- गौरव भारती
1. उदासी
ख़ुद को
समेटते
हुए
महसूस हुआ
कितना बिखरा
हूँ
मैं!
ख़ुद को
तह
कर
समेट
पाना
कितना
मुश्किल
है
कितना मुश्किल
है
दुःख
से
भरी
रातों
को
काटना
और मन
की
उदासी
का
शामों
में
विस्तार
देखना
मैं भागने
को
भाग
जाऊँ
जंगल, पहाड़ या
सुदूर
किसी
गाँव
जहाँ मुझे
कोई
न
जानता
हो
लेकिन मैं
ख़ुद
को
जानता
हूँ
इस सच
से
कहाँ
तक
भाग
पाऊँगा!
ख़ुद को
जानना
ख़ुद को
न
जानने
से
बड़ा
हादसा
है
मेरी मासूमीयत
इसी हादसे
में
खो
गयी।
2. एक
यूँ ही
मौत
जिन दिनों
मैं उलझ
रहा
था
अपनी
नींद
से
जिन दिनों
मैं तोते
की
तरह
रट
रहा
था
ऐतिहासिक
तथ्य
जिन दिनों
रातें बड़ी
मुश्किल
से
कटती
थीं
और सुबह
का
कोई
ख़ास
अर्थ
नहीं
रह
गया
था
जीवन
में
उन दिनों
तुम्हें
याद
कर
मैं टालता
रहा
सारी
दुश्चिंताएँ
मुझे लगता
रहा
एक दिन
मेरी
अनियमितताएँ
ख़त्म
हो
जाएँगी
और मैं
सकुशल
लौट
आऊँगा
अपने पूरे
वज़ूद
में
यह एक
भ्रम
था
जिसे टूटना
ही
था
और वह
टूट
गया
अब लगता
है
एक अभिशप्त
जीवन
जी
रहा
हूँ
मुझे याद
आती
है
एक कहानी
जिसका नायक
तमाम संभावनाओं
के
बीच
मारा
गया
संभव है
मैं
भी
मारा
जाऊँ
अपनी शिनाख़्त
में
एक यूँ
ही
मौत
जब मैं
मारा
जाऊँ
मुझ पर
तरस
खाना
मेरे
दोस्तों
मैं जीना
चाहता
था
अपनी जिजीविषाओं
में
पैबंद
लगाकर
मुझे मेरे
अटूट
यक़ीन
ने
ही
मारा
होगा।
बयान
काव्य पंक्तियों
में
जितना बचा
हूँ
उतना ही
बचा
हूँ
जीवन
में
मुझे मेरी
कविताओं
से
बाहर
न
देखा
जाए
देखा जाए
तो
बस इतना
कि
मैं अपनी
पंक्तियों
का
भार
लिए
फ़िर
रहा
हूँ, या
कि पंक्तियाँ
ढो
रही
हैं
मुझे
मुझसे मिलना
हो
तो
मेरे लिखे
में
ढूंढा
जाए
मुझे
पंक्तियों
को
लिए-लिए
फ़िरा
हूँ
मैं
सड़कों
पर
मैंने जीवन
को
कविता
की
तरह
जिया
है
मैं जिससे
भी
मिला
मिला कविता
की
तरह
लोगों ने
मुझे
समझा
तो
मुझे
तसल्ली
हुई, कि
मनुष्य एक
पंक्ति
के
सहारे
खड़ा
हो
सकता
है।
3. दरमियाँ
हमारी छोटी
सी
इस
दुनिया
में
इतनी जगह
नहीं
थी, कि
बिछड़कर फिर
न
मिलने
की
संभावनाएँ
ख़त्म
हो
जातीं
हम बिछड़कर
मिलते
रहे
और मिलकर
बिछड़ते
रहे
इस दरमियाँ
मैंने इंतज़ार
को
जीया
कुछ कहानियाँ
जुटाईं
किसी अजनबी
के
साथ
बेपरवाही
की
हद
तक
अभिव्यक्त
हुआ
नए शहरों
को
देखा
नए लोगों
को
अपने
क़रीब
जगह
दी
इस दरमियाँ
