शोध आलेख : डॉ. सत्यनारायण के कथेतर साहित्य में महानगरीय बोध / महेन्द्र सिंह

डॉ. सत्यनारायण के कथेतर साहित्य में महानगरीय बोध 
महेन्द्र सिंह


शोध-सार :

      हिंदी साहित्य जगत् के महत्त्वपूर्ण स्तंभ डॉ. सत्यनारायण के लेखकीय जीवन का मूल प्राण उनका घुमंतू जीवन एवं उनकी यायावरी प्रवृत्ति रहे हैं। ठेठ देहात में रावतों की ढ़ाणी, खोरी गाँव में जन्म लेकर ग्रामीण अँचल में अपना बचपन बिताने वाले इस लेखक डॉ. सत्यनारायण ने जयपुर महानगर में शिक्षा प्राप्त करने के बाद आजीविका के लिए जोधपुर शहर को अपनी कर्मभूमि बनाया। इसीलिए डॉ. सत्यनारायण ने अपने कथेतर साहित्य के अंतर्गत रिपोर्ताज, संस्मरण एवं डायरी विधा से जुड़ी अपनी विविध रचनाओं में विशेष रूप से महानगरीय जनजीवन को अपने लेखन का विषय बनाकर विपुल साहित्य सृजन किया।

अधिकतर महानगरीय जनजीवन की समस्याओं, लोगों की संघर्षपूर्ण जीवन-पद्धति और जन आकांक्षाओं का उन्होंने अपनी रचनाओं में सहज एवं सरल भाषा में बहुत ही सटीक एवं सजीव चित्रण किया है। रिपोर्ताज साहित्य के माध्यम से महानगरीय सभ्यता, नगरों के विकास, वहाँ के शासन-प्रशासन, गरीबों के शोषण एवं उत्पीड़न, पूँजीवादी व्यवस्था एवं उसके दुष्प्रभावों आदि पर पैनी नजर रखने के साथ ही उन पर अपनी कलम चलाई।

      महानगरीय परिवेश में दिनोंदिन अपनी वास्तविक पहचान खोते जा रहे आम आदमी एवं उसकी पीड़ा, हमारे आपसी पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों के व्यावसायीकरण, आवास-मकान की समस्याएँ, भूख, बेरोजगारी, महँगाई और पलायन से जुड़ी आर्थिक समस्याएँ, आभासी नैतिकता और बनावटी जीवन आदि विभिन्न पहलुओं वाले महानगरीय जीवन एवं स्वार्थपरक वातावरण का बोध लेखक ने अपनी गद्य रचनाओं में प्रमुखता से प्रस्तुत किया है। महानगरीय परिवहन के साथ-साथ महानगरीय जीवन की घनघोर यांत्रिकता, निष्ठुरता, निर्ममता, नि:सहायता, परिवेशगत विचित्रता और महानगरीय लोक व्यवहार, कृत्रिम जीवनशैली, शहरों के खोते हुए पुराने स्वरूप और बदलते शहरों पर शब्द-चित्र। उकेरने का अदम्य साहस डॉ. सत्यनारायण की लेखनी ने किया है।

बीज-शब्द : महानगरीय, ग्रामीण अँचल, जीवन-पद्धति, औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण, नगरीकरण, अंतर्विरोध, मानवीय संवेदना, चक्करघिन्नी, भौतिक सुख-सुविधा, परिवेश, आम आदमी, पूँजीवादी, समकालीन, आपाधापी, त्रासदी, यायावरी, जीवन मूल्य, अकेलापन।

मूल आलेख :

      भूमंडलीकरण के प्रारंभिक दौर से ही नगरअपने आस-पास के गाँवों के अस्तित्व को समाप्त कर उन्हें अपने में समाहित करके महानगरबनने की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं। महानगरशब्द महाऔर नगरइन दो शब्दों के योग से बना है। संक्षिप्त हिंदी शब्द सागर1 के अनुसार महाका अर्थ है बड़ाऔर नगरका अर्थ है गाँव अथवा कस्बे से बड़ी वह मानवीय बस्ती जिसमें अनेक पेशों (रोजगार) से जुड़े विभिन्न जातियों के लोग रहते हों।सामान्यतः भारत में अधिक जनसंख्या वाले शहरों या नगरों को भी महानगरकह दिया जाता है लेकिन यदि मानक जनसांख्यिकीय दृष्टिकोण से विचार करें तो वर्तमान में भारत के दस लाख या इससे अधिक की जनसंख्या वाले शहरों को महानगरकहा गया है। देश के मुंबई, दिल्ली, कोलकाता आदि शहरों के साथ राजस्थान के जयपुर, जोधपुर आदि शहर भी महानगरों की श्रेणी में ही आते है।

