सत्ता का प्रतिरोध और प्रतिबंधित हिंदी कविताएं
- डॉ. रुस्तम राय
आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर साहित्य, सत्ता, प्रतिबंधन एवं प्रतिरोध के आईने में प्रतिबंधित हिंदी कविताओं के मिजाज की पड़ताल करना समीचीन होगा। कविता को मनुष्यता का पर्यायवाची माना जाता है। प्रतिबंधित हिंदी कविताओं में ब्रिटिशकालीन भारतीय समाज की मनुष्यता की प्रतिरोधी क्षमताओं का अकूत भंडार है, जिनका प्रदर्शन इन कविताओं से होता है। कहना न होगा कि अब तक भारतीय साहित्य पर अंग्रेजीराज और स्वाधीनता आन्दोलन के प्रभावों के अध्ययन की परम्परा रही है। आज इस बात की आवश्यकता है कि अंग्रेजीराज के उन्मूलन और स्वाधीनता आन्दोलन को गतिशील करने में भारतीय साहित्य की भूमिका की पहचान की जाए। निश्चय ही, इससे भी अधिक रोचक होगा कि अंग्रेजीराज के दमनमूलक कृत्योंऔर स्वाधीनता आन्दोलन के विकास की विभिन्न अवस्थाओं, क्रान्तिकारी गतिविधियों और आन्दोलनों का अध्ययन अंग्रेजीराज द्वारा प्रतिबन्धित साहित्य के माध्यम से किया जाए। इसमें किसी को सन्देह नहीं होगा कि ब्रिटिशराज के उन्मूलन और स्वाधीनता आन्दोलन में भारतीय साहित्यकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन इतना जरूर है कि प्रतिबन्धित हिन्दी कविताओं में वर्णित स्वाधीनता आन्दोलन के क्रान्तिकारी गतिविधियों और अंग्रेजीराज के दमनचक्रों के चित्र न केवल हमारे मर्म को स्पर्श करते हमारी सुप्त चेतना को झकझोरते हैं, बल्कि अपनी विश्वसनीयता में हमें आश्वस्त भी करते हैं। असल में, स्वाधीनता आन्दोलन के विकास एवं विस्तार के साथ - साथ अंग्रेजी सरकार की कोपदृष्टि का प्रसार भी हुआ।
अंग्रेजी सरकार भारतीय समाचार पत्रों के नियमन से सम्बन्धित अधिनियम 1799 ई . में पारित कर दिया था, जिसे आवश्यकतानुसार निरन्तर दमनमूलक बनाया जाता रहा। लेकिन पुस्तकों के प्रतिबन्धन का सिलसिला बंग - भंग आन्दोलन के साथ शुरू हुआ। अंग्रेजीराज ने प्रतिबन्धन के इन काले कानूनों को धीरे - धीरे अधिक कठोर बनाया। इसी कड़ी के रूप में 1908 और 1910 में प्रेस अधिनियम में संशोधन किया गया।फलस्वरूप अंग्रेजी सरकार राज विरोधी इतिहास, राजनीति, साहित्य आदि विषयों की पुस्तकों से लेकर पत्र - पत्रिकाओं और छोटे - छोटे इश्तहारों तक को भी जब्त करने लगी। अब तक प्राप्त तकरीबन चार सौ प्रतिबन्धित कविताओं के संकलनों में बलिदान की मर्मस्पर्शी छवियां देखने को मिलती हैं। बहुत ऐसी कविताएं हैं जिनके माध्यम से भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास और आजादी के शहीदों से हमारा परिचय होता हैं। कुछ कविताओं में स्वाधीनता आन्दोलन, के दौरान चल रही क्रान्तिकारी गतिविधियों, घटनाचक्रों, का वर्णन मिलता है तो कुछ में अंग्रेजी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दिया गया है। इसी क्रम में असहयोग और सत्याग्रह की चर्चा भी