सम्पादकीय : समझना सदैव शेष रह जाता है। / माणिक

सम्पादकीय : समझना सदैव शेष रह जाता है।

-माणिक


                (1) साल 2022 के अंतिम महीने और नए वर्ष के आरम्भ में कई विचार आए और गए मगर सम्पादकीय लिखते वक़्त जो ठहरकर मुझे बाध्य करता और रोकता रहा वह है अध्यापकी। यही मेरा प्रिय विषय भी बनता गया है। एक तो यह कहना है कि गंभीर पाठक ही गंभीर अध्यापक हो सकता है। पाठकीयता के संकट के बीच अध्यापकों का संकट पनपना स्वाभाविक है। अवकाश में अध्यापक मनाली, गोवा और पंचमढ़ी जाएगा मगर एक किताब की खरीद पर ढाई सौ नहीं खर्चेगा, जबकि एक अध्यापक के जिन्दा रहने के लिए उसका अपने विषय के साथ-साथ देश-दुनिया और समाज के परिवर्तनों के प्रति अद्यतन रहना प्राथमिक शर्त है। बहुत से अध्यापक पचास तक पहुँचते-पहुँचते नव-चयनितों से कहते हुए सुनाई देते हैं कि हम तो खूब पढ़ा चुके, अब तुम्हारा ज़माना है, असल में ज़माना उतना नया नहीं आया जितने कि वे बोदे हो चुके हैं और समय तो अपनी चाल से चलता है, तुम ही सुस्त होकर ज़माने से कदमताल न कर सके। जो अध्यापक गहनता के साथ अपडेट नहीं रहते उन्हें अपने ही विद्यार्थियों का सामना करने में भय लगता है। अध्यापन जैसा ज़रूरी पेशा तीस सैकंड की रील्स कैसे हो सकता है? न शॉर्ट्स देखकर कक्षा ली जा सकती है न स्टेट्स-पंथी से परीक्षा जीती जा सकती है। धूप में आरामकुर्सी पर बैठे प्रोफेसरों से तो अब कुछ भी कहना शेष नहीं रहा। ज़िंदगी बनाने का जिम्मा अध्यापकों के नामे लिखा गया और अध्यापक अपने बच्चों के लिए पेपर जुगाड़ते पाए गए। नीलेश मिश्रा के ‘स्लो इंटरव्यू’ देखने के बाद जाना कि इंसान जितना धीरे और सोचकर बोले उतना ही प्यारा लगता है। लगातार बोलना बड़ी बात कहाँ रही अब जब हर कोई ‘रफ़्तार’ को ‘विकास’ समझ रहा है।‘लल्लनटॉप’ के नए शो ‘गेस्ट इन द रूम’ ने मन रीझा लिया है। सौरभ द्विवेदी क्या कमाल आदमी हैं। पूरी लम्बाई में बात करके जो बातें निकलवाते हैं उनकी वह शैली गज़ब है। देहाती के मिश्रण के साथ आत्मीयता से भरपूर। खिलंदड़। यहाँ विकास दिव्यकीर्ति, अवध ओझा, खान सर, देवीदत्त पटनायक और अंत में पुष्पेश पन्त जी को देखा। एक से एक गंभीर अध्येता और मेहनती अध्यापक। दौड़ से एकदम दूर तपस्या-रत। नित-नया उलटने-पलटने वाले इंसान। रचे और रमे हुए लोग थे सभी। सभी के इंटरव्यू डेढ़ से दो-दो घंटे के थे। अंत वाला तो पौने तीन घंटे तक की संगत वाला। क्या तो बतकही और क्या रचाव। ज़िंदगी से बोला गया अकसर सरस और असरकारी होता है। देखते-सुनते लगा कि ‘अध्यापकी’ में ‘अनुभव’ बहुत बड़ा आधार होता है। ‘हिन्दवी’ के नवीनतम शो ‘संगत’ में समादृत कवि आलोक धन्वा को साठ मिनट के इंटरव्यू में सुना तो रोमांचित हो उठा। एक रचनाकार गहराई को कैसे पहचानता और फिर उसमें किस तरह बने रहता है? यह सब जानना खूब आह्लादकारी अनुभूति रही। अंजूम शर्मा ने बहुत श्रम और शोध किया है, ऐसा बातचीत करते वक़्त अनुभव हुआ। विशेष बात यह कि आलोक धन्वा जी ने जितनी बार हज़ार साल के हिंदी भाषा के इतिहास से प्रतिष्ठित लेखकों के नाम लिए दोनों कानों को अपने हाथों छुआ और फिर भावुक हो उठे। उनके भीतर से पूरे समय एक अध्यापक झाँकता रहा। अध्ययन देर तक सुनने से ही संभव है। देर तक एकटक अपने गुरुजी को देखना ही अध्ययन है। गुरु का चरित्र शिष्य में उतर आए ऐसी गरिमा पाना अभी शेष है। ‘जीवन विद्या’ में कहते हैं ज्ञान का प्रमाण आचरण है। देखता हूँ कि इसके एक लोकप्रिय प्रबोधक सोम त्यागी जी दो-दो घंटे के चार सत्र लेते हैं और दिन कैसे बहता हुआ गुज़र जाता है कि जीवन पानी की तरह साफ़ नज़र आने लगता है। आर-पार। सत्रों की लम्बाई उबाऊ नहीं लगती। यह अध्यापक की ताकत है कि वह नीरसता को छूने तक नहीं देता। असल में गहराई वक़्त माँगती है। दौड़ते हुए रुकना मुश्किल काम है। दौड़ने और चलने में से किसी एक को चुनना ही होगा। विद्यार्थी और अध्यापक दोनों एक ही फ्रीक्वेंसी पर खड़े होकर रील्स, शॉर्ट्स, शेयर चैट देख-सुन और चेप रहे हैं तो अब अंजाम स्पष्ट है। दोनों पीढ़ियाँ एक दूजे में सहारा ढूँढ रही हैं जबकि दोनों अपने-अपने खालीपन की चौपाली-घोषणा कर चुकी हैं।

