- डॉ. राम नरेश राम
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पत्र
में
दलित
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
की
समस्याओं
पर
विचार
किया
गया
है।
लम्बे
समय
तक
साहित्य
जगत
से
दलितों
की
अनुपस्थिति
का
एक
बड़ा
कारण
उनकी
साक्षरता
का
न
होना
था।
दलित
साहित्य
की
परंपरा
में
केवल
लिखित
साहित्य
की
गणना
नहीं
की
जा
सकती,
निर्गुण
संत
कवियों
से
दलित
साहित्य
की
चेतना
प्रवाहमान
रही
है।
इसीलिए
दलित
साहित्य
के
पहले
कवि
के
रूप
में
हीरा
डोम
को
स्वीकार
करने
से
दलित
साहित्य
की
मौखिक
परंपरा
को
छूट
दी
जा
सकती
है।
यह
शोध
पत्र
दलित
साहित्य
की
परंपरा
को
सिर्फ़
आधुनिक
काल
के
लिखित
साहित्य
में
ही
नहीं
देखता
बल्कि
मध्यकाल
की
संत
परंपरा
में
इसके
बीज
को
देखने
की
प्रस्तावना
करता
है।
बीज
शब्द : दलित साहित्य,
इतिहास
लेखन,
समस्याएँ,
साक्षरता,
संत
साहित्य,
पहली
दलित
कविता।
इतिहास लेखन
गंभीर
इतिहासबोध
और
विश्लेषणात्मक
दृष्टि
की
माँग
करता
है।
इसलिए
यह
एक
चुनौती
भरा
काम
भी
है।
इसमें
युग
की
प्रवृत्तियों
पर
विशेष
ध्यान
देने
की
आवश्यकता
पड़ती
है।
इसलिए
दलित
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
के
लिए
यह
आवश्यक
है
कि
इस
बात
की
पड़ताल
की
जाए
कि
आखिर
वे
कौनसी
परिस्थितियाँ
थीं
जिनके
कारण
दलित
साहित्य
का
उदय
हुआ।
क्या
दलित
साहित्य
जिन
विषयों
को
लेकर
हिंदी
साहित्य
के
बरक्स
उपस्थित
हुआ
वे
उसके
आगमन
से
पहले
साहित्यिक
परिदृश्य
से
क्या
बिलकुल
ही
किसी
रूप
में
अनुपस्थित
थे?
जाहिर
है
जब
भी
दलित
साहित्य
के
उदय
की
बात
होती
है
तो
यह
दावा
किया
जाता
है
कि
हिंदी
साहित्य
की
तथाकथित
मुख्यधारा
में
दलित
विषयों
की
उपेक्षा
की
गई,
इसी
उपेक्षा
की
पहचान
की
प्रक्रिया
में
दलित
साहित्य
का
उदय
हुआ।
दलित
साहित्य
के
उदय
का
यह
तो
एक
बड़ा
कारण
है
ही
लेकिन
इसके
साथ
ही
इस
बात
का
भी
ध्यान
रखना
चाहिए
कि
हिंदी
साहित्य
के
विकास
के
दौर
में
दलित
समुदाय
के
भीतर
साक्षरता
दर
बेहद
कम
थी।
भले
ही
यह
कम
साक्षरता
दलित
समाज
को
जबरन
अशिक्षा
की
गर्त
में
ठेल
देने
के
कारण
थी।
आखिर
साहित्य
जैसी
विधा
का
सम्बन्ध
तो
पठन-पाठन
के
अवसर
की
उपलब्धता
से
भी
है।
इसलिए
यह
तो
सिद्ध
है
कि
साहित्य
जैसी
विधा
से
दलितों
की
अनुपस्थिति
का
एक
बड़ा
कारण
उनकी
साक्षरता
का
न
होना
था।
1927 में
प्रकाशित
मदर
इंडिया
जैसी
बहुचर्चित
पुस्तक
की
लेखिका
और
अमेरिकी
इतिहासकार
कैथरीन
मेयो
ने
प्रोग्रेस
ऑफ़
एजुकेशन
इन
बंगाल
की
छठी
पंचवर्षीय
समीक्षा
रिपोर्ट
के
हवाले
से
यह
दिखाया
है
कि
1924-25 के
आसपास
दलित
समाज
में
अभी
साक्षरता
की
स्थिति
शुरू
ही
हो
रही
थी-
‘अभी अछूतों के
बहुत
कम
बच्चे
स्कूलों
में
पढ़ते
हैं।
किन्तु,
यदि
उनमें
से
कोई
सारी
बाधाओं
को
पार
करके
शिक्षा
प्राप्त
कर
लेता
है,
तो
आमतौर
पर
वह
व्यक्ति
अपनी
जाति
के
लिए
बहुत
ही
उपयोगी
मनुष्य
साबित
होता
है.