मिलती है। ' खादी ' और ' चरखा ' पर लिखी अनेक कविताएं देशवासियों में राष्ट्रीय एकता और देशभावना का संचार करती हैं। ऐसे अनेक प्रतिबन्धित राष्ट्रीय गीत हैं जिनमें स्वदेश का गौरवगान है तथा राष्ट्रीय ध्वज और मातृभूमि की स्तुतियां गाई गईहैं। उन गीतों और कविताओं को भी प्रतिबन्धित होना पड़ा जिनमें भारतवर्ष के स्वर्णिम अतीत और प्राचीन सांस्कृतिक उपलब्धियों का जिक्र है। भारतीय ऐतिहासिक और पौराणिक चरित्रों के गुणगान करनेवाले गीत भी प्रतिबन्धित किए गए हैं। अधिकांश प्रतिबन्धित कविताओं, गीत, ग़ज़लों और लोकगीतों में अंग्रेजीराज के दमनमूलक कार्रवाइयों का मार्मिक वर्णन किया गया है। यहां कुछेक कविताओं की बानगी देखी जा सकती है। कवि बलभद्र प्रसाद रसिक ' ने क्रान्ति के महत्व को उजागर करते हुए लिखा है “क्रान्ति है एक शक्ति आन्दोलन बड़े - बड़े साम्राज्योंको यह करती डांवाडोल”।कवि यह देखता है कि अंग्रेजीराज में आम जनता का जीवन दूभर हो चला है, इसलिए वह क्रान्ति के महत्व को समझते हुए उससे सबको आगाह करता है। क्रान्ति के कवि प्रह्लाद पाण्डेय ' शशि ' को अंग्रेजीराज में सर्वत्र हाय ! हाय ! और त्राहि त्राहि की पुकारसुनाई पड़ती है। यही कारण है कि कवि स्वयं को क्रान्तिदूत के रूप में राष्ट्र को समर्पित करते हुए लिखता हैं कि ”हाय हाय !! बस त्राहि त्राहि !! का, मचा हुआ चीत्कार यहां है। रोदनमयी धंसी आंखों में, आंसू का व्यापार यहां है। इस विनाश के महागर्त मेंप्रकाशलेकर आया हूं, क्रान्तिदूत बनकर आया हूँ”।देश की विषम परिस्थितियां कवि के अन्तर्मन को निरन्तर मथती हुई बेचैन कर देती हैं और वह अपने भीतर के कवि - स्रष्टा को सम्बोधित करते हुए कह उठता है“हो उठे ज्वालामुखी - सा तप्त, हिमगिरि का हिमांचल। आग की लपटें बिछा दे, व्योम - जग में इन्दु चंचल।। उल्लसित तारावली - सा, प्रज्वलित हो क्षीण जीवन”।कवि ! सुनाओ तान ऐसी, आज हो स्वच्छन्द जीवन”। इन कवियों ने अपनी कविताओं में अपनी रोटियां को भी एक हथियार के रूप मेंइस्तेमाल किया है। कवि देश के सर्वहाराओं को सम्बोधित करते हुए कहता है कि “जाग जाग ओ भूखी - नंगी, उत्पीडित मानव की टोली। क्रोधित व्याकुल विषधर जैसा, बिल से निकल लक्ष्य पर चल दे। सेनानी ललकार रहा है, प्रलयंकर ने आँखें खोली।। बजा रहा है बीन सपेरा, तरल तरलतू गरल उगल दे”। दूसरी ओर दमन से जूझते हुए एक अन्य कवि अपनी कविताओं में क्रान्ति का आह्वान करते हुए हुंकार उठता है कि “चाहे जितना भले दमन हो। मन मिटने के लिए मगन हो। खून शहीदों का रंग लाए, लाशों का सागर लहराए। जग में विजय ध्वजा फहराए, दुश्मन देख - देखधहराए”। भारतीय क्रान्तिकारी रचनाकार यह अच्छी तरह जानते थे कि अंग्रेजों के रहते भारतवर्ष और उसके देशवासियों का भला कभी नहीं हो सकता। इसलिए कवि भारतवासियों को सावधान करते हुए कहता है कि “तब्दील गवर्नमेण्ट की रफ्तार न होगी, गर कौम असहयोग पर