             (2) मेरी मति में दर्शन हमारे जीने का ढंग तय करता है। अब तक के अभ्यास को देखूं तो पाता हूँ कि जीने की शुरुआत में समझ के अभाव में उटपटांग कामों में उम्र कट जाती है फिर हम चक्कर-घिन्नी हो घूमते रहते हैं। गलतियों से सीखने का कीर्तिमान बनाते हैं। यह सब अपने बुजुर्गों की देखादेखी होता रहता है। यहाँ दर्शन मतलब सलीका। कार्य और व्यवहार की ट्रेक लाइन। क्यों जीना और कैसे जीना है का समुचित उत्तर है दर्शन। अभी देखने में आया कि हम अपने आसपास के प्रति बेपरवाह होकर जीवन गुजारते हैं। क्योंकि दर्शन, अध्यात्म जैसी चीज़ों के लिए हमने बुढ़ापा तय कर रखा है। कम से कम प्रौढ़ अवस्था तक तो ऐसी संगत से बचना है। यही परिपाटी दुखदायी साबित होती है।‘जानना’ कभी भी हमारी प्राथमिकता नहीं रही, उसी का नतीजा हमारा समाज लगातार भोग रहा है। ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा बीत जाता है उसके बाद दर्शन से भेंट होती है या एक मुकाम पर आकर लगने लगता है कि रास्ता तो गलत ही पकड़ लिया है। न कहते बने न लौटते। इन दिनों यह भी देखा कि हम अपने से भिन्न धर्म, जाति, संप्रदाय के इंसान के रीति-रिवाज़ और परम्पराओं को स्वीकार नहीं पाते हैं। न उनके महात्माओं के जन्मदिन न पुण्यतिथि पर आदर के दो फूल चढ़ा पाते हैं। सबकुछ समझ के अभाव में घटित होता है। दूजों को गले लगाना और अपनाना तो बहुत दूर की बात है। पूरे में विचारें तो पृथ्वी पर सभी हैं यानी ‘भव’। भव अर्थात संसार। संसार को लेकर हमारे मन में गहरी अस्वीकृति ही ऐसे भाव को जन्म देती है जो हमारी भीतरी चिंता और अशांति का बड़ा हेतु बनती है। जो जैसा है उसे उसके होने के साथ स्वीकार लेना ही आराम ले जाने का बढ़िया रास्ता है। मगर हम सभी घनघोर अस्वीकृतियों से भरे पड़े हैं। वर्तमान जीवन में हर कोई एकांतवासी बन चुका है। जबकि ज़िन्दगी में कुछ भी एकेले में संभव नहीं होता है। जो कुछ भी घटित है सह-अस्तित्व में ही हो रहा है। हम हैं तो आसपास में खनिज, पेड़-पौधे, जीव-जंतु सब कुछ है ही। अस्तित्व में चारों अवस्थाओं में संतुलन बना रहे इसके लिए सभी प्रयासरत हैं मगर चौथी और सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था मानव के कारण सबकुछ गड़बड़ है। जब दर्शन का साथ मिलता है तब तक बहुत कम यात्रा शेष रहती है। इसलिए दर्शन हमारी स्कूली शिक्षा में कविता-कहानी के मार्फ़त समझाया जाना चाहिए। ताकि वक़्त रहते हम अपना शरीर और मन चलाना समझ सकें। जान सकें कि शादी करनी है या नहीं? बच्चे पैदा करने हैं तो क्यों? तर्क सहित चीजें हमारी समझ में बैठ सके ऐसा बंदोबस्त होना है। सम्बन्ध और सुविधाओं में संतुलन बिठाने का हुनर आ जाए बस। अपने देश को ही ले लें। अनुभव होता है कि यह एक महादेश है। सभी को स्वीकार करते हुए ही यहाँ आगे बढ़ा जा सकता है। यही हमारी रीत रही है। संकुचित दिलों के साथ विस्तार असंभव है। वैश्वीकरण के दौर में हमें वैश्विक कैलेण्डर के साथ चलना ही होगा। हमारे अपने को सहेजते हुए भी हम कैसे दूजों को स्वीकार कर सकते हैं, इसकी राह खोजनी होगी। यह संभव है। इसी में सभी की जीत है। वैश्विक होना हमने खुद ने चुना है तो इसके दोनों पक्षों को समझकर बढ़ना बाकी रहा। सभी स्वानुशासन में जी-कर ही यह सब निभा सकते हैं। जीवन में समझना अपेक्षाकृत बाल्यकाल में ज्यादा संभव है ऐसा विज्ञान भी कहता है। फिर हम दर्शन और अध्यात्म जैसी ज़रूरी शिक्षाओं को कब तक चालीस पार की उम्र के लिए आगे सरकाते रहेंगे।