यद्यपि,
उनके
पतन
का
अनंतकाल
का
इतिहास
है।
पर,
इसके
बावजूद
उनमें
उन्नति
करने
की
शक्ति
अभी
लुप्त
नहीं
हुई
है।
बंगाल
की
एक
अछूत
जाति
नामशूद्र
है,
जिनकी
संख्या
लगभग 19,97,500 है।
इन्हें
जब
नए
ज्ञान
के
प्रकाश
का
प्रोत्साहन
दिया
गया,
तो
उन्होंने
अपने
उत्थान
के
लिए
सफलता
के
साथ
संघर्ष
किया
और
उन्होंने
अब
अपने
स्कूल
स्थापित
कर
लिए
हैं।
पिछली
रिपोर्ट
के
अनुसार
बंगाल
में
उनके
49000 से
ज्यादा
बच्चे
पढ़
रहे
हैं।
जिनमें
1025 हाई
स्कूल
तक
पहुँच
गए
थे
और
144 आर्ट
कालेजों
तक।
जातीय
भेदभाव
के
कारण
सरकार
ने
उनके
रहने
के
लिए
अलग
से
छात्रावासों
का
निर्माण
किया
है।
यह
समुदाय
अब
तेजी
से
अपना
सामाजिक
स्तर
ऊपर
उठा
रहा
है।[i]
साक्षरता
का
यह
उल्लेखनीय
स्तर
था
भी
तो
हिंदी
क्षेत्र
में
नहीं।
अगर
दलित
साहित्य
के
इतिहास
का
आधार
लिखित
साहित्य
होगा
तो
यही
निष्कर्ष
निकलेगा
कि
साक्षरता
की
कमी
के
कारण
साहित्य
के
क्षेत्र
में
उनकी
अनुपस्थिति।
दलित
साहित्य
के
कई
विद्वान
इस
शून्य
को
नहीं
मानते।
ऐसे
में
वे
सिर्फ
लिखित
साहित्य
को
ही
आधार
नहीं
बनाते,
बल्कि
वे
मानते
हैं
कि
लोक
साहित्य
की
परंपरा
में
भी
दलित
साहित्य
का
आधार
समाहित
है,
कबीर,
रैदास
से
लेकर
ज्योतिबा
फुले
तक
दलित
साहित्य
की
एक
निरंतर
धारा
आगे
बढ़ती
रही
है।
यही
कारण
है
कि
सरस्वती
पत्रिका
में
1914 में
प्रकाशित
हीरा
डोम
की
कविता
‘अछूत की शिकायत’
को
हिंदी
की
पहली
दलित
कविता
मानने
को
तैयार
नहीं
होते
हैं-
‘सितम्बर, 1914 से
पूर्व
की
दलित
कविता
की
न
तो
खोज
की
गयी
और
न
कोई
प्रयास
ही
यह
जानने
के
लिए
किया
गया
कि
जब
दलित
चेतना
की
विचारधारा
समानांतर
रूप
में
निरंतर
प्रवाहमान
रही
है
तो
हीरा
डोम
ही
पहला
दलित
कवि
कैसे
हो
सकता
है?
जब
हम
मध्यकाल
में
एक
सशक्त
निर्गुण
धारा
को
ब्राह्मणवाद,
वर्णाश्रम,
जातिभेद,
धार्मिक
पाखंड
और
सामंती
मूल्यों
के
ख़िलाफ़
एक
जबरदस्त
विद्रोह
के
रूप
में
पाते
हैं,
तो
यह
कैसे
माना
जा
सकता
है
कि
उस
धारा
ने
आगे
विकास
न
किया
हो
और
हीरा
डोम
तक
इतने
लम्बे
समय
तक
दलित
चेतना
शून्य
रही
हो।
सच
तो
यह
है
कि
मध्यकाल
में
कबीर,
रैदास
आदि
संतों
ने
जिस
दलित
चेतना
का
सूत्रपात
किया
था,
वह
मरी
नहीं
थी,
अपितु
अत्यंत
सशक्त
रूप
में
विकसित
हुई
थी।
हीरा
डोम
का
गीत
उसी
दलित
चेतना
की
धारा
का
रूप
है।’[ii]
ओमप्रकाश
वाल्मीकि
भी
दलित
साहित्य
की
निरंतरता
को
अन्य
दलित
साहित्यकारों
के
हवाले
से
स्वीकार
करते
हैं-
‘वैसे तो दलित
साहित्य
के
अनेक
विद्वान
दलित
साहित्य
का
इतिहास
बहुत
पुराना
मानते
हैं।
सिद्ध
कवियों,
भक्त
कवियों
की
रचनाओं
में
दलित
चेतना
के
सूत्र
बीज
रूप
में
मानते
हैं।’[iii]
लेकिन
अपनी
अंतिम
पुस्तक
‘दलित साहित्य
: अनुभव, संघर्ष एवं
यथार्थ’
में
दलित
साहित्य
की
पृष्ठभूमि
के
रूप
में
संत
कविता
को
महत्त्व
नहीं
देते
हैं।
उनका
मानना
है
कि
संत
कवियों
ने
जाति
व्यवस्था
पर
कोई
चोट
नहीं
की
इसके
उलट
उन्होंने
अपनी
साहित्यिक
अभिव्यक्तियों
के
लिए
शासक
और
शोषित
की
परंपरागत
वर्चस्ववादी
संस्कृति
को
ही
अपनाया।
इस
तरह
लगभग
सभी
विद्वान
थोड़े
बहुत
नकार
के
बाद
भी
दलित
साहित्य
की
ऐतिहासिक
निरंतरता
को
रेखांकित
करते
हैं।
ऐसे
में
यह
मानना
कठिन
है
कि
हीरा
डोम
की
कविता
हिंदी
की
पहली
दलित
कविता
है।
ऐसा
मानने
से
कबीर
और
रैदास
का
ऐतिहासिक
योगदान
ख़ारिज
हो
जाएगा।
यह
बात
ज़रूर
है
कि
संत
कवियों
में
चेतना
का
वह
