आलेख : ब्रिटिश राज में प्रतिबंध सम्बन्धी कानूनों का इतिहास / आशुतोष कुमार पाण्डेय

ब्रिटिश राज में प्रतिबंध सम्बन्धी कानूनों का इतिहास
- आशुतोष कुमार पाण्डेय

अंग्रेजी के ‘Ban’ शब्द को हिंदी में ‘प्रतिबंध’ और हिन्दुस्तानी में ‘ज़ब्त’ कहते हैं। हिंदी में प्रतिबंध के कई समानार्थी शब्द हैं, जैसे- निषेध, रोक आदि। वहीं अंग्रेजी में ‘Censor’, ‘Proscription’, ‘Prohibition’, ‘Proscribe’  और ‘Bowdlerize’ जैसे शब्द हैं, जिसका राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में अर्थ उस वैधानिक कार्रवाई से है, जो प्रकाशन, संगठन, सभा आदि को गैर-कानूनी घोषित कर दमनात्मक रुख़ अपनाता है। अंग्रेजी में  इस शब्द की परिभाषा और अर्थ की व्यापकता ‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’ के अनुसार इस प्रकार है -

निर्णय देना या आधिकारिक तौर पर कहना कि 'अनुमति नहीं है'

सेंसरशिप- किताबों को रोकने  से संबंधित अधिनियम, नीति आदि।

बॉडलराइज़ - "एक साहित्यिक कार्य को सेंसर या निष्कासित करने के लिए उस कार्य को अश्लील मानना। यह शब्द डॉ थॉमस बॉडलर ने दिया है, जिन्होंने 1818 में ‘द फैमिली शेक्सपियर’ प्रकाशित किया था, जिसमें उन शब्दों या अभिव्यक्तियों को छोड़ दिया जाता है, जो मर्यादाओं के साथ नहीं पढ़े जा सकते...”
इन परिभाषाओं से यह ज्ञात होता है कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ किसे कहा जाता है!

    प्रतिबंध प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक, सभी तरह की सामाजिक संरचनाओं में उपलब्ध दिखते हैं। भारत में प्राचीन काल में प्रतिबंध को लेकर नरेंद्र शुक्ल ने लिखा है- “प्राचीन भारतीय साहित्य में शासक एवं शासितों के मध्य, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति जैसे प्रश्न पर बहुत कम, अस्पष्ट और मिले-जुले भाव मिलते हैं । जहाँ एक ओर ऋग्वेद का संदेश है, ‘आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:’ – ज्ञान को सभी दिशाओं से आने दो तथा उपनिषद, स्वतंत्र प्रयास, आलोचनात्मक विश्लेषण, परस्पर संवाद के द्वारा सत्य की निर्भय खोज को महत्व देता है, वहीं दूसरी तरफ बृहदारण्यक उपनिषद के प्रसंग में याज्ञवल्क्य द्वारा गार्गी को चेतावनी के स्वर में बहस करने से रोकता हुआ पाते हैं। लोक प्रतिनिधि संस्थाओं, सभाओं और समितियों का उल्लेख करते हुए अथर्ववेद में किसी साम्राज्य की समृद्धि के लिए राजा और इन प्रतिनिधि संस्थाओं के मध्य शांति और सामंजस्य को आवश्यक बताया है।” इसी विषय पर सेंसरशिप वर्ल्ड इनसाइक्लोपीडिया’ में लिखा गया है कि, “आर्य (नोबल फ्लोक) जिन्होंने दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य में उत्तर-पश्चिम से भारत पर आक्रमण किया।  ऋग्वेद में व्यक्त एक अलग धार्मिक जीवन विकसित किया। उसमें 1000 से अधिक भजनों का संग्रह था, जो बाद में रूढ़िवादी हिंदू धर्म का पवित्र पाठ बन गया। 1500 और 900 ईसा पूर्व के बीच आमतौर पर माना जाता था कि इसे मौखिक रूप में ही प्रेषित किया जायेगा। ब्राह्मणों (हिंदू समाज की चार जातियों के बीच पहले पद पर) को यह याद करना सिखाया गया था। बजाय पहले मौजूद संस्करण को सुनाना, जिसमें  500 CE की तिथियाँ थीं । यहाँ तक कि वेद के नियमों को पार करना वर्जित था। एक 14 वीं सदी के सीई कमेंटेटर कहते हैं कि,"पांडुलिपि पढ़ना निषिद्ध है" संस्कृत विद्वान एल रेमौ और सामाजिक मानवविज्ञानी जैक गुडी, हालांकि इस संभावना पर सहमत हैं कि ब्रह्म की अवधि से धार्मिक ग्रन्थों का पाठ पांडुलिपियों के सहायक के रूप में उपयोग किया जाता था। इसके अलावा धार्मिक ग्रन्थ ऐसा प्रतीत होता है कि इसका लेखन काल लगभग 500 CE था। लेकिन शिक्षा, अंकगणित, व्याकरण और कविता उच्च जातियों तक ही सीमित थी। जाति की संस्था आर्यों और गैर-आर्यों के बीच विभाजन से उत्पन्न हुई थी। भारतीय समाज के विकास में मौलिक भूमिका निभाई है।”