      आज महानगरीय परिवेश में मनुष्य का जीवन मशीनी यंत्र की तरह बनता जा रहा है। इन महानगरों में उपलब्ध विकास के समस्त साधन अप्रत्यक्ष रूप से महानगरीय जीवन के लिए अभिशाप बन चुके हैं। महानगरीय परिवेश की बढ़ती आबादी, उभोक्तावादी संस्कृति एवं महानगरीय चकाचैंध के बीच रहते हुए मनुष्यों को प्रतिदिन अपने दैनिक जीवन में अकेलेपन, अजनबीपन, अमानवीयता, अपनी पहचान खोते जा रहे आम आदमी की पीड़ा, निम्न-मध्य वर्ग का अपने जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए संघर्ष, आजीविका के कारण शहरों में उपेक्षित जीवन जीने की विवशता, उपयोगितावाद एवं स्वार्थवादिता पर आधारित पारस्परिक संबंध, आत्मकेंद्रिकता, संबंधों का व्यावसायीकरण इत्यादि समस्याओं एवं परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। इन महानगरीय परिस्थितियों एवं विसंगतियों से उनके जीवन में जो द्वंद्व, संघर्ष, संत्रास के साथ नैतिक उथल-पुथल उत्पन्न हुई है, उसे महानगरीय बोधकहते हैं।

      साहित्यकार कभी भी अपने समकालीन परिवेश से अलग नहीं रह सकता। विभिन्न साहित्यकारों ने अपने वैयक्तिक अनुभवों एवं जीवन दृष्टि के आधार पर महानरगीय जन-जीवन एवं परिवेश को अपनी रचनाओं का वर्ण्य-विषय बनाकर महानगरीय जीवन की बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आवास, प्रदूषण, मँहगाई, अपराधीकरण, नैतिक मूल्यों का पतन जैसी समस्याओं एवं विसंगतियों के साथ वहाँ की सभ्यता, परंपरा, जीवन-पद्धति, आचार-विचार, जीवन-संघर्ष एवं संवेदनाओं से युक्त महानगरीय बोधका अत्यंत मार्मिकता के साथ यथार्थ एवं जीवंत चित्रण किया है।

      वर्तमान में हिंदी साहित्य की लगभग सभी कथेतर विधाओं में 'महानरगीय बोध' का चित्रण अत्यंत सूक्ष्मता से हुआ है। समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले आधुनिक गद्यकार डॉ. सत्यनारायण ने कथेतर साहित्य की विधाओं से संबंधित अपनी विभिन्न रचनाओं में महानगरीय परिवेश एवं उससे उत्पन्न महानगरीय बोध को अत्यंत संवेदनशीलता पूर्वक एवं पूर्ण ईमानदारी से चित्रित किया है। विशेष रूप से राजस्थान के महानगर या यों कहें तो महानगरीय क्षेत्र, विशेष रूप से जयपुर और जोधपुर में उठी हलचल एवं नगरीकरण के नाम पर  हुए क्रांतिकारी परिवर्तनों की प्रक्रिया को आधुनिक युग के गद्यकार डॉ. सत्यनारायण ने यथार्थता के साथ उद्घाटित किया है। लेखक ने इन महानगरों में रहते हुए यह महसूस किया है कि पाश्चात्य सभ्यता का आक्रमण एवं संक्रमण, अंधानुकरण तथा फैशनपरस्ती के फलस्वरूप महानगरों में नित नए सामाजिक प्रतिमान उभर रहे हैं।

जहाँ महानगरीय जीवन में व्यक्ति की अपनी वैयक्तिक भावनाएँ आधुनिक लेखकों के लिए अहम् प्रश्न हो गई हैं, वहीं समकालीन सामाजिक परिस्थितियों के बीच डॉ. सत्यनारायण की भाव-संपदा का अपना एक अलग ही महत्त्व है। वे प्रत्येक स्थिति में अपने महानगरीय मित्रों और जोधपुर या जयपुर शहर के चौराहों, फुटपाथ एवं चाय की थड़ियों से विशेष रूप से प्रभावित हैं। आधुनिक शहरों के तीव्र गति से होते विकास, महानगरों की पतनशील सामाजिक व्यवस्था और प्राय: फ्रीज होते हुए मानवीय संबंधों की आत्मीय कहलाने वाली इस दुनिया के वास्तविक अंतरालों में झाँकने वाली डॉ. सत्यनारायण की इन साहसी चेष्टाओं को व्यक्तिवादी कहकर खारिज नहीं किया जा सकता हैं क्योंकि इनके रचना संसार में महानगरीय क्षेत्र की कई वास्तविक स्थितियाँ और उनके जटिल अंतर्विराध भी विद्यमान है।

