- डॉ. रमेश कुमार बर्णवाल
शोध
सार : प्राचीन
पाश्चात्य
भाषा-चिंतन-परंपरा
में
शब्द-विवेचन
को
ही
प्रमुख
स्थान
मिला
है।
पारंपरिक
यूरोपीय
व्याकरण
में
सामान्यतः
भाषा
की
मौलिक
इकाई
के
रूप
में
तो
‘वाक्य’ को
स्वीकार
किया
गया
है, तथा
शब्द
को
उसी
के
एक
घटक
के
रूप
में
विवेचित
किया
गया
है।
परन्तु
पारंपरिक
व्याकरण
ग्रंथ
सामान्यतः
शब्द-विवेचन
की
सीमा
से
आगे
नहीं
जाते।
शब्द-विवेचन
प्राचीन
भारतीय
वैयाकरणों
के
लिए
भी
महत्त्वपूर्ण
था, लेकिन
उनके
यहां
‘शब्द’ का
अर्थ
व्यापक
रहा।
आधुनिक
भाषाविज्ञान
में
शब्द
और
अर्थ
का
अंतर्संबंध
तथा
भाषा
का
वास्तविक
चरित्र
भाषिक
चिंतन
के
केंद्रीय
विषय
बन
गए।
19वीं
सदी
के
अंत
और
20वीं
सदी
के
आंरभ
में
इन
विषयों
पर
व्यवस्थित
रूप
से
पाश्चात्य
भाषाविदों
और
दार्शनिकों
ने
विचार
किया।
साथ
ही
भाषा
के
समाजशास्त्रीय
और
मनोवैज्ञानिक
पहलुओं
के
अध्ययन
की
परंपरा
शुरू
हुई।
इस
समस्त
भाषा-चिंतन
की
प्रक्रिया
में
शब्द-अर्थ
संबंध
को
लेकर
अनेक
वाद-विवाद
उत्पन्न
हुए।
इन
वाद-विवादों
से
शब्द-अर्थ
संबंध
को
लेकर
कौन
सी
युगांतरकारी
स्थापनाएं
सामने
आईं
और
किन
स्थापनाओं
को
विशेष
स्वीकृति
मिली, यह
शोध-आलेख
इसी
विषय
पर
केंद्रित
है।
बीज
शब्द : यादृच्छिकता, शब्द-विवेचन, भाषिक
भेद, अर्थविज्ञान, संकेत
व्यवस्था, संकेत
विज्ञान, संकेतक, संकेतित, भाषा-प्रयोक्ता, सार्वभौमिक
व्याकरण।
मूल
आलेख : भाषा
चिंतन
की
पश्चिमी
परंपरा
में
वाच्य-वाचक
संबंध
और
यादृच्छिकता
का
महत्त्वपूर्ण
स्थान
रहा
है।
प्राचीन
यूनानी
विद्वानों
के
सामने
प्रमुख
प्रश्न
यह
था
कि
शब्द
तथा
उसके
अर्थ
में
अथवा
वाचक
तथा
वाच्य
में
क्या
कोई
अनिवार्य
संबंध
है?
यूनानी
विद्वान
प्लेटो
ने
‘क्रेटिलस’ के
संवाद
में[1]
इस
विषय
की
तथा
भाषिक
संकेतों
की
यादृच्छिक
प्रकृति
व
भाषा
के
सामाजिक
महत्त्व
जैसे
अन्य
विषयों
की
रूप-रेखा
प्रस्तुत
की
है।
प्लेटो के
संवाद
में
एक
प्रतिभागी
इस
विश्वास
का
समर्थन
करता
है
कि
शब्दों
तथा
उनसे
संबंधित
वस्तुओं
अथवा
कार्यों
के
बीच
वैध
तथा
युक्तियुक्त
संबंध
होता
है।[2]
‘क्रेटिलस’ में
भाषा
के
मिथकीय
आविष्कारक
की
चर्चा
की
गई
है, जिसे
‘नामकर्ता’ (the
name maker) कहा गया
है।
भाषा
का
आविष्कार
उसने
कैसे
किया, इसकी
चर्चा
नहीं
है, लेकिन
यह
माना
गया
है
कि
उसने
यों
ही
यादृच्छिक
रूप
से
शब्द
निर्धारित
नहीं
कर
दिए
या
नाम
नहीं
रख
दिए
बल्कि
नाम
निर्धारण
के
लिए
उपयुक्तता
के
कुछ
निश्चित
सिद्धांतों
का
पालन
किया।[3]
क्रेटिलस
के
संवाद
का
मुख्य
प्रतिभागी
क्रेटिलस
कहता
है-
हर
चीज
का
अपना
एक
सही
नाम
है
जो
प्रकृति
द्वारा
प्रदत्त
है
और
कोई
नाम
किसी
संधि
या
सहमति
के
तहत
लोगों
द्वारा
चीजों
को
पुकारे
जाने
मात्र
से
अस्तित्व
में
नहीं
आ
जाता, बल्कि
नामों
में
एक
तरह
का
अंतर्निहित
सहीपन
अथवा
औचित्य
होता
है, जो
सभी
मनुष्यों-
ग्रीकवासियों
और
असभ्य
लोगों, सबके
लिए
समान
है।[4]
इस संवाद
में
प्राकृतिक
नामकरण
की
धारणा
के
अंतर्गत
इस
विचार
का
विरोध
किया
गया
है
कि
नाम
मनुष्य
की
सुविधा
के
लिए
यादृच्छिक
शाब्दिक
लेबल
मात्र
हैं।
‘क्रेटिलस’ के
संवाद
में
दूसरा
प्रतिभागी
हर्मोजिनस
शब्दों
की
यादृच्छिकता
की
धारणा
का
समर्थक
है।
उसका
दावा
है
कि
किसी
चीज
को
जो
भी
नाम
दें, वही
उसका
सही
नाम
है।[5] हर्मोजिनस यह
दावा
करता
है
कि
मिथकीय
नामकर्ता
ने
अपनी
विशेष
दक्षता
के
कारण
चीजों
के
नाम
निश्चित
नहीं
किए
थे।
न
ही
चीजों
या
मनुष्यों
के
नाम
रखने
में
उनके
स्वभाव
या
चरित्र
की
कोई
जांच
की
गई।
इसलिए
कोई
नाम
किसी
और
नाम
के
समान
ही
अच्छा
है।[6] यानी जो
नाम
एक
बार
रख
दिया
गया, वही
उसका
उपयुक्त
नाम
हो
गया।
इस तरह
‘क्रेटिलस’ के
संवादों
में
प्लेटो
ने
प्राकृतिक
नामों
के
सिद्धांत
और
यादृच्छिक
नामों
के
सिद्धांत
के
बीच
का
द्वन्द्व
प्रस्तुत
