- पन्ना त्रिवेदी
पन्ना नायक का नाम
गुजराती प्रवासी साहित्य में बड़े आदर से लिया जाता है। इस कवयित्री ने सन 1975 में ‘प्रवेश’
कविता संग्रह से गुजराती साहित्य में प्रवेश किया था। कविता के अलावा अन्य
साहित्यिक विधाओं में भी उन्होंने लेखन किया है। कवयित्री के समानान्तर वे एक कहानीकार, निबंधकार, चरित्रकार भी हैं
लेकिन एक सच यह है कि एक कवयित्री के रूप में ही वे समस्त पाठक समुदाय के ह्रदय
में अधिक लोकप्रिय रहीं। ‘फिलाडेल्फिया’, ‘निस्बत’, ‘अरसपरस’, ‘आवनजावन’, ‘रंग झरुखो’, ‘चेरी ब्लोसम’, ‘अत्तर अक्षर’, ‘गुलमोहरथी डेफोडील्स’, ‘अन्तिमे’, ‘विदेशिनी’ और ‘द्विदेशिनी’ जैसे कई काव्यसंग्रह के माध्यम
से वे गुजराती साहित्य की एक सशक्त और अनूठी आवाज़ बनी हैं।
कविता उनके लिए केवल एक शौक नहीं है बल्कि पराई भूमि पर टिके रहने का एक बल है। वे कहती हैं : “अगर मैं कविता ना लिखती होती तो अमेरिका में टिक नहीं पाती। एक रूप से कविता उनके लिए ‘Love Affair’ है जिसके माध्यम से वे अपनी भीतर संचित ‘गुजरातीपन’ और अपने अस्तित्त्व को बचाये रखती हैं। सन 1960 में हरे-भरे भारतीय परिवेश से अचानक निकल कर ऐसे देश में जीने के हालात बने, जहाँ मेले नहीं हैं, बातें करने के लिये अपने लोग नहीं हैं और तभी सन 1972 में लिखा जाता है अपने जीवन का पहला काव्य – ‘स्नेपशॉट’ – जिसमें वे अपने आप से ही एक संवाद करती हैं। घर-नौकरी और शून्यता के बीच एक मात्र कविता ही थी जिसने उनको अपने आप्तजन से भी अधिक चाहा था, चाहा है।
लाइब्रेरी में काम करते- करते अमेरिकन कवयित्री Anne sexton के काव्य संग्रह ‘love poems’ पढ़कर अपने वजूद का तालमेल बिठाती हैं और फ़िर तो कविता ही मानो उनके अस्तित्त्व का पर्याय बन जाती है। गुजराती साहित्य में पन्ना नायक का स्थान अनूठा है। बचपन से अपनी माँ के कंठ से पुष्टि संप्रदाय के गीत सुनी थी, फ़िर भी विस्मय तो ये है कि उनकी ज्यादातर कविताएँ छंदबद्ध नहीं, छंदमुक्त हैं। ऐसा क्यों? यह सवाल निरुत्तर ही बना रहा है। उन्होंने कई हाइकु भी लिखी हैं। श्री सुरेश दलाल कहते हैं कि गुजराती कविता में स्नेहरश्मि के निकट किसी के हाइकु अगर ठाठ-रुआब से बैठ सकते हैं तो वह पन्ना नायक के हाइकु हैं। मराठी में जिसे ‘सुनीत’ कहते हैं वैसे प्रयोग भी उनकी रचनाओं में मिलते हैं। उनकी कविता सृष्टि में ताजगी भरा एक अहसास है। हालांकि कहीं-कहीं भाव एवं बिंब की पुनरुक्ति जरुर दिखाई देती है, कभी-कभी उनकी कविताएँ केवल विचारबिंदु के रूप में ही प्रकट होती हैं लेकिन अपनी इस मर्यादा से भी यह कवयित्री अवगत है : वे लिखती हैं : ‘मेरी कविताओं में आर्षदर्शन नहीं है। सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की बातें नहीं है। यह सब कुछ सच होगा तब भी मेरा बचाव यही है कि मुझे जो कुछ आता है, जिसकी खबर है उसी को मैं ईमानदारी से लिखने का प्रयास करती हूँ.....’ हालांकि इस कवयित्री की भाषा को देखते हुए यह अवश्य कहना होगा कि यह कविताएँ शिष्ट गुजराती में जन्मी हैं। गूढ़, जटिल बिंब, अकल्पनीय कल्पनाएँ या भव्य अलंकृत पदावलि उनकी कविताओं में नहीं दिखाई देगी लेकिन प्रतीक, बिंब, मिथक, लय एवं संवादात्मक रीति काव्य के शिल्प को गढ़ते हैं। दो भिन्न- भिन्न द्वैत तत्त्व के संयोजन से प्रकट होती अनुभूति की गहराई उनकी कविताओं को विशेषता प्रदान करती है। पन्ना नायक की कविता में रिश्तों का जटिल संसार है, प्रकृति का विस्तार है, ठहरे हुए रिश्तों की खूबसूरती है, तो वक्त के साथ बदलते रिश्तों की बदलती पहचान भी है। स्त्री-पुरुष संबंध, स्त्री विमर्श, प्रकृति, प्रेम के विभिन्न आयाम इत्यादि विषय पर सशक्त रचनाएँ उन्होंने साहित्य को दी हैं। जीवन के कई रंगों के लिए कविता ही एक मात्र विश्राम भूमि है। लेकिन पन्ना नायक को पन्ना नायक के रूप में एक विशेष पहचान दिलाती है उनकी डायस्पोरिक कविताएँ। इस संचयन के केंद्र में है केवल डायस्पोरिक कविताएँ।