      डॉ. सत्यनारायण की कथेतर रचनाएँ एक तरह से विगत वर्षों के समकालीन भारत की तमाम परिस्थितियों एवं अंतर्विरोधों का एक जीवंत एवं प्रामाणिक दस्तावेज हैं। इनमें से कुछ महानगरों की स्थितियों की तरह जटिल हैं तो कुछ मजदूरों की जिंदगियों की तरह सरल है। गाँवों, शहरों और महानगरों में होने वाले परिवर्तन तो समान हैं और ही किसी एक प्रक्रिया से जुड़े हुए हैं। गाँवों पर शहरी आधुनिकता या नगरीकरण का प्रभाव तो देखा जा सकता है पर गाँव की भीतरी दुनिया उससे अलग ही है। कोर्इ भी रचनाकार अपने समाज एवं परिवेश से अलग नहीं हो सकता है। डॉ. सत्यनारायण भी अपनी यायावरी जीवन-शैली के लिए विशेष रूप से मशहूर हैं। अपने यायावरी जीवन में उनका जो परिवेश रहा, उसके प्रति पूर्णत सजग एवं संवेदनशील रहते हुए लेखक ने उस परिवेश की सभ्यता, परंपराओं, आदर्शों, घटनाओं, आचार-विचार, रहन-सहन आदि को ही अपने कथेतर साहित्य की विषय-वस्तु बनाया। महानगरों में उन्होंने जहाँ भी, जिस रूप में, जो भी देखा, उसे ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर दिया।

      महानगर सामान्यत: जहाँ अधिक लोग रहते हों, जहाँ पर लाखों लोगों के लिए सुनियोजितता तथा विभिन्न भौतिक सुख-सुविधाएँ सहजता से सुलभ हो जाती है। महानगरीय परिवेश में मनुष्य का जीवन एक प्रकार से यंत्रवत् बनता जा रहा है। वैसे देखा जाए तो गाँवों में जो आत्मीयता, अपनापन, स्नेह और मानवीय संवेदना होती है वही संवेदना शहरों एवं महानगरों में आकर गौण हो जाती है। स्वयं लेखक के शब्दों में-‘‘गाँव में सरपंच है, ठाकुर साब है, तो शहर में ठेकेदार हैं, हाकिम हैं और इन सबके बीच में चक्करघिन्नी होते ये (मजदूर) लोग हैं।’’2

      महानगरों का जीवन बड़ा संकटमय होता है। वहाँ पर पूँजीवादी व्यवस्था व्यक्ति को अमानवीय, असामाजिक, स्वार्थी और असुरक्षित बना डालती है। ढ़ार्इ आखर की छुरीनामक रिपोर्ताज में लेखक इसी महानगरीय जीवन को इस प्रकार उकेरते हैं- ‘‘दिनभर हाय-तौबा करती जिंदगी के बाद धीरे-धीरे पसरती रात, गुलाबी कोट कंगूरों पर ऊँघते किलों पर, इस शहर के लोगों पर। ............साफ-सुथरी एक-दूसरे को काटती सड़कें, सड़कों से बतलावण करते रूँख और रूँखों के बगल में लेटी-पसरी प्रौढ़ होती इमारतें।’’3

      इस प्रकार वर्तमान में सड़कों को चौड़ा करने के लिए एवं विकास के नाम पर सड़कों के किनारों से पेड़ गायब हो रहे हैं। इनकी ओर भी लेखक ने संकेत किया है। रोशनी के गाँव में कराहता शहरनामक रिपोर्ताज में जयपुरशहर की प्राचीनता का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि-‘‘कोई ढाई सौ साल हुए होंगे इस गुलाबी शहर को बसे। यहाँ हवामहल है, आमेर है, नाहरगढ़ का किला है, सिटी पैलेस है, कॉफी हाउस है, एम. आई. रोड़ है, पाँच सितारा होटल है, भूतपूर्व राजे महाराजे है। लेकिन मुझ अहमक को देखिए मैं फिर भी इतिहास की सतहों में कुछ टटोल रहा हूँ।’’4

      डॉ. सत्यनारायण के अनुसार महानगरों का कृत्रिम एवं बनावटी जीवन व्यक्ति को सुख नहीं दे सकता। यहाँ रहते हुए भी व्यक्ति, यहाँ का हो ही नहीं पाता। इसलिए महानगरों में व्यक्ति स्वयं को ठगा-सा महसूस करता है। लेखक कहते हैं कि-‘‘एक बार मैंने अपने दोस्त को कहा था कि मेरे दु:ख का एक बड़ा कारण मेरा पढ़ना है। यदि मैं नहीं पढ़ता, तो अपनों के बीच उन्ही की तरह सुखी रहता।

      -और यदि वे भी पढ़ जाते तो? दोस्त ने पूछा।

-तो वे मेरी तरह शहर में दुखी रहते।

-क्यों?

