भगत सिंह, क्रान्ति और प्रतिबंधित हिन्दी पत्र ‘भविष्य'
अभिषेक उपाध्याय
भगत सिंह... यह एक ऐसा नाम है जो भारत के क्रान्तिकारी स्वाधीनता आंदोलन के आकाश में बिजली की तरह आया और चला गया। जी हाँ, बिलकुल बिजली की तरह; क्षणिक किन्तु चौंधियाने वाली चमक। वह चमक तत्कालीन गुलाम समाज के लिए तो अत्यावश्यक थी ही, साथ ही वह आज भी प्रासंगिक बनी हुई है। उसकी प्रासंगिकता क्रान्ति के हिंसक मार्ग के प्रति नहीं अपितु बौद्धिक क्रान्ति के संदर्भ में है। आज भले ही कुछ अल्पज्ञ भगत सिंह को हिंसक क्रान्ति का पर्याय मानते हों, लेकिन यह धारणा वास्तविकता से कोसों दूर है। हाँ, यह सच है कि उन्होंने कुछ हिंसक गतिविधियों में भाग लिया लेकिन यह भी सच है कि वे हिंसा को किसी भी समस्या का उचित समाधान नहीं मानते थे। उन पर मुकदमे के दौरान जब अदालत ने उनके क्रान्ति संबंधी विचार जानने चाहे तो बक़ौल रविभूषण, भगत सिंह का उत्तर था – “क्रान्ति के लिए खूनी लड़ाइयाँ अनिवार्य नहीं हैं और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का सम्प्रदाय नहीं है। क्रान्ति से हमारा अभिप्राय है - अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।” बकौल सौरभ बाजपेयी, भगत सिंह का मानना था कि किसी विशेष हालत में तो हिंसा जायज हो सकती है, लेकिन जनान्दोलन का मुख्य हथियार अहिंसा होगी। जुलाई, 1931 ई. में छपे अपने लेख ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ में उन्होंने घोषित किया था – “मैं पूरी ताकत से यह कहना चाहता हूँ कि क्रान्तिकारी जीवन के शुरुआती चन्द दिनों को छोड़ न तो मैं आतंकवादी हूँ, न ही था। मुझे पूरा यकीन है कि इन तरीकों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।” अतः भगत सिंह को हिंसक कार्यवाहियों का प्रतीक बनाना राजनीति से प्रेरित काम है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगत सिंह का क्रान्तिकारी चिंतन सतही नहीं अपितु बहुत गहरा और गंभीर है, वे आवेशी नहीं अपितु विचारवान, प्रबुद्ध क्रान्तिकारी थे। अतः ऐसे प्रबुद्ध क्रान्तिकारी के स्वयं का लेखन व उन पर लिखा गया अन्य साहित्य, ब्रिटिश शासन की नज़र में सदैव बना रहा। भगत सिंह केन्द्रित पत्रकारिता तो विशेष रूप से ब्रिटिश सत्ता के कोप का शिकार हुई और उस पर प्रतिबंध की बेड़ियाँ लगा दी गईं।
कोई भी सत्ता प्रायः तभी किसी व्यक्ति के साहित्य पर प्रतिबंध लगाती है, जब यह निश्चित हो जाए कि उस व्यक्ति के विचार व्यवस्था-परिवर्तन के पक्ष में हैं और उस व्यक्ति के पास व्यापक जन-समर्थन हो। यह सर्वविदित है कि भगत सिंह भारत से ब्रिटिश सत्ता को जड़ से उखाड़ फेंकने के पक्षधर थे किन्तु क्या उनको व्यापक जन-समर्थन मिला हुआ था? इसका उत्तर ‘हाँ’ में है। भगत सिंह के विचारों और कार्यों की गूँज अखिल भारतीय थी। भारत के उत्तरी भाग