- डॉ. कुलवंत सिंह
शोध
सार
: साहित्यकार का
उद्देश्य
समाज
का
यथार्थ
और
वास्तविक
वर्णन
करना
ही
नहीं
होता, बल्कि समाज
को
परोक्ष
रूप
में
किसी
न
किसी
आदर्श
की
ओर
अग्रसर
करना
भी
होता
है, जिससे कल्याणकारी
समाज
की
स्थापना
हो
सके।
यथार्थ
की
सही
पहचान
गुरदयाल
सिंह
ने
अपने
उपन्यास
‘मढ़ी
का
दीवा’ में सशक्त
रूप
में
की
है।
सम्पूर्ण
उपन्यास
में
यथार्थ
का
चित्रण
सामाजिक
धरातल
पर
किया
गया
है।
गुरदयाल
सिंह
को
पंजाब
के
पिछड़े
हुए
क्षेत्र
मालवा
के
ग्रामीण
जीवन
से
गहरा
लगाव
है।
वहाँ
के
किसानी
जीवन
की
निश्छलता, धार्मिक दृढ़ता, लगन, सीधी-सादी
जीवन
पद्धति, विचित्र स्वभाव
और
परम्परागत
दृढ़ता
को
यथार्थ
रूप
में
वर्णन
किया
है।
सम्पूर्ण
उपन्यास
गाँव
की
सौंधी-सौंधी
गंध
से
ओत-प्रोत
है।
ग्रामीण
जीवन
का
वर्णन
कहीं
भी
आरोपित
नहीं
लगता, वह अपने
स्वाभाविक
रूप
में
चित्रित
हुआ
है।
बीज
शब्द : गुरदयाल
सिंह,
ग्रामीण जीवन, सामाजिक
यथार्थ,
पंजाबी
साहित्य,
समाज,
गुलामी,
जगसीर,
दलित।
मूल
आलेख : सामाजिक
यथार्थ
समाज
का
हू-ब-हू
चित्रण
नहीं, क्योंकि रचना
संसार
और
असल
संसार
में
अंतर
होता
है।
रचना
में
वस्तुस्थिति
या
विषय
को
न
तो
कल्पना
के
रंगों
में
रंगकर
धुंधला
किया
जाता
है
और
न
ही
‘फोटोग्राफिक’ शैली में
ज्यों
का
त्यों
प्रस्तुत
किया
जाता
है
बल्कि
दोनों
का
समावेश
कर
यथार्थ
की
प्रस्तुति
की
जाती
है।
डॉ.
त्रिभुवन
सिंह
के
मतानुसार
“सामाजिक
यथार्थ
का
अर्थ
होता
है-
समाज
की
वास्तविक
अवस्था
का
चित्रण, परन्तु साहित्य
के
अंदर
किसी
भी
वस्तु
का
तद्वत, चित्र उतारकर
रख
देना
कठिन
होता
है, क्योंकि साहित्यक
चित्र
कैमरे
द्वारा
लिया
गया
चित्र
नहीं
होता, बल्कि वह
साहित्यकार
की
कूची
के
द्वारा
चित्रित
किया
गया
एक
ऐसा
चित्र
होता
है, जिसमें साहित्यकार
के
अनुभव
एवं
कल्पना
के
सुंदर
रंग
ढ़ले
होते
हैं।
वह
केवल
समाज
जैसा
है
वैसा
ही
उसका
वर्णन
मात्र
नहीं
कर
देता
बल्कि
उसको
इस
रूप
में
प्रस्तुत
करता
है, जिससे पाठक
युग
के
सत्य
एवं
समाज
में
होने
वाले
कार्य-व्यापारों
के
औचित्य
तथा
अनौचित्य
को
सरलता
से
परख
सके।”1
साहित्यकार
का
उद्देश्य
समाज
का
यथार्थ
और
वास्तविक
वर्णन
करना
ही
नहीं
होता, बल्कि समाज
को
परोक्ष
रूप
में
किसी
न
किसी
आदर्श
की
ओर
अग्रसर
करना
भी
होता
है, जिससे कल्याणकारी
समाज
की
स्थापना
हो
सके।
यथार्थवादी
रचनाकार
वस्तु-जगत्
से
प्रभाव
ग्रहण
कर, उन्हें अपने
अनुभवों
की
कसौटी
पर
परख, कला के
माध्यम
से
इस
कौशल
से
वर्णन
करता
है
कि
समाज
की
वास्तविक
एवं
सशक्त
स्थिति
पाठक
के
सम्मुख
प्रतिबिंबित
हो
सके।
ऐसा
ही
दृष्टिकोण
पंजाबी
साहित्य
में
प्रमुख
स्थान
रखने
वाले
गुरदयाल
सिंह
ने
अपने
प्रथम
उपन्यास
‘मढ़ी
का
दीवा’ में अपनाकर
यथार्थ
की
विभिन्न
परतों
को
उधेड़ा
है।
यथार्थ
की
सही
पहचान
गुरदयाल
सिंह
ने
अपने
उपन्यास
‘मढ़ी
का
दीवा’ में सशक्त
रूप
में
की
है।
सम्पूर्ण
उपन्यास
में
यथार्थ
का
चित्रण
सामाजिक
धरातल
पर