-क्योंकि मुझे शहर का होने में कई बरस लगेंगे और शायद तब भी शहर का नहीं हो पाऊँ। और गाँव वह तो कभी का पीछे छूट गया।’’5

      सामान्यत: महानगर शब्द आते ही महानगरीय परिवेश और चकाचौंध की संस्कृति ही सर्वप्रथम मानस पटल पर आती है। लेकिन डॉ. सत्यनारायण ने अपने महानगरीय जीवन में ऑटो रिक्शा से परिवहन करते हुए अपनी यायावरी प्रवृत्ति में जयपुर शहर के सौंदर्य को जिस रूप में उकेरा है, वह अद्वितीय है। जयपुर के कई पाठनामक अपने संस्मरण में वे लिखते हैं कि- ‘‘हर शहर के एक नहीं दो या कई चेहरे होते हैं। एक वह जो पिक्चर पोस्ट कार्डया गाइड बुकमें देखा जा सकता है। एक स्टैंडर्ड चेहरा।................. पता नहीं कौनसी बेचैनी थी या फिर इस शहर की फितरत कि हसनपुरा, पुरानी बस्ती, जिसमें बालानंद जी की मोरी, बगरू वालों का रास्ता, बारह भाइयों का चौक, किशनपोल, चाँदीं की टकसाल, कल्याण जी का रास्ता, फिर बाहरी इलाके में नहरी का नाका, सुभाष कॉलोनी, अम्बाबाड़ी, जवाहर नगर, तिलक नगर, आनंदपुरी और फिर मोती डूँगरी रोड़। कहा जाता है कि बालजाक और पेरिस एक दूसरे के पर्याय थे। पेरिस बाल्जाक की साँसो में बसा हुआ था। हालाँकि मेरी ओलनाल जयपुर में नहीं गड़ी हुई है पर मित्रों यह सच है कि जयपुर मेरे सपनों में आता है और मैं रातों में बेचैन हो उठता हूँ। दोस्त जानते हैं कि बेकाम दिनों-महीनों, होटलों, धर्मशालाओं में पड़ा रहता हूँ। यहाँ के फुटपाथ आज भी मुझे शरण देते हैं। यहाँ के दरख्त विशेषकर रामनिवास बाग के, नहीं होते तो मैं यहाँ कैसे पहुँचता?’’6

डॉ. सत्यनारायण ने अपने जीवन के काफी वर्ष जयपुर में व्यतीत किए। इसलिए स्वाभाविक है कि लेखक का इस शहर के साथ अपना एक अलग प्रकार का अपनत्व से भरा जुड़ाव रहा है। जयपुरको ही लेकर वे फिर कहते हैं कि-‘‘मेरी यादों का शहर जयपुर। गाँव से आते वक्त माथे पर फिरे माँ के हाथ की याद की तरह कई-कई यादें हैं, इस शहर की, रातों की।’’7

      अपनी रचनाओं में डॉ. सत्यनारायण ने विस्थापन की समस्या को महानगरीय जीवन की सबसे अधिक विचलित करने वाली पीड़ा माना हैं। उनके अनुसार व्यक्ति को रोजगार के लिए अलग-अलग स्थानों पर विस्थापित होकर नौकरी करने के दौरान आवास या किराये के मकान के लिए उसे महानगरों के गली-मोहल्लों में कई बार उजड़ना और चक्करघिन्नी बनना पड़ता है। वे कहते है कि- ‘‘मुझे सबसे अधिक जो चीज विचलित करती है, वह है विस्थापन। पुरखे उजड़कर बसते रहे और मैं उजड़कर उजड़ता रहा। वैसे बरसों जयपुर रहा, पर वहाँ भी एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले तक कई कमरे।’’8

      महानगरीय जीवन की इसी विडंबना के कारण व्यक्ति अपना पेट पालने के लिए फुटपाथ पर भी रहने-सोने को मजबूर हो जाता है। इस तरह वह चाहकर भी जहाँ रहता है उस शहर या घर के साथ अपनेपन एवं स्थायित्व का भाव नहीं बना पाता और जब तक बनाता है तब तक महानगरीय शासन-प्रशासन की व्यवस्थाओं का बुलडोजरआकर उसे ध्वस्त कर देता है। लेखक कहते है कि- ‘‘आज रेलवे स्टेडियम के बाहर फुटपाथ पर अपना ठीया बनाए बणजारे के डेरे उजाड़ दिए गए। पिछले दो-तीन बरसों से वहीं उनका जन्म मरण परण था।...... औचक दो-चार बुलडोजर, कुछ सिपाही, कुछ कारिंदे आते हैं। डरे सहमे वे अपने उठाऊ चूल्हों को उठाएँ, उससे पहले ही तोड़ दिए जाते हैं।’’9

