ओमप्रकाश वाल्मीकि का काव्य-सौन्दर्य
- डॉ.
प्रवीण कुमार, डॉ. कौशल कुमार
शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख ओमप्रकाश वाल्मीकि के काव्य-सौन्दर्य पर आधारित है। इसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि की काव्य-रचना-प्रक्रिया और उसके सौन्दर्यबोध के विविध पक्षों का विवेचन-विश्लेषण कर मूल्यांकन किया गया है।
बीज शब्द : ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य, दलित कविता, काव्य-सौन्दर्य,
जीवन-मूल्य, दलित-संघर्ष, जाति–दर्शन, मानवीय-मूल्य,
दलित चेतना, सौंदर्यशास्त्र, सौन्दर्यबोध
मूल आलेख : दलित साहित्य भविष्य का साहित्य है।1 यह विचार साहित्य की अवधारणा और सरोकार दोनों के भविष्य को रेखांकित करता है। क्या सच में ऐसा ही होने वाला है? यदि, हाँ तो क्या मान लिया जाये कि साहित्य की अंतर्वस्तु और रूप दोनों में बहुत बड़ा बदलाव होने वाला है। क्या अब तक का साहित्य सिर्फ़ और सिर्फ़ सामन्ती और ब्राह्मणवादी प्रभुत्व को ही स्थापित करता है? क्या वह बहुजन समाज में हीनताबोध को जन्म देता है? क्या मानवीय जीवन से नि:सृत साहित्य की परिधि में बहुजन समाज नहीं? 'दुःख से उपजा होगा गान' भारतीय साहित्य की अवधारणा रही है तो क्या उस दुःख में भारत के बहुजन समाज (दलित,आदिवासी और स्त्री) का दुःख शामिल है? हिंदी साहित्य में जिस "जनता"2 और "लोक"3 की इच्छा, आकांक्षा और स्वप्न को दर्ज किया गया है। हकीकत तो यह है कि इस जनता और लोक दोनों में बहुजन समाज नहीं आता है। वह दोनों की परिधि से बाहर है। यही वजह है कि बहुजन समाज के चिंतकों और साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य पर सवालिया निशान लगाया है। साहित्य की संवेदना और सरोकार दोनों में मानव मुक्ति की बात है। क्या उस मुक्ति में बहुजन समाज की मुक्ति की बात है? राष्ट्रीय आन्दोलन के साहित्य में भारत की आज़ादी की बात है। क्या उस राष्ट्रीय मुक्ति में बहुजन समाज की मुक्ति निहित है? जबकि उसकी भागीदारी राष्ट्रीय आन्दोलन में बढ़-चढ़कर रही है। क्या वह साहित्य बहुजन समाज को हीनताबोध से मुक्त करता है जो कि साहित्य की प्रकृति और मूल संवेदना है? यदि हाँ, तो फिर ओमप्रकाश वाल्मीकि को यह क्यों महसूस होता है कि "हीनताबोध उत्पन्न करने वाला यह साहित्य हमारे लिए सिर्फ दासता ही ला सकता है। बहुजन समाज के लिए स्वतंत्रता या मुक्ति की चाहत अपराध क्यों है?4 सवाल उठता है कि क्या हिंदी साहित्य सभी भारतीय मनुष्य की आज़ादी, समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, गरिमा, मैत्री, न्याय, अस्मिता, अस्तित्व आदि की बात करता है? संभवत: नहीं। इसलिए बहुजन साहित्य(दलित, आदिवासी और स्त्री) अपनी मानवीय मूल्यों के लिए किए गए संघर्ष और स्वप्न को दर्ज कर रहा है। यह साहित्य भारतीय साहित्य में एक नया अध्याय जोड़ता है जोकि पूर्व में गायब था या नहीं था। इसी कड़ी में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं को समझने का प्रयास है। उसका मूल्याङ्कन, विवेचन-विश्लेषण है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि के चार काव्य संग्रह है। सबसे पहले 'सदियों का संताप' आया। उसके बाद 'बस्स! बहुत हो चुका', 'अब और नहीं' और 'शब्द झूठ नहीं बोलते' प्रकाशित हैं। बकौल कँवल भारती, ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का संग्रह 'सदियों का संताप' पूर्ण रूप से दलित चेतना की कविताओं का संग्रह है और यह पहला संग्रह है जिसने मुख्यधारा के साहित्य में सबसे ज़्यादा हलचल मचाई। ये कविताएँ भावुकता से मुक्त हैं। उनमें गंभीर दलित चिंतन और विमर्श है। भाषा और शिल्प के स्तर पर भी ये कविताएँ हिन्दी की मुख्यधारा की कविताओं को चुनौती दे रही थीं। इन कविताओं ने मुख्यधारा की कविताओं पर हथौड़ा बजा दिए। इसी संग्रह में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सहानुभूति और स्व-अनुभूति के स्वर को भी रेखांकित किया, जो हिन्दी की कविता में पहली अभिव्यक्ति थी।5
साहित्य के माध्यम से मनुष्य में मनुष्यत्व और
नैतिक मूल्यों के उन्नयन की बात की जाती है। दलित समाज और साहित्य का नैतिक और
मनुष्यत्व कैसे ग़ैर-दलित समाज से भिन्न है। शब्दों की समानता से भिन्नता को अलग
नहीं किया जा सकता है। न केवल मूल्यों में भिन्न है बल्कि दोनों समाज में सांस्कृतिक
अभ्यास भी अलग-अलग है। दोनों समाज की प्रक्रिया और पद्धति भी भिन्न भिन्न है फिर
एक कैसे हो सकता है मूल्य?
वाल्मीकि जी नैतिक मानवीय दृष्टिकोण को दलित साहित्य का मूलाधार
मानते हैं और बुद्ध के आधात्मिक आख्यानों को इसका उत्स। उनका मानववाद मार्क्स से
ज्यादा बुद्धोन्मुख है। उन्हीं के शब्दों में- “दलित साहित्य
की मान्यताएँ नैतिक मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित है। इसलिए उनके दार्शनिक आख्यानों
में ‘बुद्ध’ की गहन मानवीय सोच उसे
मानव केन्द्रित करती है।”6 दलित साहित्य में सांस्कृतिक
तत्त्व बुद्ध, फुले और डॉ. अम्बेडकर के विचार मूल्यों में
निहित है। मानवता, मनुष्यतत्त्व, अनात्मवाद,
अनीश्वरवाद, निर्वाण, परिनिर्वाण,
बुद्धि, धम्म, संघ,
सत्यशोधन, श्रमण संस्कृति, श्रम सौन्दर्यमूल्य सहित डॉ.अम्बेडकर द्वारा ली गयी धम्म दीक्षा की 22 प्रतिज्ञाएँ हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि 14 अक्टूबर, 1956 के दिन डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म
त्यागकर बौद्ध धम्म की दीक्षा लेते समय जो 22 प्रतिज्ञाएँ की
थीं, वही दलित साहित्य की धार्मिक, सांस्कृतिक
मान्यताओं का आधार है।7 क्या डॉ. अम्बेडकर को मानने वाले 22 प्रतिज्ञाएँ मानेंगे? यह एक बहुत ही प्रासंगिक और
वैचारिक सवाल है। यह भिन्नता ही दलित साहित्य और ग़ैर-दलित साहित्य के बीच की लकीर
है। इसीने दलित साहित्य और समाज में प्रश्नाकुलता को जन्म दिया है। जब मनुष्य की
जन्म प्रक्रिया एक-सी है और मानवीय मूल्य एक ही हैं तो भी समाज में भिन्नता क्यों?
