- राजेश कुमार गुप्ता
शोध सार : यह
लेख
भारतीय
कॉमिक्स
के
अध्ययन
पर
केंद्रित
है।
ख़ासकर
1970 से 1990 के
दशकों
में
कॉमिक्स
मनोरंजन
का
सबसे
प्रमुख
साधन
हुआ
करती
थी,
परन्तु
सैटेलाईट
चैनलों, कलर
टेलीविज़न
और
वीडियो
गेम्स
की
आमद
के
बाद
20वीं सदी के
अंत
तक
भारतीय
कॉमिक्स
का
बाज़ार
सिकुड़ने
लगा
और
इसकी
लोकप्रियता
भी
खोने
लगी।
परन्तु
फिर
भी
इसने
लगभग
तीन
दशक
तक
प्रत्यक्ष
अथवा
अप्रत्यक्ष
रूप
से
ना
सिर्फ़
युवा
पाठकों
को
मनोरंजन
प्रदान
किया
बल्कि
‘अच्छाई’ और ‘बुराई’
के
प्रति
उनकी
समझ
का
विस्तार
करने
में
भी
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाई।
इस
दौर
में
कॉमिक्स
ने
समकालीन
सामाजिक,
राजनीतिक
और
आर्थिक
मुद्दों
की
अभिव्यक्ति
के
माध्यम
की
भूमिका
भी
निभाई।
कोविड
के
समय
जब
लोग
घरों
में
बंद
थे
और
ज्यादातर
लोग
अवसाद
से
गुज़र
रहे
थे
तो
लोगों
को
अवसाद
के
प्रति
जागृत
करने
के
लिए
राज
कॉमिक्स
प्रकाशन
ने
सुपर
कमांडो
ध्रुव
की
कॉमिक्स
का
प्रकाशन
भी
किया।1
कोविड
के
दौरान
बहुत
से
लोगों
का
कॉमिक्स
के
प्रति
बचपन
का
प्यार
और
नोस्टेल्जिया
फिर
से
जाग
गया
था
जिसके
कारण
कॉमिक्स
की
मांग
तेज़ी
से
बढ़ी
और
प्रकाशकों
ने
भी
पुरानी
कॉमिक्स
के
रीप्रिंट
तथा
नई
कॉमिक्स
प्रकाशित
करने
की
फुर्ती
दिखाई।
इसके
बावजूद
भी,
यह
कहा
जा
सकता
है
वर्तमान
में
कॉमिक्स
‘मास कल्चर’ ना
रहकर
‘संभ्रांत कल्चर’
में
सिमटकर
रह
गई
है।
सीमित
मात्रा
में
ही
सही,
कुछ
पुरानी
दुकानों
में
आज
भी
कॉमिक्स
दिख
जाती
हैं।
बीज
शब्द :
कॉमिक्स,
ग्राफ़िक
नॉवेल,
कार्टून्स,
सुपरहीरो।
मूल
आलेख : भारत
में
कॉमिक्स
के
इतिहास
पर
अगर
बात
करें
तो
सर्वप्रथम
1950 के बाद समाचार-पत्रों
तथा
पत्रिकाओं
में
स्ट्रिप
के
रूप
में
कॉमिक्स
छपने
लगी
थीं।
साथ
ही
अमेरिका
और
ग्रेट
ब्रिटेन
से
आयात
की
गई
अंग्रेज़ी
कॉमिक्स
भी
बाज़ार
में
यदा-कड़ा
मिल
जाया
करती
थीं।2
लेकिन
शुरू
में
कॉमिक्स
की
पहुंच
केवल
अंग्रेज़ी
बोलने-पढ़ने
वाले
उच्च
वर्ग
के
लोगों
तक
हुआ
करती
थी।
इसके
बावजूद
भी
कॉमिक्स
की
रोमांचकारी
तस्वीरें
तथा
सुपरहीरो
के
कारनामे
उन
लोगों
के
बीच
भी
कौतूहल
जगाते
थे
जो
अंग्रेज़ी
के
शब्दों
को
समझने
में
असमर्थ
थे।
एक
अहम
सवाल
यह
भी
है
कि
आख़िर
कॉमिक्स
किसे
कहा
जाए
क्योंकि
इससे
मिलती
जुलती
विविध
कलाओं
का
प्रयोग
आज
भी
किताबों,
पत्रिकाओं
और
अख़बारों
के
पन्नों
में
कार्टून
स्ट्रिप
के
रूप
में
आसानी
से
देखने
को
मिल
जाता
है।
कॉमिक्स
में
चित्रों
के
पैनलों
और
शब्दों
को
श्रृंखलाबद्ध
रोमांचकारी
कहानी
के
रूप
में
प्रस्तुत
किया
जाता
है।
जहां
चित्रों
का
महत्त्व
शब्दों
से
अधिक
हो
जाता
है
वहां
चित्रित
पैनलों
का
आकार
तथा
उनका
संयोजन
इस
प्रकार
निर्धारित
किया
जाता
है
कि
चित्रों
के
माध्यम
से
ही
कहानी
को
अभिव्यक्त
किया
जा
सके।
साथ
ही,
शब्दों
का
प्रयोग
होने
के
कारण
कॉमिक्स
को
साहित्य
की
एक
विधा
भी
माना
जा
सकता
है।
ऐसा
कहना
भी
सही
है
कि
कॉमिक्स,
कार्टून,
ग्राफ़िक
