शोध सार :
सामाजिक रूप से
वंचित रखी गई दलित जनता पर भूमंडलीकरण का प्रभाव कई तरह से पड़ा है। संविधान में
इनके अस्तित्व एवं सामाजिक अस्मिता के संकट को बचाने का प्रावधान किया गया और दलित-मुक्ति
के लिए दीर्घकालिक खाका तैयार किया गया। इस संकट के निवारण हेतु संविधान में
प्रमुखता से आरक्षण का प्रावधान आता है। जिसका प्रयोजन है– राज्य एवं केंद्र से
संबंधित सरकारी और सरकार से सम्बद्ध गैर-सरकारी संस्थानों में सबको समान
प्रतिनिधित्व प्रदान करना। हालाँकि इन प्रावधानों का समुचित रूप से आज तक संचालन
नहीं हो पाया है। बावजूद इसके दलितों की स्थिति में थोड़ा बहुत सुधार दर्ज हुआ है। इस
शोध आलेख में हिंदी कथा साहित्य में अभिव्यक्त ‘मुसहर समुदाय’ की वस्तुस्थिति को
समझने का प्रयास किया गया है। हिंदी कथा साहित्य के साथ-साथ हिंदी की कुछ अन्य
विधाओं की पुस्तकों का संदर्भ मुसहर समुदाय की स्थिति को बारीकी से समझने के लिए
आवश्यकतानुसार लिया गया है। इस समुदाय की पूरी की पूरी जनसंख्या आज के समय में
जहालत की स्थिति में है। दलित जाति से संबद्ध
होते हुए भी इस समुदाय की स्थिति दलित विमर्श में नगण्य दिखाई देती है। कमलेश,
मधुकर सिंह, संजीव, मुद्राराक्षस, अवधेश प्रीत, मिथिलेश्वर, निलय उपाध्याय जैसे
गैर-दलित साहित्यकारों ने हिंदी कथा साहित्य में इस समुदाय को स्थान दिया तथा
मुसहर समुदाय की विषम परिस्थितियों को सामने लाकर दलित साहित्य में नवीन कड़ी जोड़ते
हुए इसे और अधिक पल्लवित करने का प्रयास किया है।
यह समुदाय मुख्यधारा के विमर्श से वंचित सबसे हाशियाकृत समुदाय है। इस
समुदाय में अधिकांश लोग दिन में एकबार खाकर जीवन निर्वाह करने के लिए बाध्य हैं,
जिसके फलस्वरूप कुपोषण इस समुदाय में अतिव्याप्त है। इनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक
स्थिति बदतर है और अस्पृश्यता, अशिक्षा, भूखमरी की समस्या इत्यादि इस समुदाय की
मूलभूत समस्याएँ हैं।
बीज शब्द :
मुसहर-समुदाय, दलित,
महादलित, मुसहर के अस्तित्व का सवाल, आर्थिक स्तर, सांस्कृतिक स्थिति, राजनीतिक
स्थिति, भूमि की समस्या, शिक्षा की समस्या, जाति व्यवस्था, अस्पृश्यता आदि।
मूल आलेख :
राष्ट्र निर्माण में
विभिन्न समुदायों की भूमिका रही है। लेकिन साहित्य और कला के क्षेत्र में विभिन्न
समुदायों की सहभागिता पर उतना नहीं लिखा गया, जितना की लिखा जाना चाहिए था। हमें साहित्य
की सामाजिकता के संदर्भ को समझना आवश्यक है। साहित्य किसी जाति, वर्ग, धर्म विशेष की सामाजिकता नहीं है बल्कि इसके केंद्र में
मानव कल्याण अंतर्निहित है। बहुत दिनों तक ऐसा कोई साहित्य नहीं लिखा गया, जिसमें
समाज का हर दलित तबका सम्मिलित हो। कई सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलनों के बाद आज साहित्य
और कला के विभिन्न रूप शोषितों, वंचितों एवं उपेक्षितों के साथ खड़े दिखाई देते हैं।
इसके बावजूद आज भी दलित और वंचित तबका सांस्कृतिक और आर्थिक शोषण के दुहरे अभिशाप
से ग्रस्त है। हालाँकि नई बन रही दुनिया में आर्थिक असमानता समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण
मुद्दा बनकर उभरा है।
दलित साहित्य में
सामाजिक असमानताओं की अभिव्यक्ति सशक्त रूप में हुई है। संभवतः ‘दलित’ शब्द की
अवधारणा दलन या शोषण से है। आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शोषण इस बात पर निर्भर
करता है कि किसके पास कितनी पूँजी है। मुसहर समुदाय दलित वर्ग के अंतर्गत सबसे
निचले पायदान पर समझी जाने वाली जाति है। बिहार सरकार ने तो इस समुदाय को महादलित
की श्रेणी में रखा है। अन्य राज्यों में भी इनकी स्थिति दलित में आने वाली अन्य
जातियों से बदतर रूप में दिखती है। भारत में अधिकांश मुसहर भूमिहीन मज़दूर हैं। आज भी यह
समुदाय प्रायः बंधुआ मज़दूरी करती है। इनकी दयनीय स्थिति ऐसी है कि जीवित रहने के
लिए इन्हें चूहा तक मारकर कर खाना पड़ता है। चूहा मारकर खाने के आधार पर इस समुदाय
का नाम ‘मुसहर’ पड़ा। मुसहर का शाब्दिक अर्थ ‘मूस’(चूहा) में ‘हर’(हरने वाला)
प्रत्यय लगने से मुसहर यानि ‘चूहा मारकर खाने वाला’ है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि
ने ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ शीर्षक आलोचनात्मक पुस्तक में डॉ. अम्बेडकर
के कथन का हवाला देते हुए लिखा है कि “भारतीय गाँव हिन्दू-व्यवस्था के कारखाने हैं।
उनमें ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद और पूँजीवाद की साक्षात अवस्थाएँ देखी जा सकती हैं। उनमें
स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के लिए कोई स्थान नहीं है। भारतीय गाँव ब्राह्मणों के
लिए स्वर्ग हो सकते हैं, परंतु दलितों के लिए तो वे नरक ही हैं।”[i] प्रस्तुत
उद्धरण के माध्यम से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि जहाँ भारतीय गाँवों में दलित
की स्थिति इतनी दयनीय है, वहाँ मुसहरों की स्थिति क्या होगी?