         (3) बीते दो महीने से दैनिक भास्कर नामक समाचार पत्र पढ़ते हुए पाया कि इसमें पश्चिमी देशों के कुछ चयनित संवाददाता अनुदित ख़बरें और शोध रिपोर्ट यहाँ छापते हैं। विशेषकर अंतिम पृष्ठ के ठीक पीछे सबसे नीचे दो ख़बर रोज़ाना आती हैं। कटिंग के बाद के संकलन को देखता हूँ तो पाता हूँ कि जितना मानव का अध्ययन वहाँ सतत हो रहा है वह सबकुछ हमें जागरूक करता है। आहार की नीतियाँ हो या मानवीय रिश्तों में आई छीजत। आमजन के बीच हमारे व्यवहार को परखा गया हो या फिर बिना समझे शुरू की गयी दौड़ के नतीजों पर लम्बी बहस। जीवन में हँसने, घूमने, बतियाने सहित नींद और संगीत की ज़रूरत कितनी है? पहनने का ढंग जाता रहा। अपार सुविधाओं को हथियाने की बेहिसाब राह का रोना। यह सब वहाँ कवर किया गया है। बोलचाल के बीच का तनाव और क्रोध का निरंतर अभ्यास अब चिंतन का विषय है। प्रकृति के सत्यानाश पर तुली मानव जाति का अबाध और तथाकथित विकास। घंटों लम्बी नौकरियाँ और छूटते पारिवारिक-सम्बन्ध। स्वाद में उलझा युवा पीढ़ी का यौवन। कम होती जीवन-प्रत्याशा। छिनता हुआ मातृत्व-पितृत्व का सुख। यही कुछ रुककर पढ़ने पर मजबूर करता है। हालांकि कई बार संदर्भ को लेकर पूर्व और पश्चिम के बीच का परिवेशगत अन्तर रुकावट लाता है। मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद की जिनती समझ है उसके अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर मानव जाति एक है और उसमें मूल में कई स्वभाव-गुण एक हैं। इसलिए मानव का अध्ययन और उसके निष्कर्ष जीने में सहायता देते हैं। शुक्रिया दैनिक भास्कर। कुल जमा शोध ज़रूरी है खासकर इस कल्पनाशील और कर्म-स्वतंत्र मानव का शोध। रिसर्च के नतीजों पर ध्यान देते हुए मनुष्य को अपना दिन और दिशा चुननी होगी। रिसर्च मतलब रुककर सोचना। चलते हुए यात्रा में कहीं बैठकी लगाना। सोम भैया कहते हैं कि जब हम दो दिन की यात्रा पर निकलते हैं तो दे-लम्बी सूची बनाकर योजना बनाते हैं और अस्सी-साला ज़िन्दगी पर निकले हैं वह भी बिना समझे और बिना-तैयारी। वाह रे मेरे उस्तादों। इसलिए ही समझ के अभाव में यह ‘कल्पनाशीलता’ दुखदायी नतीजे जन रही है।