भले ही पन्ना नायक कहती हों : ‘मेरी कविताओं में मुझे ही पाने की, मेरी ही बात है और इसलिए ही मैं लिखती हूँ’ किंतु उनकी डायस्पोरिक कविताओं को देखते हुए यह अवश्य कहना चाहिए कि उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होता ‘मैं’ केवल उनके ही अन्तरंग का ‘मैं’ नहीं है। यहाँ ‘मैं’ यानी उन तमाम भारतीयों का ‘मैं’ हैं जो विदेश की भूमि पर अकेलेपन की अनुभूति करते हैं और इसी वजह से उनकी कविताओं में निरंतर खालीपन और रिक्तता का भाव दिखाई पड़ता है। उनकी कविता यानी ‘लोपा’ और ‘गोपा’ की बात! एक प्रकार से कह सकते हैं कि डायस्पोरिक कविता में स्वदेश विच्छेद की पीड़ा स्थायी भाव है, शाश्वत भाव है।
पन्ना नायक की काव्यसृष्टि से गुजरते हुए कुछ बातें मैं यहाँ स्पष्ट एवं दृढ़ रूप से रखना चाहूंगी। एक सवाल यहाँ जरुर रखना चाहती हूँ - डायस्पोरिक कविता लिखते वक्त सृजनकार के जेंडर का प्रभाव उनकी कविता पर होता है? क्योंकि मैं मानती हूँ कि कला केवल कला ही होती है, कला न तो स्त्री होती है न तो पुरुष। लेकिन डायस्पोरा संदर्भ में कहना होगा कि रचनाकार का स्त्री होना कविता सृष्टि को जरा भिन्न रूप से प्रभावित कर सकता है। एक स्त्री का ‘घर’ शब्द से जो रिश्ता जुड़ा हुआ होता है उस घर-संसार की बारीक से बारीक बातें जब काव्यशिल्प धारण करती हैं तब उनका काव्यविश्व ‘विशिष्ट’ बन जाता है। पन्ना नायक की रचनाओं में भी यह झलक जरुर मिल पाएगी। इसके अतिरिक्त भी कुछ बातें हैं जैसे :
-‘रिक्तता’ का स्वीकार
-अकेलेपन से समझौता
-‘अपनी’ निजी संस्कृति की ख़ोज
-प्रकृति के भीतर प्रकृति की खोज
- प्रकृतिगत तत्त्वों के माध्यम से स्वदेश विच्छेद से उठते दर्द की अभिव्यक्ति
-अपनी जड़ों से उखड़ जाने और पराई मिट्टी में खिल न सकने का दर्द
-अकेलापन झेलते वृद्धों की संवेदना
-विदेश स्थित भारतीय स्त्री के अनूठे मनोभाव की गहराई
-स्वानुभवकेंद्री फ़िर भी सर्वानुभव केंद्री भावविश्व
-उपेक्षा एवं खोखले वास्तव का अनुभूतिजन्य कंपन
-स्थल एवं काल विशेष के संदर्भ में परिवर्तित होती रहती अनुभूति की अभिव्यक्ति
पन्ना नायक बरसों से अमेरिका में रहती हैं फ़िर भी उन्होंने अभिव्यक्ति की भाषा अपनी मातृभाषा ही रखी हैं यह बात ही अपनी मातृभूमि के प्रति अपार स्नेह दिखलाती है। आज के दौर में जहाँ प्रादेशिक भाषाओं के लिए चिंता एवं मंथन हो रहा है, वहाँ विदेश में रहते लेखकों के लिए मातृभाषा निज अस्तित्त्व का पर्याय बनी हुई है। इस कवयित्री ने स्वयं को ‘विदेशिनी’ कहा है फ़िर भी है तो उसमें भी ‘देश’ ही ! जो अभिन्न रूप से जुड़ा ही रहा है। यह देश उनके जीवन, सर्जन एवं कार्य में दिल बनकर धडक रहा है – संस्कृति, मंदिर, उत्सव्, भाषा, सभाएं, संस्थाएं अत्र तत्र सर्वत्र... मानो यहीं श्वास।
जिनकी जड़ें दो या दो से अधिक देशों में होती हैं वहाँ एक भूमि या संस्कृति में पलने या बड़े होकर दूसरी धरती या संस्कृति में प्रस्थापित होने का संघर्ष होता है, चित्त में निरंतर घमासान मचा होता है। एक धरती का पौधा जब दूसरी धरती की मिट्टी में लगाया जाता है तब बदलते है हवा, पानी और खाद। इसी प्रकार भाषा, पहनावा, मान्यताएं, परंपराएं... और इस बदलते नये विश्व में अपने आप को स्थापित करने का संघर्ष..! पन्ना नायक इस संघर्ष चक्र से गुजरी हैं : ‘अमेरिका में रहती हूँ और भारत छूटता नहीं है। कभी कभी भारत आती हूँ तो अमेरिका नहीं छूटता ! कभी कभी मुझे लगता है मैं पूरी की पूरी भारत की नहीं हूँ, तो इतने सालों के बाद ऐसा भी महसूस होता है कि मैं अमेरिका की भी नहीं हूँ ! स्वदेश और परदेश की आरी से कटती रहती हूँ।’