किया
गया
है।
समाज
की
समकालीन
विसंगतियों
को
यथार्थवादी
ढाँचे
में
तानकर
खोला
गया
है।
वे
अपनी
परवर्ती
साहित्यिक
कृतियों
में
जीवन
के
यथार्थ
को
परत-दर-परत
खोलकर
पाठक
के
सम्मुख
व्यक्त
करते
हैं।
प्रारम्भ
में
पंजाबी
कथा-साहित्य
में
काल्पनिक
पात्रों
और
घटनाओं
का
चित्रण
होता
रहा
है
परन्तु
प्रेमचन्द
की
तरह
नानक
सिंह
ने
अपने
उपन्यासों
में
जन-साधारण
का
वर्णन
किया
और
आगे
चलकर
गुरदयाल
सिंह
ने
यथार्थवादी
दृष्टिकोण
से
समाज
का
वास्तविक
और
यथार्थ
चित्रण
कर
सामाजिक
यथार्थ
की
परम्परा
को
पंजाबी
साहित्य
में
सशक्त
रूप
में
प्रतिष्ठित
किया
है।
ऐसा
नहीं
है
कि
उनके
पूर्ववर्ती
किसी
उपन्यासकार
ने
अपने
उपन्यासों
में
यथार्थ
का
वर्णन
नहीं
किया।
यथार्थ
का
जो
रूप, जो सत्य
गुरदयाल
सिंह
ने
व्यक्त
किया
है, वह पंजाबी
साहित्य
में
अद्वितीय
है, क्योंकि उसमें
पहली
बार
भारतीय
संवेदना
भरपूर
तरलता
के
साथ
हिलोरें
ले
रही
है
और
वे
अतीत
गौरव
का
पुराना
राग
न
अलाप, ईमानदारी के
साथ
समाज
की
समकालीन
अवस्था
का
विश्लेषण
प्रस्तुत
करते
हैं।
‘मढ़ी
का
दीवा’ में गुरदयाल
सिंह
ग्रामीण
जीवन
को
सरल, सपाट मानकर, वहाँ के
रहन-सहन, खान-पान
और
आचार-विचार
इत्यादि
का
वर्णन
नहीं
करते, बल्कि ग्रामीण
जीवन
की
जटिलता, गहराई, उनके हावभाव, चतुराई और
सांस्कृतिक
यथार्थ
को
अधिक
निकटता
से
प्रस्तुत
करते
हैं
जो
ग्रामीण
जीवन
में
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
आ
रहे
बदलावों
को
चित्रित
करते
हैं।
‘मढ़ी का
दीवा’ भारतीय साहित्य
के
कालजयी
उपन्यासों
में
अपना
महत्त्वपूर्ण
स्थान
रखता
है।
डॉ.
नामवर
सिंह
‘मढ़ी
का
दीवा’ उपन्यास का
भारतीय
उपन्यास
साहित्य
में
स्थान
निर्धारित
करते
हुए
कहते
हैं
कि
जब
भारतीय
उपन्यास
साहित्य
पतन
की
ओर
जा
रहा
था, उस समय
‘मढ़ी
का
दीवा’ ही ऐसा
उपन्यास
सिद्ध
हुआ, जिसने उपन्यास
साहित्य
को
पतन
से
उत्थान
की
ओर
अग्रसर
कर
भारतीय
उपन्यास
साहित्य
में
अपना
प्रमुख
स्थान
प्राप्त
किया।2
गुरदयाल
सिंह
ने
उपन्यास
में
मुख्य
पात्र
जगसीर
के
माध्यम
से
भारतीय
ग्रामीण
जीवन
के
दुखांत
को
व्यक्त
किया
है।
पंजाब
के
निम्न
मध्यवर्गीय
परिवार
में
जन्मे
गुरदयाल
सिंह
ने
मनुष्य
के
हाथों
होते
मनुष्य
के
शोषण
और
यातना
से
त्रस्त
आदमी
की
पीड़ा
को
वाणी
दी
है।
वे
स्वयं
मेहनत-मज़दूरी
करने
वाले
परिवार
से
सम्बन्धित
हैं
और
वर्ग
चेतना
तथा
संघर्ष
के
विभिन्न
पड़ावों
से
गुजरे
हैं।
अपने
भोगे
और
महसूस
किए
यथार्थ
को, समाज की
दबी-कुचली
जाति
से
सम्बन्धित
एक
साधारण
पात्र
के
माध्यम
से
जन-साधारण
के
अभावों, संत्रास, बेबसी, पीड़ा और
वेदना
को
चित्रित
किया
है।
वह
पंजाब
के
ग्रामीण
जीवन
में
परिवर्तित
होती
सामाजिक
अवस्था, बढ़ती आर्थिक
विषमता, जातीय भेदभाव, बदलते मूल्य, मानवीय गुणों
की
अवहेलना
और
पारिवारिक
संबंधों
की
आपसी
टकराहट
जैसे
विषयों
में
अंतर्मुखी
हो
यथार्थ
के
पीछे
सच
की
खोज
की
है।
जगसीर
के
माध्यम
से
सामाजिक
चिंतन
और
