- डॉ. सरोज कुमारी
शोध
सार : आज सम्पूर्ण
विश्व
बाजारवाद
की
दौड़
में
शामिल
हो
चुका
है,
लालच
की
परीणति
युद्ध
की
सीमा
तक
चली
जाती
है।
ऐसे
में
गाँधीवाद
की
प्रासंगिकता
पहले
से
कहीं
अधिक
हो
जाती
है।
किसी
भी
शोषण
का
अहिंसक
प्रतिरोध, सबसे पहले
दूसरों
की
सेवा, संचय
से
पहले
त्याग, झूठ के
स्थान
पर
सच, स्व की
अपेक्षा
देश
और
समाज
की
चिंता
करना
आदि
विचारों
को
समग्र
रूप
से
गाँधीवाद
की
संज्ञा
दी
जाती
है।
आज
के
दौर
में
जब
समाज
में
कल्याणकारी
आदर्शों
का
स्थान
असत्य, अवसरवाद, धोखा, चालाकी, लालच
व
स्वार्थपरता
जैसे
संकीर्ण
विचारों
द्वारा
लिया
जा
रहा
है
तो
समाज
सहिष्णुता, प्रेम, मानवता, भाईचारे जैसे
उच्च
आदर्शों
को
विस्मृत
करता
जा
रहा
है।
विश्व
शक्तियाँ
शस्त्र
एकत्र
करने
की
स्पर्धा
में
लगी
हुई
हैं।
ऐसे
में
विश्व
शांति
की
स्थापना
के
लिए, मानवीय मूल्य
पुनः
प्रतिष्ठित
करने
के
लिए
आज
गाँधीवाद
नए
स्वरूप
में
पहले
से
कहीं
अधिक
प्रासंगिक
हो
उठा
है।
बीज
शब्द : दर्शन,
बाजार
वाद, अहिंसक प्रतिरोध, सहिष्णुता, गाँधीवाद, पुनर्स्थापना,
प्रासंगिकता।
मूल
आलेख : महात्मा
गाँधी
अपने
युग
के
महान
नेता
थे।
उन्होंने
सत्य, अहिंसा और
सत्याग्रह
के
बल
पर
1920 ई.
से
1947 ई.
तक
राष्ट्रीय
आन्दोलन
का
नेतृत्व
किया।
देश
भर
में
राजनीतिक
चेतना
जाग्रत
की
और
कांग्रेस
के
राष्ट्रीय
आन्दोलन
को
जन
आन्दोलन
के
रूप
में
परिवर्तित
कर
दिया।
अन्त
में
उनके
प्रयासों
से
15 अगस्त
1947 को
भारत
को
आजादी
मिली।
इसलिए
उन्हें
राष्ट्रपिता
के
नाम
से
पुकारा
जाता
है।
इस
दौरान
उन्होंने
राजनीति
के
साथ-साथ
सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, धार्मिक आदि
सभी
क्षेत्रों
को
प्रभावित
किया।
गाँधीजी
की
विचारधारा
का
आधारभूत
तत्त्व
यह
है
कि
अपने
मूल
रूप
में
मानव
जाति
की
समस्त
समस्याएँ
नैतिक
समस्याएँ
हैं।
यदि
मानव
सही
अर्थों
में
मानव
बन
जाये
और
अपने
समस्त
सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक
कार्यों
को
अन्तरात्मा
की
पुकार
के
अनुसार
करे
तो
समाज
अथवा
विश्व
में
दुःख,
संकट
तथा
समस्या
जैसी
चीज
रह
ही
नहीं
सकती
है।
उनके अनुसार
‘‘व्यक्ति
की
दो
अन्तरात्माएँ
नहीं
हो
सकती,
एक
व्यक्तिगत
और
सामाजिक
तथा
दूसरी
राजनीतिक।
मानवीय
कार्यों
के
सभी
क्षेत्रों
में
एक
ही
नैतिक
संहिता
का
पालन
किया
जाना
चाहिए।
हमें
सत्य
और
अहिंसा
को
केवल
व्यक्तिगत
व्यवहार
के
ही
नहीं
वरन्
संघों, समुदायों तथा
राष्ट्रों
के
व्यवहार
के
सिद्धान्त
बनाना
है।’’[1]
गाँधीजी
मूल
रूप
में
एक
आध्यात्मिक
संन्त
थे।
महात्मा
गाँधी
के
जीवन
काल
की
परिस्थितियाँ
ऐसी
थी
कि
जिनके
कारण
महात्मा
गाँधी
को
राजनीति
में
प्रवेश
करना
पड़ा।
स्वयं
महात्मा
गाँधी
के
शब्दों
में
‘‘मैं
उस
समय
तक
धार्मिक
जीवन
व्यतीत
नहीं
कर
सकता
था, जब तक
कि
स्वयं
को
सम्पूर्ण
मानवता
के
साथ
एकीकृत
न
कर
लेता
और
यह
मैं
उस
समय
तक
नहीं
कर
सकता
था
जब
तक
कि
राजनीति
में
भाग
नहीं
लेता।’’[2]
महात्मा गाँधी
सन्
1893 में
एक
मुकदमे
के
सिलसिले
में
वे
दक्षिण
अफ्रीका
गए।
वहाँ
एक
वर्ष
के
लिए
गये
थे
किन्तु
परिस्थितिवश
बीस
वर्ष
से
भी
अधिक
वही
रहे।
अफ्रीका
की
गोरी
सरकार
प्रवासी
भारतीयों
पर
जाति
और
रंग
के
नाम
पर
अत्याचार
कर
रही
थी।
गाँधीजी
ने
अपने
महान
शस्त्र
सत्याग्रह
का
सफल
प्रयोग
किया
और
जनता
के
हितों
की
रक्षा
की।
सन्
1914 में
भारत
लौटने
पर
बम्बई
की
जनता
ने
गाँधीजी
को
महात्मा
की
उपाधि
दी।
सन्
1915 से
1948 तक
उन्होनें
देश
की
आजादी
के
लिए
अथक
परिश्रम
किया।
अगस्त
1920 में
लोकमान्य
तिलक
की
मृत्यु
के
बाद
कांग्रेस
में
उनका
सर्वोपरि
नेतृत्व
कायम
हो
गया।
भारत के
स्वाधीन
होने
तक
उन्होंने
अहिंसात्मक
तरीके
से
विदेशी
हुकुमत
के
विरूद्ध
सफल
संघर्ष
किया।
अहिंसात्मक, असहयोग आन्दोलन
(1920) और
सविनय
अवज्ञा
आन्दोलन
(1930) उनके
नेतृत्व
में
हुए
जिनसे
सम्पूर्ण
राष्ट्र
में
जागरण
की
लहर
फैल
गई।
अहिंसात्मक
आन्दोलन
के
दौरान
जब
कभी
हिंसात्मक
वातावरण
बना, तभी उन्होंने
आन्दोलन
को
स्थगित
कर
दिया, चाहे वे
सफलता
के
निकट
ही
क्यों
न
पहुंच
गये
हों।
गाँधीजी
की
प्रेरणा
से
ही
अगस्त
1942 में
विख्यात
‘भारत
छोड़ो
आन्दोलन’ प्रारम्भ हुआ
जिसने
ब्रिटिश
सरकार
को
हिला
दिया।
गाँधीजी
गिरफ्तार
कर
लिए
गए।
जेल
में
उन्होंने
21 दिन
का
उपवास
किया।
1944 में
उन्हें
कारावास
से
मुक्त
किया
गया।
इस
समय
जिन्ना
के
नेतृत्व
में
‘पाकिस्तान
