लोक कलाएँ वंचितों के शास्त्र हैं
(संस्कृतिकर्मी
सुभाष चन्द्र
कुशवाहा से
ज्योति यादव
की बातचीत)
( सुभाष चन्द्र कुशवाहा हमारे समय के चर्चित इतिहासकार और कथाकार हैं। उनके साहित्य और इतिहास में मुख्य धारा से कटा हुआ वंचित और श्रमजीवी तबका होता है, जो इतिहास में अभागा ही रह गया है। जिन्हें समय और समाज ने जानबूझकर उपेक्षित कर दिया या जिनकी उपलब्धियों को इस काबिल ही नहीं समझा गया कि वे इतिहास और साहित्य के नायक बनें। सुभाष जी ने अपने लेखनी में इन्हें प्रमुखता दी है। इसीलिए सुभाष जी को दक्खिन टोले का कथाकार भी कहा जाता है। चौरी-चौरा से टांट्या भील तक पर पुस्तकें इसकी पुष्टि भी करती हैं। वे प्रतिवर्ष अपने गाँव में 'लोकरंग' कार्यक्रम का आयोजन करते हैं। जिसमें देश-विदेश के लोक कलाकार भाग लेते हैं। पर्यावरण से लेकर स्वास्थ्य के प्रति सजग करते उनके लेख विभिन्न अखबारों में छपते रहते हैं। 'अपनी माटी' पत्रिका के लिए सुभाष जी से महत्वपूर्ण साक्षात्कार डॉ. ज्योति यादव (असिस्टेंट प्रोफेसर -हिन्दी, राजकीय महिला महाविद्यालय हमीरपुर, उत्तर प्रदेश) ने लिया है। जिसके द्वारा हम सुभाष जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होते हैं। )
ज्योति यादव : 'अपनी माटी' पत्रिका की ओर से बातचीत के लिए आपका स्वागत है।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : 'अपनी माटी' पत्रिका के सभी पाठकों को मेरा नमस्कार।
ज्योति यादव : बातचीत की शुरुआत हम आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से करना चाहेंगे। आपका बचपन कहाँ बीता और शिक्षा कहाँ से प्राप्त की है? शिक्षा हेतु किस प्रकार का संघर्ष करना पड़ा? परिवार में माता- पिता या अन्य भाई बहन कहाँ तक शिक्षित हैं?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : मेरा जन्म वर्तमान, फाजिलनगर के पास, कुशीनगर जनपद के ‘जोगिया जनूबी पट्टी’ गाँव में हुआ था। उसे दक्खिन टोला भी कहा जाता है। पिताजी बेहद गरीब इंसान थे। नाम-मात्र को जमीन थी। बटाई खेती कर जीवन गुजारते लेकिन पूरे परिवार के लिए वह कम पड़ता था। हम भूखे रहते थे। कई बार रात में खाना नहीं पकता तो मैं सुबह भूख से रोने लगता। माँ, कभी पड़ोसियों से माँग कर कुछ खिला देती या दिन में मजदूरी कर खाने की व्यवस्था करती। गाँव वालों ने सामंतों से सुरक्षा और गरीबी से जूझने हेतु एक सामुदायिक ‘बखार’ का निर्माण किया था जिसमें से कोई भी गरीब धान लेकर परिवार को खिला सकता था और सीजन में उसका सवाया लौटा देता था। पिताजी भी अक्सर गाँव की सामुदायिक बखार से धान लेकर हम सबका पेट पालते थे। मेरी नानी भी कुछ मदद करती थी। बाकी मेहनत-मजदूरी के सहारे जीवन गुजरता। पिताजी हमेशा गाँव के साहूकारों के कर्जदार रहे। कर्ज से मुक्ति 1975 के आसपास मिली, जब भैया मेडिकल कॉलेज गोरखपुर में पढ़ रहे थे। उन्होंने किसी दोस्त से मदद लेकर गाँव के साहूकार के कर्ज से मुक्ति दिलाई थी। हम तीन भाई और पाँच बहनों के परिवार में पहली पढ़ाई भैया की, गाँव के पाठशाला में शुरू हुई। घर में दूसरी पढ़ाई मेरी, गाँव के ही पाठशाला में हुई।
1972 में कक्षा पाँच पास किया था। मेरे गाँव की पाठशाला की ख्याति थी। अंग्रेजों का बनवाया यह स्कूल, आसपास के गाँवों के लिए वरदान साबित हुआ। गरीबों के बच्चे भी पढ़ने आते थे। फीस तब लगती नहीं थी। पाँच मास्टर थे जो आसपास के गांवों के थे। दो मास्टर गाँव के ही थे।
