- नम्रता चौहान व चंचल सूर्यवंशी
शोध सार : ऋग्वेदीय
परंपरा
से
संबंधित
एकमात्र
योग
उपनिषद्
नादबिंदु
उपनिषद्
56 मंत्रों को
स्वयं
में
समाहित
किए
हुए
है।
यह
एक
बहुत
ही
श्रेष्ठ
उपनिषद्
है
जिसमें
प्रणव
के
वैराज
स्वरूप
की
चर्चा, वैराज
प्रणव
को
जानने
का
लाभ, ओंकार
की
हंस
से
तुलना, प्रणव
की
चार
मात्राएँ
की
व्याख्या, प्रणव
की
मात्रा
भेद
से
बारह
मात्राएँ
तथा
उनमें
प्राणांत
का
फल
आदि
अनेक
विषयों
पर
प्रकाश
डाला
गया
है।
नादानुसंधान
को
तुरीयातीत
अवस्था
की
प्राप्ति
का
उपाय
बताया
गया
है।
इसी
नाद
को
मन
के
नियमन
का
साधन
भी
कहा
गया
है।
यह
संपूर्ण
उपनिषद्
प्रणव
तत्त्व
को
स्वयं
में
समाहित
किए
हुए
साधक
को
प्रणव
तत्त्व
का
बोध
कराकर
उसे
साधना
मार्ग
में
प्रशस्त
करता
है।
साधना
मार्ग
को
प्रवीणता
से
अपनाने
पर
वह
समस्त
सिद्धियों
को
प्राप्त
करता
है।
मुख्य
शब्द : प्रणव, हंस, ओंकार, वैराज,
उपनिषद्,
योग,
नादबिन्दू,
ध्यान,
अर्धमात्रा।
ओंकार
की हंस
की तुलना
-
नादबिंदु
उपनिषद्
के
प्रारंभ
में
ही
ऊँकार
की
तुलना
हंस
से
की
गई
है, जिसमें
ओंकार
रूपी
हंस
पक्षी
के
विभिन्न
अंगों
की
समानता
को
ऊँ
की
विभिन्न
अकारादि
मात्रा
से
प्रदर्शित
किया
गया
है।
जिसमें
ऊँकार
की
अकार
मात्रा
हंस
का
दाहिना
पंख, उकार
मात्रा
ही
बायाँ
अर्थात्
उत्तर
पंख, मकार
ही
पुच्छ
भाग
तथा
अर्धमात्रा
ही
हंस
का
मस्तक
बतलाया
गया
है1
तथा
प्रणव
को
जानने
वाले
को
ब्रह्मज्ञानी
कहा
गया
है।
शरीर
रूपी
स्थूल
ओंमकार
के
त्रिगुण
अर्थात् सतोगुण, रजोगुण
तथा
तमोगुण
की
तुलना
भी
हंस
से
की
गई
है।
रजोगुण
को
हंस
का
दाहिना
पैर, तमोगुण
को
बायाँ
पैर, तथा
तत्त्व
ही
सत्त्वगुण
है।
वराहोपनिषद्
के
अनुसार
तत्त्व
का
तात्पर्य
छियानवे
तत्वों
से
मिलकर
बना
विशिष्ट
अवयव
वाला
शरीर
है2|
साथ
ही
दाहिने
तथा
बाएं
नेत्र
को
क्रमशः
धर्म
तथा
अधर्म
की
संज्ञा
से
विभूषित
किया
गया
है3।
वैराज
प्रणव -
एक
अन्य
तुलना
के
अनुसार
ओंकार
की
मात्राओं
की
तुलना
विभिन्न
लोकों
से
की
गई
है
तथा
यह
कहा
गया
है
कि
ऊँकार
रूपी
हंस
के
दोनों
पैरों
में
ही
भूलोक
अर्थात्
पृथ्वी
लोक
का
स्थान
है।
प्रणव
हंस
की
जंघाओं
में
भुवलोक
अर्थात्
अंतरिक्षलोक
स्थित
है, इसी
प्रकार
कटिप्रदेश
में
स्वर्गलोक
है, नाभिप्रदेश