नॉवेल
और
पोलिटिकल
सैटायर
में
काफ़ी
समानता
होती
है
लेकिन
इसके
बावजूद
भी
इन
सबकी
अपनी
अलग-अलग
और
स्वतंत्र
पहचान
है।
हालांकि
कॉमिक्स
और
ग्राफ़िक
नॉवेल
के
बीच
फ़र्क
करना
बहुत
मुश्किल
होता
है
और
दोनों
को
प्रायः
ही
एक-दूसरे
के
पर्यायवाची
के
रूप
में
इस्तेमाल
किया
जाता
है
परंतु
हर
ग्राफ़िक
नॉवेल
कॉमिक्स
नहीं
होता
है
जबकि
हर
कॉमिक्स
को
ग्राफ़िक
नॉवेल
कहा
जा
सकता
है।
आजकल
तो
वैसे
भी
किसी
भी
नॉवेल
या
कहानी
को
ग्राफ़िक
रूप
में
प्रस्तुत
करने
की
परम्परा
चल
पड़ी
है
और
इनका
प्रचलन
बाज़ार
में
काफ़ी
तेज़ी
से
बढ़
रहा
है।
वास्तव
में
यह
परम्परा
जापान
के
मांगा
साहित्य
से
प्रभावित
दिखती
है3
जिसमें
किसी
भी
किताब,
कहानी
या
नॉवेल
को
ग्राफ़िक
रूप
में
पाठकों
के
सामने
सरल
तरीक़े
से
प्रस्तुत
किया
जाता
है।
इसके
विपरीत
कॉमिक्स
नायक-प्रधान
होता
है
और
पूरी
कॉमिक्स
में
हीरो
या
सुपरहीरो
का
रोमांच
और
संघर्ष
प्रायः
अंतहीन
और
निरंतर
चलता
रहता
है।
जैसे
डायमंड
कॉमिक्स
द्वारा
प्रकाशित
चाचा
चौधरी
और
साबू
की
जुगलबंदी,4
राज
कॉमिक्स
द्वारा
प्रकाशित
नागराज,
डोगा,
सुपर
कमांडो
ध्रुव,
शक्ति,
परमाणु,
भोकाल
आदि
का
बुराई
के
ख़िलाफ़
निरंतर
चलने
वाला
संघर्ष,5 मनोज
कॉमिक्स
द्वारा
प्रकाशित
राम-रहीम,
हवलदार
बहादुर
आदि
के
साहसिक
कारनामे।6
कॉमिक्स
में
हीरो
या
सुपरहीरो
की
प्रधानता
होती
है
और
यह
कई
श्रृंखलाओं
में
आती
रहती
है।
नागराज,
डोगा,
शक्ति
जैसी
कॉमिक्स
श्रृंखलाओं
में
100 से ज्यादा कॉमिक्स
आ
चुकी
हैं।
वहीं
ग्राफ़िक
नॉवेल
में
कहानी
की
प्रधानता
होती
है
तथा
यह
एक
या
फिर
अनेक
खंडों
में
बंटा
हो
सकता
है।
साथ
ही
ग्राफ़िक
नॉवेल
के
अंत
के
साथ
ही
कहानी
का
अंत
भी
सुनिश्चित
रूप
से
होता
है
जबकि
कॉमिक्स
के
अंत
के
साथ
कहानी
का
निश्चित
अंत
नहीं
होता
और
सुपरहीरो
की
नई
कॉमिक्स
आने
की
संभावना
निरंतर
बनी
रहती
है।
कॉमिक्स
कई
विधाओं
में
पाठकों
के
सम्मुख
प्रस्तुत
की
जाती
है,
जैसे
कि
सुपरहीरो,
डिटेक्टिव,
सस्पेंस
थ्रिलर,
धार्मिक-काल्पनिक-पुराण
कथाएं
आदि।
परन्तु
पाठकों
का
ऐसा
मानना
है
कि
कॉमिक्स
केवल
मनोरंजक
के
लिए
नहीं
होती।
कॉमिक्स
पाठक
को
मनोरंजन
उपलब्ध
करवाने
के
साथ-साथ
उसके
व्यक्तित्व
और
नैतिक
मूल्यों
के
विकास
में
भी
सहयोग
करती
और
उसको
नई-नई
सूचनाएं,
भौगोलिक,
ऐतिहासिक,
तकनीकी,
वैज्ञानिक
जानकारियां
भी
प्रदान
करती
है।7
कई
भाषाविद
यह
भी
मानते
हैं
कि
कॉमिक्स
भाषा
सिखाने
तथा
भाषा
की
समझ
एवं
विस्तार
हासिल
करने
का
सबसे
सशक्त
माध्यम
है।8
इस
बात
में
कोई
संदेह
नहीं
कि
भारत
में
कॉमिक्स
लाने
का
श्रेय
अंग्रेज़ों,
और
विशेषकर
अंग्रेज़
सैनिकों,
को
जाता
है।
द्वितीय
विश्वयुद्ध
के
दौरान
ये
कॉमिक्स
भी
अपने
साथ
लाए
जिनको
ये
सैनिक
ख़ाली
वक़्त
में
पढ़ा
करते
थे।
उस
समय
तक
पश्चिमी
समाज
में
कॉमिक्स
मनोरंजन
के
एक
लोकप्रिय
माध्यम
के
रूप
में
स्थापित
हो
चुकी
थी
और
युवा
पाठकों
के
बीच
बहुत
पसंद
की
जाती
थी।9
सही
मायने
में
देखा
जाए
तो
भारत
में
कॉमिक्स