मुसहर समुदाय खासतौर
से खेतिहर मजदूर और निर्माण अकुशल श्रमिक के रूप में काम करते हैं। हिंदी साहित्य
में अन्य दलित जातियों की अपेक्षा मुसहर जाति पर बहुत कम लिखा गया है। यह त्रासदी ही है कि ज्यादातर गैर-दलित लेखकों द्वारा ही थोड़ा बहुत
मुसहर समुदाय पर लिखा गया है। इसके प्रमुखतः दो कारण हो सकते हैं। पहला तो यह कि
इस समुदाय से एक भी साहित्यकार नहीं हुआ है, और दूसरा यह कि अन्य दलित जातियों ने
भी इसे उपेक्षा की भाव से देखा है। यह समुदाय अधिकांशतः गाँव के बाहर टोले में
रहते हैं, कहीं-कहीं इन्हें
गाँव की दक्षिण दिशा में मुख्य गाँव से हटकर अन्य दलित जातियों से भी दूर जगह
मिलती है। साहित्यकार कमलेश ने ‘दक्षिण टोला’ शीर्षक कहानी में तथाकथित सभ्य कहे
जाने वाले मानस की ओछी मानसिकता को दिखाया है, अपने आपको विवेकशील कहने वाले लोगों
का मानना है कि मृत्यु दक्षिण दिशा से आती है, दक्षिण दिशा से आने के उपरांत जिसका घर पहले
होगा यमराज उसको सबसे पहले अपना शिकार बनाता है। लेखक ने इस कहानी में सुदर्शन
पासी नामक दलित पात्र के माध्यम से समाज की इस दकियानूसी मानसिकता को दिखाने का
सफल प्रयास किया है। सुदर्शन पासी ने दीवार की ओट लेते हुए कहा- “एक और कारण है। तुम लोगों ने देखा है कि मरे
आदमी को जब चिता पर रखा जाता है तो उसका सिर किस तरफ होता है? हमेशा दक्खिन की तरफ। मतलब दक्खिन के तरफ यम का
घर होता है। बड़का लोग अभी भी मानता है कि यम हमेशा दक्खिन की तरफ से आता है। इसलिए
बहुत पहले से यह कहा जाता है कि मुसहरों को दक्खिन टोला में रखो। यम उनका खाकर लौट
जाएगा।”[ii] प्रस्तुत
उद्धरण के माध्यम से समझा जा सकता है कि तथाकथित बड़का लोग से सुदर्शन पासी संवाद
स्थापित कर सकता है, तभी तो उसने बड़का लोग के मुँह से मुसहर समुदाय के बारे में ये
बातें सुनी, जिसे वह अन्य लोगों को बात रहा है। अगर मुसहर
की पहुँच बड़का लोग तक होती तो शायद अपने संदर्भ में उल्लिखित बातें खुद ही सुन
लेता। इसका तात्पर्य यह कि मुसहर के अपेक्षा अन्य दलित जातियाँ तथाकथित मुख्यधारा
से ज़्यादा नजदीक है। क्योंकि तथाकथित उच्च जातियों ने अपने सुविधानुसार दलितों को
जगह दी है।
देश में मुसहर सबसे
अधिक हाशिये पर रहने वाला समुदाय है। सामाजिक विषमता, आर्थिक विपन्नता, निरक्षरता, अंधविश्वास, अपने अधिकारों से अनभिज्ञ और राजनीतिक अवहेलना
से ग्रस्त यह समुदाय आज भी लगभग वहीं है जहाँ सदियों पहले था। समाज में इस समुदाय
के लोगों को दोयम दर्जे का इनसान समझा जाता है। साहित्यकार मधुकर सिंह ने ‘लहू
पुकारे आदमी’ शीर्षक कहानी में इस विदारक स्थिति का चित्रण किया है। “सूअर को और
मुसहर को कोई ऐसा जंतु नहीं समझा जाता, जिस पर दया की जाए। तमाम जातियों को उस पर रोब गाँठने का हक
है। दोनों की काठी एक तरह की है। गाँव के लोग सामान ढोने का काम बैल और मुसहर से