स्वरूप
नहीं
मिलता
जो
बीसवीं
सदी
के
दलित
लेखकों
में
है।
हिंदी
दलित
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
की
सबसे
प्रमुख
और
महत्त्वपूर्ण
समस्या
यह
है
कि
यह
कैसे
सिद्ध
किया
जाए
कि
हिंदी
दलित
साहित्य
की
पहली
रचना
कौनसी
है।
दलित
साहित्य
की
ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि
के
विवेचन
के
दौरान
हमने
देखा
कि
कोई
भी
विद्वान्
इस
बात
पर
बहस
करता
नहीं
दिखता
है
कि
हीरा
डोम
नाम
का
कोई
दलित
हुआ
है
या
नहीं
इसकी
बजाय
सभी
यह
मानते
दिखते
हैं
कि
हीरा
डोम
नाम
का
दलित
व्यक्ति
था
जिसकी
कविता
‘अछूत की शिकायत’
शीर्षक
से
सरस्वती
पत्रिका
के
सितम्बर
१९१४
अंक
में
प्रकाशित
हुई
थी।
बहुमत
तो
इसी
कविता
को
हिंदी
की
पहली
दलित
कविता
मानने
को
लेकर
है।
लेकिन
बाद
के
दिनों
में
जब
इस
कविता
की
सर्वंगीण
व्याख्या
हुई
तो
यह
सिद्ध
किया
गया
कि
दरअसल
हीरा
डोम
नाम
का
कोई
भी
व्यक्ति
था
ही
नहीं।
यह
भी
सिद्ध
किया
गया
कि
यह
कविता
सरस्वती
पत्रिका
के
तत्कालीन
संपादक
महावीर
प्रसाद
द्विवेदी
ने
खुद
लिखी
थी।
किसी
दलित
द्वारा
नहीं
लिखे
जाने
के
निम्नलिखित
आधार
दिए
गए-
- सरस्वती
‘पत्रिका की
घोषित नीति
थी कि
इसमें संस्कृतनिष्ठ
हिंदी की
ही रचनाएँ
प्रकाशित की
जाएँगी, भोजपुरी-मैथिली
आदि की
नहीं जबकि
यह कविता
भोजपुरी में
छपी थी।
- सरस्वती
में प्रकाशित
इस कविता
से पहले
हीरा डोम
की कोई
रचना उपलब्द्ध
नहीं है।
- यह
कविता यदि
हिरा डोम
ने लिखी
होती तो
वे इसका
शीर्षक ‘अछूत
की शिकायत’
नहीं रखते।
कविता में
शैली ‘हमनी
के’ से
शुरू होती
है तो
वे इसका
शीर्षक इसी
शैली में
रखते।’[iv]
ये
सभी
उपरोक्त
निष्कर्ष
‘बहुरि नहिं आवना’
पत्रिका
के
जून
2014 के
अंक
में
‘हीरा डोम : महावीर
प्रसाद
द्विवेदी
का
एक
षड्यंत्र’
शीर्षक
सतनाम
सिंह
के
लेख
के
हैं।
इस
लेख
में
दिए
गए
तर्क
बहुत
मज़बूत
जान
पड़ते
हैं।
सबसे
मज़बूत
तर्क
तो
यही
है
कि
अछूत
की
शिकायत
के
पहले
कोई
और
कविता
नहीं
लिखी
गयी
थी
क्या?
और
हीरा
डोम
कहाँ
के
रहने
वाले
थे?
उनके
वंशजों
का
पता
क्यों
नहीं
चलता?
इस
बहस
तलब
लेख
के
निष्कर्ष
को
अगर
मान
लिया
जाए
तो
आधुनिक
हिंदी
दलित
साहित्य
का
पहला
साहित्कार
अछूतानन्द
हरिहर
को
ही
मानना
पड़ेगा।
क्योंकि
उनकी
पहली
पुस्तक
‘हरिहर भजन माला’
1917 में
प्रकाशित
हुई
थी.
कला, संस्कृति
और
साहित्य
के
विकास
को
एक
निरंतरता
में
देखना
चाहिए
नहीं
तो
इतिहास
के
साथ
न्याय
नहीं
हो
पाता
है।
इसलिए
यह
कहना
ज़रूरी
है
कि
हिंदी
का
दलित
साहित्य
साहित्य
के
भीतर
प्रकट
हुई
कोई
आकस्मिक
परिघटना
नहीं
है।
इसकी
भी
एक
ऐतिहासिक
प्रक्रिया
है।
दलित
साहित्य
के
सामाजिक
यथार्थ
के
स्वरूप
को
हमें
हिंदी
साहित्य
की
विकास
प्रक्रिया
में
भी
देखना
चाहिए।
इससे
दलित
साहित्य
का
महत्त्व
कमतर
नहीं
हो
जाएगा।
दलित
साहित्य
की
विकास
प्रक्रिया
पर
लिखते
हुए
अनेक
दलित
साहित्यकारों
ने
दलित
साहित्य
की
पृष्ठभूमि
में
हिंदी
साहित्य
की
प्रगतिशील
धारा
में
आए
नए
परिवर्तनों
की
भूमिका
को
रेखांकित
किया
है।
ध्यान
देने
वाली
बात
यह
है
कि
हिंदी
में
प्रगतिशील
जनवादी
धारा
के
अस्तित्व
में
आने
से
पहले
ही
दलित
विषयों
पर
लिखने
वाले
लेखक
मौजूद
थे
और
लगातार
लेखन
कर
रहे
थे।
‘स्वामी अछूतानन्द
की
जीवन-यात्रा
1879 से 1933 तक
की
है।
इस
दृष्टि
से
उनके
साहित्य
और
संघर्ष
का
समय
बीसवीं
शताब्दी
के
शुरू
के
तीन
दशक
हैं।’[v]
हाँ,
यह
ज़रूर
