- आनन्द कुमार सिंह
शोध
सार : तानसेन
रीवा
के
राजा
रामचंद्र
तथा
मुग़ल
बादशाह
अकबर
के
दरबार
की
शान
से
बढ़कर
भारत
के
अप्रतिम
रत्नों
में
गिने
जाते
हैं
एवं
बीते
समय
के
साथ-साथ
वर्तमान
के
गीत-संगीतकारों
के
भी
प्रेरणास्रोत
रहे
हैं।
कोई
भी
भारतीय,
चाहे
वह
गीत-संगीत
से
सीधे
तौर
पर
जुड़ा
हो
अथवा
न
जुड़ा
हो,
परन्तु
वह
तानसेन
के
नाम
से
परिचित
अवश्य
रहता
है।
तानसेन
के
संगीत
ही
नहीं
वरन
उनके
व्यक्तित्व
की
ख्याति
ऐसी
रही
है
जिसमें
इतिहासकारों
के
अलावा
फ़िल्मकारों
ने
भी
समान
रुचि
दिखाई
है।
यही
कारण
है
कि
अकबर
के
दरबार
के
कथित
नवरत्नों
में
से
तानसेन
वह
रत्न
हैं
जिनको
मुख्य
अथवा
एक
प्रमुख
किरदार
के
तौर
पर
रखते
हुए
सर्वाधिक
संख्या
में
फिल्मों
का
निर्माण
फ़िल्मकार
करते
आए
हैं।
प्रस्तुत
शोधपत्र
में
तानसेन
के
जीवन-प्रसंगों
से
जुड़ी,
एवं
जनमानस
अनुक्षेत्र
(पब्लिक डोमेन)
में
उपलब्ध,
कुछ
प्रमुख
हिन्दी
फिल्मों
का
अध्ययन
व
विश्लेषण
किया
गया
है।
बीज
शब्द :
संगीत
सम्राट,
तानसेन,
मियां,
राग
दीपक,
मियां
की
तोड़ी,
राग
मल्हार,
अकबर,
नवरत्न,
बैजु
बावरा,
राजा
रामचंद्र।
शोध
प्रविधि :
प्रस्तुत
पत्र
में
गुणात्मक
क्रियाविधि
के
अंतर्गत,
चयनित
फिल्मों
हेतु
तुलनात्मक
व्यष्टि
अध्ययन,
सामग्री
विश्लेषण
एवं
समीक्षात्मक
अध्ययन
पद्धतियों
का
प्रयोग
किया
गया
है।
तानसेन :
इतिहास और
सिनेमा -
तानसेन,
अर्थात
तानों
या
धुनों/सुरों/रागों
का
राजा,
उस
संगीत
सम्राट
का
वास्तविक
नाम
नहीं
अपितु
उनकी
कला-कौशल
के
कारण
मिली
एक
उपाधि
थी,
जिनको
विश्व
इसी
संज्ञा
से
जानता-पहचानता
है।
ऐतिहासिक
रूप
से
यह
स्पष्टः
स्थापित
नहीं
है
कि
उन्हें
यह
उपाधि
किसने
और
कब
दी
थी।
कई
विद्वान
व
इतिहासकार
मानते
हैं
कि
उन्हें
यह
संज्ञा
रीवा
नरेश
रामचन्द्र
सिंह
वघेल
ने
दी
थी,
तो
कई
मानते
हैं
कि
यह
सम्मान
उन्हें
राजा
रामचन्द्र
के
दरबार
में
आने
से
पूर्व
ही
मिल
चुकी
थी।
यह
सर्वसम्मत
है
कि
यह
उपाधि
उन्हें
मुग़ल
बादशाह
अकबर
ने
नहीं
दी
थी,
हालांकि
मुग़ल
दरबार
में
वह
मियां
तानसेन
के
नाम
से
प्रसिद्ध
थे।
उनके
वास्तविक
नाम
एवं
जन्मतिथि
पर
भी
इतिहासकार
एकमत
नहीं
हो
सके
हैं।
कुछ
मानते
हैं
कि
तानसेन
का
वास्तविक
नाम
रामतनु
पाण्डेय
था
और
उनका
जन्म
सन्
1492-93 ईस्वी में
हुआ
था,
वहीं
अन्य
उनका
मूल
नाम
रामतनु
मिश्र
‘तन्ना’ एवं जन्मतिथि
सन्
1500/1506 ईस्वी मानते
हैं।
इस
क्रम
में
महान
संगीतविद
आचार्य
कैलाश
चंद्र
देव
(के0 सी0 डी0)
बृहस्पति
जी
ने
बहुत
ही
उल्लेखनीय
रूप
से
तानसेन
की
जन्मतिथि
सन्
1492 ईस्वी स्थापित
करने
का
प्रयास
किया
है।[1]
प्रख्यात
सूफ़ी
संत
मुहम्मद
गौस
ग्वालियरी
एवं
महान
भक्तकवि
स्वामी
हरिदास
को
तानसेन
का
संगीत
गुरु
माना
जाता
है।
तानसेन
और
मुहम्मद
गौस
के
मकबरे
ग्वालियर
में
एक
दूसरे
के
समीप
बने
हैं।
स्वामी
हरिदास
को
बैजु
बावरा
का
संगीत
गुरु
भी
कहा
जाता
है,
जो
विभिन्न
किंवदंतियों
में
तानसेन
के
दिग्गज
प्रतिस्पर्धी
के
रूप
में
विख्यात
हैं। ऐतिहासिक दस्तावेजों
में
वर्णित
है
कि
सन्
1562 में तानसेन सर्वप्रथम
रीवा
नरेश
के
राज्य
से
मुग़ल
दरबार
में
लाए
गए
थे।
तानसेन
का
अकबर
के
दरबार
में
आना
अपने
आप
में
एक
दिलचस्प
वृत्तांत
है
जिस पर प्रस्तुत
पत्र
में
आगे
चर्चा
की
गई
है।
सन्
1562 से लेकर सन्
1589 में अपनी मृत्यु
तक
तानसेन
ने
मुग़ल
साम्राज्य
में
सर्वश्रेष्ठ
दरबारी
संगीतकार
के
रूप
में
संगीत
की
सेवा
की।
अबुल
फ़ज़ल
ने
उनकी
मृत्यु
का
वर्णन
करते
हुए
लिखा
है
कि
बादशाह
अकबर
के
आदेश
पर