लेते हैं। नगीना का कॉलेज जाना सबके लिए उतना ही आश्चर्यजनक है जितना एक जानवर का
आदमी बन जाना...।”[iii]
इस उद्धरण के माध्यम से कहा जा सकता है कि तथाकथित सभ्य समाज मुसहर समुदाय को किस
दृष्टि से देख रहा है। लेखक का ये कहना कि- ‘तमाम जातियों का उस पर रोब गाँठने का
हक़ है।’ इस कथन के मूल में ब्राह्मणवादी मानसिकता का प्रत्यक्ष नकारात्मक प्रभाव उद्घाटित
होता है जिसके कारण भारतीय समाज विभिन्न जातियों में विभक्त है।जिसके फलस्वरूप
अन्य दलित जातियाँ भी इस समुदाय के साथ खान-पान, मेल-मिलाप इत्यादि का भाव नहीं
रखते हैं। कथाकार संजीव ने ‘पूत-पूत! पूत-पूत!!’ शीर्षक कहानी में सभी जातियों के
मध्य व्याप्त भेदभाव को दिखाया है, साथ ही मुसहर समुदाय की स्थिति का चित्रण करने
का प्रयास किया है। उन्होंने लिखा है कि
“...जाति की जकड़न का आलम यह था कि दुसाध भी चमारों का छुआ और चमार भी
मुसहरों का छुआ पानी नहीं पीते थे। मेरे जन्म से वर्षों पहले अहीरों, कुर्मियों
आदि ने जनेऊ धारण किया तो उन्हें लगा सत्ता का किला फतह कर डाला, दूसरी ओर सवर्णों
को लगा कि सत्ता उनके हाथ से छिन रही है...।”[iv] इस
उद्धरण से स्पष्ट है कि मुसहर समुदाय को आज भी तथाकथित मुख्यधारा समाज में सबसे
निम्न स्तर का समझा जाता है। जिसके फलस्वरूप यह समुदाय समाज में अस्पृश्यों में भी
अस्पृश्य माने जाने के लिए अभिशप्त है।
मुसहर समुदाय के घर
के दरवाज़े प्रायः छोटे होते हैं। इसके पीछे के कारण का मार्मिक अभिव्यक्ति कथाकार कमलेश ने ‘दुश्मन’ शीर्षक कहानी में किया
है- “...दक्खिन टोले में मिट्टी का घर। घर माने मिट्टी की मोटी दीवार वाली एक छोटी
सी झोपड़ी। हवा आने के लिए छोटी-छोटी खिड़कियाँ। दरवाज़ा इतना छोटा कि थोड़ा-सा भी
तनकर खड़ा होने की कोशिश करो तो माथे में चोट लग जाएगी। पता नहीं दक्खिन टोला के
लोग अपने घर का दरवाज़ा क्यों इतना छोटा बनाते हैं। शायद इसलिए की कहीं उनमें तनकर
खड़े होने की आदत न पड़ जाए।”[v] उपर्युक्त
उद्धरण से स्पष्ट है कि लेखक अपनी सूक्ष्म दृष्टि से मुसहर समुदाय को तनकर खड़ा
नहीं होने देने की षड्यन्त्रकारी कारणों के पड़ताल के निमित्त प्रयासरत रहते हुए,
इसके पीछे का कारण इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि सामंती सोच चाहती है कि यह समुदाय
हमेशा दबा रहे, अपनी इच्छा प्रकट न कर सके और वह अंततः गुलाम होने को विवश हो जाए।
इस समुदाय को सामाजिक उपेक्षा का ऐसा दंश सहना पड़ता है कि वे स्वयं को इनसान मानने
से भी हिचकिचाते हैं। ‘तालिम’ नामक कहानी में रामबाबू नामक एक शिक्षक का प्रयास
होता है कि इनके बच्चे भी विद्यालय में पढ़े-लिखे। परंतु उसका यह प्रयास
ब्राह्मणवादियों के कूटनीति के कारण विफल हो जाता है। इस कहानी में फेंकना मुसहर
रामबाबू शिक्षक से कहता है- “सरकार! ई का कम है कि आप हमनी सबको आदमी बुझे!”
