- देवेन्द्र कुमार
शोध
सार : हिंदी
कविता
ने
अपनी
यात्रा
के
लगभग
एक
हज़ार
साल
पूरे
कर
लिए
हैं।
इतने
लंबे
समय
में
कविता
ने
भाव
और
शिल्पगत
पक्षों
की
एक
सुदीर्घ
और
परिवर्तनशील
यात्रा
की
है।
भाषायी
आधार
पर
हिंदी
कविता
अपभ्रंश,
अवधी
और
ब्रज
से
होते
हुए
समकालीन
हिंदी
खड़ी
बोली
तक
पहुँची
है।
भारतेंदु
युग
में
कविता
का
आग्रह
ब्रज
की
तरफ़
था
जबकि
महावीर
प्रसाद
द्विवेदी
के
बाद
से
ही
कविता
की
भाषा
लगातार
बदलती
रही
है।
छायावादी
अस्पष्टता
के
बाद
हिंदी
कविता
की
प्रगतिशील
धारा
ने
भावों
को
स्पष्ट
रूप
से
पाठकों
के
सामने
रखा।
इस
धारा
के
कवियों
में
नागार्जुन
ने
अपने
तल्ख़
तेवर
और
व्यंग्यात्मक
भाषा
से
पाठकों
में
अलग
ही
स्थान
निर्धारित
किया।
नागार्जुन
अपनी
काव्य-भाषा
में
शब्द
के
किसी
भी
स्वरूप
से
विभेद
या
दुराग्रह
नहीं
रखते
हैं।
ऐसा
प्रतीत
होता
है
कि
वे
बाज़ार,
पान
की
गुमटी,
खेत-खलिहान,
किसान-मजदूरों
और
कामगार
वर्ग
से
शब्द
चुनते
हैं
और
उसे
सर्जनात्मक
रूप
देकर
अपनी
कविता
में
प्रस्तुत
करते
हैं।
प्रस्तुत
आलेख
में
नागार्जुन
की
काव्य-भाषा
की
इसी
समृद्धि
पर
विचार
किया
गया
है।
बीज
शब्द : भाषा,
काव्य-भाषा,
हिंदी,
उर्दू,
अंग्रेजी,
कविता,
प्रगतिशील,
प्रगतिवाद,
जनभाषा,
लोकभाषा,
मैथिली।
मूल
आलेख : नागार्जुन
बहुभाषी
थे,
उन्होंने
हिंदी,
संस्कृत,
मैथिली
तथा
बंगला
में
साहित्य
सृजन
किया।
इसके
अतिरिक्त
पालि,
प्राकृत,
उर्दू,
पंजाबी,
गुजराती,
मराठी,
उड़िया
आदि
भाषाओं
का
भी
उन्हें
ज्ञान
था।
इसी
कारण
उनके
काव्य-कर्म
में
इन
सभी
भाषाओं
के
शब्द
तथा
अन्य
विशिष्टताएँ
दृष्टिगत
होती
है।
चूँकि
नागार्जुन
की
आरंभिक
शिक्षा–दीक्षा
संस्कृत
में
हुई।
अतः
उनके
संस्कार
संस्कृत
भाषा
के
हैं।
इसके
साथ-साथ
मैथिली
को
वे
अपनी
मातृभाषा
मानते
हैं
जिसका
प्रभाव
उनके
मनोमस्तिष्क
पर
हमेशा
रहा।
नागार्जुन
ने
अपने
कवि
जीवन
का
आरंभ
पहले
संस्कृत
में
तथा
बाद
में
मैथिली
में
किया।
हिंदी
में
तो
वे
बाद
में
आए
तथा
बांग्ला
में
तो
काफ़ी
दिनों
बाद
उन्होंने
काव्य
सर्जना
आरंभ
की।
अतः
हम
कह
सकते
हैं
कि
नागार्जुन
उपर्युक्त
भाषाओं
की
मूल
भाषिक
संवेदनाओं
को
लेकर
हिंदी
में
आए।
अपनी
उर्वर
कल्पना
शक्ति
के
सहयोग
से
उन्होंने
ऐसे
प्रयोग
किए
जिससे
भाषिक
संप्रेषण
में
वृद्धि
हो।
इस
कार्य
हेतु
उन्होंने
कभी
भी
किसी
भाषा
के