पन्ना नायक की कविता पथ की यात्रा से निरंतर एक अनुभूति यह हुई है कि उनकी कविताओं में केवल और केवल घर या स्वदेश की यादें ही नहीं हैं लेकिन विभिन्न स्तर पर तीन मुकाम देख सकते हैं। आरंभ का मुकाम जिसमें घर और स्वदेश की यादें और पल- पल मरने जैसी स्थिति का वर्णन मिलता है। डायस्पोरा के संदर्भ में ज्यादातर यहीं एक बात बैठ गई है कि डायस्पोरा यानी सिर्फ देश विरह की बात। लेकिन कहीं -कहीं आपको बदलते समय के साथ समझौता करते हुए लोगों के मनोभाव भी दिखाई देंगे। यहाँ महत्त्व की बात यह है कि डायस्पोरा की तीन परतें हम पा सकते हैं। बाद की स्थिति अमेरिका फिलाडेल्फिया और मुंबई-अँधेरी के बीच कवयित्री अपने आप को आधी- आधी बँटती हुई पाती हैं और अंतिम मुकाम में फिलाडेल्फिया में ही अँधेरी ढूंढ लेती कवयित्री में मुंबई और अमेरिका एकाकार हो जाते हैं। वे लिखती हैं : ‘भारत ने मुझे गाँधीगिरा गुजराती जैसी मातृभाषा दी, तो इस देश ने मुझे कलम दी और लिखने की चीज़ दी है। जितनी मैं उस देश (भारत) की हूँ उतनी ही बल्कि उससे कहीं अधिक कदाचित मैं इस देश (अमेरिका) की हूँ।’
समय बदलता है, विश्व बदलता है और जीवन के साथ स्थल एवं काल अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। कोई भी शहर हकीकत में तो हमारी आसपास के मित्र और स्वजन से ही जिंदा रहता है, इमारतों से नहीं। कोई भारतीय प्रवासी जिस भारत को छोड़कर गया होगा और वह जब लौटता है तब हो सकता है वह भारत नहीं होगा जिसे वह छोड़ के गया था, वह दोस्त शायद वैसे के वैसे ना हो शायद वह परिवेश भी ज्यों का त्यों ना रहा हो। बेशक, उनकी पीड़ा नोस्टेल्जिया से जन्मी हुई है लेकिन मोहभंग की उस पीड़ा को कविता में मिलता है अपना एक विशिष्ट सौन्दर्यलोक – सौन्दर्य बोध!
एक कविता में वे लिखती हैं कि गुलाब के पौधे को अगर जड़ों से खीँच भी लो तब भी जिसके साथ भीगी मोहब्बत हो चूकी हो उस धरती का टुकड़ा भी उसी के साथ बाहर खीँच आता है। स्मरण और संवेदना का भी ठीक वैसा ही तो है!
कोरे कागज़ में
शब्दों का काफ़िला
बहाती हूँ
शायद
कहीं कोई उत्तर मिल
जाएँ !
अमेरिका प्रवास के दरमियान पन्ना नायक ने निरंतर लेखन किया है। शब्द ही उनके साथी बने हैं लेकिन इस कविता को जरा भिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं तो कोरे कागज़ जैसे देश में, अकेले आदमी को कैसे मिल पाता है किसी इंसान का सहारा? ‘शब्द के काफ़िला’ इकठ्ठे कर ही तो अपनी उलझनों को ऊँड़ेलता है ! शायद कोई उत्तर मिल पाए अकेलेपन का !
‘दीवानखाना’ काव्य में कहती हैं :
सजधजकर प्रसन्न हो रहा है दीवानखाना
यकायक भटक जाता है
मन
-इन सब में मैं ख़ुद
को कहाँ रखूँ?
तलाश रही हूँ केंद्र
जहाँ मैं बैठ सकूँ
सुकून से -
घर सजाने की बात शायद बहुत साधारण सी लगे, दैनिक लगे लेकिन यहाँ किसी औरत के अपने यांत्रिक जीवन से छूटने की यंत्रणा ही उसे विशेष बनाती है। नये- नये उपाय को आज़माकर उस यांत्रिकता को दूर करने का प्रयास करती हैं । यह स्त्री घर की चीज़ें बदलती है। सब कुछ नया – सौफे, कालीन, कार्पेट....लेकिन मन? घर सुशोभित होता है। ‘चीजों का मन पूछ पूछकर’ फ़िर भी एक सुलगता सवाल रहता है कायम : ‘मेरा केंद्र कहाँ है?’ क्या कोई रास्ता नहीं ऐसा जो उसे पहुचाएं घर तक? केंद्र तक? अपने आप तक?
‘HomeSickness’ स्वदेश स्मरण करते किसी भी भारतीय की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती कविता है। ‘होमसिकनेस’ हो जाने की अनुभूति घर विरह को द्विगुणित करती है। घर तो है लेकिन कौन सा घर? इस सवाल में एक ही उलझन है। पीछे छूटा हुआ घर बहुत पीछे छूट गया है। ‘बिलोंग’ और ‘नॉट टू बिलोंग’ संवेदना से जन्मी है यह कविता:
सब कुछ है यहाँ
फ़िर भी कुछ भी नहीं
मैं Homesick
हो गई हूँ
जी करता है
सब कुछ उठाकर चली
जाऊ घर
लेकिन
अब
मेरा घर कहाँ?