दृष्टिकोण
को
रचनात्मक
स्तर
पर
प्रतिबद्ध
किया
है
और
कथा
लेखन
से
समकालीन
विसंगतियों, जटिलताओं, अंतर्विरोधों और
व्यापक
विकृतियों
से
जूझते
जन-साधारण
को
विशेष
पहचान
दी
है।
गुरदयाल
सिंह
से
पूर्ववर्ती
लेखकों
का
अनुभव
केवल
जागीरदारी
के
चित्रण
तक
ही
सीमित
रहा, लेकिन गुरदयाल
सिंह
ने
गाँव
के
सबसे
अधिक
पिछड़े
हुए
वर्ग
के
मानसिक
संकट
और
उसके
जीवन
में
घटित
अन्य
समस्याओं
का
वर्णन
पूर्ण
संवेदना
से
किया
है।
उपन्यास
में
ग्रामीण
जीवन
के
प्रधान
रिश्ते
जाट
और
सीरी(साझेदार), जागीरदारी प्रभाव, खेत-मज़दूर
के
दुख-दर्द, संताप, निरादर और
उनके
भीतर
उठ
रहे
क्रोध
की
भावना
का
यथार्थ
रूप
में
उल्लेख
किया
है।
जगसीर
एक
सीरी
(साझेदार) के रूप
में
धर्मसिंह
के
यहाँ
काम
करता
है।
वे
अपनी
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
चली
आ
रही
गुलामी
को
निभा
रहा
है।
उसके
पिता
ठोल्ले
को
धर्मसिंह
के
पिता
द्वारा
किसी
दूसरे
गाँव
से
पगड़ी
देकर
लाया
जाता
है।
धर्मसिंह
और
उसके
पिता
द्वारा
व्यक्तिगत
स्तर
पर
तो
ठोल्ले
से
मित्र
भावना
और
सहृदयता
निभाई
जाती
है, जिस कारण
ठोल्ले
उनके
घर
निस्वार्थ
काम
करता
रहा
है
लेकिन
वह
इस
भावना
को
समाज
के
सम्मुख
व्यक्त
नहीं
करते।
ऐसा
करने
से
उनकी
सामाजिक
प्रतिष्ठा
को
आघात
पहुँचता
है।
आर्थिक
लूट
के
साथ
जगसीर
के
परिवार
की
मानसिक
लूट
भी
होती
है।
इस
गुलामी
और
मज़दूरी
की
लूट
की
तसवीर
जगसीर
की
माता
नन्दी
के
शब्दों
में
स्पष्ट
हो
जाती
है।
वह
धर्म
से
कहती
है-
“हमारी
दो
पीढ़ियों
ने
तुम्हारी
गुलामी
की
है
.............वे(ठोल्ले)
सारी
उमर
तुम्हारे
लिए
ही
साँपों
के
सिर
मिघते(कुचलते)
रहे
........ और अब
बीस
से
मेरा
बेटा(जगसीर)
काले
बैल
की
तरह, तुम्हारे लिए
कमा
रहा
है
....... सारी उमर
मैंने
आज
तक
तुम्हारा
गोबर-कूड़ा
उठाया
..........।”3
दिन-रात
मेहनत
करने
के
बाद
भी
जगसीर
के
परिवार
को
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
गुलामी
करनी
पड़ती
है।
धर्मसिंह
और
उसके
पिता
की
जगसीर
के
परिवार
के
प्रति
हमदर्दी
उनकी
पीड़ा
को
तो
कम
कर
सकती
है, लेकिन उनकी
आर्थिक
हालत
में
कोई
परिवर्तन
नहीं
ला
सकती
क्योंकि
“भला
इन
जाटों
से, जो हमें
दूर
बिठाकर
कुत्तों
की
तरह
बासी
रोटी
फेंक
देते
हैं, कभी किसी
का
भला
हो
पाएगा?”4
वे
केवल
अपने
स्वार्थ
तक
ही
उनका
साथ
देते
हैं।
जगसीर
और
उसके
परिवार
को
हो
रही
लूट
की
चेतना
है।
धर्मसिंह
के
परिवार
के
अन्य
सदस्यों
द्वारा
बार-बार
निरादर
होने
पर
भी
वह
उनसे
जुड़े
हुए
हैं।
उनका
धर्मसिंह
के
परिवार
से
रागात्मक
सम्बन्ध
है, जो भावनाएँ
जुड़ी
हुई
हैं
और
उनसे
जो
मानवीय
रिश्ता
बना
हुआ
है, वह उसे
नहीं
तोड़ना
चाहते
हैं।
यहाँ
पुरानी
पीढ़ी
के
लोगों
के
संस्कार, जीवन मूल्यों
और
उनके
विश्वासों
की
प्रस्तुति
के
अतिरिक्त
यह
प्रश्न
भी
उठता
है
कि
यह
मानवीय
सम्बन्ध
सिर्फ
मध्य
और
निम्न
वर्ग
के
निभाने
के
लिए
ही
बने
हैं, पूँजीपति
वर्ग
के
लिए
नहीं?