है
कि
उसी
समय
गैरदलित
पृष्ठभूमि
से
आने
वालों
की भी संख्या
कम
नहीं
थी
जो
दलितों
के
सवालों
को
अपनी
रचनात्मकता
के
केंद्र
में
रख
रहे
थे।
लेकिन
इस
बात
का
ध्यान
रखना
ज़रूरी
है
कि
भारतीय
राजनीति में आंबेडकर
के
प्रवेश
और
उनके
द्वारा
कई
आंदोलन
चलाने
के
बाद
ही
ग़ैरदलित
लेखन
की
विषयवस्तु
दलित
जीवन
और
उनके
सवालों
पर
केन्द्रित
होती
है।
इसका
सबसे
उपयुक्त
उदाहरण
प्रेमचंद
का
लेखन
है।
यह
बात
अलग
है
कि
हिंदी
के
आलोचक
इस
तथ्य
की
अनदेखी
करते
रहे
हैं।
बीसवीं
शताब्दी
के
अखिल
भारतीय
स्वाधीनता
आन्दोलन
की
पृष्ठभूमि
में
अगर
देखें
तो
यह
बात
स्पष्ट
तौर
पर
दिखती
है
कि
बतौर
दलित
विषय
उस
समय
की
राजनीति
के
केंद्र
में
सामाजिक
परिवर्तन
का
एक
प्रमुख
मॉडल
दिखता
है।
जिसका
नेतृत्व
तत्कालीन
आधुनिक
सामाजिक
राजनीतिक
चिन्तक
डॉ
आंबेडकर
कर
रहे
थे। ‘भारत
की
राजनीति
में
1932 तक
का
समय
जबरदस्त
दलित
अस्मिता
के
राजनीतिक
उभार
का
था।
गोलमेज़
सम्मलेन
में
दलितों
के
दावे
ने
हिन्दू
राजनीति
में
उथल-पुथल
मचा
दी
थी,
देशभर
में
दलितों
के
सामाजिक
और
धार्मिक
समानता
के
आन्दोलन
चल
रहे
थे,
मनुस्मृति
को
दलित
जला
चुके
थे
और
उनका
समान
अधिकारों
का
घोषणा-पत्र
जारी
हो
चुका
था,
दलितों
के
सवाल
पर
गाँधी
का
आमरण
अनशन
और
पूना-पैक्ट
हो
चुका
था।’[vi] दलित साहित्य
के
उदय
के
पीछे
कुछ
लोग
भारत
की
नयी
आर्थिक
नीति
को
भी
जिम्मेदार
बताते
हैं।
लेकिन
वस्तुस्थिति
यह
नहीं
है
क्योंकि
साठ
और
सत्तर
के
दशक
में
मराठी
दलित
साहित्य
अस्तित्व
में
आ
चुका
था।
दलित
साहित्य
में
‘दलित’ कौन है
की
परिभाषा
पर
अभी
भी
बहस
है।
अधिकांश
दलित
साहित्यकार
यह
मानते
हैं
कि
‘अनुसूचित जातियाँ’
ही
दलित
हैं।
श्यौराज
सिंह
बेचैन,
मोहन
दास
नैमिशराय
और
ओमप्रकाश
वाल्मीकि
भी
अनुसूचित
जातियों
को
ही
दलित
जातियाँ
कहते
हैं।
कभी-कभी
इस
परिभाषा
का
दायरा
बढ़
भी
जाता
है,
“दलित शब्द व्यापक
अर्थबोध
की
अभिव्यंजना
देता
।
भारतीय
समाज
में
जिसे
अस्पृश्य
माना
गया
वह
व्यक्ति
ही
दलित
है।
दुर्गम
पहाड़ों,
वनों
के
बीच
जीवन-यापन
करने
के
लिए
बाध्य
जनजातियाँ
और
आदिवासी,
जरायमपेशा
घोषित
जातियाँ
सभी
इस
दायरे
में
आती
हैं।
सभी
वर्गों
की
स्त्रियाँ
दलित
हैं।
बहुत
कम
श्रम
मूल्य
पर
चौबीसों
घंटे
काम
करने
वाले
श्रमिक,
बंधुआ
मजदूर
दलित
की
श्रेणी
में
आते
हैं।”[vii]
हम
यहाँ
देख
सकते
हैं
कि
इसमें
वे
लोग
भी
शामिल
कर
लिए
गए
हैं
जो
इस
बात
का
दावा
करते
हैं
कि
उनके
साथ
छुआछूत
नहीं
होता
था।
जैसे
आदिवासी
लोग
ऐसा
दावा
करते
हैं।
इसमें
सभी
वर्गों
की
महिलाओं
को
भी
दलित
माना
गया
है
जबकि
सवर्ण
सामाजिक
पृष्ठभूमि
की
महिलाएँ
न
तो
छुआछूत
की
शिकार
हैं
और
न
ही
वे
खुद
दलित
वर्ग
की
पहचान
के
साथ
अपने
आप
को
जोड़ती
हैं।
यह
ज़रूर
है
कि
पितृसत्तात्मक
सामाजिक
संरचना
उनकी
स्थिति
को
दोयम
दर्जे
का
बना
देती
है।
अगर
ब्राहमणवादी
वर्चस्व
के
शिकार
तबके
को
दलित
के
रूप
में
देखा
जाए
तो
उपर्युक्त
परिभाषा
ठीक
जान
पड़ती
है।
दलित साहित्य
का
विभिन्न
विधाओं
में
विकास
हुआ।
‘आजादी के बाद
सबसे
अधिक
कविताएँ
लिखी
गयीं।’[viii]
हिंदी
दलित
साहित्य
में
यह
भ्रम
बना
हुआ
है
कि
इसका
विकास
मराठी
दलित
साहित्य
से
हुआ
है।
लेकिन
मोहनदास
नैमिशराय की पुस्तक
‘हिंदी दलित साहित्य’
के
अध्ययन
से
यह
स्पष्ट
होता
है
कि
आज़ादी
के
पहले
से
ही
हिंदी
दलित
साहित्य
का
लेखन
चलता
रहा
है।
मराठी
से
हिंदी
में
दलित