शब्द
लेने
से
परहेज़
नहीं
किया।
नागार्जुन
के
यहाँ
लोक
भाषाओं
जैसे
मैथिली,
भोजपुरी,
अवधि,
मगही
आदि
के
साथ-साथ
उर्दू
अरबी-फ़ारसी,
तुर्की,
अंग्रेज़ी
आदि
भाषाओं
का
भी
प्रयोग
दृष्टव्य
है।
नागार्जुन
बताते
हैं
कि
“भाषा बहुत धीरे-धीरे
आकार
ग्रहण
करती
है
और
विकसित
होती
है।
हर
भाषा
का
अपना
एक
अलग
रूप,
एक
अलग
जादू
होता
है।
विषय
के
अनुसार
भाषा
अपना
रूप
बदल
लेती
है।
हमारे
सामाजिक
संघर्षों
में
भाषा
की
भूमिका
नींव
की
तरह
है।
लेखक
भाषा
का
प्रवर्तक
और
संरक्षक
माना
जाता
है।
शब्द
कहाँ
जाकर
चोट
करते
हैं,
यह
जानना
कठिन
है।
भाषा
गहरी
और
संप्रेषणीय
होने
के
साथ-साथ
सजग
होनी
चाहिए।
सम्प्रेषणीयता
के
अभाव
में
भाषा
निर्जीव
हो
जाती
है।
समय
के
प्रति
चौकस
रहते
हुए
जीवन
के
प्रति
सर्वांग
संपन्न
दृष्टि
जरूरी
है।
पाठक
की,
आम
जनता
की
एक
भाषा
होती
है।
उससे
एकदम
दूर
न
हो
पर
उसका
विकास
जरूरी
है।
कविता
का
अर्थ
सपाटबयानी
भी
नहीं
हो
सकता।
कलात्मक
प्रयोग
भी
एक
सीमा
तक
हो।
भाषा
में
सौंदर्य
और
व्यंजना
तो
होनी
ही
चाहिए।’’1
इसके
साथ-साथ
नागार्जुन
भाषिक
सम्प्रेषणीयता
के
संदर्भ
में
कहते
हैं
कि–
“भाषिक संरचना तो
पाठक
को
समझनी
ही
होगी।
सम्प्रेषणधर्मी
का
अर्थ
व्यंजना
या
लक्षणा
से
विहीन
कविता
नहीं
होती।
आपको
यदि
उनके
बीच
पहुँचना
है
तो
छंद,
तुकबंदी
और
लय
जरूरी
है।
उनके
बीच
जाकर
और
गाकर
सुनाने
की
क्षमता
और
साहस
होना
चाहिए।
जनता
मेरी
भी
सभी
रचनाओं
को
कहाँ
पसंद
करती
है।
जनता
हमारे
यहाँ
इतनी
शिक्षित
नहीं
है
कि
वह
कालिदास
के
मेघदूत
को
समझ
सके।
यह
कवि
का
काम
है
कि
वह
अपने
को
सम्प्रेष्य
बनाए।
उनके
बारे
में
उनकी
ही
भाषा
में
लिखना
होगा।
कविता
अधिक
लंबी
न
हो
और
करंट
टॉपिक
पर
होनी
चाहिए।
गहरी
अर्थवत्ता
के
साथ-साथ
कविता
सहज
और
सरल
होगी
तभी
जनसमूह
को
तरंगित
करेगी।”2
भाषा
का
विराट
संसार
नागार्जुन
के
पास
है।
उन्होंने भाव के
अनुरूप
भाषा
को
अपनाया।
हिंदी
प्रदेश
की
सर्वहारा
जनता; यथा-
किसान,
मज़दूर एवं निम्न
मध्यवर्गीय
लोग
जिस
भाषा
का
उपयोग
करते
हैं
उसी
भाषा
का
परिष्कृत
रूप
नागार्जुन
के
यहाँ
देखने
को
मिलता
है।
इसी
जनता
को
ध्यान
में
रखकर
नागार्जुन
ने
अपना
साहित्य
सृजित
किया
और
काव्य
भाषा
सम्बन्धी
अपने
दायित्व
को
बखूबी
पहचाना।
जिसे
नामवर
सिंह
के
अनुसार
गाँव
के
ठेठ
शब्दों
की
‘झोंक’ से महकती
