से तो भरा पूरा है किन्तु प्रदर्शन के नाम पर केवल पारसी नाटकों का ज़िक्र सामने आता है। इसलिए हम देखते हैं कुली प्रथा नाटक पर बहुधा पारसी रंगमंच का प्रभाव पड़ा है।
 
नाट्य लेखन की दृष्टि से इसका कथ्य कसा हुआ है। लेकिन कहीं-कहीं अत्यधिक लम्बे संवाद बोझिल बन पड़े हैं। तीन अंकों के इस नाटक में कई छोटे-बड़े दृश्य आते हैं। नाटक के आरंभ में नटी कहती है कि वर्तमान काल अंधकार में पड़ा हुआ है। इसलिए राजाओं के महलों के स्थान पर गरीब की झोपड़ियों को दिखाना होगा। क्योंकि जब आम जनता भूख से व्याकुल होकर मर रही हो ऐसे में आनन्दपूर्ण नाटक कैसे खेले जा सकते है। इस बात को नाटककार लक्ष्मण सिंह ने बखूबी सिद्ध किया है। जब भारतीय समाज ब्रिटिशकाल के अत्याचारों से पीड़ित था तब लेखक ने उन समस्याओं को उजागर किया जिससे जनता जूझ रही थी। नाटक का भाषाई रचाव स्थिति की गंभीरता को स्पष्ट करता है। अतः नाटककार अपने गढ़े हुए शब्दों से पाठक को आंदोलित करने में सार्थक होता है। पात्र अपने मंतव्य को अभिव्यक्त करने में पारंगत से जान पड़ते हैं। नाटक को लचीला बनाए रखने के लिए नाटककार ने पात्रों की क्षेत्र विशेषता का भी आधार लिया है। ब्रजलाल व्यापार करता है अतः उसकी भाषा में एक व्यापारी का सम्पुट दिखाई देता है। वहीं इंस्पेक्टर जो हिन्दी नहीं जानता वह जिस प्रकार टूटी-फूटी हिन्दी बोलता है। उससे नाटककार के कलात्मक दक्षता का प्रमाण मिलता है। पूरे नाटक के दौरान नाटककार ने जितनी सहजता से व्यंग्यात्मक लहजे का समावेश किया है। उससे यह साबित होता है कि नाटककार नाट्य लेखन के गुणों से परिपूर्ण है। व्यंग्य के ऊँचे स्तर को साहब और मेम के संवाद को देख सकते हैं। भारतीय कुलियों को देखकर अंग्रेज़ी मेम डर जाती है। जिसे नाटककार ने इस प्रकार प्रकट किया है - "एक काला आदमी तो इतना निकट था कि मैं कुछ कह नहीं सकतीं। लाइए, दर्पण तो देखूँ, कहीं मेरे मुख पर झाईं तो नहीं जम गई?" (सितम की इंतिहा क्या है,पृष्ठ.188)
 
इस पुस्तक के सातों नाटककार पराधीनता के जकड़न से छटपटाते भारतवासियों और उनकी बेचैनी से भरे तत्कालीन समाज का प्रतिबिंब रचते हैं। इन नाटकों को प्रस्तुत करके नाटककारों ने क्रांति की सुगबुगाहट को भारतीयों के मन में जिंदा रखा। किन्तु यहाँ प्रश्न उठता है कि प्रतिबंध हुए इन नाटकों को लेकर साहित्य जगत में चुप्पी क्यों है। जबकि इन रचनाओं पर अगर बात की जाए तो पराधीन भारत का इतिहास अपने सच्चे स्वरूप में हमारे सामने उमड़ पड़ता है। जिसमें भारतवासियों की आत्मा हुंकार करती हुई दिखाई देती है जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। तब यह सवाल बहुत जरूरी सा लगने लगता है कि क्यों इन प्रतिबंधित रचनाओं को लेकर उस तरह से विचार नहीं किया गया। ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त किए जाने का भय पराधीन भारत में था। परन्तु आज हम स्वतंत्र हैं तो साहित्य के इस उपेक्षित भाग पर प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है। सन 1876 में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय भावनाओं को जगाने वाले नाटककारों को दंडित करने के लिए अंग्रेज़ी सरकार ने 'ड्रामाटिक परफार्मेंस बिल' पास कर 'नील दर्पण' नाटक के मंचन पर प्रतिबंध लगा दिया। क्योंकि इस नाटक में बाल विवाह, जमींदारी अत्याचार, विदेशी शासन और सामाजिक कुरीतियों से उत्पन्न अन्याय के विरोध में जूझने की ताकत थी। ग्रेट नेशनल थियेटर के इस नाटक ने कलकत्ता, दिल्ली, आगरा, मथुरा आदि नगरों में जो सामाजिक जागृति उत्पन्न की थी, उसकी लहर से भयाक्रांत अंग्रेज़ी सरकार ने लखनऊ में इस नाटक के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस नाटक की सफल नायिका 'बीना देवी' ने लिखा है कि "न्यायमूर्ति की आज्ञा थी कि इस नाटक का भविष्य में एक भी प्रदर्शन नहीं होना चाहिए और कंपनी तुरंत नगर से बाहर निकल जाए।"
 
