शेखर जोशी का कथा-संसार
- डॉ.
चंदा सागर
हिंदी कहानी
में 'छठा
दशक' नई
कहानियों
की
महत्त्वपूर्ण
धारा
और
उपलब्धियों
के
लिए
जाना
जाता
है।
हिंदी
कहानी
में
नई
कहानी
आंदोलन
तमाम
पहलुओं
को
अपने
में
समेटे
हुए
चलता
है।
यह
आंदोलन
स्वाधीन
भारत
के
बदलते
परिवेश, युवा
मध्यवर्ग
एवं
उनसे
जुड़े
सपनों
तथा
तत्कालीन
सामाजिक-राजनीतिक
उथल-पुथल
का
जीवंत
दस्तावेज
प्रस्तुत
करता
है।
कहानीकार
शेखर
जोशी
का
नाम
भी
इसी
पंक्ति
में
अग्रणी
है।
शेखर
जोशी
उन
चुनिंदा
कहानीकारों
में
से
एक
हैं
जिनकी
कथा
यात्रा
में
प्रारंभ
से
लेकर
अंत
तक
वैविध्य
देखा
जा
सकता
है।
अपनी
कहानियों
में
वे
पहाड़ों
के
मनोरम
दृश्यों
के
साथ
उनके
पीछे
छुपी
गरीबी, संघर्ष, बेरोजगारी
तथा
जातिगत
रूढ़ियों
को
परत
दर
परत
खोलते
चलते
हैं।
एक
तरफ
उनका
कथा
संसार
पहाड़ी
इलाकों
के
संघर्षों
को
प्रस्तुत
करता
है
तो
दूसरी
तरफ
शोषित
और
कुंठित
तथा
हताशा
से
भरे
औद्योगिक
मजदूर
वर्ग
के
जीवन
को
दिखाता
है।
शेखर
जोशी
की
कहानियाँ
शहरी- कस्बाई
जीवन, वर्ग-संघर्ष, आर्थिक-सामाजिक-नैतिक
संकट, जातिगत-रूढ़ियां, पलायन
तथा
श्रमिक
जीवन
को
स्वर
देती
हैं।
शेखर
जोशी
की
कहानियाँ
स्थानीय
है
क्योंकि
उनकी
कहानियों
में
प्रकृति, स्थान, परिवार, समाज
आदि
रचे-बसे
हैं।
अक्सर
उनके
पात्र
कुमाऊं, रिश्तेदार
या
कार्यस्थल
के
ही
रहते
हैं
इसलिए 'विश्वनाथ
त्रिपाठी' भी
ऐसा
लिखते
हैं
कि ' शेखर
का
साहित्य
लगभग
उनकी
आत्मकथा
का
विस्तार
कहा
जा
सकता
है'।[i] सन् 1950 के
बाद
के
कथा
परिदृश्य
में
जिन
कथाकारों
ने
परिवेश
की
निजता, शहरी
कस्बाई
जीवन, जीवन
मूल्य
विघटन
आदि
की
यथार्थपरक
अभिव्यक्ति
दी
उसमें
शेखर
जोशी
का
नाम
उल्लेखनीय
है।
इनकी
कहानियों
को
पढ़ने
से
पता
लगता
है
कि
सब
अलग-अलग
मिजाज
की
हैं
जिसमें
ख़ास
बात
यह
है
कि
ये
विषय
के
साथ
शिल्प
पर
भी
निरंतर
प्रयोग
करते
हैं।
शेखर
जोशी
की
कहानियाँ
हमें
संपूर्ण
पहाड़ी-जीवन
को
दिखाती
हैं, पहाड़ी-जीवन
के
आचार
व्यवहार, रीति-रिवाज ,धार्मिक, आर्थिक
और
सामाजिक
परिस्थितियों, शहर
से
निकल
के
पहाड़
से
जुड़ना
या
पहाड़
से
निकलकर
शहर
की
भीड़
में
शामिल
होना
उनकी
कहानियों
में
अलग-अलग
ढंग
से
प्रस्तुत
होता
है, जिसमें ' दाज्यू', ' कोसी
का
घटवार', ' बोझ', ' समर्पण ' आदि
प्रमुख
हैं।
कहानीकार
परिस्थितियों
का
चित्रण
करते
हुए
प्रकृति
को
सहज
ही
उसमें
शामिल
कर
देता
है।
उनकी
कहानी
"दाज्यू"(1953) को
देखें
तो
पात्र
कुमाऊं
का
है 'दाज्यू' शब्द
पहाड़ी
परिवेश
का
है
और
इसी
संबंध-बोधक
शब्द
के
इर्द-गिर्द
पूरी
कहानी
चलती
है।
दूर
देश
से
आए
जगदीश
बाबू
की
मुलाकात
एक
कैफे
में 'चाय-शाब' कहने
वाले
लड़के
से
होती