साहित्य
के
आने
की
बात
को
कँवल
भारती
भी
ख़ारिज
कर
चुके
हैं।
मोहनदास
नैमिशराय
अपनी
पुस्तक
में
दिखाते
हैं,
“गुरु परंपरा में
विश्वास
रखने
वाले
बिहारी
लाल
हरित
के
शिष्यों
में
राष्ट्रीयता
की
काव्य
रचना
करने
वाले
कवि
‘नत्थुराम ताम्रमेली’
का
नाम
प्रमुख
रूप
से
आता
है।
उनका
जन्म
27 जुलाई,
1927 को
लक्ष्मी
देवी
की
कोख
से
वर्तमान
जिला
गाजियाबाद(पहले
मेरठ)
के
गाँव
बेहटा
हाजीपुर(लोनी)
में
हुआ
था।
उनके
भीतर
गजब
का
देशप्रेम
और
देशभक्ति
की
भावना
थी।
देशप्रेम
के
बारे
में
उन्होंने
लिखा-
‘देश-प्रेम की
लौ
जलती
हो,
देश
के
हर
इंसान
में/
आज़ादी
का
दीप
बुझे
ना,
आँधी
और
तूफ़ान
में/
हर
इनसान
देश
की
रक्षा
करने
को
तैयार
हो/
फिर
देखें
कि
अपने
देश
का,
कैसे
नहीं
सुधार
हो।”[ix]
इस
उद्धरण
से
यह
बात
तो
स्पष्ट
होती
ही
है
कि
मराठी
के
समानांतर
हिंदी
क्षेत्रों
में
भी
दलित
साहित्य
का
लेखन
चल
रहा
था
साथ
ही
यह
भी
स्पष्ट
है
कि
स्वाधीनता
आन्दोलन
में
भी
दलित
साहित्य
अपनी
भूमिका
खूब
निभा
रहा
था।
लेकिन
यह
विडम्बना
ही
कही
जाएगी
कि
जिस
तरह
डॉ
आंबेडकर
को
आज़ादी
के
आन्दोलन
के
दौरान
और
उसके
बाद
लम्बे
समय
तक
स्वाधीनता
आन्दोलन
का
विरोधी
साबित
किया
जाता
रहा
वैसे
ही
दलित
साहित्य
की
ऐतिहासिक
उपस्थिति
को
नकारकर
भी
उसको
स्वाधीनता
आन्दोलन
की
संघर्षकारी
विरासत
से
बेदखल
करने
की
कोशिश
की
गई।
हिंदी
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
में
तमाम
चरणों
में
साहित्यिक
आन्दोलनों
का
जिक्र
आता
है
अर्थात
यहाँ
साहित्यिक
प्रवृत्ति
ही
साहित्यिक
आन्दोलन
का
प्रमुख
आधार
हो
जाया
करती
थी।
आन्दोलनात्मक
ध्वनि
के
बावजूद हिंदी साहित्य
पर
यह
आरोप
लगता
रहा
है
कि
यह
अकसर
अपने
युग
की
भावना
से
अलग-थलग
पड़
जाता
रहा
है।
लेकिन
दलित
साहित्य
के
मामले
में
यह
बात
कुछ
इस
तरह
है
कि
इसके
उद्भव
में
ही
सामाजिक
आन्दोलन
की
भूमिका
है।
दलित
साहित्य
में
साहित्यिक
प्रवृत्ति
आन्दोलन
का
आधार
नहीं
बल्कि
यह
सामाजिक
आन्दोलन
के
पूरक
के
तौर
पर
अपनी
भूमिका
निभाता
है।
इसलिए
यह
कहा
जाता
है
कि
दलित
साहित्य
लेखन
अपने
आप
में
आन्दोलन
का
हिस्सा
है।
साहित्य
और
आन्दोलन
की
यह
आपसी
पूरकता
दलित
साहित्य
को
एक
तरफ़
जहाँ
आवेग
देती
है
वहीँ
उसे
समाजशास्त्रीय
प्रकृति
का
लेखन
भी
बनाता
है।
ऐतिहासिक
उपेक्षा
के
कारण
दलित
साहित्य
पर
यह
जिम्मेदारी
सहज
ही
आ
जाती
है
कि
वह
अपने
सृजनात्मक
लेखन
के
माध्यम
से
भी
अपने
इतिहास
की
खोज
करे।
यह
चीज़
दलित
साहित्य
में
दिखाई
देती
है।
यह
अनायास
नहीं
है
कि
‘झलकारी बाई’ जैसा
उपन्यास
लिखा
जाता
है
और
अनीता
भारती
अपने
कविता
संग्रह
का
शीर्षक
‘एक कदम मेरा
भी’
रखती
हैं।
इन
प्रयासों
में
इतिहास
में
अपनी
स्थिति
और
उपस्थिति
की
पहचान
कराने
का
भाव
निहित
है।
दलित
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
का
अब
तक
का
सबसे
गंभीर
प्रयास
मोहनदास
नैमिशराय
द्वारा
‘दलित आन्दोलन
का
इतिहास’
नाम
से
कई
खण्डों
में
प्रकाशित
कराया
गया
है।
इसके
पहले
कँवल
भारती
ने
एक
लेख
‘दलित साहित्य
का
संक्षिप्त
इतिहास’
के
रूप
में
लिखा
हुआ
है।
इसके
अलावा
दलित
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
को
हम आलोचनात्मक पुस्तकों
में
ही
देख
सकते
हैं।
जिस
तरह
दलित
साहित्य
लेखन
का
कोई
एक
स्वर
नहीं
है
उसी
तरह
दलित
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
का
भी
कोई
एक
स्वर