तानसेन
की
शवयात्रा
में
अनेक
गीत-संगीतकार
किसी
विवाह
में
गाए-बजाए
जाने
वाले
गीत
गाते
और
धुनें
बजाते
हुए
महल
से
मकबरे
के
स्थान
तक
गए
थे।
बादशाह
अकबर
ने
अत्यधिक
दुखी
मन
से
अपने
सर्वप्रिय
दरबारियों
में
से
एक,
तानसेन
को
अंतिम
विदा
देते
हुए
कहा
था
कि
यह
(तानसेन का निधन)
राग
का
अंत
है।
फ़ज़ल
ने
लिखा
है
कि
सहस्र
वर्षों
में
कुछ
ही
होंगे
जिन्होनें
तानसेन
की
कला
और
मधुरता
की
बराबरी
की
होगी।[2]
यह
बात
एक
ही
समय
पर
आश्चर्यजनक
और
दुर्भाग्यपूर्ण
है
कि
इतने
महान
संगीतज्ञ
के
जीवन
को
उनके
किसी
समकालीन
इतिहासकार
या
लेखक
ने
कलम
से
कागज़
पर
सहेजने
की
आवश्यकता
अनुभव
नहीं
की
या
समय
नहीं
दे
सके।
कुछ
प्रसंगों
को
छोड़कर
अबुल
फ़ज़ल
और
बदायूंनी
ने
तानसेन
के
मुग़ल
दरबार
में
बीते
जीवन
का
कोई
विस्तृत
वर्णन
नहीं
किया
है।
जहाँगीर
ने
भी
अपनी
आत्मकथा
में
तानसेन
से
जुड़ी
अपनी
कुछ
यादों
को
अवश्य
सँजोया
है।
हालांकि
यहाँ
यह
बात
भी
ध्यान
में
रखनी
होगी
कि
उस
काल
में
सभी
सृजनकर्ता,
चाहे
वह
किसी
भी
विधा
के
हों,
अपने
राजा,
बादशाह,
सुल्तान
या
संरक्षक
की
सेवा
को
ही
अपना
परम
कर्तव्य
मानते
थे
और
उसके
अनुरूप
कार्य
करते
थे।
उनके
अतिरिक्त
जो
अन्य
स्वावलंबी
रचनाकार
थे
वे
मुख्यतः
प्रभुवंदन
में
अपना
समय
और
साधना
लगाते
थे।
इससे
हमें
ज्ञात
होता
है
कि
क्यूँ
अनेक
विरले
व्यक्तित्वों
को
लिखित
इतिहास
में
उल्लेखनीय
स्थान
नहीं
मिल
सका
है
और
उनके
जीवन
की
महत्वपूर्ण
स्मृतियाँ
आम
जनमानस
में
किंवदंतियों
के
रूप
में
ही
एक
पीढ़ी
से
दूसरी
पीढ़ी
को
मिलती
रही
हैं।
हिन्दी
सिनेमा
की
बात
करें
तो
संगीत
के
सम्राट
तानसेन
को
जितने
पन्ने
लिखित
इतिहास
में
नहीं
मिल
सकें
हैं,
उसकी
पूर्ति
हिन्दी
चलचित्रों
के
माध्यम
से
सिनेमाकारों
ने
करने
का
भरपूर
प्रयास
किया
है।
बादशाह
अकबर
के
कथित
नवरत्नों
में
से
एक
तानसेन
के
किरदार
वाली
जितनी
फिल्मों
का
निर्माण
हुआ
है,
उतनी
संभवतः
ही
किसी
अन्य
रत्न
पर
वर्तमान
समय
तक
में
बनाई
गईं
हैं।
इसके
साथ
ही,
संगीत
के
पुरोधाओं
की
श्रेणी
में
भी
तानसेन
एकमात्र
कलाकार
हैं
जो
हिन्दी
फ़िल्म
निर्माताओं
की
पहली
पसंद
रहे
हैं।
आइये
देखते
हैं
हिन्दी
सिनेमा
में
निर्माताओं
ने
तानसेन
के
जीवन
एवं
उनकी
प्रख्यात
कला
को
किस
प्रकार
चित्रित
किया
है।
पत्र
में
चयनित
फिल्मों
का
क्रम
तानसेन
के
जीवन
के
कालानुक्रमिक
है,
न
कि
उक्त
फ़िल्म-विशेष
के
प्रदर्शन
(रिलीज़) के
क्रम
में
-
तानसेन[3]
(1943) - इस फ़िल्म
का
आरंभ
फ़िल्म
निर्देशक
जयंत
देसाई
के
एक
संक्षिप्त
स्वगत-भाषण
से
होती
है
जिसमें
वह
दर्शकों
को
सूचित
करते
हैं
कि
फ़िल्म
में
मनोरंजन
हेतु
‘कलात्मक स्वतंत्रता’
(आर्टिस्टिक लिबर्टी)
ली
गई
है।
इसके
पश्चात
मूल
फ़िल्म
पर्दे
पर
आती
है।
यद्यपि
शीर्षक
से
यह
एक
जीवनी-फ़िल्म
(बायोपिक) लगती
है
किन्तु
फ़िल्म
में
तानसेन
को
सीधे
युवावस्था
से
एवं
एक
प्रवीण
गीतकार
के
रूप
में
प्रस्तुत
किया
गया
है,
जिससे
हमें
उनके
बचपन,
किशोरावस्था,
शिक्षा-दीक्षा
इत्यादि
के
बारे
में
कुछ
भी
पता
नहीं
चलता
है।
इसका
एक
मुख्य
कारण
उनके
जन्म
से
युवावस्था
पर
लिखित
इतिहास
या
ठोस
किंवदंती
का
न
होना
हो
सकता
है।
यहाँ
तानसेन
रीवा
रियासत
के
किसी
गाँव
की
एक
लड़की
तानी
को
उसके
राग
में
कमी
बताते
हुए
उसे
सही
राग
बताते
हैं।
चूंकि
तानी
का
तानसेन
से
यह
प्रथम
परिचय
होता
है
इसलिए
वह
उन्हें
गंभीरता
से
नहीं
लेती।
तानसेन
तानी
को
समझाते
हैं
कि
उन्होंने
वर्षों
अपने
गुरु
बाबा
हरिदास
की
सेवा
करके
संगीत
में
विशेषज्ञता
पाई