में
महर्लोक, हृदय
प्रदेश
में
जनलोक
तथा
कण्ठ
में
तपोलोक
है, भ्रुमध्य
अर्थात्
दोनों
भौंहों
के
मध्य
ललाट
केन्द्र
में
सत्य
लोक
का
स्थान
बतलाया
है।
ओंकार
की
इन
सप्तलोकों
में
स्थिति
को
वैराजप्रणव
कहा
गया
है।
नादबिंदु
उपनिषद्
में
प्रणव
के
इस
स्वरूप
को
विराट
के
रूप
में
भी
बताया
है।
अंर्तविराट
और
प्रणव
के
मिलन
के
बाद
बारह
मात्राओं
से
युक्त
महाविराट
प्रणव
बनता
है।
ब्रह्म
का
स्वरूप, चेतन
तत्त्व
और
स्थूल
जगत
के
संयोग
वाला
होता
है।
इस
महाविराट
के
स्थूल
जगत
को
ओंकार
का
अ
अक्षर
जो
प्रणव
का
दायां
पक्ष है, सूक्ष्म
जगत
को
उ
अक्षर
जो
प्रणव
का
बायां
पक्ष
है
तथा
म
सृष्टि
के
बीज
को
प्रदर्शित
करता
है।
अर्धमात्रा
प्रणव
का
मस्तिष्क
है।
संन्यासोपनिषद्
में
भी
ऊँ
की
महत्ता
स्पष्ट
जान
पड़ती
है, इसमें
वर्णन
मिलता
है
कि
यज्ञोपवीत
को
विसर्जित
करते
वक्त
ऊँ
भूः
स्वाहा
मंत्र
का
उच्चारण
कर
वस्त्र
तथा
मेखला
को
जल
में
अर्पित
करते
हुए
मैंने
संन्यास
ले
लिया
का
भाव
करना
चाहिए4
साथ
ही
यह
भी
कहा
है
कि
छः
प्रकार
के
संन्यास
तथा उनके
संन्यासी
होते
है।
आतुर
संन्यासी
के
लिए
भुर्लोक
का
स्थान
है, कुटीचक्र
संन्यासी
के
लिए
भुवर्लोक
तथा
बहुदक
प्रकार
के
संन्यासी
के
लिए
स्वर्गलोक
होता
है, हंस
प्रकार
के
संन्यासी
का
तपोलोक
तथा
परमहंस
के
लिए
सत्यलोक
होता
है।
इन
सभी
के
उपर
तुरीयातीत
तथा
अवघूत
कोटि
के
लोग
स्वतंत्रता
पूर्वक
विचरण
करते
हुए
स्व
की
खोज
में
ही
आत्मतत्त्व
में
ही
प्रतिष्ठित
हो
जाते
हैं।
वैराजविद्या
के फल
-
नादबिंदु
उपनिषद्
में
वैराजप्रणव
की
हंस
से
समानता
को
बताने
के
बाद
इस
वैराजविद्या
के
फल
का
भी
वर्णन
किया
गया
है।
यह
प्रणव
मंत्र
सहस्त्र
अवयवों
से
युक्त
है, इसका
वैराजप्रणव
रूपी
हंस
पर
विराजित
होकर
(यहाँ विराजित
होने
से
तात्पर्य
प्रणव
की
ध्यान
विधियों
में
पूरी
निष्ठा
से
लीन
होने
से
है)
हंसयोगी
को
ओंकार
का
मनन
चिंतन
तथा
उपासना
करना
चाहिए।
(हंसयोगी वह योगी
कहलाता
है
जो
हंसयोग
में
विलक्षण
योगी
हो।)
इस
प्रकार
से
वैराजप्रणव
की
उपासना
करने
से
वह
हंसयोगी
साधक
स्वयं
के
द्वारा
किए गए
अनेक
कर्मों
से
उत्पन्न
हजारों-करोड़ों
पापों
से
भी
प्रभावित
नही
होता
और
इस
प्रकार
वह
मुक्ति
को
प्राप्त
कर
लेता