दलित साहित्य ऐसे वैचारिक सवालों से आदि से अंत तक भरापूरा है। यूँ
कह सकते हैं कि प्रश्नाकुलता दलित साहित्य की प्रकृति है और मानवीय समाज के
लोकतान्त्रिक मूल्य असहमति के प्रतिमान भी। दलित कविताओं में प्रकृति और मानव के
सहचर को महसूस किया जा सकता है। दलित कविताओं में प्रेम और उसकी सामाजिकता का
नैसर्गिक स्वरूप है। वहाँ घृणा के बरक्स प्रेम का बिम्ब और प्रतीक है। मनुष्य की
जिजीविषा है उसमें। दलित कविताओं में आक्रोश, विद्रोह,
आग्रह, आक्रमता, भाषिक
विकास, दलित जीवन संघर्ष की पृष्ठभूमि, उत्पीड़न के सन्दर्भ बिंदु और उनसे उत्पन्न वेदनाओं के दंश, दलित संस्कृति की विशिष्ट जीवन दृष्टि साफ–साफ देखी
जा सकती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि “दलित कविता हिन्दी कविता के प्रचलित
मुहावरे से अलग खड़ी थी। दलित कविता का सौन्दर्य-बोध अलग था। उसकी निर्मिति की
पृष्ठभूमि अलग थी। सांस्कृतिक विरासत अलग थी।”8 इतना ही नहीं
अर्जुन डांगले के शब्दों में, “दलित एक जाति नहीं एक अनुभूति
है जिसमें समाज के निचले स्तर के लोगों के अनुभव, उनकी
खुशियाँ और संघर्ष शामिल हैं।”9 निश्चय ही दलित साहित्य और
दलित को इस अर्थ में देखा जाए तो उसका सौन्दर्य-बोध अलग महसूस होगा जो कि पारंपरिक
भारतीय-हिन्दी साहित्य से एकदम अलग है। इसी को ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता 'अब और नहीं' में कहते हैं– "मेरे और तुम्हारे बीच/ एक लम्बा फासला है/ जिसे लम्बाई से नहीं/ समय से
नापा जाएगा।"10 शरणकुमार लिम्बाले के शब्दों में
"सौन्दर्य की कल्पना हर युग में होने वाले विचारों से सम्बंधित होती है। एक
समय में राजा महाराजा ही साहित्य के विषय रहते थे। पर आज गाँव की सीमा के बाहर
झुग्गी झोपड़ी में जिया जाने वाला जीवन साहित्य का विषय बन गया है। सौन्दर्य की
कल्पना बदलना इसलिए भी ज़रूरी हो गया है। चूँकि पारंपरिक सौन्दर्यशास्त्रीय कल्पना
स्वीकार करके दलित साहित्य का सृजन एवं दलित साहित्य में विद्रोह और नकार का
अन्वेषण करना संभव नहीं है। इसलिए रूढ़ सौंदर्यशास्त्र के आधार पर इस नई धारा की
चर्चा नहीं की जा सकती।"11 स्वातंत्र्य की भावना दलित
साहित्य का प्राण तत्त्व तो है ही पर वह उसमें सौन्दर्य तत्त्व के रूप में भी है।
समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व ये तीनों जीवन-मूल्य दलित
साहित्य के सौन्दर्य तत्त्व है। "दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र कलाकारों की
सामाजिक प्रतिबद्धता, कलाकृति में जीवन-मूल्य, पाठकों के मन में जाग्रत होने वाली समता, स्वतंत्रता,
न्याय और भ्रातृत्व की चेतना जैसे मूल तत्त्वों पर टिका रहने वाला
है।"12 यूँ कह सकते हैं कि दलित साहित्य का
सौन्दर्य-बोध साहित्य की समीक्षा समाजशास्त्रीय तथा वैज्ञानिक दृष्टि एवं
प्रविधि-पद्धति से करता है जिसमें समाज और संस्कृति के तत्त्व मूलाधार है।
सौन्दर्य-बोध मनुष्य का वैचारिक मानस है जो सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना के बीच से
निर्मित होता है। समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व,
गरिमा, मैत्री, करुणा,
प्रज्ञा, अस्मिता, अस्तित्व,
न्याय आदि मूल्यों का साहित्यिक विश्लेषण नहीं किया जा सकता है। यह
सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों और सन्दर्भों से सम्बद्ध है। इसलिए दलित साहित्य के
सौन्दर्यबोध को उन्हीं संबंधों और सन्दर्भों में जीवन-मूल्यों के साथ मीमांसा करना
अनिवार्य है। इस प्रकार बहुजन समाज के साहित्यकारों ने साहित्य की अवधारणा और उसके
सौन्दर्य-बोध को ही बदल दिया है। जो वेद में नहीं लिखा है उसे उन्होंने लिख दिया
है। वैदिक परम्परा के साहित्य के दर्शन और आस्वाद को बदल दिया है। ओमप्रकाश
वाल्मीकि ने स्पष्ट शब्दों में लिख दिया, -
तुमने कहा
ब्रह्म के पाँव से जन्मे शूद्र
और सिर से ब्राह्मण
उन्होंने पलट कर नहीं पूछा
ब्रह्म कहाँ से जन्मा?13
इसी ब्रह्म दर्शन के आधार पर भारत में वर्ण और जाति की व्यवस्था को बनाया गया है। इतना ही नहीं जिस धर्म-दर्शन में जाति है। उस जीवन में, स्वर्ग-नरक की व्यवस्था में ओमप्रकाश वाल्मीकि जाना भी पसंद नहीं करते है और सभी मनुष्य को प्रबोधित भी करते हैं। इस दृष्टि से उनकी कविता 'जाति' और 'मेरे पुरखे' बहुत ही मार्मिक कविता है। 'अवतारवादी दर्शन', उसकी अवैज्ञानिकता और अतार्किकता पर सबसे अच्छी कविता ओमप्रकाश वाल्मीकि की है।14
इस प्रकार कह जा सकता हैं कि दलित साहित्य ने
भारतीय साहित्य के दर्शन को बदल दिया है तो उसका सौंदर्यशास्त्र का बदलना
स्वाभाविक है। उसकी अनुभूति और संवेदना बदल गयी है और बदल रही है तो सौन्दर्य के
प्रतिमान कैसे स्थिर रह सकते हैं। दलित साहित्य में इस बदलाव को सहज देखा और महसूस
किया जा सकता है। जयप्रकाश कर्दम के शब्दों में "एपीस्टोलॉजी या विचार प्रमाण
की दृष्टि से दलित साहित्य केवल ज्ञान और अनुभव को ही प्रमाण मानता है। शास्त्र और
आप्त वचनों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है।"15 निश्चय ही
यह बदलाव एक दो दिनों की नहीं है बल्कि वर्षों की अनुभूति की उपज है। "दलित
कविता का सृजन कल्पनालोक से नहीं हुआ है बल्कि यह सामाजिक यथार्थ की अनुभूति पर