    इस तरह कालिदास द्वारा रचित ‘कुमारसंभवम्’ को लेकर हम एक मिथक सुनते हैं कि इसके प्रथम आठ सर्ग ही कालिदास द्वारा रचित है, क्योंकि इस महाकाव्य में शिव पार्वती के संभोग के चित्रण के कारण कालिदास को कुष्ठ रोग हो गया था। अतः वे इसे आगे नहीं लिख पाए थे। इसी तरह हम चार्वाक और अन्य मत के धर्मावलम्बियों के बारे में जानते हैं। मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि,“अश्वघोष की कृतियाँ कभी इस देश में अत्यन्त लोकप्रिय थीं। फिर धीरे-धीरे वे रचनाएँ यहाँ से गायब हो गईं । कृतियों के गायब होने की यह प्रक्रिया केवल अश्वघोष तक सीमित नहीं रही है। इसके शिकार दूसरे बौद्ध दार्शनिक और कवि भी हुए हैं। नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबंधु, दीङ-नाग, धर्मकीर्ति, शांतिदेव आदि की अधिकांश रचनाएँ इस देश से गायब हो गयीं और अब उनका केवल तिब्बती, चीनी, जापानी अनुवाद ही उपलब्ध है या फिर अनुवादों अथवा प्रतिलिपियों के आधार पर उनका पुनर्निर्मित रूप। अगर इन कृतियों का चीनी और तिब्बती में अनुवाद नहीं होता, तो भारत के साहित्य और दर्शन के इतिहास में अश्वघोष और दूसरे कवियों तथा दार्शनिकों का नाम लेने वाला भी कोई नहीं होता।” मुग़ल काल में ‘दारा शिकोह’ और सूफी फ़कीर ‘सरमद’ को औरंगजेब ने गला-काट कर मरवा दिया। इसके बावजूद  मध्यकाल तक भारत में कोई संस्थागत प्रतिबंध नहीं था ।
       
    ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में आगमन के कुछ वर्षों बाद आर्थिक बदलाव और शासन में अंग्रेजों का हस्तक्षेप देखा जाता है । 1857 तक भारत में लिखने और बोलने के लिए सज़ा आम हो गई थी, 1858 में भारत संस्थागत प्रतिबंध से रूबरू होता है । जिसके लिए तैयारी उन्नीसवीं सदी के शुरुआत से होने लगी थी । जिसके बारे में ए. आर. देसाई लिखते हैं- “अंग्रेजों के बीच भी स्वतंत्र भारतीय प्रेस विवादास्पद विषय रहा। उन्नीसवीं सदी में वेलेजेली, मिन्टो एडम, कैनिंग और लिटन प्रेस की आज़ादी पर कठोर प्रतिबंध के पक्षधर रहे लेकिन हेस्टिंग्स, मेटकॉफ, मैकाले और रिपन ने भारत में स्वतंत्र प्रेस का समर्थन किया। सर टॉमस मुनरो और लार्ड एल्फिन्स्टन जैसे उदारवादी ब्रिटिश नेताओं ने भी भारतीय प्रेस पर कठोर प्रतिबंधों का समर्थन किया। उनका तर्क था कि पिछड़े हुए देश पर विदेशी शासन बनाए रखना कठिन होगा अगर प्रेस को आज़ादी दी गई क्योंकि इसका सेनाओं के अनुशासन पर भी बुरा असर पड़ सकता है।” 

1878 अधिनियम :
   