है।
इस
परिचय
से
तानी
तानसेन
को
पहचानते
हुए
बताती
है
कि
उसने
बचपन
से
उनकी
ख्याति
सुनी
है।
चूंकि
दोनों
की
आयु
में
थोड़ा
ही
अंतर
लगता
है,
अतः
कहा
जा
सकता
है
कि
तानसेन
अपनी
किशोरावस्था
से
ही
अपनी
कला
के
लिए
लोगों
में
पहचाने
जाने
लग
गए
थे।
घर
लौट
के
आत्मनिरीक्षण
में
व्यस्त
निराश
तानसेन
और
उनके
चाचा
रमज़ान
ख़ान
की
बातों
से
ज्ञात
होता
है
कि
तानसेन
ने
लगभग
20 वर्षों तक संगीत
सीखा
और
अभ्यास
किया
है,
जो
कि
इस
घटना
के
समय
उनकी
आयु
को
1492-1500 ईस्वी का
जन्म
मानने
से
कुछ
50 वर्ष स्थापित
करती
है।
फ़िल्म
में
तानसेन
का
परिवार
या
उन्हें
विवाहित
नहीं
दिखाया
गया
है,
और
उनका
तानी
के
साथ
एक
प्रेममय
कोण
प्रस्तुत
किया
गया
है।
कहानी में
कुछ
आगे
एक
घटना,
जिसमें
तानसेन
अपने
राग
से
शाही
मदमस्त
हाथियों
को
शांत
कर
देते
हैं,
के
कारण
तानसेन
की
मुलाकात
रीवा
के
राजा
रामचन्द्र
से
होती
है
और
वह
तानसेन
को
अपने
दरबार
में
आमंत्रित
करते
हैं।
तानसेन
उन्हें
मना
करते
हुए
बताते
हैं
कि
उन्होंने
अपने
गुरु
को
वचन
दिया
था
कि
वह
कोई
संगीत
के
अतिरिक्त
किसी
की
सेवा
नहीं
करेंगे।
तब
राजा
रामचन्द्र
उनके
सामने
मित्रता
का
प्रस्ताव
रखते
हैं
जिसे
तानसेन
सहर्ष
स्वीकार
कर
लेते
हैं।
इस
आधार
पर
हम
पाते
हैं
कि
लगभग
40-45 वर्ष की आयु
तक
तानसेन
किसी
राज-दरबार
में
नहीं
गाते
थे।
हालांकि
ऐतिहासिक
रूप
से
इसकी
पुष्टि
करना
सरल
नहीं
है।
इस
स्थिति
में
यहाँ
यह
प्रश्न
भी
उठता
है
कि
फिर
विगत
दो-ढाई
दशकों
तक
उन्होंने
कहाँ
अभ्यास
किया
और
उनके
जीविकोपार्जन
के
क्या
स्रोत
थे।
परंतु
इन
प्रश्नों
के
उत्तर
भी
हमें
नहीं
मिल
पाते
हैं।
राजा
के
जंगल
से
जाने
के
बाद
तानसेन
तानी
से
कहते
हैं
कि
अगर
मुग़ल
बादशाह
अकबर
भी
उन्हें
लेने
आयें
तो
भी
वह
तानी
को
छोड़कर
नहीं
जाएंगें।
स्पष्ट
है
कि
फ़िल्म
की
कहानी
अकबर
के
बादशाह
बनने
के
बाद
की
है,
और
चूंकि
तानसेन
1562 ईस्वी
में
मुग़ल
दरबार
से
जुड़े
थे,
अतः
यहाँ
अनुमान
लगाया
जा
सकता
है
कि
कहानी
का
कालक्रम
1556 से 1562 ईस्वी
के
मध्य
का
प्रदर्शित
किया
है।
प्राथमिक
स्त्रोतों
से
यह
स्थापित
है
कि
बादशाह
हुमायूँ
के
रीवा
रियासत
से
अच्छे
संबंध
थे।
हालांकि
अगले
ही
दृश्य
में
फ़िल्म
की
कहानी
के
कालखंड
का
यह
अनुमान
मिथ्या
साबित
होता
है
जब
मुग़ल
दरबार
में
एक
दरबारी
बादशाह
अकबर
को
सूचित
करता
है
कि
शहज़ादा
सलीम
ने
दक्कन
में
अहमदनगर
और
बीजापुर
पर
जीत
हासिल
कर
ली
है।
यहाँ
पर
फिल्मकार
की
कलात्मक
स्वतंत्रता
प्रदर्शित
होती
है।
विजय समाचारों
को
सुनने
पर
भी
उदास
अकबर
से
बीरबल
इसका
कारण
पूछते
हैं,
तब
अकबर
उन्हें
बताते
हैं
कि
दरबार
के
नवरत्नों
में
संगीत
रत्न
की
कमी
उनकी
उदासी
का
कारण
है।
अकबर
के
आदेश
पर
साम्राज्य
में
संगीत
रत्न
की
खोज
शुरू
होती
है।
इसी
क्रम
में
जलाल
ख़ान
कुरसी
रीवा
नरेश
को
उनके
पुत्र
के
बदले
तानसेन
को
मुग़ल
दरबार
में
भेजने
का
प्रस्ताव
देते
हैं।
राजा
रामचन्द्र
और
तानसेन
का
मन
ना
होने
के
बाद
भी[4]
अन्ततः
तानसेन
अपने
मित्र
के
लिए
अकबर
के
दरबार
में
आना
स्वीकार
कर
लेते
हैं।
अकबर,
जिनका
जन्म
1542 ईस्वी में हुआ
था,
को
फ़िल्म
में
तानसेन
से
उम्रदराज़
दिखाया
गया
है।
स्वागत-सभा
में
तानसेन
की
कला
से
अकबर
अत्यंत
प्रभावित
होते
हैं
और
उन्हें
अपने
नवरत्नों
में
सम्मिलित
कर
लेते
हैं।
अकबर
के
आदेश
पर
राजा
बीरबल
तानसेन
को
संगीत
रत्न
के
लिए
चयनित
कुर्सी
पर
बिठाते
हैं।
इतिहासकार
मानते
हैं,
और
बहुत
से
द्वितीयक
सोतों
के
अनुसार
भी,
तानसेन
और
बीरबल
दोनों
रीवा