एक पौधे को जड़ों से खींचकर पराई शीत भूमि में लगा तो दिया और उस पौधे ने ज़िंदा रहने का आधार भी खोज लिया फ़िर भी जब वसंत चेरी ब्लिसम से रंग जाती है तब उनका मन पलाश वृक्ष को ढूंढता है। शीतप्रदेश में होते हुए भी यह कवयित्री जलन का अनुभव करती है। वह अपने देश की रूतुओं में खो जाना चाहती है। साँसों में भरना चाहती है। अपने देश के आषाढ़ में भीगना चाहती है। एक जन्म में ही दो जन्म की अनुभूति लिए जीते प्रवासीयों की व्यथा को ‘कूर्मावतार’ काव्य में उत्कृष्ट रूप दिया है:
यहाँ अमेरिका में
निवृत्त हो चूके
वृद्ध होते जाते
इंसानों की आँख में
एक ही सवाल दिखाई
देता है –
-अब क्या?
पराई भूमि में अपनी मिट्टी का, अपने परिजनों का स्मरण करते हुए अकेलापन तो खलता ही है लेकिन यह अकेलापन तब द्विगुणित हो जाता है जब इंसान वृद्धत्व के निकट होता है। वृद्धत्व का सफ़र और भी लंबा हो जाता है। इस जन्म का एक लंबा हिस्सा पार कर अब ‘कुछ भी ना कर पाने की असमर्थता’ उसे निराश करती है। पराई भूमि में हमज़ुबा ना मिल पाने की पीड़ा अधिक होती है। पुरानी पीढ़ी देश में, गाँव में रह गई है और नई पीढ़ी के साथ तालमेल बैठता नहीं है ! सब अपने अपने घोसलों में स्थिर हो चुके है और अस्थिर रहता है तो सिर्फ मन! हर सीनियर सिटीजन का केवल एक ही सवाल रहता है : ‘हम अखबार पढ़ें लेकिन कितने? हम टीवी देखें मगर वह भी कितना? वक्त उनके लिए मानो ठहर सा जाता है। जो जीवन को बेचैन बना देता है। जब मनुष्य अवतार ‘कछुआ’ बन जाए तो उसे क्या कहते है? और जवाब मिलता है – कूर्मावतार ! मनुष्य अवतार से कूर्मावतार में रूपांतरित हो जाने की पीड़ा दुःख उत्पन्न करता है।
पन्ना नायक के लिए भारत केवल एक देश का नाम मात्र नहीं है लेकिन अपना ही एक अभिन्न अंग है। इस देश का नाम उनका कवच है, एक ऐसा कवच जो जन्म से ही मिला था। एक अंग कट जाने से इंसान जी भी लेता है शायद... लेकिन कटे हुए उस अंग का और उस अंग के होने का स्मरण कौन काट सकता है भला? जीवन यानी पल पल मरना ही शायद! कवयित्री के मन यह विरह घर, आप्तजन और मिट्टी का ही नहीं है लेकिन भाषा का भी है।
जिस भाषा में
हमें सपने आयें
वहीं हमारी मातृभाषा
!
मुझे
फिलाडेल्फिया में
अभी भी
सपनें गुजराती में
आते हैं
मेरे आसपास के
गुजराती
उमाशंकर की तस्वीर
देखकर
पूछते रहते है
निरंतर
‘यह किसकी तसवीर है?’
और मेरा सपना टूट
जाता है...
‘गुजरातीपन’ को निरंतर जीवित रखने के लिए कविता के आरंभ में ही उत्साह से मानो घोषणा करती हैं अपने जीवित होने की। ख़ुशी का एक कारण यह है कि अभी भी सपनें आते है और वह ख़ुशी तब द्विगुणित हो जाती है जब सपनें गुजराती में, अपनी मातृभाषा में आते है। केवल वे खुद ही नहीं लेकिन उनके घर की दीवारें भी गुजराती है। भारतीय गुजराती कवि उमाशंकर की तस्वीर के साथ गुजराती में संवाद कर अपने अस्तित्त्व के जिंदा होने की अनुभूति करती हैं। लेकिन नुकीला पत्थर सा एक सवाल काँच जैसे सपने को यकायक तोड़ देता है, वह सवाल है – ‘यह किसकी तस्वीर है?’ इस सवाल मात्र की पीड़ा से सपना टूट जाने का दर्द द्विगुणित हो उठता है। अधिकत्तर लोग केवल कमाई के लिए विदेश जाते हैं यह सच है लेकिन फ़िर भारतीय कला या संगीत में कोई रूचि न हो यह स्थिति उनके मन को अशांत बनाती है। शायद इसीलिए उस देश में वह एक कवियत्री है, कविताएँ लिखती है यह कहन भी निरर्थक ही लगता है! जिन अमेरिकन दोस्तों को कविता में रूचि है उन्हें भाषा नहीं आती, जिन्हें भाषा आती है उनको कविता में कोई रूचि नहीं है यह भी एक अजीब विडंबना ! यह भी डायस्पोरिक संवेदना का भिन्न परिमाण ही तो है! शायद इसीलिए अनेक कविताओं में भारत निवास की इच्छा तीव्र होती देख सकते है।
तड़पना यानि?
तुम कहोगे
खीँचकर
जल से बाहर लाई गई
मछली को पूछकर देखो
!
किन्तु
गरजते उदधि के भीतर
जो
निरा सूखा तड़पता है
उसे
तुम क्या कहोगे?
‘आवाज़’ काव्य में ‘विरह’ की यह अनुभूति कलात्मक ढंग से प्रकट हुई है।अमेरिका जाने के बाद पीछे सब कुछ छूट गया है। सहेलियाँ नहीं है, ना ही माँ की वह पुकार है। सात समन्दर पार जाकर माँ की पुकार भी समंदर में कहीं डूब गई है।अमेरिका में कमरा एरटाइट है, दीवारें सलामत और मजबूत है। लेकिन मन? मन कहाँ होता है इतना मजबूत? ‘ईमली’ के पेड़ से गूंजती अपने बचपन की आवाज़ के माध्यम से अपने बचपन को स्मरणीय रखने की कोशिश करती कवयित्री यहाँ दिखाई पड़ती है।
सखियाँ दूर हो गई है
माँ की आवाज़
दस हजार मील दूर के
समन्दर से लिपटकर
नमकीन होते होते हो
गई है शांत ...