नहीं
है।
कह
सकते
हैं
कि
दलित
साहित्य
की
धारा
भले
ही
बाबा
साहब
भीमराव
आंबेडकर
की
विचारधारा
को
केंद्र
में
रखकर
आगे
बढ़
रही
है
लेकिन
भारतीय
समाज
को
व्याख्यायित
करने
का
जो
हथियार
है
वह
कोई
एक
नहीं
है।
इनको
समाज
को
समझने
की
दृष्टियों
के
रूप
में
लिया
जाना
चाहिए।
दृष्टियों
की
विविधता
का
स्रोत
खुद
हमारे
राष्ट्रीय
स्वाधीनता
आन्दोलन
में
छुपा
हुआ
है।
बाबा
साहब
ने
जब
भारतीय
समाज
को
व्याख्यायित
करने
का
कार्यभार
संभाला
तब
उन्होंने
सामाजिक
व्याख्या
की
पहले
से
उपलब्द्ध
विधियों
से
अलग
विधि
का
विकास
किया।
इसमें
सामाजिक
व्याख्या
की
मार्क्सवादी
पद्धति
का
सहारा
नहीं
लिया
गया।
इसके
और
कारण
जो
भी
रहे
हों
लेकिन
इसका
असर
बाद
के
दलित
साहित्य
और
उसके
इतिहास
लेखन
पर
पड़ा।
यही
कारण
है
कि
दलित
साहित्य
का
एक
प्रमुख
‘लक्ष्य’ मार्क्सवादी
साहित्य
है।
यह
कहा
जा
सकता
है
कि
दलित
साहित्य
में
समाज
और
इतिहास
को
समझने
की
जिन
दृष्टियों
का
विकास
हुआ
उनकी
नींव
मार्क्सवाद
विरोध
और
दलितों
के
सवालों
पर
कांग्रेसी
रणनीति
के
विरोध
पर
टिकी
हुई
है।
यहीं
से
दलित
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
की
दृष्टि
का
विकास
देखा
जा
सकता
है।
बाद
में
दलितों
के
वोटबैंक
को
जीतने
की
गरज
से
तमाम
राजनीतिक
दलों
में
न
केवल
दलित
समाज
पर
बल्कि
दलित
साहित्य
को
भी
अपने-अपने
राजनीतिक
हितों
के
हिसाब
से
व्याख्यायित
करने
की
होड़
लग
गई।
कांग्रेस
ने
पहले
ही
इसमें
हस्तक्षेप
कर
दिया
था।
लेकिन
बाद
में
राष्ट्रीय
स्वयं
सेवक
संघ
ने
सांस्कृतिक
और
साहित्यिक
स्तर
पर
इसमें
जबरदस्त
हस्तक्षेप
किया।
यही
कारण
है
कि
रामायण
के
लेखक
महर्षि
वाल्मीकि
को
वाल्मीकि
समाज
का
प्रमुख
प्रतीक
घोषित
किया
गया।
इसी
तरह
सबरी
को
एकलव्य
के
समानांतर
आदिवासी
समाज
का
प्रतीक
घोषित
किया
गया।
दलित
साहित्य
अपनी
शुरुआत
से
ही
इस
बात
को
चिन्हित
करता
रहा
है
कि
हिंदी
साहित्य
दरअसल
हिन्दुओं
का
साहित्य
है।
ऐसा
कहने
के
पीछे
यही
भाव
काम
करता
है
कि
दलित
हिन्दू
पहचान
के
हिस्से
नहीं
हैं।
इस
तरह
दलित
साहित्य
कांग्रेसी
राजनीति
की
चालाकियों
और
संघ
की
फासीवादी
सांस्कृतिक
परियोजना
के
ख़िलाफ़
विकसित
हुआ
है।
लेकिन
इसकी
पहचान
का
प्रयास
कम
ही
हुआ
है।
स्वायत्त
दलित संस्कृति
और धर्म
की खोज - डॉ.
बाबा
साहब
आंबेडकर
ने
‘राज्य और अल्पसंख्यक’
में
यह
स्थापित
किया
कि
दलित
हिन्दू
धर्म
के
हिस्से
नहीं
हैं।
बल्कि
उनकी
अलग
स्वायत्त
संस्कृति
है।
उनकी
इस
अवधारणा
से
दलित
साहित्य
को
बहुत
बल
मिला
और
साहित्यकारों
ने
इसकी
ठीक-ठीक
स्थिति
की
खोज
शुरू
की।
दलित
साहित्य
के
विखंडनवादी
आलोचक
डॉ.
धर्मवीर
ने
तो
खोज
की
इस
प्रक्रिया
के
दौरान
बाबा
साहब
द्वारा
बौद्ध
धर्म
ग्रहण
करने
की
आलोचना
तक
करने
लगे।
‘उनकी समस्या यही
थी
कि
वे
इल्हामी
ज्ञान
में
विश्वास
नहीं
करते
थे।
इसी
कारण
वे
बुद्ध
के
शिष्य
बन
गए।’[x]
डॉ.
धर्मवीर
यह
तो
मानते
हैं
कि
दलित
हिन्दू
धर्म
के
हिस्से
नहीं
हैं।
लेकिन
नस्ल
के
लिहाज
से
वे
उसे
अलग
नहीं
मानते।
वह
लिखते
हैं-
‘दलितों की दृष्टि
से
देखा
जाए
कि
दलित
हिन्दुओं
से
किन
रूपों
में
भिन्न
हैं?
क्या
ये
उनसे
नस्ल
में
भिन्न
हैं,
या
उनसे
धर्म
में
भिन्न
हैं?
नस्ल
में
ये
हिन्दुओं
से
भिन्न
इसलिए
नहीं
कहे
जा
सकते,
क्योंकि
दासों
की
कोई
शुद्ध
नस्ल
नहीं
हुआ
करती।
हर
विजेता
जाति
उनकी
औरतों
से
अवैध
बच्चा
पैदा
करती
है।’[xi]
डॉ.
