शिवमूर्ति की कहानियों में यौन संबंध : मजबूर और मुखर स्त्री आख्यान
-अमिता मांद्रेकर
कथाकार
शिवमूर्ति का लेखन सन् 1968 से प्रारम्भ होकर अब तक निरंतर चल रहा है। मनुष्य और
समाज से जुड़ी घटनाओं को शिवमूर्ति ने अपने कथा साहित्य में इस तरह प्रस्तुत किया
है कि मानो वे मनुष्य जीवन के विविध पक्षों से हमें परिचित करा रहे हों। खासकर
स्त्री के विविध रूप उनके कथा साहित्य में हमें देखने को मिलते हैं, इनमें भी दलित स्त्रियाँ प्रमुख हैं। अब तक शिवमूर्ति के दो कहानी संग्रह
प्रकाशित हुए हैं – ‘केशर-कस्तूरी’ (1991)
और ‘कुच्ची का कानून’ (2017)। इन दोनों
संग्रहों में कुल मिलाकर दस कहानियाँ हैं। इनमें से मैंने उनकी पाँच कहानियों को
अपने आलेख का आधार बनाया है, जिनके नाम हैं – ‘कसाईबाड़ा’, ‘भरतनाट्यम’, ‘तिरिया चरित्तर’, ‘अकाल-दंड’ एवं ‘कुच्ची का
कानून’। ये सभी कहानियाँ गाँव में होनेवाले अवैध यौन संबंधों
पर प्रकाश डालती हैं।
यौन संबंध मानव जीवन की अनिवार्य
आवश्यकता है। मनुष्य में यौन-क्षुधा स्वभाविक रूप से विद्यमान होती है। यहाँ
प्रश्न उठता है कि यौन संबंध में वैध किसे कहा जाए और अवैध किसे? अवैध यौन संबंध के संदर्भ में डॉ. जोगेन्द्रसिंह वर्मा लिखते हैं कि –
“शहरी सभ्यता के संक्रमण एवं फैशनपरस्ती के फलस्वरूप ग्रामीण धारा पर यौन संबंधी
नैतिकता के नए प्रतिमान उभर रहे हैं। परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरता हुआ ग्रामीण
परिवेश यौन सम्बन्धों के नए संदर्भ प्रदान कर रहा है।” उद्धरण का आशय यह है कि अब
ग्रामीण समाज में भी यौन संबंधों की परिभाषा बदल रही है। चूँकि शिवमूर्ति ग्रामीण
जीवन के कथाकार हैं, अतः उनकी कहानियों में इसकी सच्चाई को
बड़ी बारीकी के साथ जाना-परखा गया है और ग्रामीण समाज की विभिन्न घटनाओं को केंद्र
में रखकर इस समस्या की तह तक पहुँचने का प्रयास किया गया है। शिवमूर्ति यौनाकर्षण, यौन-पिपासा यौन शोषण आदि के चित्रण की दृष्टि से बड़े बेबाक कथाकार हैं।
वे कथा की आवश्यकतानुसार बेझिझक इन प्रवृतियों को चित्रित करते हैं और जहाँ जो
कहना होता है, उसे खुल्लमखुल्ला वे कहते हैं। भद्र व्यवहार
के चक्कर में पड़कर वे मौन या अर्ध मुखर नहीं बने रहते। यह बिंदासपन उनके
कथा-प्रवाह को रोचक और प्रभावी बनाता है।
‘कसाईबाड़ा’ कहानी में लीडर जी और प्रधान जी की टकराहट के बीच शनिचरी नाम की एक दलित
स्त्री की व्यथा-कथा को दर्ज किया गया है। लीडर जी प्राइमरी स्कूल के मास्टर हैं, जिन्हें इस पेशे से नफरत है। वे ग्राम प्रधान से होते हुए एम. एल. ए. और
मंत्री बनना चाहते हैं। इस स्थिति में वर्तमान प्रधान खिरोधर सिंह को हराना आवश्यक
है। पूरा मामला इसी प्रधानी के इर्द-गिर्द घूमता है। लीडर जी शनिचरी नामक दलित