मुझसे बड़ी दो बहनें पढ़ने नहीं भेजी गई थीं। हम तीनों भाई ही स्कूल भेजे गए। बाद में मेरी दो छोटी बहनें स्कूल भेजी गईं मगर एक छोटी बहन फिर भी स्कूल न भेजी गई। इस प्रकार दो बहनें और तीन भाई ही पढ़ पाए। बहनों की शिक्षा स्नातक तक हुई थी। बड़े भैया एमडी करने के बाद गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में पढ़ाने लगे थे। वहाँ वह बालरोग विभाग के अध्यक्ष एवं मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य रहे।
शुरुआत में मैं स्कूल से भाग कर बारी-बगीचे, गन्ने, अरहर या अगहनी धान के खेतों में छिप जाता था। जब छुट्टी होती तब छिपने के स्थान से निकल कर घर आता। माँ-बाप और बड़ी बहन अनपढ़ थीं तो उन्हें पता ही न चलता कि मैंने पटरी पर क्या लिखा है? इसके कारण मेरी बहुत पिटाई भी हुई । माँ परेशान रहती। रोती कि कहीं झाड़ी, जंगल, खेतों में बच्चे को साँप न डस लें। बाद में मेरा मनोवैज्ञानिक इलाज हुआ। इस घटना का विस्तार से ‘गाँव के लोग’ पत्रिका में जिक्र कर चुका हूँ।
ज्योति यादव : एक सामान्य किसान परिवार के बालक के मन में पहली बार लेखन का ख्याल कब और कैसे आया?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : भैया जब इंटर कॉलेज में पढ़ रहे थे तो वह सरिता, मुक्ता, चंपक, पराग, चन्दा मामा, नंदन, कादम्बिनी, धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रिकाएँ लाइब्रेरी से लाते। जब वह घर में नहीं होते तो मैं भी उन पत्रिकाओं को पलटने लगता। चंपक, पराग, चन्दा मामा बड़े चाव से पढ़ता। बाद में बीएससी करने के दौरान भैया सारिका और कादम्बिनी जैसी साहित्यिक पत्रिका भी लाने लगे थे। उन्हीं पत्रिकाओं की वजह से मेरी रुचि साहित्य की ओर बढ़ने लगी। जब मैं कक्षा छह में था, तभी तुकबंदी करने लगा था। गाय पर एक कविता लिखी थी। फिर जूनियर हाई स्कूल की बालसभाओं में कविता सुनाने लगा। छात्र मुझे ‘कवि जी’ कह कर चिढ़ाते। मास्टर भी ‘कवि जी’ कह कर मजाक उड़ाते। कक्षा सात और आठ तक मैंने रानू के रोमाँटिक उपन्यासों से प्रभावित होकर कॉपी पर एक उपन्यास लिखा था, ‘रंगे हाथ’। उसकी पाण्डुलिपि कहीं पड़ी होगी मगर वह कोई उपन्यास जैसा था नहीं, बस मन को बहलाने का ख्याल अच्छा था। इससे लिखने की प्रेरणा मिली। हाई स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, बहुत सी कविताएँ लिखीं और एक कहानी-‘कैरियर’ भी। यह कहानी सुधारात्मक रूप से बाद में मुक्ता में प्रकाशित हुई थी। मेरे पहले कहानी संग्रह-
‘हाकिम सराय का अखिरी आदमी’ में वह कहानी शामिल है।
ज्योति यादव : लिखने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली ? साहित्य के किन प्रमुख व्यक्तियों ने आपको प्रभावित किया?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : लिखने की प्रेरणा साहित्यिक पत्रिकाओं से मिली। हाईस्कूल और इंटर में तो सरिता, कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएँ लाइब्रेरियन, मास्टर नन्दलाल जी से माँग लाता और रविवार को पढ़ डालता। राजेन्द्र अवस्थी का सम्पादकीय-‘कालचक्र’ पढ़कर, उसकी नकल कर, लिखने की कोशिश करता। प्रेमचन्द्र की कहानियों में अपने गाँव, घर, आसपास का अक्स दिखाई देता। बड़े चाव से उन्हें पढ़ता। पंचतंत्र की कहानियों का भी बचपन में बहुत प्रभाव पड़ा।