धर्मवीर
की
यह
मान्यता
दलित
समाज
के
ऐतिहासिक
उद्भव
को
विवादास्पद
बनाती
है।
ऐसे
में
वे
जिस
स्वायत्त
दलित
संस्कृति
की
बात
करते
हैं
वही
प्रश्नांकित
हो
जाती
है।
यह
बात
बिलकुल
सही
है
कि
दलित
साहित्य
के
इतिहास
पर
बात
करते
समय
डॉ.
धर्मवीर
की
उपेक्षा
संभव
नहीं
है
भले
ही
उनके
तर्कों
से
सहमत
नहीं
हुआ
जाए।
इस
तरह
दलित
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
की
एक
दृष्टि
डॉ.
धर्मवीर
देते
हैं।
लेकिन
उनकी
तर्क
पद्धति
उनको
दक्षिणपंथी
ब्राह्मणवाद
की
ओर
लेकर
चली
जाती
है।
एक
तरफ़
तो
वह
कहते
हैं
कि
दलितों
को
हिन्दू
धर्म
ग्रंथों
के
खंडन
में
अपनी
ऊर्जा
नहीं
गँवाने
की
सलाह
देते
हैं
दूसरी
तरफ़
स्वायत्त
दलित
संस्कृति
के
संधान
की
भी
बात
करते
हैं।
तो
यह
कैसे
संभव
है
कि
हिन्दू
धर्मशास्त्रों
और
सामाजिक
संहिताओं
की
समीक्षा
के
बिना
दलित
मुक्ति
हो
जाए।
वह
दलित
संस्कृति
की
खोज
करते
हुए
उसकी
पहचान
आजीवक
संस्कृति
के
रूप
में
करते
हैं।
इसी
आधार
पर
आजीवक
धर्म
की
स्थापना
का
प्रस्ताव
देते
हैं।
जिसमे
दलित
महिलाओं
के
लिए
किसी
और
धर्म
की
ही
तरह
ढेर
सारी
निषेधाज्ञायें
हैं।
भारत
में
मार्क्सवादी
आन्दोलन
ने
साहित्य
के
क्षेत्र
में
प्रगतिशील
यथार्थ
को
सामने
रखा
लेकिन
हिंदी
के
दलित
साहित्यकारों
ने
सहानुभूति
बनाम
स्वानुभूति
की
कसौटी
पर
प्रगतिशील
यथार्थ
की
सीमाओं
को
उद्घाटित
किया
और
कहा
कि
सवर्ण
दलितों
के
दु:खों
को
सही-सही
नहीं
व्यक्त
कर
सकता
क्योंकि
यह
उसका
भोगा
हुआ
यथार्थ
नहीं
है।
लेकिन
इस
अवधारणा
से
आलोचना
के
लिए
एक
संकट
खड़ा
होने
लगा।
वह
यह
कि
कला
की
हर
विधा
के
लिए
अगर
यही
प्रतिमान
बने
तो
हर
कलाकार
को
सबसे
पहले
भोक्ता
होने
की
शर्त
पूरी
करनी
पड़ेगी।
जो
संभव
नहीं
है।
दरअसल
यह
एक
रणनीतिक
प्रतिमान
है
जिससे
दलित
साहित्य
को
स्वीकृति
मिल
सके।
दलित
समाज
के
व्यक्ति
की
बौद्धिक
क्षमता
पर
गहरा
ब्राह्मणवादी
अविश्वास
ही
दलितों
को
इस
तरह
के
प्रतिमान
बनाने
पर
विवश
करता
है।
संभवतः
इस
तरह
के
प्रतिमान
के
कारण
ही
दलित
साहित्य
के
भीतर
आलोचनात्मक
साहित्य
का
विकास
अवरुद्ध
हो
गया।
क्योंकि
कहीं
गहरे
यह
बैठ
गया
कि
दलित
साहित्यकार
जो
कुछ
भी
लिख
रहा
है
वह
चूँकि
अनुभवजन्य
है
इसलिए
वह
प्रामाणिक
है
और
इसी
कारण
से
उसके
मूल्यांकन
की
आवश्यकता
नहीं
है।
इससे
दलित
आलोचना
का
बहुत
नुकसान
हुआ
है।
दलित
साहित्य
में
सबसे
ज्यादा
किसी
विधा
पर
अगर
चर्चा
हुई
तो
वह
आत्मकथा
है।
लेकिन
इसकी
प्रामाणिकता
को
लेकर
बहुत
सारी
बहसें
भी
हुईं।
लोगों
ने
यह
आरोप
लगाया
कि
दलित
लेखक
आत्मकथा
लिखते
समय
कल्पना
का
सहारा
लेते
हैं।
इसलिए
इसको
प्रामाणिक
नहीं
कहा
जा
सकता
है।
इसी
कल्पना
के
प्रयोग
के
कारण
कुछ
प्रकाशकों
और
लेखकों
ने
इसे
आत्मकथात्मक
उपन्यास
कहा
लेकिन
दलित
साहित्यकारों
ने
इसका
विरोध
किया।
यह
सही
है
कि
आत्मकथा
जैसी
विधा
का
मूल
स्रोत
स्मृति
है
और
स्मृति
हू-ब-हू
संरक्षित
नहीं
रह
सकती
है।
लेकिन
स्मृति
के
कल्पना
में
बदलकर
अतिशयोक्ति
हो
जाने
की
सम्भावना
बहुत
कम
रहती
है,
ऐसे
में
इस
पर
प्रामाणिकता
का
सवाल
उठाना
उचित
नहीं
है।
जब
इतिहास
लेखन
का
अधिकांश
उपलब्ध
साहित्य
और
साक्ष्य
के
विश्लेषण
और
व्याख्या
पर
टिका
हुआ
है
और
हम
उसे
मानने
लगते
हैं
तो
यह
तो
जिए
हुए
अनुभव
का
पुनर्सृजन
होता
है
तो
इसे
क्यों
न
प्रामाणिक
माना
जाए।
दरअसल
आत्मकथाएँ
सांस्कृतिक
इतिहास
लेखन
ही
हिस्सा
हैं।
प्रख्यात
मार्क्सवादी
और
बौद्ध
चिन्तक
प्रो.