महिला को प्रधान के खिलाफ अनशन करने को उकसाते हैं, जिससे
उसकी बेटी रूपमती को न्याय मिल सके, जिसे सामूहिक आदर्श
विवाह के नाम पर वेश्या वृत्ति के लिए बेच दिया गया है।
कहानी का प्रधान सामूहिक विवाह की आड़
में गाँव की दलित और गरीब लड़कियों की शादी कराकर उन्हें शहर में देह व्यापार के
लिए बेच देता है। वह जिन लड़कियों को बेचता है उनमें अधिकांश उसकी नाजायज संतानें
हैं। प्रधान के विरुद्ध धरने पर बैठी शनिचरी इस बात का खुलासा तब करती है जब गाँव
के थाने का दारोगा पूछताछ के लिए शनिचरी के पास आता है और पूछता है कि रूपमती का
बाप कौन है, तब वह सच से पर्दा हटाती हुई बताती है कि –“हुजूर,
पैदा तो इनही परधानजी ने किया था। पूछे का मौका भी नहीं दिए। हमारे आदमीजी तो तब
परदेश गए रहे।” (केशर कस्तूरी 18) इस पर दारोगा जी मुँह बनाकर तर्क करते हैं और
कहते हैं – “तो कल को अगर परधानजी ने फिर पैदा करके बेच दिया तो मैं फिर रिपोर्ट
लिखता फिरूँगा मुफ्त में? तुम पहले थाने वाले शिविर में लूप
लगवाओ।” (केशर कस्तूरी पृ.18) इस पर अपाहिज और अधपगला अधरंगी कहता है जो एकमात्र
शनिचरी का शुभ चिंतक है –“कितनी शनिचरियों को लूप लगवाओगे
दारोगा साहेब, जब तक परधान जी की जवानी गरम है। लूप लगवाना
है तो परधान के लगवाओ।” (केशर कस्तूरी 19) शनिचरी और अधरंगी के कथनो से ग्राम
प्रधान का असली चेहरा उजागर हो जाता है। कहानी में खुद शनिचरी अवैध यौन संबंध का
शिकार हुई है और अपनी बेटी के साथ गाँव की अन्य बेटियों को भी इस नरक से निकालना
चाहती है। कहानीकार शिवमूर्ति आज़ादी के बाद के भारत के गाँवों का असली चेहरा हमारे
सामने लाते हैं जिसे सुधारने और प्रगति के पथ पर ले जाने की ज़िम्मेदारी ग्राम
प्रधान और प्राइमरी स्कूल के मास्टर को दी गई थी। अंततः प्रधान अपनी पत्नी के
माध्यम से दूध में जहर डलवाकर शनिचरी को मार डालता है और इस बात की खबर खुद उसकी
पत्नी को भी नहीं है कि दूध में जहर डाला गया है। प्रधान की पत्नी प्रधान से कहती
है कि –“ई गाँव लंका है। इहाँ लंका दहन होवेगा। रावन तू ही हो। लीडर बना है
भिभिखन। तोहरे दूनो के चलते गाँव का सत्यानाश होवेगा। होई रहा है। बहिन-बिटिया बेंचो।
हमहूँ का बेची लेव।” (केशर कस्तूरी 23) इसी तरह लीडर की पत्नी लीडर से कहती है
-“तुम्हारे ही पाप के कारण मेरी कोख नहीं फल रही है।” “तुम लोग कसाई हो। सारा गाँव
कसाईबाड़ा है। मैं नहीं रहूँगी इस गाँव में।” (केशर कस्तूरी 26) इन दोनों स्त्रियों
के भीतर जो विद्रोह की ज्वाला भड़क रही है, वह आने वाले समय में
परिवर्तन की सूचक है।
‘भरतनाट्यम’ कहानी में वैसे तो एक बेरोजगार नवयुवक की त्रासदी पढ़ने को मिलती है। बेरोजगार