हुई
भाषा
कह
सकते
है।
यह
भाषा
ठेठ जन-जीवन
की
है
जो
जीवंत
लोक-धर्म
की
संवाहक
है।
इसका
प्रमाण
हमें
‘हरिजन गाथा’ में
मिलता
है,
जब
नागार्जुन
चमारटोली
पर
कवि दृष्टि डालते
हैं
–
‘‘पैदा हुआ
है
दस
रोज
पहले
अपनी
बिरादरी
में
क्या करेगा
भला
आगे
चलकर
राम जी
के
आसरे
जी
गया
अगर
कौन -सी
माटी
गोड़ेगा
कौन-सा
ढेला
फोड़ेगा।’’3
वहाँ
राम
जी
के
आसरे
जीना,
माटी
गोड़ना
और
ढेला
फोड़ना
आदि
चमारटोली
की
जीवंतता
की
मिसाल
है।
गाँव
की
धरती-धरती
है,
पनहाई
हुई
गाय
नहीं,
यह
भाषा
ग्राम्य
जीवंतता
को
पेश
करती
है।
मयस्सर
नहीं
बिता
भर
ज़मीन
इसी
प्रकार
के
उदाहरण
हैं।
नेवला
शीर्षक
कविता
में
भोजपुरी
का
सुंदर
प्रयोग
देखने
को
मिलता
है
जैसे
- क्या होगा सरऊ
को
ज़्यादा
खीर
चटाकर,
‘बड़े किरपिन हो
यार’,
‘दुलरूवा नेवला’ जिसका
नाम
‘मोतिया’ है। इनकी
‘झौंकमारती’ बोलियों
का
एक
जीवंत
खाकादृभभाकर हँसना,
मुलुरद्रमुलुर
देखना,
पीनिक,
टुकुर-टुकुर
ताकना,
फल्गु
नदी
के
उन
बलुहटी
ग्रामांचलो
में,
मगर
इसके
कपार
में
लिखा
था,
अपन
तो
भई
थेथर
है,
यब्भागा,
वभागा,
भूमि
चोर,
गोड़
चाँपना,
चार
ठो
वातायन,
बंटाधार,
ताबड़तोड़
पिलद्रपिल,
बुकनि,
अण्डबंड,
धड़ाका,
भिड़ंत,
तिडि-बीड़ी,
खाह
खा
हँसना,
बुक्का
फाड़कर
रोना,
बिड़बड
बोलना,
बहुत
जोहा
बाट,
पुखा
सिंहकी,
पूँज
की
रस्सियों
वाले
मोढ़े
पर,
दोस्ती
गाँठना,
सुसताना,
पतइयों
का
कौड़ा
तापना,
कनखी
मारना,
भीत,
पोर-पोर
आदि
बहुतायत
में
पाए
जाते
है।
इन
बोलियो
एवं
भाषाओं
द्वारा
कभी
कभी
अश्लीलता
एवं
भदेसपन
तक
जाने
से
भी
नहीं
हिचकता
है
– ‘मन करता है
नंगा
होकर’,
‘एक दूसरे का
गुह्य
अंग
सूँघ
रहे
है,
फैल
गया
है
दिव्य
मूत्र
का
लवण
सरोवर,
वे
अंदर
से
बांस
करेंगे,
मैं
बाहर
से
बांस
करूंगा’,
हमारे
बच्चे
की
जूजी
न
काट
खाए’
आदि।
रामविलास
शर्मा
मानते
हैं
कि
–“उनकी कविताएँ
लोक
संस्कृति
के
इतना
नज़दीक
है
की
इसी
का
एक
विकसित
रूप
मालूम
होती
है”।4
नागार्जुन
की
इतिहास
दृष्टि
चूँकि
जनोन्मुख
थी
इसी
कारण
उन्होंने
भरुगवा,
टिकोरे,
नेह
-छोह, चकल्लस, कित्ते,
कुच्छो,
ठो,
निचाट,
कलमुँही,
बसंफोड़,
चोट्टे,
पानी,
ससुरे,
फुसफुस,
भुक्कड,
मिसिल,
छुट्टा,
खूसट,
बौंडम,
अरी,
छिटकना,
दो
जने,
फूट्टियाँ,
छतिया
आदि
शब्दों
का
प्रयोग
किया।
नागार्जुन
ने
अपने
भावों
की
सम्प्रेषणीयता
को
अधिक
बढ़ाने
के
लिए
जन
में