उपजी हुई कविताएँ हैं। अनुभूति एक-दो दिन की नहीं है बल्कि सदियों की पीड़ा और दमन
का संसार दलित कविताओं की विषयवस्तु है। शोषण और अपमान का दर्द ओमप्रकाश वाल्मीकि
की काव्य संवेदना का अहम पहलू है।"16 दलित यातना के
इतिहासबोध से गहरे जुड़ीं ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएँ परम्परागत काव्य-सौन्दर्य
के इहलोक से मुक्ति की कविताएँ हैं। इनकी कविताएँ भिन्न काव्यलोक रचती हैं जहाँ
अतीत एवं वर्तमान का मंथन है और भविष्य की चिंता एवं चिंतन। ओमप्रकाश वाल्मीकि की
कविताएँ सपनों और आकांक्षाओं की कविताएँ हैं। घृणा, हिंसा और
विषमता पर आधारित व्यवस्था को नकार कर समता, स्वतंत्रता और
करुणा का मानस रचने वाली दुनिया की कविताएँ हैं, -
हजारों वर्ष का अँधेरा
छिपा बैठा है मेरी साँसों में
काँपता है दीये की लौ-सा
और तब्दील हो जाता है कविता में
(किष्किन्धा-अब और नहीं, पृ. 22)
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता में प्रश्नाकुलता
है। यह उनके इतिहास-बोध के कारण है। उनकी कविताओं के शीर्षक प्रश्नचिह्न की मुद्रा
में है और लोकतांत्रिक व्यवस्था के व्यवहार पर सवाल उठाते हैं। इसी दृष्टि से उनकी
कविता ‘झाड़ूवाली’ बहुत ही मार्मिक है जो ‘धूमिल’ की याद दिलाती है।
जब तक रामेसरी के हाथ में
खड़ांग-खांग घिसटती लौह गाड़ी है,
मेरे देश का लोकतंत्र एक गाली है।
निश्चय ही यह कविता भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों
के क्रियान्वयन पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं कि आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी लोकतंत्र में मानवीय मूल्यों को सुनिश्चित नहीं किया जा सका।
आखिर क्यों? कब तक हमारा राष्ट्र और समाज मानवीय मूल्यों से
वंचित समुदाय के सवालों से दूर भागेगा? इन सबके बावजूद
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी मानवीय मूल्यों की स्थापना को लेकर संस्कृति के उस पक्ष को
कठघरे में खड़ा करते है जो मानव मानव में फर्क करता है। उन्हें विभाजन की श्रेणी
में रखकर आदर्श की दुहाई देता है। इस दृष्टि से उनकी कविता ‘अब
और नहीं’ की यह पंक्तियां बहुत मार्मिक है, -
लोहा लंगड़
गारा-सीमेंट
ईंट पत्थर
सभी पर है स्पर्श हमारा
लगें है जो घरों में आपके
फिर भी बना दिया आपने
हमें अछूत और अन्त्यज
धोबी-डोम चमार
माँग-पासी और महार
–
(‘अब और नहीं’ - ‘विरासत’ पृ. 92)
इस कविता में वाल्मीकि बड़ी सहजता से भारतीय
संस्कृति के उन पहलुओं को उजागर करते हैं जो कि मनुष्य को मानवीय गुणों से च्युत
कर जाति की श्रेणी में विभाजित करता है। यह सौन्दर्य प्राकृतिक नहीं मानवकृत है, कृत्रिम है। दलित साहित्य तो सौन्दर्य की प्राकृतिक प्रकृति की बात करते
हैं, जिसमें प्रकृति प्राकृतिक और मानवीय सभी सहज अनुभूति से
निःसृत है। मानवीय मूल्य प्राकृतिक है और उसकी उपादेयता मानव द्वारा निर्मित
व्यवस्था से संचालित है परन्तु समाज जब इन मानवीय मूल्यों को नष्ट करता है तो वह न
केवल क्रूर व्यवस्था को जन्म देता है बल्कि सृष्टि की सहज निर्मित-प्रकृति के
नियमों का उल्लंघन करता है। साहित्य का सौन्दर्य मानव निर्मित-मानवीय अनुभूति जन्म
प्राकृतिक सम्बद्ध है। ओमप्रकाश वाल्मीकि का काव्य-सौन्दर्य प्रकृति सम्बद्ध
मानवीय है जो मानव निर्मित व्यवस्था को अमानवीय स्वरूप के प्रतिरोध में खड़ा है तो
प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य की विविध रूपों में स्थापना करता है। इस आलोक में
उनकी कविता “वे भूखे हैं" के सौन्दर्य को समझा जा सकता
है कि कैसे ओमप्रकाश वाल्मीकि जी मानवीय सौन्दर्य और प्राकृतिक सौन्दर्य के
सम्बद्ध ‘मानुष तत्त्व’ की स्थापना
करते है। मानवीय संस्कृति के मूल्यों के संरक्षण हेतु झकझोंरते है परन्तु अमानवीय
संस्कृति को भी उजागर कर उससे अलग करते हैं।
वे भूखे हैं
मगर किसी का माँस नहीं खाते हैं
वे प्यासे है परन्तु किसी का लहू नहीं पीते
उनके शरीर पर वस्त्र नहीं
मगर किसी को नंगा नहीं करते
उनके सिर पर छत नहीं
मगर दूसरों के लिए छत बनाते हैं।
(बस्स! बहुत हो चुका, पृ. 77)
यहाँ पर यह स्पष्ट देख सकते हैं कि ‘भूख’ जो कि नैसर्गिक है लेकिन भूख के लिए किए गए
कर्म में हिंसा नहीं है लेकिन ‘माँस’ हिंसा
का प्रतीक है। प्यास नैसर्गिक है परन्तु लहू हिंसा का प्रतीक है। वस्त्र का न होना
आर्थिक अभाव की निशानी है परन्तु नंगा करना अमानवीय संस्कृति है। मकान का न होना
आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था की खामियाँ हैं परन्तु छत बनाना श्रम सौन्दर्य है। इस
प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का कवित्व-व्यक्तित्व मानवीय संस्कृति के सौन्दर्य को
निर्मित करते है और अमानवीय संस्कृति के खिलाफ विद्रोह का सौन्दर्य पैदा करते है।
वे ‘आज के मानव’ की लघुता को नहीं
भूलते हैं। समाज की खोखली संस्कृति की पहचान उनकी कविता में है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की धारणा को खंडित करने वाली
संस्कृति के भी नाकाबपोश को सामने रखती है। देखिये कविता की चंद पंक्तियाँ, -
आज का मानव
सिमट रहा है धरती में
खोखले मुहावरों के साथ
लड़ते-लड़ते
वक़्त के थपेड़ों से
खो गया गुमनाम
राष्ट्रों के अर्थहीन जंगल में
गहराती अंधेरी रात में
तलाशता चांदनी को...