है।
दोनों
एक
ही
क्षेत्र
के
हैं
और
सुदूर
शहर
के
अजनबीनपन
और
अकेलापन
महसूस
करने
वाले
जगदीश
बाबू
से
कुछ
संवाद
होने
के
कारण
मदन
उनमें
अपना
दाज्यू
ख़ोज
लेता
है।
कहानीकार
अपनत्व
के
भाव
को
मदन
के
विचारों
में
चल
रहे
द्वंद्व
से
दिखाता
है- "मदन को
जगदीश
बाबू
के
रूप
में
किस
की
छाया
निकट
जान
पड़ी! ईजा?- नहीं
बाबा? - नहीं
दीदी,... भुलि ? नहीं, दाज्यू? हां, दाज्यू!"[ii] किंतु जगदीश
बाबू
के
व्यवहार
बदलने
से
मदन
की
कोमल
भावनाओं
को
चोट
पहुंचती
है।
जगदीश
बाबू
की
प्रेस्टीज
उनके
लिए
सबसे
बड़ी
है
वह
मदन
से
कहते
हैं
"चाय नहीं, लेकिन
या
दाज्यू
दाज्यू
क्या
चिल्लाते
रहते
हो
दिन
रात।
किसी
की
प्रेस्टीज
का
ख्याल
भी
नहीं
है
तुम्हें?"[iii]
साफ
है
पूरी
कहानी
स्थितियों
और
संवाद
के
बीच
बड़ी
सहजता
से
घटित
होती
चलती
है; अपरिचित
संसार
में
अपने
इलाके
के
व्यक्ति
से
जुड़ाव
और
आत्मीयता
के
तार
जुड़ना
स्वाभाविक
है
लेकिन
मध्यमवर्गीय
प्रदर्शनप्रियता
और
अहम (प्रेस्टीज) के
कारण
मोहभंग
की
कारुणिक
स्थिति
मदन
के
व्यवहार
को
बदल
देती
है
और
यही
व्यवहारिक
बदलाव
शेखर
जोशी
अपनी
कहानी
में
सामने
लाते
हैं।
विश्वनाथ
त्रिपाठी
का
मानना
है
कि 'दाज्यू' कहानी
में
मदन
का
क्षोभ
कुमाऊं
की
संस्कृति
का
क्षोभ
और
यह
क्षोभ
कुमाऊं
की
भाषा
के
एक
शब्द 'दाज्यू' के
माध्यम
से
व्यक्त
हुई
है।[iv]
'कोसी
का
घटवार' कहानीकार
की
चर्चित
कहानियों
में
से
एक
है।
पूरी
कहानी
मानवीय
प्रेम
में
गहरी
निष्ठा
दिखाने
वाली
है।
कहानीकार
बहुत
कुछ
अव्याख्यायित
रहने
देता
है
जिससे
प्रेम
की
गहराई
और
तीव्रता
लक्षित
होती
है।
गुसाईं
पलटन
से
रिटायर
होता
है, वह युवक
से
अधेड़
हो
जाता
है
और
जब
लछमा
को
देखता
है
तो-
"एक झिझक एक
असमर्थता
थी
जो
उसका
मुंह
बंद
कर
रही
थी"[v] और जब
लछमा
निकट
आती
है
"अचानक साक्षात्कार
होने
का
मौका
ना
देने
की
इच्छा
से
गुसाईं
व्यस्तता
का
प्रदर्शन
करता
हुआ
मिहल
की
छांह
में
चला
गया।"[vi]
यह
कहानी
लछ्मा
और
गुसाईं
के
अव्यक्त
प्रेम
और
जीवन
संघर्षों
से
बंधी
हुई
है।
पहाड़
के
जीवन
में
व्याप्त
संघर्ष
और
तथा
निरंतर
हो
रहे
परिवर्तनों
को
शेखर
जोशी
ने
स्वयं
अनुभव
किया
है
इसलिए
इनकी
कहानियों
में
इसका
वर्णन
भरपूर
है,
विशेषत:
पर्वतीय
प्रकृति
का।
"सामने पहाड़ी के
बीच
की
पगडंडी
से
सर
पर
बुझा
लिए
एक
नारी
आकृति
उसी
और
चली
आ
रही
थी।"[vii]
पहाड़ी
परिवेश
के
सौंदर्य
और
वातावरण
को
कहानीकार
सहज
ही
कहानी
में
उकेर
देता
है। 'रास्ते' कहानी
में
भी
इसी
वातावरण
का
वर्णन
मिलता
है
"चीड़ की पतली
पत्तियों
से
रास्ता
ढका
हुआ
था
असावधानी
से
चलने
पर
कभी-कभी
पाँव
फिसल
जाते
थे।
यों
उस
मौसम
में
सभी
रास्तों
की
