- कर्मराज वर्मा
शोध सार : नब्बे
के
दशक
से
शुरू
हुई
लोकतंत्र
की
‘तीसरी लहर’ में
दलित
मतदाता
निरंतर
सक्रिय
हो
रहे
हैं।
इस
दौर
में
राज्य
में
द्विध्रुवीय
प्रतिद्वंद्विता
ने
चुनावी
प्रतिस्पर्धा
को
तेज
कर
दिया
है,
जिससे
दलित
मतदाताओं
की
चुनावों
में
उत्साहपूर्ण
भागीदारी
बढ़
रही
है,
परिणामस्वरूप
दलित
मतदाताओं
की
चुनावी
प्राथमिकताएँ
दोनों
ही
प्रमुख
राजनीतिक
दलों-
कांग्रेस
एवं
भाजपा
के
चुनाव
परिणामों
और
प्रदर्शनों
में
महत्त्वपूर्ण
हो
गई
है।
परम्परागत
रूप
से
कांग्रेस
के
समर्थक
रहे
दलित
मतदाताओं
का
झुकाव
आज
भी
उसकी
तरफ़
बना
हुआ
है,
लेकिन
भाजपा
ने
भी
इस
दौर
के
चुनावों
में
दलित
मतदाताओं
में
अपनी
स्थिति
मजबूत
की
है
और
फ़िर
दलित
मतदाताओं
के
वोट
इन
दोनों
ही
प्रमुख
दलों
में
बंटे
हुए
हैं।
बसपा
और
अन्य
दलों
का
दलित
मतदाताओं
में
कोई
ख़ास
जनाधार
नज़र
नहीं
आता।
प्रस्तुत
शोध
आलेख
को
चार
भागों
में
विभाजित
किया
गया
है।
भाग
एक
में,
राजस्थान
में
1990 के पश्चात्
चुनावी
प्रतिस्पर्धा
में
विकसित
दलीय
व्यवस्था
के
स्वरूप
का
परिचय
देते
हुए,
प्रस्तुत
शोध
आलेख
के
लिए
निर्धारित
शोध
प्रविधि
का
उल्लेख
गया
है।
भाग
दो
में,
राजस्थान
के
दलित
मतदाताओं
की
दलीय
प्रतिबद्धताओं
का
क्षेत्र
सर्वेक्षण
के
आंकड़ों
के
आधार
पर
विश्लेषण
किया
गया
है।
भाग
तीन
में,
प्रस्तुत
शोध
आलेख
के
निष्कर्षों
को
दलित
मतदाताओं
की
पार्टी
समर्थन
एवं
प्राथमिकताओं
पर
किए
गए
प्रमुख
अध्ययनों
के
निष्कर्षों
के
साथ
तुलनात्मक
विवेचन
किया
गया
है।
भाग
चार
निष्कर्षात्मक
है।
बीज शब्द : लोकतंत्र, तीसरी लहर, कांग्रेस व्यवस्था, दलीय व्यवस्था, चुनावी प्रतिस्पर्धा, द्विध्रुवीय प्रतिद्वंद्विता, एक दलीय प्रभुत्व, चुनावी प्राथमिकताएँ, दलीय प्रतिबद्धता, जनाधार, सहभागिता, मतदान व्यवहार, दल- बदल, इन्द्रधनुषी गठजोड़, सामाजिक अस्मिता।
(01)
मूल आलेख : “1990 के
पश्चात्
के
चुनावी
दौर
को
राजस्थान
की
चुनावी
राजनीति
का
तीसरा
और
वर्तमान
चरण
कहा
जा
सकता
है
(लोढ़ा,
2009: 332)।” ‘कांग्रेस
व्यवस्था’
की
समाप्ति
के
बाद
विकसित
इस
दौर
में
राजस्थान
में
राजनीतिक
प्रतिद्वंद्विता
का
स्वरूप
और
प्रारूप
द्वि-ध्रुवीय
हो
गया।
विधान
सभा
चुनावों
के
संदर्भ
में
द्वि-ध्रुवीय
प्रतिस्पर्धा
1998 के चुनाव से
अधिक
स्पष्ट
नज़र
आती
है।
इस
प्रतिस्पर्धा
में
दोनों
ही
दलों-
कांग्रेस
एवं
भाजपा
के
बीच
नीतिगत
समरूपता,
चुनावी
जनमत
का
दोनों
में
से
किसी
एक
दल
की
तरफ़