एक और काव्य देखिये : जिसमें वे स्वयं की तुलना फूल के साथ करती है। पुष्प का सुख अपने सुख से भी अधिक परिशुद्ध और नितांत लगता है। एक दिन के जीवन में अपना सर्वस्व देकर जाने का कुदरती क्रम में एक प्रकार का सुकून दिखाई देता है। हम जब एक घर से दूसरे घर में जाते है तब भी कुछ दिन हमें अपना घर होने के बावजूद पराया सा लगता है, यह तो एक देश से दूसरे देश जाने की बात है। डार्विन का Survival Of Fittest सिध्धांत का यहाँ स्मरण होता है। अकेलेपन के साथ लड़ने का साहस, संघर्ष के लिए हमेशा तत्पर रहने की अनिवार्यता से जन्मता कारुण्य यहाँ अभिव्यक्त हुआ है।
आह ! क्या भाग्य है फूलों का –
Survival
Identity
Alienation
ऐसे सवालों की कोई
उलझन ही नहीं !
Survival- Identity- Alienation यह तीन शब्द ही कितने विस्फोटक है! जीवन के लिए संघर्ष, पहचान के लिए संघर्ष और विच्छेद की पीड़ा...पल पल ‘कल्चर – कोन्फ़लिक्ट’ से गुजरना ...साड़ी पहननी है या नहीं? बिंदी लगानी है या नहीं? इंडियन ग्रोसरी की चीज़े मिलेगी या नहीं? लाल गेहूं की रोटी की आदत पड़ेगी भी या नहीं? उन्हों ने एक उत्तम दृष्टांत दिया है, जो बात शायद यहाँ हमें बहुत ही साधारण सी लगे लेकिन एक असाधारण जुड़ाव हम जरुर महसूस कर सकेंगे।अमेरिका में ‘कढ़ी’ बनाती गुजराती या भारतीय स्त्री को कढ़ीपत्ता का स्मरण तुरंत ही होगा। यह संवेदना एक भारतीय अमेरिकन औरत की कविता को विशेष बनाती है।
‘अमेरिकन ड्रीम’ कविता में एक परिश्रमी भारतीय संघर्ष को वाणी दी गई है:
एक परदेशी आदमी
शहर के बीचोबीच
फूटपाथ पर
बेच रहा है अखबार
वह आदमी
अठारह घंटे बेचता है..
यहाँ ‘वह’ यानी की कोई ऐसा भारतीय जो ‘अच्छे दिन’ के प्रयास में ही अपने वर्तमान को खो देता है। वह आदमी किसी जानी पहचानी भाषा के अखबार बेचता है, ट्रेन की आवाज़ को अनसुना कर अखबार बेचता है, आते-जाते चेहरे को देखे बिना अखबार बेचता है, डॉलर्स इक्कठ्ठे करने के लिए अखबार बेचता है, अमेरिकन ड्रीम सार्थक करने के लिए अखबार बेचता है, देश में छोड़े हुए अपने बच्चों को पढाने के लिए अखबार बेचता है... वह आदमी केवल चार घंटे सोता है और बचे हुए अखबारों की सेज बिछाकर उस पर सोता है। अखबार बेचते हुए उस आदमी की संघर्ष गाथा कौन से अखबार में छपती है भला?
अन्य एक कविता में लिखती हैं: ‘मुझे इर्ष्या हो उठती है उड़ते हुए पंछियों की....’ एक वक्त था जब आँखों का रेगिस्तान अधीर नजरों से अपनों के ख़तों की प्रतीक्षा करता रहता था। अब ? फोन की घंटी बजती नहीं है और पाँव डाक बोक्स टटोलने के लिए अधीर बने तो है, फ़िर? हाथ लगते हैं शून्यता भरे लिफ़ाफ़े! और जब शून्यता के सिवा और कुछ भी हाथ नहीं लगता तब इस पृथ्वी के सबसे बौद्धिक जीव को आकाश में उड़ान भरते एक साधारण पंछी से भी इर्ष्या होने लगती है! जो खुले आसमाँ में बिना किसी वीज़ा – पासपोर्ट पहुँच सकते हैं अपने गंतव्य स्थान की ओर...
बरसों से भारत छोड़कर अमेरिका में निवास करती इस कवयित्री को अपने आप को स्थापित करने के लिए प्रयास करना पड़ता है। न्यूयार्क के ठन्डे एयरपोर्ट पर विदेशी पोशाक पहन मसालेदार चाय के बदले निम्बूवाली चाय के साथ समझौता करना पड़ता है, पासपोर्ट के भारतीय चेहरे पर अमेरिकन उँगलियों और मुहर देखने की आदत डालनी पड़ती है। आँख ‘गुजरात समाचार’ या ‘संदेश’ के स्थान पर अब ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ पढने लगती है और फ़िर भी आँखें तो ढूंढती रहती है भारतीय समाचारों को। मुंबई के अँधेरी के चिर परिचित घर में घूम आती यह कवयित्री ‘कौन कहता है?’ कविता में जो सवाल करती है वह अत्यंत मार्मिक है:
अमेरिका की
और अन्य
अंतर्राष्ट्रीय खबरों में भी जैसे
ढूंढती है केवल भारत
को...