किया।
प्राचीन
पाश्चात्य
भाषा-चिंतन-परंपरा
में
शब्द-विवेचन
को
ही
प्रमुख
स्थान
मिला
है।
पारंपरिक
यूरोपीय
व्याकरण
में
सामान्यतः
भाषा
की
मौलिक
इकाई
के
रूप
में
तो
‘वाक्य’ को
ही
स्वीकार
किया
गया
है, तथा
शब्द
को
उसी
के
एक
घटक
के
रूप
में
विवेचित
किया
गया
है।
परन्तु
पारंपरिक
व्याकरण
ग्रंथ
सामान्यतः
शब्द-विवेचन
की
सीमा
से
आगे
नहीं
जाते
और
मुख्यतः
शब्द-भेदों, उनकी
व्युत्पत्ति
और
रूपसिद्धि
(Inflexion) आदि की
चर्चा
करते
हैं।
इसीलिए
आधुनिक
काल
में
भाषावैज्ञानिकों
ने
उन्हें
एकांगी
और
दोषपूर्ण
बताया
है, क्योंकि
वह
भाषा
विवरण
की
‘शब्द
और
रूपावली’
(word and paradigm) पद्धति के
अनुसार
भाषा
का
सीमित
वर्णन
करता
है
और
शब्द
के
अतिरिक्त
भाषा
की
संरचना
के
अन्य
स्तरों, जैसे-वाक्य, उपवाक्य, पदबंध, मूल-प्रकृति, प्रत्यय
और
स्वनिम
का
विवेचन
नहीं
करता।
आशय
यह
है
कि
प्राचीन
यूरोपीय
भाषा-चिन्तन
में
‘शब्द’ सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण
संकल्पना
है
और
उसी
का
सर्वाधिक
विवेचन
हुआ
है।[7]
शब्द-विवेचन
प्राचीन
भारतीय
वैयाकरणों
के
लिए
भी
महत्त्वपूर्ण
था, लेकिन
उनके
यहां
‘शब्द’ का
अर्थ
व्यापक
रहा।
यह
सिर्फ
अंग्रेजी
शब्द
‘वर्ड’ के
अभीष्ट
अर्थ
तक
ही
सीमित
नहीं
था।
यद्यपि
संस्कृत
व्याकरण
में
भाषा
का
सम्पूर्ण
विश्लेषण
और
वर्णन
वर्ण, पद
और
वाक्य
के
रूप
में
ही
हुआ
है, किन्तु
सम्पूर्ण
भाषा-विवरण
को
व्याकरण
के
साथ-साथ
शब्दानुशासन
और
शब्दोपदेश
भी
कहा
गया
है।
निश्चित
ही
यहां
शब्द
का
अर्थ
‘वर्ड’ नहीं हो
सकता।
पतंजलि
ने
अपने
महाभाष्य
के
प्रारंभ
में
व्याकरण
को
‘शब्दानुशासन’ कहकर
‘शब्द’ के
उदाहरण
के
रूप
में
एक
ओर
जहाँ
लौकिक
संस्कृत
से
स्फुट
‘शब्द’ या
अपद
‘शब्द’[8] उद्धृत किए
हैं, वहीं
वैदिक
संस्कृत
से
पूरे
वाक्य
उद्धृत
किए
हैं।
अन्यत्र
भी
उन्होंने
‘शब्द’ की
जो
अनेक
परिभाषाएं
दी
हैं, उनसे
भी
यही
लगता
है
कि
उनके
अनुसार
किसी
भी
सार्थक
उक्ति
को
‘शब्द’ कहा
जा
सकता
है, जो
आधुनिक
अर्थ
में
वाक्य
भी
हो
सकता
है
और
मात्र
शब्द
भी।
आशय
यह
है
कि
भारतीय
व्याकरणिक
परंपरा
में
‘शब्द’ अपेक्षाकृत
व्यापक
अर्थ
में
प्रयुक्त
हुआ
है।[9]
आधुनिक
भाषाविज्ञान
में
शब्द
और
अर्थ
का
अंतर्संबंध
तथा
भाषा
का
वास्तविक
चरित्र
भाषिक
चिंतन
के
केंद्रीय
विषय
बन
गए।
19वीं
सदी
के
अंत
और
20वीं
सदी
के
आंरभ
में
इन
विषयों
पर
व्यवस्थित
रूप
से
पाश्चात्य
भाषाविदों
और
दार्शनिकों
ने
विचार
किया।
साथ
ही
भाषा
के
समाजशास्त्रीय
और
मनोवैज्ञानिक
पहलुओं
के
अध्ययन
की
परंपरा
शुरू
हुई।
विल्हेम
फॉन हम्बोल्ट : 19वीं
सदी
में
जर्मन
दार्शनिक
विल्हेम
हम्बोल्ट
(Humboldt) ने
मानव
मस्तिष्क
की
अभिव्यक्ति
के
रूप
में
भाषा
के
अस्तित्व
को
पहचाना।
उन्होंने
मानव
मस्तिष्क
में
अंतर्निहित
भाषिक
सर्जनात्मकता
की
ओर
ध्यान
दिलाया।
उनके
अनुसार
भाषा
केवल
उत्पादन
क्षमता
है, उत्पादित
वस्तु
नहीं
है।
यानी
भाषा
एक
विशेष
योग्यता
है
जिसकी
सहायता
से
मानव
उक्तियों
का
निर्माण
करता
है
और
उन्हें
समझता
है, न
कि
इस
योग्यता
का
परिणाम।[10]
हम्बोल्ट
का
प्रसिद्ध
वक्तव्य
है
- ‘‘भाषिक
योग्यता
या
भाषिक
प्रकृति
का
केन्द्रीय
तथ्य
यह
है
कि
मानव
सीमित
भाषिक
साधनों
का
असीमित
उपयोग
कर
सकता
है।’’[11]
हम्बोल्ट के अनुसार ‘भाषा ही विचार का निर्माण करती है। भाषा के अभाव में विचार करना अंसभव है। भाषा का आंतरिक रूप मानव मस्तिष्क का आधारभूत रचनांश है। यह आंतरिक रूप भाषा के अर्थविज्ञान और व्याकरणिक संरचना से जुड़ा होता है।’[12]
हम्बोल्ट का यह स्पष्ट मानना था कि ‘भाषिक भेद केवल स्वन-भेद नहीं होते हैं। उनमें संबंधित प्रयोक्ताओं के अनुभव-जगत के प्रति भिन्न दृष्टिकोण निहित होते हैं।’[13]
मानव
मस्तिष्क
और
भाषा
के
अंतर्संबंध
पर
हम्बोल्ट
के
विचार
अविवादित