नवयुवक का परिवार में कितना अपमान हो सकता है, यह यहाँ पर दिखाया
गया है, लेकिन इससे बड़ी बात जो झकझोर कर रख देती है, वह है ज्ञान की पत्नी का उसके बड़े भाई के साथ संबंध। वह अपनी आँखों से
देखकर भी यह सोचता है –“इस तरह के छिटपुट यौन-सम्बन्धों को मैं गंभीरता से नहीं
लेता। इसे मेरा दमित पुरुषत्व कहिए या लिबरल आउटलुक। मैं पाप-पुण्य, जायज-नाजायज, पवित्र-अपवित्र और सतीत्व असतीत्व के
मानदंडों से भी सहमत नहीं हूँ। माँगकर रोटी खा ली या कामतुष्टि पा ली, एक ही बात है।” (केशर कस्तूरी पृ.89) इतना ही नहीं, जब उसकी पत्नी खलील दर्जी के साथ भाग जाती है, तब
भी उसका खून नहीं खौलता, बल्कि वह सोचता है कि उसकी पत्नी
बेटा होने पर खबर करे और वह उसके बेटे के लिए खिलौने लेकर जाए। इस पर कहानीकार यह
लिखता है कि ये तमाम परिस्थितियाँ कैसे आदमी को पागल बना देती हैं, इसका एहसास ज्ञान को होता है, तभी वह खरबूजे के खेत
में भरतनाट्यम शुरू कर देता है।
यहाँ परम्पराएँ, मूल्य, पवित्रता एवं आदर्श की धारणाएँ टूटती नज़र आ
रही हैं और आदमी अपने ढंग से जीने की छटपटाहट में है। यदि पैसा और बेटा पुरुष अपनी
पत्नी और परिवार को नहीं दे सकता, तो वह कुत्तों की तरह
दुत्कारा जाता है। यह कहानी मध्यमवर्गीय परिवारों के यथार्थ को, उसके भीतरी सत्य को अदभुत ढंग से व्यक्त करती है। ऐसा नहीं था कि ज्ञान
की पत्नी की कोई औलाद नहीं थी। उसकी तीन बेटियाँ थी। वह बांझ नहीं थी। अपनी
बेटियों को ऊंची तालीम देकर वह लड़कों से भी बेहतर बना सकती थी; लेकिन उसकी संकुचित सोच और समाज द्वारा किए गए बेटा-बेटी के फर्क ने एक
पति से पत्नी को दूर किया और एक माँ को अपनी बच्चियों से।
‘तिरिया चरित्तर’ कहानी की केंद्रीय पात्र विमली है। वह अपने माँ-बाप के लिए लड़का बनकर
रहना चाहती है। विमली जवान है और सेंकड़ों निगाहें उसपर लगी हैं। शिवमूर्ति विमली
की इस अवस्था पर लिखते हैं –“पके आम के पेड़ की रखवाली जैसा कठिन काम! कितनी
निगाहें हैं, पके आम के पेड़ पर!” (केशर कस्तूरी पृ.115)
विमली अनदेखे-अनजाने अपने पति के लिए अपनी शुचिता और कौमार्य को ईमान की तरह बचाए
रखती है। एक लड़की भट्ठे पर काम करे और लोग न बोल बोलें, आखिर
यह कैसे हो सकता है? वहाँ रहते हुए विमली मन ही मन डरेवर जी
को चाहने लगती है। यह चाहना एक स्त्री द्वारा पुरुष के साथ दोस्त की तरह है, लेकिन हमारी भारतीय मानसिकता इस बात की इजाजत कहाँ देती है? पुरुष मैत्री की इस चाहत को उसकी यौन लिप्सा से जोड़ दिया जाता है। इसी
क्रम में एक दिन देर से घर लौटते हुए विमली को पहुँचाते हुए बिल्लर जब बदमाशी पर
उतर आता है तब वह उसे दाँत से काट लेती है और अपनी रक्षा करती है, लेकिन भेड़ियों से भरे समाज में वह कब तक अपनी रक्षा कर सकती है?