के साथ-साथ दक्षिणी भाग भी भगत सिंह से सुपरिचित था। भगत सिंह के भाँजे व इतिहासविद् जगमोहन सिंह इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखते हैं कि “वे कौन-सी परिस्थितियाँ थीं, जिन्होंने भगत सिंह को भारतीय चेतना का ऐसा अंश बनाया कि एक ओर तमिलनाडु में उन पर कविताएँ लिखी जाती हैं तो दूसरी ओर भोजपुर में होली के गीत में ‘भगत सिंह की याद से अचरिया भीग जाती है।’…” महज तेईस वर्ष की उम्र में उनकी लोकप्रियता और लोक-स्वीकार्यता न सिर्फ अन्य क्रान्तिकारियों से आगे निकली बल्कि अहिंसावादी महात्मा गांधी के भी समकक्ष खड़ी हो गई। कांग्रेस पार्टी के इतिहास लेखक पट्टाभि सीतारम्मैया ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि “पूरे देश में भगत सिंह की लोकप्रियता महात्मा गांधी से किसी तरह भी कम नहीं है।” अतः भगत सिंह के जीवन व चिंतन के प्रसार को रोकने के उद्देश्य से उनसे जुड़े साहित्य पर प्रतिबंध लगाने हेतु ब्रिटिश शासन के पास पर्याप्त कारण थे।
लेकिन भगत सिंह ने ऐसा क्या किया था कि इतनी कम आयु में उनका नाम क्रान्ति का पर्याय बन गया? उनकी ख्याति मूलतः दो वजहों से हुई; पहली वजह तो ज़मीनी स्तर पर उनकी क्रान्तिकारी गतिविधियाँ हैं जिनकी वजह से उन्हें सबसे ज़्यादा जाना गया और दूसरी वजह उनका परिपक्व बौद्धिक चिंतन, जो उनकी शहादत के काफी समय बाद व्यापक स्तर पर प्रचारित-प्रसारित हुआ। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि उनकी आयु की तुलना में वे अपने समय के संभवतः सर्वाधिक परिपक्व चिंतक व अध्येता थे। भगत सिंह की हिंसक क्रान्तिकारी गतिविधियों के अतिरिक्त उनके अध्ययन की गहराई और चिंतन की ऊँचाई के कारण भी संभवतः ब्रिटिश सत्ता उनसे इतना अधिक भयाक्रान्त रही होगी कि उनकी फाँसी रुकवाने की देशव्यापी अपील व तमाम राजनीतिक प्रयासों को भी ब्रिटिश सत्ता ने ताक पर रखकर उन्हें न सिर्फ फाँसी के तख़्ते पर चढ़ाया बल्कि उनके व उनके साथियों के शवों को जला भी दिया।
भगत सिंह व उनके क्रान्तिकारी आन्दोलनों से सम्बन्धी; ब्रिटिश शासन के दमन की शिकार हिन्दी पत्रकारिता की बात करें तो ‘अभ्युदय’, ‘भविष्य’, ‘प्रताप’, ‘चाँद’, ‘महारथी’ व ‘अर्जुन’ प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ हैं। ‘चाँद’ के फाँसी अंक के लिए तो स्वयं भगत सिंह ने अनेक वीर शहीदों के रेखाचित्र लिखे थे। इन सभी पत्र-पत्रिकाओं के बीच ‘भविष्य’ पत्र के भगत सिंह को समर्पित अंकों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इलाहाबाद से प्रकाशित ‘भविष्य’ एक साप्ताहिक पत्र था जिसके सम्पादक रामरख सिंह सहगल थे जिन्होंने इसका सम्पादन 1930 ई. से सम्भालना शुरू किया। सहगल से पूर्व 10 वर्षों तक पं. सुन्दरलाल ने ‘भविष्य’ का सम्पादन सम्भाला था। स्वाधीनता आन्दोलन में पत्रकारिता के महत्व व योगदान को रामरख सिंह सहगल अच्छी तरह समझते थे इसीलिए उन्होंने ‘भविष्य’ के अलावा ‘चाँद’ व ‘कर्मयोगी’ जैसी यशस्वी पत्रिकाएँ भी निकालीं जो लोकमानस में स्वाधीनता की चेतना प्रस्फुटित करती रहीं।