झुकाव
और
दोनों
दलों
के
बीच
नियमित
रूप
से
सत्ता
की
अदला-बदली
हो
रही
है।
यद्यपि
लोकसभा
चुनावों
के
संदर्भ
में
देखे
तो,
2014 के लोकसभा चुनाव
से
राज्य
में
चुनावी
प्रतिद्वंद्विता
द्वि-ध्रुवीकरणीय
के
दौर
से
निकल
कर
राष्ट्रीय
राजनीति
के
समरूप
एक
दलीय
प्रभुत्व
(भारतीय जनता पार्टी)
की
ओर
बढ़
रही
है।
इसके
साथ
ही
प्रतिस्पर्धा
के
इस
दौर
में
मतदाताओं
की
बढ़ती
सहभागिता
और
ज़्यादा
उत्साह
से
चुनावों
में
हिस्सा
लेने
जैसे
कारकों
ने
राज्य
की
चुनावी
प्रतिस्पर्धा
को
अधिक
तीव्र
कर
दिया
है।
इस
प्रतिस्पर्धा
में
दोनों
ही
दल
अधिकाधिक
क्षेत्रों
और
सामाजिक
वर्गों
में
अपना
जनाधार
बढ़ाने
के
प्रयास
में
लगे
हुए
हैं,
ख़ास
तौर
से
अनुसूचित
जाति
के
लिए
आरक्षित
निर्वाचन
क्षेत्रों
और
दलित
जातियों
में
यह
प्रयास
तेज़
गति
से
हो
रहे
हैं,
जिससे
इन
क्षेत्रों
और
समुदाय
में
प्रतिस्पर्धा
अधिक तीव्र एवं
स्पष्ट
दिखाई
देती
है।
शोध प्रविधि : प्रस्तुत शोध
आलेख
मेरे
पीएचडी
शोध-प्रबंध
‘राजस्थान में
चुनावी
राजनीति
एवं
दलित
सहभागिता
: 1990 के पश्चात्
लोकसभा
एवं
विधानसभा
चुनावों
के
विशेष
संदर्भ
में’
के
लिए
शोध
क्षेत्र
में
किए
गए
सर्वेक्षण
के
आंकड़ों
पर
आधारित
है।
यह
सर्वेक्षण
नवंबर,
2020 से जून, 2021
के
बीच
में
राजस्थान
के
टोंक,
निवाई
(अजा), अजमेर उत्तर
एवं
दूदू
(अजा) विधानसभा
निर्वाचन
क्षेत्रों
से
सोद्देश्य
प्रणाली
द्वारा
चयनित
कुल
12 मतदान केन्द्रों
(प्रत्येक विधानसभा
निर्वाचन
क्षेत्र
से
3-3) में किया गया
था।
इस
सर्वेक्षण
में
चयनित
मतदान
केन्द्रों
से
कुल
203 दलित मतदाताओं(अनुसूचित
जाति
के
मतदाता)
का
साक्षात्कार
किया
गया
था।
दलित
मतदाताओं
का
चयन
संबंधित
मतदान
केंद्र
की
मतदाता
सूची
में
भाग
एवं
मतदान
क्षेत्र
के
विवरण
में
मौहल्ले
के
रूप
में
वर्णित
दलित
जातियों
के
आधार
पर
दैव
निदर्शन
प्रणाली
द्वारा
किया
गया
था।
(02)
‘चुनावी व्यवहार' के अंतर्गत मतदाताओं की राजनीतिक दलों के प्रति उन्मुखता एवं प्रतिबद्धता भी समाहित होती है। राजनीतिक दलों के प्रति मतदाताओं का झुकाव अक्सर किसी दल के पारंपरिक समर्थक होने के कारण होता है। कई बार यह पार्टी के नेतृत्व, कार्यक्रम एवं विचारधारा में विश्वास से भी प्रभावित होता है, तो कई बार यह मौजूदा विकल्पों एवं लहर के रूप में प्रकट होता है। और फ़िर मतदाताओं की सामाजिक अस्मिता भी उनकी पार्टी प्रतिबद्धता को निर्धारित करती है। राजस्थान के