गुरदयाल
सिंह
नए
सामंती
वर्ग
में
उभरती
पूँजीवादी
मानसिकता
का
वास्तविक
चित्रण
हमारे
समक्ष
रखते
हैं।
समय
बदला, मूल्य बदले, प्रेम, हमदर्दी और
सहृदयता
का
स्थान
ख़ुदगर्जी
ने
ले
लिया।
पुराने
मूल्यों
के
प्रति
नई
पीढ़ी
का
मोह
भंग
होने
लगा।
उनके
लिए
प्रेम-प्यार, हमदर्दी, आपसी सम्बन्ध
कोई
मायने
नहीं
रखते।
लेखक
ने
बीसवीं
शताब्दी
की
वैज्ञानिक-औद्योगिक
सभ्यता
में
हुए
विकास
के
कारण
गुणों
और
दुर्गुणों
से
युक्त
मनुष्य
को, उसके बदलते
हुए
नए
सम्बन्धों
को
जाँचने-परखने
की
कोशिश
की
है, जिससे नई
पीढ़ी
और
पुरानी
पीढ़ी
की
जीवन
पद्धति
में
आ
रहे
बदलाव
का
स्पष्ट
पता
चलता
है।
पूँजीवादी
मनोवृति
के
कारण
नई
पीढ़ी
के
लिए
ज़मीन-जायदाद
ही
सब
कुछ
है
लेकिन
धर्मसिंह
जैसे
पुरानी
पीढ़ी
के
लोग
प्यार
को
ही
सब
कुछ
मानते
है।
वह
ऐसी
दुनिया
को
धिक्कारते
हैं, जिसकी बुनियाद
स्वार्थ
पर
टिकी
हो।
“स्नेह
के
बिना
जगसिया, कैसी दुनिया!
कैसा
जीना!
......... और स्नेह
लोगों
के
मन
में
नदारद
हुआ
जाता
है।
ज़मीन-जायदाद
को
क्या
आग
लगाएगा, जब आपस
में
स्नेह
ही
नहीं
हुआ
.......... आदमियों का!
ज़मीन-जायदाद
तो, जगसिया, हाथ का
मैल
है
............. और आदमी
जब
मैल
ही
चाटने
लगे
तो
धिक्कार
है
ऐसे
जीने
को।”5
यहाँ
पुरानी
और
नई
पीढ़ी
की
जीवन
पद्धति, जीवन के
प्रति
दृष्टिकोण
का
अंतर
स्पष्ट
हो
जाता
है।
धर्मसिंह
के
बेटे
बन्ते
के
‘मैल
चाटने’ के कारण
ही
बन्ते
और
जगसीर
में
मानवीय
रिश्ता
समाप्त
हो, नौकर-मालिक
की
स्थिति
पैदा
हो
जाती
है।
ऐसी
मनोवृति
के
कारण
संयुक्त
परिवार
टूटने
लगे
और
रागात्मक
सम्बन्धों
में
परिवर्तन
आने
लगा।
जब
धर्मसिंह
अपने
पूर्व
संस्कारों
या
हाथ
से
सब
कुछ
जाते
देख
नन्दी
के
दाह-संस्कार
के
लिए
जगसीर
की
आर्थिक
सहायता
करता
है।
ऐसा
करने
पर
उसका
परिवार
उसके
विरूद्ध
खड़ा
हो
जाता
है।
धर्मसिंह
की
पत्नी
अपने
लड़के
बन्ते
से
कहती
है-
“तू
अपने
बापू
से
अपने
हिस्से
की
ज़मीन
बँटवा
ले, नहीं तो
वह
सारी
की
सारी
लोगों
को,
चहूड़ों-चकारों
को
लूटा
देगा।”6
नई
और
पुरानी
पीढ़ी
की
सोच
में
आ
रहे
अंतर
के
कारण
धर्मसिंह
गभ्भीर
दुविधा
में
विचर
रहा
है।
एक
ओर
उसकी
मानवतावादी
मनोवृति
जगसीर
की
सहायता
के
लिए
प्रेरित
है, वहीँ दूसरी ओर
उसके
पारिवारिक
सदस्य, अपनी
ख़ुदगर्जी
और
स्वार्थी
मनोवृति
के
कारण
उसे
ऐसा
करने
से
रोकते
है।
ऐसी
स्थिति
में
धर्मसिंह
के
लिए
परिवार
की
एकता
को
बनाए
रखना, एक पेचीदा
समस्या
का
रूप
धारण
कर
लेती
है
और
वह
घर-गृहस्थी
छोड
कहीं
चला
जाता
है।
वह
मानता
है
कि
इस
स्वार्थी
दुनिया
में
रहने
के
लिए
“बबूल