का
आगमन
काफ़ी
हद
तक
यूरोपीय
और
अमेरिकी
संकल्पना
पर
आधारित
है।
यही
कारण
है
कि
पाठकों
द्वारा
भारतीय
कॉमिक्स
तथा
सुपरहीरो
पर
सीधे
नक़ल
करने
का
आरोप
भी
लगाया
जाता
है।
परन्तु
भारतीय
सुपरहीरो
के
लिए
नक़ल
की
बजाए
प्रेरणा
शब्द
का
प्रयोग
करना
ज्यादा
उचित
रहेगा।
जैसे
कि
तिरंगा
कॉमिक्स
की
प्रेरणा
कैप्टन
अमेरिका
से
ली
गई
है,
नागराज
स्पाइडरमैन
से
प्रेरित
है,
डोगा
बैटमैन
से
प्रभावित
है,
शक्ति
की
प्रेरणा
वंडर
वुमन
तो
सुपर
कमांडो
ध्रुव
सुपरमैन
से
प्रेरित
है।
इसी
प्रकार
कोबी
और
भेड़िया
की
प्रेरणा
वुल्वरीन
से
ली
गई।
इन
भारतीय
सुपरहीरो
का
प्रेरणास्रोत
और
संकल्पना
भले
ही
पश्चिमी
समाज
से
ली
गई
हो
लेकिन
इनका
‘भारतीयकरण’ भी
बड़े
पैमाने
पर
हुआ
है।
यहां
सुपरहीरो
के
‘भारतीयकरण’ से
हमारा
तात्पर्य
यह
है
कि
भारतीय
समाज,
संस्कृति,
धर्म,
क्षेत्र
के
साथ
सुपरहीरो
को
एक
अलग
पहचान
दी
गई
है
और
इसी
पहचान
के
साथ
सुपरहीरो
अपने
समाज
और
देश
की
रक्षा
करता
है।
एक
महत्वपूर्ण
बात
यह
कि
कॉमिक्स
में
सुपरहीरो
के
धर्म
के
बारे
में
तो
पाठक
को
पता
चलता
है
लेकिन
उसकी
जाति
के
बारे
में
कोई
सुराग़
नहीं
दिया
जाता।
संभवतः
ऐसा
हो
सकता
है
कि
कॉमिक्स
लिखने
वाले
अधिकतर
लेखक
ऊंची
जाति
से
संबंधित
हैं,
जैसे
कि
अनुपम
सिन्हा,
संजय
गुप्ता,
अनंत
पाई,
जौली
सिन्हा,
बसंत
पांडा,
शेखर
कपूर
और
दीपक
चोपड़ा।
उनके
लिए
धार्मिक
अस्मिता
जहां
पाठकों
को
आपस
में
जोड़ने
का
काम
कर
सकती
है
वहीं
जातीय
अस्मिता
अलगाव
पैदा
करती
है।
इसके
अतिरिक्त,
जिस
दौर
में
ये
कॉमिक्स
लिखी
जा
रही
थीं
उस
समय
प्रिंट
एवं
इलेक्ट्रोनिक
मिडिया
तथा
राजनीति
में
धर्म
का
महत्व
बढ़ता
जा
रहा
था
और
लोग
बड़ी
संख्या
में
धर्म
के
नाम
पर
लामबंद
होते
जा
रहे
थे।10
कॉमिक्स
का
रोमांच
अपने
समय
की
महत्वपूर्ण
घटनाओं
से
प्रभावित
होता
है
इसलिए
इसका
संदर्भ
भी
सामाजिक,
राजनीतिक
और
आर्थिक
परिस्थितियों
के
अनुसार
बदलता
रहता
है।
जैसे
कि,
विश्वयुद्ध
की
पृष्ठभूमि
में
कैप्टन
अमेरिका,
सुपरमैन,
वंडर
वुमन
का
आगमन
होता
है
जो
अपने
देश
और
लोगों
की
रक्षा
के
लिए
दुश्मन
से
लड़ते
हैं
और
साथ
ही
एक
आदर्श
हीरो/पुरुष
की
छवि
भी
स्थापित
करते
हैं।
साथ
ही,
पाठकों
को
भी
देश
की
रक्षा
के
लिए
मर
मिटने
की
प्रेरणा
देते
हैं।
स्वतंत्रता
के
बाद
जब
भारत
में
मूल
रूप
से
कॉमिक्स
लेखन
आरंभ
होता
है
तो
उस
समय
के
सामाजिक
और
राजनीतिक
संदर्भ
से
संबंधित
विषयों
जैसे
कि
हिन्दू
धर्म,
राष्ट्रवाद,
आतंकवाद,
औपनिवेशिक
मानसिकता,
नस्लवाद,
नारी-प्रधानता
आदि
विषयों
को
कॉमिक्स
के
माध्यम
से
अभिव्यक्त
किया
गया।
यूं
तो
कॉमिक्स
नए
और
स्वतंत्र
विचारों
को
बढ़ावा
देने
के
लिए
जानी
जाती
है
लेकिन
कई
बार
यह
रूढ़िवादी
सोच
का
समर्थन
करती
भी
दिखती
है।
असल
में
यह
कॉमिक्स
लेखक
और
संपादक
की
समझ
पर
भी
निर्भर
करता
है
कि
वह
किस
विचारधारा
के
तहत
कॉमिक्स
लिखता
है।
इसलिए
यह
कहना
सही
होगा
कि
कॉमिक्स
का
कोई
निश्चित
पैटर्न
नहीं
दिखता
और
इसको
प्रोपगंडा