दलित मतदाताओं के संबंध में इस भाग में पार्टी प्रतिबद्धता को उनके राजनीतिक दलों के प्रति समर्थन, पसंद-नापसंद, दल-बदल एवं विभिन्न मुद्दों पर मौजूदा राजनीतिक दलों की बेहतरी की तुलना के रूप में दृष्टिगत किया गया है।
राजनीतिक
दलों के
पक्ष में
मतदान/ समर्थन
-
सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर 2019 के लोकसभा और 2018 के विधानसभा चुनावों में दलित मतदान को देखा जाए तो, आज भी दलित मतदाता सर्वाधिक 50 से 60 प्रतिशत वोट कांग्रेस को देते हैं, जबकि भाजपा को 25 से 35 प्रतिशत वोट दलित मतदाताओं के प्राप्त होते हैं। दलित मतदाताओं के वोट मुख्यतः इन दोनों ही दलों में बंटे हुए हैं। बसपा एवं अन्य दलों का दलित मतदाताओं में कोई ख़ास जनाधार नहीं है। तालिका 1 से स्पष्ट होता है कि 2018 के विधान सभा चुनाव में 60.1 प्रतिशत दलित मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था, जबकि 26.6 प्रतिशत मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया था और 1.5 प्रतिशत मतदाता ऐसे भी थे, जिन्होंने अन्य दलों को वोट दिया था। इसी तरह लोकसभा चुनाव, 2019 में 54.2 प्रतिशत मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया था, जबकि भाजपा के पक्ष में 33 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट दिया था। 0.5 प्रतिशत मतदाताओं ने इस चुनाव में बसपा के पक्ष में भी मतदान किया था। इन दोनों चुनावों में दिए गए मतों का औसत देखा जाए तो दलित मतदाताओं ने कांग्रेस को 57.15 प्रतिशत मत दिए हैं, जबकि भाजपा को 29.8 प्रतिशत मत मिले हैं। आंकड़ों के इस विश्लेषण से यह भी स्पष्ट होता है कि विधानसभा की तुलना में लोक सभा चुनावों में भाजपा को अधिक तो कांग्रेस को कम दलित वोट मिले हैं या फ़िर इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि भाजपा का जनाधार दलित मतदाताओं में बढ़ता जा रहा है।
इसी
तरह
इन
दोनों
चुनावों
से
पूर्व
के
दो-तीन
या
फ़िर
इससे
अधिक
लोकसभा
एवं
विधानसभा
चुनावों
में
वोट
देने
वाले
दलित
मतदाताओं
से,
इस
आधार
पर
पूछे
जाने
पर
कि
आप
या
आपका
परिवार
किस
पार्टी
के
समर्थक
रहे
हैं,
तो
तालिका
2 से स्पष्ट होता
है
कि
53.2 प्रतिशत मतदाताओं
ने
कहा
कि
वे
कांग्रेस
पार्टी
के
समर्थक
रहे
हैं,
जबकि
15.8 प्रतिशत मतदाताओं
ने
कहा
कि
वे
भाजपा
के
समर्थक
रहे
हैं।
इसी
तरह
2 प्रतिशत मतदाताओं
ने
व्यक्त
किया
कि
वे
बसपा
के
समर्थक
रहे
हैं।
किसी
एक
भी
पार्टी
के
समर्थक
नहीं
रहने
को
