- रजनीश कुमार
1. लोग
गढ़े
हुए
लोग
!
पढ़े
हुए
लोग
!
बढ़े
हुए
लोग
!
मढ़े
हुए
लोग
!
रमे
हुए.
सीधा
तने
हुए
चढ़े
हुए
लोग
!
लदे
हुए
; सवार,
घिसे
हुए
लोग
!
पिसते-पिसाते
मौत
की
खाई
है-जहाँ
कुछ
दबे
हुए
लोग!
अनकहे
संगीत
की
धुन
में
रमे
और
सधे
हुए
लोग
!
जीवन
को
; बोझ-सा
ढ़ोते-रोते
हुए
लोग
!
दीवारों
से
चिपके
दीमक
की
तरह,
झुके
और
रुके
हुए
लोग!
बेचैनी
दबाये
कहने
को
बहुत
है
पर, सहमे हुए
लोग!
2. सफर
रात का
आंखों
का
इशारा
हमसे
न
कर
सजा
लो
पलकों
में, किसका है
खौफ़
बात
बेअदबी
की
हमसे
न
कर
चार
दिन
हो
संग
चार
यार
के
मुलाकातों
की
अर्जियां
हमसे
न
कर
चालाकियां
ज़ुस्तज़ु
की
वकालत
करती
होंगी
आरज़ू
या
मिन्नतें
हमसे
न
कर
ग़म
से
लिपटकर
बैठा
हूं
कबसे
बेपरवाह
मस्तीजादे
हमसे
न
कर
चल
पड़े
हैं
सफ़र
में
बिना
थके
बेख़ौफ़
अब
मंज़िल
की
बातें
हमसे
न
कर
रात
आती
है
लेकर
एक
चादर
लिपटकर-ओढ़कर
सुला
देती
है
अबोध
मन
को
एक
मन
है
जिसे
है
कुछ
बोध
हुआ
रात
उससे
संघर्ष
किए
जाती
है
रात
फिर
आती
है
संघर्ष
निरंतर
रहता
है
नींद
घुले
सपने
में
तो
रात
सदा
मुसकाती
है
रात
रही
बेचैन
वहाँ
जिसे
नींद
नहीं
आती
है
सफर
नहीं
है
रात
मौसम
भी
नहीं
जागने
वाले
जानते
हैं
सफर
भी
है, मौसम भी!
3. पानी-पानी
बोलता है
बहुत
कशिश
है
बारिश
के
साथ
हवाओं
में
पत्थर-पत्थर, पानी-पानी
सब
बोलता
है
धरती
झूमे
बादल
गरजे
सांसें
बहके
कदम
चले
जाने
क्यों
अक्सर
मेरा
मन
अब
टटोलता
है
मुझको
न
मालूम
मेरे
ख़िलाफ़
चल
रही
है
बयार
बंद
पड़ी
है
सबकी
किताबें, कौन कब
खोलता
है
?
धूप, तपिश, थकन, सब हैं
आदमी
की
मिल्कियत
क्यों
तेरा
मन
बैचैन
हवाओं
से
अज़ब
डोलता
है
?
सोंधी
है
महक, मिट्टी की
खुशबू, बारिश की
बूंदें
करिश्मा
है
कुदरती
चासनी
चाहे
जब
घोलता
है
।
8. शब्द
साक्षी
रहे
हैं
कुछ
शब्द,
स्मृतियों
का
उपहारस्वरूप!
निरीक्षण
के
व्यथित
आकाश
में
गुंजन
कर
रहे
हैं
कुछ
शब्द!
सीमाएँ
बाँधता
है
क्षितिज
पर
यथातथ्य
के
कुछ
शब्द
!
दाँत
निपोरते
हैं, पास आकर
हारे
हुए-हँसते
हुए, कुछ शब्द!
दो
सुखों
का
एक
सुख
लेकर
आता
है
वैदर्भी
के
कुछ
शब्द!
शब्दों
की
सभा
में
अधिक
न्यून
वर्षों
से, उपेक्षित रहे
कुछ
शब्द!
रात
में
सुगबुगाता
है, आँधियों के
वेग
से
करवटें
बदलते
हुए
कुछ
शब्द
!
शब्दों
की
लड़ाई
में
वर्णों
का
अनुशासन
अपने
वक्ष
पर
आँधियों
का
वेग
सहना
है
मंच
पर
गौण
हो
गया
विरोधियों
का
भाषण
निदाघ
दिनों
से
पावस
रातों
का
कहना
है-
आ
द
मी
जीवन
के
अध्याय
पर
स्थित
बेचैनी
की
पृष्ठभूमि
का
प्रकाशन
है,
जिसकी
पृष्ठ
संख्या
कहीं
अंकित
नहीं
है।
एक
कराहता
हुआ
'यहाँ'
हर
चीखते
हुए
'वहाँ' के लिए
बेचैन
है।
एक
कसक-सा
'कहाँ'
न
जाने
कहाँ
से
चला
आता
है
हर बार !
बहुत सुंदर रजनीश जी। भाव और शिल्प दोनों में कसाव है। काव्य लेखन में भाषागत सावधानी अवश्य रखें क्योंकि थोड़ी गज़ल और थोड़ी कविता मिल कर कुछ नहीं बन पायेगा। रदीफ, काफिया, मुसलसल, गैर मुसलसल कैसी भी कविता हो पर एक भीतरी धागा पूरी रचना में रहना चाहिए।
जवाब देंहटाएंकविताएँ सुंदर हैं बधाइयाँ। आप निरन्तर मँजते जायेंगे यही आशा है।
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