के
राजा
रामचन्द्र
के
दरबार
से
ही
मुग़ल
दरबार
आए
थे
और
‘कविराय’ बीरबल भी
काव्य
व
संगीत
में
प्रवीण
थे,
अतः
संभव
है
कि
बीरबल
ने
ही
तानसेन
का
नाम
अकबर
को
सुझाया
हो।
हालांकि
फ़िल्म
में
दोनों
का
प्रथम
परिचय
मुग़ल
दरबार
में
ही
दिखाया
गया
है।
कुछ नाटकीय
प्रसंगों
के
साथ
फ़िल्म
उस
मोड़
पर
पहुँचती
है
जब
अकबर
की
पुत्री
की
तबीयत
बिगड़
जाती
है
और
शाही
हकीम
हाथ
खड़े
करते
हुए,
बादशाह
अकबर
को
संगीत-चिकित्सा
(म्यूज़िक थेरेपी)
की
सलाह
देते
हैं।
दरबार
के
तमाम
गीत-संगीतकार
प्रयास
करते
हैं
परंतु
सफल
नहीं
हो
पाते
हैं।
तानसेन
के
प्रतिद्वंद्वी
शहज़ादी
को
कहते
हैं
कि
दीपक
राग
से
उनकी
तबीयत
सही
हो
सकती
है।
अकबर
के
बार-बार
आग्रह
पर
तानसेन
गाने
को
तैयार
हो
जाते
हैं।
सभा
बैठती
है
और
तानसेन
राग
गाना
आरंभ
करते
हैं।
जल्द
ही
दरबार
के
दीप
आदि
जल
उठते
हैं
और
जल
उबलने
लगता
है,
पर
साथ
ही
साथ
तानसेन
की
स्थिति
भी
राग
के
प्रभाव
से
बिगड़ने
लगती
है।
संगीत
कार्यक्रम
समाप्त
कर
तपते
हुए
तानसेन
शीतल
जल
की
खोज
में
भागते
हैं।
सौभाग्य
से
कुछ
दूरी
पर
उन्हें
तानी
मिल
जाती
है
जो
मल्हार
राग
का
गायन
कर
तानसेन
का
जीवन
बचा
लेती
है
और
फ़िल्म
यहाँ
समाप्त
हो
जाती
है।
कुछ
विद्वानों
का
मानना
है
कि
वर्णित
घटना
के
पश्चात
राग
मल्हार
उनकी
पुत्री
द्वारा
गाया
गया
था,
जबकि
कुछ
ऐसा
भी
मानते
हैं
कि
राग
दीपक
ही
तानसेन
की
मृत्यु
का
कारण
बना
था।
चूंकि
अकबर,
बीरबल
की
मृत्यु
के
पश्चात
1586 ईस्वी में लाहौर
चले
गए
थे
और
अबुल
फ़ज़ल
के
अनुसार
तानसेन
की
मृत्यु
1589 ईस्वी में दिल्ली
या
आगरा
में
हुई
थी,
अतः
दीपक
राग
के
कारण
उनकी
मृत्यु
होने
की
बात
तर्कसंगत
नहीं
लगती
है।
उनके
जन्म
के
कथित
वर्ष
1492 अथवा 1500 होने
की
स्थिति
में
तानसेन
का
देहांत
लगभग
90 या 100 वर्ष
की
आयु
में
वृद्धावस्था
के
कारण
प्राकृतिक
रूप
से
हुआ
होगा,
ऐसा
कहा
जा
सकता
है।
प्रस्तुत
फ़िल्म
में
एक
संक्षिप्त
कालखंड
को
संगीतमय
रूप
में
दर्शाया
गया
है
और
यह
कुल
13 गीतों से सजी
हुई
तानसेन
को
एक
योग्य
श्रद्धांजलि
प्रतीत
होती
है।
मीरा[5]
(1979) - यह फ़िल्म
प्रसिद्ध
कृष्णभक्त
मीराबाई
के
जीवन
पर
आधारित
है।
मुग़ल
साम्राज्य
के
कालक्रम
के
दृष्टिकोण
से
फ़िल्म
पूर्णतः
काल्पनिक
है
जिसमें
मीराबाई
को
अकबर
का
समकालीन
दिखाया
गया
है।
इस
फ़िल्म
की
कहानी
के
अनुसार
एक
बार
बादशाह
अकबर
तानसेन
के
साथ
भेष
बदलकर
मीराबाई
के
भजन
सुनने
गए
थे।
लेखक
ईश्वरी
प्रसाद
माथुर
ने
उक्त[6]
एवं
अन्य
किंवदंतियों
का
संकलन
व
उल्लेख
अपनी
पुस्तक
‘तानसेन’ में
किया
है।
यह
घटना
ऐतिहासिक
रूप
से
कल्पना
मात्र
है
क्यूंकी
मीराबाई
का
देहावसान
1547 ईस्वी में हो
गया
था,
जबकि
अकबर
का
जन्म
ही
1542 ईस्वी में हुआ
था
और
तानसेन
भी
1562 ईस्वी से पूर्व
मुग़ल
दरबार
का
हिस्सा
नहीं
थे।
फ़िल्म
में
अकबर
के
ज्येष्ठ
पुत्र
सलीम
के
जन्म
का
भी
वर्णन
है,
अर्थात
मुग़ल
साम्राज्य
का
कालक्रम
1569 ईस्वी से आगे
का
दिखाया
गया
है।
यह
अवश्य
संभव
है
कि
किसी
समय
तानसेन
ने
मीराबाई
के
भक्तिमय
भजनों
को
व्यक्तिगत
रूप
से
सुना
होगा
क्यूंकी
दोनों
के
जन्मवर्ष
में
मात्र
कुछ
ही
अंतर
था।
रानी
रूपमती[7]
(1957) - इस फ़िल्म
का
केन्द्रबिन्दु
मालवा
के
सुल्तान
बाज़
बहादुर
और
रानी
रूपमती
की
प्रसिद्ध
कथा
है।
दोनों
की
ही
संगीत
में
उतनी
ही
प्रवीणता
थी
जितनी
कि
तानसेन
की,
जो
ऐतिहासिक
तौर
पर
उस
समय
रीवा
नरेश
के
दरबार
में
थे।
फ़िल्म
में
तानसेन
को
अकबर
का
दरबारी
संगीतकार
दिखाया
गया
है।
फ़िल्म
की