7.4 प्रतिशत मतदाताओं
ने
इंगित
किया
है,
जबकि
अन्य
किसी
पार्टी
के
समर्थक
होने
को
किसी
भी
मतदाता
ने
रेखांकित
नहीं
किया
है।
इस
203 के कुल नमूने
में
20.7 प्रतिशत मतदाता ऐसे
भी
है,
जिन्होंने
या
तो
मतदान
नहीं
किया
या
उन्हें
इन
विगत
चुनावों
में
वोट
देने
के
बारे
में
याद
नहीं
था
या
फ़िर
वो
इन
चुनावों
के
समय
मतदाता
के
रूप
में
पंजीकृत
नहीं
थे।
यदि
केवल
इन
विगत
चुनावों
में
वोट
देने
वाले
कुल
161 मतदातों के आधार
पर
देखा
जाए
तो
पार्टियों
के
समर्थन
का
यह
आँकड़ा
बढ़कर
कांग्रेस
के
समर्थन
में
67 प्रतिशत, भाजपा के
समर्थन
में
19.9 प्रतिशत, बसपा के
समर्थन
में
2.5 प्रतिशत और किसी
भी
पार्टी
का
समर्थन
नहीं
रहने
के
पक्ष
में
9.3 प्रतिशत हो जाता
है।
इन विगत चुनावों में दलित मतदाताओं के पार्टी समर्थन और पिछले विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों (2018 एवं 2019) में उनके औसत मतदान (कांग्रेस के पक्ष में 57.15 प्रतिशत और भाजपा के पक्ष में 29.8 प्रतिशत) पर नज़र डालें तो यह परिलक्षित होता है कि जहाँ कांग्रेस के दलित मत/ समर्थन में 67 से 57.15 यानी कि 9.9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है, वहीं भाजपा के दलित मत/ समर्थन में 19.9 से 29.8 यानी कि 9.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। आशय यह है कि कांग्रेस का दलित वोट भाजपा में शिफ़्ट होता जा रहा है।
पार्टी
पसंद/ नापसंद –
दलित
मतदाता
पार्टी
पसंद
एवं
नापसंद
को
स्पष्ट
रूप
से
अभिव्यक्त
करते
हैं।
दो
सवालों,
आपको
कौनसी
पार्टी
सबसे
ज्यादा
पसंद
है
या
सबसे
क़रीबी
महसूस
होती
है
और
ऐसी
पार्टी
जिसे
नापसंद
करते
हैं,
जिसे
आप
कभी
वोट
नहीं
देंगे?,
के
जवाब
में तालिका 3 के
अनुसार
सर्वाधिक
61.1 प्रतिशत दलित मतदाताओं
को
कांग्रेस
पार्टी
सबसे
क़रीबी
महसूस
होती
है,
जबकि
भाजपा
को
22.2 प्रतिशत दलित मतदाता
ही
सबसे
ज़्यादा
पसंद
करते
हैं
या
क़रीबी
पार्टी
मानते
हैं।
0.5 प्रतिशत मतदाता ऐसे
भी
हैं,
जो
अपनी
पार्टी
पसंद
को
अन्य
दलों
के
रूप
में
व्यक्त
करते
हैं,
जबकि
12.8 प्रतिशत मतदाताओं
के
लिए
कोई
भी
पार्टी
उनके
करीब
या
पसंद
में
शामिल
नहीं
है।
ज्ञात
हो
कि
बसपा
को
किसी
भी
दलित
मतदाता
ने
अपनी
पसंद
की
पार्टी
में
शामिल
नहीं
किया
है।
इसी
तरह
पार्टी
को
नापसंद
करने
वाले
दलित
मतदाताओं
में,
सबसे
अधिक
18.7 प्रतिशत दलित मतदाता
भाजपा
को
नापसंद
करते
हैं,
जबकि
कांग्रेस
को
मात्र
1 प्रतिशत मतदाता ही