कहानी तब एक निर्णायक मोड़ पर पहुँचती
है जब विमली का ससुर विसराम उसका गौना लेने आता है। ससुर होते हुए भी विसराम की
नज़र अपनी पतोहू विमली पर है। विमली इस कौटुंम्बिक यौन प्रताड़ना का प्रतिरोध करती
है। यौन पिपासु तरह-तरह के जतन करता है और कामयाब न होने पर आखिर में छल का सहारा
लेता है और प्रसाद में अफीम मिलाकर विमली को अचेत कर अपनी यौन पिपासा बुझाता है और
अपनी पोल खुलने के डर से विमली पर तरह-तरह के चारित्रिक आरोप लगाकर भरी पंचायत के
सामने खड़ा कर देता है। पंचायत विमली के माथे पर दागने की सज़ा सुनाती है। अंततः
विसराम को ही अपनी लांछित बहू को दागने का काम सौंपा जाता है। इस निर्णय का विरोध
गाँव की सिर्फ एक स्त्री मनतोरिया की माई करती है। वह कहती है –“ई अंधेर है। दगनी दागना है तो विसराम और बोधन चौधरी के चूतर पर दागना
चाहिए। कोई काहे नहीं पूछता कि बोधन की बेवा भोजाई दस साल पहले काहे कुएँ में
कूदकर मर गयी थी। गाँव की औरतें मुँह खोलने को तैयार हो जाएँ तो विसराम की घटियारी
के वह एक छोड़ दस परमान, दे सकती हैं। वही आदमी बेबस बेकसूर
लड़की को दागेगा? और वही बोधन बड़का पग्गड़ बाँधकर दगनी की सज़ा
सुनाएँगे? यही नियाव है? ई पंचायत
नियाव करने बैठी है कि अंधेर करने?” (केशर कस्तूरी पृ.142)
लेकिन उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। यहाँ विमली बाहर के लोगों से अपनी रक्षा कर लेती
है, लेकिन अपने तमाम प्रयत्नों के बावजूद पितातुल्य ससुर से
अपनी रक्षा नहीं कर पाती।
अपनी मर्जी से या
मजबूरी में या फिर पदोन्नति हासिल करने के लिए अवैध संबंध स्थापित करने वाली
स्त्रियों का उदाहरण हमें ‘अकाल-दंड’ कहानी
में मिलता है। अकाल के कारण गाँव की औरतें शहर कमाने जाने के बहाने देह व्यापार
करती हैं, ताकि अकाल में वे और उनका परिवार जिंदा रह सके। गुनी
पंडित की पतोहू अपनी सास के दबाव में आकर राहत सामग्री बाँटने वाले लेखपाल के साथ मजबूरी
में अवैध संबंध स्थापित करती है ताकि उसके सास-ससुर और बच्चे अकाल में जीवित रह
सके। इस अवैध संबंध के बाद गुनी पंडित की पतोहू अपराध बोध का शिकार हो जाती है और गले
में फंदा डालकर आत्महत्या कर लेती है।
‘अकाल-दंड’ कहानी की केंद्रीय पात्र एक दलित स्त्री सुरजी है। इलाके में अकाल फैला
हुआ है। यह अकाल सिर्फ कमजोर, अशक्त और भूमिहीन लोगों के लिए
है, अधिकारी और सरकारी कर्मचारियों के लिए सुकाल साबित होता
है। इसी अकाल में सिकरेटरी जो सरकारी अकाल राहत का प्रमुख है, की नज़र गाँव की दलित जवान स्त्री सुरजी पर पड़ती है। वह उसे प्राप्त करने
के तमाम तरीके अपनाता है। एक बार सिकरेटरी सुरजी की झोपड़ी में पहुँच जाता है।
सुरजी उसका जमकर प्रतिरोध करती है। इस प्रतिरोध में सिकरेटरी के आगे के दोनों दाँत
टूट जाते हैं। सिकरेटरी तमाम निशानियाँ छोड़कर भाग जाता है। लेखक इस पर लिखता है कि