मैं बार-बार
ख़ुद
को
उधेड़कर
सिलता
रहा
कुछ पौधे
उगाए
बच्चों को
हँसाया
और किराए
के
कमरे
में
रहते
हुए
लगातार घर
के
बारे
में
सोचता
रहा
इस दरमियाँ
मैंने उन
संभावनाओं
की
तरफ़
भी
देखा
जो हास्यास्पद
होते
हुए
भी
उम्मीद
की
तरह
दिखे।
4. विस्मृति
से पहले
मेरी हथेली
को
कैनवास
समझ
जब बनाती
हो
तुम
उस
पर
चिड़िया
मुझे लगता
है
तुमने खुद
को
उकेरा
है
अपने अनभ्यस्त
हाथों
से।
चहारदीवारी
और
एक
छत
से
बने
इस
छोटे
से
कमरे
में
अपनी हथेली
को
निहारता
हूँ
तुम्हें
देखता
हूँ
मुझे मेरा
बचपन
याद
आता
है।
पतंग उड़ाने
का
बहुत
शौक
रहा
मुझे
कई बार
मेरी
पतंगें
टकराईं
हैं
आकाश में
उड़तीं
चिड़ियों
से
मैं तुमसे
टकरा
गया
मेरा प्रारब्ध
है।
अनायास ही
मेरे
काँधे
पर
जब रखती
हो
तुम
अपना
सिर
मैं थोड़ा
ज़िम्मेदार
हो
जाता
हूँ
खुली सड़क
पर
जब तुम
थामती
हो
मेरा
हाथ
टूटता है
मेरा
देहाती
परिवेश
मुझे साहस
मिलता
है
जब तुम
झगड़ती
हो
बच्चों
की
तरह
मैं भूल
जाता
हूँ
मेरी उम्र
अट्ठाईस
हो
गई
है।
सचमुच!
कभी-कभी
भूल
जाना
कितना
अच्छा
होता
है
कभी-कभी
हार
जाना
कितना
अच्छा
होता
है
मैं हर
बार
हार
जाना
चाहूँगा
तुमसे
मैं हर
बार
भूल
जाना
चाहूँगा
हमारे
मतभेद।
याद रखने
को
कईं
बातें
हैं
मैं याद
रखूँगा
तुम्हारे
हाथों
का
कौर
याद रखूँगा
मैं
तुम्हारा
स्पर्श
तुम्हारी
गंध
तुम्हारे
सांसों
की
लय
तुम्हारे
बाँहों
का
अरण्य
तुम्हारे
होंठों
का
दबाव
और याद
रखूँगा
मैं
तुम्हारा
संबोधन।
तुम लौटते
रहना
मुझमें
आकाश
की
तरह
भरते रहना
रंग
मुझमें
तितलियों
की
तरह
गहरे उतरना
मुझमें
समंदर
की
तरह।
मैं जब
भी
देखूँगा
कोई
चिड़िया
पुकारूँगा
उसे
तुम्हारे
नाम
से
तुम जब
भी
देखना
कोई
पतंग
पुकारना
मुझे
मेरे
नाम
से
मैं कन्नी
खाकर
तुम्हारा
जबाव
दूंगा।
साँझ हो
चुकी
है
पंछियों
ने
चहकना
बंद
कर
दिया
है
ठहरा हुआ
है
आकाश
शाख़ पर
पसरी
है
नीरवता
दूर दिख
रहा
है
अमलतास
मैं सौंपता
हूँ
तुम्हें
अपना हृदय
अपना मौन
अपनी पुतलियां
अपनी आस्था।
5. उखड़े हुए
लोग
शहर लाँघते
समय
देखता हूँ
ट्रेन की
खिड़कियों
से
सिक्कों
को
नदी
की
ओर
उछालते
हुए
हाथ
उनमें आस्था
थी
बुजुर्गियत
का
भाव
था
प्रार्थना
थी
अपनी जड़ों
से
उखड़े
हुए
वे
लोग
सचमुच रेत
होने
से
डरते
थे।
शोधार्थी
एक टिप्पणी भेजें