के
पेड़
जैसी
देही
हो
और
आहरन
जैसी
आत्मा”,7
तभी
इस
दुनिया
में
गुजारा
हो
सकता
है।
पंजाब
के
ग्रामीण
जीवन
में
अपनत्व
की
भावना
सदियों
से
चली
आ
रही
थी, बीसवीं सदी
की
सामाजिक
अवस्था
में
आ
रहे
बदलाव
के
कारण
समाप्त
होने
लगी।
नई
पीढ़ी
की
मूल्यहीनता
की
स्थिति
तब
स्पष्ट
हो
जाती
है
जब
बन्ता
अपने
पिता
धर्मसिंह
को
यहाँ
तक
कह
देता
है-
“अब
तक
इसकी
इज़्ज़त
करते
थे, अब जैसे
यह
चलेगा
वैसे
हम
भी
निपट
लेंगे।”8
जब
बेटा
ही
अपने
पिता
के
किए
का
यह
ईनाम
दे
तो
इसे
बढ़कर
मूल्यहीनता, नैतिक पतन
की
और
क्या
स्थिति
हो
सकती
है? आधुनिक समाज
के
बदलते
परिवेश
और
विकास
करती
पूँजीवादी
मनोवृति
के
कारण
टूट
रहे
मानवीय
रिश्तों
का
यथार्थ
स्पष्ट
हो
उभरता
है।
‘मढ़ी
का
दीवा’ में धर्म
सिंह
की
सहृदयता, जगसीर के
दुःखांत
और
बन्ते
की
नीचता
को
सशक्त
रूप
में
वर्णन
किया
है।
गुरदयाल
सिंह
पूँजीवादी
अर्थव्यवस्था
की
चपेट
में
ध्वस्त
होते
मानवीय
गुण, ग्रामीण जीवन
पर
हावी
होती
अनैतिकता
एवं
मूल्यहीनता
की
स्थिति
का
यथार्थ
वर्णन
कर
मानवीय
रिश्तों
की
उलझी
हुई
तंतुओं
को
सुलझाने
की
कोशिश
करते
हैं, जो शहरी
और
ग्रामीण
जीवन
के
अंतर
को
दिनों-दिन
निगलती
ही
जा
रही
है।
जगसीर
को
अपने
पूर्वजों
से
संस्कार
रूप
में
गुलामी
ही
मिली
थी।
गुलामी
भी
ऐसी
जो
उसे
किसी
भी
स्थिति
में
उभरने
नहीं
देती।
वह
प्रत्येक
स्थिति
को
खामोशी
से
सहन
कर
जाता
है।
उपन्यास
में
जगसीर
और
भानी
के
प्रेम
को
भावनाओं
की
चाशनी
में
आप्लावित
कर
प्रस्तुत
किया
गया
है।
जगसीर
का
प्रेम
छिछले
दुनियावी
प्रेम
से
अलग
भावनात्मक
प्रेम
है।
वह
समाज
के
ठेकेदारों
द्वारा
बनाए
कठोर
सामाजिक
नियमों
से
टकराकर
दम
तोड़
देता
है।
लम्बे
समय
से
पुरानी
रूढ़ियों
और
परम्पराओं
से
ग्रस्त
समाज
में, अभी इतना
परिवर्तन
नहीं
आया
कि
वह
विवाहित
स्त्री
के
किसी
निम्न
जाति
के
व्यक्ति
के
प्रति
प्रेम
को
स्वीकार
कर
सके।
निक्के
की
पत्नी
भानी
द्वारा
बार-बार
मिले
निमंत्रण
पर
वह
अपने
भावनात्मक
प्रेम
को
शारीरिक
रूप
में
स्वीकार
नहीं
करना
चाहता, क्योंकि जगसीर
यहाँ
पहले
भावनात्मक
प्रेम
को
क्रियात्मक
रूप
में
निभाने
के
लिए
प्रतिबंद्ध
था, बाद में
संकल्पित
रूप
में
निभाने
की
रूचि
धारण
कर
लेता
है।
भानी
इस
प्रेम
को
प्रत्येक
स्थिति
का
सामना
कर
निभाना
चाहती
है।
भानी
जगसीर
की
मृत्यु
के
बाद, रोनकी के
कहे
बिना
ही
मढ़ी
पोत
और
दीया
जला, सामाजिक विधान
को
चुनौती
देती
प्रतीत
होती
है।
‘मढ़ी का
दीवा’ उपन्यास में
गुरदयाल
सिंह
ने
आर्थिक
विषमता, गरीबी से
जूझती
आम
जनता, भूमिहीन लोगों
के
दुःख-दर्द
की
कथा