आन्दोलन’ का जोर
था।
गाँधीजी
ने
जिन्ना
से
पाकिस्तान
सम्बन्धी
समस्या
सुलझाने
के
लिए
वार्ता
चलाई
जो
विफल
रही।
केबिनेट
मिशन
के
निर्णयों
के
अनुरूप
संविधान
सभा
के
चुनावों
में
गाँधीजी
के
नाम
पर
ही
कांग्रेस
को
अभूतपूर्व
सफलता
मिली।
केबिनेट
मिशन
की
योजना
के
अनुसार
सन्
1946 में
अन्तरिम
सरकार
की
स्थापना
हुई
और
फिर
माउण्टबेटन
की
भारत
- विभाजन योजना के
अनुसार
सन्
1947 में
भारतीय
स्वाधीनता
विधेयक
पारित
हुआ, जिसने भारत
और
पाकिस्तान
दो
राज्यों
को
जन्म
दिया।
प्रारम्भ में
गाँधीजी
ने
विभाजन
की
योजना
का
विरोध
करते
हुए
घोषणा
की
थी
कि
भारत
का
विभाजन
मेरी
लाश
पर
होगा
परन्तु
उन्हें
परिस्थितियों
के
आगे
विवश
होना
पड़ा।
स्वाधीनता
के
बाद
दोनों
देशों
में
साम्प्रदायिकता
की
ज्वाला
भड़क
उठी।
गाँधीजी
ने
अपना
शेष
जीवन
साम्प्रदायिकता
की
आग
को
शांत
करने
में
लगाया।
30 जनवरी
1948 को
एक
प्रार्थना
सभा
में
ईश्वर
का
नाम
लेते
हुए
नाथूराम
गोडसे
की
गोलियों
से
वे
शहीद
हुए।
गाँधीजी
की
मृत्यु
के
बाद
वे
विचार
और
सिद्धान्त
और
भी
अधिक
प्रभावकारी
हो
उठे
जिनके
लिए
उन्होनें
जीवन
पर्यन्त
संघर्ष
किया।
जीवन
भर
वे
सुकरात
और
बुद्ध
की
तरह
सत्य
और
अहिंसा
पर
डटे
रहे।
संसार
में
करोड़ों
लोग
उनके
सिद्धान्तों
से
प्रभावित
हैं।
गाँधीजी राजनीतिक
और
सामाजिक
व्यवहार
के
साथ-साथ
लेखन
में
बराबर
सक्रिय
रहे|
उनकी
प्रमुख
कृतियाँ
‘हिन्द स्वराज्य’, ‘अपनी
आत्मकथा’
(सत्य के साथ
मेरे
प्रयोग), ‘शांति
और
युद्ध
में
अहिंसा’, ‘नैतिक
धर्म’, ‘सत्याग्रह’, ‘सत्य
ही
ईश्वर
है’, ‘सर्वोदय’, ‘साम्प्रदायिक
एकता’, ‘अस्पृश्यता
निवारण’
है।
तत्कालीन
समय
को
प्रामाणिक
रूप
से
जानने
के
लिए
ऐसी
अनेक
पत्र-पत्रिकाएं
उल्लेखनीय
है
जिनमें
गाँधी
जी
का
चिंतन
निरंतर
प्रकाशित
होता
रहता
था
जिनमें
‘इण्डियन ओपीनियन’, ‘यंग
इण्डिया’, ‘हरिजन’, ‘नवजीवन’, ‘हरिजन
सेवक’, ‘हरिजन
बन्धु’
का
नाम
विशेष
रूप
से
उल्लेखनीय
है।
गाँधीजी
के
विचार
और
उनकी
आज
के
युग
में
प्रासंगिकता
राजनीति का
आध्यात्मीकरण
- गाँधीजी मूलतः धार्मिक
प्रवृत्ति
के
व्यक्ति
थे।
धर्म
के
सम्बन्ध
में
उनका
दृष्टिकोण
लौकिक
और
मानवतावादी
था।
गाँधीजी
मानते
थे
कि
मानव
क्रियाओं
से
पृथक
कोई
धर्म
नहीं
है।
वे
राजनीति
शब्द
में
नीति
अर्थात्
धर्म
और
मानवता
को
प्राथमिकता
देते
थे।
राज
अर्थात्
सता
को
नहीं।
गाँधीजी
ने
स्वयं
राजनीति
में
प्रवेश
कर
नीति
का
महत्व
का
प्रतिपादन
किया।
वे
धर्म
और
राजनीति
को
पृथक
करने
के
पक्ष
में
नहीं
थे।
स्वयं
गाँधीजी
के
शब्दों
में
जो
यह
कहते
हैं
कि
‘‘धर्म
का
राजनीति
से
कोई
सम्बन्ध
नहीं
है, वे यह
नहीं
समझते
कि
धर्म
का
अर्थ
क्या
है।
धर्म
से
पृथक
कोई
राजनीति
नहीं
हो
सकती।
धर्म
से
पृथक
राजनीति
तो
मृत्यु
जाल
है
क्योंकि
यह
आत्मा
का
हनन
करती
है।’’[3]
गाँधीजी
जीवन
के
प्रत्येक
पहलु
में
धर्म
(नैतिकता) का प्रवेश
चाहते
थे
और
उन्होंने
इस
लक्ष्य
की
प्राप्ति
हेतु
सार्वजनिक
जीवन
में
प्रवेश
किया।
उनके
शब्दों
में
‘‘मैं
यदि
राजनीति
में
भाग
लेता
हूँ
तो
इसका
कारण
केवल
यही
है
कि
राजनीति
हमें
एक
सर्पिणी
की
भांति
जकड़े
हुए
है
और
हम
चाहे
कितना
भी
प्रयास
क्यों
न
करें, उससे बाहर
नहीं
निकल
सकते।
मैं
इस
सर्पिणी
से
जूझना
चाहता
हूँ।
मैं
इस
राजनीति
में
धर्म
को
प्रविष्ट
करने
का
प्रयास
कर
रहा
हूँ।’’[4]
गाँधीजी ने
अपना
सार्वजनिक
जीवन
सत्य
और
अहिंसा
के
सिद्धान्तों
पर
व्यतीत
कर
‘राजनीति
में
आध्यात्मिकता’
को
प्रविष्ट
किया। यदि हम
भारत
का
उदाहरण
देखते
हैं
तो
पाते
हैं
कि
आजादी
के
कई
वर्षों
तक
सार्वजनिक
जीवन
में
नैतिकता
का
महत्व
देने
वाले
नेताओं
का
शासन
रहा।
आज
ऐसे
नेतृत्व
का
अभाव
होता
जा
रहा
है।
कथनी
और
करनी
में
अन्तर
आम
बात
हो
गई
है।
लगभग
सभी
राजनीतिक
दलों
द्वारा
टिकटों
का
बंटवारा
जाति, धर्म, क्षेत्रीयता तथा
अन्य
संकुचित
भावनाओं
को
ध्यान
में
रखकर
किया
जाता
है।
नैतिकता
और
मूल्य
कहीं
पीछे
छूट
रहे
हैं।
राजनीति
एक
व्यवसाय
बन
रही
है
और
उसी
का
परिणाम
है
कि
बोफोर्स
काण्ड, 2जी घोटाला, चारा घोटाला
आदि
असंख्य
घोटालों
का
पर्दाफाश
हो
रहा
है।
संसद
एवं
विधानसभाओं
में
बेदाग
छवि
के
नेतृत्व
का
अभाव
हो
रहा
है।
राजनीति
का
अपराधीकरण
हो
रहा
है।
राजनीति
में
धर्म
(नैतिकता) के अभाव
का
ही
परिणाम
है
कि
धर्म
को
राजनीति
के
एक
साधन
के
रूप
में
प्रयोग
किया
जाने
लगा
है
और
अवसरवाद
को
बढ़ावा
मिला
है।
नेतृत्व
में
चारित्रिक