कौन कहता है
मैंने बरसों से छोड़
दिया है भारत?
अन्य कविता ‘अद्वैत’ में ठीक इससे विपरीत स्थिति है।अमेरिका में भारत ढूंढती और भारत में अमेरिका लिए घुमती इस कवयित्री ने अब समझौता का स्वीकार कर लिया है। साँस-साँस में, फेफड़ो में अमेरिका की हवा बहने लगी है। लहू–अस्थि में रंगबिरंगी फूलों की ख़ुश्बू -सा पवन बहता है। गले और कंधे की ठंडी पड़ चुकी त्वचा पर अमेरिका दुशाला बन लिपट जाता है :
बरसों के निवास बाद
उतरती हूँ मुंबई के
एयरपोर्ट पर
तब
त्वचा बनकर चिपका
होता है
अमेरिका !
पन्ना नायक की कविता में सवाल भी है और उनके जवाब भी उन्हीं सवालों में है। घर में, जीवन में, देश में, विदेश में स्थापित होने के लिए आखिर किस चीज की जरूरत होती है? दीवार, फ्रेम या खींटी की ? सब कुछ होते हुए भी कहीं कुछ ना होने की अनुभूति ही शायद उनका शाश्वत सत्य बन जाता है। एक सवाल उनके भीतर को छलनी कर देता है - किसी फोटोफ्रेम में समाई हुई तस्वीर की तरह अपने जीवन में क्यों नहीं समा पाई? जीवन में क्यों कहीं अपने आपको नहीं रख पाई? इसीलिए एक -एक से परिचय मांगती है अपरिचित होकर, स्वयं को नए रूप में पाने के लिए, स्वयं में प्रस्थापित होने के लिए। कभी पेड़ को देखकर दादाजी का स्मरण करती है, कभी अपने आप्तजनों का। दो विश्व के बीच कटती रहती इस कवयित्री का ‘प्रतीक्षा’ काव्य आधुनिक संवेदन जगाता है। फिलाडेल्फिया से अँधेरी लौटी कवयित्री अपने घर में प्रवेश करती है। झूला अपने आप झूलने लगता है। दीवारें परिचित स्मित देती है। बैग में रखे वस्त्र की भांति घर में स्थापित होती है। कुछ दिनों का मुकाम है।अमेरिका और भारत की आने -जाने के मध्यांतर में नाट्यकार सेम्युअल बेकेट के किरदार की तरह प्रतीक्षा करती हैं किसी तीसरे किरदार की – जो अपना ही पुन: रूप हो, वह तीसरा रूप जो अमेरिका और भारत के संदर्भो से मुक्त हो !
इस दो विश्व के बीच
मैं
प्रतीक्षा करती हूँ
किसी तीसरे किरदार की
बेकेट के किरदार की
तरह
पन्ना नायक की कविता में केवल स्वदेश विच्छेद भावना ही नहीं है लेकिन खोई हुई संस्कृति की तलाश भी है। भारतीय उत्सवों और उमंग की ख़ोज है। परंपरा की ख़ोज है। समझौता जरुर है लेकिन उस स्वीकार के साथ एक स्मरण भी जुड़ा हुआ है। वे लिखती हैं :
वहाँ दिवाली मनाने की बात
अब
भुला चुकी हूँ
बिन भारतीय वस्त्र
पहन
अमेरिकन दोस्तों के
साथ
डाल दी है आदत
क्रिसमस मनाने की...
कुमकुम किसी भी भारतीय के साथ संस्कृति संदर्भ से जुड़ा हुआ अभिन्न तत्त्व है। इस भारतीय स्त्री के ललाट पर कुमकुम देख अमेरिकन बच्चे की निर्दोष टिप्पणी सुनती है। उस बात का अद्भुत संयोजन वे अपने देश विरह के कारण भीतर टपकते रक्त के साथ करती हैं।अमेरिका आने का निर्णय या हथेली में भाग्यरेखा के जख्म से बहे रक्त की पीड़ा की संवेदना महत्त्वपूर्ण बनती है। कभी- कभी पाठक के मन में यह सवाल जरुर उठता है कि अमेरिका रहकर इतनी पीड़ा क्यों सहनी? लेकिन शायद जिंदगी कभी विकल्प देती नहीं है और जब देती है तब दोनों विकल्प पीडादायी ही होते है। इस कवयित्री के पास भी दो विकल्प है – अकेलापन और परतंत्रता। इस औरत ने अकेलेपन को चुना। उनके लिए स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का मूल्य अधिक था। वे वहाँ न होती तो पन्ना नायक तो जरुर होती लेकिन कवियत्री पन्ना नायक ना होती। ‘कुमकुम’ कविता में लिखती हैं :
Oh Mommy!
See
Her Forehead is Bleeding!
अमेरिकन बच्चे की
यह
निर्दोष टिपण्णी सुन
हाथ रख देती हूँ
ललाट पर...
और
मेरी ही मुठ्ठी में
बंद
मेरे ही नाख़ून से
हथेली का कुमकुम
रक्त बन
टपकने लगता है...!