को
वास्तविक
रूप
में
व्यक्त
किया
हैं।
जगसीर
और
रौनकी
जैसे
अन्य
लोग
भी
क्या
समाज
का
हिस्सा
हैं? जो जानवरों
से
भी
बद्तर
जीवन
व्यतीत
करते
हैं।
दिन-रात
मेहनत
करने
के
बाद
भी
उन
लोगों
को
दो
वक़्त
की
रोटी
नसीब
नहीं
होती।
दूसरी
ओर
जमींदार
वर्ग
उनकी
मज़दूरी
लूटकर
दिनों-दिन
अमीर
हो
रहे
हैं।
‘अदना
आल्ह
मलकीयत’ जैसे सरकारी
कानून
और
जमींदारों
द्वारा
की
जाने
वाली
लूट
इन
मज़दूरों
की
हालत
में
कोई
परिवर्तन
नहीं
आने
देती।
आर्थिक
अभाव
के
कारण
वे
लोग
अपने
‘कच्ची
ईंटों
की
मढ़ियों’ जैसे दिखाई
देते
घरों
में
जीवन
व्यतीत
नहीं
कर
रहे, बस जून
भोग
रहे
हैं।
“गुरदयाल
के
दिल
में
उन
ग़रीब
और
अभिशप्त
लोगों
के
लिए, जो भारतीय
समाज
में
अछूत, दलित और
सब
अधिकारों
से
वंचित
हैं, जिनसे यह
अहसास
भी
छीन
लिया
गया
है
कि
वह
इनसान
हैं, कितनी संवेदना
है।”9
वे
समाज
में
अभिशप्त
हुए
लोगों
के
जीवन
की
हक़ीक़त
को
प्रतिबिम्बत
करते
हुए
पंजाब
के
आर्थिक
संपन्न
राज्य
होने
के
खोखले
दावों
को
उजागर
कर
जनता
के
सम्मुख
असलियत
को
व्यक्त
करते
हैं।
समाज
में
प्रत्येक
व्यक्ति
का
स्थान
उसकी
आर्थिक
स्थिति
को
आधार
बनाकर
निर्धारित
किया
जाता
है।
वहाँ
मानवीय
गुण, नैतिक मूल्य
कोई
मायने
नहीं
रखते।
सामाजिक
व्यवस्था
जो
चित्रण
गुरदयाल
सिंह
ने
इस
उपन्यास
में
किया
है, देखते ही
बनता
है।
आज
का
समाज
रूढ़ियों, अंधविश्वासों और
जात-पात
के
ढकोसले
से
ग्रस्त
है।
नंदी
का
मायका
गाँव
और
उनकी
आर्थिक
स्थिति
बेहतर
न
होने
के
कारण
जगसीर
का
विवाह
नहीं
होता, लेकिन ज़मीन-जायदाद
के
कारण
ही
मोहणे
टुण्डे
के
लड़के, जो ‘धन्नल बैल
जैसा, बड़े बड़े
हाथ
पाँव
वाला, दैतसा’ का विवाह
हो
जाता
है।
बलिष्ठ, मेहनती और
उदात
गुणों
से
संपन्न
जगसीर
का
कोई
मूल्य
नहीं।
समाज
की
व्यवस्था
में
आ
रहे
बदलाव
सब
रिश्तों
में
ऐसी
कड़वाहट
पैदा
कर
रहे
हैं
कि
हमदर्दी, सहृदयता, मोह-प्यार, भाईचारा जैसे
सदगुणों
को
समाप्त
कर
रहे
हैं।
लम्बे
समय
से
मानवीय
यातनाएँ
सहन
करने
के
कारण
दलित
वर्ग
का
भगवान
तक
से
विश्वास
उठ
जाता
है।
वे
भगवान
को
गाली
तक
निकालते
हैं, जो मनुष्य
की
धार्मिक
भावनाओं
को
झकझोर
देता
है।
रौणकी
भगवान
को
संबोधित
होता
हुआ
कहता
है-
“अगर
अभी
कोई
कसर
और
रह
गई
है
तो
जो
कुछ
अपनी
माँ
के
खसम
से
हो
पाता
हो, वोह भी
कर
ले, हम तो
वह
भी
भुगत
लेंगे।”10
उनके
लिए
जैसे
मानव
जन्म
लेना
भी
अभिशाप
है।
वे
ईश्वर
तथा
धर्म
की
रूढ़ियों
से
अलग
मानवीय
सामर्थ्य
में
विश्वास
करते
हैं।
मनुष्य
के
लिए
मनुष्य
को
सब
कुछ
मानते
हैं।
जगसीर
जैसा
ही
‘भाग्य
का
बली’ उपन्यास का
दूसरा