विह्वल हो आया बिसुन अपनी रौ में बोला, “ई गाँव के बड़कवा लोग के खातिर तो हमनी सब जानवरे हैं, मालिक।”[vi] प्रस्तुत
उद्धरण के माध्यम से शिक्षा को लेकर मुसहर समुदाय की मनोदशा को समझा जा सकता है। रामबाबू
मुसहर टोली में उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रस्ताव लेकर जाता है। इस भाव से ही
उद्वेलित होकर बिसुन गद्गद् हो जाता है कि किसी ने तो हमें इनसान समझा, इस कहानी
में सामाजिक संवेदनशीलता और असंवेदनशीलता दोनों रूपों की स्पष्ट झलक दिखाई देती है।
रामबाबू शायद भली-भाँति शिक्षा के मूल को समझता है इसलिए मुसहर समुदाय का उत्थान
चाहता है, वह इसे अपने समाज का समझकर इसके अस्तित्व को पहचानता है।
हरिनारायण ठाकुर ने ‘दलित
साहित्य का समाजशास्त्र’ शीर्षक पुस्तक के परिशिष्ट में ‘बिहार राज्य महादलित आयोग
की रिपोर्ट-2008’ के हवाले से बिहार के महादलितों का शैक्षिक आंकड़ा प्रस्तुत करने
का प्रयास किया है। जिसमें मुसहर समुदाय की शिक्षा में सहभागिता का आकलन किया जा
सकता है। नीचे महादलित श्रेणी में आनेवाले समुदायों की जातिवार साक्षरता का दर
प्रतिशत में प्रस्तुत किया गया है।
जाति पुरुष महिला कुल मुसहर 5.44 1.44 6.88
भुइयां 7.87
2.42 10.27 मेहतर 21.02
9.54 30.56 डोम 9.43
2.99 12.42 नट 11.88 4.91 15.79 पान 31.92 16.70 48.62
कंजर 10.99
3.95 14.94 धोबी 24.23 10.60 34.83
पासी 22.23
9.32 31.55 |
स्रोत :
हरिनारायण ठाकुर– दलित साहित्य का समाजशास्त्र, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-2009,
पृ. सं. 55-56
मुसहर समुदाय के पास अपना कोई खानदानी पेशा नहीं
है, जिससे वह अपना गुजर
बसर कर सकें। निरक्षरता और कला-कौशल के अभाव के कारण जीवन बिताने के लिए इनके पास
रोज़गार के साधन एवं अवसर न के बराबर है। इन्हें हीं अंग्रेजी में ‘अंस्किल्ड
लेबरर’ कहा जाता है। जमींदारी प्रथा के समय में मुसहर जमींदारों के यहाँ बंधुआ मज़दूर
के रूप में काम करते थे। बंधुआ मज़दूर होने की स्थिति में शोषित मालिक का आदेश
मानने के लिए बाध्य होता है। साहित्यकार अवधेश प्रीत ने ‘तालीम’ नामक कहानी में
रघुनी नामक मुसहर पात्र के माध्यम से बंधुआ मज़दूर होने की स्थिति का चित्रण करते
हुए इसके अधिकार के लिए आवाज बुलंद करने का प्रयास किया है। रघुनी अनायास ही अपने
भीतर साहस बटोरते हुए कहता है- “मालिक उस सामने वाले के साथ मैं भी ठेले पर
साग-सब्जी बेचूँ? सुबह-शाम आपकी
सेवा-टहल करता रहूँगा। दिन में कुछ पैसे कमाकर घर पर भी दिया करूँगा। माई और
छोटे-छोटे भाई-बहनों की चिंता है।”[vii] यह
बात रघुनी की अन्यत्र काम करने की याचना और विवशता दर्शाती है कि वह स्वयं किसी
प्रकार का निर्णय नहीं ले सकता है, सब कुछ उसके मालिक की हामी पर निर्भर करता है। सामंती-षड्यंत्रकारी
इच्छाशक्ति इस समुदाय को अपने मन मुताबिक खटाता रहा है। जमींदार और किसान के
द्वारा फसल काटने के बदले इनको पेट भर अनाज भी नहीं मिल पाता है, फलस्वरूप इनको आधे पेट पर ही रहना पड़ता है। खेतों
में काम करने के अलावा मवेशियों की देख-रेख एवं बेगारी के तौर पर अन्य काम यह
समुदाय करता आया है। खाने के अभाव के कारण खेतों में जाकर गेहूँ और धान का बाल
लोढ़ने के साथ-साथ उन बालियों को भी निकालता है, जिसे चूहे ढो-ढोकर खाने के लिए अपने माँद के
भंडार गृह में संग्रह करता है। बटोरे हुए बालों को हाथ से छाँट-पीटकर सेवन करने को
विवश है यह मुसहर समुदाय। कथाकार मिथिलेश्वर ने ‘माटी कहे कुम्हार से’ शीर्षक
उपन्यास में मुसहर के दुर्दिन का चित्रण किया है। “विचित्र संयोग था कि मुसहर
चूहों को मारने के लिए उनके बिलों को कोड़ते जाते और अन्ततः उन्हें पकड़कर मार देते।
इस दौरान उनके बिलों में अनाज की बालियाँ भी खूब मिलतीं। चतुर चूहे आड़े वक़्त में
खाने के लिए अनाज की बालियों को काटकर अपनी बिलों में छिपाए रहते थे। लेकिन
मुसहरिनें उन्हें एकत्र कर कूट-फटककर चावल बनातीं। फिर वे मूस का शिकार-भात खूब