पंडित माधव शुक्ल कृत नाटक 'महाभारत पूर्वार्द्ध' प्रयाग में सन 1915 में मंचित किया गया। जिसे ब्रिटिश सरकार ने ज़ब्त कर लिया। बाद में कलकत्ता में यही नाटक 'कौरव कलंक' नाम से सन 1918 में खेला गया। वह काल एक संक्रमण काल था। विदेशी सत्ता के आगे सीधे या प्रत्यक्ष रूप में लड़ाई लड़ना असंभव तो नहीं, किंतु कठिन कार्य था। तत्कालीन युग में ब्रिटिश सत्ता के अत्याचारों को असुरों के अत्याचार के प्रतीक रूप में दिखाया गया। स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों को भी केंद्रीय पात्र मानकर नाटक लिखकर लोगों को प्रेरित करने का प्रयास किया गया। लेखकों के विचारों की अभिव्यक्ति न हो और शोषित एवं पीड़ित भारतीयों की समस्याएं उजागर न हो सके। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने पाबंदियां लगा दी थीं। जिससे तत्कालीन जनता की कठिनाइयों और वास्तविक परिस्थितियों की तस्वीर उस रूप में सामने नहीं आ सकीं। स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में इन ज़ब्त किए गए नाटकों की अद्वितीय भूमिका रही थी यों ही नहीं इन नाटकों पर पाबंदी लगाई गई। इन नाटकों ने जनता के बड़े भाग को प्रभावित किया और भारतीयों के मन में राष्ट्रीय प्रेम का बिगुल बजाया। इन नाटककारों के अवदान को भुलाया जाना भारतीय इतिहास के स्वाधीनता के दौर को अनदेखा करने जैसा है। ब्रिटिश सरकार आरंभ से ही भयभीत थी कि आम जनता को चेतना, ऊर्जा प्रदान करने वाला कोई भी साहित्य न लिखा जाए जिससे उनके मन में क्रांति की भावना स्थान ले सके। किंतु जब हमारे स्वतंत्रता सेनानी भारत को विदेशी सत्ता के चंगुल से छुड़ाने में जुटे थे, इन नाटककारों ने एक से बढ़कर एक नाटक लिखकर जनता को प्रेरित किया। यदि आज इन प्रतिबंधित नाटकों का ब्यौरेवार वर्णन किया जाए तो न जाने कितने ऐसे अध्याय खुलेंगे जिनके बारे में हम अब तक अंजान बने हुए हैं। हम देख पाएंगे कि देश को स्वाधीन कराने में भारतवासियों को किन-किन परिस्थितियों से होकर गुजरना पड़ा था। जिसका ज्वलंत उदाहरण ये प्रतिबंधित नाटक हैं और जिनका बयान इन नाटककारों ने स्वयं दिया है। स्वाधीनता प्राप्ति के दौर में इन नाटककारों ने भारतीय जनता को सिर्फ ब्रिटिश सत्ता द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों को पहचानने में जागरूक ही नहीं किया था। अपितु उनके खिलाफ खड़े होने की शक्ति भी प्रदान की। प्रतिबंधित रचनाओं को लेकर ब्रिटिश सरकार ने किस प्रकार से लेखकों और संपादकों पर नियम लगाए थे। इस बात को हम हिन्दी साहित्य के कई विद्वानों के लेखों और पत्रों के माध्यम से जान सकते हैं। सन् 1906 में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के पास चुनाव पर एक कविता प्रकाशन के लिए आई। उन्हें लगा कि कविता बड़ी मज़ेदार है, पर उन्होंने लेखक को सूचित किया: "यह राजनैतिक विषय है। इससे सर के नियमों के अनुसार इसके प्रकाशन में हम अक्षम हैं।(21.7.1906 का पत्र;द्विवेदी युगीन साहित्यकारों के कुछ पत्र, पृष्ठ 21)" यह सर सरस्वती के मालिक ही होंगे। उन्होंने पत्रिका के लिए कुछ नियम बनाए थे।...संपादक के लिए जरूरी था कि वह इन नियमों की पाबंदी करे। मैथिलीशरण गुप्त ने तोते पर एक कविता लिखी। तोता पिंजड़े में बंद है, खुली हवा में उड़ जाना उसका सहज धर्म है। पर इस कविता का यह अर्थ लगाया जा सकता था कि भारतीय प्रजा अंग्रेज़ी पिंजड़े में खुश नहीं है। 22 जून 1909 को द्विवेदी जी ने मैथिलीशरण गुप्त को लिखा : "तोते वाली कविता यहाँ लोगों को बहुत पसन्द आई। प्रेस के मालिक उसे सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। परंतु ज़माना नाज़ुक बड़ा है। लेखों का कुछ का कुछ अर्थ लगाया जाता है। इससे निश्चय यह हुआ कि कविता अभी कुछ दिन न प्रकाशित की जाय।"(द्विवेदी पत्रावली,पृष्ठ 110)एक अन्य कविता के बारे में उन्होंने गुप्त जी को 1915 में लिखा कि "कविता का नमूना मुझे पसन्द है। पूरी करके भेजिए। कोई बात समय और सरकार के विरुद्ध न रहे। इशारा भी न रहे। कल नया क़ानून बना है। कानून क्या मार्शल लॉ जंगी कानून है। फांसी तक की सजा है।" महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मॉडर्न रिव्यू में छपी एक अंग्रेजी पुस्तक की समीक्षा पढ़ी थी जिससे उन्हें पता चला कि ऐसे भी अंग्रेज़ हैं जो गदर में अंग्रेजों के अत्याचारों का वर्णन करते हैं। उन्होंने लिखा "सन 1857 के गदर की याद कीजिए। उसमें बड़ी-बड़ी नृशंसताएं हुई थीं। कितने ही कत्लेआम भी, शायद हुए थे। पर उन सबका सविस्तार और सच्चा वर्णन कहीं नहीं मिलता। लोगों का कहना है कि गदर के इतिहास से पूर्ण जितनी पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं उनमें कुछ नृशंस बातें बढ़ाकर लिखी गई हैं और कुछ पर धूल डाली गई है। कलकत्ते के ब्लैक होल और कानपुर के कत्ल की कथा तो ख़ूब विस्तार के साथ और शायद बढ़ाकर भी लिखी गई हैं। पर गोरों ने कालों पर जो अत्याचार किए हैं उन पर कम प्रकाश डाला गया है और कुछ घटनाओं पर तो बिल्कुल डाला ही नहीं गया। अब कोई साठ-सत्तर वर्ष बाद एडवर्ड टॉमसन नाम के एक अंगरेज को उन पुरानी बातों की याद आई है। उन्होंने अंगरेजी में एक पुस्तक लिखकर संयुक्त राज अमेरिका के न्यूयार्क नगर से प्रकाशित की है। उसका नाम है The other side of the Medal (1) इस पुस्तक में उन्होंने गोरों के उन क्रूर कर्मों का वर्णन किया है जो सिपाही विद्रोह की इतिहास पुस्तकों में, किसी कारण से छूट गए हैं या छोड़ दिए गए हैं। यह बात हमें मॉडर्न रिव्यू में प्रकाशित उस पुस्तक की समालोचना से ज्ञात हुई। इस समालोचना को पढ़कर भारतवासी पाठकों के रोंगटे खड़े हो सकते हैं; मूल पुस्तक पढ़ने पर उनके हृदयों की क्या दशा हो सकती है, यह तो पढ़ने से ही ज्ञात हो सकेगा।"
 