नहीं
रहे
बल्कि
उनकी
आलोचना
भी
हुई।
लेकिन
इन
विचारों
को
बीसवीं
सदी
में
दर्शन
के
क्षेत्र
में
अत्यधिक
महत्त्व
मिला।
इसके
अलावा
प्रसिद्ध
मानवशास्त्री
सपीर, व्होर्फ
और
प्रसिद्ध
भाषावैज्ञानिक
चॉम्स्की
पर
हम्बोल्ट
की
मान्यताओं
का
प्रभाव
देखा
गया।
सपीर -
व्होर्फ प्राक्कल्पना : भाषा
के
बारे
में
अमेरिका
के
प्रसिद्ध
मानवशास्त्री
एडवर्ड
सपीर
और
उनके
शिष्य
बेंजामिन
ली
व्होर्फ
के
सिद्धांत
को
‘सपीर-व्होर्फ
प्राक्कल्पना’ के
नाम
से
जाना
जाता
है।
इसके
प्राक्कल्पना
के
अंतर्गत
उन्होंने
भाषा, विचार
और
संस्कृति
के
अंतर्संबंधों
पर
प्रकाश
डाला।
सपीर
के
अनुसार
‘‘भाषा
सामाजिक
वास्तविकता
तक
ले
जाने
वाली
मार्गदर्शक
है
और
सामाजिक
समस्याओं
तथा
प्रक्रियाओं
के
बारे
में
हमारे
विचार
को
यह
सशक्त
ढंग
से
नियंत्रित
करती
है।
मनुष्य
सिर्फ
वस्तुगत
संसार
में
ही
नहीं
रहता, न
ही
सिर्फ
सामाजिक
गतिविधियों
की
दुनिया
में
जीता
है।
बल्कि
वह
बहुत
हद
तक
किसी
भाषा
की
मेहरबानी
पर
निर्भर
होकर
जीता
है
जो
उसके
समाज
के
लिए
अभिव्यक्ति
का
माध्यम
बन
चुकी
हो।
यह
कल्पना
करना
कि
मनुष्य
सामाजिक-सांस्कृतिक
यथार्थ
के
साथ
भाषा
की
सहायता
के
बिना
ही
तालमेल
बिठा
लेता
है
और
भाषा
संप्रेषण
संबंधी
विशिष्ट
समस्याओं
के
समाधान
का
साधन
मात्र
है, पूरी
तरह
एक
भ्रम
है।
तथ्य
यह
है
कि
‘वास्तविक
जगत’ बहुत
हद
तक
अचेतन
रूप
से
किसी
मानव
समुदाय
की
भाषा
संबंधी
आदतों
के
अनुरूप
बनता
है।’’[14]
उनकी
स्थापना
है
कि
‘‘दो
अलग-अलग
भाषाएं
कभी
भी
समान
सामाजिक
यथार्थ
का
प्रतिनिधित्व
करने
में
समान
रूप
से
समर्थ
नहीं
मानी
जा
सकतीं।’’[15]
भाषा
की
निर्धारक
क्षमता
के
बारे
में
उनका
कहना
है
कि
‘‘हम
जैसा
देखते
और
सुनते
हैं
या
फिर
अनुभव
करते
हैं, वह
इसलिए
कि
हमारे
समुदाय
की
भाषिक
आदतें
व्याख्या
के
कुछ
निश्चित
विकल्प
पहले
से
निर्धारित
कर
देती
हैं।’’[16]
एल.एस.
व्यगोत्सकी ने
आनुवंशिक
विश्लेषण
की
विधि
से
यह
दिखाया
है
कि
सामाजिक
गतिविधि
के
रूप
में
भाषा
हमारे
विचार
को
कैसे
प्रभावित
करती
है।
वे
तर्क
देते
हैं
कि
‘बच्चा
अपने
सामाजिक
परिवेश
में
जो
भाषा
सुनता
है
और
जिसका
अनुभव
ग्रहण
करता
है
वह
उसके
मन
पर
आंतरिक
भाषा
के
रूप
में
जगह
बना
लेती
है
और
यह
बात
भाषा
सीखने
तथा
भाषा
के
सामाजिक
व्यवहार
दोनों
में
निर्णायक
भूमिका
निभाती
है।’’[17] उनके ‘सांस्कृतिक
विकास
के
सामान्य
वंशानुगत
नियम’ के
अनुसार
भाषा
या
भाषिक
प्रतीकों
का
प्रयोग
सामाजिक
अंतर्व्यवहार
से
निर्धारित
होता
है।’’[18] उनके अनुसार
बच्चे
के
सांस्कृतिक
या
उच्च
मानसिक
विकास
में
कोई
क्रिया
दो
बार
प्रकट
होती
है।
पहली
बार
सामाजिक
स्तर
पर
और
दूसरी
बार
मनोवैज्ञानिक
स्तर
पर।
व्यगोत्सकी
का
सिद्धांत
यह
दावा
करता
है
कि
एक
संकेत
व्यवस्था
(semiotic system) के
रूप
में
मानवीय
भाषा, हम
जो
कहते
हैं
और
हम
जो
सोचते
हैं
उन्हें
जोड़ती
है।
इस
तरह
यह
भाषिक
संकेत
होने
के
साथ-साथ
मनोवैज्ञानिक
उपकरण
भी
है।
यह
मनोवैज्ञानिक
और
सामाजिक
प्रक्रियाओं
के
बीच
मध्यस्थ
का
काम
करती
है
क्योंकि
भाषिक
प्रतीकों
का
ज्ञान
और
उसके
अनुरूप
व्यवहार
तभी
संभव
है, जब
किसी
समुदाय
के
सभी
लोग, जिनमें
उन
प्रतीकों
के
अर्थ
को
लेकर
आपसी
सहमति
और
स्वीकृति
हो, उनका
आपस
में
प्रयोग
करें।
सॅस्यूर, हैलिडे, चॉम्स्की
भाषाविज्ञान
में
भाषा
के
अध्ययन
के
तीन
अत्यधिक
महत्त्वपूर्ण
दृष्टिकोणों
की
हम
आगे
चर्चा
करेंगे।
इनमें
पहला
दृष्टिकोण
भाषा
की
यादृच्छिकता
और
संकेतव्यवस्था
के
रूप
में
उसकी
पहचान
से
मुख्यतः
जुड़ा
है।
दूसरा
दृष्टिकोण
भाषा
में
चयन
के
विकल्प
पर
मुख्यतः
केन्द्रित
है, और
तीसरा
भाषा
के
सामर्थ्य
और
व्याकरणिक
विश्लेषण
की
विशेष
पद्धति
पर
मुख्यतः
आधारित
है।
इनमें
पहले
दृष्टिकोण
के
प्रतिपादक
फर्नांडो
डी
सॅस्यूर, दूसरे
के
एम.ए.के.