(आज का
मानव )
यहाँ सिमटना, खोखले मुहावरों,
गुमनाम, अर्थहीन जंगल, अंधेरी
रात आदि से एक तरफ़ जीवन के भटकाव को समझा जा सकता है तो दूसरी ओर तलाशता चांदनी से
उम्मीद एवं सौहार्द्र की परिकल्पना को भी महसूस किया जा सकता है। दलित
सौन्दर्य-बोध में नाउम्मीद के लिए कोई जगह नहीं है। सकारात्मक परिवर्तन के उम्मीद
और विश्वास की परिकल्पना है। इसलिए ओमप्रकाश वाल्मीकि को उम्मीद है कि एक दिन यह
अमानवीय व्यवस्था बदलेगी और मानवीय सौन्दर्य की व्यवस्था कायम होगी जिसमें सब
समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, मैत्री, गरिमा अस्मिता आदि से संपूरित मानवीय
मूल्यों का अनुभव करेंगे। हमारा समाज और राष्ट्र इस मानवीय गौरव के शीर्ष पर होगा।
सुबह होने से पहले
मैं तुम्हें वक़्त देना चाहता हूँ
कि सुबह आएगी धीरे-धीरे
तेज रोशनी चारों ओर फैलकर
अंधेरे को उजाले में बदल देगी।
( सदियों का सन्ताप, पृ. 45)
अंधेरों को उजाले में बदलना ही एक तरफ सामाजिक
परिवर्तन है तो दूसरी तरफ मानवीय मूल्यों को स्थापित करना भी है। भारत में यह
अँधेरा वर्ण और जाति के कारण से है। यदि भारत में अमानवीय संस्कृति फ़ैली है तो
उसका भी मूल कारक वर्ण-जाति की व्यवस्था और मानसिकता ही है। इसी मानसिकता के कारण
भारत में मनुष्यत्व में क्षरण की क्रिया बहुत तेज़ी से बढ़ी है। दलित साहित्य में
मनुष्यत्व और उसकी संस्कृति पर बल दिया गया है। यूँ कह सकते हैं कि दलित साहित्य
की वैचारिकी के केंद्र में मनुष्यत्व ही है। जाति ने कैसे मनुष्यत्व को ख़त्म किया
है। दलित दर्शन ने इसकी बहुत ही मार्मिक और प्रामाणिक व्याख्या की है। इसलिए दलित
साहित्य में जाति की पहचान को ख़त्म करने की पूरी संकल्पना दिखती है। ओमप्रकाश
वाल्मीकि की रचनाएँ जाति-व्यवहार की बारीक से बारीक पहलुओं की पहचान और रेखांकन
करती हैं। सुभाषचंद्र कुशवाहा ने ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनाओं में जाति से हो रहे
मनुष्यता के क्षरण को रखांकित करते हुए लिखा है कि “जाति अपमान
को उजागर करती ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनाएँ हमारी मनुष्यता पर प्रश्न चिह्न लगाती
है।”17 उपेक्षा, अपमान, अस्पृश्यता और अमानवीयता में जी रही ज़िन्दगी का पोस्टमार्टम करते ओमप्रकाश
वाल्मीकि कहीं भी अतिरंजना के शिकार नहीं होते। वह कहीं भी सहानुभूति या सत्कार
बटोरने के लिए विषय या कथ्यों में फेरबदल नहीं करते। रचना की रचनाशीलता में वहीं
तक जाते है जहाँ तक एक दलित का दुःख समाज के बंद कपाटों पर दस्तक दे और कहें कि
अपनी हैवानियत के लिए जश्न मनाने वालों हमें वह स्थान दे दो जिसके हम हकदार हैं।
हम किसी भी मायने में तुमसे दोयम नहीं।... दलित रचनाकारों की चेतना का विकास जीवन
की असाधारण परिस्थितियों से गुजरने के कारण ही परम्परागत हिन्दी साहित्य से भिन्न
ऊर्जा लिए हुए है। ऐसी रचनाओं की भाषा, शिल्प, कला और कथा परम्परागत हिन्दी साहित्य से भिन्न है। इस भिन्नता पर सवाल
उठाने के बजाय भरपूर स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इसने हिन्दी साहित्य को
संवृद्ध किया है।”18 हिन्दी साहित्य में शम्बूक का चित्रण
नहीं के बराबर है। रामायण में है, रामचरितमानस में है परन्तु
कैसा चित्रण है और उसकी क्या अभिव्यंजना है? इसे रामायण या
मानस का परायण पाठ पढ़ने वाले नहीं समझ पाएँगे लेकिन बहुजन चिंतकों ने समझ लिया है
परन्तु अभी बहुजन समाज को समझाना बाकी है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविताओं में
शम्बूक और एकलव्य की हत्या को बेपर्दा किया है। वर्तमान में भी शम्बूक समाज इस
साजिश के शिकार हैं परन्तु उन्हें पता नहीं है कि उसके साथ धर्म के नाम पर क्या हो
रहा है। इसे ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘शम्बूक का कटा सिर’
से समझा जा सकता है। फिर वर्तमान में शिक्षण संस्थानों और समाज में
हो रहे 'एकलव्य' और 'शम्बूक' की हत्याओं के पहलुओं को भी समझा जा सकता है, -
गली गली में
राम है
शम्बूक है
द्रोण है
एकलव्य है
फिर भी सब खामोश है
कहीं कुछ है
जो बन्द कमरों से उठते क्रन्दन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्त से सनी उँगलियों को महिमा मण्डित।
(सदियों का संताप, पृ. 26)
क्या कोई वर्तमान 'शम्बूक' और 'एकलव्य' की हत्या को झुठला सकता है? इस कविता में दर्ज
अर्थबोध को झुठला सकता है? जिस तरह से आज रोहित वेमुला,
पायल ताण्डवी आदि की हत्या हुई है। क्या वह किसी 'शम्बूक' और 'एकलव्य' से कम है? भारतीय समाज के इस यथार्थ को समझने की ज़रूरत
है। वांग्मय में निहित इसी अर्थबोध को समझकर ज्योतिबा फुले ने
"गुलामगिरी" की रचना की ताकि बहुजन समाज अपनी गुलामी के कारणों को समझ
सकें। "गुलामगिरी" कुछ और नहीं ब्राह्मणवादी साहित्य में शब्द जाल को जो
कि मिथक, बिम्ब और प्रतीक के रूप में दर्ज है उसकी हकीकत को
उजागर करती है। जब ओमप्रकाश वाल्मीकि ने "शब्द झूठ नहीं बोलते' लिखा तो उनका मकसद उन मिथकों को समझना था जो बहुजन समाज को शब्द जाल में
गुलामी परोसता है। विद्यालय और देवालय दोनों में शब्दों का ही कारोबार है। फिर इस
कारोबार में बहुजन सिर्फ वाचक क्यों नहीं है? वह सिर्फ 'खच्चर' और 'गधा' क्यों बने बैठा होता है! शब्द ही तो सम्पूर्ण वांग्मय में है। उसकी
अभिव्यंजना और अर्थ में ही मानवीय मूल्यों का संचित कोष निहित है। उसी में समाज का
यथार्थ छिपा हुआ है। शब्द सिर्फ शब्द नहीं होता है बल्कि उसमें जीवन की सच्चाई
होता है। वह अभिव्यक्ति है ज़िन्दगी की। इसीलिए ‘शब्द’
का अर्थ सिर्फ शब्दकोश का अर्थ नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,
अभिव्यक्ति की प्रामाणिकता भी है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’ शीर्षक कविता में ‘नो एंटरी का बोर्ड’ के मायने बतलाते है तो वहीं ‘शब्द’ के माध्यम से इतिहास के ‘अतीत, वर्तमान और भविष्य’ को