     1780 में ‘बंगाल गजट’ को प्रतिबंधित करके और 1876 में ‘नील दर्पण’ पर रोक लगाकर, ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी मंशा जाहिर कर दी थी। 1876 में ‘ड्रामेटिक परफॉर्मेंस एक्ट’ द्वारा  भारत में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध और जनता के अत्याचारों से सम्बंधित सभी नाटकों को प्रतिबंधित करने के लिए कानून अमल में लाया गया। बंगाल गजट के बारे में एन. जेराल्ड बैरियर ने लिखा है कि ,“उदाहरण के लिए 1780 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने एक प्रकाशक पर मुकदमा चलाकर और मेल से पेपर पर प्रतिबंध लगाकर जे.ए. हिक्की के ‘बंगाल गजट’ में व्यक्तिगत हमलों पर प्रतिक्रिया व्यक्त की । चयनित सेंसरशिप और प्रेस के अन्य मजबूरी 1835 में चार्ल्स मेटकॉफ की मुद्रित "मुक्ति" की राय  तक जमा हो गए ।” इसके बाद  1876 में ‘प्रेस और पुस्तक रजिस्ट्रीकरण अधिनियम’ लाया  गया। इसके तहत सभी प्रकाशनों एवं प्रकाश्य पुस्तकों को प्रकाशित करने या छपने से पहले सरकार को अवगत कराना अनिवार्य कर दिया गया था। लेकिन “घोषित रूप से तो यह एक विनियमन अधिनियम था जिसका उद्देश्य प्रेस की गतिविधियों से सरकार को अवगत कराना था न कि प्रेस या अख़बारों को प्रतिबंधित करना था। किन्तु अधिनियम का प्रभाव इससे कहीं अधिक व्यापक था। प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ बुक्स एक्ट-1876 के भाग 2, 3, 4 और 5 द्वारा ब्रिटिश भारत में मुद्रित प्रत्येक पुस्तक या अख़बार पर मुद्रक का नाम, मुद्रण स्थान, प्रकाशक और प्रकाशन स्थान का नाम स्पष्ट मुद्रित करना अनिवार्य कर दिया गया था। साथ ही प्रेस की स्थापना व ऐसी किसी भी मुद्रित पत्र-पत्रिका का प्रकाशन जिसमें जन समाचार पर टिप्पणी छपी हो- ब्रिटिश भारत में प्रकाशित नहीं हो सकता था जब तक वह इस सम्बंध में घोषणा न प्रस्तुत कर दे । मुद्रण या प्रकाशन स्थान बदलने पर मुद्रक या प्रकाशक को नई घोषणा करनी होगी कि वह ब्रिटिश भारत को छोड़ेगा अथवा प्रकाशन बंद कर रहा है। (धारा-8)। इस अधिनियम के भाग चार में इन धाराओं के उल्लंघन और दंडाधिकारी के समक्ष दोषसिद्धि पर अधिकतम पाँच हजार रुपये जुर्माना या अधिकतम दो वर्ष की साधारण कैद या दोनों सजाएँ एक साथ देने का प्रावधान (धारा-12, 13,14,15 )किया गया था। ध्यातव्य है कि घोषित रूप से ‘मात्र विनियमन हेतु पारित’ इस अधिनियम की धाराओं का उल्लंघन किसी प्रेस के मुद्रक, प्रकाशक, संपादक को न केवल ऐसे भारी जुर्माने के नीचे दबा सकता था कि वह प्रेस को बंद कर देने की स्थिति तक पहुंच जाए, बल्कि उसे कारागार तक पंहुचा सकता थी।” अंग्रेजी हुकूमत ने इस अधिनियम को लाने में चतुराई दिखाई। इस अधिनियम को मात्र प्रेस के पंजीकरण हेतु अमल में लाया जाना था। लेकिन इस अधिनियम के जरिए अधिकारियों ने प्रेस को नियंत्रित करना शुरू कर दिया। जैसाकि 1515 ई. के यूरोप में हम देखते हैं कि पुस्तक के छपने से पहले धर्माधिकारी या उससे जुड़े अधिकारी पुस्तक की सामग्री को जाँचते थे। इसी तरह वहाँ बाद के वर्षों में केवल कुछ ही प्रकाशन संस्थानों से पुस्तकें छपवाने की अनुमति थी। “एलिजाबेथ के काल में हालांकि मुद्रण की छूट दी गयी, किन्तु केवल वही पुस्तकें मुद्रित हो सकती थीं, जिन्हें पहले “देखा और अनुमोदित” किया गया हो। मुद्रकों की संख्या को 20 तक सीमित किया गया तथा उनके मुद्रण का अधिकार भी रानी की इच्छा पर ही निर्भर था। इसी बीच स्टार चैंबर ने एक आदेश जारी करते हुए व्यवस्था दी कि अब कोई भी पुस्तक लन्दन, ऑक्सफोर्ड या कैंब्रिज से ही छपेगी। एक अन्य आदेश जारी करते हुए उसने व्यवस्था दी कि, यदि कोई ऐसी पुस्तक या पर्चा छपता है, जो इंग्लैंड के किसी भी अधिनियम, राजाज्ञा, आदेश या उसके निहितार्थों का विरोध करता है तो उसे कड़े दंड भोगने होंगे। लन्दन के सभी मुद्रणालयों को  सप्ताह में राजशाही कार्यकर्ताओं द्वारा जांचा जाता और यदि कोई ऐसी लिखित/ मुद्रित सामग्री मिलती जो राजा या उसकी किसी आज्ञा का उल्लंघन करती है तो उसे सार्वजनिक तौर पर जला दिया जाता। यह उस विचार को वैसे ही मारना था, जैसे विद्रोह के लिए किसी विरोधी व्यक्ति को।”  इसी समय भारत में प्रिंटिंग प्रेस का 1557 में आविर्भाव हुआ था । इसके बारे में  एन. जेराल्ड बैरियर लिखते हैं, “भारतीय प्रकाशन उद्योग के उद्भव  से किताबों और पत्रिकाओं ने ब्रिटिश शासकों राजनीतिक जीवन को जटिल बना दिया था। यह चैनल जानकारी के मूल्यवान स्रोत हो सकते हैं और बड़े पैमाने पर मीडिया की निगरानी और नियंत्रण के सवाल भी उठाए गए। उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान सरकार इस बात को लेकर उभरी थी कि भारतीय समाज में विचारों के प्रचलन की निगरानी कैसे की जाए!”  