हैलिडे
और
तीसरे
के
नॉम
चॉम्स्की
हैं।
सॅस्यूर
प्रसिद्ध
स्विस
भाषाविज्ञानी
सॅस्यूर
के
भाषिक
सिद्धांतों
का
आधुनिक
भाषाविज्ञान
में
बुनियादी
महत्त्व
है।
उनके
भाषिक
चिंतन
से
परवर्ती
समस्त
भाषावैज्ञानिक
चिंतन
प्रभावित
हुआ।
एक
तरह
से
सॅस्यूर
का
भाषिक
चिंतन
आधुनिक
भाषाविज्ञान
का
वह
प्रस्थान
बिंदु
माना
जाता
है, जहां
से
आगे
चलकर
परवर्ती
भाषावैज्ञानिक
चिंतन
विकसित
हुआ।
साथ
ही
संरचनावाद
जैसे
भाषिक-वैचारिक
आंदोलन
की
नींव
भी
सॅस्यूर
के
भाषिक
चिंतन
से
ही
तैयार
हुई।
सॅस्यूर
ने
भाषा
के
लिखित
रूप
के
अध्ययन-विश्लेषण
पर
बल
नहीं
दिया, इसलिए
हम
यहां
संक्षेप
में
उनके
भाषिक
चिंतन
के
उन
प्रासंगिक
बिंदुओं
का
संक्षिप्त
विवेचन
करेंगे
जो
भाषा
की
प्रकृति
से
संबंध
रखते
हैं।
सॅस्यूर
भाषाविज्ञान
को
एक
वृहत्तर
तथा
अधिक
सामान्य
विषय
संकेतविज्ञान
(Semiology) का अंग
मानते
हैं।
संकेतविज्ञान
समाज
के
जीवन
में
संकेतों
के
जीवन
का
अध्ययन
करता
है।
सॅस्यूर
की
राय
में
भाषिक
अध्ययन
का
प्रमुख
कार्य
संकेतों
का
विश्लेषण
करना
है।
उनकी
महत्त्वपूर्ण
स्थापना
है
कि
‘संकेत’ सदैव
यादृच्छिक
होता
है।
संकेत
को
यादृच्छिक
मानने
के
कारण
शब्द
और
उसके
अर्थ
के
बीच
कोई
प्राकृतिक
या
तार्किक
संबंध
होता
है, इस
मान्यता
को
वे
सिरे
से
ख़ारिज
कर
देते
हैं।
संकेत
की
यादृच्छिकता
को
हम
इस
उदाहरण
से
समझ
सकते
हैं
कि
‘भाई’ शब्द
के
पीछे
जो
विचार
है
उसका
भ्-आ-ई
स्वन-अनुक्रम
से
कोई
आंतरिक
संबंध
नहीं
है।
यदि
ऐसा
होता
जो
अंग्रेजी
में
इसे
ब्रदर
(ब्-र्-अ-द्-र्-अ)
कैसे
कहा
जाता
?
संकेत
के
संदर्भ
में
सॅस्यूर
के
वाच्य-वाचक
सिद्धांत
की
चर्चा
जरूरी
है।
सॅस्यूर
के
शब्दों
में
‘भाषिक
संकेत
किसी
वस्तु
और
उसके
नाम
को
नहीं, बल्कि
संप्रत्यय
(concept) और स्वन
प्रतिबिम्ब
को
जोड़ता
है।’’ सॅस्यूर
के
अनुसार
संप्रत्यय
और
स्वन
प्रतिबिम्ब
दोनों
का
ही
मनोवैज्ञानिक
अस्तित्व
होता
है।
मस्तिष्क
में
इनके
बीच
साहचर्य
का
संबंध
होता
है।
सॅस्यूर
‘संकेत’ शब्द
को
व्यापक
बनाते
हुए
संप्रत्यय
और
स्वन
प्रतिबिम्ब
के
लिए
क्रमशः
वाच्य’ (signified) और वाचक
(signifier) शब्द प्रस्तावित
करते
है।
उनके
शब्दों
में
^^I propose to retain the word sign (ewy Úsap esa Signe) to designate
the whole and to replace concept and sound image respectively by signified (ewy
Úsap esa signifie) and signifier (ewy Úsap esa signfian) --- The bond between
the signifier and the signified is arbitrary.**[19]
इस तरह
सॅस्यूर
के
अनुसार
वाचक
तथा
वाच्य
(अथवा संकेतक तथा
संकेतित)
के
साहचर्य
के
परिणामस्वरूप
प्राप्त
समग्रता
को
ही
‘संकेत’ कहा जा
सकता
है।
सॅस्यूर
ने
भाषा
की
तुलना
कागज
से
की।
‘‘कागज
का
अगला
भाग
अगर
विचार
है
तो
स्वन
उसका
पिछला
भाग
है।
जिस
तरह
कागज
का
एक
भाग
काटना
दूसरे
भाग
को
काटे
बिना
असंभव
है, ठीक
उसी
तरह
विचार
(संप्रत्यय, वाच्य या
संकेतित)
और
स्वन
(स्वन प्रतिबिम्ब, वाचक
या
संकेतक)
एक
दूसरे
से
अलग
नहीं
किए
जा
सकते।
भाषाविज्ञान
उस
सीमा
प्रांत
में
कार्य
करता
है
जहां
विचार
तथा
स्वन
के
तत्त्व
मिलते
हैं।’’[20]
सॅस्यूर
की
एक
प्रसिद्ध
मान्यता
है
कि
‘भाषा
में
केवल
भेद
पाए
जाते
हैं।’ सॅस्यूर
के
शब्दों
में
‘‘भाषिक
व्यवस्था
के
सभी
तत्त्व
अपना
मूल्य, जिस
वस्तु
से
वे
बने
हैं, उनसे
नहीं
बल्कि
भाषिक
व्यवस्था
के
प्रत्येक
दूसरे
तत्त्व
से
अपनी
भिन्नता
से
प्राप्त
करते
हैं।
दूसरे
शब्दों
में, मूल्य
यहां
उपस्थिति
नहीं, बल्कि
अनुपस्थिति
का
विषय
है’’[21]
यहां
सॅस्यूर
द्वारा
प्रयुक्त
‘लॉन्ग’ और
‘पारोल’ दो
अवधारणात्मक
शब्दों
की
चर्चा
करना
जरूरी
है।
सॅस्यूर
संस्कृति
और
भाषा
दोनों
को
ही
संबंधों
के
तंत्र
के
रूप
में
देखते
हैं।
लॉन्ग
से
उनका
अभिप्राय
किसी
भाषा
का
अमूर्त
तंत्र
है, जिसके
अनुसार
वह
भाषा
बोली
और
समझी
जाती
है।
और
पारोल
का
अर्थ
है
बोली
जाने
वाली
भाषा
यानी
भाषा
का
वह
रूप, जो
व्यवहार
में
प्रकट
होता
है।
अमूर्त
तंत्र
के
रूप
में
लॉन्ग
भाषिक
सिद्धांतों
और
नियमों
की
मानसिक
संकल्पना
है
और
यह
अवैयक्तिक
है, जो
सबके
लिए
समान
है।
इसलिए
भाषा
की
सारी
विविधताएं
पारोल
में
प्रकट
होती
हैं, जो
भाषा
का
व्यावहारिक
प्रयोग
है।
इस
तरह
भाषा
का
अमूर्त
तंत्र
तो
सबके
लिए
एक
ही
है, लेकिन
प्रयोग
की
सारी
विविधताएं
भाषा-प्रयोक्ताओं
के
अपने
नवीन
और
सर्जनात्मक
भाषा-व्यवहार
से
आती
हैं
और
साथ
ही
भाषा-व्यवहार
की
पूरी
परंपरा
से।
एम.ए.के.