यही
दशा
रहती
है
आते
समय
गणानाथ
की
उतराई
में
भी
हमें
बहुत
संभलकर
आना
पड़ा
था
परंतु
इस
बार
थोड़ा-सा
भी
पाँव
फिसलने
पर
दादा
विचित्र
स्वर
में
बड़बड़ा
उठते
थे।"[viii]
कहानीकर
दिन
में
अलग
अलग
समय
में
वहाँ
के
मौसम
का
मिज़ाज
भी
व्यक्त
करता
है, कैसे
पहाड़ों
पर
दोपहर
में
रास्तों
में
सन्नाटा
हो
जाता
है-
"पिछली बार जब
मैं
उस
मार्ग
से
होकर
गया
था
तब
नदी
चढ़ी
हुई
थी
और
किनारों
की
समतल
भूमि
पर
हरी
घास
उग
आए
थे
जिस
पर
आने
वालों
के
पैरों
से
दबने
के
कारण
सहज
ही
मार
की
एकरेखा
अंकित
हो
उठी
थी।...दोपहर
की
इस
बेला
में
कहीं
कोई
ऐसा
आदमी
भी
नहीं
दिखाई
दे
रहा
था
जिससे
पूछ
कर
अपनी
शंका
का
समाधान
किया
जा
सकता।"[ix]
पहाड़ी
परिवेश
की
कहानियों
में
सौंदर्य
के
साथ-साथ
सबसे
ज्यादा
दिखने
वाली
समस्या
है
शोषण।
शोषण
मध्यनिम्नवर्गीय
और
निम्नवर्ग
के
लोगों
के
साथ।
शेखर
जोशी
पहाड़ी
वर्णन
के
साथ
वहाँ
हो
रहे
परिवर्तनों
और
शोषण
को
सामाजिक
आर्थिक
ढंग
से
कहानियों
में
प्रस्तुत
करते
हैं
इस
ढंग
की
‘समर्पण’ और ‘बोझ’
कहानी
का
नाम
उल्लेखनीय
है।
बोझ
कहानी
में
जहाँ
एक
तरफ़
पहाड़ी
वातावरण
है
"दिन का तीसरा
पहर
ढलान
पर
था।
चीड़
के
पेड़ों
की
लंबी
परछाइयां
अजगर
की
तरह
सड़क
के
आरपार
पसर
गई
थी।….. सड़क
के
नीचे
सब्जी
की
सीढ़ीनुमा
क्यारियां
थी
और
फिर
नदी
की
पतली
धारा
जो
पानी
की
कमी
के
कारण
अपनी
जगह
पर
ठहरी
हुई
दिखाई
दे
रही
थी"[x]
तो
साथ
ही
पहाड़ी
जीवन
में
व्याप्त
शोषण
का
वर्णन
है।
कहानी
में
कहानीकार
दिखाता
है
कि
कैसे
निम्नवर्गीय
कुली
का
उच्चवर्ग
के
लोग
शोषण
करते
हैं
। "होश
संभालने
के
बाद
से
ही
उसे
कभी
प्रधान
की
भेड़-बकरियों
को
चराने
की
जिम्मेदारी
सौंप
दी
जाती
तो
कभी
खेतों
में
हाथ
बंटाने
के
लिए
बुला
लिया
जाता।"[xi]
कहानी
में
युवा
कुली
की
आर्थिक
विसंगतियों
की
ओर
संकेत
किया
गया
है
तथा
शेखर
जोशी
विषम
परिस्थितियों
में
भी
उसके
सामाजिक
और
नैतिक
बोध
को
दिखाते
हैं।
शेखर
जोशी
का
यह
मानना
सही
साबित
हुआ
कि
परिवर्तित
सामाजिक
परिस्थितियों
में
औद्योगिक
संस्थानों
की
भूमिका
बिखरते
ग्रामीण
जीवन
से
कहीं
अधिक
महत्वपूर्ण
होगी।[xii]
शेखर
जोशी
नई
कहानी
के
कथाकारों
में
रहे
हैं
और
औद्योगिक
पृष्ठभूमि
पर
गहराई
और
विस्तार
से
लिखने
वाले
संभवतः
पहले
कथाकार
हैं।
कहानीकार
ने
स्वयं
कारखानों
का
जीवन
देखा ,भोगा
और
जिया
है
जहाँ
तेल
का
कालिख
से
सने
कपड़ों
में
श्रमिक
जीवन
के
संघर्ष
को
वे
प्रस्तुत
करते
हैं।
इन
कहानियों
में
बदबू, मेंटल, सीढ़ियां,आखिरी
टुकड़ा
आदि
मुख्य
हैं।
इन
कहानियों
के
लिए
कहानीकार
ने
उन
पात्रों
को
आधार
बनाया
है
जो
निम्न
सामाजिक-आर्थिक
पृष्ठभूमि
के
पात्र