पतन
के
कारण
प्रशासन
एवं
जनता
में
भ्रष्टाचार
का
बोलबाला
हो
रहा
है।
सामान्य
जनता
का
कानून
से
विश्वास
उठ
रहा
है।
यह
समस्या
भारत
ही
नहीं
एशिया, अफ्रीका के
अन्य
देशों
में
भी
देखने
को
मिल
रही
है।
राजनीति
में
नैतिकता
एवं
मूल्यों
के
प्रवेश
से
ही
इस
समस्या
के
हल
की
सम्भावना
है।
जैसा
राजा
वैसी
प्रजा
का
सिद्धान्त
प्रारम्भ
से
प्रचलित
रहा
है।
उच्च
नेतृत्व
का
आदर्श
चरित्रवान
होना
अधिक
आवश्यक
है।
सत्य - गाँधीजी
ने
सत्य
के
तत्त्व
को
स्पष्ट
करते
हुए
उसके
सैद्धान्तिक
और
व्यावहारिक
दोनों
ही
पक्षों
पर
बल
दिया।
उन्होंने
अपना
सम्पूर्ण
जीवन
ही
सत्य
की
खोज
में
अर्पित
कर
दिया।
ईश्वर
का
सच्चा
नाम
सत्य
है
इसलिए
‘ईश्वर
सत्य
है’ ऐसा कहने
की
अपेक्षा
‘सत्य
ही
ईश्वर’ ऐसा कहना
अधिक
उचित
है।
‘‘सत्य
गाँधीजी
के
तत्त्व
ज्ञान
का
केन्द्र
है।
उनके
अनुसार
हमारा
प्रत्येक
व्यवहार
और
कार्य
सत्य
के
लिए
होना
चाहिए, सत्य के
अभाव
में
किसी
भी
नियम
का
सही
तरह
से
पालन
नहीं
किया
जा
सकता।
वाणी, विचार और
आचार
में
सत्य
का
होना
सत्य
है।
सत्य
की
अर्चना
ही
ईश्वर
की
सच्ची
भक्ति
है।’’[5]
सत्य क्या
है? इसके उत्तर
में
गाँधीजी
ने
कहा
था, ‘‘यह एक
बड़ा
कठिन
प्रश्न
है, किन्तु स्वयं
अपने
लिए
मैंने
इसे
हल
कर
लिया
है।
तुम्हारी
अन्तरात्मा
जो
कहती
है, वही सत्य
है।’’[6]
पर
सत्य
को
ग्रहण
कर
उसे
व्यक्त
करने
के
लिए
अन्तरात्मा
शुद्ध
होनी
चाहिए।
अन्तरात्मा
की
शुद्धि
के
लिए
साधना
की
आवश्यकता
होती
है
और
यह
साधना
जीवन
में
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह
को
अपनाकर
ही
की
जा
सकती
है।
‘‘गाँधीजी
के
मत
में
केवल
सत्य
बोलना
सत्य
के
प्रति
निष्ठा
का
प्रमाण
नहीं
है।
सत्य
परायण
व्यक्ति
मन, वचन और
आचरण
तीनों
से
सत्य
के
प्रति
समर्पित
रहेगा।
मन
की
परिपक्वता, आचरण की
शुद्धता
और
वाणी
की
निर्मलता, व्यक्ति के
आचरण
की
सत्य
परायणता
के
तीन
स्पष्ट
मापदण्ड
हैं।’’[7]
दैनिक
जीवन
में
सत्य
सापेक्ष
है, लेकिन इसके
माध्यम
से
निरपेक्ष
सत्य
पर
पहुँचा
जा
सकता
है
और
यह
निरपेक्ष
सत्य
ही
जीवन
का
चरम
लक्ष्य
है।
यह
तथ्य
केवल
भावात्मक
सत्य
नहीं
है
इसकी
प्राप्ति
मानव
जीवन
में
की
जा
सकती
है।
उदाहरण
के
लिए
सभी
मनुष्यों
का
साथ-साथ
पुनरुत्थान
सर्वोतम
परम
लक्ष्य
है।
यह
एक
निरपेक्ष
सत्य
है।
सर्वोदय
जीवन
का
अन्तिम
लक्ष्य
है।
सर्वोदय
के
लिए
आवश्यक
है
कि
गरीबों
और
कमजोरों
का
शोषण
बन्द
हो, सभी देश
स्वतन्त्र
हों, संसार में
आर्थिक
और
सामाजिक
समानता
हो, ये पड़ाव
सापेक्ष
सत्य
है
जिनके
माध्यम
से
निरपेक्ष
सत्य
की
प्राप्ति
की
जा
सकती
है।
साधारण
शब्दों
में
नंगे
को
वस्त्रदान, भूखे को
अन्नदान
और
बेघर
को
आश्रय
दान
करना
सत्य
है।
यही
ईश्वर
है
और
इसे
ही
प्राप्त
करना
चाहिए।
अहिंसा - आध्यात्मिक
आदर्शवादी
महात्मा
गाँधी
का
अहिंसा
में
अटूट
विश्वास
था।
उनके
अनुसार
अहिंसा
मानव
का
प्राकृतिक
गुण
है।
मनुष्य
स्वभावतः
अहिंसा
प्रिय
है
तथा
वह
परिस्थितिवश
ही
हिंसात्मक
बनता
है।
आदिकाल
में
व्यक्ति
नरभक्षी
के
रूप
में
जीवन
व्यतीत
करता
था, आज सभ्य
और
सुसंस्कृत
प्राणी
बन
गया
है।
यह
सत्य
है
कि
संसार
में
हिंसा
भी
विद्यमान
है
और
कभी
- कभी यह बहुत
उग्र
रूप
धारण
कर
लेती
है, परन्तु मानव
समाज
के
विकास
का
इतिहास
यही
बताता
है
कि
मनुष्य
मूल
रूप
में
अहिंसा
प्रिय
है
और
उसकी
इस
अहिंसक
वृत्ति
के
कारण
ही
मानव
जाति
निरन्तर
बढ़ती
जा
रही
है।
गाँधीजी
का
मानना
था
कि
अहिंसा
हिंसा
की
तुलना
में
नैतिक
और
व्यावहारिक
दोनों
ही
दृष्टियों
से
अधिक
प्रभावशाली
है।
हिंसा
प्रति
हिंसा
को
जन्म
देती
है, लेकिन अहिंसा
विरोधी
के
मन
मस्तिष्क
पर
स्थायी
प्रभाव
डालती
है।
अहिंसा
की
सफलता
सुनिश्चित
है।
गाँधीजी
के
अनुसार
‘‘अहिंसा
ऐसा
शस्त्र
है, जिसे कोई
भी
भौतिक
बल
झुका
नहीं
सकता।
अहिंसा
की
शक्ति
को
संख्या
या
मात्रा
की
सीमा
में
नहीं
बाँधा
जा
सकता।’’[8]
महात्मा
गाँधी
की
अहिंसा
सम्बन्धी
धारणा
कोई
निषेधात्मक
धारणा
नहीं
थी।
प्राणी
मात्र
के
प्रति
मनसा, वाचा, कर्मणा सद्भावना
रखने
का
विचार
था, सर्वोच्च प्रेम
और
आत्म
बलिदान
की
धारणा
थी
जिसमें
घृणा
के
लिए
कोई
स्थान
नहीं
था।
अहिंसा
विरोधी
से
भी
प्यार
का
संदेश
देती
है
पर
इसका
आशय
यह
नहीं
कि
गाँधी
विरोधी
को
हिंसा
के
सम्मुख
झुकने
का
सन्देश
देते
थे।
उनका
मानना
था
कि
विपक्षी
की
बुराई
को
प्रेम
द्वारा
दूर
करने
में
अहिंसा
निहित
है।
गाँधी दर्शन
के
अनुसार