हैलिडे
हैलिडे
ने
भाषा
की
व्यवस्था
पर
अपना
सिद्धांत
प्रस्तुत
किया।
हैलिडे
के
अनुसार
‘भाषा
एक
अभिरचनात्मक
क्रिया
है’।
उन्होंने
भाषिक
स्तरों
की
व्यवस्था
का
प्रतिपादन
करते
हुए
बताया
है
कि
इसमें
‘प्रत्येक
स्तर
का
संबंध
मूलतः
भिन्न
प्रकार
की
अभिरचना
से
होता
है’।
उनके
अनुसार
भाषा
के
तीन
मूलभूत
स्तर
होते
हैं-
द्रव्य, रूप
तथा
संदर्भ।
इन
तीन
स्तरों
के
अनुरूप
भाषा
की
तीन
मूलभूत
अभिरचनाएं
हैं-
स्वनात्मक
अभिरचना, रूपात्मक
अभिरचना
तथा
अर्थात्मक
अभिरचना।
द्रव्य
भाषा
की
आधार
सामग्री
है।
रूप
भाषा
की
आंतरिक
संरचना
है।
संदर्भ
भाषा
की
बाह्य
संरचना
है।
संदर्भ
या
भाषा
की
बाह्य
संरचना
भाषिक
घटनाओं
तथा
अभाषिक
दृश्य
घटनाओं
के
बीच
अभिरचनात्मक
संबंध
है।
भाषिक
घटनाएं
भाषा
की
आंतरिक
संरचना
का
प्रयोग
है
और
अभाषिक
घटनाएं
वे
बाह्य
परिस्थितियां
हैं
जिनमें
भाषा
क्रियाशील
है।
इन
दोनों
का
आपसी
संबंध
ही
संदर्भ
है।
यह
भाषा
की
बाह्य
संरचना
है
और
हैलिडे
के
अनुसार
इसी
से
अर्थ
उत्पन्न
होता
है।
हैलिडे
के
अनुसार
‘प्रत्येक
स्तर
का
स्वतंत्र
अस्तित्व
है, लेकिन वे
विभिन्न
होते
हुए
भी
परस्पर
विरोधी
नहीं
हैं।
एक
ही
भाषिक
घटना
में
द्रव्य, रूप
तथा
संदर्भ
तीनों
होते
हैं।
द्रव्य
(भाषिक क्रिया का
माध्यम)
व
रूप, तथा
संदर्भ
(भाषिक क्रिया का
आंतरिक
तथा
बाह्य
अर्थ), दोनों
की
अपनी
अभिरचनाएं
होती
हैं।’’[22] ‘रूप’ पर
और
प्रकाश
डालते
हुए
उन्होंने
लिखा
है
‘रूप
के
स्तर
के
दो
उपस्तर
होते
हैं-
व्याकरण
तथा
शब्द
रूप।
अर्थात्
व्याकरण
तथा
शब्द
स्तर
पर
भाषा
की
अर्थपूर्ण
आंतरिक
अभिरचनाओं
का
वर्णन
किया
जाता
है।
दूसरे
शब्दों
में, यह
बताया
जाता
है
कि
भाषा
किस
प्रकार
से
आंतरिक
रूप
से
संरचित
होती
है
ताकि
वह
अर्थात्मक
वैषम्य
बता
सके।’’[23]
हैलिडे
ने
रूप
के
स्तर
पर
चयन
के
विकल्पों
की
चर्चा
की
है।
उनके
अनुसार
‘कुछ
स्थानों
पर
अत्यधिक
कम
संभावनाओं
में
से
चयन
करना
होता
है।
यथा-
‘यह’ तथा
‘वह’ के
बीच
अथवा
एकवचन
तथा
बहुवचन
के
बीच, अथवा
भूत, वर्तमान
तथा
भविष्य
के
बीच
अथवा
कर्तृवाच्य
तथा
कर्मवाच्य
के
बीच।
ऐसे
स्थानों
पर
संभावनाओं
की
संख्या
सीमित
होती
है
इसलिए
चयन
की
रेंज
सीमित
होती
है।
जैसे, जहां
कर्तृवाच्य
चुना
जाता
है
वहां
उसका
एकमात्र
विकल्प
कर्मवाच्य
है।’’[24]
स्पष्ट
है
कि
इस
प्रकार
का
चयन
व्याकरण
से
संबंधित
है।
लेकिन
‘कुछ
स्थान
ऐसे
होते
हैं
जहां
चयन
की
संभावनाएं
असंख्य
या
बहुसंख्य
होती
हैं
और
एक
चयन
तथा
दूसरे
चयन
के
बीच
निश्चित
व
अनिवार्य
सीमा
नहीं
होती
है।’’[25]
उदाहरण
के
लिए
‘वह
.... पर बैठा है’ ढांचे
में
रिक्त
स्थान
पर
कुर्सी, बेंच, चारपाई
इत्यादि
का
चयन
संभव
है, लेकिन
अनेक
अन्य
चयन
भी
संभव
हैं।
यथा
पर्वत, छत, साइकिल, सड़क
इत्यादि-इत्यादि
और
इस
तरह
इनकी
संख्या
असीमित
है।
स्पष्ट
है
कि
यह
दूसरे
प्रकार
का
चयन
शब्द
से
संबंधित
है।
‘हैलिडे
ने
पहले
प्रकार
के
वरण
को
‘बद्ध’ और दूसरे
प्रकार
के
वरण
को
‘मुक्त’ कहा है।
बद्ध
वरण
के
अंतर्गत
संभावनाओं
की
रेंज
को
‘व्यवस्था’ कहते
हैं
और
मुक्त
वरण
के
अंतर्गत
संभावनाओं
की
रेंज
को
‘समुच्चय’ कहते हैं।
बद्ध
होने
के
कारण
पहले
को
बद्ध
व्यवस्था
कहा
गया
और
मुक्त
होने
के
कारण
दूसरे
को
मुक्त
समुच्चय।’’[26]
इस
तरह
स्पष्ट
है
कि
बद्ध
व्यवस्था
व्याकरण
की
विशेषता
है
जबकि
मुक्त
समुच्चय
शब्द
की
विशेषता
है।
नॉम
चॉम्स्की
नॉम
चॉम्स्की
के
भाषिक
सिद्धांतों
की
बीसवीं
सदी
के
पूरे
उत्तरार्ध
में
व्यापक
स्वीकृति
रही
है।
सार्वभौमिक
व्याकरण
से
संबंधित
उनकी
मौलिक
दृष्टि
की
भाषा
के
अध्ययन
में
उपयोगिता
आज
भी
यथावत्
बनी
हुई
है।
1964 में ‘करंट
इश्यूज
इन
लिंग्विस्टिक
थियरी’ में
चॉम्स्की
ने
लिखा
- ‘किसी