नापसंद
करते
हैं।
78.3 प्रतिशत मतदाता अपनी
नापसंद
में
किसी
भी
पार्टी
को
शामिल
नहीं
करते
हैं।
मतदाताओं
द्वारा दल
बदल -
मतदाताओं
द्वारा
अपनी
पसंद
की
पार्टी
को
पिछले
कुछ
वर्षों
में
बदले
जाने
के
बारे
में
पूछे
जाने
पर,
तालिका
4 प्रदर्शित करती
है
कि
कुल
नमूने
के
12.8 प्रतिशत मतदाताओं
ने
कहा
है
कि
उन्होंने
पिछले
कुछ
वर्षों
में
अपनी
पसंद
की
पार्टी
बदली
है,
जबकि
85.2 प्रतिशत मतदाताओं
ने
पिछले
कुछ
वर्षों
में
अपनी
पसंद
की
पार्टी
नहीं
बदली
है।
पिछले कुछ वर्षों में पार्टी बदलने वाले दलित मतदाताओं में सर्वाधिक 10.3 प्रतिशत मतदाता वो हैं, जो कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए हैं, जबकि भाजपा से कांग्रेस में शामिल होने वाले मतदाता केवल 2 प्रतिशत है। इसी तरह 0.5 प्रतिशत मतदाता भाजपा से बसपा में भी शामिल हुए हैं (तालिका 5)।
राजनीतिक
दलों की
तुलना -
अब
तक
कौनसी
पार्टी
ने
आपके
मुद्दे,
समस्या
एवं
हितों
पर
सबसे
अधिक
ध्यान
दिया
है?,
के
जवाब
में
तालिका
6 में दर्शाया
गया
है
कि 45.8 प्रतिशत
दलित
मतदाताओं
ने
कांग्रेस
तो,
6.9 प्रतिशत ने भाजपा
का
नाम
लिया
है,
जबकि
6.4 प्रतिशत मतदाताओं
ने
दोनों
ही
पार्टियों
को
अपने
मुद्दे,
समस्या
एवं
हितों
पर
सबसे
अधिक
ध्यान
देने
वाली
पार्टी
के
रूप
में
इंगित
किया
है।
बसपा
एवं
अन्य
पार्टियों
को
दलित
मतदाता
अपने
मुद्दे,
समस्या
एवं
हितों
पर
सबसे
अधिक
ध्यान
देने
वाली
पार्टी
के
रूप
में
नहीं
मानते
हैं,
जबकि
2.5 प्रतिशत मतदाता यह
मानते
हैं
कि
सभी
पार्टियाँ
उनके
मुद्दे,
समस्या
एवं
हितों
पर
ध्यान
देती
हैं।
इसके
साथ
ही
38.4 प्रतिशत दलित मतदाता
अभिव्यक्त
करते
हैं
कि
ऐसी
कोई
भी
पार्टी
नहीं
है,
जो
उनके मुद्दे, समस्या
एवं
हितों
पर
सबसे
अधिक
ध्यान
देती
है।
इसी तरह अच्छे विकल्प के रूप में मौजूदा पार्टियों के प्रति अपनी राय में 57.1 प्रतिशत दलित मतदाता मानते हैं कि राजस्थान की मौजूदा पार्टियाँ अच्छा विकल्प है, जो उनके मुद्दे, समस्या एवं हितों का ख्याल रखती है, जबकि 38.9 प्रतिशत मतदाता राजस्थान की मौजूदा पार्टियों को अच्छा विकल्प नहीं मानते हैं(तालिका 7)।
धार्मिक
सद्भाव,
दलित
हितों
की
रक्षा,
जातीय
उत्पीड़न
को
रोकने,
भेदभाव
को
खत्म
करने
एवं
आरक्षण
की
रक्षा
करने
जैसे
मुद्दों
पर
कांग्रेस
एवं
भाजपा
की
बेहतरी
तुलना
में,
दलित
मतदाता
इन
सभी
मुद्दों
पर
कांग्रेस
को
भाजपा
से
बेहतर
मानते
हैं।
तालिका
8 से स्पष्ट होता
है
कि