इससे यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार की पाबंदियों के बावजूद लेखकों ने क्रांति की चेतना उत्पन्न की थीं। इन ज़ब्त की गई रचनाओं में एक संदर्भ सावरकर की पुस्तक को लेकर भी है। स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर की कालजयी पुस्तक '1857 का स्वातंत्र्य समर' आज भी रोंगटे खड़े कर देती है। 1857 की घटनाओं का जो विकृत रूप अंग्रेज़ इतिहासकारों ने प्रस्तुत किया था उसके प्रत्युत्तर में ब्रिटिश म्यूजियम और लाइब्रेरी के तत्कालीन दस्तावेजों की छानबीन के बाद सावरकर ने इस पुस्तक को तैयार किया था। बहुत प्रयासों के बाद किसी तरह यह अमेरिकी पत्र में प्रकाशित हो सका था जिसे बाद में पुस्तिका के रूप में भी छापा गया। शायद ऐसा पहली बार हुआ था जब कोई पुस्तक प्रकाशित होने के पहले ही प्रतिबंधित कर दी गई। बड़ी सतर्कता बरतते हुए पुस्तक हालैंड में छपी और काफी प्रतियां डिकेंस के उपन्यासों के कवर में रखकर हिंदुस्तान पहुंची और वितरित हुई। इस पुस्तक ने प्रतिबंध के बावजूद लाखों युवकों को वैचारिक प्रेरणा प्रदान की।

संदर्भ :
1.रामविलास शर्मा, भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, (1982) 
2.रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण, (2018)
3.गिरीश रस्तोगी, बीसवीं शताब्दी का हिन्दी नाटक एवं रंगमंच, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण, (2018)
4.सत्येन्द्र कुमार तनेजा, सितम की इंतिहा क्या है, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, (2010) 
5.आशीष त्रिपाठी, समकालीन हिन्दी रंगमंच और रंगभाषा, शिल्पायन, नई दिल्ली, (2007)
6.अजीत पुष्कल/हरिश्चंद्र अग्रवाल, नाटक के सौ बरस, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, (2019)
7.रामविलास शर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण (2016)
 
श्वेता यादव 
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद
yadavsweta029@gmail.com

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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