है5।
प्रणव
की मुख्य
चार मात्राएँ
तथा उनकी
बारह कलाएँ
-
प्रणव
की
मुख्य
चार
मात्राएँ
अकार, उकार, मकार
तथा
अर्धमात्रा
है।
ऊँकार
की
प्रथम
मात्रा
अकार
को
आग्नेयी
कहा
जाता
है, द्वितीय
मात्रा
उकार
को
वायव्या, तृतीय
मात्रा
मकार
को
सूर्यमण्डल
सदृश
तथा
चतुर्थ
मात्रा
अर्धमात्रा
को
वारूणी
कहा
गया
है।
यह
मात्रा
सर्वश्रेष्ठ
है।
अकार
के
देव
अग्नि, उकार
के
देव
वायु, मकार
के
देव
सूर्य
को
माना
जाता
है
तथा
अर्धमात्रा
के
देव
वरूण
को
माना
गया
है।
प्रणव
की
यह
मात्राएँ
त्रिकालों
अर्थात्
विद्यमान
भूत, भविष्य
और
वर्तमान
में
भी
सदैव
विद्यमान
रहती
है6
तथा
इस
मात्रात्मक
स्वरूप
का
ज्ञान
प्राप्त
करने
के
लिए
धारणा
आवश्यक
है।
ओंकार
की
चार
मात्राओं
अकार, उकार
मकार
तथा
अर्धमात्रा
में
से
प्रत्येक
मात्रा
का
तीन-तीन
काल
तथा
तीन-तीन
कलारूप
होते
है।
इस
प्रकार
चार
मात्राओं
के
चार
काल
तथा
चार
कलारूप
मिलकर
ऊँकार
की
बारह
कलाएँ
या
मात्राएँ
बनाते
है, इसीलिए
प्रणव
को
बारह
कलाओं
से
युक्त
कहा
जाता
है।
वैराजप्रणव
रूपी
प्रणव
की
उपासना
में
अष्टांग
योग
के
अंतरंग
साधन
धारणा, ध्यान
तथा
समाधि
की
विशेष
उपयोगिता
तथा
महत्व
है
इन
तीनों
के
बिना
केवल
ऊँकार
के
उच्चारण
अथवा
रटन
मात्र
का
कोई
प्रभाव
नही
रह
जाता।
अतः
ऊँकार
की
उपासना
के
लिए
धारणा, ध्यान
तथा
समाधि
की
नितांत
आवश्यकता
होती
है।
ओंमकार
की
बारह
कलाओं
में
प्रथम
कला
अथवा
मात्रा
घोषिणी
को
माना
जाता
है, इसी
क्रम
में
दूसरी
कला
विद्युत, तीसरी
कला
पतंगिनी, चौथी
कला
वायुवेगिनी
तथा
पाँचवी
मात्रा
नामधेया
(प्रणवी), छठी
मात्रा
ऐन्द्री, सातवीं
मात्रा
के
रूप
में
वैष्णवी, आठवीं
मात्रा
शांकरी, नवीं
मात्रा
महती, दसवीं
मात्रा
द्यति, ग्यारहवीं
मात्रा
नारी
तथा
बारहवीं
मात्रा
ब्राह्मी
को
कहा
गया
है7। इन मात्राओं
पर
ही
धारणा
करनी
चाहिए।
प्रणव
की मात्राओं
के काल
में प्रणांत
का फल
-
इन
प्रत्येक
मात्राओं
की
अलग-अलग
उपासना
के
फल
का
भी
विधिवत्
वर्णन
करते
हुए
इन
प्रणव
की
बारह
मात्राओं
का
साठ
घड़ियों
में
से
प्रत्येक
की
पांच
घड़ी
तक
उपासना
करने
पर
उत्पन्न
होने
वाले
परिणाम
या
फल
की
व्याख्या
निम्नानुसार
की
गई
है।
यदि
साधक
के
द्वारा
उपरोक्त
वर्णित
विधि, क्रम
तथा
काल
के
अनुसार