55 से 70 प्रतिशत
मतदाता
इन
मुद्दों
पर
कांग्रेस
को
बेहतर
पार्टी
मानते
हैं,
तो
7 से 17 प्रतिशत
मतदाता
भाजपा
को
बेहतर
मानते
हैं,
जबकि
12 से 15 प्रतिशत
मतदाता
दोनों
ही
पार्टियों
को
बेहतर
मानते
हैं।
धार्मिक
सद्भाव
के
लिए
कांग्रेस
को
56.7 तो, भाजपा को
16.7 प्रतिशत मतदाता बेहतर
मानते
हैं,
इस
मुद्दे
पर
दोनों
ही
दलों
को
बेहतर
मानने
वाले
मतदाता
6.4 प्रतिशत है। दलित
हितों
की
रक्षा
के
लिए
63.1 प्रतिशत मतदाता कांग्रेस
को
बेहतर
मानते
हैं,
तो
7.9 प्रतिशत मतदाता भाजपा
को
बेहतर
मानते
हैं,
जबकि
6.4 प्रतिशत मतदाता दोनों
को
ही
बेहतर
मानते
हैं।
इसी
तरह
जातीय
उत्पीड़न
को
रोकने
के
लिए
64.5 प्रतिशत दलित मतदाता
कांग्रेस
को
बेहतर
मानते
हैं,
जबकि
भाजपा
को
इस
मुद्दे
पर
9.4 प्रतिशत मतदाता ही
बेहतर
मानते
हैं।
5.9 प्रतिशत मतदाता ऐसे
भी
है,
जो
जातीय
उत्पीड़न
को
रोकने
या
कम
करने
को
दोनों
ही
पार्टियों
को
बेहतर
मानते
हैं।
भेदभाव/
छुआछूत
को
खत्म
करने
के
लिए
64.5 प्रतिशत मतदाता कांग्रेस
को
बेहतर
मानते
हैं,
तो,
10.8 प्रतिशत मतदाता भाजपा
को
बेहतर
मानते
हैं,
जबकि
5.9 प्रतिशत मतदाता दोनों
ही
पार्टियों
को
इस
मुद्दे
पर
बेहतर
मानते
हैं।
इसके
आलावा
आरक्षण
की
रक्षा
के
लिए
67.5 प्रतिशत मतदाता कांग्रेस
को
बेहतर
पार्टी
मानते
हैं,
जबकि
भाजपा
को
आरक्षण
की
रक्षा
के
लिए
9.4 प्रतिशत मतदाता ही
बेहतर
मानते
हैं।
अन्य
7.4 प्रतिशत मतदाता ऐसे
भी
हैं,
जो
दोनों
ही
पार्टियों
को
इस
मुद्दों
पर
बेहतर
मानते
हैं।
इन
सभी
मुद्दों
पर
कांग्रेस
को
बेहतर
मानने
वाले
मतदाताओं
ने
सबसे
अधिक
आरक्षण
की
रक्षा
के
मुद्दे
को
उसकी
बेहतरी
के
लिए
दृष्टिगत
किया
है,
जबकि
भाजपा
को
बेहतर
मानने
वाले
मतदाताओं
ने
सबसे
अधिक
धार्मिक
सद्भावना
के
मुद्दे
को
उसके
पक्ष
में
बेहतर
माना
है।
(03)
दलित
मतदाताओं
की
पार्टी
प्राथमिकताओं
पर
अखिल
भारतीय
स्तर
पर
किए
गए
अध्ययनों
में
1996 और 1998 के
चुनावों
के
बाद
सीएसडीएस
के
द्वारा
एकत्र
किए
गए
आँकड़ों
के
आधार
पर
पुष्पेंद्र
के
अध्ययन
का
निष्कर्ष
यह
है
कि
“आमतौर पर रुझान
यह
है
कि
दलित
कांग्रेस
के
किसी
भी
मजबूत
विकल्प
को
स्वीकारने
को
तैयार
हैं।
अक्सर
बसपा
उनकी
पहली
पसंद
बनती
है
और
उसकी
अनुपस्थिति
या
प्रभावहीनता
की
स्थिति
में
वाम
मोर्चा
और
क्षेत्रीय
पार्टियों
को
वोट
देना
चाहते
हैं।
यह
ज़रूर
है
कि
अखिल
भारतीय
स्तर
पर
आकलन
करने
पर
कांग्रेस
आज
भी
सबसे
ज़्यादा
दलित
वोट
पाने
वाली
पार्टी
दिखती
है।...