तैयार न होगी। बनजाएंगे हर शहर में जलियांवाले बाग, इस मुल्क से गर दूर यह सरकार न होगी”। कवि भारतीय क्रान्तिकारियों से अंग्रेजी सरकार को देश से दूर करके ही दम लेने को कहता है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो सारा देश जलियांवाले बाग में बदल जाएगा। अकारण नहीं है कि स्वतन्त्रता का गायक कवि' चकबस्त ' दृढकण्ठ घोषणा करते हुए कहता है कि “सुनेंगे कल का न वादा, हम आज के बदले। न लेंगे हरगिज बहिश्त भी, हम स्वराज्य के बदले”।। अंग्रेजों के द्वारा बंगाल विभाजन के साथ ही बंग - भंग विरोधी आन्दोलन जोर पकड़ने लगा। फलस्वरूप क्रान्तिकारी गतिविधियां तेज होगई और समूचे देश में विदेशी सामानों के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं के उपभोग पर अधिकाधिक जोर दिया जाने लगा। क्रान्तिकारी और देशप्रेमी कविगण भला इन परिस्थितियों में कैसे चुप रह सकते थे। उन्होंने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से विदेशी के बहिष्कार और स्वदेशी के प्रयोगके लिए देश की जनता से आह्वान किया। पं . कन्हैयालाल दीक्षित ने भारतीयों को उद्बोधित करते हुए लिखा है- “उठो हिन्दवालों न रहने कसर दो विदेशी का अब तो बहिष्कार कर दो। मयस्सर जहां पेटभर है न दाना।। गुलामी में मुश्किल हुआ सर उठाना।। मंगाकर विदेशी वहां धन लुटाना। तुम्हें चाहिए दिल में कुछ शर्म खाना।। मिटा देश जाता है इसकी खबर लो। विदेशी का अब तो बहिष्कार दो”।। आकस्मिक नहीं था कि ये कवि विदेशी का बहिष्कार करने लगे थे, बल्कि उनकी इस समूची रचना - प्रक्रिया में देश की दुर्दशा और राष्ट्रीय स्वाभिमान की चिन्ता निहित थी। ये कविगण देख रहे थे कि देश की निरीह और असहाय जनता न केवल विदेशी निरंकुश शासन के द्वारा सताई जा रही है, बल्कि अंग्रेज उसकी सारी सम्पदा लूटकर लन्दन की तिजोरी भरने में लगे हैं। दूसरी ओर कवि अभिराम शर्मा ने भारतीय नौजवानों को भी निष्क्रियता और उदासीनता को त्यागने तथा स्वदेश की चिन्ता करने के लिए प्रेरित करता है- “जवानो ! उठो उठो तत्काल न झुकने देना भारतभाल। देश में इतनी है हलचल, पहनते फिर भी तुम मलमल।। कहां इतना अमूल्य पल - पल, कहाँ तुम खोद रहे दलदल। पहिनना मत परदेसी माल, न झुकने देना भारत भाल”।। इस कविता में कवि ने निश्चय ही भारतीयता की भावना तथा राष्ट्र की महनीयता को उजागर करते हुए नौजवानों का राष्ट्रहित के लिए आह्वान किया है। उसने देश की दुरवस्था के कारणों की तलाश करते हुए विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की बात कही है। स्वदेशी के प्रयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन गांधीजी के राजनीतिक परिदृश्य पर आने के साथ ही तीव्रतर हो गया था।