की
तरह
भी
इसका
इस्तेमाल
किया
जाता
है।
भारत
में
कॉमिक्स
की
बढ़ती
हुई
मांग
को
देखते
हुए
टाइम्स
ऑफ़
इंडिया
ग्रुप
ने
इंद्रजाल
बैनर
(1964) के तले
हिन्दी
तथा
अन्य
भारतीय
भाषाओं
में
कॉमिक्स
छापना
आरम्भ
किया
गया।
हालांकि
शुरूआत
में
यह
ग्रुप
केवल
अंग्रेज़ी
में
ही
कॉमिक्स
छापता
था
लेकिन
कालांतर
में
इसने
हिन्दी
तथा
अन्य
भारतीय
भाषाओं
भी
प्रकाशन
शुरू
किया।
ख़ासकर
ली
फ़ाल्क
द्वारा
लिखी
गईं
फैंटम,
मैंडरेक,
द
मैजिशियन
जैसी
कॉमिक्स
बहुत
लोकप्रिय
हुईं।
ली
फ़ाल्क
की
लिखी
हुई
कॉमिक्स
पहले
ही
मूल
रूप
से
अमेरिका
में
छप
चुकी
थीं।
भारत
में
इन
कॉमिक्स
का
पुनः
प्रकाशन
किया
गया।
पश्चिमी
देशों
में
सफलता
प्राप्त
करने
के
पश्चात्
ये
कॉमिक्स
तीसरी
दुनिया
के
देशों
में
लोकप्रियता
पाने
का
प्रयास
कर
रहीं
थीं।
फैंटम
की
पृष्ठभूमि
अफ़्रीका
और
एशिया
के
जंगलों
में
होने
कारण
तथा
औपनिवेशिक
विषयों
से
जुड़ी
होने
के
कारण
यहां
के
पाठक
भी
फैंटम
के
साथ
जुड़ाव
महसूस
करते
थे।11
यही
मुख्य
कारण
था
जिसकी
वजह
से
फैंटम
भारत
में
बहुत
लोकप्रिय
हुआ।
पहली
नज़र
में
तो
ऐसा
लगता
है
कि
फैंटम
अन्याय
और
अत्याचार
के
ख़िलाफ़
लड़ता
है
परंतु
फैंटम
कॉमिक्स
को
गहराई
से
पढ़ने
पर
ऐसा
प्रतीत
होता
है
कि
फैंटम
औपनिवेशिक
मानसिकता
का
प्रतिनिधित्व
करता
है
और
तीसरी
दुनिया
के
लोगों
को
अनैतिक,
ग़रीब,
जंगली
और
असभ्य
लोगों
के
रूप
में
दर्शाता
है
और
वह
(फैंटम) हमें सभ्यता
और
नैतिकता
का
पाठ
पढ़ाने
आया
है।
व्हाइट
मैन
बर्डन
का
प्रतिपादन
कई
कॉमिक्स
में
स्पष्ट
झलकता
है।12
भारतीय
कॉमिक्स
के
इतिहास
में
एक
प्रमुख
मोड़
1967 में आता है
जब
अनंत
पाई
अमर
चित्र
कथा
की
शुरूआत
करते
हैं।
अनंत
पाई
पेशे
से
इंजीनियर
थे
तथा
टाइम्स
ऑफ़
इंडिया
समूह
के
साथ
काम
किया
करते
थे।
इस
श्रृंखला
का
मुख्य
उद्देश्य
भारतीय
पाठकों,
विशेषकर
युवाओं
को,
भारतीय
संस्कृति
और
पौराणिक
एवं
ऐतिहासिक
कथा-कहानियों
से
अवगत
करवाना
था।
परन्तु
इस
समय
भी
अधिकांश
पाठक
अंग्रेज़ी
कॉमिक्स
ही
पढ़ते
थे
इसलिए
आरंभिक
दस
कॉमिक्स
को
पश्चिमी
कॉमिक्स
के
पैटर्न
पर
ही
निकाला
गया
ताकि
इस
श्रृंखला
को
पाठकों
के
बीच
स्थापित
किया
जा
सके।
परंतु
यह
कॉमिक्स
उम्मीद
के
अनुरूप
सफलता
प्राप्त
नहीं
कर
सकी,
तब
जाकर
1970 में अनंत पाई
ने
हिन्दू
पौराणिक
कथाओं
पर
आधारित
कृष्णा
और
शकुंतला
जैसी
कॉमिक्स
का
प्रकाशन
शुरू
किया।
इसके
बाद
धार्मिक
और
पौराणिक
पृष्ठभूमि
पर
बहुत
सी
कॉमिक्स
प्रकाशित
की
गईं,
विशेषकर
रामायण
और
महाभारत
की
कथाओं
पर
आधारित
कॉमिक्स
जैसे
कि
वाल्मीकि
रामायण,
तुलसीदासकृत
रामायण,
महाभारत,
लव-कुश,
आदि।
इसके
अतिरिक्त
ऐतिहासिक
विभूतियों,
स्वतंत्रता
सेनानियों
तथा
अन्य
महत्वपूर्ण
लोगों
की
जीवनी
पर
भी
अमर
चित्र
कथा
ने
बहुत
सी
कॉमिक्स
प्रकाशित
कीं।
पहले
अंग्रेज़ी
में
और
फिर
हिन्दी
के
साथ-साथ
अन्य
भारतीय
भाषाओं
में
अमर
चित्र
कथा
आज
भी
भारत
की
सबसे
ज्यादा
पढ़ी
जाने
वाली
और
लोकप्रिय
कॉमिक्स
है।
अमर
चित्र
कथा