महानगर में रहते हुए डॉ. सत्यनारायण तथा उनके मित्रों को पढ़ाई एवं नौकरी की चिंता के साथ-साथ भूख, महँगाई, बेरोजगारी और आवास के लिए बार-बार कमरा बदलने तक की कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। लेखक ने स्वयं के एवं मित्रों के महानगरीय जीवन की संघर्षपूर्ण जीवन-पद्धति का चित्रण अपने गद्य लेखन में बखूबी किया है। भौतिकता की इस अंधी दौड़ में मानव, मानवीयता को त्यागकर एक मशीन-सा बनता जा रहा है और नैतिक उथल-पुथल की वजह से उसे जिंदगी में अनेक प्रकार के अनचाहे संघर्षों का सामना भी करना पड़ रहा है। रात का धमकाया शहरनामक रिपोर्ताज के अनुसार रेलवे स्टेशन से बाहर आते ही हमें इस महानगरीय जीवन की आपाधापी और अजनबीपन की झलक देखने को मिल जाती है। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए डॉ. सत्यनारायण कहते हैं कि- ‘‘रेल से उतर कर प्लेटफार्म से बाहर निकलते ही इस शहर में सबसे पहले किसी पर नजर पड़ती हैं तो वे हैं पागल। भाँति-भाँति के पागल और कुत्ते। इसके अतिरिक्त ध्यानाकर्षण करती हैं यहाँ की औरतें। पहली बार यहाँ आनेवाला यह देखकर चौंक उठता है। पर रात होते ही औरतें लोप हो जाती हैं और पागल और कुत्ते बाहर निकल आते हैं।

      यह एक साँझ है। रात में रात होते कुछ लोग। मर्द-लुगाई। जाने कौन जाति, कौन देस और कौन सगे-संबंधी। इन्हें बहुत पीछे छोड़ आए हैं ये। अब सिर्फ एक ढलती देह।’’10

      आजीविका की उधेड़बुन में रोज मरता-खपता आम आदमी महानगरीय जीवन में दिनों-दिन अपनी वास्तविक पहचान खोता जा रहा है। उसकी जीवन-शैली एवं पहचान अब यंत्रवत् हो गई है। डॉ. सत्यनारायण ने पिंकसिटी प्रेस क्लबमें स्वयं की पहचान हो पाने के अपने ही उदाहरण के माध्यम से महानगरों के पहचान खोते उसी आम आदमी की पीड़ा को व्यंग्यात्मक शैली में इस तरह अभिव्यक्त किया है- ‘‘आजकल सब जगह थंब इंप्रेशन यानी अँगूठे की निशानी एक मशीन में दर्ज करानी होती है। तभी दरवाजा खुलेगा। पिंक सिटी प्रेस क्लब में भी करीब साल भर से यह व्यवस्था है। पता नहीं क्यों मेरी किसी भी अँगुली या अँगूठे की रेखाओं के निशान नहीं पाते और दरवाजा नहीं खुलता। आज भी स्वागत द्वार पर बैठने वाले मदन ने कर्इ बार मशीन को दबवाया, पर वह नटती रही।’’11

गाँवों से महानगरों की ओर निरंतर हो रहे लोगों के पलायन और विस्थापन के कारण वहाँ की बढ़ती आबादी से विभिन्न प्रकार की समस्याएँ पैदा हुई हैं। जैसे- बेरोजगारी, आवास, महँगाई, चोरी-डकैती, यातायात, भीड़-भाड़, प्रदूषण आदि। जिनका आभास डॉ. सत्यनारायण को उनके साहित्यिक मित्रों एवं पाठकों द्वारा लिखे गए पत्रों से संबंधित डॉ. माधव राठौड़ द्वारा संपादित इस पते पर कुछ चिट्ठियाँनामक पुस्तक से होता है। महानगरों में व्याप्त चोरी-डकैती एवं आवारागर्दी के भयानक परिवेश का आभास और महानगरों में नागरिकों की सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मी के कठोर व्यवहार एवं उसकी महानगरीय भाषा-शैली से डॉ. सत्यनारायण का सामना जोधपुर महानगर की एक रात में होता है। जहाँ वे कहते है- ‘‘यह जोधपुर शहर में मेरा छठा महीना था।....... यह छठे महीने की कोई रात थी।....... रात एक बजा था। लिफाफे को बंदकर मैं बाहर निकल आया।....... काली एक पतली लकीर से घिरे लाल रंग के डाक के डिब्बे पर अपनी अंगुलियाँ टेककर देर तक वहीं खड़ा रहा।..... अपने अगल-बगल कुछ आवाजें सुनी तो मैं चौंक कर ठिठक गया।...... सामने के शब्द वर्दीधारी थे। तीखे धारदार पंजो के साथ।

यहाँ क्या कर रहे हो?’

बस यों ही चिट्ठी डालने आया था।....... याद गयी थी और आप जानते हैं कि याद बिन बुलाये समय बेसमय कभी भी चली आती है।

-सीधे-सीधे थाणे चलो, अभी सारी याद घुसड़ जाएगी।

-साला कोई शातिर चीज है .............