हैं; तथा
इन
पात्रों
की
विवशता ,पीड़ा
और
संघर्ष
को
कहानी
में
चित्रित
किया
है। 'बदबू' कहानी
एक
कारखाने
में
काम
करने
वाले
श्रमिकों
की
जिंदगी
पर
आधारित
है, इस
कारखाने
में
काम
करने
वाले
कई
श्रेणी
के
लोग
हैं
जिनमें
मजदूर, मिस्त्री, फोरमैन, सर्चमैन
और
साहब
सभी
हैं।
इस
कहानी
का
मुख्य
पात्र
पूरे
होशोहवास
में
रहता
है; उसे
बदबू
हमेशा
महसूस
होती
रहती
है।
यहाँ
बदबू
व्यक्ति
की
जिजीविषा
एवं
संघर्ष
की
प्रतीक
मालूम
देती
है।
जब
तक
वह
महसूस
होती
है
तब
तक
संघर्ष
की
गुंजाइश
है,जीवन
प्रगति
पर
है
तथा
मानवीय
संवेदना
बचे
रहने
का
संकेत
है।
"एक
बार
हाथ
अच्छी
तरह
धो
लेने
पर
उसने
उन्हें
नाक
तक
ले
जा
कर
सूंघा, केरोसीन
की
गंद
अभी
छूटी
नहीं
थी।
दुबारा
साबुन
से
धो
लेने
पर
भी
उसे
वैसे
ही
गंध
का
आभास
हुआ
फिर
एक
बार
और
साबुन
जेब
से
निकालकर
उसने
हाथों
में
मलना
शुरू
कर
दिया।"[xiii]
कहानी
छोटे-छोटे
विवरणों
में
कई
चित्र
प्रस्तुत
करती
है
कि
कैसे
मजदूरों
को
अनुकूलित
किया
जाता
है
ताकि
वे
अफसरों
की
हिदायत
वह
हुकुम
के
अधीन
रह
सके।
कहानी
में
दिखाया
जाता
है
कि
कैसे
कारखानों
में
सभी
अफसर
सिगरेट
पीते
घूमते
हैं
किंतु
श्रमिकों
को
बीड़ी
पीने
को
मना
किया
जाता
है।
कारखाने
से
बाहर
निकलते
वक्त
भी
श्रमिकों
की
चेकिंग
होती
है
और
एक
मजदूर
अफसरों
के
इस
अमानवीय
व्यवहार
के
प्रति
रिएक्शन
देता
है-
"सालों को शक
रहता
है
कि
हम
टांगों
के
साथ
कुछ
बांधे
ले
जा
रहे
हैं
इसलिए
अभी
उछल
कूद
का
खेल
कर
आने
लगे
हैं
।….इनका
बस
चले
तो
यह
गेट
तक
हमारी
नागा
साधुओं
की
सी
बारात
बनाकर
भेजा
करें…।"[xiv]
मजदूर
वर्ग
का
शोषण
चित्रित
करते
हुए
कहानीकार
दिखाता
है
कि
कैसे
सारे
नियम
हमेशा
मजदूर
वर्ग
पर
थोपे
जाते
हैं
जिस
पर
कई
बार
उन्हें
सजा
भी
सुना
दी
जाती
है।
मजदूर
संगठन
बनने
के
शुरुआती
संकेत
पर
प्रबंधन
द्वारा
उसे
कुचलने
का
यत्न
तथा
विवशता
में
बिखरते
मजदूरों
का
मार्मिक
वर्णन
कथा
में
मिलता
है।
"विश्वनाथ त्रिपाठी"
इस
कहानी
के
संदर्भ
में
लिखते
हैं
कि ' बदबू
के
एहसास
का
मर
जाना
और
यह
एहसास
की
बदबू
का
बोध
नहीं
रह
गया
है, वैयक्तिक
और
उससे
कहीं
बढ़कर
सामाजिक
ऐतिहासिक
शून्यबोध
का
रहना
और
मिट
जाना
है
चेतन
और
अचेतन
हो
जाने
का
अंतर
है।[xv]
'मेंटल' कहानी
कारखाने
में
काम
करने
वाले
एक
ईमानदार
मिस्त्री
की
कहानी
है।
कारीगर
के
माध्यम
से
कहानीकार
कारखाने
के
माहौल
में
व्याप्त
हर
चीज़
को
बारीकी
से
प्रस्तुत
करता
है
तथा
अफसरों
की
दादागिरी
का
पर्दाफाश
करता
है।
कारीगर
अफसर
द्वारा
चोर
कहे
जाने
पर
झुंझला
उठता
है
और
कहता
है-
"आपने मुझे चोर
कहा ? मैं
चोर
हूं ?चोर
मैं
हूं
कि
आप
हैं? यह
थैला
मेरा
बन
रहा