व्यक्त
विदेशी
शब्दों
का
भी
खुलकर
प्रयोग
किया।
उदाहरणतया
‘केवल पलटनिया
हाथी
पावेगा
दाना
पानी’
[बजट वार्तिक]
यहाँ
‘प्लुटेन का पलटन’
और
उससे
पल्टनिया
विशेषण
बन
जाना
पूरी
तरह
हिंदी
भाषा
की
प्रकृति
के
अनुरूप
है।
इसी
प्रकार
‘दुएल से तौलिए’
आदि
बने
है।
एक
दूसरा
उदाहरण
–
“खा रे
खा।
तेरे
ख़ातिर
बाबा आज
खीर-पाटी
दे
रहे
है।”5
यहाँ
‘पार्टी’ में रेफ
का
लोप
होकर
‘पाटी’ शब्द बन
गया।
अंग्रेज़ी
शब्दों
के
ये
तद्भव
रूप
हिंदी
में
पूरी
तरह
से
खप
गए
हैं।
नागार्जुन
की
इतिहास
दृष्टि
की
जनवादी
स्वरूप
के
कारण
‘पल्टनिया’, ‘पाटी’,
‘तौलिए’ आदि प्रयोग
भाषा
को
जनवादी
रूप
देने
कि
लिए
है।
उदाहरणार्थ
–
‘यह लीलफेट
गिरा’।
[वह कौन था
]
‘सूरज फ्यूज़
हो
जाएगा’
[सूरज सहमकर उगेगा]
‘हत्यारा क्या
ऑटोमटिक’
‘बंदूको के
गुण
गाएगा’
[देवी लिबर्टी]
उपर्युक्त
सभी
अंग्रेज़ी
शब्दों
के
लिए
उनका
तद्भव
रूप
हिंदी
में
प्रचलित
नहीं
है।
अतः
उन्हें
नागार्जुन
ने
वैसे
ही
रखा।
उनकी
कविताओं
में
निम्न
विदेशी
शब्दों
का
प्रयोग
दृष्टव्य
है
- नेलपालिश, रिस्टवॉच,
पोस्टर,
ट्रेन,
प्लेटफार्म,
गिफ़्ट,
मैडेल,
कैम्प,
बैलेट,
पेपेर,
डियर,
हैलो,
कैपिटल,
स्कोर,
मिनिस्टर,
अफसर,
लिमिटिड,
कम्पनी आदि आदि।
विदेशी
शब्दों
से
ही
अरबी
-फ़ारसी -तुर्की आदि
के
सबद
आते
हैं।
नागार्जुन
जैन
अरबी
-फ़ारसी का प्रयोग
करते
हैं
तो
उनमें
सहजता,
स्वाभाविकता
तथा
बोधगम्यता
का
पुट
अधिक
रहता
है।
उनके
काव्य
में
व्यवहृत
अरबी-फ़ारसी
शब्दावली
इस
तरह
जंगबाज,
बर्बर,
मुर्दाबाद,
ज़ालिम,
गमगीन,
दरमियान,
दंगे,
सही-
सलामत,
नाश,
बेदाग़,
शैतान,
वर्ना,
ख़ैर,
बदतमीज़,
बदजुबान,
मनसूबा
मुहर,
नसबंदी,
अदना,
लफड़ा,
बन्दूक,
तकलीफ़,
ज़रूरत,
हाकिम,
तनख़्वाह,
आज़ादी,
सिर्फ़,
आवाम,
फ़िलहाल,
नाश्ता,
तबादला,
दुरुस्त,
नाज़,
नख़रे,
बेगम,
गुफ़्तगू,
गोश्त,
ख़त्म,
उस्ताद,
फुर्ती,
ज़्यादा,
हज़ूम,
आज़माइश,
अमूमन,
मज़ा,
मगर,
पाबंदी
आदि। नागार्जुन ने अपने
भावों
की
अभिव्यक्ति
के
लिए
तुर्की
शब्दों
का
भी
प्रयोग
किया
है।
उनमे
उजबक,
उर्दू,
अरमान,
कुली,
खाम,
चाकू,
चम्मच,
दरोग़ा,
बावर्ची,
मशाल,
लाश,
सौग़ात
आदि
शब्द
प्रमुख
है।
नागार्जुन
संस्कृत
के
प्रकाण्ड
पंडित
थे।
उन्हें
संस्कृत
भाषा
तथा
संवेदना
का
ज्ञान
संस्कार
रूप
में
प्राप्त
हुआ।
नागार्जुन
ने
संस्कृत
शब्दों
का
प्रयोग