समयरेखा
मूल
इतिहास
से
अधिक
नहीं
किन्तु
कुछ
आगे-पीछे
अवश्य
चलती
है।
बाज़
बहादुर
जब
मालवा
सुल्तान
बने
थे,
उस
समय
हुमायूँ
दिल्ली
और
आगरा
को
दोबारा
जीतने
में
संघर्षरत
थे,
न
कि
उनके
किशोर
पुत्र
अकबर
की
बादशाहत
थी।
अतः
फिल्मकार
द्वारा
ली
गई
कलात्मक
स्वतंत्रता
यहाँ
दृष्टिगोचर
होती
है,
क्यूंकी
उन्होंने
शासन
से
अलग,
संगीत
को
फ़िल्म
का
मुख्य
आधार
बनाया
है
जिसके
मुख्य
स्तम्भ
बाज़
बहादुर,
रानी
रूपमती
और
संगीत
रत्न
तानसेन
हैं।
तीनों
के
बीच
एक
संगीत
मुकाबला
फ़िल्म
का
महत्वपूर्ण
और
मनोरम
भाग
है।
अबुल
फ़ज़ल[8]
और
ख्वाजा
निज़ामुद्दीन
अहमद[9]
दोनों
ही
ने
बाज़
बहादुर
को
एक
बेजोड़
गायक
बताया
है,
वहीं
ख्वाजा
निज़ामुद्दीन
अहमद
ने
रानी
रूपमती
के
गीतों
की
भी
प्रशंसा
की
है,
जबकि
फ़ज़ल
ने
उनकी
अद्वितीय
वीरता
की,
जो
रानी
रूपमती
ने
अधम
ख़ान
और
पीर
मुहम्मद
ख़ान
के
मालवा
पर
आक्रमण
के
समय
प्रदर्शित
की
थी।
फ़िल्म
के
अंत
को
संक्षिप्त
नाटकीयता
का
पुट
देते
हुए
निर्देशक
एस0
एन0
त्रिपाठी
ने
दोनों
का
बलिदान
एक
साथ
दर्शाया
है।
यह
इतिहास
में
वर्णित
है
कि
रानी
रूपमती
ने
अपना
सर्वोच्च
त्याग
1561 ईस्वी में किया
था,
किन्तु
बाज़
बहादुर
का
निधन
इसके
बहुत
समय
पश्चात
हुआ
था।
जिस
प्रकार
तानसेन
रागों
और
सुरों
में
महारथी
थे,
उसी
प्रकार
वह
गीत-संगीतकारों
को
पहचानने
में
भी
अद्वितीय
थे,
जिसके
फलस्वरूप
अंततः
1570 ईस्वी में बादशाह
अकबर
ने
बाज़
बहादुर
को
अपने
दरबार
में
सम्मिलित
कर
लिया
था[10]
और
वह
दरबार
के
प्रमुख
गायकों
में
गिने
गए।
बैजु
बावरा[11]
(1952) - तानसेन का
संभवतः
ही
कोई
समकालीन
गीत-संगीतकार
इतना
प्रसिद्ध
हुआ
जितना
कि
बैजु
बावरा।
किन्तु
ऐतिहासिक
स्रोतों
में
इस
नाम
के
किसी
व्यक्तित्व
का
उल्लेख
स्पष्ट
नहीं
मिलता
है,
हालांकि
किंवदंतियों
में
बैजु
बावरा
का
एक
उच्च
स्थान
है
जो
तानसेन
से
कमतर
नहीं
है।
यह
फ़िल्म
बैजु
के
बारे
में
प्रसिद्ध
एक
लोककथा
पर
केंद्रित
है।
फ़िल्म
का
आरंभ
आगरा
में
तानसेन
की
हवेली
के
बाहर
एक
स्थान
से
होता
है
जहां
कुछ
वैष्णव
भक्त
भजन
गाते
हुए
जा
रहे
होते
हैं
और
मुग़ल
सैनिकों
के
साथ
उनका
संघर्ष
होता
है
जिसमें
भक्तनायक
की
मृत्यु
हो
जाती
है।
मरते
समय
वह
अपने
नाबालिग
पुत्र
बैजनाथ
(बैजु) से वचन
लेता
है
कि
बैजु
तानसेन
से
भी
बड़ा
संगीतकार
बनेगा
और
उसकी
मृत्यु
का
प्रतिशोध
लेगा।
पता
चलता
है
कि
हरिभक्त
समूह
गुजरात
के
चम्पानेर
से
वृंदावन
जा
रहा
था
जहां
बैजु
के
पिता
उसे
स्वामी
हरिदास
के
पास
संगीत
की
शिक्षा
दिलाने
ले
जा
रहे
थे
किन्तु
मार्ग
में
उपरोक्त
दुर्घटना
घटने
से
उनकी
यह
योजना
अधूरी
रह
जाती
है
और
एक
अन्य
संगीतकार
बैजु
को
गोद
ले
लेता
है।
समय
बीतने
के
साथ
बैजु
बड़ा
होता
है
और
संगीत
में
भी
पारंगत
होता
जाता
है
किन्तु
अनाथ
होने
के
कारण
समाज
में
उसे
उपेक्षा
और
उपहास
का
सामना
करना
पड़ता
है,
किन्तु
गौरी
उसका
मनोबल
बनाए
रखती
है।
कहानी बढ़ने
के
साथ
बैजु
अपने
पिता
की
मृत्यु
का
प्रतिशोध
लेने
तानसेन
की
हवेली
में
पहुंचता
है
किन्तु
तानसेन
की
साधना
देख
उन्हें
उस
समय
मारता
नहीं
है।
तानसेन
से
संक्षिप्त
मुलाकात
के
बाद
शीघ्र
ही
वह
वृंदावन
में
स्वामी
हरिदास
के
पास
जाता
है
और
उनसे
संगीत
की
शिक्षा
लेता
है।
स्वामी
हरिदास
बैजु
को
बदले
की
भावना
त्याग
देने
को
कहते
हैं।
इसी
क्रम
में
गौरी
अपना
बलिदान
कर
देती
है।
गौरी
को
मृत
समझकर
सदमे
में
बैजु
‘बावरा’ (पागल) हो
जाता
है।
भटकते
हुए
एक
बार
पुनः
वह
तानसेन
की
हवेली
के
पास
पहुँच
जाता
है
और
सिपाही
उसे