है
कि
आपका?"[xvi]
यह
कहानी
श्रम
दोहन
के
चिट्ठे
को
सामने
लाकर
रख
देती
है।
शेखर
जोशी
शोषक और
शोषित
दोनों
वर्गों
की
साइकिक
समझते
हैं, कहानी
में
दिखाया
जाता
है
कि
मज़ाक
करने
का
हक
केवल
अफसरों
को
ही
है।
श्रमिकों, मजदूरों और
शिल्पकारों
से
कैसे
श्रम
लिया
जाता
है
कहानीकार
दिखाता
है।
कई
बार
व्यक्तिगत
लाभ
के
लिए
काम
निकलवा
कर
उन
उन
की
कोई
इज्जत
नहीं
की
जाती।
मजदूर
कहता
है
कि
"हर आदमी को
अपनी
इज्जत
प्यारी
होती
है।"[xvii]
‘आखिरी
टुकड़ा’
कहानी
समय
के
साथ
बदलते
हुए
मनुष्य
का
लेखा-जोखा
है।
दो
पीढ़ी
का
टकराव
दिखाते
हुए
कहानीकार
पात्र
‘मंगरू’ और ‘सूरजा’ जो
पिता
पुत्र
हैं।
दोनों
की
सोच
में
खासा
फर्क
दिखाते
हैं।
पुश्तैनी
जमीन
के
इर्द-गिर्द
यह
पूरी
कहानी
चलती
है।
मंगरू
को
अपनी
जमीन
से
भावनात्मक
लगाव
है
क्योंकि
उसके
बारे
में
मां
मंगरू
को
यह
बताती
थी
कि
पंडित
ने
इसी
ज़मीन
के
टुकड़े
की
ज़िद
में
लाठी
चलाई
थी।
वहीं
सूरजा
की
संवेदना
कुंदित
है
वह
अफसरशाही
और
नई
पीढ़ी
का
प्रतीक
है
उसके
लिए
जमीन
औद्योगिक
विकास
का
एक
जरिया
है।
"सुरजा को कितनी
बार
उस
पुराने
नक्शे
के
बारे
में
समझाने
की
कोशिश
की
थी
मंगरू
ने।
लड़कपन
में
चाव
से
सुन
भी
लेता
था
बहुत
कुछ
अपनी
ओर
से
पूछता
भी
था
।
पर
अब
इधर
कई
वर्षों
से
उसने
अनुभव
किया
था
जैसे
सूरजा
को
पूरी
कहानी
से
कोई
लगाव
ही
न
हो।
बात
करने
लगे
तो
दूसरी
कोई
दूसरी
बात
छेड़कर
बात
काट
देता
था।"[xviii]
कहानीकार
इस
कहानी
में
दो
पीढ़ियों
के
टकराव
के
साथ-साथ
गाँव
वालों
का
विरोध
और
व्यवस्था
के
सामने
उनकी
मजबूरी
दिखाता
है।
मज़दूरों
से
काम
लेने
के
लिए
मालिक
सख़्ती
का
इस्तेमाल
करते
हैं।
किसान
से
मजदूरों
में
तब्दील
होते
ग्रामीणों
का
गहरा
दुख
तथा
अंग्रेजी
हुकूमत
की
तानाशाही
दिखाते
हुए
यह
दिखाता
है
कि
अंग्रेजों
से
ज्यादा
क्रूर
तानाशाह
हमारे
बीच
से
ही
निकले
शासक
वर्ग
के
लोग
हैं
जो
मंगरू
को
फूलों
के
अंग्रेजी
नाम
मालूम
ना
होने
की
सजा
में
नौकरी
से
निकाल
देते
हैं।
"तब जिंदगी में
पहली
बार
इन
हाथों
से
हल
छूटा
था
इतने
वर्षों
बाद
भी
स्टोर
रूम
के
कोने
में
बैठे- बैठे
मंगरू
की
आंखें
छलछला
आई।जिस
दिन
अपने
बैलों
के
कंधों
पर
जुआ
रखने
की
बजाय
उसने
उन्हें
दिन
दिन
भर
ईंट ढोने
के
लिए
गाड़ी
में
जोता
था
उस
दिन
सूरजा
की
माई
रोने
लगी
थी।"[xix]
शेखर
जोशी
की
कहानियों
में
मध्यमवर्गीय
जीवन
को
विशेष
स्थान
मिला
है।अपने
निजी
अनुभवों
चाहे
कारखाने
के
अनुभव
हों, पहाड़ी जीवन
से
संबंधित
या
परिवर्तित
जीवन
मूल्य
से
तथा
आधुनिकता
बोध
को
वह
अपनी
कहानियों
में
विस्तृत
कैनवास
प्रदान
करते
हैं।
स्वतंत्रता
से
पूर्व
नारी
की
तुलना
में
उस
समय