इन
द्वादश
मात्राओं
की
उपासना
की
जाती
है
तब
साधक
द्वारा
उपासना
करते
समय
यदि
प्रथम
मात्रा
में
अपने
शरीर
का
परित्याग
कर
देने
पर
वह
इस
भरतखण्ड
के
महान्
चक्रवर्ती
सम्राट्
के
रूप
में
आविर्भूत
होता
है।
साधना
क्रम
में
दूसरी
मात्रा
में
प्राणों
का
उत्क्रमण
किए
जाने
पर
वह
विशाल
तथा
महिमामय
यक्ष
के
रूप
में
जन्म
लेता
है।
तृतीय
मात्रा
में
प्राण
का
उत्सर्ग
होने
पर
विद्याधर
के
रूप
में
जन्म
लेता
है।
चौथी
मात्रा
में
प्राणों
का
उत्सर्ग
होने
पर
गन्धर्व
तथा
पाँचवी
मात्रा
में
प्राणों
का
उत्क्रमण
होने
पर
प्राणों
से
वियुक्त
होकर
उस
साधक
का
निवास
देवताओं
के
साथ
हो
जाता
है
तथा
वह
सोमलोक
के
आनंद
को
प्राप्त
कर
लेता
है।
ऊँकार
की
छठी
मात्रा
में
प्राणों
का
उत्क्रान्त
होने
पर
इन्द्र
का
सायुज्य, सातवीं
मात्रा
में
होने
पर
विष्णु
पद
की
प्राप्ति
तथा
आठवी
कला
में
प्राणों
के
उत्क्रमित
होने
पर
साधक
रूद्र
लोक
में
गमन
के
योग्य
हो
जाता
है।
नवम
कला
में
प्राणों
का
परित्याग
करने
पर
महर्लोक, दसवीं
में
जनलोक, ग्यारहवीं
में
तपोलोक
और
बारहवी
में
उत्क्रमण
करने
वाला
साधक
को
शाश्वत
ब्रह्म
की
प्राप्ति
हो
जाती
है8।
प्रणव
का
इस
प्रकार
जान
लेने
वाला
साधक
ब्रह्मज्ञानी
हो
जाता
है
तथा
प्रणव
जप
और
अनाहत
नाद
के
द्वारा
ब्रह्मनुसंधान
से
आत्मा
के
अतिरिक्त
अन्य
वस्तुएं
भ्रम
के
कारण
ही
दिखाई
देती
है
तथा
यह
ज्ञान
प्राप्त
करने
के
पश्चात्
ज्योतिष्मान्
तथा
कल्याण
के
मार्ग
पर
अग्रसर
करने
वाला
अनाहत
नाद
उसी
प्रकार
प्रकट
हो
जाता
है
जिस
प्रकार
बादल
छटने
पर
सूर्य
दृश्यमान्
हो
जाता
है।
अनाहत
नाद
से
तात्पर्य
उस
नाद
से
है
जो
किसी
भी
प्रकार
की
टक्कर
या
रगड़
के
बिना
ध्वनि
उत्पन्न
होती
है।
निःशब्द
स्थान
में
चित्त
स्थिर
करने
से
तथा
प्राणायाम
का
निरंतर
अभ्यास
करने
से
स्व
के
भीतर
अनाहत
नाद
का
श्रवण
होने
लगता
हैं।
अनाहत
नाद
का
श्रवण
होने
पर
बाह्य
शोर
कानों
में
प्रवेश
नहीं
करता।
अनाहत
नाद
वास्तव
में
शरीर
में
प्रवाहित
होने
वाले
रक्त
की
गति
से
उत्पन्न
शब्द
है।
इस
नाद
को
सुनने
के
लिए
निरोग
होना
अति
आवश्यक
है।
ध्यान
की विधि
-
ऊँ
एक
नाद
है, जिसे
सुनने
के
लिए
योगी
को
सिद्धासन
में
बैठकर
वैष्णवी
मुद्रा
को
धारण
करके
दाहिने
कान
में