             (4) प्रस्तुत अंक में कई नए लेखक साथी शामिल हो रहे हैं उनके प्रति आभार कि उन्होंने ‘अपनी माटी’ को अपनी रचनाएं एक आश्वस्ति के साथ दी। अव्वल तो उदयपुर वासी तराना परवीन जी को उनकी कहानी और जयपुर वासी राजाराम भादू जी को उनके आलेख के लिए शुक्रिया। यह दोनों पढ़े जाने योग्य अवदान हैं। इस बार चार इंटरव्यू शामिल किए हैं जिनमें मशहूर कथाकार प्रियंवद, संस्कृतिकर्मी सुभाष चन्द्र कुशवाहा, चित्रकार कृष्णा महावर और समादृत आलोचक रोहिणी अग्रवाल जी को पढ़ा जाना ही चाहिए। उदयपुर में एक संगोष्ठी में आए प्रसिद्ध लेखक स्वयं प्रकाश जी से तब हुई संक्षिप्त बातचीत भी यहाँ पेश है। कथेतर में डॉ. हेमंत कुमार का आत्मकथ्य भाषा का शानदार नमूना है। वहाँ लोक की अनूठी खुशबू है। हेमंत में एक गंभीर लेखक छिपा हुआ है। कॉलेज के युवा की मनोदशा उकेरने हेतु अभिषेक तिवारी ने हमारे कहे पर कुछ आत्मकथापरक लिखा है। पूजा जग्गी के अनुभूत सत्य से संवाद भी विभाजन के दर्द में नहाई न्यारी रचना है। चित्रकला, सिनेमा, संगीत, साहित्य, राजनीति, भाषा, चिकित्सा और आहार सहित पत्रकारिता जैसे सभी अंगों पर भरपूर सामग्री है। नदी-संस्कृति पर प्रवीण कुमार जोशी का आलेख नई शोध दृष्टि का परिचायक है।‘अनुसन्धान’ जैसे गरिष्ठ विषय पर धमेंद्र प्रताप सिंह का एकदम अकादमिक लेख भी इसी अंक में आया है। जितनी रचनाएं हैं सभी भारतीय मूल्यों को ध्यान में रखते हुए शामिल की गयी हैं। कविता के लिहाज़ से दो युवा-स्वर पेश हैं और मोहम्मद हुसैन डायर के संस्मरणों की अगली कड़ी हाज़िर है। एक आलेख शेखर जोशी जी की याद में प्रो. चंदा सागर जी से लिखवाया है। बाकी अंक आपको सौंप रहे हैं। टिप्पणी करके बताइएगा।