प्रेम से खाते। मूस उनका मुख्य आहार होता...।”[viii] मुसहर
समुदाय में व्याप्त भोजन संबंधित समस्या का आकलन इस उद्धरण से लगाया जा सकता है,
इस प्रकार के भोजन का सेवन करना महज इनकी मजबूरी को दर्शाता है। कोई भी सजग इनसान
इस तरह का भोज्य पदार्थ शायद ही शौक से खाए। इसको खाने योग्य कहना भी अनुचित
प्रतीत होता है, मसलन इस प्रकार का
खाना इनसान तभी खा पाएगा जब कई घड़ी से उसके पेट में भूख की ज्वाला धधक रही हो। समुचित
खाद्य पदार्थों के अभाव में खेतों में अनाज संग्रह के साथ-साथ चूहों का शिकार कर
इनके द्वारा सेवन किया जाता है। चूहे मारकर खाने की स्थिति प्रायः सभी दलित
जातियों में नहीं है। लखनऊ में ‘कथाक्रम’ द्वारा आयोजित दलित साहित्य सम्मेलन में
मुद्राराक्षस ने दलित साहित्य के पक्ष में बोलते हुए कहा था कि “दलितों में एक
जाति मुसहर भी है जो चूहा मारकर खाती हैं, इसके प्रत्युत्तर में दलित चिंतक कँवल
भारती ने कहा था कि मैं दलित हूँ परंतु मैंने कभी चूहे नहीं खाए। तब भेद तो इस
आधार पर दलितों के मध्य भी है। इस प्रश्न पर दलित साहित्यकारों का मानना है कि
दलित साहित्य मूलतः वर्णव्यवस्था के आमूल-चूल उच्छेद और समतामूलक समाज का साहित्य
है। उसका वास्तविक ध्येय दलित, उपेक्षित, शोषित होने की पीड़ा का चित्रण तथा जातिगत
असमानता के विरुद्ध संघर्ष को अभिव्यक्त करना है। दलित साहित्य इन भेदों-उपभेदों
को अस्वीकार करता है।”[ix] हमें
इस वार्ता को संजीदगी से समझने की आवश्यकता है। दलित के अंतर्गत बहुत सारी जातियाँ
आती हैं। यथा- दुसाध, चमार, पासी, डोम, भंगी, माला, डागी, जुलाहा, धोबी, खटीक, कोली,
रेहड़, ठठेरे, नट, बाजीगर, चनाल, बंजारा इत्यादि। इन दलित जातियों में कुछ जनसंख्या
आज आर्थिक रूप से ठीक-ठाक स्थिति में है परंतु मुसहर की लगभग पूरी आबादी आर्थिक
रूप से पूर्णरूपेण पिछड़ी हुई है। इस स्थिति में मुसहर समुदाय को उपभेद मान लेना इस
समुदाय के साथ उपेक्षा को दर्शाता है।
भारत जैसे बहुभाषिक
एवं बहु-सांस्कृतिक देश में निवास करने वाले सभी समूहों एवं समुदायों की अपनी-अपनी
अनूठी संस्कृति होती है। संस्कृति का संबंध मनुष्य के मूर्त एवं अमूर्त, बाह्य एवं अंतरंग क्रिया-कलापों एवं गुण से है। यह
निरंतर परिवर्तित होती सतत प्रक्रिया है। किसी भी देश या प्रांत की संस्कृति वहाँ
के स्थानीय लोगों की पीढ़ियों का दस्तावेज होती है, जब से वे मानव अस्तित्व में आ जाते हैं। किसी भी
समुदाय की जब एक पीढ़ी की संस्कृति या सांस्कृतिक मूल्य अगले पीढ़ी में हस्तान्तरित
होती है, तब ये परंपरा का रूप ले लेती है। इस हस्तांतरण की प्रक्रिया में पूर्वजों
से जीवन जीने की शैली और तरीक़े का पता चलता है। पूर्वजों में प्रचलित कला-कौशल एवं
सृजनात्मकता से आगामी पीढ़ी अपने विस्तार की प्रक्रिया को वेग देने में सक्षम हो
पाती है और नहीं भी। मुसहर समुदाय की संस्कृति के संदर्भ
में बात करते हुए यह समझना जरूरी होगा कि एक असंगठित समुदाय होने के कारण हर
क्षेत्र में इनकी अलग संस्कृति देखने को मिलती है। मिथिला क्षेत्र के मुसहर समुदाय
दीना-भद्री नामक इन दो भाइयों को अपने संस्कृति के वाहक के रूप में देखते हैं। इन
दोनों ने अपने समुदाय के अधिकार के लिए कनक सिंह नामक सामंत से लड़ते हुए अपना जीवन
न्योछावर कर दिया था। मुकुल शर्मा ने ‘दलित और प्रकृति’ शीर्षक पुस्तक में
दीना-भद्री के माध्यम से मुसहर समुदाय के सांस्कृतिक मूल्यों की पड़ताल की है। “...इस
सामाजिक-सांस्कृतिक फलक के अन्दर हम प्राकृतिक संसाधनों पर मुसहरों की संचेतना,
द्वन्द्व और विरोधाभास की पहचान कर सकते हैं। कई मुक्त और मुसहर-मल्लाह नियन्त्रित
तालाबों पर हमें दीना और भद्री का सांस्कृतिक बिम्ब मिलता है। ऐसे प्रतीकों/बिंबों
से मुसहरों के जीवन और संघर्षों को मजबूती मिली है, साथ ही उनके स्थानीय संस्कृति
और संदर्भों को नयी शक्ल मिली है।” [x] उपर्युक्त संदर्भ से पता चलता है कि कालांतर