बंदी
बना
लेते
हैं।
मुग़ल
बादशाह
अकबर
के
समक्ष
बैजु
और
तानसेन
के
बीच
संगीत
का
मुकाबला
आयोजित
किया
जाता
है
जिसमें
हारने
वाले
को
मृत्युदंड
का
प्रावधान
निर्धारित
है।
एक
अद्वितीय
प्रतिस्पर्धा
के
बाद
अंततः
बैजु
तानसेन
से
जीत
जाता
है।
जीत
में
बैजु
तानसेन
को
जीवनदान
दिलाने
में
सफल
होता
है,
अतः
वह
तानसेन
हेतु
अपने
बदले
की
भावना
पर
भी
विजय
प्राप्त
कर
लेता
है।
सिनेमाई
स्वतंत्रता
के
क्रम
में
एवं
लिखित
इतिहास
के
अभाव
में
फ़िल्म
बैजु
की
यमुना
में
डूबने
से
मृत्यु
और
उसके
साथ
गौरी
के
सर्वोच्च
बलिदान
के
साथ
समाप्त
होती
है।
फ़िल्म
में
प्रदर्शित
एक
संगीत
स्पर्धा
में
तानसेन
की
पराजय
एक
अविश्वसनीय
घटना
प्रतीत
होती
है
किन्तु
तानसेन
के
समकालीन
मुग़ल
दरबारी
बदायूंनी
ने
1577-8 ईस्वी की
एक
घटना
का
उल्लेख
किया
है
जिसमें
अकबर
और
शेख़
मुबारक
(अबुल फ़ैज़ ‘फ़ैज़ी’
और
अबुल
फ़ज़ल
के
पिता)
दोनों
ही
ने
शेख़
बंज्हू
(बख्शु?) नामक एक
गायक
को
तानसेन
व
अन्य
दरबारी
गीत-संगीतकारों
में
श्रेष्ठ
माना
था
(मुंतखाब अत-तवारीख़
II 273)। फ़िल्म
की
कल्पित
समयरेखा
सन्
1565 से 1580 ईस्वी
के
मध्य
की
कही
जा
सकती
है।
चिन्तामणी
सूरदास[12]
(1988) - प्रस्तुत फ़िल्म
प्रख्यात
कृष्णभक्त
सूरदास
के
जीवनकाल
पर
केंद्रित
है।
फ़िल्म
में
एक
प्रसंग
दिखाया
गया
है
जिसमें
मुग़ल
बादशाह
अकबर
एक
बार
दरबार
में
तानसेन
से
सूरदास
के
पद
सुनकर
उनसे
मिलने
की
इच्छा
जताते
हैं
और
उनसे
मिलने
बृज
जाते
हैं।
भक्तमाल भक्त-चरितांक[13]
के
अनुसार
उक्त
मुलाकात
विक्रम
संवत्
1623 अर्थात् सन्
1566-67 ईस्वी में
हुई
थी।
यह
दर्शाता
है
कि
तानसेन
अपने
समकालीन
पुरोधाओं
का
कितना
आदर
करते
थे।
मुग़ल-ए-आज़म[14]
(1960) - यह केवल
हिन्दी
ही
नहीं
अपितु
भारतीय
सिनेमा
की
सर्वकालिक
प्रसिद्ध
फिल्मों
में
से
है।
इस
फ़िल्म
का
आधार
एक
कथित
प्रसंग
है
जिसके
मुख्य
स्तम्भ
बादशाह
अकबर,
युवराज
सलीम
और
अनारकली
हैं।
अनारकली
के
ऐतिहासिक
अस्तित्व
पर
इतिहासकार
और
विद्वान
एकमत
नहीं
हैं,
अतः
उक्त
प्रसंग
की
ऐतिहासिकता
भी
स्थापित
नहीं
है।
हालांकि
लोकवार्ताओं
और
किंवदंतियों
में,
और
फिल्मों
में
भी,
अनारकली
एक
प्रसिद्ध
किरदार
है।
बादशाह
जहाँगीर
के
शासनकाल
में
भारत
की
यात्रा
पर
आने
वाले
बहुत-से
यूरोपीय
व्यक्तित्वों
ने
अनारकली
और
लाहौर
स्थित
अनारकली
के
मकबरे
का
उल्लेख
किया
है,
किन्तु
तत्कालीन
मुग़ल
अथवा
भारत
के
अन्य
राज
दरबारों
के
लिखित
इतिहास
में
अनारकली
का
उल्लेख
नहीं
मिलता
है,
यहाँ
तक
कि
जहाँगीर
की
आत्मकथा
में
भी
नहीं।
जहाँगीर
ने
अपनी
जीवनी
में
तानसेन
के
कुछ
प्रसंगों
का
उल्लेख
करते
हुए
उनकी
प्रशंसा
अवश्य
की
है।[15]
फ़िल्म
में
तानसेन
के
किरदार
को
कहानी
के
प्रमुख
मोड़ों
पर
एक
सूत्रधार
के
तौर
पर
प्रस्तुत
किया
गया
है
जिनके
रागों
से
दर्शकों
को
कहानी
के
सुर
में
बदलाव
आने
का
संकेत
होता
है-
जैसे
दक्कन
के
विजयी
अभियान
के
बाद
सलीम
के
राजधानी
आगमन
पर
शुभ दिन
आयो और
सलीम-अनारकली
के
प्रसंग
के
आरंभ
पर
प्रेम जोगन
बन के।
फ़िल्म
में
तानसेन
के
किरदार
की
कहानी
अपने
आप
में
बहुत
रोचक
है
जिसे
राजकुमार
केसवानी
ने
अपनी
पुस्तक
में
सँजोया
है[16]।
उन्होंने
इसका
भी
उल्लेख
किया
है
कि
किस
प्रकार
इस
फ़िल्म
का
प्रधान
आधार
सन्
1922 ईस्वी में नवीस
इम्तियाज़
अली
‘ताज’ द्वारा लिखा
नाटक
‘अनारकली’ था
(केसवानी 20)। ऐतिहासिक
रूप
से
भी,
अकबर
ने
1586 ईस्वी
में
जब
लाहौर
को
साम्राज्य
की
राजधानी
बनाया
था
तब
सलीम
की
आयु
16-17 वर्ष थी, और
तानसेन
लाहौर