प्रमुख
पात्र
रौणकी
है।
वह
अपनी
गम्भीरता
के
साथ
हास्य
की
फूहारें
बिखेर, अपने जैसे
अन्य
लोगों
के
दुःख-दर्द
को
कम
करने
की
हरसंभव
कोशिश
करता
है।
ऐसे
पात्र
ग्रामीण
जीवन
में
अकसर
पाए
जाते
हैं
जो
अपने
विचित्र
स्वभाव
के
कारण
ग्रामीण
जीवन
में
अपनी
विशेष
पहचान
रखते
हैं।
रौणकी
का
अपनी
पत्नी
संती
के
प्रति
प्रेम
अनगढ़, अनाड़ी, परन्तु बहुत
अधिक
शक्तिशाली
ही
नहीं
बल्कि
भावनात्मक
प्रेम
का
जीवंत
उदाहरण
है।
रौणकी
को
छोड़
कहीं
जा
चुकी
संती
उसके
जीवन
में
इतने
गहरे
पैठ
जाती
है
कि
वह
उसे
चाहकर
भी
नहीं
भूला
पाता।
गुरदयाल
सिंह
जीवन
की
असलिसत, उसके यथार्थ
से
पलायन
न
कर
स्त्री-पुरुष
के
एक
होने
को
ही
जीवन
की
सार्थक्ता
मानते
हैं।
उपन्यास
में
रौणकी
के
मुख
से
कहलाया
है- “जगसिया! आदमी
जब
ऐसे
चाह
की
तरह
उबलकर
किनारों
से
बाहर
निकलने
लगता
है
न, तो औरत
कच्चे
दूध
की
तरह
उसमें
मिलकर
उसे
झाग
की
तरह
बैठा
देती
है।”11
स्त्री-पुरुष
के
रिश्ते
की
वास्तविकता
को
व्यक्त
करने
के
लिए
न
तो
अश्लीलता
और
फ्रायड
के
सिद्धान्त
का
सहारा
लिया
है, और न
ही
कोई
धार्मिक
व्याख्यान
दिया
है, बल्कि बड़ी
ही
शालीनता
से
केवल
दूध
और
चाह
के
प्रतीक
के
माध्यम
से
इतने
गंभीर
विषय
को
रौणकी
के
साधारण, किन्तु अर्थपूर्ण
शब्दों
में
जीवन
की
हक़ीक़त
को
प्रतिबिम्बित
किया
है।
मानवतावादी
प्रेम
का
जीवंत
उदाहरण, रौणकी जाति-भेद
और
स्वार्थ
से
ऊपर
उठ
जगसीर
की
हरसंभव
मदद
करता
है।
उपन्यास
में
पात्र
व्यक्तिगत
स्तर
पर
सामाजिक
विधानों
का
विरोध
करते
प्रतीत
होते
है, लेकिन समाज
के
कठोर
नियमों
से
टकरा
खुद
ही
मिट
जाते
है।
गुरदयाल
सिंह
न
किसी
पात्र
में
चेतना
जगाने
की
कोशिश
करते
हैं, न ही
कोई
आदर्श
स्थापित
करने
के
लिए
वर्ग
संघर्ष
का
वर्णन
करते
हैं, क्योंकि समाज
में
वर्ग
संघर्ष
अभी
सामाजिक
और
आर्थिक
कीमतों
के
परिवर्तन
या
क्रांति
की
अवस्था
तक
नहीं
पहुँच
पाया।
जगसीर
लेखक
के
मोह
का
पात्र
न
बन
आम
आदमी
की
तरह
सामाजिक
कुरीतियों
और
वर्जनाओं
से
जूझता
अपने
जीवन
को
त्याग
देता
है।
उपन्यास
में
कथा
के
प्रवाह
और
पात्रों
के
हाव-भाव, संवेदना आदि
को
प्रकट
करने
के
लिए
मानव
और
प्रकृति
के
आपसी
लगाव
के
भाव
भरपूर
चित्र
और
ग्रामीण
जीवन
की
झाँकियों
को
मार्मिक
रूप
में
चित्रित
किया
है।
गुरदयाल
सिंह
को
पंजाब
के
पिछड़े
हुए
क्षेत्र
मालवा
के
ग्रामीण
जीवन
से
गहरा
लगाव
है।
वहाँ
के
किसानी
जीवन
की
निश्छलता, धार्मिक दृढ़ता, लगन, सीधी-सादी
जीवन
पद्धति, विचित्र स्वभाव
और
परम्परागत
दृढ़ता
को
यथार्थ
रूप
में
वर्णन
किया
है।
सम्पूर्ण
उपन्यास
गाँव
की
सौंधी-सौंधी