काव्य में अंकित हुई घटना बहुत विशिष्ट है। अठ्ठारह घंटे की यात्रा के पश्च्यात जब वे न्यूयॉर्क एयरपोर्ट पर उतरकर अपने पासपोर्ट पर मुहर लगवाने के लिए कतार में ख़डी थीं। पीछे एक अमेरिकन लेडी और उसका बच्चा। लाल साड़ी और लाल बिंदी को देख उस बच्चे ने अचानक से कहा: ‘माँ ... देखो तो उसके ललाट से खून निकल रहा है... तब पहली बार उन्हें यह अहसास हुआ कि वे विदेश की धरती पर ख़डी है और लिखा गया काव्य – ‘कुमकुम’।
इस कवयित्री को अपनी मिट्टी का स्मरण निरंतर बेचैन रखता है। सुख की जो चमक है वह तो केवल बाहरी है। वास्तव में ऐसा कुछ तो है जो स्थिर हो चुका है। आज की पीढ़ी के लिए ‘पंचाग’ शब्द अपरिचित सा हो रहा है। वहाँ अब भी किसी किसी भारतीय अमेरिकन की भीगी हुई आँखें पंचांग में घूम आती है। पंचांग में अस्थिर हो चुका आषाढ़ बरसे या ना बरसे लेकिन उनकी आँखें बरसती होगी निरंतर ! यहाँ विशेषता तो यह है कि मलाल इस बात का नहीं है कि आँखें भीगी हुई है बल्कि आँखें भीगती है वही उनका सौभाग्य है क्योंकि उसी में जीवन है! अगर यह भीगना भी रुक जाए तो विस्मृति के सूखेपन के साथ साथ ‘जीवन’ का रुक्ष हो जाना भी निश्चित है। ‘जलाशय’ कविता इस बात का साक्ष्य है। यह कवयित्री अतिथि की प्रतीक्षा करती है, त्योहारों का स्मरण करती है, भीड़ को, शोर को और मुंबई की बारिश को याद करती है।
विदेश स्थित भारतीय स्त्री अपनी ‘भारतीयता’ को केवल तन- मन की भूमि पर ही नहीं पर उस भूमि में पौधे को लगाना चाहती है जो मिट्टी से होकर अपने मांस-मज्जा में आरोपित हो जाता हो। कवयित्री माँ की स्मृति के पर्याय रूप में तुलसी का पौधा तो ले आती है लेकिन वहाँ की मिट्टी में लगा देने के बावजूद वह हरा रह सकता नहीं है। मानो वह पौधा भी किसी की खोज़ करता है, तलाश करता है। किसकी? जिसका जवाब हमें इस छोटी सी कविता में मिलता है। गमले का तुलसी पौधे को भी मानो माँ की प्रतीक्षा रहती है।अमेरिका में कहाँ से रहेगा तुलसीक्यारा जब माँ ही नहीं !
‘सुपर मार्केट में’ कविता में अकेलेपन की स्थिति और भी दु:खदायक स्थिति में आती है। प्रत्येक शनिवार ग्रोसरी की खरीदारी करने के लिए सुपर मार्केट में जाती कवयित्री एक रूप में मार्केट के व्यवस्थातंत्र की प्रशंसा करती है लेकिन उसके पीछे एक व्यंग्य ही तो है! भारतीय किराना स्टोर की तरह यहाँ कुछ भी किसी को पूछना नहीं है, ना किंमत, ना मात्रा... यहाँ निरी शांति है किंतु वहीं शांति सन्नाटे से लिपटी हुई है। हा, ऊँची हिलवाली चप्पल की आवाज़ आ रही है किंतु काव्य की चोट उसके अंत में है – संवेदन बधिरता, यांत्रिकता, औपचारिकता, भावशून्यता और केवल डॉलर – चीजों की लेन देन की औपचारिकता में ..........
हर शनिवार का ritual
सुपर मार्केट में
ग्रोसरी की खरीदारी –
आह क्या बात !
किसी को कुछ पूछना
नहीं
आँख और हाथ खेलते
रहते है
Shelves पर रखी हुई चीज़ों पर
स्टेम्प हो
चुके अंको के साथ
गुपचुप कोई खेल !
बाहर निकलती हूँ –
मानो
मूक – बधिर पाठशाला
की
आँख – हाथ के इशारों
से
communication करती हुई मैं कोई व्यक्ति !
कवयित्री के काव्यविश्व में अकेलेपन का भाव निरंतर दिखाई देता है। सब कुछ होते हुए भी एक खालीपन है। नाम है फ़िर भी नहीं है, पता है फ़िर भी नहीं है... कोई नहीं है इसलिए ख़त आते नहीं है... सो अपने आप को ही को खत लिखकर आत्मवंचना करने का एक प्रयास किन्तु सत्य? हजार अँधेरे के सूर्य को भेद सामने आ जाता है। अकेलेपन का सत्य जो निरंतर आँख के सामने आ जाता है इसीलिए ख़त फाड़ देती है। अस्वस्थ और उदिग्न अवस्था में निराशा छलक आती है: ‘काश ! जिंदगी भी यूँ ही कागज़ की तरह ही...
पन्ना नायक की कविता में एक प्रकार से अमेरिकन बारिश और भारतीय बारिश, दीपावली और क्रिसमस, चेरी ब्लोसम और बसंत, ट्रिपोल और पलाश, न्यूयॉर्क और अँधेरी जैसे कई द्वन्द काव्यविशेष बनते हैं। यहाँ विच्छेद है, पीड़ा है, अभाव है फ़िर भी धडकती हुई भारतीयता के कारण, सुरक्षित सांस्कृतिक जड़ों के कारण विपरीत परिस्थितियों में भी उग आने का एक मिज़ाज भी दिखाई देता है! ‘वृक्ष हूँ मैं वृक्ष’ में कहते हैं - सूरज के साथ टक्कर लेकर उगाउंगी नई शाखें – भीतर सुरक्षित रखी हुई है वह धरा का नाम आखिर क्या हो सकता है भला? मिट्टी? स्मरण? संस्कृति या आदिम?