अहिंसा
तीन
प्रकार
की
हो
सकती
है
जाग्रत
अहिंसा, औचित्यपूर्ण अहिंसा
एवं
भीरूओं
की
अहिंसा।
जाग्रत
अहिंसा
वह
है
जो
व्यक्ति
में
अन्तरात्मा
की
पुकार
के
अनुसार
स्वभावतः
उत्पन्न
होती
है
और
व्यक्ति
अहिंसा
को
आन्तरिेक
विचारों
की
नैतिकता
के
कारण
स्वीकार
करता
है।
यह
अहिंसा
का
सर्वेश्रेष्ठ
रूप
है।
औचित्यपूर्ण
अहिंसा
वह
है
जो
जीवन
के
क्षेत्र
विशेष
में
आवश्यकतानुसार
एक
नीति
के
रूप
में
अपनाई
जाए।
यह
कमजोर
व्यक्तियों
के
लिए
है
पर
ईमानदारी
से
प्रयोग
करने
पर
लाभकारी
सिद्ध
हो
सकती
है।
भीरूओं
की
अहिंसा
निकृष्ट
अहिंसा
है।
‘‘कायरता
और
अहिंसा
आग
तथा
पानी
की
भांति
एक
साथ
नहीं
रह
सकते।’’ गाँधीजी के
स्वयं
के
शब्दों
में
‘‘यदि
हमारे
हृदय
में
हिंसा
भरी
है
तो
हम
अपनी
कमजोरी
को
छिपाने
के
लिए
अहिंसा
का
आवरण
पहनें
इससे
हिंसक
होना
अधिक
अच्छा
है।’’[9]
महात्मा
गाँधी
ने
जीवन
में
व्यावहारिक
प्रयोग
से
यह
सिद्ध
किया
कि
अहिंसा
आत्म
बल
का
प्रतीक
और
एक
ऐसा
अमोध
शस्त्र
है
जो
कभी
खाली
नहीं
जा
सकता।
गाँधीजी
की
अहिंसा
मोक्ष-प्राप्ति
का
ही
साधन
नहीं
है, वरन् सामाजिक
शान्ति, राजनीति व्यवस्था, धार्मिक समन्वय
और
पारिवारिक
निर्माण
का
भी
साधन
है।
गाँधीजी का
मानना
था
कि
अहिंसा
जन
साधारण
के
लिए
तो
आवश्यक
है
ही, नेताओं को
विशेष
रूप
से
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह
का
पालन
कर
जनता
के
सामने
आदर्श
प्रस्तुत
करना
चाहिए।
गाँधीजी
के
इस
विचार
को
काल्पनिक
साधुवाद
की
संज्ञा
दी
जाती
है।
लेकिन
महात्मा
गाँधी
ने
अपने
सार्वजनिक
जीवन
में
अहिंसा
का
पालन
करके
यह
सिद्ध
कर
दिया
कि
किसी
भी
प्रयासोन्मुख
व्यक्ति
के
लिए
यह
असम्भव
नहीं
है।
गाँधीजी
का
मानना
था
कि
नेताओं
का
अहिंसा
और
संयम
के
आदर्श
से
हटना
समाज
के
लिए
घातक
होगा।
हम
आज
की
परिस्थितियों
में
इस
बात
से
इन्कार
नहीं
कर
सकते
कि
नेताओं
का
संयमित
और
निस्वार्थी
होना
कितना
आवश्यक
है।
आज
राजनीतिक
मूल्यों
का
पतन
और
भ्रष्टाचार
का
चहुँओर
बोलबाला
है, जनता का
राजनीतिक
नेतृत्व
से
मोहभंग
हो
रहा
है।
राजनीति
मैली
हो
गई
है, इसे स्वच्छ
बनाने
के
लिए
गाँधीवाद
ही
समाधान
है।
‘‘आज
गाँधीवादी
अहिंसा
की
धारणा
का
उपहास
किया
जाता
है
जबकि
वास्तविकता
यह
है
कि
राष्ट्रीय
और
अन्तर्राष्ट्रीय
राजनीति
में
तथा
सामाजिक, धार्मिक समस्याओं
के
सन्दर्भ
में
गाँधीवादी
तकनीक
और
कार्यक्रम
को
प्रत्यक्ष-परोक्ष
रूप
में
व्यापक
समर्थन
मिल
रहा
है।’’[10]
जब पूंजीपतियों
से
स्वेच्छापूर्वक
आत्म
त्याग
की
बात
कही
जाती
है
तो
क्या
यह
गाँधीवादी
तरीका
नहीं
है? राष्ट्रों से
अन्तर्राष्ट्रीय
आचार
संहिता
के
पालन
का
आग्रह
किया
जाता
है।
संयुक्त
राष्ट्र
संघ
के
विभिन्न
अभिकरण
हिंसा, नरसंहार, बीमारियों, आर्थिक विषमताओं, मानवीय असमानताओं
का
उन्मूलन
करना
चाहते
हैं
तो
क्या
ये
गाँधीवादी
दर्शन
में
शामिल
नहीं
है? निजी एवं
सार्वजनिक
जीवन
की
सभी
समस्याओं
एवं
विवादों
का
समाधान
झगड़े
से
नहीं
बल्कि
प्रेम
से
ही
हो
पाता
है।
वास्तविकता
तो
यही
है
कि
किसी
भी
समाज
में
आज
तक
केवल
बल
प्रयोग
से
स्थायी
शान्ति
और
व्यवस्था
कायम
नहीं
रखी
जा
सकी
है।
हर
युग
में
सभ्य
समाज
का
मूलाधार
शान्ति
और
सहयोग
की
व्यापक
भावना
ही
रही
है।
यदि
हिंसा
ही
जीवन
का
नियम
होता
तो
क्या
मुट्ठी
भर
सिपाहियों
द्वारा
शान्ति
और
व्यवस्था
के
प्रयत्न
सफल
होते? मानव ने
साहित्य, संगीत, संस्कृति एवं
विज्ञान
के
विभिन्न
क्षेत्रों
में
जो
प्रगति
की
है, उसका मूलाधार
शान्ति
एवं
सहयोग
की
भावना
ही
है।
आज
विश्व
के
अनेक
देश
अपनी
रक्षा
के
लिए
सेना
की
आवश्यकता
भी
अनुभव
नहीं
करते, अनेक राष्ट्रों
ने
मृत्युदण्ड
को
समाप्त
कर
दिया
है।
आज
शान्ति
पर
आधारित
लोकतांत्रिक
शासन
व्यवस्था
सम्पूर्ण
विश्व
में
कायम
होने
जा
रही
है।
नाजीवाद, फासीवाद, तानाशाही राजव्यवस्थाओं
को
पसन्द
नहीं
किया
जाता।
दोनों
विश्व
युद्ध
भी
हिंसा
पर
आधारित
शासन
व्यवस्थाओं
द्वारा
प्रारम्भ
किये
गये।
यह
एक
ऐतिहासिक
तथ्य
है
कि
प्रथम
विश्व
युद्ध
के
बाद
वर्साय
की
सन्धि
द्वारा
विवाद
का
समाधान
किया
गया
था, विश्व शान्ति
के
लिए
राष्ट्र
संघ
का
गठन
किया
गया।
द्वितीय
विश्व
युद्ध
के
बाद
विश्व
शान्ति
के
स्थायी
प्रयास
के
रूप
में
संयुक्त
राष्ट्र
संघ
की
स्थापना
की
गयी।
इस
शीर्ष
संस्था
द्वारा
विश्व
शान्ति
एवं
विकास
के
प्रयास
निरन्तर
जारी
है।
प्रारम्भ
में
यूएनओ
सदस्य
संख्या
50 थी
जो
वर्तमान
में