कवि त्रिभुवननाथ ने अपने चरखा गीत में लिखा है कि “इन गोरों को लन्दन भगाएगा चरखा विदेशी चलन को मिटाएगा चरखा”। वैमनस्य फैलानेवाली करतूतों के मद्देनजर कवि ने लिखा है कि “वतन की गुलामी छोड़ाएगा खद्दर, गरीबों की इज्जत बचाएगा खद्दर। हिन्दू है ताना मुसलमान बाना, बिनाबट में दोनों को लाएगा खद्दर”। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान चर्चित कवि सोहनलाल द्विवेदी ने लिखा है कि “खादी में कितने दलितों के दग्ध हृदय की दाह छिपी। कितनों की कसक कराह छिपी, कितनों की आहत आह छिपी। खादी में कितने ही नंगों - भिखमगों की है आस छिपी। कितनों की इसमें भूख छिपी, कितनों की इसमें प्यास छिपी”। यहां कवि खादी के भीतर तत्कालीन पराधीन भारतीय समाज की जनभावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति एवं सदियों से पीड़ित मानवता की घनीभूत पीड़ा का दर्शन करता है। जहां एक ओर प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेजी सरकार अपने वायदे से मुकरने लगी, तो दूसरी ओर रूसी क्रान्ति के फलस्वरूप भारतीय जनता अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगी। गांधीजी ने जब सत्याग्रह और असहयोग आन्दोलन शुरू किया तो अंग्रेजी सरकार बौखला उठी। उसने भारतीय सत्याग्रहियों को जेल भेजना शुरू कर दिया और आम आदगी को तरह - तरह के हथकण्डे अपनाकर पीड़ित - प्रताड़ित करने लगी। ऐसे ही समय पं . माधव शुक्ल ने राष्ट्र के शूर - वीरों को ललकारते हुए लिखा कि“निकल पड़े मैदान - ए - जंग में गर कोई अभिमानी है। आज देखना है किसमें कितना दम कितना पानी है”।।अपनी दूसरी कविता में शुक्लजी ने स्वराज्य के लिए देश के बच्चे - बच्चे सेअंग्रेजीराज के फरमानों को भंग करने का आह्वान किया है “निकल पडो अब बनकर सैनिक भंग करो फरमानों को। बिन स्वराज्य के नहीं हटेंगे, कोल रहे मरदानों का”।। सुभद्राकुमारी चौहान की कविता ' बुन्देले हर बोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी और दूसरी ओर मनोरंजन, एम . ए . की कविता ' मस्ती की थी छिड़ी रागिनी, आजादी का गाना था, सब कहते हैं कुंवरसिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था कविताओं में कवियों ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और वीर कुवर सिंह की वीरता का बखान किया है। इसी तरह कवि बलभद्र प्रसाद रसिक ने लोकमान्य तिलक का गुणगान करते हुए लिखा है “लेश भी न क्लेश थे स्वदेश का मिटाते लोग, सबों ने लगाया राजभक्ति में लगन था। तभी भारतीयता का भाव भरने के लिए, लोकमान्य तिलक का हुआ आगमन था” कवि ने लालाजी के शौर्य एवं उत्सर्ग का महिमा का गान करते हुए लिखा है कि “स्वयं लाजपत किस प्रकार लज्जा मां की लूटने देता ? आंखों के आगे आंखों के तारों को कुटने देता ? सत्याग्रह का शस्त्र हाथ में लेकर निकल पड़ा रणवीर सहम गए अत्याचारी गण लख कर उसकी छवि गम्भीर”।। कवि राजाराम नागर मे अपनी कविता में लिखा है कि-“छिपा है कहां जाके प्यारा था आलम के आँखों का तारा भगत सिंह। बहुत नाम रोशन किया है जहां में, कि चमका है बनकर सितारा