सुनाई
देने
वाले
अनाहत
नाद
को
सतत
सुनने
का
प्रयास
करना
चाहिए।
सिद्धासन
करने
की
विधि
का
वर्णन
करते
हुए
कहा
है
कि
बाएँ
पैर
की
एड़ी
से
गुदा
को
और
दाहिने
पैर
से
जननेन्द्रिय
के
मूल
को
दबाकर
शरीर
को
सीधा
रखकर
त्रिबंध
अर्थात्
जालंधर, उड्डियान
और
मूलबंध
को
एक
साथ
लगाकर
शरीर
को
सीधा
रखकर
बैठना
ही
सिद्धासन
है
तथा
पलकों
को
बिना
झपके
बाह्य
दृष्टि
को
अन्तर्लक्ष्य
करके
भृकुटि
के
मध्य
में
देखने
की
क्रिया
को
वैष्णवी
मुद्रा
कहा
जाता
हैं।
यह
पूर्वोक्त
अनाहत
अभ्यास
के
आरंभ
में
अनेक
प्रकार
की
बड़े
परिमाण
में
ध्वनियाँ
सुनाई
देती
है।
अभ्यास
में
निपुणता
बढ़ने
के
साथ-साथ
यह
नाद
धीरे-धीरे
सूक्ष्म
होते
जाता
है।
शुरू
के
अभ्यास
में
यह
ध्वनि
सागर
की
ध्वनि, मेघगर्जन, भेरी
तथा
झरने
से
उत्पन्न
ध्वनि
की
भाँति
सुनाई
देती
है, अभ्यास
का
समय
तथा
स्तर
के
बढ़ने
पर
मध्यम
अवस्था
में
यह
ध्वनि
नाद, मृदंग, घण्टा
एवं
नगाड़े
के
समान
सुनाई
पड़ने
लगती
है।
अंतिम
या
उत्तरावस्था
में
अभ्यास
और
अधिक
बढ़
जाने
पर
वह
नाद
किंकिंणी, वंशी, वीणा, भ्रमर
की
सी
मधुर
तथा
सूक्ष्म
ध्वनि
सुनाई
पाती
है
और
इसी
क्रम
में
अभ्यास
की
अधिकता
से
यह
और
अधिक
सूक्ष्मतम
हो
जाते
है।
इस
प्रकार
के
अभ्यास
में
उसकी
श्रेष्ठ
अवस्था
तक
पहॅुचने
के
लिए
सुझावात्मक
रूप
में
व्यक्त
किया
है
प्रारंभिक
अभ्यास
के
समय
महाभेरी
आदि
के
नाद
का
श्रवण
होने
पर
केवल
उस
भेरी
नाद
से
संतुष्ट
होकर
अपनी
साधना
को
विराम
नही
देना
चाहिए
अपितु
उसी
क्रम
और
अधिक
भावों
तथा
प्रयासों
के
साथ
अभ्यास
करते
रहना
चाहिए
तथा
अभ्यास
को
सूक्ष्मतम
से
सूक्ष्मतम
ध्वनि
की
तरफ
अग्रसित
करना
चाहिए।
तथा
यदि
साधक
अपने
आप
को
सूक्ष्मतम
ध्वनियों
की
ओर
ले
जाने
में
यदि
असुविधा
का
अथवा
असमर्थता
का
अनुभव
करता
है
तो
उसे
स्थूल
नाद
पर
ही
स्वयं
को
स्थिर
रखने
का
प्रयास
करना
चाहिए।
स्वमन
को
नाद
पर
ही
एकाग्र
करने
का
निरंतर
प्रयास
करना
चाहिए
तथा
उसे
अन्य
विषयों
से
पूर्ण
रूप
से
विरक्त
रखने
का
अभ्यास
काल
में
सदैव
प्रयत्न
करते
रहना
चाहिए।
मन, नाद
की
जिस
अवस्था
में
चाहे
वह
स्थूल, सूक्ष्म
अथवा
सूक्ष्मतम
हो
जहाँ
लगे
उसे
वहीं
स्थिर
तथा
विलीन
रखे9।
मन
की
इस
विलयावस्था
को
एक
उदाहरण
के
माध्यम
से
बताया
है