सुगढ़ता
लाने
के
लिए
किया
है।
कहीं
वे
संस्कृत
शब्दों
के
प्रयोग
से
अपने
मन
के
प्रेम,
आदर
और
उल्लास
जैसे
उद्दात
भावों
की
अभिव्यक्ति
करते
हैं
और
कहीं
उन्हीं
के
प्रयोग
से
उपहास,
व्यंग्य,
घृणा
आदि
की।
लेनिन
के
बारे
में
जब
वे
कहते
है
कि
‘जन -समुद्र में
मीन
सम्मान गुप्त प्रकट
फिरे
अंतर्धान
तो
यहाँ
उनके
द्वारा
प्रयुक्त
शब्द
सर्वहारा,
के
महान
नेता
के
प्रति
उनका
गहरा
आदर-भाव
व्यक्त
करते
हैं।
यही
बात
हम
उनकी
‘रहे गूंजते बड़ी
देर’
तक
कविता
की
इस
पंक्ति
में
देखते
हैरु
‘दंग रह गए
नयन,
दिखे
शिशु
कर-चरणों
के
नर्तन।’
यहाँ
शिशु
कर-चरणों
के
नर्तन
इस
अंश
में
प्रयुक्त
संस्कृत
शब्द
मज़दूरों
के
प्रति
उनके
स्नेह
और
उनके
मन
के
उल्लास
की
अभिव्यक्ति
करते
हैं।
राजकमल
चौधरी
के
लिए
कविता
में
संस्कृतनिष्ठ
शब्दावली
का
प्रयोग
हुआ
है
जहां
पर
संस्कृत
शब्दों
के
प्रयोग
से
काव्य
में
लालित्य
लाया
जा
सकता
है,
वहाँ
निसंकोच
नागार्जुन
ने
संस्कृत
ग्रंथ
‘कादम्बरी’ के
समान
लम्बी
वाक्य
संरचना
की
है।
अगर
ग्राम्य
शब्दों
द्वारा
कविताओं
के
तथ्य
का
स्वाद
बदलता
है
तो
संस्कृत
शब्दावली
द्वारा
रप्प[ बदलता
है
और
कविताएँ
लालित्यमय
हो
उठती
है।
‘धरती’ कविता की
कुछ
पंक्तिया
दृष्टव्य
है
–
“कर्षण-विकर्षण
-सिंचन -परिसिंचन
वपन-तपन
-सेवा -सुश्रुषा
कर-चरण
-तन का सचेतन
संस्पर्श
सुदुर्लभ स्वेदकण
प्रतीक्षातुर नयनों
के
स्निग्ध-तरल
प्रेक्षण
शिष्योचित श्रद्धाभक्ति
पुत्रोचित परिचर्या
पतिसुलभ प्रीति
मात्रसुलभ ममता
पित्रसुलभ परितोषण
चाहती आई
सदा
से
धरती।”6
धरती
का
ऐसा
बिम्ब
निर्माण
संस्कृतनिष्ठ
शब्दावली
में
ही
सम्भव
हो
सकता
है।
धारी
शिष्य
की
श्रद्धा,
पुत्र
की
परिचर्या,
पति
की
प्रीति,
माता
की
ममता
और
पिता
की
तरह
देख-रेख
की
आकांक्षा
रखती
है।
जो
इन
भावों
से
उससे
जुड़ेगा
वही
उसका
वास्तविक
सुख
पाने
का
अधिकारी
है।
नागार्जुन
कोमलकांत
पदावली
भी
अपनाते
हैं।
किंतु
इसका
प्रयोग
उन्होंने
यथोचित
स्थान
पर
ही
किया
है
जैसे
प्रकृति
चित्रण
एवं
मानवीय
भावों
की
अभिव्यक्ति
के
लिए।
‘बादल को घिरते
देखा
है’
एवं
‘दन्तुरित मुस्कान’
आदि
कविताओं
में
कोमलकांत
पदावली
का
प्रयोग
हुआ
है।
इस
रूप
के
साथ
व्यंग्य
की
धार
अवलोकनीय
है
–
“मधुर-मदिर
भ्रम
हमें
मुबारक,
तुम्हें
मुबारक
सपने
देवि, संभालो
यहाँ
वहाँ
नव
सामंतो
को
अपने”7
डॉ.