समझने का भी प्रयत्न करते है, -
उन्हें डर है
बंजर/ धरती का सीना चीरकर
अन्न उगा देने वाले साँवले खुरदुरे हाथ
उतनी ही दक्षता से जुट जाएँगे
वर्जित क्षेत्र में भी
जहाँ अभी तक लगा था उनके लिए
'नो एंटरी' का बोर्ड।
यहाँ खुरदरे हाथ श्रमशील समाज का प्रतीक है जोकि
बंजर धरती में भी अन्न उगाने की दक्षता रखता है। वे श्रम-सौन्दर्य के बल पर ही
वर्जित क्षेत्र में प्रवेश कर लेने की दक्षता रखता है और ज़िन्दगी के अंधेरे को
उजास में बदलने की चाह भी। गुलामी रूपी अंधेरे को खत्म कर सकता है।19
अंधेरा सिर्फ एक शब्द भर
नहीं है मेरे लिए
पूरा इतिहास है
जिसे ढोया है
हज़ारों साल से
एक बोझ की तरह
अभ्यस्त होकर जिये
पीढ़ी-दर-पीढ़ी।
-
( वही। 39 )
यहाँ ‘अंधेरा’ बिम्ब है जो दलित-बहुजनों की ज़िन्दगी के अंधेरे को प्रदर्शित करता है। यह ‘अंधेरा’ जीवन की अस्मिता जो कि खत्म हो गई की भी
चेतना है जो इतिहास में दमन है। वह वजूद अधिकार आवाज़ आदि सब कुछ है। इसीलिए
ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते है, -
रात गहरी और काली है
अकाल ग्रस्त त्रासदी जैसी
जहाँ हज़ारों राष्ट्र दफन है
इतने गहरे
कि उनकी सिसकियाँ भी
सुनाई नहीं देती।
(शब्द झूठ नहीं बोलते. पृ. 15)
हज़ारों वर्षो से इतिहास में दफन ‘शब्द’ ही आज चेतना के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।
यही कारण है कि दलित साहित्य की आलोचना हेतु इतिहास-बोध का होना अनिवार्य है। 'दफन' शब्द के सौन्दर्य को समझने के लिए उन आवाज़ों को
सुनने के लिए ‘ज़िन्दगी’ की मूकबधिरता
को खत्मकर उसकी घेरेबन्दी को तोड़कर ‘स्वतंत्र चेतना’
के निमित्त स्वरूप को धारण करना होगा तभी जीवन के मायने और जिन्दगी
के अर्थबोध को गंभीर-अतल गहराई में छिपे बोध को समझ सकते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि
के लिए ज़िन्दगी और सस्ती नही बल्कि जीवन की सार्थकता मानव और मानवीय संस्कृति के
सौन्दर्य को अनुभव करना है जिसमें ‘मनुष्यत्व’ एक जीवंतता है। यही वजह है कि दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र में ‘मनुष्यत्व’ एक प्रतिमान है। वह स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व है। इससे अलग स्वर मनुष्यत्व सिर्फ मृत प्रायः शब्द है।
उसकी जीवंतता तो ज़िन्दगी की अनुभूति में है। इसीलिए वाल्मीकि लिखते है कि, -
मेरे लिए
ज़िन्दगी का मक़सद है -
इस बोझ को कन्धों से उतारकर
सरे आम चौराहे पर टाँग दूँ
ताकि तुम देख सको
इस बोझ का खूँखार चेहरा
जिसकी घेरेबन्दी में
धीरज टूट रहा है मेरा।
–
(महायुद्ध)
यह बोझ क्या है? जिसे वाल्मीकि जी चौराहे पर टाँग देने की बात करते है और उसके खूँखार चेहरे को देखने की बात करते है। यह है वर्ण-जाति की घेराबन्दी। जिससे मनुष्यत्व खत्म हो रहा है। धीरज का टूटना सिर्फ विद्रोही चेतना का जन्म नहीं है बल्कि मनुष्यत्व को ज़िन्दा रखने की चाहत है। यही ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता की शक्ति है और दलित साहित्य का सौन्दर्य भी।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ही नहीं बल्कि दलित साहित्य ने भारतीय समाज में व्याप्त जाति को विमर्श का केन्द्र बनाया। निश्चय ही जातिवादी सोच के लोगों को यह विमर्श पसन्द नहीं आएगा क्योंकि जब तक जाति पर चिन्तन-मंथन-बहस नहीं होगा तब तक जाति व्यवस्था-सोच-मानसिकता से उत्पन्न समस्याओं को भी खत्म नहीं किया जा सकता है। समस्या तो समस्या मानवीय समाज में जाति के कारण संबंध भी बदलते हैं जबकि सब जानते हैं कि जाति के कारण संबंधों का बदलना कहीं भी मानवीय सभ्यता-संस्कृति का उत्तम व्यवहार नहीं है। अन्यथा ओमप्रकाश वाल्मीकि यूँ नहीं लिखते- "वक़्त बदला है लेकिन कहीं कुछ है जो सहज नहीं होने देता है। कई विद्वानों से जानना चाहा कि सवर्णों के मन में दलितों, शूद्रों के लिए इतना घृणा क्यों? पेड़-पौधो, पशु-पक्षियों को पूजने वाले हिन्दू दलितों के प्रति इतना असहिष्णु क्यों है? आज ‘जाति’ एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण कारक है। जब तक यह पता नहीं होता कि आप दलित है तो सब कुछ ठीक रहता है, जाति मालूम होते ही सब कुछ बदल जाता है। फुसफुसाहटें, दलित होने की पीड़ा चाकू की तरह नस-नस में उतर जाती है। गरीबी, अशिक्षा, छिन्न-भिन्न दारुण ज़िन्दगी, दरवाज़े के बाहर खड़े रहने की पीड़ा भला अभिजात्य गुणों से संपन्न सवर्ण हिन्दू कैसे जान पाएंगे।"20
दलित कविता की चेतना जीवन की धारा में भारतीय
सामाजिक व्यवस्था की संरचना में विपरीत दिशा में बहती है। वह ज़िन्दा मछली की तरह
है जो धारा की तरह विपरीत तैरती है। वह अपनी जीवंतता की वर्ण जाति आधारित व्यवस्था
को खत्म करने हेतु इस व्यवस्था के विपरीत खड़ा होकर उस पर हथौड़ा से प्रहार करती
है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता 'अस्थि-विसर्जन' ऐसी ही कविता है जिसमें न केवल ‘शब्द’ की परिभाषा है बल्कि वर्ण-जाति आधारित मूल्यों की संस्कृति को भी कठघरे
में खड़ा किया गया है और वह धारा के विरूद्ध जीवन के दर्द को व्यक्त करते है, -
मुश्किल होता है
टिके रहना धारा के विरूद्ध
जैसे खड़ा रहना दहकते अंगारों पर।
(अस्थि विसर्जन)
और इसी के साथ मानवीय मूल्यों की पहचान हेतु
अपने से कार्य में उन ब्रह्म की संस्कृति को मानवता हेतु खतरा बताकर उसकी
अवधारणा(शोषण) को उजागर करते हैं और अपनी वैचारिक प्रतिविद्वता के साथ उस ब्रह्म
की संस्कृति को नकारते है। यही नकार दलित साहित्य का सौन्दर्य बोध है जो हर एक
शोषित पीड़ित व्यक्ति को मानवीय पहचान हेतु नवचेतन से लैस करता है। उन्हें जीवन-पथ
पर मानवीय बोध-सौन्दर्य से जीवित-जीवंतता के साथ अग्रणी बनाता है। वे लिखते हैं, -
इसलिए तय कर लिया मैंने