भगतसिंह”। काकोरी शहीद रामप्रसाद बिस्मिल ने क्रान्तिकारी यतीन्द्रदास की शहादत को इबादत का मर्तबा देते हुए लिखा है कि “पुरअसर है, दर्द में डूबी हुई है किस कदर, दिल अगर है तो सुनो दिल से कहानी दास की।। फाकामस्ती में भी मस्तों की तरह वह मस्त था। गोया हिम्मत का नमूना थी जवानी दास की”।। उल्लेखनीय है कि इन प्रतिबन्धित कविताओं और गीतों में बहुत से ऐसे गीत हैं जो राष्ट्रगीत एवं वन्दना के रूपमें लिखे गए हैं। मातृभूमि जन्मभूमि और भारतमाता के महत्व और दुःखों का गान करनेवाले गीत भी प्रतिबन्धित हुए हैं। यही कारण है कि ' वन्देमातरम् ' और उसके महत्व को उजागर करनेवाले अंग्रेजीराज विरोधी गीतों को प्रतिबन्धित कर लिया गया है। ऐसे गीतों की कुछ पंक्तियांउदाहरण के रूप में देखी जा सकती हैं ( क ) “छीन सकती है नहीं सरकार बन्देमातम | हम गरीबों के गले का हार बन्देमातरम्।। कतिपय प्रतिबन्धित कविताओं में पराधीनता की पीड़ाऔर स्वाधीनता के महत्व को अंकित किया गया है। स्वामी नारायणानन्द ने परवशता की इस पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में की है “अबस जिन्दगी का गुमा है, भरम है, गुलामी में जीना न मरने से कम है। वे कहते हैं हमसे कि खामोश रहना, सहो चोटें दिल पर जुबां सेन कहना।। रहे पेट खाली रहे तन बरहना, वफादार हो तुम ज़फाओं को सहना। इसी पीड़ा की त्रासदी को कवि दिनेश कुमार बाथम ने आभीव्यक्त “अधीन होकर बुरा है जीना, मरना अच्छा स्वतन्त्रहोकर” सुधा को तज कर गरल का प्याला, है पीना अच्छा स्वतन्त्र होकर।। पराधीन देश का एक साधारण निवासी भी इस पराधीनता की पीड़ा का सहज ही अन्दाजा लगा सकता है। इस पीड़ा की पराकाष्ठा उस समय और अधिक बढ़ जाती है जब उसके साथ दमन और उत्पीडन की कहानी भी जुड़ी हो।हैरत की बात नहीं है कि अधिकांश प्रतिबन्धित कविताओं में अंग्रेजीराज द्वारा भारतवासियों के दमन, उत्पीड़न और आर्थिक शोषण के साथ इसका प्रतिकार भी मिलता है जो हमें आश्वस्त करता है, हमारे बुझे हुए आशा के दीपों को प्रज्वलित करता है तथा अंग्रेजी सरकार के निर्लज्ज कपोलोंपर करारा प्रहार करता है। कवि कमल ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि “हमारा हक है हमारी दौलत, किसी के बाबा का जर नहीं है”।हैं मुल्क भारत वतन हमारा, किसी के खाला का घर नहीं है।। मुक्तिकामी कवि जालिम अंग्रेजी सरकार से दो टूक लहजे में कहते हैं“हम बेकसों का जालिम क्यों खूं बहारहा है ? है क्या कसूर जिससे ये जुल्म ढा रहा है ? भारत को दासता की चक्की में डालकर के। गर्दन पर निर्दयी क्यों छुरी चला रहा है”? लेकिन क्रान्तिकारी कवि और काकोरी शहीद ' बिस्मिल ' को यह पता है कि आततायी के हर जुल्म की इन्तहा है। इसलिए कवि जुल्मी अंग्रेजी सरकारको आगाह करते हुए कहता है कि “भारत न रह सकेगा हरगिज गुलामखाना | आजाद होगा, होगा आता है वह जमाना।। खूं खौलने लगा है हिन्दुस्तानियों का। कर देंगे जालिमों का हम बन्द जुल्म ढाना”।। यही कारण है कि कवि (वियोगी )भी साम्राज्यवादी अंग्रेजी सरकार के अन्तकी घोषणा करते हुए कहता है कि अब तुम्हारे दिन लद गए है-“तू खंजर जुल्म का जालिम चला ले और थोड़े दिन।