‘सिकरेटरी ने हर जगह की जनाना को देखा-जाना था और बहुत से मकरध्वज
पैदा किए थे, लेकिन आज यह क्या हुआ? सिकरेटरी
बाबू कहाँ मानने वाले थे। वे गाँव के सरपंच रंगी बाबू को सुरजी को कैंप कार्यालय
में एक बयान के सिलसिले में लाने के लिए राजी कर लेते हैं,
लेकिन वहाँ पहुँचकर सुरजी सिकरेटरी बाबू की जो गत करती है,
उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सुरजी ने सिकरेटरी के शरीर का सबसे नाजुक हिस्सा
काटकर अलग कर दिया था। सुरजी व्यभिचारी को कड़ी सज़ा देती है।
‘अकाल-दंड’ कहानी में रंगी बाबू की बेटी माला सिकरेटरी के कैंप से खिलखिलाते हुए निकलती
है। उसे देखकर रंगी बाबू जड शून्य हो गए हैं। उन्हें लगता है कि बेटी की इज्ज़त के
बदले में मिले चावल-गेहूँ के बोरों ने उन्हें गूँगा बना दिया है। गूँगा और बहरा
दोनों। बेटी माला को सिकरेटरी ने पहले राहत बाँटने वाली लेडी वर्कर बनाया और फिर
सुपरवाइजर। और रंगी बाबू को बोरों की दलाली। कहानी में रंगी बाबू जैसे लोग असहाय
दिखते हैं और गरीब सुरजी सिकरेटरी से बदला लेती है। लेखक यहाँ बताना चाहता है कि राहत
सामग्री के नाम पर सिकरेटरी जैसे सरकारी पदों पर रहने वाले लोग किस तरह से अपने पद
का नाजायज फायदा उठाते हैं और भोग-लिप्सा में डूबे रहते हैं। सिकरेटरी न जाने
किस-किस घाट का पानी पी चुका है। वह भूल जाता है कि सब स्त्रियाँ एक जैसी नहीं
होतीं। सुरजी, माला, गुनी की पतोहू और
गाँव से शहर जाने वाली अन्य स्त्रियों की तरह नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘अकाल-दंड’ कहानी में जहाँ अपनी मर्जी से अवैध यौन
संबंध स्थापित करने वाली स्त्रियाँ हैं, वहीं पदोन्नति की
चाह में अवैध यौन संबंध स्थापित करने वाली स्त्री भी है।
‘कुच्ची का कानून’ कहानी में विधवा कुच्ची नारी जाति की प्रतिनिधि है। वर्तमान व्यवस्था से
वह हमेशा-हमेशा के लिए आज़ादी चाहती है। कोख नारी की है, कोख
पर नारी का अधिकार हो। कुच्ची की यही माँग है। गाँव में अचानक सुबह शाम - कुच्ची
के चार-पाँच माह के पेट की दबी जबान में चर्चा शुरू हो जाती है, क्योंकि उसका पति शादी के दो साल के बाद मर गया था और उसके मरने के दो
ढाई साल बाद वह पेट से हो गयी थी। कुच्ची के पेट की बात सारे गाँव में फैल जाती
है। उसका चकेरा जेठ बनवारी उसे बदनाम करने और गाँव से बाहर निकालने के लिए पंचायत
बैठाता है। यह वही बनवारी है जो दो बार कुच्ची के साथ बदसलूकी कर चुका है। पहली
बार तो कुच्ची सिर्फ यह कहकर छोड़ देती है कि –“यह काम ठीक नहीं किया बड़कऊ।” (‘कुच्ची का कानून’ 85) और दूसरी बार जब वह कुच्ची को
अकेली देखकर घर के अंदर आता है तो कुच्ची ऐसा दहाड़ती है कि वह दुबक कर वापस चला
जाता है। यही बनवारी और पंचायत के सदस्य गाँववालों के समक्ष बेशर्मी से कई अपमान