नहीं नहाऊँगा ऐसी किसी गंगा में
जहाँ पंडे की गिद्ध-नजरें गड़ी हों
अस्थियों के बीच रखे सिक्कों
और दक्षिणा के रुपयों पर
विसर्जन से पहले ही
झपट्टा मारने के लिए बाज की तरह।
(अस्थि-विसर्जन, अब और नहीं, पृ.11)
इतना ही नहीं, ओमप्रकाश
वाल्मीकि की कविताओं के केन्द्रीय स्वर को ‘आईना’ कविता के माध्यम से समझा जा सकता है जिसमें वे तमाम अमानवीय रीति-रिवाज के
बावजूद मानवीय चेतना से ओतप्रोत ‘कबीर’ की झीनी चादरियाँ को याद करते है। उन्हीं के शब्दों में, -
मेरी रक्त शिराओं में
हर रोज़ घुल रही है दहशत
फिर भी
मैं बार-बार जोड़ता हूँ
विखण्डित शब्दों को
चिन्दी-चिन्दी उस चदरिया की तरह
जिसे ओढ़कर
कभी निकला था कबीर
बनारस की गलियों में।
(आइना, अब और नहीं, पृ.15)
ओमप्रकाश वाल्मीकि गुलामी की जिन्दगी को नकारकर
मानवीय जीवन के लिए प्रतिरोध के सौन्दर्य को अपनी रचना में बुनते है। न केवल बनावट
में तेज़ धार देते हैं बल्कि दलित वैचारिकी से निःसृत शब्द को चेतना में प्रवाहित
भी करते हैं। ‘सदियों का सन्ताप’ कविता में इसी चेतना को देखा जा
सकता है जिसमें वे दीया बनने से इनकार करते हुए ब्राह्मणवादी व्यवस्था को अंधेरे
में खो जाने की बात करते हैं। द्रष्टव्य है कविता की पंक्तियाँ, -
कच्चे घर में
जलते दीये की रोशनी पर
कब्जा करके बैठ गये हो तुम।।।
मेरे पिंडलियों
और भुजाओं के माँस से बनी बाती
हड्डियों को निचोड़कर
निकाला गया तेल
किन्तु इतना याद रखो
जिस दिन इनकार कर दिया
दीया बनने से मेरे जिस्म ने
अंधेरे में खो जाओगे।
(
सदियों का संताप, पृ. 30 )
इतना ही नहीं, ओमप्रकाश
वाल्मीकि की कविताओं में ब्राह्मणवादी इतिहास के ख़िलाफ़ विद्रोह की चेतना है और उसे
नकारकर नव इतिहास लेखक की चेतना को समझा जा सकता है। यह इतिहास क्यों झूठा लगता है
क्योंकि वह सिर्फ राजा-महाराजाओं का इतिहास है। उस इतिहास में आमजन मानव (दलित-स्त्री-आदिवासी)
के जीवन का चित्रण नहीं हैं। उसमें किसान-मज़दूरों का जीवन गायब है। इसके बावजूद उस
इतिहास को नकारा नहीं जा सकता है परन्तु वह वास्तविक इतिहास नहीं है। इस सच्चाई को
स्वीकार करने में हिचक क्यों? इसलिए ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते
हैं, -
यदि तुम्हें अपने ही देश में नकार दिया जाए
मानकर बँधुआ।
छीन लिए जाए अधिकार सभी
ख़त्म कर दी जाए समूची सभ्यता तुम्हारी
गौरवमय इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे
तब तुम क्या करोगे?
यही से यह स्पष्ट हो जाता है कि दलित समाज
भारतीय इतिहास के उन पृष्ठों को या पक्षों को क्यों नकारता है। कारण स्पष्ट है वह
यह कि वह दलित समाज को ‘बंधुआ’ बनाता है, उन्हें
अधिकार विहीन करता है। उन्हें अपने ही देश में नकारा जाता है। इसके बावजूद कोई यह
कहे कि दलित कविता या साहित्य में ‘आक्रोश’ क्यों? तो समझ में नहीं आता है वह मानव है या ‘पत्थर’। पत्थर की पाखंड संस्कृति ने उसे ‘पत्थर’ ही बना दिया है। दलित साहित्य में व्याप्त
नकार, आक्रोश, वेदना, पीड़ा, दर्द, टीस आदि को
भारतीय इतिहास की कोख में व्याप्त ब्राह्मणवाद सामंतवाद, पूँजीवाद
और इससे उपजी असमानता, विषमता, अमानवीयता
आदि से उपजा है और यही वजह है कि दलित साहित्य उसे नकारकर खत्म करने का प्रयास
करता है। यहीं से दलित साहित्य के सौन्दर्य बोध का उत्स होता है। उसके प्रतिमान
निर्धारित और निर्मित होते है जिसके मूल में डॉ. अम्बेडकर, फुले
और बुद्ध की परम्परा का इतिहास चिन्तन, दर्शन और संघर्ष है।
उसका सौन्दर्यबोध है। इसीलिए दलित साहित्य का सौन्दर्य बोध ‘सत्यम-शिवम-सुन्दरम’
की न होकर वैचारिक दृष्टि से निःसृत मानवीय बोध से सम्बद्ध भारतीय
संस्कृति की गर्भ से उत्पन्न तथा समतामूलक सामाजिक संस्कार की नींव पर प्रस्थित
सौन्दर्यबोध है जिसमें समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, अस्तित्व, अस्मिता,
गरिमा, मैत्री आदि जीवन मूल्यों पर आधारित
सौन्दर्य बोध है। इस सौन्दर्य बोध में ईश्वरीय तंत्र, ईश्वरीय
कांति, अज्ञात अप्रियतम का सौन्दर्य नहीं है। ओमप्रकाश
वाल्मीकि की काव्य भाषा में व्याप्त सौन्दर्य बोध राष्ट्रों का समाहार एक अद्भुत
चेतना का काम करता है। ‘ठाकुर का कुआँ’ कविता का सौन्दर्यबोध भारत में दलित समाज की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक
तथा मनोवैज्ञानिक तौर पर विहीनता को रेखांकित करता है। जिसमें मानवीय आवश्यकताओं
से बंधन के बोध को सहज सौन्दर्य बोध में सृजित कर मानवीय सौन्दर्य बोध को स्थापित
किया गया है। द्रष्टव्य हैं पंक्तियां, -
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मोहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गाँव?
शहर?
देश?
यह जो वंचना का अनुभव है जो अस्तित्व है लेकिन
उसका बोध नहीं है। क्या इसे नकारकर कोई जीवन में जीवन की सार्थकता का अनुभव कर
सकता है?
इस पृथ्वी को सबसे सुन्दर कहा गया है। जीवन-सौन्दर्य की ऐसी धरती
किसी अन्य ग्रह पर नहीं। फिर भी इस भू-भाग में मानवीय मूल्यबोध के जीवन-सौन्दर्य
का अनुभव नहीं। उसकी अनुभूति नहीं। फिर कैसे कहा जाए कि यह धरा सबसे सुन्दर है।
अम्बेडकरवादी चिंतन-दर्शन में स्वर्ग-नरक की
धारणाओं के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए दलित आंदोलन में भी यही स्वर मिलता है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि स्वर्गीय अवधारणा को नकारते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि यह
कोरी कल्पना है। इसका सम्बन्ध जातिगत लाभांश से भी है। ‘जाति’ की पहचान भारतीय समाज में मृत्यु के बाद भी
किया जाता है। इसीलिए दलित सौन्दर्यबोध में स्वर्ग की कल्पना के लिए कोई जगह नहीं
है। यह झूठी है, बेबुनियाद है।
स्वीकार्य नहीं मुझे
जाना मृत्यु के बाद
तुम्हारे स्वर्ग में।
वहाँ भी तुम
पहचानोगे मुझे
मेरी जाति से ही !