ज्योति यादव : विज्ञान पृष्ठभूमि के होते हुए भी आपका झुकाव साहित्य की तरफ कैसे हुआ?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : मुझे लगता है कि एक विज्ञान के विद्यार्थी की रुचि साहित्य, कला, इतिहास आदि में ज्यादा होती है। मैंने तो लगभग अधिकांश विषयों यथा, कृषि, भूगोल, इतिहास, नागरिक शास्त्र, साहित्य, कला, अर्थशास्त्र की इंटरमीडिएट तक की पुस्तकों को मन लगाकर पढ़ा है। विश्वविद्यालय में आने के बाद, जब पीसीएस की तैयारी की बात आई तो मैंने गणित, सांख्यिकी, हिन्दी और प्राचीन इतिहास को ही विषय के रूप में चुना। सामान्य ज्ञान की जानकारी हेतु, आधुनिक इतिहास और विश्व इतिहास का भी अध्ययन किया। मुझे लगता है कि मेरी रुचि साहित्य में बचपन से थी। कविताएँ और कहानियाँ आकर्षित करती थीं।
ज्योति यादव : इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में प्रतिष्ठित पत्रिका 'हंस' के किसी अंक में मैंने आपकी कहानी 'नून तेल मोबाइल' पर पाठकीय प्रतिक्रिया देखी थी। उस पर पाठकीय प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, तब के टी.डी. कॉलेज जौनपुर में प्राध्यापक डॉ. सुनील विक्रम सिंह ने। सम्प्रति वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। उनके अनुसार 'नून तेल मोबाइल' ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया। मोबाइल आज हर व्यक्ति की जरूरत बन गया है। दो दशक पहले 'नून, तेल, रोटी' की जगह 'नून तेल मोबाइल' जैसी कहानी की प्रेरणा आपको
कहाँ
से मिली?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : गरीबी में पलते ग्रामीण समाज की पहली आवश्यकता नून-तेल होती है। बाजार से नून न आए तो खाना न बने। तेल के रूप में कभी-कभी सरसों का तेल भी खरीदना पड़ता है, तो कभी मिट्टी का तेल। पहले बिजली न थी तो लालटेन जलाने के लिए मिट्टी के तेल की जरूरत होती थी। ये चीजें मूल आवश्यकता थीं। जब पहली बार मोबाइल प्रचलन में आया तब ग्रामीण समाज उससे दूर रहा, मगर जल्द ही उसके जीवन में भी मोबाइल की जरूरत पैदा कर दी गई। बाजार ने यह जरूरत पैदा की। धीरे-धीरे हालात ऐसे हो गए कि नून-तेल की तरह, मोबाइल की आवश्यकता ग्रामीण जीवन का अंग बन गई। इसी विडंबना को ‘नून तेल मोबाइल’ कहानी में उभारा गया है। बाजारीकरण के बाद, बाजार अपनी सेहत के लिए, जरूरतों को पैदा करने लगा था। गैर जरूरी चीजें भी जरूरी बना दी गईं, यही इस कहानी को लिखने की प्रेरणा रही।
ज्योति यादव : आपकी अधिकतर कहानियाँ गाँव और ग्रामीण जीवन का आख्यान होती हैं। ऐसी कहानियाँ और उनके पात्रों को आप कैसे ढूँढते हैं?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : कहानी के पात्र अपने परिवेश से ही उठाने पड़ते हैं। मेरा जन्म सीमाँत किसान परिवार में हुआ। पिताजी के साथ, इन्टरमीडिएट तक खेती-किसानी करता रहा। सब्जी उगाता और बाजार बेचने जाता। पिताजी हल चलाते तो मैं कुदाल लिए किनारों को कोड़ता। खर-पतवार निकालता। ढेलों को फोड़ता। जब ग्रामीण जीवन में बचपन से युवा अवस्था तक गुजरी हो, तब भला कहानी के पात्र बाहर से कैसे आएँगे? ज्यादातर पात्र मेरे आस-पास के हैं। रचना के निर्माण में बहुत कुछ भोगा और देखा यथार्थ है। ‘हाकिम सराय का आखिरी आदमी’, कहानी के मुख्य पात्र को पिताजी पर केन्द्रित किया
है। ‘तिलेसरी’ कहानी की तिलेसरी दादी मेरे गाँव की गोंड़ थीं, जो भड़भूजा का काम करतीं थीं। मैं उनकी गोनसार में जाता था। कहानी के कथ्य में उन दृश्यों का चित्रण मिलता है।