गरीबों बेगुनाहों को सता ले और थोड़े दिन”।।बहुत - सी प्रतिबन्धित कविताओं में अंग्रेजीराज द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था के शोषण का सुन्दर चित्रांकन किया गया है। इन कविताओं से यह पता चलता है। कि किस प्रकारअंग्रेजी सरकार ने भारतीय कुटीर उद्योग - धन्धों और अर्थव्यवस्था को क्रूरतापूर्वक छिन्न - भिन्न कर डाला था। आकस्मिक नहीं है कि कवि मिट्टन लाल ने ' ब्रिटिश राज की कहानी ' नामक अपनी आल्हा - कविताओं में अंग्रेजीराज द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था की तबाही का जीवन्त चित्रण किया है “कला कौशल उन नष्ट कराए, सबको मुफलिस दियो बनाय हीरा, मोती, सोना, चांदी, पहुंचे सात समन्दर पार नौ पाई हर मनुष्य की आमद, पैत्रिक धन सब दियो गंवाय। जेवर भूषण नष्ट भए सब, भारत हाय - हाय चिल्लाय। भारत का ले लिया बनिज सब, भारत की प्रभुता को पाय। जुल्म देखकर परजा बहुत रही घबड़ाय”। अंग्रेजों के इसी शोषण को मद्देनज़र रखते हुए कवि अभिराम शर्मा ने लिखा है “भाई जब हुए कसाई, तब गैरों की बन आई। दीनता देश में छाई, पूंजी हो गई सफाई | मत अपना घर लुटवाओ! अन्यायी राज मिटाओ” ! अंग्रेजीराज के इस लूटमार की कहानी और आम, भारतवासियों की जिन्दगी की विरानियों को भी लोक कवियों ने भी दर्दभरी आवाज दी है। कवि पं . रामकुमार उपाध्याय ' वैद्य ' ने इसी दर्द को अपनी भोजपुरी कविता में भरने का प्रयास किया है “लगली बाजार होपहरुवै बिना लूट गइलिन। अन्न धन सोनवां विदेसी भइया लूट लेंगें। दाना बिन होइ गइले देसवा भिखार हो। पहरुवै बिना लूट गइलिन”।
कवि रामकुमार वैद्य ने किसानों की दुर्दशा का सटीक चित्र खींचा है सबसे किसान हो अभागा हमरे देसवा में। इनहीजोताई करे इनही बोआई करे। तबहू बेचार रोज मरेले भुखान हो।। अभागा।दिन भर बेगारी रहे लाखन ठे गारी सहै। तबहू न लागे इन्हें खाए के ठिकान हो। जमींदारों की यातनाओं से किसान तार - तारचुके थे। ऐसे ही एक किसान जो लगान न दे सका है, उसकी दयनीयता और जमींदारों के जुल्म का कवि ने इन शब्दों में चित्रण किया हैनहि काहू दिना ते बेगार करी नहि दीनी लगान की एको पाई। सरकार ने ताहि बुलाओ अभी, इतनी कहि ठोकर एक जमाई। कर जोरि करी बिनती उनकी बहुभातिनसो दिनतहूं दरसाई। पग धाय गहे तिनके अपने घर की सब हालत रोय सुनाई।। 