से ही तालाबों और जलाशयों के लिए आंदोलन होते रहे हैं तभी उद्धरण में मुक्त एवं
मुसहर-मल्लाह नियंत्रित तालाबों की बात आई है। इसका मुख्य कारण यह है कि मुसहर
समुदाय एक जगह संगठित होकर आज तक नहीं रह पाते हैं और आजीविका के लिए इन्हें
मजबूरी बस यत्र-तत्र पलायन भी करना पड़ता है। जहाँ-तहाँ ग़ैरमजरुआ जमीन पर इन्हें
बसना पड़ता है। मुसहर की अपनी संस्कृति रही है। जटिल से जटिल परिस्थियों में
दीना-भद्री की सरल व्यक्तित्व एवं शौर्य-पराक्रम को याद करके ये लोग अपने जीवन को
मजबूती प्रदान करते हैं। आज भी कई जगह पर मुसहर बाहुल्य इलाकों में दीना-भद्री के
नाम पर मेला का आयोजन किया जाता है। जिसमें यह समुदाय अपने इष्ट देव के रूप में दीना-भद्री
की पूजा करते हैं। भाषिक स्तर पर यह समुदाय प्रायः स्थानीय बोली या भाषा का प्रयोग
करते हैं।
मुसहर समुदाय का
जीवन भी आदिवासियों की तरह जंगल से जुड़ा हुआ था। इनका पारंपरिक पेशा पत्तल, चटाई,
टँगना, दौरी, दोना इत्यादि बनाकर तथाकथित मुख्यधारा समाज में बेचना था। जैसे-जैसे
जंगल कटे यह समुदाय मुख्यधारा समाज के नजदीक आता गया। आगे चलकर स्थिति ऐसी हुई कि
इनके निवास स्थान के दायरे में आने वाले जंगल
मुख्यधारा समाज द्वारा अपने सुविधानुसार काट लिए गए और मजबूरन उन्हें उनके द्वारा
दिए गए भूमि के छोटे टुकड़े पर बसने के लिए विवश होना पड़ा। इस प्रकार मुसहर समुदाय
का पारंपरिक पेशा खत्म होता गया और यह समुदाय अकुशल और भूमिहीन की श्रेणी में आ
गया। कथाकार निलय उपाध्याय ने अपने ‘पहाड़’ नामक उपन्यास में पहाड़ी बाबा नामक पात्र
के माध्यम से मुसहर समुदाय के ऊपर आए पेशागत रोजी-रोटी के संकट को दिखाने का सफल
प्रयास किया है। “समाज में जब वर्ण-व्यवस्था बनी थी तो काम के आधार पर जातियों का
विभाजन हुआ था। उस दौर में तुम्हारा माँझी समुदाय इस समाज का हिस्सा नहीं था। अगर
वो हिस्सा होता तो उसके काम की व्यवस्था जरूर होती। माँझी समाज गाँव में तब आकर
बसा जब जंगल कम होने लगे। माँझी समाज के आने के बाद भी माँझियों के लिए काम के निर्धारण
का जोखिम किसी ने नहीं लिया और उचित जगह नहीं दी। इस समाज में उसके लिए कोई काम
नहीं था और वह ज़िन्दा रहने के लिए मज़दूर हो गया।”[xi] मुसहर
समुदाय सदैव अभाव में जीवन काटता है। काम के अभाव में खाने की समस्या इस समुदाय के
लिए चुनौती बनकर सामने आती है और खाने की आपूर्ति हेतु भीख भी माँगनी पड़ती है, भीख
न मिलने पर भूखे मरने की स्थिति तक आ जाती है। ऐसे समुदायों के लिए नरेगा जैसे
कार्यक्रम तो चलाए गए परंतु उच्च जातियों के वर्चस्व के कारण इस तरह के काम भी
उनके लिए दिवास्वप्न के समान हो जातेहैं। ‘भोजन का अधिकार’ शीर्षक नामक पुस्तक में
इन समस्याओं पर नजर डाला गया है। यथा- “भूखमरी के कगार पर खड़े मुसहर, माडिगा और
मैला ढोने वाले के लिए नरेगा सबसे बड़ी ज़रूरत है, ताकि वे सम्मान से जी सकें, लेकिन
दुर्भाग्य यह है कि स्थानीय स्तर के भेदभाव के कारण नरेगा तमाम दलित परिवारों तक
नहीं पहुंच सका है।”[xii] इसी
बदहाली में साग-सब्जी एवं अन्य पोषक तत्त्वों के अभाव में ये लोग चूहा, बटेर, मैना, घोंघा, सितुआ, केकड़ा, सूअर इत्यादि खाते हैं। परंपरागत रूप से भी इनकी आने वाली
पीढ़ियाँ आज तक यही सब सेवन करने के लिए अभिशप्त है।
अशिक्षा के कारण
मुसहर समुदाय वोट के महत्त्व से अनभिज्ञ होता है। आज भी बहुसंख्य मुसहर ऐसे हैं
जिनका वोटर लिस्ट में नाम नहीं जुड़ पाया है। कई तो ऐसे मिलेंगे जिनका वोटर लिस्ट
में नाम होने के बावजूद भी उनके बदले वोट कोई और देता है। ‘तालिम’ शीर्षक कहानी
में फेंकना मुसहर एवं अन्य पात्रों के माध्यम से साहित्यकार ने दिखाने का प्रयास
किया है कि राजनीति लाभ लेने के लिए इनका वोट कोई दूसरा देता है। इस कहानी में
रामबाबू नामक शिक्षक पात्र ने जानकारी दी- “लेकिन लिस्ट में तो इस टोले का नाम
दर्ज है।[xiii]