गंध
से
ओत-प्रोत
है।
ग्रामीण
जीवन
का
वर्णन
कहीं
भी
आरोपित
नहीं
लगता, वह अपने
स्वाभाविक
रूप
में
चित्रित
हुआ
है।
सभी
पात्रों
में
गाँव
की
मिट्टी
की
महक
आती
है।
वे
किसी
स्वप्न-लोक
के
पात्र
प्रतीत
नहीं
होते।
लेखक
ने
विषय
को
व्यक्त
करने
के
लिए
न
तो
विभिन्न
घटनाओं
का
सहारा
लिया
है, न ही
पात्रों
को
अपने
हाथों
की
कठपुतली
बनाया
है, बल्कि पात्रों
के
साथ
एकाकार
होकर
उपन्यास
को
एक
प्रवाह
में
बहने
दिया
है, जिससे उपन्यास
यथार्थवादी
उपन्यासों
में
अपनी
अनूठी
पहचान
रखता
है।
गुरदयाल
सिंह
ने
सम्पूर्ण
उपन्यास
में
यथार्थ
का
चित्रण
सामाजिक
धरातल
पर
किया
है।
कथा
लेखन
में
निरूपित
घटनाएँ
सामाजिक
अंतर्विरोधों
के
परिप्रेक्ष्य
में
उभरकर, जीवन की
ठोस
वास्तविकताओं
और
जटिलताओं
से
साक्षात्कार
करवाती
है।
उपन्यास
के
कथा
प्रसंग
के
बारे
में
टी.
आर.
विनोद का मत
विशेष
उल्लेखनीय
है-
“उपन्यासकार
उपन्यास
के
केन्द्रीय
पात्र
जगसीर
और
उसकी
माँ
नंदी
के
गहरे
संताप
की
कथा
का
उल्लेख
करता
है।
उसमें
धर्मसिंह
भूमिपति
की
आदर्शवादी
मित्रता
और
नेकी
के
बावजूद
जागीरदारी
के
मानव-विरोधी
श्रेणी
किरदार
पर
एक
तीखा
व्यंग्य
करता
है।”12
गुरदयाल
सिंह
‘मढ़ी
का
दीवा’ उपन्यास में
समाज
की
घिनौनी
तसवीर
दिखा, नए समाज
की
रचना
करने
के
लिए
प्रेरित
करते
हैं, जिस समाज
में
जगसीर
और
रौणकी
जैसे
‘भाग्य
के
बली’ इनसान होने
का
दर्जा
प्राप्त
कर
सकें।
1. त्रिभुवन सिंह, हिन्दी उपन्यास और यथार्थवाद, हिन्दी उपन्यास और यथार्थवाद, हिन्दी प्रकाशन पुस्तकालय, दिल्ली, 1986, पृ. - 11
2. करमजीत सिंह (सं.), गुरदयाल सिंह:अभिनंदन ग्रंथ, मालवा साहित्य क्रेन्द, फरीदकोट, 1976, पृ. -76
3. गुरदयाल सिंह, मढ़ी का दीवा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,1966, पृ.- 82
4. - वही - पृ. - 96
5. - वही - पृ. - 101
6. - वही - पृ. - 91
7. - वही - पृ. - 101
8. - वही - पृ. - 104
9. करमजीत सिंह (सं.), गुरदयाल सिंह:अभिनंदन ग्रंथ, मालवा साहित्य क्रेन्द, फरीदकोट,1976, पृ.- 84
10. गुरदयाल सिंह, मढ़ी का दीवा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,1966, पृ.- 112
11. - वही - पृ. - 115
12. पुरदमन सिंह बेदी (सं.), नावलकार गुरदयाल सिंह : इक्क अध्ययन, साहित्य कला प्रकाशन, लुधियाना, 1998, पृ. – 23
सहायक प्राध्यापक एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक काँलेज, बुढलाडा, पंजाब - 151502
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
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