1।। सुनि दीन भरी बतियां तिहि की अधरा फरकाय के भौहे चढ़ाई। पथरा सो करेजो पसीजो नहि, रिसिआय के पीठ पै बेंत जमाई। चुटिया गहि ऐचि लियो भुइ पै, हाने लात और घूंसा करी मन भाई। धरती पै घसीटत पीटतताहि, गयो सरकार के द्वारे सिधाई“ जमींदारी प्रथा और जमींदारों के उत्पीड़न से तंग आकर भारतीय किसान अंग्रेजीराज में ही गांवों से शहरों की ओर पलायन करने लगे थे। यही वह समय था जब भारतीय किसानों के धीरे - धीरे मजदूर बनने की प्रक्रिया शुरू होती है। कवि ने किसानों के कृषक से मजदूर के रूप में रूपान्तरण की इस प्रक्रिया को और पूंजीवादी एवं सामन्तवादी शक्तियों द्वारा कृषकों तथा मजदूरों के शोषण - उत्पीड़न को अत्यन्त मर्मस्पर्शिता के साथ रूपायित किया है “गांव छोड़ शहरों को जाते, मिल में वहीं नौकरी पाते, किन्तु वहां से मासिक लाते, महज रुपल्ली चार। सुन्दर - सुन्दर उन्हें बनाते, वस्त्रों का भण्डार लगाते, अर्ध नग्न फिर भी रह जाते, बच्चे तक सुकुमार। किसानों हो जाओ तैयार”।कवि ने किसानों की तरह ही मजदूरों के उत्पीड़न का चित्रण किया है। इसलिए वह न केवल भारत के मजदूरों की बल्कि दुनिया के तमाम गुलाम देश के मजलूमों और बदनसीबों को जाग उठने का आह्वान किया है“सारे जहां के मजलूमों उठो कि वक्त आया। ऐ पेट गुलामों उठो कि वक्त आया। दुनिया के बदनसीबों उठो कि वक्त आया। सब कुछ उन्हीं का होगा अब तक रहे जो साया”। प्रतिबन्धित कविताओं में आजादी की लड़ाई के दौरान छात्रों की रचनात्मक भूमिकाओं का भी उल्लेख किया गया है। स्वाधीनता के संघर्ष में छात्रों की युगान्तरकारी भूमिका रही है। सरकार छात्रों की गतिविधियों के प्रति अत्यन्त चिन्तित रहती थीं इसीलिए कवि ' चकोर ' ने छात्रों को आगाह करते हुए लिखा है कि “विद्यार्थियों ! तुम्ही हो बस कौमी जिन्दगानी। तुम पर ही मुनहसर है, कौमों वतन का पानी।। इंगलिश जरूर पढ़ना, उसका न बन के रहना। नहीं तो जान की तुम्हारे दुश्मन बनेगी जानी”।। विद्यार्थियों की तरह ही स्वाधीनता आन्दोलन में लेखकों की ऐतिहासिक भूमिका रही है। इस भूमिका की पहचान बहुत कुछ इन प्रतिबन्धित कविताओं से भी प्रकट होता है। निश्चय ही राष्ट्रीय मुक्ति के इस संग्राम को सफल बनाने में लेखकों की क्रान्तिकारी भूमिका रही है। इस क्रान्तिकारी स्वरूप की पहचान कवि ' शायक ' की इन पंक्तियों से भी होती है-“मचल के पहलू में दिल है कहता कि हम है ' शायक ' स्वतंत्रता के बामुकाबिल, हमारी ये लेखनी रहेगी”। कवि ने भारतीय नवाबों और जमींदारों के असली चरित्र को उजागर करते हुए लिखा है कि .इन कागजी खिताबों से उड़ता हूं फ़लक पर, अधिकार कहीं मिल गया तो जारे रूस हूं। है जन्नते आराम गुलामी में मजा वाह ! आजादी में बर्बादी करता महसूस हूं। भारत की गवर्नमेंट का मैं चापलूस हूं। दरिया - ए - गुलामी का जबरदस्त सूंस हूं”। अनेक प्रतिबन्धित कविताओं में भारतीय समाज की कुरीतियों, बुराइयों, कर्मकाण्डों, विडम्बनाओं आदि का यथार्थपरक चित्रण किया गया है। इन कविताओं में अंग्रेजी सरकार के दोहरे चरित्र के साथ - साथ भारतीय सामन्तवाद के दोमुंहापन को भी उजागर किया गया है।
डॉ. रुस्तम राय
सम्पर्क : drustam360@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
एक टिप्पणी भेजें