-छोड़ो यार, शकल सूरत से तो कोई भला लग रहा है।

-आजकल भली शकल सूरत वाले ही हरामी होते हैं। या तो जो कुछ है वह हवाले कर नहीं तो जब डंडा घुसड़ेगा तब किसे याद करेगा।’’12

महानगरों में बढ़ते प्रदूषण, रासायनिक जल, धूल और धुआँ केवल मनुष्य के लिए अपितु पेड़-पौधों के लिए भी हानिकारक है। जोधपुरशहर के अपने महानगरीय जीवन के दौरान डॉ. सत्यनारायण कहते हैं कि-‘‘महात्मा गाँधी अस्पताल के सामने वाली सड़क। धूल और धुआँ खाया एक अधबूढ़ा पीपल। ..................साँझ होते ही ऊँघता शहर जाने किस खोह में जाकर दुबक जाता है।’’13 लेखक आगे यह भी बताते हैं कि- ‘‘मैने कहा पागल, कुत्ते और पीपल के गट्टे पर बैठने वाले शख्स जो चाँद से गुफ्तगू करके रातें काटते हैं। इस शहर की सड़कों को कभी सूनी नहीं रहने देते।’’14

      ‘यायावर की डायरीनामक रिपोर्ताज संग्रह में लेखक ने भाग-दौड़ भरी जिन्दगी, सिटी बसों, रिक्शों एवं चायवालों की थड़ियों पर दौड़ती-भागती आवाजों को उकेरा है। महानगरीय क्षेत्र में इन सभी के मन में कभी भी संतोष नहीं होता है। ये सदैव लालच एवं असुरक्षा से घिरे रहते हैं। भारत के प्राय: सभी रेलवे स्टेशनों के बाहर हस्तरेखा देखने वाले ज्योतिषि, जड़ी-बूटियों वाले वैद्य, नपुंसकता का गारंटी से इलाज करने वाले हकीम और पाँच-दस रूपयों में पेट भरने वाले उठाऊ चूल्हों के ढ़ाबे वालों का महानगरीय क्षेत्र में लेखक ने विशेष रूप से उल्लेख किया है। शहरों में आकर गाँव के लोगों का इन सभी के चंगुल मे फँस जाना लेखक को झकझोर देता है। अपने शहर के प्रति लगाव एवं मोहभंग गाँवों में ही नहीं अपितु महानगरीय जीवन एवं यायावरी प्रवृत्ति के लोगों में भी देखने को मिलता है। फोन पर जोधपुर के विश्वविद्यालय में चयन हो जाने की सूचना मिलने के बाद डॉ. सत्यनारायण ने व्यवस्थाओं के प्रति अपने मोहभंग को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है कि- ‘‘मैंने अपने आपको भींचकर टटोला। दोस्त खुश थे पर क्या मैं हूँ? ये सड़कें, यह आकाश, यह शहर छोड़कर मुझे जाना होगा। एक उम्र यहाँ बीती। सपने यहाँ देखे, सपने यहाँ टूटे पर शहर में डटा रहा। अब जाना ही होगा।..... मुझे खुश होना चाहिए था नौकरी की सुनकर पर जाने क्यों भीतर एक अवसाद भर गया और मैं समूची रात सड़कों पर डोलता रहा। मैं वहाँ जाऊँगा ही अपनी तमाम यातनाओं के साथ।’’15

      डॉ. सत्यनारायण के अनुसार रोजगार, तनख्वाह, नौकरी की चिंता आदि आर्थिक समस्याओं के वशीभूत चाहते हुए भी व्यक्ति को मजबूरन अनचाहे शहर, लोगों एवं स्थितियों के बीच रहना पड़ता हैं। जोधपुर महानगर के प्रति अपने मोहभंग को लेकर वे कहते हैं कि- ‘‘मुझे अब दो महीनों की छुट्टियों के बाद जोधपुर लौटना है। तलवार की धार-सी रोज बदलती तारीख। मैं कुछ समझ पाता हूँ और कुछ नहीं। आखिर वहाँ इसलिए कि हर महीने की एक निश्चित तारीख को मुझे तनख्वाह मिलती है। क्या मैं कहीं भी किसी भी जगह पढ़ा सकता हूँ ? और तनख्वाह भी उसी दिन मिल जाए, क्योंकि इससे अनचाही जगह जाने से बच जाऊँगा और नई जगह, नए लोगो से अपनी बात कह सकूँगा। क्या यह संभव है?’’16

इस दौर में नगरों एवं महानगरों का विकास भी बहुत तेजी से हुआ है, जो अपनी ग्रामीण प्रकृति एवं प्रवृत्ति से भिन्न पाश्चात्य संस्कृति का अनुभव कराने लगते हैं। सब कुछ जीवननामक रिपोर्ताज संग्रह में डॉ. सत्यनारायण ने इस विषय पर अपने सर्वाधिक विचार व्यक्त किए हैं। लेखक ने यहाँ शहरी जीवन एवं क्षेत्र में घटित हलचल तथा परिवर्तन की परिस्थितियों को विभिन्न रूपों में चित्रित किया हैं।