तुलसीराम
ने
दो
भागों
में
अपनी
आत्मकथा
लिखा।
तथ्यों,
साक्ष्यों
और
सृजनात्मक
विश्लेषण
के
कारण
उनको
खूब
सराहना
मिली।
अपनी
आत्मकथाओं
के
लेखन
में
वे
द्वंद्वात्मक
पद्धति
का
इस्तेमाल
करते
हुए
दिखते
हैं।
उनकी
दृष्टि
एकांगी
नहीं
है।
वह
समस्या
को
सामाजिक
संरचना
में
देखते
हैं। यही कारण
है
कि
उनकी
दृष्टि
समाज
के
हर
तबके
के
हाशिये
की
ओर
है।
दलित
साहित्य
का
लेखन
अधिकांशतः
पुरुषों
द्वारा
लिखा
गया
है।
इसलिए
इसके
सैद्धांतिकीकरण
में
पुरुष
प्रभाव
दिखता
है।
हालाँकि
दलित
साहित्य
की
ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि
इस
सीमा
से
मुक्त
दिखती
है।
बाबा
साहब
भीमराव
अम्बेडकर
अपने
लेखन
में
लगातार
स्त्री
प्रश्न
को
केंद्र
में
रखते
थे।
हिन्दू
कोड
बिल
इस
बात
का
सबसे
बड़ा
उदाहरण
है।
उनके पहले
फुले
दम्पति
ने
भी
स्त्री
शिक्षा
को
लेकर
बहुत
काम
किया
लेकिन
विडम्बना
यह
है
कि
फूले
और
अम्बेडकर
की
विचारधारा
को
प्रेरणा
स्रोत
मानने
वाले
दलित
लेखकों
ने
अपने
लेखन
में
महिलाओं
के
सवालों
को
उतनी
प्रमुखता
नहीं
दी।
यही
कारण
है
कि
दलितों
में
भी
स्त्री
शिक्षा
के
आते
ही
उन्होंने
इस
बात
की
पहचान
किया
और
अपना
पक्ष
आत्मकथाओं
के
माध्यम
से
दर्ज
किया।
लेकिन
अभी
भी
दलित
साहित्य
के
इतिहास
को
महिलाओं
के
दृष्टिकोण
से
लिखा
जाना
बाकी
है।
विडम्बना
यह
है
कि
तथाकथित
हिंदी
साहित्य
की
मुख्यधारा
के
साहित्य
इतिहास
का
स्त्री
दृष्टि
से
लेखन
नहीं
हो
पाया
है।
सुमन
राजे
ने
जो
प्रयास
किया
है
वह
नाकाफी
और
अधूरा
ही
है।
दलित
साहित्य
इस
बात
का
भी
दावा
करता
है
कि
वह
सामाजिक
आन्दोलन
के
साथ-साथ
सांस्कृतिक
आन्दोलन
भी
है।
यह
बात
बिल्कुल
सही
है।
साहित्य
लेखन
सांस्कृतिक
आन्दोलन
का
अभिन्न
हिस्सा
होता
है।
इस
लिहाज
से
हिंदी
दलित
साहित्यकारों
के
अनेकों
लेखक
संगठन
बने
हुए
हैं।
इसका
कारण
यह
है
कि
दलित
साहित्य
को
चर्चा
परिचर्चा
के
मुख्य
परिसर
से
हमेशा
उपेक्षित
ही
रखा
जाता
रहा
है।
इसलिए
यह
अवश्यम्भावी
ही
था
की
वे
अपना
अलग
संगठन
बनाते
लेकिन
वैचारिक
दृष्टियों
की
भिन्नता
भी
उनकी
अनेकता
की
जड़
में
है।
अगर
दलित
लेखकों
की
राजनीतिक
प्रतिबद्धता
को
प्रतिमान
बनाया
जाय
तो
निश्चित
तौर
पर
यह
स्पष्ट
हो
जायेगा
कि
दलित
साहित्य
के
लेखन
के
पीछे
उनकी
कौन
सी
दृष्टि
काम
कर
रही
है।
जिस
तरह
अगर
हिंदी
के
तमाम
लेखकों
पर
अगर
यही
प्रतिमान
लगे
तो
उनकी
असली
मंशा
साफ
हो
जाएगी।
दलित
साहित्य
के
इतिहास
लेखन
की
यह
बड़ी
समस्या
है
कि
जिन
लेखक
संगठनों
से
उनका
जुडाव
है
उनका
राजनीतिक
मकसद
क्या
है
इसका
पता
लगे।
बहुतेरे
ऐसे
दलित
साहित्यकार
हैं
जो
अपने
लेखन
में
दलित
मुक्ति
की
बात
करते
हैं
लेकिन
उनकी
राजनीतिक
पक्षधरता
सांस्कृतिक
रूप
से
ब्राह्मणवादी
राजनीतिक
संस्कृति
की
पक्षपोषक
होती
है।
निष्कर्ष
: दलित साहित्य
का
इतिहास
लेखन
अभी
मुकम्मल
नहीं
हुआ
है
यह
एक
चुनौती
भरा
काम
है।
मोहनदास
नैमिशराय,
कँवल
भारती
आदि
ने
जो
प्रयास
किया
है
वह
सराहने
योग्य
है।
उनकी
दृष्टियाँ
एकांगी
नहीं
हैं।
वे
इतिहास
के
विकास
क्रम
को
खंड-खंड
में
न
देखकर
निरंतरता
में
देखते
हैं।
यह
सुखद
है।
सहायक आचार्य
naynishnaresh@mail.com, 9911643722, 7380748082
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