इसके बाद 1870 में हम इसके लिए दंड सम्बन्धी कानून का प्रावधान  देखते हैं। “1870 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय दंड सहिंता में धारा 124 ए को जोड़ा जिसके तहत ‘भारत में विधि द्वारा स्थापित’ ब्रिटिश सरकार के प्रति विरोध की भावना भड़काने वाले व्यक्ति को तीन साल की कैद से लेकर आजीवन देश-निकाला तक की सज़ा दिए जाने का प्रावधान  था। बाद में इस धारा में कई कड़े प्रावधान जोड़े गए।” 1870 तक भारत में प्रेस की भूमिका अहम हो चुकी थी। इससे निकलने वाली सामग्री या अख़बार देश की जनता को अंग्रेजी हुकूमत के अमानवीय व्यवहारों से परिचित कराते थे। इसको रोकने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने 1878 में ‘वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट’ को अमल में लाया। “लार्ड लिटन के प्रशासन की तो उन्होंने खुलकर आलोचना की। 1876-77 के अकाल पीड़ितों के प्रति ब्रिटिश सरकार के अमानवीय रवैये की तो ज़बरदस्त आलोचना उन्होंने की । इसके साथ ही अख़बारों का प्रसार भी बढ़ने लगा था और मध्यम वर्ग के पाठकों तक ही वे सीमित नहीं रह गए थे बल्कि आम आदमी तक पहुँचने लगे थे। इससे ब्रिटिश सरकार की भौहें टेढ़ी होना स्वाभाविक था। उसने अचानक इन अख़बारों पर दमन की कुल्हाड़ी चलाई और 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट लागू किया। यह कानून वर्नाकुलर भाषाओं के अख़बारों पर अंकुश लगाने के लिए बनाया गया था क्योंकि ब्रिटिश सरकार को उनकी ओर से बड़ा खतरा महसूस हो रहा था। वजह स्पष्ट थी कि ये अख़बार आम जनता में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध माहौल बनाने लगे थे। 1878 का वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट लागू करने का निर्णय अचानक लिया गया था और इस मामले में बड़ी गोपनीयता बरती गई थी। लेजिस्लेटिव काउन्सिल ने चंद मिनटों की चर्चा के बाद ही इस विधेयक को पारित कर दिया था। इस कानून में यह प्रावधान किया गया था कि ‘अगर सरकार समझती है कि  कोई अख़बार राजद्रोहात्मक सामग्री छाप रहा है या उसने सरकारी चेतावनी का उल्लंघन किया है तो सरकार उस अख़बार उसके प्रेस व अन्य सामग्री को ज़ब्त कर सकती है।” इस एक्ट को ‘देशी भाषा समाचार पत्र अधिनियम’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका देशी पत्र-पत्रिकाओं के साथ ब्रिटिश सांसदों ने भी विरोध किया जिसके विरोध स्वरूप बालकृष्ण भट्ट ने लिखा कि, “यह कहा जा रहा है कि देशी समाचार पत्रों के संपादक ठीक ढंग से पढ़े लिखे नहीं हैं। अगर इससे उनका मतलब यह है कि देशीभाषी समाचार पत्रों के सम्पादक विश्वविद्यालयों से स्नातक नहीं हैं या वे कोट और पतलून नहीं पहनते या वे अपनी पुरानी मान्यताओं, संस्कारों से चिपके हैं, तब यह काफी हद तक सही और गलत के बीच अंतर को पहचानने से है, ईमानदारी और देशप्रेम से है, तो देशी भाषी समाचार पत्रों के संपादक निश्चित रूप से पढ़े लिखे हैं।... दूसरे विधान परिषद् के सदस्यों का यह भी कहना है कि देशी भाषी समाचार पत्र केवल अज्ञानी और अशिक्षितों द्वारा पढ़े जाते हैं। क्या सर दिनकर राव और सर सलारजंग जैसे व्यक्ति जो अंग्रेजी से भली भाँति परिचित नहीं है और केवल देशी भाषी समाचार पत्र पढ़ते है, उन्हें अशिक्षित व्यक्तियों के बीच में रखेंगे? तीसरे यह कहा जा रहा है कि देशी भाषी प्रेसों के लेख लोगों के मस्तिष्क में असंतुष्टि का भाव भर रहें हैं किन्तु यह देखा गया है कि देशी भाषी समाचार पत्रों ने कभी कोई असत्य समाचार नहीं छापा है, जैसाकि समकालीन आंग्ल भारतीय प्रेस के समाचार पत्र करते हैं। वास्तव में सरकार को हमसे ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि हम भूल जाएँ कि हम उनके लिए विदेशी हैं... विधायिका द्वारा देशी भाषी समाचार पत्र अधिनियम पारित करने का कारण हम समझ नहीं पा रहे हैं। यह लाइसेंस बिल सभी वर्गों और समुदायों को प्रभावित करेगा। हम इसके विरुद्ध ऊँची आवाज़ बुलंद कर रहें हैं किन्तु कोई भी हमारी शिकायत सुनने को तैयार नहीं है।” प्रेस के प्रचलन से भारतीय समाज में अख़बारों का प्रचलन बढ़ा था। जिसे पढ़ना आता था, वह पढ़ता था और जिसे पढ़ना नहीं आता था, वह पढ़वाकर सुनता था। जनता अख़बारों के लिए दो-दो, तीन-तीन दिनों तक इंतजार करती थी। वहीं लेखक अपनी रचनाओं और लेखों को सम्पादकों और समाचार पत्रों को भेजते थे। इन लेखों और रचनाओं में देश और समाज की तत्कालीन परिस्थितियों की आलोचना अधिक होती थी, जिससे अंग्रेजी हुकूमत को नुकसान उठाना पड़ता था। ‘हिंदी प्रदीप’ के इसी अंक में लिखा गया कि “अब हमारी जीभ काट ली गई है फिर भी हमारा मस्तिष्क लगातार कह रहा है कि यह अधिनियम अनैतिक और अन्यायपूर्ण है। अपने सम्पूर्ण प्रयास के बावजूद  हमारे हृदय में जो देश भक्ति की आग जल चुकी है उसे रोक नहीं पा रहे हैं। अफ़सोस यह कैसा अभिशप्त समय है! हम चढ़ने  के लिए जो भी शाखा पकड़ते हैं वह काट दी जाती है ... हमारे पास धन नहीं है। हम अपनी समस्त शक्ति खो चुके हैं। हमारे हाथ पैर ऐसे मजबूती से बाँध दिए गए हैं कि हम हिल भी नहीं सकते। फिर भी हम बोलने की स्वतंत्रता का उपयोग कर रहे थे, अब हमारे मुंह को भी बंद कर दिया गया ।”