-माणिक


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

6 टिप्पणियाँ

  1. अध्यापन मतलब पठन-पाठन और लेखन की संस्कृति का विकास | यही विकास शोध और ज्ञान की प्रक्रिया का अनवरत सिलसिला है | दर्शन और दिशा का जीवन में संयोजन मायने रखता है | सह-अस्तित्व, इस धरा के लोकतंत्र की बुनियादी विशेषता है |

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  2. संपादकीय 'संपादकीय ' की प्रचलित चौखट को तौड़ता है।फ्रेम से आजाद होकर लेखन और मूल्यवान हो जाता है।लल्लनटॉप के 'न्यूज रूम' के लम्बे साक्षात्कारों से अध्यापकी के दायित्वबोध से परचना ध्यान खींचता है।जीवन विद्या के संदर्भ मस्तिष्क के तंतुओं को झनझनाते हैं।विचारशील होने को आहूतते हैं।अध्ययन छूटना अध्यापकी के लिए अभिशाप है।यह निष्कर्ष बिल्कुल ठीक है पर एक शोध व साहित्यिक पत्रिका के संपादक का इस पर चिंता जताना सुखद आश्चर्य है!वह अंतरराष्ट्रीय से छोटी समस्या पर बात करे यह अपवाद है।पर 'अपनी माटी' इन्हीं अपवादों से संवादों का नाम है।

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  3. बहुत ही व्यवहारिक और सटीक बातों से रचा सम्पादकीय है।

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  4. आपकी यह पत्रिका पहली बार देख रहा हूँ। सम्पादकीय ही अभी पढ़ पाया हूँ, काफी दमदार है।

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  5. "अपनी माटी" के 45वें अंक का संपादकीय "समझना शेष रह जाता है" मौजूदा समय पर माणिक जी का सूक्ष्म विश्लेषण है। शिक्षक यदि अपने समय का गहराई से अध्ययन कर उसे समझ नहीं पा रहे हैं या समझना नहीं चाहते हैं और अपने छात्रों को "समय" के प्रति जागरूक नहीं कर पा रहे हैं तो यह गंभीर चिंता का विषय है। एक अध्यापक ताउम्र छात्र रहकर ही अच्छा अध्यापक बन सकता है। लेकिन मौजूदा समय में "अध्यापकी" का संकट यह है कि हम "अध्यापक" छात्र बने नहीं रह पा रहे हैं।

    यह सम्पादकीय हम शिक्षकाें पर एक सवाल तो है ही, साथ में उत्प्रेरक भी है। माणिक जी की यह टिप्पणी सत्य के करीब है कि दर्शन के अभाव में हमने अपने जीवन में अनगिनत गलतियां की हैं। हम शिक्षक हैं, लेकिन अध्ययन और अध्यापन के अलावा हम वे सब कार्य कर रहे हैं जो एक शिक्षक के कार्य नहीं हैं। जीवन में यह भटकाव दर्शन के प्रति अलगाव के कारण ही हुआ है। दर्शन के अभाव में जीवन मशीन ही तो है, जिसे दौड़ाते रहो। जब तक हम जिंदगी के किसी मोड़ पर ठहरकर जीवन की सार्थकता के बारे में चिंतन मनन नहीं करेंगे, तब तक सारी भाग दौड़ बेकार ही है।

    हमारे लिए माणिक जी यह संपादकीय सार्थक और सारगर्भित है।
    बहुत बहुत आभार माणिक जी, बधाई भी।

    सादर
    भरत मीणा

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  6. PAHLI BAR APNI MATTI DEKHA. SAMPADKIYA PARKAR LAGA YE TO HAMARE MAN KI BAT HAI, SACHMUCH EK ADHYAPAK KO SAMAJIK PARIVARTAN KA SADHAK HONA CHAHIYE

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