ज्योति यादव : आपकी कहानियों के शीर्षक बहुत अलग तरह के, जिज्ञासाजनक और कौतूहलपूर्ण होते हैं। जैसे- हाकिम सराय का आख़िरी आदमी, होशियारी खटक रही है, लालबत्ती और गुलेल, लाला हरपाल के जूते और अन्य कहानियाँ। इस तरह के शीर्षक आपको कैसे सूझते हैं?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : शीर्षक का अपना महत्व होता है। कई बार कहानी के मूल तत्व शीर्षक में छिपे होते हैं। कई बार हम जिन विडंबनाओं से गुजर रहे होते हैं, वे खुद ही समयकाल के मुहावरे गढ़ देती हैं। जब गाँव बदलने लगे, वहाँ लूट-पाट और झूठ का बोलाबाला होता गया तब शरीफ और संवेदनशील लोगों का जीना मुहाल होता गया। वहीं से आखिरी आदमी की परिकल्पना होती है और ‘हाकिम सराय का आखिरी आदमी’ शीर्षक बनता है। सदियों से शूद्रों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। जब अंग्रेजों ने स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना कर शिक्षा के दरवाजे सबके लिए खोल दिए, तब निम्नजातियों को पढ़ने का अधिकार मिला। हमारे यहाँ का
सामंती परिवेश अमानवीय और बर्बर रहा है। उसे यह पसंद नहीं कि उसने जिन लोगों को दास बना रखा है, वे पढ़ें, होशियार बनें। उन्हें तो होशियारी खटकेगी ही?
ज्योति यादव : एक कथाकार होते हुए आपकी ख्याति आज एक इतिहासकार के तौर पर ज्यादा है। आपका झुकाव इतिहास लेखन की तरफ कैसे हुआ?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : कथा साहित्य में मैंने ज्यादातर वंचितों की विडंबनाओं को उकेरा है। कथा-कहानी लिखते समय मुझे लगा कि वंचितों को उनके संघर्षमय इतिहास से परिचित कराने का काम कुलीनतावादी इतिहासकारों ने नहीं किया। लोक साहित्य ने लोक गाथाओं के माध्यम से जरूर वंचितों के नायकों का गान किया मगर ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में लोक गाथाओं को किस्से-कहानियों की श्रेणी में स्थान मिला। उच्चवर्ग ने अपनी सत्ता और कुलीनता की हिफाजत के लिए शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा। ऐसे में शूद्रों और स्त्रियों के संघर्ष का इतिहास निरुद्ध किया गया। उनके द्वारा अन्याय के विरुद्ध किए गए संघर्ष, समता, बंधुत्व और ज्ञान के लिए लड़ी गई लड़ाइयों को इतिहास से ओझल किया गया और ज्यादातर को मिटा दिया गया। हीरा डोम की एक मात्र कविता का प्रकाश में आना इसका उदाहरण है। चौरी-चौरा के किसान, दक्षिण भारत के मोपिला, राजस्थान के भील, अवध, बिहार, उड़ीसा आदि प्रांतों में किसानों के प्रतिकार, सबको ओझल किया गया। इसलिए सबसे पहले मैंने अपने क्षेत्र से इसकी शुरुआत की और ‘चौरी-चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन’ नामक किताब की रचना की।
ज्योति यादव : चौरी-चौरा के इतिहास पर आपकी पुस्तक 'मील का पत्थर' साबित हुई है। इसने बहुत सारे छद्म और झूठ को उघाड़ कर रख दिया। अभी तक लोगों को शहीदों के फाँसी की तिथि, उनके नाम इत्यादि को लेकर बहुत भ्रम था, जिसे आपकी पुस्तक ने साक्ष्यों से पुष्ट किया। नौकरी में रहते हुए भी आप कैसे इस दुरूह काम को अंज़ाम दे पाए?