ने
भारतीय
कॉमिक्स
के
बाज़ार
को
वैश्विक
रूप
प्रदान
किया।
अब
तक
400 से ज्यादा शीर्षकों
के
साथ
9 करोड़ से ज्यादा
कॉमिक्स
पूरे
विश्व
में
बिक
चुकी
हैं
और
यह
संख्या
दिन-ब-दिन
बढ़ती
ही
जा
रही
है।13
हिन्दू
धर्म
को
जानने
के
लिए
अमर
चित्र
कथा
ना
सिर्फ़
भारतीयों
के
लिए
बल्कि
उन
विदेशियों
के
लिए
भी
एक
महत्वपूर्ण
स्रोत
बनकर
सामने
आई
है
जो
हिन्दू
धर्म
को
आसान
शब्दों
में
जानना-समझना
चाहते
थे।
भारत
से
बाहर
रह
रहे
भारतीय
अमर
चित्र
कथा
के
माध्यम
से
अपने
बच्चों
को
भारतीय
इतिहास
और
हिन्दू
संस्कृति
का
बोध
कराते
हैं।
परंतु
समस्या
यह
है
कि
इन
कॉमिक्स
को
पढ़कर
पाठक
इनको
पूरी
तरह
से
सच
मान
लेते
हैं।
जबकि
सिर्फ़
रामायण
के
भी
भारत
में
300 से ज्यादा स्थानीय
वर्ज़न/संस्करण
हैं
और
इन
सभी
संस्करणों
में
काफ़ी
विविधताएं
हैं
जो
अलग-अलग
सामाजिक
और
राजनीतिक
परिदृश्य
की
उपज
हैं।
अमर
चित्र
कथा
ने
रामायण
के
सब
स्थानीय
वर्ज़न
को
हाशिए
पर
धकेल
कर
एक
‘स्टैण्डर्ड वर्ज़न
ऑफ़
रामायण’
नैरेटिव
की
प्रभुसत्ता
स्थापित
की
है।14
यही
वजह
है
कि
अमर
चित्र
कथा
पर
शोध
करने
वाले
बहुत
से
समाजविदों
(नंदनी चंद्रा, दीपा
श्रीवास्तव,
कारलीन
मैक्लेन)
ने
यह
धारणा
व्यक्त
की
है
कि
अमर
चित्र
कथा
ने
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष
रूप
से
हिन्दू
राष्ट्रवाद
को
बढ़ावा
दिया
है
और
मुस्लिम
राजाओं
को
हिन्दू
राजाओं
के
समक्ष
कमज़ोर
या
शत्रु
के
रूप
में
दिखाया
है।15
इंद्रजाल
और
अमर
चित्र
कथा
की
वृहत
सफलता
ने
अन्य
प्रकाशकों
को
भी
कॉमिक्स
प्रकाशन
के
क्षेत्र
में
आने
के
लिए
प्रेरित
किया।
1986 में राजकुमार
गुप्ता
ने
अपने
तीन
बेटों
(संजय गुप्ता, मनीष
गुप्ता
और
मनोज
गुप्ता)
के
साथ
मिलकर
राज
कॉमिक
बुक्स
की
स्थापना
की
जो
मुख्यतः
सुपरहीरो
आधारित
हिन्दी
कॉमिक्स
प्रकाशित
करते
थे।
यह
अमर
चित्र
कथा
के
बाद
सबसे
ज्यादा
पढ़ी
जाने
वाली
श्रृंखला
बन
गई।
इस
प्रकाशन
ने
नागराज,
सुपर
कमांडो
ध्रुव,
डोगा,
शक्ति,
भोकाल,
परमाणु,
तिरंगा,
एंथोनी,
कैप्टन
स्टील
आदि
जैसे
कई
मशहूर
सुपरहीरो
दिए
हैं
और
इनके
माध्यम
से
पाठकों
को
देशप्रेम,
राष्ट्रवाद,
धर्म
की
रक्षा,
कमज़ोरों
की
रक्षा
और
गुनाहगारों
को
सज़ा
देने
के
साथ-साथ
‘गुड’ और ‘बैड’
के
बीच
फ़र्क
करने
की
सीख
भी
दी
जाती
है।
हालांकि
यह
एक
विमर्शात्मक/सब्जेक्टिव
विषय
है
कि
किसे
‘गुड’ बोला जाए
और
‘बैड’ किसे बताया
जाए।
लेकिन
पाठक
तो
यही
मानता
है
कि
सुपरहीरो
हमेशा
‘गुड’ के लिए
लड़ता
है।
इसके
अतिरिक्त, सुपरहीरो
कॉमिक्स
कभी
किसी
अपराधी
की
सामाजिक
और
आर्थिक
परिस्थितियों
का
आकलन
प्रस्तुत
नहीं
करती
हैं
जिनके
कारण
उसको
अपराध
की
तरफ़
जाना
पड़ा।
यह
एक
अलग
विमर्श
का
विषय
है
कि
अमर
चित्र
कथा
को
जहां
परिवार
के
बड़ों
के
बीच
स्वीकृति
मिली
हुई
थी
वहीं
सुपरहीरो
कॉमिक्स
को
घर
में
पढ़ने
के
लिए
काफ़ी
संघर्ष
करना
पड़ता
था।
अमर
चित्र
कथा
धर्म,
संस्कृति,
पुराणकथा
और
महान
विभूतियों
की
जीवनी
से
सीखने
की
प्रेरणा