1898 अधिनियम :

     1898 में एक और अधिनियम लाया गया। जिसे ‘डाक अधिनियम’ कहा जाता है। इस अधिनियम में डाक से आने वाली सामग्रियों को जाँचा जाता था, और सरकार की नज़र में जो सामग्री संदिग्ध या सरकार की भावनाओं के खिलाफ पाई जाती थी, उसे ज़ब्त कर लिया जाता था। प्रेस और प्रकाशकों पर कड़े प्रतिबंध की वजह से प्रकाशित होने वाली सामग्री पर नज़र रखी जाती थी और उन्हें बंद या जुर्माना या प्रकाशक को जेल तक हो जाती थी, इसीलिए भारत के बाहर से सामग्रियों को मंगाया जाता था। वहीं दूसरी तरफ अंग्रेजी हुकूमत के दमन की वजह से बहुत से सेनानियों को भारत छोड़कर भागना पड़ता था या देश-निकाला दे दिया जाता था। वे सेनानी अपने विचार डाक के माध्यम से भारत में भेजा करते थे। इसके अलावा भारत से बाहर बसे भारतवासी भी अपने देश की चिंता करते थे, और वे बाहर हो रही परिघटनाओं से देश की जनता को अवगत कराने के लिए सामग्री भेजा करते थे। इन सभी पर नज़र रखने के लिए अंग्रेजी सरकार ने ‘1898 डाक अधिनियम’ पारित किया । इस सन्दर्भ में नरेंद्र शुक्ल लिखते हैं कि “पोस्ट ऑफिस एक्ट 1898 के ये नियम (अनुच्छेद- 22, 23, 21, और 19 ए) स्वयं में इतने व्यापक अर्थ लिए हुए थे, जिनके प्रयोग से किसी भी प्रकार की डाक सामग्री को रोका, खोला व समाप्त किया जा सकता था। चूँकि डाक विभाग वह व्यवस्था थी, जिसके जरिए देश के समाचार और लोगों के विचार पत्रों एवं अन्य साहित्य के माध्यम से दूर-दूर तक पहुँचते थे, इसलिए प्रेस के लिए डाक विभाग ‘प्राण वायु’ से कम नहीं था। साथ ही प्रेस के लिए डाक व्यवस्था, आर्थिक कारणों से भी कम महत्वपूर्ण नहीं थी। इस समय तक समाचार पत्रों का प्रसार सुदूर क्षेत्रों में भी होने लगा था, किन्तु डाक सामग्री के इस प्रकार बीच में रोके जाने से राजनैतिक व आर्थिक दोनों प्रकार से गम्भीर क्षति होने वाली थी।” इसके साथ इसी वर्ष 1870 के अधिनियम को संशोधित किया गया, और 1878 के अधिनियम को भी। धारा 153ए (भारतीय दंड संहिता) और धारा 124ए  और 505 को संशोधित किया गया।

 ‘भारतीय दंड संहिता का संशोधित रूप इस प्रकार था:-

धारा 124-ए (भारतीय दंड सहिंता) 1898 में संशोधन

कोई व्यक्ति शब्द से बोलकर, लिखकर, हस्ताक्षर से, साक्षात् प्रतिनिधित्व से या किसी अन्य तरीके से घृणा या असंतोष फैलाता है, उत्तेजित करने की कोशिश करता है, कानून द्वारा स्थापित ब्रिटिश भारत सरकार के विरुद्ध उत्तेजना फैलाता है, उसे छोटी अवधि या जीवन-भर के लिए देश निकाला जिसमें अर्थदंड से भी दंडित किया जा सकता है या तीन साल की कैद हो सकती है।

   स्पष्टीकरण (1): ‘असंतोष’ की अभिव्यक्ति में निष्ठाहीन और विद्वेष की सभी भावनाएँ  सम्मिलित हैं।
    स्पष्टीकरण (2): बिना उत्तेजित किए या घृणा, अवज्ञा या असंतोष फैलाने के प्रयास के अलावा कानूनी तरीके से सरकार के किसी कार्य पर अस्वीकृति व्यक्त करने वाली टिप्पणी जिससे सरकार का ध्यान केन्द्रित किया जाए, इस धारा के तहत अपराध नहीं है।
    स्पष्टीकरण (3): बिना उत्तेजित किए या घृणा, अवज्ञा और असंतोष फैलाने के प्रयास के अलावा प्रशासन या सरकार के अन्य कार्य पर व्यक्त की जाने वाली टिप्पणी, इस धारा के तहत अपराध नहीं है।
धारा 153-ए (भारतीय दंड सहिंता)

कोई व्यक्ति शब्द से बोलकर, लिखकर, हस्ताक्षर से, प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व से या किसी अन्य तरीके से सरकार से सम्बद्ध विभिन्न वर्गों के बीच घृणा या शत्रुता फैलाता है तो कैद से दण्डित किया जाएगा जिसकी अवधि दो साल तक हो सकती है या केवल अर्थदंड हो सकता है या दोनों ।

स्पष्टीकरण : इस धारा के अर्थों के अनुसार वह कार्य अपराध नहीं होगा जब बिना विद्वेषपूर्ण उद्देश्य के और साथ ही ईमानदारी से विषयों के निबटाने से सरकार के विषयों के विभिन्न वर्गों में बैर या घृणा फैल रही हो या फैलने की सम्भावना  हो ।

धारा 505 (भारतीय दंड सहिंता) 1898 में संशोधित

कोई भी प्रतिवेदन वक्तव्य देता है, प्रकाशित करता है या वितरित करता है : 
(क) सरकार के थलसेना, नौसेना के सैनिक या अधिकारी या रायल इंडियन मैरिन या इंपीरियल सर्विस के सैनिकों में विद्रोह भड़काने या असम्मान या कर्तव्य निर्वहन में असफल रहने के उद्देश्य से किया जाता है, या 
(ख) जनता में भय या चेतावनी जिससे कोई व्यक्ति सरकार या सामाजिक शांति के विरुद्ध अपराध करने के लिए प्रेरित हो- के उद्देश्य से, या 
(ग) किसी वर्ग या समुदाय के व्यक्ति को अन्य वर्ग या समुदाय के विरुद्ध अपराध करने के लिए, भड़काने के लिए या उत्तेजना फैलाने के लिए कैद की सज़ा हो सकती है। जिसकी अवधि दो साल की हो सकती या अर्थदंड या दोनों ।
अपवाद : इस धारा के तहत वैसे कार्य अपराध नहीं होंगे जिससे ऊपर कहे गए उद्देश्य से मेल नहीं हो। वैसे कार्य अपराध नहीं होंगे जब व्यक्ति लिखता है, प्रकाशित करता है, वितरित करता है और प्रतिवेदन या अफवाह सच होने का आधार हो।’