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : नौकरी के कारण समय की पाबंदी थी मगर मैंने लेखन कार्य को अपनी चाहत के कारण पूरा किया। चौरी-चौरा विद्रोह पर नए दस्तावेजों की तलाश और फिर उसके इतिहास को मुकम्मल करने का काम थकाऊ रहा मगर वंचितों के संघर्ष गाथा को पूरा करने का एक उत्साह भी था। चौरी-चौरा विद्रोह के समान ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास में दूसरा कोई विद्रोह नहीं दिखाई देता है। इस तथ्य को सरकार समर्थक तत्कालीन समाचार पत्र ‘द लीडर’ ने भी स्वीकार किया था। उसे फ्रांसिसी क्रांति के सदृश्य माना गया है। उस क्रांति को अंजाम देने वाले ज्यादातर निम्नजातियों के लोग थे। मुसलमान थे। भारतीय रहनुमाओं ने उनके शहादत की उपेक्षा की। मुझे लगा कि ऐसे उपेक्षित इतिहास को सामने लाना बहुत जरूरी है। बस इसी धुन में इसे पूरा किया।
ज्योति यादव : यह भी सुना गया है कि चौरी-चौरा के प्रकाशन के बाद आपको धमकियाँ मिल रहीं थी?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : चौरी-चौरा विद्रोह का गलत इतिहास आज भी वहाँ के स्मारक पर दर्ज है। जिन जमींदारों ने जुल्म किया, गोली चलवाईं, गरीब किसानों को गिरफ्तार कराया, उन्होंने अपना नाम शहीदों में दर्ज करा रखा है। ऐसे झूठे इतिहास को प्रमाणों के साथ खारिज करने पर धमकी मिलनी स्वाभाविक थी। उसे मैंने सहजता से लिया। धमकी देने वाले से कहा कि मेरी किताब से आपको कोई परेशानी है तो आप अपनी किताब लिख लीजिए।
ज्योति यादव : चौरी-चौरा पर फिल्म के लिए भी किसी ने आपसे संपर्क किया था? क्यों नहीं बन पाई फिल्म ?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : मनोज भारती नामक एक शख्स फिल्म बनाना चाहते थे। लखनऊ आए और हयात होटल में उन्होंने एक बैठक रखी। बात अटक गई नायक को लेकर। वह किसी भी मुसलमान को नायक बनाने के लिए तैयार न थे जबकि चौरी चौरा विद्रोह के नेतृत्वकर्ता नजर अली थे। उनके साथ थे भगवान अहीर, लाल मुहम्मद और अब्दुल्ला चुड़िहार। मैंने कहा कि इस विद्रोह का जो नायक है, वही रहेगा। उसमें आप तोड़-मरोड़ करना चाहते हैं तो मैं कोई सहयोग न करूँगा। आप स्वतंत्र हैं।
ज्योति यादव : 'अवध का किसान विद्रोह' आप की इतिहास की एक अन्य बहुचर्चित पुस्तक है। इस पर लिखने का ख्याल कब आया?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : ‘अवध का किसान विद्रोह,’
चौरी-चौरा किसान विद्रोह की ही कड़ी है। ये सारे विद्रोह
1920 से 1922 के बीच हुए थे। अवध के किसान विद्रोह को आप चौरी-चौरा से अलग नहीं कर सकते। चौरी-चौरा विद्रोह पुस्तक को लिखते समय भी मैंने अवध किसान विद्रोह का उल्लेख किया है। इसलिए उसकी अगली कड़ी के रूप में, मुकम्मल तौर पर संयुक्त प्रांत के किसान विद्रोहों के बारे में लिखना जरूरी था जिसे मैंने अवध का किसान विद्रोह में पूरा किया।
ज्योति यादव : 'भील विद्रोह' और 'टाट्या भील' पर भी आपने लिखा है। औपनिवेशिक भारत से मुक्ति में भीलों के संघर्ष को आप कैसे देखते हैं?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : भीलों ने ब्रिटिश सरकार एवं स्थानीय राजाओं से निरन्तर संघर्ष किया है। इस देश के एक तिहाई भू-भाग पर भील आदिवासियों की सत्ता रही है। वे स्वायत्तशासी लोग रहे हैं। किसी की अधीनता नहीं स्वीकारते। उनके मुखियाओं का हुक्म ही अंतिम होता है। साहूकारों, बनिया, राजाओं आदि का जब हस्तक्षेप शुरू हुआ, तो भीलों ने अपनी संस्कृति, संपदा और इलाकों को बचाने के लिए तीर-धनुष उठाया। राजपूत अश्वारोहियों ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर उनकी गद्दियों पर कब्जा किया। उनके जल-जंगल, जमीनों पर कब्जा किया। कर वसूलना शुरु किया। इससे भीलों ने बगावत की। वे निजाम, पेशवाओं, सिंधिया और होल्कर सबसे लड़े। अंग्रेजों ने जब भील क्षेत्रों पर कब्जा शुरू किया तब भीलों ने उनके खिलाफ भी मोर्चा खोला। 1800 ई. से लेकर