200 के
लगभग
हो
गयी
है।
आज
लगभग
सभी
स्वतन्त्र
देश
संयुक्त
राष्ट्र
संघ
के
सदस्य
हैं
जो
शान्ति
और
अहिंसा
का
पाठ
पढ़ाने
वाली
विश्व
की
सबसे
बड़ी
संस्था
है।
संयुक्त
राष्ट्र
की
शांति
सेनाएँ
सम्पूर्ण
विश्व
में
शांति
एवं
व्यवस्था
स्थापित
करने
का
प्रयास
करती
है।
महात्मा
गाँधी
ने
जिस
अहिंसा, शांति और
संयम
का
सन्देश
दिया
वह
गम्भीर
चिन्तन
और
क्रियान्वयन
की
अद्वितीय
सामग्री
है, जिसे ठुकराने
से
मानव
जाति
का
कल्याण
नहीं
है।
कई
अन्तर्राष्ट्रीय
विचारक
जैसे
बट्रेण्ड
रसेल,
सोरोकिन
अर्नोल्ड
टॉमनवी, ममफर्डे आइंस्टाइन, लॉर्ड पैट्रिक
लॉरेन्स
आदि
विचारक
गाँधीवाद
के
समर्थक
हैं।
सत्याग्रह - गाँधीजी
की
सत्य
और
अहिंसा, साध्य और
साधना
की
श्रेष्ठता
तथा
व्यक्ति
की
नैतिक
पवित्रता
में
आस्था
थी, अपने इन्हीं
विचारों
के
आधार
पर
उन्होंने
बुराई
के
प्रतिरोध
में
एक
नवीन
मार्ग
का
आविष्कार
किया, जिसे सत्याग्रह
का
नाम
दिया
गया।
सत्याग्रह
की
पद्धति
गाँधीजी
की
विशेष
देन
है।
स्वयं
गाँधीजी
के
शब्दों
में
‘‘अपने
विरोधियों
को
दुःखी
बनाने
के
बजाय, स्वयं अपने
पर
दुःख
डालकर
सत्य
की
विजय
प्राप्त
करना
ही
सत्याग्रह
है।’’[11]
सत्याग्रह
वीर
मनुष्य
का
शस्त्र
है।
एक
सत्याग्रही
अपने
प्रतिद्वन्द्वी
से
आध्यात्मिक
सम्बन्ध
स्थापित
कर
लेता
है।
वह
उसमें
ऐसा
विश्वास
उत्पन्न
कर
देता
है
कि
वह
बिना
अपने
को
नुकसान
पहुंचाए
उनको
नुकसान
नहीं
पहुँचा
सकता।
सत्याग्रह
सत्य
की
विजय
हेतु
किए
जाने
वाले
आध्यात्मिक
और
नैतिक
संघर्ष
का
नाम
है।
सत्याग्रही
के
गुण-
गाँधीजी
के
अनुसार
प्रत्येक
व्यक्ति
सत्याग्रह
के
सिद्धान्त
पर
आचरण
नहीं
कर
सकता।
गाँधीजी
ने
हिन्द
स्वराज्य
में
सत्याग्रही
के
लिए
11 व्रतों
का
पालन
आवश्यक
बताया
है
ये
हैं
- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शारीरिक श्रम, अस्वाद, निर्भयता, सभी धर्मों
को
समान
दृष्टि
से
देखना, स्वदेशी तथा
अस्पृश्यता
निवारण।
सत्याग्रह
के विभिन्न
रूप -
(1) असहयोग आन्दोलन - गाँधीजी
मानते
थे
कि
कोई
भी
शासन
जनता
के
सहयोग
से
ही
अत्याचार
कर
सकता
है।
जनता
द्वारा
सहयोग
बन्द
कर
दिया
जाये
तो
शासन
सफल
नहीं
हो
सकता।
भारतीय
राष्ट्रीय
आन्दोलन
के
दोरान
1919-20 में
इसी
पद्धति
को
अपनाया
गया
था।
(2) सविनय अवज्ञा
- गाँधीजी इस
तकनीक
को
अधिक
प्रभावपूर्ण
मानते
थे
और
इसे
‘सैनिक विद्रोह
का
रक्तहीन
विकल्प’
की
संज्ञा
देते
थे।
इसका
प्रयोग
कुछ
विशेष
व्यक्तियों
द्वारा
किया
जाना
चाहिए।
किन
कानूनों
का
उल्लंघन
किया
जाए, यह बात
सत्याग्रहियों
द्वारा
नहीं
वरन्
नेता
द्वारा
निश्चित
की
जानी
चाहिए।
1931 में
नमक
कानून
आन्दोलन
के
रूप
में
गाँधीजी
द्वारा
इसी
शस्त्र
का
प्रयोग
किया
गया
था।
(3) हिजरत -
अर्थ
- स्थायी निवास स्थान
का
स्वैच्छिक
परित्याग।
ऐसे
व्यक्ति
जो
अपने
आपको
पीड़ित
अनुभव
करते
हों, आत्मसम्मान रखते
हुए
उस
स्थान
में
नहीं
रह
सकते
हों, अपनी रक्षा
के
लिए
हिंसक
शक्ति
नहीं
रखते
हों, उनके द्वारा
हिजरत
का
प्रयोग
किया
जा
सकता
है।
सन्
1918 में
बारडोली, 1939 में
बिट्ठलगढ़
और
लिम्बडी
की
जनता
को
गाँधीजी
के
द्वारा
हिजरत
का
सुझाव
दिया
गया।
(4) अनशन -
गाँधीजी
इसे
अत्यधिक
उग्र
शस्त्र
मानते
थे
तथा
सावधानी
से
प्रयोग
की
राय
देते
थे।
इसका
प्रयोग
कुछ
विषेष
अवसरों
पर
आत्मशुद्धि
या
अत्याचारियों
के
हृदय
परिवर्तन
के
लिए
किया
जाना
चाहिए।
इसका
प्रयोग
आध्यात्मिक
बल
सम्पन्न
लोग
ही
करें।
(5) हड़ताल -
हड़ताल
आत्मशुद्धि
के
लिए
किया
जाने
वाला
एक
स्वैच्छिक
प्रयत्न
है
जिसका
लक्ष्य
स्वयं
कष्ट
सहन
करते
हुए
विरोधी
का
हृदय
परिवर्तन
करना
है।
हड़ताल
करने
वाले
लोगों
की
मांगें
नितान्त
स्पष्ट
और
उचित
होनी
चाहिए।
आर्थिक
विचार :-
गाँधीजी
का
विचार
था
कि
सच्चा
अर्थशास्त्र
नैतिकता
के
महान
नियमों
के
प्रतिकूल
हो
ही
नहीं
सकता।
(1) औद्योगीकरण
का विरोध
- गाँधीजी केद्रीयकृत
अर्थव्यवस्था
का
विरोध
करते
थे।
औद्योगिक
क्रांति
के
बाद
बड़े
उद्योगों
की
स्थापना
के
लिए
बहुत
अधिक
मात्रा
में
कच्चे
माल
और
विक्रय
के
लिए
तैयार
माल
के
लिए
बड़े
बाजारों
की
आवश्यकता
होती
है।
बाजारों
की
खोज
की
प्रवृत्ति
के
कारण
साम्राज्यवाद
का
उदय
हुआ
जो
नैतिकता
के
विरूद्ध
है।
गाँधीजी
बड़ी
मशीनों
को
मानव
जाति
के
लिए
अभिशाप
मानते
थे
तथा
समाज
में
घृणा, द्वेष और
स्वार्थ
में
जो
वृद्धि
दिखाई
देती
है
वह
मशीनों
के
कारण
है।
औद्योगीकरण
के
परिणामस्वरूप
धन
थोड़े
से