“मालिक, नाम दरज रहे से का होता है(वहीं)।” फेंकना ने खुलासा किया। वहाँ उपस्थित
मुसहर टोले के दूसरे लोग फेंकना की इस हिमाकत पर कटकर रह गए। वस्तुतः उनके चेहरे
पर भय का भाव उभर आया था। रामबाबू ने उन लोगों के चेहरे को पढ़ते हुए कहा, “देखिए,
वोट डालने का आपका अधिकार है और आपको वोट ज़रूर डालना चाहिए(पुनः वहीं से उद्धृत)।”
उपर्युक्त प्रसंगों के माध्यम से मुसहर समुदाय के जेहन में बैठे डर को समझा जा
सकता सकता है। अगर ये सवाल भी करे कि इसके बदले वोट क्यों डाला जा रहा है? तो
इन्हें यातनाएँ दी जातीं हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी ने ‘स्वाधीनता और समाजवाद’ शीर्षक
पुस्तक में धनौर गाँव के मुसहरों को अपने ही गाँव के सत्ताधारी वोट डालने के
अधिकार से वंचित रखना चाहता है, जिसका लेखक ने सजीव चित्रण किया है। “...पर
विचित्र बात यह है कि भोर होते ही बाबू लोग गरीबों को घर-घर घूमकर धमकाने लगे कि
तुम लोग वोट देने नहीं जाओगे- यदि जाओगे तो देख लेना। बुरी से बुरी धमकियाँ, गंदी
से गंदी गालियाँ, गरीबों के कुछ नेता दौड़े-दौड़े आए और मुझसे सारी बातें कहीं। मैंने
उन्हें समझाया और उन्हें हिम्मत दिलाने को कार्यकर्ता धनौर के रामचरित्र बाबू भी
उनके साथ हुए। नतीजा यह हुआ कि बीस-पच्चीस गरीब कतार में वोट देने गए। फिर क्या
था, बाबुओं का पारा गरम हुआ और उसके बात इन्होंने जो शर्मनाक काम किया, उसकी चर्चा
करते हुए भी शर्म आती है! मैं जिस दरवाज़े पर ठहरा था उसके सामने ही, एक बाबू ने दो
गरीबों को, जिन्होंने मुझे वोट दिया था, पीटा और कोठरी में बंद कर दिया...।”[xiv] प्रस्तुत
उद्धरण से अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस समुदाय को सामाजिक दबाव के कारण वोट
डालने जैसे मौलिक अधिकार से वंचित करने की साजिश की जा रही हो। उसकी सामाजिक
अस्मिता क्या ही होगी? इस हालत में भी कानून और सत्ताधारी दल इनकी मदद नहीं कर
पाते हैं। जहाँ तक हो सके इस समुदाय को इनके द्वारा नज़रअंदाज़ किया जाता है,
हालाँकि जीतन राम माँझी जैसे चेहरे इस समुदाय से उभरे, परंतु समुदाय के कल्याण के
संदर्भ में विफल रहे।
निष्कर्ष
निष्कर्ष के रूप में इस आलेख के माध्यम से समझा जा सकता है कि मुसहर समुदाय एक असंगठित समुदाय है इसलिए यह अपने अस्मिता को लेकर जागरूक नहीं है। भूमिहीनता और निरक्षरता मुसहर समुदाय के लिए एक भयंकर अभिशाप के समान है। बाज़ारवाद के इस दौर में जहाँ एक ओर आधुनिकीकरण की होड़ मची है, वहीं यह समुदाय अपनी गरीबी के कारण मुख्यधारा से कोसों दूर होता जा रहा है। जिनका जीवन एक शाम का खाना जुटाने और खाने की मूलभूत समस्या से ही जूझ रहा है तो ऐसी परीस्थिति में आगे जीवन के विकास की बात तो वे क्या ही सोच पाएँगे और इससे आगे समाज, राज्य एवं राष्ट्र के विकास की बात सोचना या उसमें योगदान देने की बात तो अभी मीलों दूर है। ऐसी स्थिति में जहाँ इन्हें इनसान ही नहीं समझा जा रहा है तो वैसे में लेखकों एवं तथाकथित मुख्यधारा समाज को इनके प्रति अत्यंत संवेदनशील होने की आवश्यकता है। साहित्य और समाज एक दूसरे के पूरक होते हुए परस्पर प्रभावित होते हैं। किसी भी समाज का आकलन उसके युगीन सृजन से किया जाता है ऐसे में मुसहर समुदाय का हिंदी साहित्य से ओझल रहना हमारे राष्ट्रहित में बाधक है। हालाँकि हिंदी साहित्य के कुछ रचनाकारों ने मुसहर समुदाय से संबंधित छिटपुट यथार्थपरक लेखन किया है जिनमें मधुकर सिंह, संजीव, मिथिलेश्वर, मुद्राराक्षस, अरुण प्रकाश, अवधेश प्रीत, मृदुला सिन्हा, रामधारी सिंह दिवाकर, कल्पना शास्त्री, प्रसन्न कुमार चौधरी, जे. पी. सिंह, अभय दुबे इत्यादि हैं। हिंदी कथा साहित्य में मुसहर समुदाय के जीवन संघर्ष और चुनौतियों के बारे में इन कथाकारों की लेखनी चली है जिसमें इनकी अस्मिता और आजीविका से जुड़े प्रमुख मुद्दे उठाए गए हैं। साहित्यकारों से यह अपेक्षा है चाहे वह दलित हों या गैर-दलित वे इन