तक
नारी
के
अधिकारों
में
परिवर्तन
आ
गया
था।
मध्यमवर्गीय
पुरुष
की
तुलना
में
नारी
अधिक
सजग
हो
रही
थी, महत्वाकांक्षा भी
उसी
के
साथ
पनप
रही
थी।
शेखर
जोशी
पहाड़ी
जीवन
में
नारी
संघर्ष, मध्यमवर्गीय
नारी
की
स्थिति
को
अपनी
लेखनी
के
माध्यम
से
सामने
लाते
हैं।
उनकी
कहानियों
में
पहाड़ी
स्त्रियों
की
दोहरी
जिम्मेदारियां, कष्ट, उनकी
आपबीती
लक्षित
होती
है।
इसी
श्रृंखला
में 'कोसी
का
घटवार', 'गोपुली
बुबु', 'शुभो
दीदी', 'तर्पण', 'बच्चे
का
सपना' आज
कहानियाँ
प्रमुख
हैं।
कोसी
का
घटवार
कहानी
में
लछमा
का
चित्रण 'विवाह
पूर्व
प्रेमिका' तथा 'पुत्रवती
विधवा' के
रूप
में
होता
है
और
वह
गुसाई
की
आर्थिक
सहायता
अस्वीकार
करती
हैं
वह
अकेले
ही
अपने
और
अपने
बच्चे
का
भरण
पोषण
करती
है।
लछमा
गुसाईं
से
कहती
है
"मुश्किल पड़ने पर
कोई
किसी
का
नहीं
होता
जी! बाबा
की
जायदाद
पर
उनकी
आंखें
लगी
हैं, सोचते
हैं
कहीं
मैं
हक़
न
जमा
लूं।
मैंने
साफ-साफ
कह
दिया
मुझे
किसी
का
कुछ
लेना
देना
नहीं।
जंगलात का
लीसा
ढो
ढाकर
अपनी
गुजर
कर
लूंगी
किसी
की
आंख
का
कांटा
बनकर
नहीं
रहूंगी।"[xx]
वह
एक
समर्थ
नारी
के
रूप
में
उभरती
है
ना
की
अस्मिता
वहीं
दयनीय
स्त्री
के
रूप
में।
जब
गुसाईं
लछमा
को
रुपए
देता
है
तो
उसके
मना
करने
पर
कहानीकार
गुसाईं
की
मनःस्थिति
को
व्यक्त
करते
हुए
दिखाते
हैं -
"रुपया लेने के
लिए
लछमा
से
अधिक
आग्रह
करने
का
उसका
साहस
नहीं
हुआ
पर
गहरे
असंतोष
के
कारण
बुझा
बुझा
सा
वह
धीमी
चाल
से
चल
कर
वहां
से
हट
गया।[xxi]
शेखर
जोशी
ने
मनुष्य
के
छोटे
से
छोटे
पक्ष
को
अपनी
कहानियों
में
अंकित
किया
है, जिसमें
आशा-निराशा, अकेलापन, अजनबीपन
की
अनुभूति
भी
एक
प्रमुख
पक्ष
है। 'गोपुली
बुबु' में
स्त्री
का
संघर्ष, अकेलापन, दोहरी
जिम्मेदारी
का
अंकन
कहानीकार
बहुत
ही
मार्मिक
ढंग
से
करता
है।
स्त्री
कहती
है-
"इसका काम कर, उसका
हाथ
बंटा ,खुद
भूखी
रहकर
मैंने
बच्चों
का
पेट
वाला।
पगला
आदमी
घर
में, बच्चे
अज्ञान।
कैसी
कहनी
अनकहनी
लोग
कह
जाते
थे।
मारने
वाले
का
हाथ
थाम
सकते
हैं
पर
बोलने
वाली
की
जीभ
कौन
थामें? काठ
का
कलेजा
करके
सब
सुना, सब
भुगता
मैंने।"[xxii]
एक
स्त्री
अपने
मन
की
बात
अपनी
आपबीती
सुनाने
के
लिए
कई
बार
सोचते
हैं
यह
घुटन
गोपुली
बुबु' के
इस
कथन
से
स्पष्ट
होता
है :
"तू भी कहेगा
गोपी
बहू
ने
मचमचाट
लगा
दिया।
पर
तूने
ही
तो
कहा
कि
बुआ
अपनी
कथा
सुना।
मेरी
तो
कथा
ही
कथा
हुई
रे!"[xxiii]
ठीक
ऐसे
ही
कहानीकार
की 'शुभो
दीदी' स्त्री
एवं
बाल
मनोविज्ञान
को
केंद्र
में
रखकर
लिखी
गई
कहानी
है।
कहानी
में
अनमेल
विवाह, कुपोषण, मानसिक
व्यथा
का
वर्णन
बखूबी
मिलता
है।
स्त्री
का
अकेलापन
शेखर