व्यक्तियों
के
हाथ
में
केन्द्रित
हो
जाता
है, धनिक अधिक
धनी, निर्धन अधिक
निर्धन
होता
जाता
है।
राजनीतिक
शक्ति
का
भी
केद्रीयकरण
हो
जाता
है
जो
लोकतन्त्र
और
मानवीय
स्वतन्त्रता
दोनों
के
लिए
घातक
है।
गाँधीजी
सभी
प्रकार
की
मशीनों
के
विरूद्ध
नहीं
थे
जो
मशीन
सर्वसाधारण
के
हित
में
है
वे
उचित
है।
वे
रेल, जहाज, सिलाई मशीन, चरखा आदि
के
समर्थक
थे।
(2) कुटीर उद्योग-धन्धों
का समर्थन
- गाँधीजी द्वारा
औद्योगीकरण
का
विरोध
करते
हुए
कुटीर
उद्योग-धन्धों
पर
आधारित
एक
ऐसी
विकेन्द्रित
अर्थव्यवस्था
का
प्रतिपादन
किया
गया
जिसमें
प्रत्येक
गाँव
एक
आर्थिक
इकाई
के
रूप
में
कार्य
करेगा।
प्रत्येक
देश
की
अर्थव्यवस्था
वहीं
की
आन्तरिक
स्थितियों
पर
निर्भर
होती
है।
भारत
के
लिए
कुटीर
उद्योग-धन्धों
की
व्यवस्था
ही
सर्वोत्तम
है।
(3) प्रन्यास
सिद्धान्त - गाँधीजी
आर्थिक
विषमताओं
का
अन्त
करना
चाहते
थे
लेकिन
वे
आर्थिक
समानता
स्थापित
करने
के
साम्यवादी
ढंग
से
सहमत
नहीं
थे, जिसके अन्तर्गत
धनिकों
से
उनका
धन
बलपूर्वक
छीनकर
उसका
सार्वजनिक
हित
में
प्रयोग
करने
की
बात
कही
जाती
है।
गाँधीजी
मानते
थे
कि
यदि
सत्य
और
अहिंसा
के
आधार
पर
सार्वजनिक
हित
के
लिए
व्यक्तिगत
सम्पत्ति
ली
जा
सके
तो
ऐसा
अवश्य
ही
किया
जाना
चाहिए।
लेकिन
यदि
धनिक
वर्ग
ऐसा
करने
के
लिए
तैयार
न
हों
तो
स्वयं
की
सम्पत्ति
के
सम्बन्ध
में
उनके
दृष्टिकोण
में
परिवर्तन
किया
जाना
चाहिए।
दृष्टिकोण
में
परिवर्तन
के
लिए
महात्मा
गाँधी
के
द्वारा
‘प्रन्यास
सिद्धान्त’ का प्रतिपादन
किया
गया
था
जिसके
अनुसार
धनिकों
को
चाहिए
कि
वे
अपने
धन
को
अपना
न
समझ
कर
समाज
की
धरोहर
समझें
और
उसमें
से
अपने
ऊपर
जीवन-निर्वाह
मात्र
के
लिए
खर्च
करते
हुए
शेष
धन
समाज
के
हित
के
कार्यों
में
लगाएं, जो धनिक
ऐसा
न
करें, उनके विरूद्ध
भी
शक्ति
का
प्रयोग
न
किया
जाये
वरन्
अहिंसात्मक
असहयोग
और
सत्याग्रह
द्वारा
उनका
हृदय
परिवर्तन
करके
उन्हें
सत्य
मार्ग
पर
लाने
की
चेष्टा
की
जाये।
(4) अपरिग्रह
का सिद्धान्त
- गाँधीजी का
मत
था
कि
प्रकृति
स्वयं
उतना
उत्पादन
करती
है, जितना सृष्टि
के
लिए
आवश्यक
है।
इसलिए
प्रत्येक
अपनी
आवश्यकता
भर
के
लिए
प्राप्त
करे
और
अनावश्यक
संग्रह
न
करें।
गाँधीजी
सादगी
और
सन्तोषपूर्ण
जीवन
को
ही
आदर्श
समझते
थे।
(5) वर्ग सहयोग
की धारणा
- गाँधीवाद वर्ग
संघर्ष
की
धारणा
में
विश्वास
नहीं
करता।
गाँधीजी
के
अनुसार
श्रमिक
और
पूंजीपति
के
हित
परस्पर
विरोधी
नहीं
होते
वरन्
एक
ही
होते
हैं
और
उनके
द्वारा
सामूहिक
प्रयत्नों
के
आधार
पर
उद्योग
के
विकास
का
प्रयत्न
किया
जाना
चाहिए।
पूंजीपति
वर्ग
को
समाप्त
करने
के
बजाय
उसकी
शक्ति
को
सीमित
करना
ही
उपयोगी
होगा।
यह
कार्य
श्रमिकों
को
उद्योगों
के
प्रबन्ध
में
भागीदार
बनाकर
ही
किया
जा
सकता
है।
श्रमिक
धनिकों
के
सम्पर्क
में
रहेंगे
तो
वे
उनकी
बुद्धि
और
चातुर्य
से
लाभ
उठाकर
प्रगति
कर
सकेगें।
इस
सम्बन्ध
में
वे
एक
सुन्दर
उपमा
देते
हुए
कहते
हैं, ‘‘नदी के
किनारे
रहने
वाले
व्यक्ति
को
उस
व्यक्ति
की
अपेक्षा
जो
कि
एक
शुष्क
रेगिस्तान
में
रहता
है, अन्न पैदा
करने
के
अधिक
अवसर
प्राप्त
होते
हैं।’’
प्रासंगिकता
आचार्य कृपलानी
ने
गाँधीजी
पर
विचार
व्यक्त
करते
हुए
कहा
है
कि
‘‘राजनीति
का
सत्य, अहिंसा और
साधनों
की
पवित्रता
द्वारा
आध्यात्मीकरण
करके, अन्याय एवं
निरंकुशता
का
सत्याग्रह
द्वारा
सामना
कर
तथा
अपने
रचनात्मक
कार्यक्रमों
द्वारा
गाँधीजी
ने
सामाजिक, राजनीतिक एवं
आर्थिक
जीवन
का
संयोग
एवं
समन्वय
करने
का
प्रयत्न
किया
तथा
प्रभावकारी
लोकतन्त्र
की
स्थापना
कर
न्याय
एवं
समानता
पर
आधारित
समाज
की
नींव
डाली
और
इस
प्रकार
विश्व-शान्ति
के
लिए
मार्ग
प्रशस्त
किया।’’[12]
वैश्विक
स्तर
पर
व्याप्त
हिंसा, मतभेद, बेरोजगारी, मंहगाई तथा
तनावपूर्ण
वातावरण
में
आज
बार-बार
यह
प्रश्न
उठाया
जा
रहा
है
कि
गाँधी
के
सत्य
व
अहिंसा
पर
आधारित
दर्शन
और
विचारों
की
आज
कितनी
प्रासंगिकता
महसूस
की
जा
रही
है।
गाँधीवाद
का
विरोध
करने
वालों
में
अधिकांश
भारतीय
हैं
और
इन्होंने
गाँधी
के
विचारों
की
प्रासंगिकता
को
तब
भी
महसूस
नहीं
किया
था
जब
वे
जीवित
थे।
गाँधी
से
असहमति
के
इसी
उन्माद
ने
उनकी
हत्या
तो
कर
दी
परन्तु
आज
गाँधी
के
विचारों
से
मतभेद
रखने
वाली
उन्हीं
शक्तियों
को
भलीभांति
यह
महसूस
होने
लगा
है
कि
गाँधी
अपने
विरोधियों
के
लिए
दरअसल
जीते
जी
उतने
खतरनाक
नहीं
थे
जितने
की
हत्या
के
बाद