जनक शब्दों के साथ एक नारी के गर्भवती होने का मज़ाक उड़ाते हैं, जैसे तुम्हारा पाँच महीने का पेट नाजायज है,
तुम्हारे पेट में किसका बच्चा है आदि-आदि। जबकि यह सब सवाल पूछने वालों का विगत
चरित्र अच्छा नहीं है।
कुच्ची सारे सवालों का जवाब देती है।
वह कहती है - मुझे जरूरत थी। यदि मैं दूसरी शादी करके चली जाती तो मेरे सास-ससुर अकेले
हो जाते। मेरे हाथ, पाँव, नाक, कान आँख पर मेरा
हक है तो मेरी कोख पर भी मेरा अधिकार बनता है। पंचायत एक स्वर से कुच्ची की माँग
को स्वीकारती है और बनवारी को डाँट-फटकार लगती है। यहाँ सवाल उठता है कि कहानी में
कुच्ची की माँग को स्वीकार लेने से असल जिंदगी में भी क्या उसकी माँग को स्वीकारा
जाएगा? क्या उसके गर्भ को वैध कहा जाएगा? क्या यह अवैध यौन संबंध नहीं है? इतना जरूर कहना पड़ेगा
कि कहानीकार शिवमूर्ति ने अत्यंत नवीन विषय चुनकर साहित्य के क्षेत्र में अपनी
उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज की है।
इस प्रकार कहा जा सकता
है कि कहानीकार शिवमूर्ति की ये कहानियाँ व्यापक फ़लक पर लिखी गई हैं, एक साथ ये कई उद्देशों को लेकर चलती हैं लेकिन इन उद्देशों में से एक
उद्देश्य यह भी है – ग्रामीण समाज में घटित होने वाला अवैध यौन संबंध। इसमें भी
मुख्य रूप से कहानी के केंद्र में दलित स्त्रियाँ हैं। इनमें कुछ अपने संघर्ष में
सफल होती हैं, कुछ हार जाती हैं। कुछ स्वेच्छा से अवैध यौन
संबंध बनाती हैं तो कुछ मजबूरी में। ‘कसाईबाड़ा’ की शनिचरी अपनी बेटी की इज्ज़त बचाने के लिए गांधीजी के आमरण अनशन का
रास्ता अपनाती है और न्याय व अधिकार के लिए प्राण न्योछावर कर देती है। ‘तिरिया चरित्तर’ की विमली की हालत अति गंभीर है।
बाहर के लोगों से अपने आप को बचाती हुई घर की मंजिल पर पहुँचकर बलात्कार का शिकार
होती है। ‘कुच्ची का कानून’ कहानी की
कुच्ची अपने अभियान में सफल होती है और ‘कोख की आज़ादी’ प्राप्त करती है। ‘अकाल-दंड’
की सुरजी न केवल संघर्ष करती है, बल्कि उसे विद्रोह करना भी
आता है। वह बड़े ठंडे दिमाग से अपने अंदर के क्रोध, आक्रोश को
शांत रखती है और वर्चस्व की सत्ता को पूर्णतया समाप्त करने की पहल करती है। यह
निम्न वर्ग की नारी है। उसमें गज़ब का आत्म विश्वास और दृढ़ संकल्प है। ‘भरतनाट्यम’ का ज्ञान एक शिक्षित बेरोजगार है। वह
अपनी पत्नी की किसी भी इच्छा को पूरी नहीं कर पाता और परिणाम यह होता है कि वह कई
पुरुषों के साथ अवैध संबंध बनाती है।
साहित्यकार जिस वातावरण का चित्रण
करता है, उसी के अनुरूप उसके साहित्य की भाषा होती है। शिवमूर्ति अवध की जमीन से
जुड़े रचनाकर हैं। वहाँ की बोली, भाषा की गंध उनकी कहानियों
में देखी जा सकती है, - जैसे शनिचरी अपनी बेटी को बचाने के
लिए गोहार लगाते हुए, गाली देती हुई कहती है –“मोर बिटिया