नामवर
ने
लिखा
है
– “वैसे नागार्जुन
में
ऊबड़-खाबड़पन
भी
कम
नहीं
है
और
उसके
कारण
कवि-कोविदों
के
बीच
उन्हें
प्रतिष्ठा
प्राप्त
होने
में
भी
विलम्ब
हुआ,
किंतु
भाव
स्थिर
होने
और
सुर
सध
जाने
पर
ऐसी
ढली-ढलाई
कविता
निकली
है
कि
बड़े
से
बड़े
कवि
को
भी
ईर्ष्या
हो।
कहना
न
होगा
कि नागार्जुन में
ऐसी
कलापूर्ण
कविताएँ
काफ़ी
है।”8
नागार्जुन
अपनी
कविताओं
में
धड़ल्ले
से
मुहावरों
तथा
लोकोक्तियों
का
प्रयोग
करते
हैं।
इससे
जहाँ
उनकी
भाषा
सुंदर
तथा
सशक्त
बनती
है
वहीं
उसकी
सम्प्रेषणीयता
में
भी
वृद्धि
होती
है।
इससे
उनके
विचार
जन-जन
के
लिए
बोधगम्य
बनते
हैं।
नागार्जुन
की
अनेक
कविताओं
के
शीर्षक
भी
इसी
प्रकार
के
हैं
जैसे
–
1. वो
अंदर
से
बांस
करेंगे
2. कब
होगी
इनकी
दिवाली
3. न
गधी
न
घोड़े
का
4.सपूत
क्या
ऊपर
से
टपके
है
5. कछुए
ने
मारी
हाँक
गर्दन
निकालकर
6. पैसा
चहक
रहा
है
7. घटकवाद
की
उठा-पटक
है
8. वे
तुमको
गोली
मारेंगे
9. लोकतंत्र
के
मुँह
पर
ताला
10. मगरों
के
आँसू
बहते
है
आदि।
इसके
साथ
नागार्जुन
ने
निम्न
मुहावरों
का
प्रयोग
अपनी
कविताओं
में
किया
– मुँह फेर लेना,
किरण
बिखेरना,
वाह
-वाही में पड़ना,
लकवा
मारना,
आँय
बाँय
बकना,
दुधारू
गाय,
नज़र
आना,
लोहा
मानना,
पसीना
-पसीना होना, खिसक
जाना,
दुबक
जाना,
प्राण
पखेरू
उड़
गए,
डींगे
मारना,
बाँग
देना,
मजा
लेना,
मनसूबा
बांधना,
दिन
-दूनी रात चौगनी,
घोघा
बसंत,
चुल्लूभर
पानी
में
डूबना,
खेल
खतम
करना,
डाल
न
गलने
देना,
दिन
में
तारे
दिखाना
आदि।
इनके काव्य
में
देशज
तथा
संस्कृत
शब्दों
का
योग
है
जो
नवीन
भाव
संपदा
को
अपने
में
समेटे
हुए
है
तथा
अपूर्व
व्यंजना
में
सक्षम
है
इसी
प्रकार
नागार्जुन
दूरस्थ
आसंग
से
संपन्न
शब्दों
के
प्रयोग
में
भी
समर्थ
हैं।
वे
लिखते
हैं
-
“जै जै
छिन्नमस्ता
सध गया
शवासन
मिलेगा सिंहासन”9
यहाँ
छिन्नमस्ता,
शवासन
आदि
तांत्रिक
साधना
के
शब्द
हैं।
नागार्जुन
परंपरा
से
प्राप्त
शब्दों
का
प्रयोग
नवीन
भावास्तिथियों
को
व्यंजित
करने
कि
लिए
करते
हैं।
नागार्जुन
ने
हिंदी
भाषा
की
कवित्य-
शक्ति
का
प्रसार
अपने
काव्य
में
क्षेत्र
का
विस्तार
करते
हुए
किया।
विभिन्न
घटनाओं,
प्रसंगो,
भावों,
विचारो,आदि
के
अनुसार
शब्द
-चयन, क्रिया-विधान,
विशेषणों
का
संयोजन,
रूपक-
प्रतीक
आदि
पिरोकर
वे
भाषा
की
व्यंजना
शक्ति
में
वृद्धि
करते
हैं।
इसके
साथ
-साथ वे नवीन
सबड़ों की
भी
रचना
करते
है,
जिनसे
रसात्मकता
रिसती
है
जैसे
– सिंदूरी छलना, छलिया
भाई,
बलुआहि
– क़द्ददार राजनैतिक
अकड़,
क्षीणबल
गजराज,
दिव्य-मूत्र,
रेती
पर
टलहान,
लिंग
लौल्य,
विज्ञापन
सुंदरी,
युग
नंदिनी,
बेचौनी
का
भाफ,
चाँदी
की
बेटी