इस प्रकार दलित साहित्य और आन्दोलन दोनों में
जाति के दर्शन को नकारा गया है। दलित साहित्य में नकार के साथ-साथ निर्भीकता का
स्वर है। यह स्वर दलित समाज को जीवन-सौन्दर्य की शक्ति देता है। उन्हें उम्मीद
देता है। उन्हें ‘इतिहास’ इतिहास बोध की समझ देता है। अतीत नहीं
वर्तमान और भविष्य की रूपरेखा देता है, -
सच बोलने से नहीं रोक पाएँगे
अब शातिर देवता भी
फड़फड़ाएँगे इतिहास-पृष्ठ
कहेंगे आओ दर्ज कर दो।
किसी भी पन्ने पर
अपने अंगूठे का निशान।
(अब और नहीं, पृ. 25)
नफरत-घृणा के ख़िलाफ़ विद्रोह में दलित रचना
धार्मिक प्रकृति की नैसर्गिकता और मानव बोध की प्रकृति के बीच तारतम्यता की खोज
करता है,
क्योंकि प्रकृति समानता-स्वतंत्रता का बोध करता है।
अस्तित्व-अस्मिता का बोध करता है। हमें सौन्दर्य का आनंद देता है। चेतना प्रेरणा
की ऊर्जा देती है। सहजता-सरलता-सौम्यता-मधुरता की अद्भुत ध्वनि से जीने की कला
देती है। देखिए कैसे ओमप्रकाश वाल्मीकि 'पेड़' के माध्यम से शक्ति, सौन्दर्य और जीवन तीनों को
प्रकृति और प्रकृति की नैसर्गिकता में देखते हैं, -
मौसम से लड़ते हुए
अच्छे लगते है पेड़
और उनका हरापन
उससे की ज्यादा अच्छे लगते हैं
हँसते खिलखिलाते वे लोग
जो नफरत नहीं करते
आदमी से
सपनों में भी !
-
(बस्स! बहुत हो चुका, पृ. 91)
पेड़
तुम उसी वक़्त पेड़ हो
जब तक ये पत्ते
तुम्हारे साथ हैं
पत्ते झरते ही
पेड़ नहीं ठूँठ कहलाओगे
जीते जी मर जाओगे !” (बस्स! बहुत हो चुका, पृ. 11)
“तुम्हारे रचे शब्द
तुम्हें ही डसेंगे साँप बनकर।
(अब और नहीं, पृ. 12)
दलित साहित्य की भाषा, बिम्ब, मिथक और प्रतीक में वेदना, विद्रोह, आक्रोश, नकार, प्रतिरोध है जो हजारों वर्षों की यातनाओं के रूप में साकार हो उठी है। उसमें सिर्फ़ कल्पना नहीं है। जीवन का कटु यथार्थ है। दलित कविता में जो आक्रोश और विरोध की भाषा है, उसकी अभिव्यंजना अर्थपूर्ण है। सामाजिक सन्दर्भों से जुड़कर वह अपनी अभिव्यक्ति में एक सामाजिक परिवर्तन का आह्वान है। रजत रानी मीनू के अनुसार दलित कविता का विद्रोह रचनात्मक विद्रोह है जो निश्चित लक्ष्य और उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए वह धार्मिक, जातिगत, राजनीतिक, साहित्यिक व शैक्षिक स्थितियों को बदलने के लिए संघर्षरत चेतना इन कविताओं में विद्रोह की चेतना है।21 "दलित साहित्य की भाषा का सीधा सम्बन्ध दलित जीवन से है। अपने दग्ध अनुभवों को दलित साहित्यकार सीधे-सीधे साहित्य में प्रस्तुत करता है बिना किसी लाग-लपेट के। दलित साहित्य की भाषा सिर्फ नकार और विद्रोह की भाषा नहीं है बल्कि परिवर्तन की छटपटाहट और अंतर्संबंधों की ऊर्जा अपने भीतर संजोए हुए हैं।"22 शरणकुमार लिम्बाले के अनुसार यह 'सहजभाव'23 है। उसका स्वरूप सामाजिक है और दृष्टि 'यथार्थपरक विधायक दृष्टि' है।24 इसमें कलात्मकता नहीं है। इसलिए यह परिवर्तनकामी है। "कलावाद एक जातिवाद है साहित्य का, जो क्रांति और सामाजिक बदलाव को रोकता है।"25 इस प्रकार दलित साहित्य ने न केवल कलावाद को ख़ारिज किया बल्कि उसे जातिवाद कहा है जो सनातन है, यथास्थिति का द्योतक है। परिवर्तन तो संसार का नियम है फिर एक जैसे होने की बात कहाँ से!
दलित कविता में यदि एक तरफ सदियों का संताप है तो
दूसरी तरफ बिम्ब और प्रतीक में नवीन अर्थबोध को स्थापित किया गया है। उसमें दलित
समाज अपनी अस्मिता और गरिमा की खोज करता है। उन वेदना, विद्रोह, आक्रोश और प्रतिरोध में दलित वैचारिकी की
प्रतिबद्धता का कायम रखना दलित कविताओं की विशेषता है। दलित साहित्य में समाज की
पीड़ा, बेबसी, उत्पीडन और शोषण से उपजे
आक्रोश को सामाजिक यथार्थ को चित्रित करने के लिए प्रतीकों का प्रयोग हुआ है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि "दलित कवि का मैं हम की अभिव्यंजना बन जाता
है। पारम्परिक प्रतीकों के स्थान पर दलित कवियों ने मौलिक और नए प्रतीक ईजाद किए
हैं। दलित कविता में पेड़, लोकतंत्र, भेड़िए,
जंगली सूअर, कुत्ते, घड़ियाल,
शोषण और दमन, गुलामी के प्रतीक हैं। सामाजिक
जीवन की घोर अमानुषिकता को रेखांकित करते हैं।"26 इसी
क्रम में वे लिखते हैं कि दलित कविता में बिम्ब दलित जीवन की त्रासदी और उसके
यथार्थ को व्यक्त करते हैं। दलित कविता में अँधेरा, आसपास के
परिवेश में गन्दगी की सड़ांध, सीलन भरे तंग मकानों में सिसकती
ज़िन्दगी दलित जीवन के यथार्थ हैं जो उनके जीवन का अविभाज्य घटक बन गए हैं। उन
वस्तुओं को दृश्य बिम्ब के स्थान पर रखकर दलित कवि इन्हीं वस्तुओं में जीवन के
प्रतिबिम्ब ढूँढ़ता है। इन पंक्तियों को देखा जा सकता है, -
रामेसरी के हाथ में थमी बाँस की मोटी झाड़ू
सड़क के ऊबड़ खाबड़ सीने पर
श्च-श्च की ध्वनि तैरती है
उड़ाती है धूल का गुबार।
धूल जो सैकड़ों वर्षों से
जम रही है पर्त-दर-पर्त
फेफड़ों में रामेसरी के
रंग रही है श्वास नली को
चिमनी सा
कारखाने से उठते धुएँ-सा। (झाड़ूवाली)
इस कविता में झाड़ू, धूल, धुआँ दलित जीवन का यथार्थ है जो दलित सन्दर्भों से जुड़े हैं। इसी तरह से दलित कविता में सूर्य, रोशनी, प्रकाश, रातदिन, ज्वालामुखी, समुद्र, तूफ़ान आदि शब्द दलित कविता में शब्द भर नहीं है, बल्कि ये आवेगपूर्ण अनुभवों की अभिव्यक्ति है। दलित कविताओं में गहरे राजनीतिक बिम्ब है। ऐतिहासिक, पौराणिक मिथकों में नवीन अर्थबोध की प्रतिष्ठा मिलती है। "दलित कवियों ने ऐतिहासिक, पौराणिक मिथकों के द्वारा दलित जीवन की विसंगतियों और सामाजिक सन्दर्भों की वास्तविकता को रेखांकित किया है। कर्ण, एकलव्य, शम्बूक, सीता दलितों की जिजीविषा और विद्रोह के प्रतीक बन गए हैं। रामायण, महाभारत के अनेक मिथकों के द्वारा दलित जीवन की दाहक स्थितियों को उभारा गया है। दलित रचनाओं में मिथक कथाएँ, जातक कथाएँ, दलित जीवन की पीड़ाओं का चित्रण करती हैं, उनके विद्रोह, विक्षोभ की भावनाओं, अस्मिताओं की तलाश, अस्तित्व के लिए जूझते सरोकारों को रेखांकित करती हैं। धर्म-दर्शन, पौराणिक मिथकों की पुनर्व्याख्या दलित कविताओं की विशेषता है।"27 दलित साहित्य में कर्ण, एकलव्य, शम्बूक अब नायकत्व को प्राप्त कर चुके हैं। उनकी सोच और दृष्टि ने ऐसे अनेक अध्यायों को खंगाला है जो भारतीय जनमानस को हजारों सालों से प्रभावित करते रहे हैं। इन मान्यताओं के आधार पर पात्रों का पुनर्गठन भी एक अलग प्रक्रिया है जो प्रचलित सौंदर्यशास्त्र की मान्यताओं को विखंडित करती है।28