भी
भाषावैज्ञानिक
सिद्धांत
का
जिस
केन्द्रीय
तथ्य
से
सरोकार
होना
जरूरी
है
वह
यह
है-
एक
परिपक्व
वक्ता
उपयुक्त
अवसर
पर
अपनी
भाषा
में
नए
वाक्य
बना
सकता
है
और
अन्य
वक्ता
तुरंत
उसे
समझ
सकते
हैं, हालांकि
दोनों
ही
के
लिए
वह
वाक्य
समान
रूप
से
नया
है।
वक्ता
और
श्रोता
दोनों
रूपों
में
हमारे
ज्यादातर
भाषिक
अनुभव
नए
वाक्यों
से
जुड़े
होते
हैं।’
चॉम्स्की
ने
भाषा-प्रयोक्ता
के
अपनी
भाषा
के
ज्ञान
को
‘सामर्थ्य’ (competence) का नाम
दिया
और
ठोस
स्थितियों
में
उसके
द्वारा
भाषा
के
वास्तविक
उपयोग
को
‘निष्पादन’ (performance) कहा। उनके
अनुसार
‘एक
बार
जब
भाषा
पर
हमारा
अधिकार
हो
जाता
है
तो
ऐसे
वाक्यों
का
वर्ग
जिन्हें
हम
धाराप्रवाह
बिना
कठिनाई
के
बोल
लेते
हैं
इतना
बड़ा
हो
जाता
है
कि
अपने
सभी
व्यावहारिक
उद्देश्यों
के
लिए
हम
इसे
असीमित
मान
सकते
हैं।
भाषा
पर
सामान्य
अधिकार
के
अंतर्गत
असीमित
संख्या
में
नए
वाक्यों
को
समझने
की
योग्यता
ही
सिर्फ
शामिल
नहीं
है
बल्कि
विचलनयुक्त
वाक्यों
को
पहचानने
की
योग्यता
भी
शामिल
है
और
अवसर
आने
पर
उनकी
व्याख्या
करने
की
योग्यता
भी
शामिल
है।...बोलने
(speech) के अपने
सीमित
अनुभव
के
आधार
पर
प्रत्येक
मनुष्य
अपनी
भाषा
में
अपने
लिए
पर्याप्त
सामर्थ्य
विकसित
करता
है।
यह
सामर्थ्य
एक
हद
तक
नियम-व्यवस्था
में
प्रस्तुत
किया
जा
सकता
है, जिसे
हम
उसकी
भाषा
का
व्याकरण
कह
सकते
हैं।’’[27] इस तरह
मनुष्य
का
भाषा
के
नियमों
का
ज्ञान
या
सामर्थ्य
तो
निश्चित
और
सीमित
होता
है
लेकिन
भाषा-व्यवहार
या
निष्पादन
की
क्षमता
असीमित
होती
है
और
वह
अपनी
भाषा
में
वहां-वहां
जा
सकता
है
जहां
पहले
कभी
नहीं
पहुंचा
गया
हो।
नए
वाक्यों
की
रचना
से
लेकर
शब्द
के
नए-नए
प्रयोगों
के
रास्ते
भाषा-प्रयोक्ता
ख़ुद
बनाता
चलता
है।
1957 में प्रकाशित
अपनी
पहली
पुस्तक
‘सिंटैक्टिक
स्ट्रक्चर्स’ में
ही
चॉम्स्की
ने
लिखा
था, ‘वाक्य
बनाने
के
लिए, शब्द
आपस
में
कैसे
रखे
जाते
हैं, और
विशेष
रूप
से, कैसे
नहीं
रखे
जाते
हैं
इसके
विवरणों
का
नजदीकी
निरीक्षण
भाषा
संबंधी
मनुष्य
की
मानसिक
क्षमता
के
गठन
पर
प्रकाश
डाल
सकता
है।’’[28] इस आधार
पर
कहा
जा
सकता
है
कि
किसी
भाषा-प्रयोग
का
नजदीकी
निरीक्षण
उसके
प्रयोगकर्ता
के
मानसिक
गठन
का
पता
निश्चित
रूप
से
दे
सकता
है।
प्रयोक्ता
के
मन
में
घटना
को
लेकर
क्या
प्रतिक्रिया
उत्पन्न
हुई, यही नहीं, बल्कि वह
पाठकों
के
मन
में
क्या
प्रतिक्रिया
उत्पन्न
करना
चाह
रहा
था, यह
भी
पता
चलता
है।
चॉम्स्की
ने
‘एस्पैक्ट्स’ में व्याकरण
संबंधी
कई
महत्त्वपूर्ण
नियम
प्रतिपादित
किए
और
पहले
के
नियमों
पर
पुनर्विचार
भी
किया।
चॉम्स्की
ने
लिखा
है
कि
कर्ता
वह
संज्ञा
पदबंध
होता
है
जो
सीधा
वाक्य
से
प्रभावित
होता
है, तथा
कर्म
वह
संज्ञा
पदबंध
होता
है
जो
सीधा
क्रिया
से
प्रभावित
होता
है।
इस
आधार
पर
उन्होंने
सभी
भाषाओं
के
लिए
एक
नियम
बनाने
का
प्रयास
किया, जिसे
सार्वभौमिक
व्याकरण
कहा
गया।
इस
आधार
पर
वाक्यों
का
विश्लेषण
एक
रोचक
अभ्यास
हो
सकता
है।
लेकिन
हिंदी
की
विशेष
प्रवृत्ति
इन
नियमों
से
छिटक
जाती
है।
निष्कर्ष : भाषिक
अध्ययन
संबंधी
पश्चिमी
विद्वानों
की
प्रमुख
दृष्टियों
के
इस
विवेचन
से
शब्दार्थ
संबंधी
कुछ
महत्त्वपूर्ण
निष्कर्ष
निकलकर
आते
हैं, जो
इस
प्रकार
हैं
:
1. शब्द
और
अर्थ
का
संबंध
यादृच्छिक
होता
है, वास्तविक
नहीं।
लेकिन
प्रचलन
के
साथ
शब्द
का
निश्चित
अर्थ
से
प्रायः
स्थायी
संबंध
हो
जाता
है
और
शब्द
निश्चित
अर्थ
के
वाहक
बन
जाते
हैं।
शब्द
जिस
भाषा
के
सदस्य
हैं
उसके
प्रयोक्ता
समुदाय
में
उनके
अर्थ
को
लेकर
आपसी
सहमति
और
स्वीकृति
होती
है।
साथ
ही
अनुभवसिद्ध
सत्य
है
कि
शब्द
निश्चित
संदर्भ
से
अर्थ
ग्रहण
करते
हैं।