कि
जिस
प्रकार
दुध
में
जल
को
मिलाने
पर
वह
स्वयं
को
पूरी
तरह
विलीन
कर
देता
है, उस
तरह
मन
को
भी
नाद
में
ही
एकीभूत
कर
देना
चाहिए।
इस
प्रकार
से
मन
का
नाद
में
एकभूतीकरण
स्वयमेव
चिदाकाश
में
भी
समाहित
हो
जाता
है।
नाद
में
मन
को
समाहित
करने
के
पश्चात्
साधक
को
सभी
चिंताओं
से
मुक्त
हो
जाना
चाहिए।
साधक
को
अपनी
सभी
इच्छाओं, कामनाओं, आकांक्षाओं
की
उसी
प्रकार
उपेक्षा
करना
चाहिए
जिस
प्रकार
कोई
भौंरा
जब
किसी
पुष्प
के
रस
का
पान
करता
है
तो
वह
आसपास
से
आने
वाली
अन्य
गंधों
से
विरक्त
हो
जाता
है।
साधक
वैसे
ही
नाद
में
आसक्त
हो
जाता
है।
ओंकार
ध्यान के
फल -
जब
साधक
का
मन
नाद
में
पूर्ण
रूप
से
एकाग्र
हो
जाता
है
तो
वह
इधर
उधर
नही
भागता
और
संसार
के
प्रपंचों
में
नही
फसता।
संसार
से
मन
की
विरक्ति
को
एक
सुन्दर
उपमा
के
माध्यम
से
निरूपित
करते
हुए
नादबिंदु
उपनिषद्
में
कहा
गया
है
कि
जिस
प्रकार
एक
विषयरूपी
उद्यान
में
अपनी
ही
धुन
में
मस्त
हाथी
को
नियंत्रण
में
रखने
के
लिए
अंकुश
का
उपयोग
किया
जाता
है
ठीक
उसी
प्रकार
सांसारिक
भोग
विषयों, रूप, रस, शब्द, स्पर्श, गंध
आदि
प्रलोभनों
से
भरे
इस
संसार
में
यह
नाद
मन
को
वश
में
रखने
के
लिए
उपयोग
में
आने
वाले
तीक्ष्ण
अंकुश
के
समान
हैं।
एक
और
उपमा
मन
तथा
नाद
की
क्रमशः
हिरण
तथा
जाल
से
की
गई
है
यहाँ
यह
वर्णन
मिलता
है
कि
मन
रूपी
चंचल
हिरण
को
पकड़ने
के
लिए
नाद
जाल
के
सदृश
है।
हठप्रदीपिका
में
भी
नाद
के
माध्यम
से
मन
को
नियंत्रित
करने
के
लिए
इन्ही
उपमाओं
का
प्रयोग
किया
गया
है।
यह
ब्रह्मप्रणव
के
साथ
सम्बद्ध
नाद
ज्योर्तिमय
स्वरूप
वाला
है।
उस
ज्योर्तिमय
स्वरूप
में
मन
स्वयं
लीन
होता
है
और
वही
विष्णु
का
परमपद
है।
मन
में
आकाशतत्त्व
का
संकल्प
तो
तभी
तक
ही
रहता
है
जब
तक
कि
शब्द
का
प्रवर्तन
होता
है।
नादानुभव
के
बाद
वह
मन
निःशब्द
हो
जाता
है, मन
का
अस्तित्व
तब
तक
ही
रहता
है
जब
तक
कि
नाद
का
अस्तित्व
है, जब
नाद
का
अस्तित्व
समाप्त
हो
जाता
है
अथवा
जब
नाद
का
अंत
हो
जाता
है
तब
मन
स्वयं
ही
शून्य
अवस्था
को
प्राप्त
कर
लेता
है।
जब
सशब्द
नाद
अक्षर
में
क्षीण
हो
जाता
है
तो
वह
निःशब्द
स्थान
है, वह
शब्द
ही
परमपद
है, इस
तथ्य
में
कोई
भी
संदेह
नही
है।
परिणामस्वरूप
नादानुसंधान
से