पन्ना नायक की कविता में अमेरिका से केवल चीज़े मंगवाते परिजनों के चित्र भी अंकित हुए हैं। कभी कभी विदेश में बसता इंसान परिजनों के लिए सिर्फ चीज़ों का पर्याय बनकर रह जाता है, तब दर्द का एक समुद्र जरूर उठता है। राखी, दिवाली जैसे त्योहारों को ‘मिस’ कर मुंबई बुलाते परिजन धीरे धीरे उन्हें एकदम ही ‘मिस’ कर देते हैं, यह भी एक अजीब विडम्बना! एक और वैश्विकीकरण से दुनिया बहुत छोटी हो गई है तो दूसरी ओर भारत और भी दूर लगने लगता है। इसीलिए अपने परिजनों के चेहरे भी कभी -कभी अपरिचित से लगने लगते हैं। अंदर-बाहर के क्रोसरोड पर खड़े रहकर अपने आप को पहचानने का प्रयास करते हुए दर्द तो होगा! घर में कैद रहना अच्छा नहीं लगता। स्ट्रीटलेम्प की रौशनी अच्छी लगती है फ़िर भी आकाश का अँधेरा कभी पराया नहीं लगा। आसूँ को छिपाने की कला आ गई है। भीगी आँखों से हँसना सीख लिया है। अपने हाथों से लगाया हुआ पौधा चाहे मुरझा भी जाए लेकिन क्या वह कभी वसंत को भूल सकता है भला? क्रोस रोड पर खड़ी हुई भारतीय अमेरिकन स्त्री की यहीं तो पीड़ा है – आधी अमेरिकन और आधी भारतीय–पूर्णता विहीन अपूर्णता ! अब वहाँ (भारत में) माँ नहीं, बाबूजी नहीं, ना गुलमोहर का वृक्ष है, ना ही तो वो वह बारिश है.. इसलिए तो इस कवयित्री ने ‘घर’ के रूप में फिलाडेल्फिया के ‘घर’ का स्वीकार कर लिया है।
पन्ना नायक की कविता में एक और विषय है जो मुखर रूप से महसूस होता है वह है भारतीय प्रकृति विच्छेद की वेदना –फिलाडेल्फिया में डहेलिया, अज़ेलिया के बीच गुलमोहर और रातरानी ना मिल पाने की व्यथा! जिस भूमि में निवास है वह भूमि भी वीरान नहीं है। फूल तो वहाँ भी हैं लेकिन वे फूल नहीं हैं जिनसे उनकी निस्बत थी, जुड़ाव था। भारतीय रुतुगत प्रकृति अनेक कविता में अभिव्यक्त हुई है।
गुजराती साहित्य में ‘धूप’ पर ही न जाने कितनी कविताएँ लिखी गई है लेकिन पन्ना नायक की कविता में भी धूप विषय बनकर अनेक रूप में खिला है। अलबत्त विदेश भूमि से धूप के जो स्नेप उन्होंने अंकित किये हैं उसमें निबंधकार पन्ना नायक का संस्पर्श अवश्य मिलेगा। बारिश के दिनों में परिजनों को अपने देश से धूप भेजने की बिनती / टेबल पर रखी चाय पीने खिड़की से आती धूप / धूप की चाल / धूप के दो पंख पहन आकाश में उड़ता पंछी / बारिश की बूंदों में नहाती धूप / धूप में बैठ पीठ सेंकती दीवारें / पंछी बन बोलती हुई धूप / पेड़ की शाख तले सोती हुई धूप / चांदनी के गीत गाती धूप / गीत का आरंभ जैसी धूप.... कितने किते रूप अंकित हुए है धूप के! कवयित्री के मन ‘प्रकृति’ का संदर्भ व्यापक रूप से अंक्ति हुआ है। केवल मिट्टी, पुष्प, पेड़ नहीं गाय भी है। किसी झुंड से गाय बिछड़ गई हो और अपने झुंड को तलाश रही हो ठीक उसी तरह अपने झुंड को तरसती हुई एक स्त्री की वेदना यहाँ समांतर रूप से महसूस होगी।
पन्ना नायक की कविता में आत्मशोध, विषाद, सानिध्य की इच्छा, घर एवं विच्छेद, प्रकृति विच्छेद की व्यथा, अपूर्णता की निराशा है। समय के टुकडो में जो कुछ महसूस किया उसी अनुभूति के टुकड़े उनकी कविता है। कवयित्री पन्ना नायक की कविताएँ एक रूप से उनकी आत्मकथा की ही प्रतीति कराती है फ़िर भी यह कहना होगा कि जगत में कभी कोई आत्मकथा भी पूर्ण हुई है क्या? अपूर्णता ही तो उसकी पहचान है! शायद इसीलिए पन्ना नायक ने लिखा होगा -
मेरी कविता में
पन्ना को ढूंढते
हे पाठक !
गर्जना करते उनके
काव्य में
तो मिलेगे
लहरों सी
केवल टिप्पणी
जीवन की सारी बातें
कविता
नहीं कह सकती...
बेशक, मिट्टी से दूर होने की व्यथा के लिए, संवेदना के लिए कविता का फलक भी कम ही पड़ेगा !
संदर्भ :
- विदेशिनी और द्विदेशिनी : समग्र कविता , पन्ना नायक, वर्ष : 2017
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, गुजराती विभाग, वीर नर्मद साऊथ गुजरात विश्वविद्यालय,
सम्पर्क : pannatrivedi20@yahoo.com, 9409565005
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