संदर्भ
के
अनुसार
उनके
अर्थ
में
कई
बार
परिवर्तन
हो
जाता
है।
हैलिडे
की
शब्दावली
लेकर
कहें
तो
भाषा
द्रव्य
तथा
रूप
है।
यह
संदर्भ
ही
है
जो
भाषिक
घटनाओं
तथा
अभाषिक
दृश्य
घटनाओं
के
बीच
संबंध
जोड़ता
है
और
इस
तरह
यह
बाह्य
संदर्भ
‘भाषा
की
संरचना’ है।
यही
कारण
है
कि
शब्द
तथा
रूप
संबंधी
अन्य
भाषिक
साधन
सीमित
होने
के
बावजूद
जैसा
कि
हम्बोल्ट
ने
कहा
है-
मानव
उनका
असीमित
प्रयोग
कर
सकता
है।
2. भाषा
समाज
में
स्वीकृति
ग्रहण
करती
है, साथ
ही
भाषा
की
सामाजिक
भूमिका
होती
है।
वह
संप्रेषण
का
साधन
मात्र
नहीं
है।
हमारी
बहुत
सी
धारणाओं
के
निर्माण
में
अचेतन
रूप
से
हमारी
भाषिक
जानकारी
या
भाषिक
अनुभवों
का
बड़ा
हाथ
होता
है।
3. शब्द-प्रयोग
का
मनुष्य
के
मन
और
विचार
से
गहरा
संबंध
होता
है।
सॅस्यूर
ने
तो
‘स्वन
प्रतिबिम्ब’ शब्दावली
का
प्रयोग
करते
हुए
कहा
है
कि
वह
इन्द्रियों
पर
स्वन
की
मनोवैज्ञानिक
छाप
होती
है।
व्यगोत्सकी
ने
कहा
है
कि
भाषा
विचार
को
प्रभावित
करती
है
और
संकेत
व्यवस्था
के
साथ-साथ
यह
मनोवैज्ञानिक
उपकरण
भी
है।
साथ
ही
यह
भी
सच
है
कि
भाषा
हमारे
विचारों
से
गहरे
प्रभावित
होती
है।
हम
निश्चित
उद्देश्य
के
लिए
निश्चित
शब्दों
का
विभिन्न
तरीके
से
प्रयोग
करते
हैं, जिनका
निश्चित
सामाजिक
और
मनोवैज्ञानिक
प्रभाव
होता
है।
लेक्काफ
और
जॉनसन
ने
कहा
है
कि
इनमें
न
सिर्फ
हमारी
अमूर्तन
और
तर्कक्षमता
को
प्रभावित
करने
की
शक्ति
होती
है
बल्कि
वे
हमारी
कल्पना
और
संवेगों
को
भी
प्रभावित
करते
हैं।
4. भाषा
में
आंतरिक
रूप
से
प्रयोग
के
विकल्प
मौजूद
होते
हैं।
हम
अपनी
आवश्यकता
और
उद्देश्य
के
अनुरूप
इच्छित
विकल्प
का
वरण
करते
हैं।
इससे
भाषा
में
नवीनता, सोद्देश्यता
और
परिणामपरकता
आती
है।
5. संरचना
(वाक्य, उपवाक्य, पदबंध, शब्द
तथा
रूपिम
स्तर
पर
भी)
का
विश्लेषण
भाषा
संबंधी
महत्त्वपूर्ण
निष्कर्ष
दे
सकता
है
और
साथ
ही
भाषा-प्रयोक्ता
के
मानसिक
गठन
का
भी
इससे
संकेत
मिल
सकता
है।
संदर्भ :[1] प्लेटो के सभी ग्रंथ संवादों के रूप में हैं जिनमें विभिन्न
व्यक्ति प्रस्तुत विषय पर वाद-विवाद कर निष्कर्ष तक पहुंचते हैं। ‘क्रेटिलस’ भी ऐसा ही ग्रंथ है।
[2] आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-49
[3] लैंग्वेज, सॅस्यूर एंड विटगेंस्टाइनः हाउ टु प्ले गेम विद वर्ड्स, रॉय हैरिस, पृष्ठ-8-9
[4] वही, पृष्ठ-9
[5]लैंग्वेज, सॅस्यूर एंड विटगेंस्टाइनः हाउ
टु प्ले गेम विद वर्ड्स, रॉय हैरिस, पृष्ठ-8-9
[6] वही, पृष्ठ-9
[7] टू मॉडल्स ऑफ ग्रैमेटिकल डिस्क्रिप्शन, वर्ड, वॉल्यूम-ग्, पृष्ठ-234,
[8] भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन, संपादकत्रय- विद्यानिवास मिश्र, अनिल विद्यालंकर, माणिकलाल चतुर्वेदी, पृष्ठ 351
[9] ‘अपद शब्द’ से आशय शब्द की वाक्य में ‘पद’ रूप में उपस्थिति से पहले की अवस्था है। संस्कृत
व्याकरणशास्त्र में वाक्य के भीतर प्रयुक्त शब्द को ‘पद’ कहा गया है। इस दृष्टि के
अनुसार वाक्य के घटक के रूप में प्रयुक्त होने से पहले शब्द का पद के रूप में रूपांतरण
होता है तथा पद रूप में ही शब्द वाक्य में प्रयुक्त होता है। इस तरह वाक्य का घटक
पद कहा जाएगा, शब्द
मात्र नहीं। भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन, संपादकत्रय - विद्यानिवास मिश्र, अनिल विद्यालंकर, माणिकलाल
चतुर्वेदी,
पृष्ठ-37
[10] आर.एच.रॉबिंस, अ शार्ट हिस्ट्री ऑफ
लिंग्विस्टिक्स, पृष्ठ-175, आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-56 में उद्धृत।
[11] आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, मोतीलाल गुप्त व रघुवीर प्रसाद
भटनागर, पृष्ठ-56
[12] वही, पृष्ठ-56
[13] वही, पृष्ठ-56
[14] द हैण्डबुक ऑफ अप्लाइड