नहीं
गए
थे।
वह
दिल्ली
अथवा
आगरा
ही
थे
जहां
3 वर्ष
पश्चात्
सन्
1589 ईस्वी में उनका
निधन
हो
गया
था।
फिर
भी
निर्देशक
के0
आसिफ़
द्वारा
ली
गई
सिनेमाई
स्वतंत्रता
ने
तानसेन
की
कल्पित
उपस्थिति
से
फ़िल्म
की
सुंदरता
और
भव्यता
कई
गुना
बढ़ा
दी
है।
निष्कर्ष
: संगीत सम्राट
तानसेन
का
लगभग
एक
शताब्दी
लंबा
जीवनकाल
संगीत
साधना
के
प्रति
पूर्णतः
समर्पित
रहते
हुए
बीता।
लिखित
इतिहास
से
ज्ञात
होता
है
कि
उन्होंने
दो
साम्राज्यों-
रीवा
और
तत्पश्चात्
मुग़ल,
के
दरबार
में
अपने
जीवन
का
एक
महत्वपूर्ण
समय
व्यतीत
किया
था।
अन्य
स्रोतों
और
लोक-कथाओं
से
पता
चलता
है
कि
तानसेन
भजन,
काव्य
एवं
गीत-संगीत
जगत
की
बहुत-सी
महान
विभूतियों
जैसे
मीराबाई,
सूरदास,
तुलसीदास,
दुरसा
आढ़ा,
अब्दुर
रहीम
‘ख़ान-ख़ानां’, बैजु
बावरा,
बाज़
बहादुर,
रानी
रूपमती,
नायक
बख्शु
आदि
के
समकालीन
थे
तथा
इनमें
से
बहुत
के
साथ
तो
उनका
व्यक्तिगत
परिचय
भी
था।
तानसेन
की
विनम्रता
और
उनके
द्वारा
दूसरे
गीत-संगीतकारों
को
दिये
जाने
वाले
मान-सम्मान
और
आदर
को
उपरोक्त
फिल्मों
में
व्यापक
रूप
से
प्रदर्शित
किया
गया
है।
यह
उनके
व्यवहार
का
एक
अभिन्न
अंग
था,
जिसका
उल्लेख
और
प्रशंसा
अबुल
फ़ज़ल
ने
भी
कलमबद्ध
किया
है।
फ़िल्मों में
तानसेन
के
किरदार
के
प्रस्तुतीकरण
का
विश्लेषण
करने
पर
हम
पाते
हैं
कि
तानसेन
के
जीवन
या
उनके
प्रसंगों
वाली
अब
तक
की
सभी
हिन्दी
फ़िल्मों
में
तानसेन
को
मुग़ल
बादशाह
अकबर
से
आयु
में
युवा
ही
दर्शाया
गया
है,
जो
कि
ऐतिहासिक
रूप
से
तर्कसंगत
नहीं
है।
तानसेन
आयु
में
अकबर
से
दशकों
बड़े
थे।
इस
प्रकार
की
सिनेमाई
प्रस्तुतीकरण
का
आधार
17वीं सदी के
बाद
के
चित्रों
में
उनका
चित्रण
माना
जा
सकता
है
जिसमें
उन्हें
अकबर
से
कम
आयु
का
दिखाया
गया
है।
इस
क्रम
में
‘स्वामी हरिदास के
साथ
तानसेन
और
अकबर’,
‘अकबर के नवरत्न’
विषयक
कई
चित्र
देश
के
प्रमुख
संग्रहालयों
में
प्रदर्शित
हैं
जिसमें
चित्रकारों
द्वारा
कलात्मक
स्वतंत्रता
का
उपयोग
किया
गया
है,
किन्तु
यह
छवियाँ
उसी
रूप
में
आमजन
की
चेतना
का
अभिन्न
भाग
बन
चुकी
हैं।
लेखक
प्रभुदयाल
मीतल[17]
ने
भी
अपनी
पुस्तक
के
माध्यम
से
पाठकों
का
ध्यान
ऐसे
चित्रण
की
ओर
आकृष्ट
करने
का
प्रयास
किया
है।
फ़िल्में और
इतिहास
दो
अलग-अलग
विधाएं
हैं,
और
इतिहास
के
भी
अपने
विभिन्न
आयाम
हैं।
परंतु
लिखित
इतिहास
में
बहुत
से
व्यक्तित्वों
को
किन्हीं
कारणों
से
उचित
स्थान
प्राप्त
नहीं
हो
पाता
है।
तानसेन
के
विषय
में
भी
यह
प्रत्यक्ष
है।
अपने
काल
के
महानतम
संगीतकारों
में
से
एक
तानसेन,
जिनकी
कला
के
विषय
में
इतिहासकारों
और
आधुनिक
संगीतकारों
में
भी
कोई
दो
राय
नहीं
है,
किन्तु
इतिहास
के
पन्नों
में
उनके
कुछ
छिटपुट
प्रसंग
ही
मिलते
हैं।
ऐसे
में
फ़िल्मकारों
के
प्रयास
अत्यधिक
महत्वपूर्ण
हो
जाते
हैं।
कुछ
इतिहास,
कुछ
लोककथाओं,
और
कुछ
कल्पना
के
मिश्रण
से
सिनेमा
के
बड़े
पर्दे
पर
तानसेन
के
जीवन
और
कला-कौशल
को
प्रदर्शित
करने
का
जो
कार्य
सिनेमाकारों
ने
किया
है,
उसका
उचित
अभिवादन
किया
जाना
चाहिए।
बड़े
पर्दे
पर
चित्रित
तानसेन
का
जीवन
मात्र
काल्पनिक
कहानी
या
मनोरंजक
चित्रण
कह
कर
भुलाया
नहीं
जाना
चाहिए,
अपितु
यह
वह
चित्रित
इतिहास
व
निरूपण
है
जो
इतिहास
के
पन्ने
विभिन्न
कारणों
से
हम
तक
नहीं
पहुंचा
सके।
परिसीमा -
तानसेन के
जीवन
पर
बनी
एक
प्रमुख
हिन्दी
फ़िल्म
‘संगीत सम्राट
तानसेन (1962)’ के
जनमानस
अनुक्षेत्र
में
अनुपलब्ध
होने
के
कारण
उक्त
फ़िल्म
को
प्रस्तुत
अध्ययन
में
सम्मिलित
नहीं
किया