प्रदान
करती
है
तो
वहीं
दूसरी
तरफ़
सुपरहीरो
कॉमिक्स
को
परिवार
के
बीच
नकारात्मक
दृष्टि
से
देखा
जाता
है।
इसके
पीछे
कई
कारण
निहित
हो
सकते
हैं।
पहला
तो
यह
कि
अधिकतर
पाठक
कम
उम्र
के
हुआ
करते
थे
और
वे
पढ़ाई
से
ध्यान
हटाकर
कॉमिक्स
जगत
में
ही
डूब
जाते
थे।
इसके
अतिरिक्त,
आर्थिक
कारण
भी
एक
बड़ी
वजह
हो
सकता
है–
कॉमिक्स
को
ख़रीदने
या
किराए
पर
लेने
के
लिए
पैसे
की
आवश्यकता
होती
है।16
साथ
ही, सुपरहीरो
कॉमिक्स
की
विषयवस्तु
भी
हिंसा
से
भरी
होती
है
जिसे
मनोविशेषज्ञ
बच्चों
के
मानसिक
विकास
के
लिए
उचित
नहीं
समझते।17
इन
सबके
बावजूद
भी
1980 के दशक में
कॉमिक्स
की
मांग
और
इसका
बाज़ार
काफ़ी
बढ़
चुके
थे।
बहुत
सारे
प्रकाशक
अंधाधुंध
कॉमिक्स
के
प्रकाशन
में
लग
गए।
ज्यादा
मात्रा
में
कॉमिक्स
निकालने
के
कारण
कॉमिक्स
की
गुणवत्ता
पर
नकारात्मक
असर
पड़ा।
कॉमिक्स
के
नाम
पर
कुछ
भी
परोसा
जाने
लगा,
बिना
किसी
लॉजिक/तर्क
के
सुपरहीरो
का
निर्माण
किया
जाने
लगा।
जितनी
तेज़ी
से
कॉमिक्स
की
मांग
बढ़ी
थी,
उतनी
ही
तेज़ी
से
1990 के बाद कॉमिक्स
की
मांग
में
कमी
भी
आने
लगी।
इसमें
वीडियो
गेम
और
कलर
टेलीविज़न
का
भी
बड़ा
योगदान
था
क्योंकि
इनके
माध्यम
से
पाठकों
को
एक
नया
विकल्प
मिल
गया।
20वीं
सदी
के
अंत
तक
ज्यादातर
कॉमिक
बुक्स
प्रकाशकों
ने
मांग
कम
होने
के
कारण
कॉमिक्स
निकालना
बंद
कर
दिया।
सिर्फ़
राज
कॉमिक्स, डायमंड
कॉमिक्स
और
अमर
चित्र
कथा
ही
अपने
पाठकों
की
अधिक
संख्या
होने
के
कारण
इस
मंदी
से
ख़ुद
को
बचा
पाई।
21वीं सदी के
आरंभिक
वर्षों
में
कई
नए
प्रकाशक
आए,
ये
अपने
साथ
कॉमिक्स
जगत
में
नए
प्रयोग
और
संकल्पनाएं
लेकर
आए
थे।
वर्जिन
कॉमिक्स
(2006), याली ड्रीम
क्रिएशन
(2012), फिक्शन कॉमिक्स
(2018), चैरिएट कॉमिक्स
(2012) आदि इन
नए
प्रकाशकों
के
उदाहरण
हैं।
ज्यादातर
कॉमिक्स
आज
भी
अपनी
कहानियों
में
हिन्दू
माइथोलोजी
का
प्रयोग
कर
रहे
हैं,
लेकिन
सुपरहीरो
कि
तुलना
में
अब
कहानी
पर
ज्यादा
ज़ोर
दिया
जा
रहा
है
और
कहानी
का
एक
निश्चित
अंत
भी
दिखता
है।
इन्होंने
अपना
कॉमिक्स
केवल
भारतीय
बाज़ार
तक
ही
सीमित
नहीं
किया
बल्कि
वैश्विक
बाज़ार
के
लिए
कॉमिक्स
का
प्रकाशन
किया
जा
रहा
है
तथा
ये
वैश्विक
कॉमिक्स
प्रकाशकों
को
कड़ी
टक्कर
दे
रहे
हैं।
ये
प्रकाशक
कॉमिक्स
को
पहले
अंग्रेज़ी
में
निकालते
है
और
जब
यह
अपेक्षित
सफलता
प्राप्त
कर
लेती
है
तो
इसको
हिन्दी
में
निकाला
जाता
है।
ऐसा
प्रतीत
होता
है
कि
नए
प्रकाशकों
ने
संभ्रांत
परिवारों
के
लोगों
को
अपना
पाठक
वर्ग
मानकर
ही
कॉमिक्स
का
प्रकाशन
किया
है।
साथ
ही
कॉमिक्स
को
बढ़िया
बनाने
की
एवज
में
कॉमिक्स
की
लागत
काफ़ी
बढ़
गई
है
और
यह
महंगी
कॉमिक्स
आम
पाठकों
की
पहुंच
से
दूर
हो
गई
है।
भारत
में
हर
साल
आयोजित
होने
वाले
कॉमिककॉन
फेस्टिवल,
जिसका
उद्देश्य
भारत
में
कॉमिक्स
कल्चर
को
बढ़ावा
देना
है,
की
प्रवेश
टिकट
का
दाम
ही
799 रूपए होता है।18
पहले
समय
में
जहां
संभ्रांत
वर्ग
के
लोग
कॉमिक्स
ख़रीद
कर
पढ़ते
थे,