जोशी
अपनी 'तर्पण' कहानी
में
प्रस्तुत
करते
हैं।
गाँव
में
रह
रही
तारी
की
भाभी
ने
अपना
जीवन
इसी
अकेलेपन
में
काटा
और
दुनिया
से
चली
गई।
"भाभी ने जीवन
के
अनेक
वर्ष
इसी
गोट
में
काट
दिए
थे
और
अकेलेपन
बुढ़ापे
और
जोर
बुखार
से
जूझते
हुए
अंत
में
वही
प्राण
त्याग
दिए
थे।"[xxiv] 'बच्चे का
सपना' कहानी
में
भी
कहानीकार
इसी
मानसिक
पक्ष
का
उद्घाटन
करता
है।
शेखर
जोशी
अपनी
कहानियों
में
जीवन
में
परिवार
के
सुख
और
उस
सुख
से
वंचित
रहने
के
अनंत
दुखों
की
मार्मिक
व्यंजना
करते
हैं।
शेखर
जोशी
की
सभी
कहानियाँ
अलग
मिजाज़
की
है
और
सभी
में
कहानीकार
अपनी
तरह
से
उपस्थित
रहता
है।
उनकी
कहानियों
में
दो
पीढ़ियों
का
संघर्ष, भूमि
अधिग्रहण, पहाड़ी
परिवेश, वहां
होते
परिवर्तन, मजदूर
संगठन
के
खिलाफ
अफ़सर वर्ग
की
कुटिल
राजनीति, व्यक्तिगत
लाभ
हेतु
श्रम
दोहन, वर्ग संघर्ष, पलायन, पहाड़ी स्त्रियों
का
कष्ट
एवं
दोहरी
जिम्मेदारी, स्त्री
एवं
बाल
मनोविज्ञान
को
स्वर
मिलता
है।
कहानीकार
भाव
और
शिल्प
दोनों
की
दृष्टि
से
कहानी
में
प्रयोग
करता
चलता
है, उनकी
अपनी
विशेषता
है
कि
वह
बहुत
कुछ
कहने
में
यकीन
नहीं
करते
उनके
मंतव्य
छुपे
रहते
हैं, उन्हें
पाठक
अपने
हिसाब
से
ढूंढता
है।
शेखर
जोशी
हिंदी
कहानी
में
प्रेमचंद
की
पारदर्शी
यथार्थ
की
लेखन
परंपरा
को
आगे
बढ़ाने
वाले
कथाकारों
में
प्रमुख
हैं।
इनकी
कहानियों
में
कहानीकार
के
प्रगतिशील
मूल्यों
के
साथ-साथ
साहित्यिक
मूल्य
और
व्यवहारिक
जीवन
को
संभालने
की
दृष्टि
नैसर्गिक
ही
प्रकट
होती
है, कहने
में
असंगति
नहीं
कि
इनकी
कहानियों
का
कैनवास
बहुत
विस्तृत
है।
कोशी
का
घटवार, दाज्यू, साथ
के
लोग, हलवाहा, नौरंगी
बीमार
है, मेरा
पहाड़, बच्चे
का
सपना, आदमी
का
डर, एक
पेड़
की
याद
आदि
कहानियाँ
देकर
लेखक
शेखर
जोशी
ने
हिन्दी
साहित्य
को
समृद्ध
किया।
इनका
जन्म10 सितंबर
1932
को
हुआ
था, हाल
में
ही
4
अक्टूबर
2022
को
नब्बे
वर्ष
की
उम्र
में
उनका
निधन
हो
गया।
उनका
जाना
हिंदी
कथा
साहित्य
की
अपूरणीय
क्षति
है।
इन्होंने
लेखन
के
दायित्व
को
बखूबी
निभाते
हुए
हिंदी
में
एक
से
बढ़कर
एक
कहानियाँ
लिखी
हैं।
इनकी
कहानियों
का
अंग्रेजी, चेक, पोलिश, रूसी
और
जापानी
भाषाओं
में
अनुवाद
हो
चुका
है।
उनकी
कहानियाँ
'कोशी
का
घटवार' 'दाज्यू' आदि
विभिन्न
पाठ्यक्रमों
में
शामिल
हैं।
'दाज्यू' पर
बाल
फिल्म
सोसायटी
द्वारा
एक
फ़िल्म
का
निर्माण
भी
किया
गया
है।
बदबू, दाज्यू, कोशी
का
घटवार, मेंटल
आदि
कहानियों
ने
उन्हें
एक
बड़े
कहानीकार
के
रूप
में
प्रतिष्ठित
किया
है।
उनकी
कहानियाँ
जीवन
के
गहरे
अनुभवों
से
उपजी
हैं।
पहाड़ी
इलाके
के
कठिन
जीवन-संघर्ष
से
लेकर
महानगरीय
जीवन