1910 अधिनियम :

इसी तरह 1910 में भी एक प्रेस अधिनियम पारित किया गया, जिसका उद्देश्य समाचार पत्रों पर बेहतर नियंत्रण बनाने के लिए था। इस कानून को ब्रिटिश बलूचिस्तान, संथाल परगना और स्पीति-परगना सहित पूरे ब्रिटिश भारत में लागू किया गया था। 

इस कानून की परिभाषा इस प्रकार दी गई-
इस कानून के तहत जब तक इस विषय या सन्दर्भ में कोई असंगति नहीं है तब तक-
(क) ‘पुस्तक’ का अर्थ किसी भाषा में छपा पर्चा, खंड भाग या खंड का हिस्सा, संगीत, मानचित्र, चार्ट का प्रत्येक पन्ना या लीथोग्राफी होगा।
(ख) ‘दस्तावेज’ का अर्थ प्रत्येक पेंटिंग, रेखाचित्र, खींचा गया चित्र या अन्य दृश्य प्रस्तुतिकरण है।
(ग) ‘हाईकोर्ट’ से आशय किसी स्थानीय क्षेत्र की अपील के लिए उच्च दीवानी न्यायलय है। अपवाद स्वरूप अजमेर-मारवाड़ और कुर्ग प्रान्त के लिए यह क्रमश: उत्तर-पश्चिम प्रान्तों के उच्च न्यायालय और मद्रास हैं। 
(घ) ‘मजिस्ट्रेट’ से आशय जिला दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) या मुख्य प्रांतीय दंडाधिकारी है ।
(च) ‘समाचार’ से आशय कोई आवधिक पत्र जो सार्वजनिक समाचार या इन समाचारों पर टिप्पणी प्रकाशित करता है।
(छ) ‘छापाखाना’ या ‘प्रिंटिंग प्रेस’ से आशय प्रकाशन में प्रयुक्त होने वाले सभी इंजन, मशीन, टाइप, लीथोग्राफिक पत्थर, उपकरण और अन्य संयंत्र या सामग्रियों से है ।”

    इस अधिनियम में छापाखानों के मालिक द्वारा जमानत जमा कराना, विशेष परिस्थितियों में जमानत ज़ब्त होने की घोषणा करने का अधिकार, जमानत का फिर जमा किया जाना (अगर जमानत राशि ज़ब्त कर ली गई हो), छापाखाना और प्रकाशन ज़ब्ती की घोषणा करने का अधिकार, तलाशी का आदेश जारी करना, किसी समाचार पत्र के प्रकाशक पर आदेश जारी करना, किसी समाचार पत्र के प्रकाशन द्वारा जमानत जमा किया जाना, विशेष परिस्थितियों में जमानत ज़ब्ती की घोषणा करने का अधिकार, किसी ख़ास प्रकाशन की ज़ब्ती और तलाशी की घोषणा का अधिकार, ब्रिटिश इंडिया में आयात किए जाने वाले किसी विशेष प्रकाशन को रोकने का अधिकार, कुछ खास समाचार पत्रों को डाक द्वारा भेजे जाने पर प्रतिबंध, ब्रिटिश इंडिया में मुद्रित होने वाले समाचार पत्रों की प्रतियाँ सरकार को मुफ्त में देने जैसे प्रावधान निहित थे। इसके अलावा नरेंद्र शुक्ल ने इस अधिनियम के बारे में लिखा है- “भारतीय प्रेस अधिनियम 1910 के अंतर्गत जिस किसी आदमी के पास छापाखाना होता था उसे प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम की धारा 4 के तहत दंडाधिकारी के समक्ष घोषणा करनी होती थी और उसी समय दंडाधिकारी के समक्ष कम से कम 500 और अधिकतम 2000 रुपये की धनराशि जमानत के तौर पर जमा करनी होती थी (अनुच्छेद 3-(1)। यदि कोई छापाखाना ‘प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम’ की धारा 4(1) के लागू होने से पहले स्थापित होता तब सम्बन्धित स्वामी को उसका छापाखाना जिस दंडाधिकारी के शासन क्षेत्र के तहत स्थित है- उसके समक्ष स्थानीय सरकार के विवेकानुसार कम से कम 500 और अधिकतम 5000 रुपये या इतने मूल्य का भारत सरकार प्रपत्र जमानत राशि के तौर पर जमा करना था।” यह अधिनियम एक ऐसा अधिनियम था जो स्थानीय अधिकारी को यह अधिकार देता था कि वह अपनी शक्ति का प्रयोग कर लेखन और वाणी को प्रतिबंधित कर सकता है।

1918 अधिनियम :