-कंचन का दूल्हा,
क्षुद्र
महारथी,
धन-पिशाच,
ग्रंथ
कीट,
शब्द
-शिकारी, शब्द -खोर,
सिंदूरित,
स्तब्ध
निगाहें,
मंथित
निगाहें,
दूधिया
पानी,,
वयस्क
-बुजुर्ग, सुधी शिरोमणि,प्रज्ञाकर,
कुबेर
के
छौने,
कोर्सगंधी,
चितकबरी चाँदनी, नितंब
-भजन, नखरंजनी,वेतन
-सर्वस्व -बुद्धिजीवी,
झबरा
माथा,
भक्त-
भ्रम-
भंजनी
इत्यादि।
जनभाषा
के
प्रयोक्ता
नागार्जुन
की
काव्य
भाषा
में
व्यंजना
शक्ति
भी
गजब
की
है।
व्यंग्यकार
होने
के
कारण
उन्होंने
अपनी
बात
को
व्यंजना
शक्ति
द्वारा
वक्रता
के
साथ
प्रस्तुत
किया
है।
भाषा
की
व्यंजकता
का
यह
रूप
देखिए
–
“जन -गण
-मन अधिनायक
जय
हो,
प्रजा
विचित्र
तुम्हारी
है,
भूख -भूख
चिल्लानेवाली-
अशुभ-
अमंगलकारी
है।
बंद सेल,
बेगूसराय
में
नौजवान
दो
भले
मरे
जंगल नहीं
है
जेलों
में,
यमराज
तुम्हारी
मदद
करे।”10
वर्णमैत्री
भी
नागार्जुन
की
काव्य
भाषा
की
अतिरिक्त
विशेषता
है।
इससे
उनकी
भाषा
में
प्रवाह
आ
गया
है।
एक
गति
आ
गयी
है।
उदाहरणार्थ
कम्पित,
कलिका
कोर,
पोर
-पोर, झिल्ली-झंकार,
एक-एक
कर
टूट
गए,
झुक
-झुक सँघ रहे,
पल-पल
पुलकन
भरते,
दिशा-दिशा
में
किसलय
आदि
प्रयोगों
में
वर्णमैत्री
के
विधान
से
भाषिक
सौंदर्य
द्विग़ुणित
हो
गया
है।
नागार्जुन
ने
अपनी
कविताओं
में
अलंकारों
का
प्रयोग
भी
किया
है।
ऐसा
नहीं
है
कि
रीतिवादियों
की
भाँति
उन्होंने
केवल
सायास
ही
ऐसा
किया
अपितु
अनेक
बार
अनायास
भी
इनका
प्रयोग
हुआ
है।
नागार्जुन
आरंभ
में
संस्कृत
कविताएँ
करते
थे
जिनमे
छंद-अलंकार
आदि
का
विशेष
ध्यान
रखा
जाता
था।
मैथिली
से
होते
हुए
हिंदी
में
आने
पर
भी
उनका
यह
अभ्यास
पूर्णतः
नहीं
छूट
पाया
और
अनेक
वर्षों
तक
यह
उनके
काव्य
का
महत्वपूर्ण
हिस्सा
बनकर
रहा।
‘योगिराज अरविंद कविता
में
कवि
जब
अरविंद
पर
व्यंग्य
करता
है
तो
अनुप्रास
का
प्रयोग
उसके
व्यंग्य
को
और
अधिक
प्रखर
बना
देता
है
–
“चारु चिरंतन
चटुल
चमत्कृत
चरम
चेतना
पूर्ण
धनपति, विद्यापति,
वाचस्पति
सबकी इच्छा
होती
तुमसे
पूर्ण”11
नागार्जुन
की
भाषा
की
विशिष्टता
के
रहस्य
को
उजागर
करते
हुए
केदारनाथ
सिंह
लिखते
है
– “बाबा की भाषा
की
सिद्धि
की
प्रक्रिया
जो
है,
उसे
मैं
दो
तरह
से
देखता
हूँ,
एक
तो
लोक
जीवन,
लोक
भाषा
से
उनका
जुड़ाव
और
संस्कृत
से
लेकर
अब
तक
हिंदी
की
जो
परंपरा
है,
उससे
उनका
जुड़ाव
और
अनेक
भारतीय
भाषाओं
से
उनका
जुड़ाव।
वे
बंगला
जानते
हैं,
मराठी
जानते
हैं
और
पंजाबी
जानते
हैं।
कई
भाषाएँ
जानते
हैं।
इन
सारी
भाषाओं
के
मूल
स्रोत
से
वे
जुड़े
रहे
हैं।
बंगला
में
कविताएँ
लिखी
है
तो
इस
सबसे
फ़ायदा
भी
उठाते
हैं।
बहुत
ही
जागरूक
रचनाकार
हैं
वे।
चुपचाप
सारे
तत्वों
को
जज़्ब
करते
हुए…. और
फिर
वे
एक
घोल