‘भविष्य’ के मार्च 1931 ई. से अगस्त 1931 ई. तक कुल पाँच महीनों के ही भगत सिंह केन्द्रित अंक उपलब्ध हैं जो अलीगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी श्यामलाल व उनके पुत्र निरंजन लाल के सौजन्य से प्रो. चमनलाल को प्राप्त हुए और जो प्रो. चमनलाल द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘क्रान्तिवीर भगत सिंह : ‘अभ्युदय’ और ‘भविष्य’ में प्रकाशित हैं। ‘भविष्य’ के भगत सिंह केन्द्रित अंकों की लोकप्रियता के बारे में प्रो. चमनलाल लिखते हैं कि, “जिन दिनों ‘भविष्य’ में भगत सिंह पर सामग्री छप रही थी तो एक ही अंक को बार-बार छापना पड़ता था और प्रसार संख्या हमेशा कई हज़ार होती थी।” इन अंकों में छपी सामग्री की बात करें तो हम पाते हैं कि इसमें भगत सिंह की फाँसी से पूर्व के उनको बचाने के प्रयासों व फाँसी के बाद की कार्रवाईयों तथा देशव्यापी रोष व क्षोभ का चित्रण है, भगत सिंह व उनसे जुड़े लोगों के पत्र, भगत सिंह व उनके साथियों का संक्षिप्त परिचय, शहादत पर तत्कालीन प्रमुख राजनेताओं व अन्य लोगों की प्रतिक्रियाएँ, भगत सिंह व अन्य क्रान्तिकारियों से जुड़े हुए मामलों की न्यायालयीन कार्यवाही का विवरण, ब्रिटिश सत्ता द्वारा जनता पर किए जाने वाले अत्याचारों का विवरण इत्यादि प्रमुख रूप से है। क्रान्तिकारियों पर चलने वाले मुकदमों अर्थात न्यायिक कार्यवाही का विवरण ही अधिक है जोकि बहुत ही जीवंत लगता है। इसके अलावा इसमें मार्च 1931 ई. के कानपुर में लगभग छह दिनों तक चले उस हिन्दू-मुस्लिम दंगे की भी रिपोर्टिंग है जिसमें प्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की भी हत्या कर दी गई थी। रिपोर्टिंग व अन्य बयानों को पढ़कर लगता है कि ब्रिटिश शासन व मुस्लिम नेताओं ने जानबूझकर इस दंगे को भड़कने दिया। रिपोर्ट के अनुसार, दंगों की शुरुआत उस घटना से हुई जिसमें भगत सिंह की फाँसी के विरोध में कानपुर शहर में हड़ताल का आह्वान हुआ किन्तु हड़ताल के बावजूद कुछ मुसलमानों ने अपनी दुकानें बन्द नहीं की जिससे हड़ताली उनसे नाराज़ हो गए और उनकी दुकानें बन्द करवाने का प्रयत्न करने लगे; यही झगड़ा इतना प्रबल हो गया कि यह दंगे में रूपांतरित हो गया। दंगे में मृत्यु के 3-4 घंटे पहले इन्दुमती गोयनका को लिखे पत्र में गणेश शंकर विद्यार्थी लिखते हैं कि, “यहाँ की दशा निःसन्देह बहुत बुरी है। हम लोग शान्ति के लिए प्रयत्न कर रहे हैं।...मुसलमान नेताओं में से एक भी आगे नहीं बढ़ता। पुलिस का ढंग बहुत निन्दनीय है। अधिकारी चाहते हैं कि लोग अच्छी तरह से निपट लें। पुलिस खड़ी-खड़ी देखा करती है।...यह दंगा तो कल ही समाप्त हो जाता, यदि अधिकारी तनिक भी साथ देते।...” यह दंगा लगभग 6 दिन चला व लगभग 400 लोगों की जान गई।
‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ को रोकने के लिए द्वितीय गोलमेज सम्मेलन से पहले हुए ‘गांधी-इर्विन समझौते’ की जमीनी हकीकत को भी भविष्य पत्र ने अपने संपादकीय व ‘गांधी-इर्विन समझौते का श्राद्ध?’ जैसे लेखों के माध्यम से पर्याप्त विस्तृत तरीके से दिखाया है। जिसमें विभिन्न शहरों में ब्रिटिश शासन द्वारा समझौते की शर्तों का बर्बरता व अमानवीयता से उल्लंघन किए जाने का चित्रण है। ‘भविष्य’ के इन अंकों की ब्रिटिश सत्ता विरोधी सामग्री के शीर्षकों से भी इस पर प्रतिबंध के कारणों को समझा जा सकता है; कुछ प्रमुख शीर्षक है :-
पंजाब के तीन विप्लववादी फाँसी पर लटका दिए गए : लाहौर में सनसनी
देश भर में असन्तोष की काली घटा
स्वर्गीय सरदार भगत सिंह की फाँसी और उसके बाद
पंजाब के अधिकारियों की लॉर्ड इर्विन को धमकी : “यदि फाँसी की सज़ा रद्द की गई तो हम एक साथ इस्तीफ़ा दे देंगे”
क्या सरदार भगत सिंह आदि की अन्त्येष्टि-क्रिया धर्मानुसार हुई थी?? पंजाब के सिक्खों में असंतोष
स्व. सरदार भगत सिंह और उनके साथियों का संक्षिप्त परिचय
क्या वास्तव में भगत सिंह आदि की लाशें टुकड़े-टुकड़े कर डाली गई थीं?
खून के बदले खून की घातक नीति, लाहौर की फाँसियाँ : एक अंग्रेज के विचार
श्री सान्याल तथा ‘भविष्य’ और ‘चाँद’ के संपादक गिरफ़्तार
गांधी-इर्विन समझौते का श्राद्ध?
कानपुर में उपद्रवों की भीषणता! सरकारी रिपोर्ट भ्रान्तिपूर्ण है : मनुष्यों की लाशों को गिद्ध खा रहे हैं!
“मुर्ग-दिल मत रो यहाँ आँसू बहाना है मना” देहली षड्यंत्र केस का सनसनीपूर्ण उद्घाटन : केसरिया साड़ियों में स्त्रियों के जत्थों ने राष्ट्रीय नारे लगाए
देहली-षड्यंत्र केस की अत्यंत मनोरंजक कार्यवाही
उपर्युक्त शीर्षकों से यह बात स्पष्ट होती है कि ‘भविष्य’ एक निर्भीक व सत्यनिष्ठ पत्र था जो सत्य को बिना किसी किन्तु-परंतु के साथ भारतीय समाज के सामने प्रकाशित कर रहा था जिसके कारण इसके भगत सिंह केन्द्रित अंक विशेष रूप से प्रतिबंधित हुए। इसकी सत्यप्रियता के कारण ही यह अपने समय के शीर्ष पत्रों के समान लोकप्रिय हुआ जिसका अधिकांश श्रेय इसके यशस्वी संपादक रामरख सिंह सहगल को जाता है। जिन्होंने न सिर्फ स्वाधीनता आंदोलन को अपनी पत्रकारिता के माध्यम से प्रखर बनाया अपितु आंदोलनकारियों व क्रान्तिकारियों की व्यक्तिगत स्तर पर भी सहायता की। अंग्रेजों की उपनिवेशवादी प्रवृत्ति व दमनकारी नीति को समझने हेतु प्रतिबंधित साहित्य अत्यंत महत्वपूर्ण साधन है जिसमें ‘भविष्य’ पत्र का अपना एक विशिष्ट स्थान है।
अभिषेक उपाध्याय
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
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