1918 में ‘रॉलेट एक्ट’ पारित हुआ। जिसे न्यायाधीश एस.ए.टी. रॉलेट ने अमल में लाने का काम किया। इस एक्ट को ‘सीडिसीयस एक्ट’ भी कहा जाता है । जिसके अंतर्गत ‘राजद्रोह’ जैसी धाराएँ लगाई जाती थीं। ये धाराएँ मुख्यत: 99 ए, 124 ए और 153 ए  हैं । इसके लिए 1917-18 में ‘सिडिसन कमेटी’ रिपोर्ट 222 पन्नों का सुपरटेंडेंट गवर्नमेंट प्रिंटिंग, इंडिया कलकत्ता से प्रकाशित किया गया। इसके फाइल नं. 2884 गृह विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली से 10 दिसम्बर 1917 को विज्ञप्ति जारी की गयी। इसमें लिखा गया कि-
 “काउंसिल में गवर्नर जनरल ने भारत के राज्य सचिव के अनुमोदन के साथ समिति के सचिव ने  फैसला किया-
(1) भारत में क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े आपराधिक षड्यंत्रों की प्रकृति और सीमा की जाँच और रिपोर्ट करना।
(2) इस तरह की साज़िशों से निपटने और कानून के अनुसार सलाह देने के लिए जो कठिनाइयाँ उत्पन्न हुई हैं उनकी जाँच करना और उन पर विचार करना। यदि आवश्यक हो तो सरकार को उनसे प्रभावी ढंग से निपटने के लिए सक्षम बनाना।”
 इस रिपोर्ट और अधिनियम का निहितार्थ भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों को नियंत्रित करना था, साथ ही क्रांतिकारी पुस्तकों को भी नियंत्रित करना था।

1930 अधिनियम :

    1930 में महात्मा गाँधी के ‘नमक सत्याग्रह’ की घोषणा और जनता की भागीदारी को देखते हुए अंग्रेजी हुकूमत ने अप्रैल 1930 से जुलाई 1930 के मध्य सात अध्यादेश पारित किए। जिनमें दो अध्यादेश सीधे प्रेस से सम्बंधित थे। प्रथम ‘प्रेस अध्यादेश II (27 अप्रैल 1930)’ और दूसरा ‘अनधिकृत समाचार पत्र एवं पत्रकों पर नियंत्रण हेतु अध्यादेश' था।
 
    इन सभी कानूनों, अध्यादेशों और अनुच्छेदों का मकसद भारतीय जनता को गुलाम बनाए रखना था। जिसके लिए उन्होंने मानदंड भी निर्धारित किया हुआ था। जिसके अनुसार 1857 के विद्रोह से सम्बन्धित साहित्य, रूसी क्रांति से सम्बंधित साहित्य, अन्य देशों के स्वतन्त्रता संघर्ष से सम्बंधित साहित्य, गाँधी और भगत सिंह से सम्बन्धित साहित्य को प्रतिबंधित किया जाये। एन. जेराल्ड बैरियर ने 1908 से 1914 तक की प्रतिबंधित पुस्तकों के प्रकारों का उल्लेख किया है- “राजनीति पर सामान्य टिप्पणी, हिंसा और क्रांति के लिए आह्वान, सेना को संबोधित करना, सिखों को संबोधित करना, छात्रों से अपील, हिंदू विरोधी विषयों, मुस्लिम विरोधी विषयों, गौरक्षा, नाटकों, टिप्पणियों, राष्ट्रवाद का इतिहास (जिसमें विद्रोह भी शामिल है), भारत के बाहर क्रांति का इतिहास, आयरिश और रूसी राजनीति, बम नियमावली, भाषण, परीक्षण रिपोर्ट, जीवनी और तिलक पर काम.. । यह तालिका व्यापक के बजाय विचारोत्तेजक है क्योंकि पर्याप्त जानकारी ने कई शीर्षकों को शामिल करने से रोका। विभाग की फाइलों से प्राप्त आँकड़ें और सहायक डेटा फिर भी उन मानदंडों पर संक्षिप्त टिप्पणियों की अनुमति देते हैं जिन्होंने साहित्यिक कार्यों के इस वर्गीकरण पर प्रतिबंध लगा दिया था।” जिसे निरीक्षित और पकड़ने के लिए प्रत्येक प्रान्तों में सी.आई.डी. का प्रबन्ध किया गया था 
    
    जिसके नतीजतन भारत में हिन्दी भाषा की 1,391 पुस्तकें और सभी भारतीय भाषाओं में 3,908 पुस्तकों को ज़ब्त कर लिया गया। इनको ज़ब्त कर प्रांतीय अभिलेखागार, राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारत, ब्रिटिश म्यूजियम, लंदन और  लंदन की इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में रखा गया ।  
        
    प्रतिबंधित पुस्तकों को सरकार द्वारा अधिकृत संस्थानों में रखकर भारत के संघर्ष और ज्ञान के साधनों को कानून के माध्यम से वंचित रखा गया। इसी कानून के लिए अंतोनियो ग्राम्शी ने लिखा था कि, “कानून की ऐसी संकल्पना जो बुनियादी तौर से नवीकरण कर सके कहीं भी, अखंडित रूप से, किसी भी पूर्ववर्ती मतवाद में उपलब्ध नहीं होती (तथाकथित प्रत्यक्षवादी सम्प्रदाय के मतवाद में, मुख्यत: फेरी के सिद्धांत में भी नहीं) । यदि हर राजसत्ता एक विशिष्ट प्रकार की सभ्यता और नागरिक का (और इसलिए सामूहिक जीवन और वैयक्तिक संबंधों के विशिष्ट स्वरूप का) सृजन करना और उसे कायम रखना तथा कुछ रीति-रिवाजों और प्रवृतियों को निरस्त और दूसरे आचार-विचारों का प्रसार करना चाहती है, तो इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कानून ही (स्कूल प्रणाली तथा अन्य संस्थाओं और क्रियाओं के साथ) उसका उपकरण बन सकता है ।” ग्राम्शी ने आगे कानून को ‘शिक्षा देने वाली संस्था’ के रूप में चिह्नित किया है । यह वही शिक्षा है,  जिससे संघर्ष के दौरान भारतीय रूबरू हो रहे थे, और अंग्रेजी हुकूमत इसे कानूनों के माध्यम से रोक रही थी।