वहीं
मध्यम
एवं
निम्न-मध्यम
वर्ग
के
लोग
किराये
पर
कॉमिक्स
लिया
करते
थे।
1970 के दशक से
ही
किराये
पर
कॉमिक्स
देने
का
चलन
काफ़ी
प्रचलित
हो
चुका
था
और
अधिकांश
पाठक
किराये
पर
लेकर
ही
कॉमिक्स
पढ़ा
करते
थे।
हर
महीने
नए-नए
कॉमिक्स
आते
थे
और
पाठक
के
लिए
सभी
कॉमिक्स
ख़रीद
पाना
मुश्किल
होता
था।
ख़रीदने
और
किराये
पर
लेने
के
लिए
ए.
एच.
व्हीलर
की
दुकानों
के
साथ-साथ
रेलवे
स्टेशनों,
बस
स्टेशनों
और
बाज़ार
में
छोटी-बड़ी
दुकानों
पर
बड़ी
संख्या
में
कॉमिक्स
उपलब्ध
होती
थीं।
पाठक
भी
बड़ी
उत्सुकता
के
साथ
नई
कॉमिक्स
के
इंतज़ार
में
इन
दुकानों
पर
पहुंचते
थे।
चूंकि
अधिकांश
कॉमिक्स
किराये
पर
ली
जाती
थीं,
इसलिए
इनकी
कुल
पाठक-संख्या
बता
पाना
मुश्किल
है।
1988 में दिल्ली विश्वविद्यालय
में
कॉमिक्स
पर
हुई
एक
कार्यशाला
के
दौरान
बताया
गया
कि
35-40 लाख लोग कॉमिक्स
पढ़ते
हैं।19
इतनी
अधिक
संख्या
में
पाठक
होने
के
बावजूद
भारतीय
कॉमिक्स
बहुत
कम
शोध
हुआ
है।
अमेरिकी
और
यूरोपीय
कॉमिक्स
की
तुलना
में
भारतीय
कॉमिक्स
अकादमिक
शोध
के
क्षेत्र
से
लम्बे
समय
से
दूर
ही
रही
है।
यह
शोध
इसलिए
भी
मुश्किल
है
क्योंकि
भारत
में
कॉमिक्स
का
कोई
अभिलेखागार
(आर्काइव्स) नहीं
है
और
दुर्लभ
कॉमिक्स
मिलना
काफ़ी
मुश्किल
है।
साथ
ही,
कॉमिक्स
का
मुद्रण
करने
वाले
ज्यादातर
पुराने
संस्थान
बंद
हो
चुके
हैं।
भारत
सरकार
भी
कॉमिक्स
के
प्रति
उदासीन
रही
है।
निष्कर्ष : बच्चों
और
युवा
पाठकों
की
दुनिया
में
कॉमिक्स
महत्वपूर्ण
स्थान
रखती
है।
यह
उनकी
सोच-समझ
और
कल्पना
को
आधार
प्रदान
करती
है।
सही
मायने
में
कॉमिक्स
में
समाज
को
बदलने
की
योग्यता
होती
है।
बहुत
से
देशों
में
नैतिक
तथा
मानवीय
शिक्षा
देने
के
लिए
एक
टूल
के
रूप
में
कॉमिक्स
का
सफलतापूर्वक
उपयोग
किया
गया
है।
भारतीय
कॉमिक्स
में
भी
क्षमता
है
कि
यह
रोमांचक
तरीक़े
से
हिंसा,
कल्पना
और
माइथोलोजी
से
हटकर
आज
के
समय
में
जनमानस
से
जुड़े
मुद्दों
जैसे
कि
यौन
उत्पीड़न,
मज़दूर,
जाति,
वर्ग,
समानता,
लोकतंत्र
और
न्याय
के
आदर्शों
से
पाठकों
को
अवगत
करवा
सके।
साथ
ही
कॉमिक्स
को
संगठित
शिक्षा
के
क्षेत्र
से
जोड़
कर
आम
लोगों
की
पहुंच
में
लाए
जाने
की
भी
आवश्यकता
है
ताकि
एक
बेहतर
समाज
का
निर्माण
हो
सके।
1. संजय गुप्ता, मनोज गुप्ता और आयुष गुप्ता, सुपर कमांडो ध्रुव: द स्ट्रगल विद डिप्रेशन, राज कॉमिक्स (विशेष संस्करण), 2020, पृ. 1-15. सुपर कमांडो ध्रुव: मेंटल हेल्थ, राज कॉमिक्स
2. जॉन ए. लेंट, एशियन कॉमिक्स, यूनिवर्सिटी प्रेस ऑफ़ मिसीसिपी/जैक्सन, अमेरिका, 2015, पृ. 273-277
3. कारा फील्डर, “मांगा कॉमिक्स: वेयर टू स्टार्ट?”, द गार्डियन, 3 फ़रवरी 2014, (10 जून 2022 को ऑनलाइन देखा गया)
4. अभिषेक अस्थाना, व्हाई आई लव चाचा चौधरी कॉमिक्स: फॉर देअर सिंपल, एमिएबल कैरेक्टर्स, scroll.in
5. संस्कृति भटनागर, “राज कॉमिक्स पब्लिशर्स हू ब्रोट होम योर फ्रेंडली, नेबरहुड देसी सुपरहीरोज़,” द प्रिंट, 7 अगस्त 2022