साबित
हो
रहे
हैं।
इसकी
वजह
केवल
यही
है
कि
जैसे-जैसे
सम्पूर्ण
संसार
हिंसा, आर्थिक मंदी, भूख, बेरोजगारी और
नफरत
जैसे
तमाम
हालातों
में
उलझता
जा
रहा
है
वैसे-वैसे
दुनिया
को
न
केवल
गाँधी
के
दर्शन
याद
आ
रहे
हैं
बल्कि
गाँधी
दर्शन
को
आत्मसात
करने
की
आवश्यकता
भी
बड़ी
शिद्दत
से
महसूस
की
जाने
लगी
है।
अमरीका
पर
9/11 को
हुए
आतंकवादी
हमले
ने
दुनिया
की
राजनीति
का
रुख
ही
बदलकर
रख
दिया।
अमरीका
के
राष्ट्रपति
जॉर्ज
डब्ल्यू
बुश
ने
आतंकवाद
के
विरुद्ध
युद्ध
की
घोषणा
कर
डाली।
अफगानिस्तान
और
ईराक
में
युद्ध
किया।
अधिकतम
देश
अमरीका
के
पक्ष
में
थे
और
चाहते
थे
कई
दशकों
से
आतंकवाद
का
दंश
झेल
रहे
देशों
को
आतंकी
घटनाओं
से
छुटकारा
मिले
तथा
दुनिया
शांति
व
अमन
चैन
से
रह
सके।
दुनिया
की
मनोकामनाएँ
धरी
की
धरी
रह
गई।
राष्ट्रपति
बुश
के
पूरे
शासनकाल
के
दौरान
दुनिया
के
किसी
भी
देश
में
आतंकवाद
का
सफाया
नहीं
हो
सका।
ओबामा
के
शासनकाल
में
2014 में
सीरिया
एवं
ईराक
में
आई
एस
आई
एस
संगठन
के
विरूद्ध
अमेरिका
तथा
सहयोगी
देशों
ने
युद्ध
लड़ा, युद्ध लम्बा
चला
लेकिन
आतंकवाद
आज
भी
कायम
है।
हिंसा
का
हिंसा
द्वारा
समाधान
नहीं
हो
सका।
गाँधीवाद
तकनीक
सत्याग्रह
एवं
अहिंसा
का
सफल
प्रयोग
दक्षिण
अफ्रीका
में
नेल्सन
मंडेला
द्वारा
रंगभेद
की
समाप्ति
हेतु
तथा
संयुक्त
राज्य
अमेरिका
में
मार्टिन
लूथर
किंग
जूनियर
द्वारा
अश्वेतों
के
अधिकारों
के
लिए
किया
गया
जिसकी
परिणति
अमेरिका
के
44वें
राष्ट्रपति
के
रूप
में
बराक
ओबामा
का
चुना
जाना
है।
विश्व
के
कई
अन्य
भागों
में
भी
विरोध
के
गाँधीवादी
तकनीक
का
प्रयोग
किया
जाता
रहा
है।
सामुदायिक
कट्टरता
और
आतंकवाद
के
इस
दौर
में
गाँधीवाद
तब
और
प्रासंगिक
हो
जाता
है
जब
सामुदायिक
सद्भावना
बनाये
रखने
के
लिए
गाँधीजी
सभी
धर्मों
के
प्रति
समान
आदर
भाव
रखने
को
कहते
हैं।
आज
भी
भारत
में
साम्प्रदायिक
तनाव
के
शमन
के
प्रभावी
उपाय
के
रूप
में
सर्वधर्म
प्रार्थना
सभा
एवं
प्रभात
फेरी
जैसी
तकनीक
का
प्रयोग
सामान्य
है।
गाँधीवाद
की
प्रासंगिकता
के
कारण
ही
संयुक्त
राष्ट्र
संघ
ने
गाँधीजी
की
जन्मतिथि
2 अक्टूबर
को
विश्व
अहिंसा
दिवस
के
रूप
में
मान्यता
प्रदान
की
है।
सर्वधर्म सद्भाव
की
जीती
जागती
तस्वीर
समझे
जाने
वाले
गाँधीजी
मानते
थे
कि
हिंसा
की
बात
चाहे
किसी
भी
स्तर
पर
क्यों
न
की
जाए
परन्तु
वास्तविकता
यही
है
कि
हिंसा
किसी
भी
समस्या
का
सम्पूर्ण
एवं
स्थायी
समाधान
कतई
नहीं
है।
जिस
प्रकार
आज
के
दौर
में
आतंककवाद
व
हिंसा
विश्व
स्तर
पर
अपने
चरम
पर
दिखाई
दे
रही
है
तथा
चारों
ओर
गाँधी
के
आदर्शों
की
प्रासंगिकता
की
चर्चा
छिड़ी
हुई
है।
ठीक
उसी
प्रकार
गाँधीजी
ने
अहिंसा
की
बात
उस
समय
करते
थे
जबकि
हिंसा
अपने
चरम
पर
होती
थी।
अहिंसा
से
हिंसा
को
पराजित
करने
की
सारी
दुनिया
को
सीख
देने
वाले
गाँधीजी
स्वयं
गीता
से
प्रेरणा
लेते
थे।
श्री
कृष्ण
द्वारा
अर्जुन
को
दिए
गए
निष्काम
कर्म
के
सन्देश
से
वे
अत्यधिक
प्रभावित
थे।
गाँधीजी
ने
गीता
के
इस
सन्देश
को
स्वयं
अपने
जीवन
में
उतारा
था।
वास्तव
में
आज
जीवन
के
प्रत्येक
क्षेत्र
में
इसी
सन्देश
की
प्रासंगिकता
महसूस
की
जा
रही
है।
आज
राजनीति
में
सक्रिय
लोग
अधिकांशतः
सत्ता
को
हासिल
करने
के
लक्ष्य
को
केन्द्र
में
रखकर
अपनी
राजनीतिक
बिसात
बिछाते
हैं,
बजाए
इसके
कि
यदि
तथाकथित
राजनेता
समाज
सेवा
के
माध्यम
से
विकास
व
प्रगति
के
नाम
पर
जनकल्याण
से
जुड़े
मुद्दों
के
आधार
पर
अशिक्षा, बेरोजगारी दूर
करने
के
नाम
पर
स्वास्थ्य
सेवाएँ
मुहैया
कराने, सड़क, बिजली व
पानी
जैसी
मनुष्य
की
बुनियादी
जरूरतों
को
पूरा
करने
के
नाम
पर
मतदाताओं
के
मध्य
जाकर
उनका
समर्थन
मांगे
तथा
अपने
किए
गए
कार्यों
के
नाम
पर
जनसमर्थन
जुटाने
की
कोशिश
करें।
ठीक
इसके
विपरीत
अब
बिना
कर्म
किए
फल
प्राप्त
करने
अर्थात्
राजसत्ता
को
दबोचने
का
प्रयास
किया
जाने
लगा
है।
इस
शॉर्टकट
अपनाने
का
दुष्परिणाम
यही
है
कि
आज
पूरे
भारत
में
साम्प्रदायिकता
फल-फूल
रही
है।
दुनिया
के
अन्य
कई
देश
भी
इस
समय
साम्प्रदायिकता
तथा
जातिवाद
की
पीड़ा
से
प्रभावित
हैं।
सता
हासिल
करने
के
लिए
कहीं
साम्प्रदायिक
दंगें
करवा
दिए
जाते
हैं
तो
कहीं
भाषा, जाति, वर्ग भेद
की
लकीरें
खींच
दी
जाती
हैं।
एक
राज्य
विशेष
के
कुछ
संकीर्ण
मानसिकता
के
लोग
पूरे
उत्तर
भारतीयों
के
विरूद्ध
नफरत
के
बीज
बो
रहे
हैं।
राजसता
रूपी
फल
को
प्राप्त
करने
के
लिए
इनकी
स्थिति
एक
विषयान्ध
जैसी