के
उत्पीड़न, यातना
का
सजीव
चित्रण
किया
है।
औद्योगिक
मजदूरों
के
हालात, शहरी, कस्बाई
और
निम्नवर्ग
के
सामाजिक-भौतिक
संकट, धर्म, जाति
की
रूढ़ियों
से
उत्पन्न
संकट
इत्यादि
उनकी
कहानियों
के
प्रमुख
विषय
हैं।
उनके
साहित्यिक
योगदान
के
लिए
मैं
उन्हें
धन्यवाद
देती
हुई
शत-शत
नमन
करती
हूँ
और
उनके
प्रति
विनम्र
श्रद्धांजलि
अर्पित
करती
हूँ।
[i] आजकल पत्रिका, नई दिल्ली (अंक सितम्बर 2022) नब्बे के शेखर जोशी, लेख: रचनाकर शेखर: विश्वनाथ त्रिपाठी, पृष्ठ संख्या 09
[ii] प्रतिनिधि कहानियां, शेखर जोशी, राजमकल प्रकाशन नई दिल्ली, आवृत्ति 2001, पृष्ठ संख्या 09
[iii] वही, पृष्ठ संख्या 09
[iv]आजकल पत्रिका, नई दिल्ली (अंक सितम्बर 2022) नब्बे के शेखर जोशी, लेख: रचनाकर शेखर: विश्वनाथ त्रिपाठी, पृष्ठ संख्या 09
[v] प्रतिनिधि कहानियां, शेखर जोशी, राजमकल प्रकाशन नई दिल्ली, आवृत्ति 2001, पृष्ठ संख्या 22
[vi] वही, पृष्ठ संख्या 22
[vii] वही, पृष्ठ संख्या 22
[viii] साथ के लोग, शेखर जोशी, संभावना प्रकाशन रेवती कुंज, हापुड़, द्वितीय संस्करण 1981, पृष्ठ संख्या 23
[ix] प्रतिनिधि कहानियां, शेखर जोशी, राजमकल प्रकाशन नई दिल्ली, आवृत्ति 2001, पृष्ठ संख्या 25
[x] वही, पृष्ठ संख्या 25
[xi] वही, पृष्ठ संख्या 45
[xii] आजकल पत्रिका नई दिल्ली (अंक सितम्बर 2022) नब्बे के शेखर जोशी, लेख: श्रमिक जीवन और शेखर जोशी की कहानियां, महेश दर्पण, पृष्ठ संख्या 17
[xiii] प्रतिनिधि कहानियां, शेखर जोशी, राजमकल प्रकाशन नई दिल्ली, आवृत्ति 2001, पृष्ठ संख्या 130
[xiv] वही, पृष्ठ संख्या 130
[xv] आजकल पत्रिका नई दिल्ली (अंक सितम्बर 2022) नब्बे के शेखर जोशी, लेख: रचनाकर शेखर: विश्वनाथ त्रिपाठी, पृष्ठ संख्या 130
[xvi] प्रतिनिधि कहानियां, शेखर जोशी, राजमकल प्रकाशन नई दिल्ली, आवृत्ति 2001, पृष्ठ संख्या 129
[xvii] वही, पृष्ठ संख्या 126
[xviii] साथ के लोग, शेखर जोशी, संभावना प्रकाशन रेवती कुंज, हापुड़, द्वितीय संस्करण 1981, पृष्ठ संख्या 85
[xix] वही, पृष्ठ संख्या 89
[xx] प्रतिनिधि कहानियां, शेखर जोशी, राजमकल प्रकाशन नई दिल्ली, आवृत्ति 2001, पृष्ठ संख्या 24
[xxi] वही, पृष्ठ संख्या 28
[xxii] वही, पृष्ठ संख्या 61
[xxiii] वही, पृष्ठ संख्या 62
[xxiv] वही, पृष्ठ संख्या 68
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय
सम्पर्क : chanda.sagar@mirandahouse.ac.in, 9871442565
बहुत खूब, चंदा | विश्वनाथ त्रिपाठी जी से शेखर जोशी जी की कहानियों को पढ़ने का सुख ही अद्भुत था | श्रम-संस्कृति और मानव गरिमा का संयोजन |
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