वापस कर दे बेईमनवा, मोर फूल ऐसी बिटिया गाय-बकरी की नाईं
बेंचि के तिजोरी भरै वाले! तोरे अंग-अंग से कोढ़ फूटि कै बदर-बदर चुई रे
कोढ़िया....” (केशर-कस्तूरी पृ.8) इस उद्धरण में ‘मोर बिटिया’, ‘बेईमनवा’, ‘फूटि कै’ आदि शब्दों में अवध क्षेत्र की मिट्टी की
गंध देखी जा सकती है। इस तरह अपनी कहानियों के ग्रामीण परिदृश्य को बड़े सहज और
सच्चाई से पाठकों तक पहुँचाने का कार्य शिवमूर्ति ने किया है। चूँकि शिवमूर्ति का
साहित्य गाँव का साहित्य है, इसलिए उनकी भाषा भी गाँव की
भाषा है, जो बिना किसी लाग-लपेट के सरलता पूर्वक कहानी कहने
में व्यक्त होती है। वे कहीं से भी कोई बात उठा लेते हैं और आसानी से कहानी में कह
देते हैं। शिवमूर्ति ने अपनी कहनियों में कहीं वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है
तो कहीं संवादात्मक शैली का। कहीं फ्लेशबैक की शैली है तो कहीं चित्रात्मक शैली। ‘तिरिया चरित्तर’ कहानी में वर्णित संवाद शैली का यह
उदाहरण यहाँ दृष्टव्य है, जो गाँव के पंचों द्वारा विमली से
किया गया है –“तुम घर से किसके साथ भागी? काहे भागी?” “किसी के साथ नहीं। अकेले भागी। अपने आदमी के पास जा रही थी - कलकत्ता।” (केशर-कस्तूरी
पृ.138) इस पूरे संवाद में ग्रामीण अंचल की सहजता देखी जा सकती है। उनके पूरे
कथा-साहित्य में अवध क्षेत्र मुखरित हुआ है।
निष्कर्ष : सार रूप में कह सकती हूँ कि ग्रामीण समाज में समय के साथ इतना परिवर्तन जरूर हुआ है कि वहाँ की स्त्रियाँ अपनी आत्मरक्षा के लिए खुद सामने आ रही हैं। कुच्ची और सुरजी जैसी स्त्रियाँ ही समाज में बदलाव का कारण बनती हैं, लेकिन विमली और शनिचरी जैसी स्त्रियों को अभी अपने संघर्ष को उस मुकाम तक पहुँचाना होगा, जहाँ फिर कोई पुरुष उनके साथ दुर्व्यवहार, अत्याचार और उनका शोषण न कर सके। मैं यहाँ यह भी कहना चाहूँगी हूँ कि शिवमूर्ति वंचितों के प्रवक्ता के रूप में दिखाई देते हैं। वे अपनी कहानियों के माध्यम से सुरजी, कुच्ची, शनिचरी और विमली जैसी शोषित, दलित और वंचित स्त्रियों को हक दिलाने की लड़ाई लड़ते हैं। वे ग्रामीण समाज का यथार्थ हमारे सामने रखकर उसमें बदलाव लाना चाहते हैं। यहीं उनकी कहानियों का कथ्य है।
संदर्भ :
1- फणीश्वरनाथ रेणु का कथा साहित्य: समाजशास्त्रीय विश्लेषण, डॉ. जोगेन्द्र सिंह वर्मा पृ. 69
2- केशर-कस्तूरी, शिवमूर्ति, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, वर्ष 1991,
पृ. 18
3- वही, पृ. 18
4- वही, पृ. 19
5- वही, पृ. 23
6- वही, पृ. 26
7- वही, पृ. 89
8- वही, पृ. 115
9- वही, पृ. 142
10- वही, पृ. 85
11- वही, पृ. 8
12- वही, पृ. 138
अमिता मांद्रेकर
जी
एस आमोणकर विद्या मंदिर, म्हापसा,
गोवा
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
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