निष्कर्ष : यह कहा जा सकता है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की चेतना की अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों ही भारतीय इतिहास के गर्भ से उत्पन्न है। अनुभूति की गहराई में बिम्ब, प्रतीक और मिथक की हकीक़त को उजागर करती है उनकी सृजन चेतना। न केवल उजागर करती है बल्कि नवीन अर्थबोध को भी उत्पन्न करती हैं। असमानता, विषमता और उत्पीड़न-शोषण के हज़ारों सालों के इतिहास के पन्नों को परत-दर-परत उघारते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, करुणा, मैत्री, प्रज्ञा, शील, गरिमा, अस्तित्व और अस्मिता हेतु भारतीय साहित्य, इतिहास और मानवीय विकास के सभी संसाधनों की सभ्यता समीक्षा को अनिवार्य मानते हैं। वे सभ्यता समीक्षा की प्रक्रिया और पद्धति से मानवीय सौन्दर्यबोध को स्थापित करते हैं। उनकी यह प्रक्रिया और पद्धति बुद्ध, फुले और डॉ.अम्बेडकर के चिंतन, दर्शन और संघर्ष पर आधारित है। दलित समाज के संघर्ष और स्वप्न दोनों की बुनावट उनकी काव्य संरचना में है जो कि भारतीय काव्य की अवधारणा को नए कलेवर में स्थापित करता है। भारतीय काव्य की आलोचना के प्रतिमान और उसकी कसौटी को निर्धारित करता है। काव्य के सौन्दर्य को उन्होंने सत्यम, शिवम् और सुन्दरम की जगह समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को माना। मनुष्यत्व को काव्य का स्थाई भाव माना है। आक्रोश, नकार, निर्भीकता, प्रश्नाकुलता और प्रतिरोध आदि को जीवन-मूल्यों की प्राप्ति हेतु संचारी भाव के रूप में देखा जा सकता है उनकी रचनाओं में। उनके काव्य सौन्दर्य की विशेषता है कि उनकी रचनाओं में साहित्यिक संरचना के विविध आयाम जीवन-संघर्ष से छनकर आये हैं कोई बैप्रोडक्ट नहीं। दलित जीवन के संघर्ष में दलित साहित्य की भाषा, बिम्ब, प्रतीक और मिथक की संरचना निर्मित होती है और उसी की सहज-सरल अभिव्यंजना भी साहित्य में है। यूँ कह सकते हैं कि सृजन का उत्स जिस वैचारिक ज़मीन से होती है उन्हीं वैचारिक प्रतिमान से सौन्दर्यबोध भी निर्मित एवं निर्धारित है। यह ओमप्रकाश वाल्मीकि की काव्य चेतना, संवेदना और सौन्दर्यबोध की अनूठी विशेषता है।
सन्दर्भ :
1. ओमप्रकाश वाल्मीकि,
दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण
प्रकाशन,नई दिल्ली, 2001, पृ. 21
2. रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास,नगरीप्रचारिणी सभा,
वाराणसी, संवत् 2058
3. हजारीप्रसाद द्विवेदी,
हिन्दी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन,
नई दिल्ली,2005
4. ओमप्रकाश वाल्मीकि,
दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 24
5. कँवल भारती, दलित कविता का संघर्ष, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ.172
6. ओमप्रकाश वाल्मीकि : दलित
साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, पृ. 74
7. वही, पृ. 75
8. ओमप्रकाश वाल्मीकि,
सदियों का संताप, गौतम बुक सेंटर, दिल्ली, 2008, पृ.10
9. अर्जुन डांगले, दलित साहित्य अतीत वर्तमान और भविष्य, जहरीली
रोटियां:आधुनिक मराठी साहित्य, बम्बई ओरियंट लांग मैन,
1992, पृ. 234-236
10. ओमप्रकाश वाल्मीकि, अब और नहीं, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 17
11. शरण कुमार लिम्बाले, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, वाणी प्रकाशन,
पृ. 116
12. वही, पृ.120
13. ओमप्रकाश वाल्मीकि, बस्स! बहुत हो चुका, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997, पृ. 99
14. रजत रानी मीनू,नवें दशक की हिन्दी दलित कविता, दलित साहित्य
प्रकाशन संस्था, दिल्ली, 1996, पृ. 84
15. जयप्रकाश कर्दम, दलित कविता: समकालीन परिदृश्य, अमन प्रकाशन, कानपुर, 2018, पृ. 35
16. डॉ. रामचंद्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रतिनिधि कविताएँ, शिल्पायन
पब्लिशर्स और डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2012, भूमिका
17. सुभाषचन्द्र कुशवाहा;
रायपुर में ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहते हैं, (सं.) जयप्रकाश कर्दम, ओमप्रकाश वाल्मीकि व्यक्ति,
विचारक और सृजक, पृ. 47
18. वही पृ. 48
19. ओमप्रकाश वाल्मीकि, शब्द झूठ नहीं बोलते, अनामिका पब्लिशर्स एंड
डिस्ट्रीब्यूटर्स दिल्ली, 2012 पृ. 19
20. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली,
2006, पृ. 160
21. रजत रानी मीनू, वही, पृ. 84
22. ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 83
23. शरणकुमार लिम्बाले, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 48
24. वही, पृ.
43
25. वही, पृ.132
26. ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 85
27. वही, पृ.
88
28. वही, पृ.
90
डॉ. प्रवीण कुमार
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक, मध्यप्रदेश-484887
pravinkmr05@gmail।com, 9752916192
डॉ. कौशल कुमार
सहायक आचार्य, कोरियन अध्ययन केंद्र, भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110067
kkaushaljnu@jnu.ac.in, 9899727647
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
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