1925 ई. तक के भील विद्रोह को मैंने अपनी पुस्तक-‘भील विद्रोहः संघर्ष के सवा सौ साल’ में दर्ज किया है।
ज्योति यादव : भक्ति काल में इतने संतों के होते हुए आपने कबीर को ही 'कबीर हैं कि मरते नहीं' के लिए क्यों चुना?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : ‘भक्ति काल’ नाम से मुझे आपत्ति है। इसे ‘संत काल’ कहें। कबीर पहले गृहस्थ संत हैं जो ज्ञान की आँधी लाने की बात करते हैं। वे बहुजनों को शिक्षित करने की बात करते हैं। खुद पढ़े-लिखे न होते हुए भी ज्ञान की महत्ता को रेखांकित करते हैं, गुरु का महत्व समझाते हैं। वह हिन्दू-मुस्लिम विभाजन को सख्ती से खारिज करते हैं। कबीर निराले संत हैं, फक्कड़ और विद्रोही भी। वे नई लीक बनाने की कोशिश करते हैं। आमजन की मुक्ति की चाह में ‘अमरदेसवा’ की परिकल्पना करते हैं। वे किसी अराध्य को नहीं मानते। इसलिए वे किसी की भक्ति नहीं करते। वे पाखण्डमुक्त समाज के लिए संघर्षरत रहे। इसलिए कबीर दूसरे संतों के भी प्रेरणास्त्रोत हैं। कबीर जैसा दूसरा कोई नहीं है जो हिन्दू-मुस्लिम एकता को पिरोए, जो मंदिर-मस्जिद को नकारे। जो प्रेम और बंधुत्व की बात करे।
ज्योति यादव : लोकविधाओं को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए आप प्रतिवर्ष अपने गाँव में 'लोकरंग' कार्यक्रम का आयोजन करते हैं। तमाम असुविधाओं के बावजूद 'लोकरंग' का आयोजन गाँव में ही क्यों?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : लोक कलाओं के रचयिता गँवई समाज के लोग रहे हैं। अनपढ़ लोग रहे हैं, खासकर ग्रामीण महिलाएँ। अगर उनकी कला की ऊर्जा को उनके सामने हम प्रदर्शित करेंगे तो उन्हें गर्व होगा। उनका स्वाभिमान बढ़ेगा। इसलिए लोक कलाएँ वंचितों के शास्त्र हैं। उनके महत्व को उन्हीं के मंच पर प्रदर्शित किया जाना चाहिए। लोक कलाएँ, आमजन को जीने की ताकत प्रदान करती हैं। सामूहिकता में प्रदर्शित होने के कारण समाज को जोड़ने का काम भी करती हैं। शहरों में तो लोक कलाएँ केवल मनोरंजन की चीज भर रहती हैं।
ज्योति यादव : आपने कविताएँ भी लिखी हैं। एक संग्रह का नाम 'आशा' है। आपकी पत्नी का नाम भी आशा है। यह महज संयोग है?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : हाँ, शुरुआती दौर में कुछ कविताएँ भी लिखीं । ‘आशा’ काव्य संग्रह में हाईस्कूल से लेकर एमएससी तक, छात्र जीवन की कविताएँ हैं। निश्चय ही जब यह प्रकाशित हुईं तब मेरी शादी हो गई थी और मैंने किताब का नाम पत्नी के नाम पर रख दिया।
ज्योति यादव : वर्तमान में किस तरह का लेखन कर रहे हैं? अपने लेखन से संतुष्ट हैं? आगे की क्या कार्ययोजना है?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : कहानियों के अलावा इतिहास के क्षेत्र में भीलों के अलावा अन्य आदिवासी समुदाय के संघर्षों को लिखने की योजना है। देखिए यह पूरा हो पाता है या नहीं? मैं अपने हर कार्य से संतुष्ट रहता हूँ या संतुष्ट रहने योग्य प्रयास करता हूँ। जिस कार्य से एकदम असंतुष्ट रहता हूँ, उसे करता ही नहीं।
ज्योति यादव : इस महत्वपूर्ण साक्षात्कार हेतु अपना बहुमूल्य समय देने के लिए आपका शुक्रिया और आभार।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा : जी, धन्यवाद।
बेहतरीन।
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