दलितों में भी हाशियकृत समुदाय की समस्याओं को उजागर करें, जिससे प्रगतिमूलक एवं समतामूलक समाज का सृजन हो। सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं की भलीभाँति जानकारी न होना भी इस समुदाय के लिए समस्या बनकर उभरी है। हालाँकि सरकार ने ऐसे गरीब समुदाय के लिए बहुत सारे प्रावधान किए हैं, मनरेगा जैसी योजनाएँ गरीब तबकों को रोजगार मुहैया कराने के लिए पारित किए गए, परंतु इस तरह की सारी योजनाएँ सरकार की दफ़्तर के खाते में दबकर पड़े हैं। इसलिए सरकारों को भी इस समुदाय के प्रति अति-संवेदनशील होने की आवश्यकता है। जिससे यह समुदाय मुख्यधारा के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सके और राष्ट्रहित में अपना अधिक से अधिक योगदान दे सकें।
संदर्भ :
[i]ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का
सौन्दर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नयी दिल्ली, 2008 पृ. सं. 31
[ii]कमलेश,दक्खिन टोला (कहानी-संग्रह, कहानी- दक्खिन टोला) , वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए,
दरियागंज, नयी दिल्ली 110002, 2017, पृ. सं.- 104 में उद्धृत
[iii]मधुकर सिंह, पहली मुक्ति (कहानी-संग्रह, कहानी – लहू पुकारे आदमी),क्षितिज वी – 8, नवीन शाहदरा, दिल्ली – 110032, 2015, पृ.सं.- 31-32 में
उद्धृत
[iv]– संजीव,संजीव की कथा-यात्रा : तीसरा पड़ाव (कहानी-संग्रह, कहानी-पूत-पूत ! पूत-पूत !!)
, वाणी प्रकाशन 21/ए,
दरियागंज नयी दिल्ली-110032, 2008, पृ. सं.- 82 में उद्धृत
[v]कमलेश,दक्खिन टोला (कहानी-संग्रह, कहानी- दुश्मन),वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए,
दरियागंज, नयी दिल्ली 110002, 2017, पृ. सं.- 137 में उद्धृत
[vi]अवधेश प्रीत, नृशंस (कहानी-संग्रह, कहानी - तालीम),
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. अशोक राजपथ पटना-110002, 2001, पृ. सं.-51 में उद्धृत
[vii]अवधेश प्रीत, नृशंस (कहानी-संग्रह, कहानी - तालीम)
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. अशोक राजपथ पटना -110002, 2001, पृ. सं.- 51 में उद्धृत
[viii]मिथिलेश्वर, माटी कहे कुम्हार से, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली,2006, पृ. सं. 147
[ix]सं. देवेन्द्र चौबे, साहित्य का नया
सौंदर्यशास्त्र, किताब घर प्रकाशन, नयी दिल्ली,2006, पृ.सं.-198
[x]मुकुल शर्मा, दलित और प्रकृति- वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली, 2020, पृ. सं. 260
[xi]निलय उपाध्याय, पहाड़ (उपन्यास), राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 7/31,
दरियागंज दिल्ली, 2015, पृ. सं. – 85 में उद्धृत
[xii]संपादन- सुरेश
नौटियाल, रजात वर्मा, भोजन का अधिकार, ह्यूमन
राइट्स लॉ नेटवर्क, नई दिल्ली,2010,पृ. सं. 404
[xiii]अवधेश प्रीत, नृशंस (कहानी-संग्रह, कहानी-तालीम),राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. अशोक राजपथ पटना -110002, 2001, पृ. सं.- 36 में उद्धृत
[xiv]रामवृक्ष बेनीपुरी, स्वाधीनता और समाजवाद, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली-110085,
2001, पृ.सं.-213
रामनाथ कुमार
शोधार्थी
पता –रूम नं.-207 (एन विंग), एन.आर.एस. हॉस्टल,
उत्तरी परिसर, हैदराबाद विश्वविद्यालय, रंगारेड्डी, तेलंगाना, पिन कोड– 500046
सम्पर्क : ramnath.kumar49@gmail.com, 7013433546
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
सामुदायिक आधार पर हिन्दी में कम शोध हुये हैं | मुसहर समुदाय को आधार बनाकर भाषायी और समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रकाश में आये हैं | हिन्दी कथा-साहित्य के अंतर्गत मुसहर समुदाय की छवि को लेकर संभवत: यह पहला शोध होगा | शोधार्थी रामनाथ को पुन: बधाई | 'अपनी माटी' की टीम के सहयोग और पहल का स्वागत है |
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