उत्पन्न
वासना
धीरे-धीरे
समाप्त
हो
जाती
है
और
इसके
पश्चात्
साधक
का
मन
तथा
प्राण
उस
निरंजन
परब्रह्म
में
लीन
हो
जाता
है।
शब्द
तथा
अक्षरों
की
भावना
लीन
हो
जाने
पर
मन
शब्दहीन
परमब्रह्म
परमपद
में
लीन
हो
जाता
है।
नादानुसंधान
का
अभ्यास
सदैव
करते
रहने
से
मन
की
वासनाएँ
क्षीण
हो
जाती
है। अनाहत नाद
में
जब
तक
साधक
का
मन
लगा
रहता
है
तब
तक
आकाश
भली-भाँति
प्रतीत
होता
है
क्योंकि
शब्द
आकाश
का
ही
गुण
है, क्योकि
शब्द
आकाश
में
सुनाई
नहीं
देता।
जब
मन
के
साथ
अनाहत
नाद
लीन
हो
जाता
है
तब
मन
शब्दहीन
परब्रह्म
में
लीन
हो
जाता
है।
निष्कर्ष : अनाहत नाद
के
श्रवण
होने
तक
करोड़ों
-करोड़ों नाद और
करोड़ों-करोड़ों
बिंदु
सभी
प्रणव
के
नाद
अर्थात
निःशब्द
नाद
में
समा
जाते
हैं।
वह
योगी
आत्मा
की
चार
अवस्थाओं
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति
अवस्था
से
उपर
उठकर, मन
में
आ
रहे
अन्य
प्रकार
से
सभी
विचारों
को
विराम
देकर, एक
शव
की
भांति
ही
इस
संसार
में
रहता
है।
उस
साधक
की
देह
काष्ठवत
हो
जाती
है
इस
देह
पर
शीत, उष्ण, सुख
तथा
दु:ख
का
कोई
प्रभाव
नहीं
पड़ता।
इस
प्रकार
संसार
में
रहने
वाला
योगी
संसार
के
बंधनों
से
निःसंदेह
ही
मुक्त
समझा
जाता
है।
ऐसा
उच्च
अवस्था
प्राप्त
योगी
शंख, भेरी, दुंदुभि
आदि
लौकिक
तथा
स्थुल
नादों
को
नही
सुनता।
और
उसका
मन
जाग्रत, स्वप्न, तथा
सुषुप्ति
का
अनुसरण
भी
नही
करता
है।
ओम
यह
परमात्मा
का
अतिसन्निहित
नाम
है, इस
नाम
के
लेने
से
वे
उसी
प्रकार
प्रसन्न
हो
जाते
है
जिस
प्रकार
प्रिय
नाम
लेने
से
लोग
प्रसन्न
हो
जाते
है10।
1. द्विवेदी, प्रो. पारसनाथ, वैदिक साहित्य का इतिहास, चौखंभा प्रकाशन, वाराणसी, 2014
9. शास्त्री आचार्य केशव वी., उपनिषद् संचयनम् (भाग-दो, तीन), मोतीलाल बनारसी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015
नम्रता चौहान
सहायक प्राध्यापक, योग एवं नेचुरोपैथी विभाग, सरला बिरला विश्वविद्यालय, राँची
शोधार्थी, इंटेग्रेटिव मेडिसिन विभाग
श्री देवराज यूआरएस अकादमी ऑफ़ हायर एजुकेशन एंड रिसर्च, कोलार
सम्पर्क : dr.csyoga@gmail.com, 9536959384
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
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