6. जॉन ए. लेंट, एशियन कॉमिक्स, यूनिवर्सिटी प्रेस ऑफ़ मिसीसिपी/जैक्सन, अमेरिका, 2015, पृ. 273-277
7. शुभांगी मिश्रा, “सॉरी शक्तिमान, इट इज नागराज हू वाज़ द फर्स्ट सुपरहीरो ऑफ़ इंडिया,” द प्रिंट, 2 फ़रवरी 2022 (23 जुलाई 2020 को ऑनलाइन देखा गया)
8. सैमुएल, “लर्न अ लैंग्वेज बाई रीडिंग कॉमिक्स,” हाउ टू लर्न अ लैंग्वेज विद कॉमिक्स: रीड योर फेवरेट कॉमिक बुक्स (https://www.mosalingua.com/)
9. रमिंदर कौर और सैफ़ इक़बाल, एडवेंचर, कॉमिक्स एंड यूथ कल्चर इन इंडिया, रूटलेज, न्यूयॉर्क, 2019, पृ. 18
10. अरविंद राजागोपाल, पॉलिटिक्स आफ्टर टेलीविज़न: हिन्दू नेशनलिज्म एंड द रीशेपिंग ऑफ़ द पब्लिक इन इंडिया, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, युनाइटेड किंगडम, 2001, पृ. 29-32
11. कारलीन मैक्लेन, इंडियाज़ इम्मोर्टल कॉमिक बुक्स: गॉड किंग्स एंड अदर हीरोज़, इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस, ब्लूमिंगटन, 2009, पृ. 1
12. ली फ़ाल्क, द फैंटम एंड द इम्पोस्टर, इंद्रजाल कॉमिक्स, अंक संख्या 4, 1964, पृ. 1-2
13. अनंत पाई (सम्पा.), राणा कुम्भा: पिलर ऑफ़ राजपूत प्राइड, अमर चित्र कथा, प्राइवेट लिमिटेड, पुनर्मुद्रण अक्तूबर 2014, खण्ड 676, मुम्बई. कवर पृष्ठ देखें
14. ए. के. रामानुजन, “थ्री हंड्रेड रामयानाज़:फाइव एक्साम्प्लेस एंड थ्री थोट्स ऑन ट्रांसलेशन,” विनय धारवाड़कर (सम्पा.) द कलेक्टेड एसेज़ ऑफ़ ए. के. रामानुजन, ऑक्सफ़ोर्ड इंडिया प्रेस, 2004 में प्रकाशित, पृ. 131-160
15. दीपा श्रीनिवास, स्कल्प्टिंग ए मिडिल क्लास: हिस्ट्री, मैस्कुलेनिटी एंड द अमर चित्र कथा इन इंडिया, रूटलेज, नई दिल्ली, 2010, पृ. 1-40 कारलीन मैक्लेन तथा नंदिनी चंद्रा का लेखन भी देखें
16. हरप्रीत एस. ग्रोवर और विभोर गोयल, लेट्स बिल्ड ए कंपनी: ए स्टार्टअप स्टोरी माइनस द बुलशिट, पेंगुइन, नई दिल्ली, 2020। इस नॉवेल का ‘द आइडिया ऑफ़ कोक्यूब्स’ अध्याय देखें।
17. फ्रेडरिक वेर्थम, सेडक्शन ऑफ़ द इनोसेंट, राइनहर्ट एंड कंपनी, अमेरिका, 1954, पृ. 64-80
18. दिल्ली कॉमिककॉन (https://www.comicconindia.com/), 2022
19. द हिन्दू, “कॉमिक्स फॉर कैरिंग डेवलपमेंट मैसेज,” 26 नवम्बर 1988, एनएनएमएल, पृ. 3
शोधार्थी (इतिहास), जे एन यू, नई दिल्ली – 110067
rajeshkrgupta0786@gmail.com, 9899155246
ज्ञान की राजनीति में शोध का नवाचार |
जवाब देंहटाएंGreat knowledgeable article
जवाब देंहटाएंNever read such deep thoughts on comics... Although once in a blue moon.. I also used to read and buy comics books but now I just have the memories.. Well I liked the conclusion part the most because u talked about genuine topics which needs to be highlighed now a days.
जवाब देंहटाएंI am truly impressed with how you have managed to express your wonderful ideas regarding comics
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