गाँवो का आर्थिक ढाँचा कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर हैं जबकि शहरों का आर्थिक ढाँचा यांत्रिक उद्योगों एवं विकास कार्यों पर। लेखक ने महानगरीय आर्थिक जीवन को गाँवों के आर्थिक जीवन से नितांत भिन्न स्वरूप वाला बताते हुए आर्थिक दृष्टि से उच्च एवं मध्यम वर्ग द्वारा निम्न वर्ग का मजदूरी के नाम पर शोषण किए जाने से संबंधित महानगरीय समस्या को अपनी कृतियों में उजागर किया है। गाँवों में जीवनयापन के साधनों की कमी होते हुए भी जो जीवन मूल्य और सुकुन मिलता है वह नगरों एवं महानगरों में दुष्प्राप्य है। महानगर का जीवन उस गाँव के अपनेपन एवं स्नेहासिक्त जीवन का अनुभव होकर एक अकेलेपन, बेगानेपन एवं शुष्कता का जीवन है। हाँ, महानगरों के कबाड़खानों में आदमी को देखकर ही सामान खरीदा जाता है और आदमी देखकर ही बेचा जाता है। औने-पौने दामों पर घरों से खरीदा हुआ सामान कबाड़खाने में बेचने के लिए आता है। कबाड़ी के चश्मा नहीं होतानामक अपने रिपोर्ताज संग्रह में जोधपुर महानगर के कबाड़ियों के बाजार का सुंदर चित्रण करते हुए लेखक कहते हैं कि- ‘‘जोधपुर के घंटाघर बाजार में कबाड़ियों की करीब बत्तीस दुकानें हैं और सौ के लगभग फुटपाथ पर बैठने वाले। शहर भर में फेरी लगाने वाले करीब सात आठ सौ ठेले वाले होंगे जो घरों से कबाड़ खरीदकर यहाँ बैचते हैं।’’17

इसी तरह डॉ. सत्यनारायण के इस आदमी को पढ़ोनामक रिपोर्ताज संग्रह में चित्रित जयपुर शहर के चाँदपोल बाजार की घुमती-फिरती दुकानें भी महानगरीय संस्कृति की ही संवाहक है। जिसके लिए हेमन्त शेषइसी शीर्षक से लिखे अपने आलेख में कहते हैं कि-‘‘किताब (इस आदमी को पढ़ो) में जयपुर और धौलपुर जैसे शहरों पर भी शब्द-चित्र लिखे गए है। पर वे जैसे एक औपचारिकता भर हैं। हाँ, सामान्य आदमियों- कफन विक्रेता, ट्रक ड्राइवरों, ग्रामीण वेश्याओं, कुम्हारों, पेंशनरों, मजदूरों, मालिनों आदि पर केंद्रित शब्द-च़ित्रों में उनकी हालत पर अवश्य कुछ सजीव प्रश्न खड़े किए गए हैं।’’18

      डॉ. सत्यनारायण के अनुसार महानगरीय जीवन में व्यक्ति को बहुत से पारिवारिक एवं सामाजिक अंतर्विरोधो को झेलना पड़ता है। व्यक्ति यहाँ महानगर में अकेले अपनी जीवन परिस्थितियों से जूझ रहा होता है लेकिन महानगरीय चकाचौंध और संपन्नता पर नजरे गड़ाए बैठे उसके नाते-रिश्तेदार और सगे-संबंधी उसकी कमार्इ और संसाधनों पर अपना भी अधिकार समझते हुए कई प्रकार के मंसूबे पाले रहते हैं। महानगरीय जीवन से उत्पन्न इसी पारिवारिक अंतर्विरोध को लेकर वे कहते हैं कि-‘‘जब मेरे पास कुछ नहीं था, घर वाले कहते-यह फकीर है, क्या करेगा हमारे लिए! और आज जब मैं एक अच्छी नौकरी पर हूँ और उन्हीं कुछ बहुत थोड़ी चीजों के साथ जीते हुए, सब कुछ घर भेजता हूँ, तो वे कहते हैं-यह तो कुछ भी घर नहीं भेजता। यह भी कोर्इ भेजना है! खुद ठाठ से रहता होगा। अब उन्हें खूब चाहिए। कितना खूब? शायद उन्हें भी नहीं पता, क्योंकि यह भूख बढ़ती ही जाती है। और मैं अब भी वैसे ही खड़ा हूँ। खाली का खाली।’’19

      इस तरह व्यक्ति के महानगरीय जीवन की संपन्नता की आभासी झलक उसके पारिवारिक सदस्यों में एक नर्इ भूख जगाती है जो आपसी रिश्तों के प्रेम और अपनेपन को भी निगल लेती है। पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों के इस स्वार्थपरक व्यावसायीकरण को डॉ. सत्यनारायण ने इस प्रकार हमारे सामने रखा है-‘‘एक शब्द है संबंधजब-जब भी सोचता हूँ। मुझे ज्ञानरंजन की कहानी संबंधयाद आती है। जिसे मैं लगातार ढ़ो रहा हूँ। क्या ये संबंध हमें जोड़ते हैं? मैं सबके बारे में नहीं जानता पर अपने बारे में तो कह ही सकता हूँ कि यह नहीं होते तो मैं कितना सुखी होता। और अब जीवन भर का दाझणा।’’20