लिंग्विस्टिक्स, सम्पादक-एलॅन
डेविस व कैथरीन एल्डर, पृष्ठ-237
[15] वही, पृष्ठ-237
[16] वही, पृष्ठ-237
[17] थॉट एण्ड लैंग्वेज, एल.एस. व्यगोत्सकी, द हैण्डबुक ऑफ अप्लाइड
लिंग्विस्टिक्स, सम्पादक
एलॅन डेविस व कैथरीन एल्डर, पृष्ठ-241
[18] वही, पृष्ठ-241 में उद्धृत।
[19] कोर्स इन जनरल लिंग्विस्टिक्स, सॅस्यूर, लैण्डमार्क इन लिंग्विस्टिक थॉट, पृष्ठ-190
[20] आधुनिक भाषाविज्ञान का भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-59
[21] लैण्डमार्क इन लिंग्विस्टिक थॉट, पृष्ठ-193
[22] आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-86
[23] वही, पृष्ठ-86-87
[24] वही, पृष्ठ-87
[25] वही, पृष्ठ-87
[26] आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-87
[27] करंट इश्यूज इन लिंग्विस्टिक
थियरी, नॉम
चॉम्स्की, लैण्डमार्क्स
इन लिंग्विस्टिक थॉट, पृष्ठ-122
[28] वही, पृष्ठ-122
[2] आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-49
[3] लैंग्वेज, सॅस्यूर एंड विटगेंस्टाइनः हाउ टु प्ले गेम विद वर्ड्स, रॉय हैरिस, पृष्ठ-8-9
[4] वही, पृष्ठ-9
[5]लैंग्वेज, सॅस्यूर एंड विटगेंस्टाइनः हाउ टु प्ले गेम विद वर्ड्स, रॉय हैरिस, पृष्ठ-8-9
[6] वही, पृष्ठ-9
[7] टू मॉडल्स ऑफ ग्रैमेटिकल डिस्क्रिप्शन, वर्ड, वॉल्यूम-ग्, पृष्ठ-234,
[8] भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन, संपादकत्रय- विद्यानिवास मिश्र, अनिल विद्यालंकर, माणिकलाल चतुर्वेदी, पृष्ठ 351
[9] ‘अपद शब्द’ से आशय शब्द की वाक्य में ‘पद’ रूप में उपस्थिति से पहले की अवस्था है। संस्कृत व्याकरणशास्त्र में वाक्य के भीतर प्रयुक्त शब्द को ‘पद’ कहा गया है। इस दृष्टि के अनुसार वाक्य के घटक के रूप में प्रयुक्त होने से पहले शब्द का पद के रूप में रूपांतरण होता है तथा पद रूप में ही शब्द वाक्य में प्रयुक्त होता है। इस तरह वाक्य का घटक पद कहा जाएगा, शब्द मात्र नहीं। भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन, संपादकत्रय - विद्यानिवास मिश्र, अनिल विद्यालंकर, माणिकलाल चतुर्वेदी, पृष्ठ-37
[10] आर.एच.रॉबिंस, अ शार्ट हिस्ट्री ऑफ लिंग्विस्टिक्स, पृष्ठ-175, आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-56 में उद्धृत।
[11] आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, मोतीलाल गुप्त व रघुवीर प्रसाद भटनागर, पृष्ठ-56
[12] वही, पृष्ठ-56
[13] वही, पृष्ठ-56
[14] द हैण्डबुक ऑफ अप्लाइड लिंग्विस्टिक्स, सम्पादक-एलॅन डेविस व कैथरीन एल्डर, पृष्ठ-237
[15] वही, पृष्ठ-237
[16] वही, पृष्ठ-237
[17] थॉट एण्ड लैंग्वेज, एल.एस. व्यगोत्सकी, द हैण्डबुक ऑफ अप्लाइड लिंग्विस्टिक्स, सम्पादक एलॅन डेविस व कैथरीन एल्डर, पृष्ठ-241
[18] वही, पृष्ठ-241 में उद्धृत।
[19] कोर्स इन जनरल लिंग्विस्टिक्स, सॅस्यूर, लैण्डमार्क इन लिंग्विस्टिक थॉट, पृष्ठ-190
[20] आधुनिक भाषाविज्ञान का भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-59
[21] लैण्डमार्क इन लिंग्विस्टिक थॉट, पृष्ठ-193
[22] आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-86
[23] वही, पृष्ठ-86-87
[24] वही, पृष्ठ-87
[25] वही, पृष्ठ-87
[26] आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, गुप्त व भटनागर, पृष्ठ-87
[27] करंट इश्यूज इन लिंग्विस्टिक थियरी, नॉम चॉम्स्की, लैण्डमार्क्स इन लिंग्विस्टिक थॉट, पृष्ठ-122
[28] वही, पृष्ठ-122
असिस्टेंट प्रोफेसर, श्यामलाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-32
सम्पर्क : burnwalramesh77@gmail.com, 9990689254
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