तैयार
करते
हैं
अपने
भीतर,
जो
उनकी
रचना
में
ढलकर
आता
है।
यह
जो
बहुत
सारे
तत्वों
से
बहुत
सारे
स्रोतों
से
उनका
जुड़ाव
है,
यह
उनकी
ताक़त
है
और
इस
ताक़त
का
वे
सार्थक
इस्तेमाल
करते
हैं
अपनी
कविता
में।”12
निष्कर्ष
: उपर्युक्त
विवेचन-विश्लेषण
के
आधार
पर
यह
कहा
जा
सकता
है
कि
नागार्जुन
की
काव्य
भाषा,
भाव
और
विषय
से
जुड़ी
हुई
है।
भाषा
का
विराट
संसार
नागार्जुन
के
पास
है।
उन्होंने
भाव
के
अनुरूप
भाषा
को
अपनाया
किंतु
भाव
के
अनुरूप
भाषा
को
सजाने-संवारने
का
काम
ने
नहीं
किया
क्योंकि
उनके
विषय
इतने
स्पष्ट
और
मर्मस्पर्शी
हैं
कि
भाषा
स्वतः
ही
उनकी
हमसाया
बन
गयी
है।
वस्तुतः
राग
चेतना
प्रधान
कविताओं
की
भाषा
में
मधुरता,
मदिरता
और
संस्कृतनिष्ठता
है
तो
व्यंग्यपरक
और
यथार्थ
बोधक
कविताओं
में
शब्द
सीधे
जन-जीवन
से
उठाए
गए
हैं।
नागार्जुन
की
भाषा
की
ताक़त
का
स्रोत
उनका
अनुभव
संसार
है।
एक
संघर्षशील
रचनाकार
के
संघर्ष
उसके
अनुभवों
का
निर्माण
करते
हैं,
जिसका
‘बाइ प्राडक्ट’
भाषा
के
रूप
में
सामने
आता
है।
भाषा,
अनुभव,
संघर्ष
आदि
का
अंतःसंबंध
स्थापित
करके
नागार्जुन
भाषा
को
और
अधिक
सहज
और
सर्जनात्मक
बनाते
हैं।
कह
सकते
हैं
कि
नागार्जुन
कबीर
की
भाँति
भाषा
के
डिक्टेटर
हैं।
उनकी
भाषा
भावों
के
अनुरूप
अपना
स्वरूप
बदलती
रहती
है।
इस
बदलते
स्वरूप
के
कारण
उनकी
भाषा-भंगिमा
अत्यंत
आकर्षक
रूप
अख़्तियार
करती
है
जिसे
देशी-विदेशी
शब्दों
की
छटा
मधुर,
ग्राह्य
तथा
बोधगम्य
बना
देती
है।
संदर्भ :
- नागार्जुन,
मेरे साक्षात्कार,
किताब घर
प्रकाशन, दिल्ली,
2010, पृ- 43
- वही,
पृ- 44
- नागार्जुन,
प्रतिनिधि कविताएँ,
राजकमल प्रकाशन,
नई दिल्ली,
2007, पृ- 138
- रामविलास
शर्मा, नई
कविता और
अस्तित्ववाद, राजकमल
प्रकाशन, 2003, पृ-153
- नागार्जुन,
प्रतिनिधि कविताएँ,
राजकमल प्रकाशन,
2007, दिल्ली, पृ-50
- नागार्जुन,
युगधरा, यात्री
प्रकाशन, 1982, पृ-
84
- नागार्जुन,
तुमने कहा
था, वाणी
प्रकाशन, 1980, पृ-
49
- नामवर
सिंह, कविता
की ज़मीन
और ज़मीन
की कविता,
राजकमल प्रकाशन,
2010, नई दिल्ली,
पृ-178
- केदारनाथ
सिंह, नागार्जुन
विचार सेतु,
श्री प्रकाशन,
1996, पृ-127
- अजय तिवारी, नागार्जुन की कविता, वाणी प्रकाशन, 2014, पृ-115
- नागार्जुन, हजार हजार बाहों वाली, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1981, पृ-19
- केदारनाथ सिंह, नागार्जुन विचार सेतु, श्री प्रकाशन, 1996, पृ- 246
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू, नई दिल्ली- 110067
सम्पर्क : devjnu868@gmail.com, 9871804893
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