जा
सका
है।
आभार :
प्रस्तुत
शोध पत्र
लेखक
के
प्रवर्तमान
पीएच. डी. शोध
प्रबंध
के
एक
भाग
पर
आधारित
है।
लेखक
विश्वविद्यालय
अनुदान
आयोग,
जामिया
मिल्लिया
इस्लामिया
नई
दिल्ली,
भारतीय
इतिहास
अनुसंधान
परिषद
नई
दिल्ली,
इंदिरा
गाँधी
राष्ट्रीय
कला
केंद्र
नई
दिल्ली,
राष्ट्रीय
संग्रहालय
नई
दिल्ली,
इंटरनेट
आर्काइव,
राष्ट्रीय
फ़िल्म
संग्रहालय
पुणे,
और
यूट्यूब
चैनल्स
सिनेकरी
क्लासिक्स,
ईगल
होम
एंटेरटैनमेंट,
शेमारू
भक्ति
दर्शन,
शेमारू
मूवीज़,
नूपुर
मूवीज़,
एवं
नरगिस
एंटेरटैनमेंट के
प्रति
आभारी
है।
संदर्भ :
[1] डॉ. वी. राघवन (सं.), कम्पोज़र्स, नई दिल्ली: प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1954, पृ. 71-84
[2]अबुल फ़ज़ल एवं इनायतुल्ला, अकबरनामा, तृतीय खण्ड (हेनरी बेवेरिज द्वारा पर्शियन से अंग्रेज़ी में अनूदित), कलकत्ता: द एशियाटिक सोसाइटी (प्रथम प्रकाशन 1939), 17वीं सदी, पृ. 816
[3] तानसेन, जयंत देसाई (निर्देशक),
रंजीत मूवीटोन (निर्माता), 1943
[4]अब्दुल क़ादिर बदायूंनी, मुंतखाब अत-तवारीख़, द्वितीय खण्ड (संपा0 जॉर्ज एस. ए. रैंकिंग, एवं सर एच0 एम. एलीयट और जॉन डौसन द्वारा पर्शियन से अंग्रेज़ी में अनूदित), नई दिल्ली: अटलांटिक पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रथम प्रकाशन
1990), 1596, पृ. 345
[5] मीरा, गुलज़ार (निर्देशक), प्रेमजी एवं जे. एं. मनचन्दा (निर्माता), 1979
[6] ईश्वरी प्रसाद माथुर, तानसेन, हाथरस: संगीत कार्यालय, 1942, पृ. 49-50
[7] रानी रूपमती, एस. एन. त्रिपाठी (निर्देशक),
आर. एन. मडलोई (निर्माता), 1957
[8]अबुल फ़ज़ल, आईन-ए-अकबरी, प्रथम खण्ड (एनरिक ब्लॉचमैन द्वारा पर्शियन से अंग्रेज़ी में अनूदित), कलकत्ता: द एशियाटिक सोसाइटी (प्रथम प्रकाशन 1873), 16वीं-17
वीं सदी, पृ. 612
[9]ख्वाजा निज़ामुद्दीन अहमद, तबक़ात-ए-अकबरी, द्वितीय खण्ड (बी. डे द्वारा पर्शियन से अंग्रेज़ी में अनूदित), कलकत्ता: द एशियाटिक सोसाइटी (प्रथम प्रकाशन 1936), 16वीं सदी, पृ. 252
[10]अबुल फ़ज़ल, अकबरनामा, द्वितीय खण्ड (हेनरी बेवेरिज द्वारा पर्शियन से अंग्रेज़ी में अनूदित), कलकत्ता: द एशियाटिक सोसाइटी (प्रथम प्रकाशन 1907), 1596, पृ. 518
[11] बैजु बावरा, विजय भट्ट (निर्देशक), विजय भट्ट एवं शंकर भट्ट (निर्माता), 1952
[12] चिन्तामणी सूरदास, राम पाहवा (निर्देशक), राम पाहवा एवं प्रबीर कुमार (निर्माता), 1988
[13] हनुमानप्रसाद पोद्दार एवं अन्य (सं.), भक्तमाल भक्त-चरितांक, गोरखपुर: गीताप्रेस गोरखपुर, 1991, पृ. 348-351
[14] मुग़ल-ए-आज़म, के. आसिफ़ (निर्देशक व निर्माता),
1960
[15] नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर एवं अन्य, जहाँगीरनामा (व्हीलर एम. थैकस्टन द्वारा पर्शियन से अंग्रेज़ी में अनूदित), संयुक्त राष्ट्र अमेरिका: स्मिथसोनियन इंस्टिट्यूशन एवं ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1999, पृ. 239 व 293
[16] राजकुमार केसवानी, दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म, नई दिल्ली: मंजुल पब्लिशिंग हाउस, 2020, पृ. 184-199
[17] प्रभुदयाल मीतल, संगीत-सम्राट तानसेन: जीवनी और रचनाएं, मथुरा: साहित्य संस्थान, 1961, पृ. 27
शोधार्थी, ललित कला संकाय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
सम्पर्क : 85275 76408, anandkrsingh19@gmail.com
Interesting great... बघेल नहीं वहां बाघेला उपयुक्त है
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