हो
गई
है
और
एक
विषयान्ध
व्यक्ति
नीतियों, सिद्धान्तों यहाँ
तक
की
मानवता
को
ही
त्याग
देता
है
तथा
लक्ष्य
को
अर्जित
करने
के
लिए
निम्न
से
निम्न
स्तर
तक
के
फैसले
लेने
में
नहीं
हिचकिचाता।
हम एक
ऐसे
समय
में
जी
रहे
हैं
जिसमें
वैश्वीकरण
और
उदारीकरण
की
नीतियों
ने
विश्वभर
के
देशों
में
हलचल
मचा
रखी
है।
विश्व
की
सबसे
प्राचीन
पारिवारिक
उत्थान
की
परम्परा
को
केन्द्रीय
और
बड़े
पैमाने
की
उत्पादन
की
प्रणाली
ने
हिलाकर
रख
दिया
है।
इससे
उत्पन्न
पर्यावरण
संकट
ने
मनुष्य
के
अस्तित्त्व
पर
ही
प्रश्न
चिह्न
लगा
दिया
है।
हमारे
देश
में
भी
उदारीकरण
के
फलस्वरूप
आम
आदमी
के
सम्मुख
आमदनी, रोजगार और
पर्यावरण
का
संकट
खड़ा
हो
गया
है।
इससे
कई
राज्यों
में
असंतोष, आक्रोश और
अलगाव
के
स्वर
उठने
लगे
हैं।
आज
हमारे
सामने
अत्यन्त
उदारीकृत
पूंजीवाद
संकुचित
आस्थाओं
के
गठजोड़
के
साथ
उपस्थित
हैं।
महात्मा
गाँधी
के
विचार
बड़े
पैमाने
पर
उत्पादन
के
विरोध
में
कार्ल
मार्क्स
से
भी
अधिक
क्रांतिकारी
हैं।
गाँधी
इस
देश
की
विराट
परम्परा
के
गर्भ
से
पैदा
हुए
थे।
यह
विराट
परम्परा
कभी
खत्म
होने
वाली
नहीं
है।
आजकल
कई
लोग
गाँधी
के
चरखे
का
मजाक
उड़ाते
हैं
वे
नहीं
जानते
कि
औधोगिक
उपनिवेशवाद
और
गरीबी
से
लड़ने
में
स्वदेशी
आन्दोलन
का
कितना
भारी
प्रभाव
इग्लैण्ड
की
अर्थव्यवस्था
पर
पड़ा
था।
लंदन
की
प्रतिष्ठित
पत्रिका
‘यूनिटी’ में 6 नवम्बर
1922 को
प्रकाशित
एक
लेख
के
अनुसार
गाँधीजी
के
स्वदेशी
आन्दोलन
के
कारण
हिन्दुस्तान
में
आन्तरिक
राजस्व
में
7 हजार
करोड़
पौंड
और
इंग्लेण्ड
पहुँचने
वाले
राजस्व
में
2 हजार
करोड़
पौंड
की
गिरावट
केवल
एक
वर्ष
में
देखी
गई
है।
भारत
में
माल
न
बिकने
के
कारण
लंकाशायर
और
मैनचेस्टर
में
कपड़ों
की
मीलें
एक
के
बाद
एक
बंद
होने
लगी
हैं।
गाँधीजी
जब
प्रथम
गोलमेज
सम्मेलन
में
भाग
लेने
1931 में
इंग्लैण्ड
पहुंचे
थे
तो
वहाँ
की
अधिकांश
कपड़ा
मीलें
बंद
थी।
इंग्लैण्ड
के
मजदूरों
ने
गाँधीजी
के
स्वदेशी
आन्दोलन
के
विरोध
में
प्रदर्शन
किया
था।
गाँधीजी
ने
मजदूरों
की
सभा
में
बताया
कि
इंग्लैण्ड
में
बेरोजगारों
की
संख्या
30 लाख
है
जबकि
इंग्लैण्ड
की
नीतियों
के
कारण
भारत
में
30 करोड़
लोग
बेरोजगार
हो
गये
हैं।
गाँधीजी पहले
ही
भांप
चुके
थे
कि
वैश्विक
समाज
के
निर्माण
के
साथ
ही
सम्प्रभु
राष्ट्रों
को
न
सिर्फ
राजनैतिक
एवं
सांस्कृतिक
उपनिवेशवाद
से
बल्कि
औद्योगीकरण
के
साथ
ही
वर्ग
संघर्ष
एवं
पर्यावरणीय
समस्या
से
भी
रूबरू
होना
पड़ेगा
जो
समय
के
साथ
सत्य
सिद्ध
हुआ।
साम्यवादी
रूस
के
पतन
के
साथ
ही
वैश्विक
अर्थव्यवस्था
पर
पूंजीवदी
विचारधारा
का
प्रभुत्त्व
हो
गया
परन्तु
वालस्ट्रीट
संकट
ने
एक
बार
फिर
गाँधीवाद
को
प्रासंगिक
बना
दिया
है
कि
समाज
को
अपनी
अधिकतम
आवश्यकताओं
के
लिए
आत्मनिर्भर
एवं
न्यूनतम
हेतु
परस्पर
निर्भर
होना
चाहिए।
डब्ल्यूटीओ
में
विकसित
एवं
विकासशील
देशों
के
मध्य
कृषि
सब्सिडी
को
लेकर
चल
रही
गर्मागर्म
बहस
किसानों
के
हित
रक्षा
सम्बन्धी
गाँधीजी
के
विचारों
की
प्रासंगिकता
को
रेखांकित
करता
है।
आज
दुनिया
के
किसी
भी
देश
में
शांति
मार्च
का
निकलना
हो
अथवा
अत्याचार
व
हिंसा
का
विरोध
किया
जाना
हो
या
हिंसा
का
जवाब
अहिंसा
से
दिया
जाना
हो
ऐसे
सभी
अवसरों
पर
पूरी
दुनिया
को
गाँधीजी
याद
आ
ही
जाते
हैं।
गाँधीजी
और
उनके
विचार
दर्शन
कल
भी
प्रासंगिक
थे, आज भी
हैं
और
कल
भी
रहेंगे।
संदर्भ :
[1] महात्मा गाँधी, हरिजन, 02 मार्च 1934
[2] वही
[3] महात्मा गाँधी, नवजीवन, 30 जनवरी 1921
[4] M.K. Gandhi : My experiment with truth, p. 591
[5] प्रभुदत्त शर्मा : आधुनिक राजनीतिक विचारों का इतिहास(बेन्थम से
अब तक), कॉलेज बुक डिपो, जयपुर
[6] महात्मा गाँधी : कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी, खंड – 78,
पृ. 390
[7] पुखराज जैन :प्रतिनिधि भारतीय राजनीतिक विचारक, साहित्य भवन
पब्लिकेशन्स
[8] महात्मा गाँधी : नवजीवन, 01 जनवरी 1921
[9] वही
[10] प्रभुदत्त शर्मा : आधुनिक राजनीतिक विचारों का इतिहास(बेन्थम से
अब तक), कॉलेज बुक डिपो, जयपुर
[11] महात्मा गाँधी, नवजीवन, 30 जनवरी 1921
[12] J.B. Kriplani, His life and thaught, p. 335
सह आचार्य राजनीति विज्ञान, श्रीमती नर्बदा देवी बिहानी, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नोहर
सम्पर्क : sarojnyol73@gmail.com
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