आधुनिक महानगरों की प्रमुख समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित कराते हुए लेखक बताते हैं कि वस्तुत: आजादी के : दशक पूर्ण होने के बाद भी जबकि बाल-शोषण, नारी-उत्पीड़न, गरीबों का गला काटने की तमाम पूँजीवादी व्यवस्थाएँ तथा भाग्यवाद उसी जोश पर है तब डॉ. सत्यनारायण का बूढ़ा पुजारी कहता है कि-क्या तुम्हें पता है ईश्वर मर गया तथा यह भी आदमी ही निकला।   

      आदतन ही घुमंतू एवं यायावरी प्रवृत्ति के कारण लेखक ने महानगरों में कार्यरत अधिकतर मेहनतकश एवं अभावग्रस्त वर्ग को अपनी लेखनी का माध्यम बनाया। जिनमें सड़क किनारे के ढ़ाबे, रिक्शावाले, मजदूर, लाचार, भिखारी, बेसहारा बूढ़ा, मालिन, कंपोजीटर, लाचार एवं बेकारी झेलते होनहार प्रमुख है। जमाने की घनघोर यांत्रिकता, निर्ममता, निष्ठुरता और परिवेशगत विसंगतियों एवं विषमताओं को डॉ. सत्यनारायण ने सदैव सजीवता प्रदान की है।

निष्कर्ष :

      यद्यपि भारत की अधिकांश जनता गाँवों में बसती है लेकिन नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के फलस्वरूप देश में कस्बे, नगर में और नगर, महानगर में बदलते जा रहे हैं। महानगरों का उन्मुक्त वातावरण, व्यक्तिगत विकास की प्रतिस्पर्धा, अवसरानुकूल प्रतियोगिता आदि महानगर में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को आगे बढ़ने के समुचित अवसर प्रदान करते हैं। परंपरागत ग्रामीण मानव जीवन से नितांत भिन्न महानगरीय जीवन के विविध जीवन मूल्यों एवं संघर्षपूर्ण जीवन-शैली को डॉ. सत्यनारायण ने अपने रचना संसार में समाहित किया है। लेखक ने अपनी रचनाओं में केवल महानगरीय जीवन का अवबोध ही किया अपितु उन्होंने मानव समाज को उत्पीड़ित करने वाली महानगरीय जीवन की विभिन्न समस्याओं के प्रति हमें सावचेत भी किया हैं। इस प्रकार डॉ. सत्यनारायण के कथेतर साहित्य के अंतर्गत महानगरों में मानवीय जीवन के सिमटते दायरे में व्यक्ति के अकेलेपन की त्रासदी अपनी भयावता के साथ अभिव्यक्त हुई है।

 

संदर्भ

1.     रामचंद्र वर्मा (सं.) : संक्षिप्त हिंदी शब्द सागर, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 2013, पृ. 516

2.     सत्यनारायण : इस आदमी को पढ़ो, रचना प्रकाशन, जयपुर, 1989, पृ. 55

3.     वही, पृ. 92

4.     वही, पृ. 95

5.     सत्यनारायण : दु:ख किस काँधे पर, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2019, पृ. 20

6.     सत्यनारायण : यादों का घर, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2015, पृ. 125

7.     सत्यनारायण : इस आदमी को पढ़ो, रचना प्रकाशन, जयपुर, 1989, पृ. 92

8.     सत्यनारायण : दु:ख किस काँधे पर, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2019, पृ. 73

9.     वही, पृ. 86

10.    सत्यनारायण : यह एक दुनिया, मेधा बुक्स, दिल्ली, 2010, पृ. 191

11.    सत्यनारायण : दु:ख किस काँधे पर, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2019, पृ. 88

12.    सत्यनारायण : यहीं कहीं नींद थी, रचना प्रकाशन, जयपुर, 1998 पृ. 50

13.    वही, पृ. 52

14.    वही, पृ. 52

15.    सत्यनारायण : तारीख की खंजड़ी, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2022, पृ. 15

16.    सत्यनारायण : दु:ख किस काँधे पर, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2019, पृ. 22

17.    सत्यनारायण : चेहरों पर छपी खबरें, रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर, 2014, पृ. 25

18.    मंदाकिनी शेखावत (सं.) : रचना परख, रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर, 2022, पृ. 187

19.    सत्यनारायण : दु:ख किस काँधे पर, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2019, पृ. 10

20.    वही, पृ. 115

  


महेन्द्र सिंह
शोधार्थी, हिंदी विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.)
 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

Post a Comment

और नया पुराने