संदर्भ :
1.Ban- Decide or say officially that is not allowed.
Censorship- The act policy of censoring books, etc.
Bowdlerize – “To censor or expurgate from a literary work those passages considered to be indecent or blasphemous. The word comes from Dr Thomas Bowdler, who published in 1818 The Family Shakespeare, ‘in which those words or expressions are omitted which cannot with propriety be read aloud in a family… 
Chris Baldick, ‘Oxford Dictionary of Literary Terms’, 2008 (Third Edition), P.: 41 
2. नरेंद्र शुक्ल ‘उपनिवेश, अभिव्यक्ति और प्रतिबंध, 2017, अनन्य प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ : 33’
“The Aryans (“Noble Flok”) who invaded India from the north – west in the middle of the second millennium BCE evolved a distinct religious 3.life expressed in the Rig-veda, a collection of over 1000 hymns which later became the sacred text of orthodox Hinduism. The Vedas date from between 1500 and 900 BCE and, it has been usually assumed, were transmitted orally. The Brahmans (the first in rank among the four castes of Hindu society) were taught to memorize them, to recite rather than to the first surviving version of which dates from 500 CE, even refers to a taboo on transcribing the Vedas (and a 14th-century CE commentator states that “reading manuscript is prohibited”). The Sanskritic scholar L. Remou and the social anthropologist Jack Goody, however, agree on “the possibility that from the period of the brahman the recitation of religious texts was accompanied by the use of manuscripts as an accessory”. 
Religious texts apart, it appears that writing was normal from about 500 CE. But education-in arithmetic, grammar, and poetry – was restricted to upper castes. The institution of caste, which originated in the division between Aryan and non-Aryans, has played a fundamental part in the evolution of Indian society.” 
Censorship A World Encyclopaedia, Volume-2, E-K, Derek Jones, 2001, Fitzroy Dearborn Publication, London, P.  1156
 4.मैनेजर पाण्डेय, ‘अनभै साँचा’, 2014, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ: 179
5.ए, आर देसाई, ‘भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि’, 2016, ट्रिनिटी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ:183
6. In 1780, for example, Warren Hastings reacted to personal attacks in J.A. Hickey’s Bengal Gazette by prosecuting the publisher and banning the paper from the mails. Selected censorship and other restraints of the press accumulated until Charles Metcalfe’s “liberation” of printed opinion in 1835.”
N. Gerald Barrier, ‘Banned Controversial Literature and Political Control in British India 1907-1947’, 1976, Manohar Publication, New Delhi, P. 04
7. नरेंद्र शुक्ल ‘उपनिवेश, अभिव्यक्ति और प्रतिबंध, 2017, अनन्य प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ : 55
8. वही, पृष्ठ: 22 
9.The emergence of an Indian publication industry complicated the political life of the British rulers books and journals could be valuable sources of information of channeled also raised questions of surveillance and control of mass media. During the ninetieth century, the government was ambivalent about whether and how to supervise the circulation of ideas within Indian society.” 
N. Gerald Barrier, ‘Banned Controversial Literature and Political Control in British India 1907-1947’, 1976, Manohar Publication, New Delhi, P. 04
10.बिपिन चन्द्र और अन्य, ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’, 2008, हिंदी माध्यम कार्यालय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, पृष्ठ :56
 11.वहीं, पृष्ठ :68
12. उद्धृत द्वारा, नरेंद्र शुक्ल ‘उपनिवेश, अभिव्यक्ति और प्रतिबंध, 2017, अनन्य प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ : 69
13. वहीं, पृष्ठ : 69 
14. वही, पृष्ठ : 102 
15. जे. नटराजन, ‘भारतीय पत्रकारिता का इतिहास’, आर. चेतनक्रान्ति (अनु.), 2002 प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली, पृष्ठ : 213 
16. वहीं, पृष्ठ: 345 
17. नरेंद्र शुक्ल ‘उपनिवेश, अभिव्यक्ति और प्रतिबंध, 2017, अनन्य प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ : 69
 वहीं, पृष्ठ : 126
18.“The Government General in council has, with the approval of the secretary of state for India decided to secretary of committee-
(1). to investing and report on the nature and extent of the criminal conspiracies connected with the revolutionary movement in India.
(2). to examine and consider the difficulties that have arisen in dealing with such conspiracies and to advise as to the legislation, if any, necessary to enable Government to deal effectively with them.
 Sedition Committee 1918 Report, Superintendent Government Printing, Calcutta, India,   
19.General commentary on politics, Call for violence and revolution, Addressed to army, Addressed to Sikhs, Appeals to students, Anti-Hindu Themes, Anti-Muslim themes, Cow protection, Plays, Commentaries, History of Nationalism (India, including mutiny), Histories of revolution outside India, Irish, Russian politics, Bomb manuals, Speeches, trial reports, Biographies and work on Tilak… This table is suggestive rather than comprehensive because in-sufficient information prevented inclusion of many title. The statistics and supporting data from department files nevertheless permit brief comments on criteria that led to the ban on this assortment of literary works.N. Gerald Barrier, ‘Banned Controversial Literature and Political Control in British India 1907-1947’, 1976, Manohar Publication, New Delhi, P. 62
20. Ibd, P. 34
21.अंतोनियो ग्राम्शी, ‘सांस्कृतिक और राजनीतिक चिंतन के बुनियादी सरोकार’, कृष्णकान्त मिश्र (अनु.), 2002, ग्रन्थ शिल्पी, नई दिल्ली, पृष्ठ:347

आशुतोष कुमार पांडेय 
प्रोजेक्ट एसोसिएट, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्विद्यालय 
आई.ओ.ई. प्रोजेक्ट, आ  सी १- २०-28 

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

1 टिप्पणियाँ

  1. शोध की दृष्टि से उपादेय और सार्थक लेख | आपका आभार |

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