भाजपा
को
दलितों
के
कम
वोट
मिलते
हैं
(पुष्पेंद्र, 2014: 344- 45)।”
पुष्पेंद्र
के
इस
निष्कर्ष
के
संदर्भ
में,
प्रस्तुत
शोध
आलेख
के
निष्कर्षों
को
देखा
जाए
तो
यह
तो
ठीक
है
कि
कांग्रेस
आज
भी
सबसे
ज़्यादा
दलित
वोट
पाने
वाली
पार्टी
है
और
भाजपा
को
दलितों
के
कम
वोट
मिलते
हैं।
लेकिन
सर्वेक्षण
के
आँकड़े
स्पष्ट
करते
हैं
कि
दलितों
के
वोट
राज्य
की
इन
दोनों
ही
प्रमुख
पार्टियों
में
बंटे
हुए
हैं।
बसपा,
वाम
दलों
और
क्षेत्रीय
दलों
का
राज्य
की
राजनीति
और
दलितों
में
कोई
ख़ास
प्रभाव
एवं
जनाधार
नज़र
नहीं
आता
है,
इस
कारण
इनकी
प्रभावहीनता
की
स्थिति
में
दलित
मतदाता
विकल्प
के
रूप
में
भाजपा
की
ओर
रुख
करते
हैं।
इसी
तरह
1996 से 2004 के
लोक
सभा
चुनावों
पर
सुहास
पल्शीकर
के
अध्ययन
का
निष्कर्ष
यह
है
कि
“अखिल भारतीय स्तर
पर
अभी
भी
कांग्रेस
को
दलितों
के
कम
से
कम
एक-तिहाई
वोट
मिलते
हैं,
जो
पार्टी
के
वोट
शेयर
से
अधिक
है,
इस
दौर
में
कांग्रेस
एवं
भाजपा
ने
दलितों
के
बीच
अपने
वोट
बढ़ाए
हैं।
भाजपा
ने
दलितों
के
बीच
जो
लाभ
कमाया
है,
उसका
स्रोत
दलितों
के
वोटों
का
अन्य
दलों
से
भाजपा
में
स्थानान्तरण
है।
फ़िर
भी
दलित
वोटो
में
भाजपा
का
हिस्सा
अभी
भी
उसके
कुल
वोट
शेयर
से
कम
है।...
संक्षेप
में
कहे
तो
दलितों
की
वोटिंग
प्राथमिकताएँ
यह
दर्शाती
है
कि
कोई
भी
दल
दलितों
की
पार्टी
होने
का
दावा
नहीं
कर
सकता।...
इस
अवधि
की
विशेषता
के
अनुसार,
नब्बे
के
दशक
में
दलित
वोट
समेकन
के
बजाय
विखंडन
की
एक
तसवीर
प्रस्तुत
करते
हैं
(पल्शीकर, 2007: 107- 8)।”
सुहास
पल्शीकर
के
इन
निष्कर्षों
के
आधार
पर
राजस्थान
के
दलित
मतदाताओं
की
पार्टी
प्राथमिकताओं
को
देखा
जाए
तो,
इसमें
भिन्नता
नजर
आती
है।
आँकड़ों
के
स्तर
पर
कांग्रेस
को
आज
भी
दलितों
के
कम
से
कम
एक
तिहाई
नहीं,
अपितु
कम
से
कम
50 प्रतिशत वोट मिलते
हैं।
इसी
तरह
इस
दौर
में
भाजपा
ने
दलित
मतदाताओं
में
अपना
जनाधार
बढ़ाया
है,
जबकि
कांग्रेस
का
दलित
जनाधार
कम
हुआ
है।
भाजपा
का
दलित
मतदाताओं
में
जो
जनाधार
बढ़ा
है,
उसका
स्रोत
कांग्रेस
से
दलित
वोटों
का
भाजपा
में
स्थानान्तरण
है
और
फ़िर
दलित
वोटों
के
संबंध
में
यह
तो
नहीं
कह
जा
सकता
कि
इस
दौर
में
दलित
वोट
‘समेकन के बजाय
विखंडित’
हुए
है,
बल्कि
यह
कहा
जा
सकता
है
कि
इस
दौर
में
दलित
वोट
समेकन
के
बजाय
कांग्रेस
एवं
भाजपा
में
विभाजित
हुए
है।
इसी क्रम
में
तारिक
थाचिल
और
रोनाल्ड
हेरिंग
ने
1999 से 2004 के
लोक
सभा
चुनावों
पर
किए
गए
अपने
अध्ययन
में
निष्कर्ष
निकाला
है
कि
“दलितों का विभिन्न
पार्टियों
का
समर्थन
विभिन्न
राज्यों
में
अलग-अलग
है,
जो
कांग्रेस
के
पक्ष
में
5 से 70 प्रतिशत
तक
है,
जबकि
भाजपा
के
पक्ष
में
0 से 40 प्रतिशत
तक
है।...
इस
अवधि
के
दौरान
कुछ
राज्यों
में
भाजपा
का
वोट
शेयर
बढ़ा
है,
जिसका
मुख्य
कारण
कांग्रेस
में
गुटबाजी
और
स्थानीय
क्षेत्रीय
दलों
का
कमज़ोर
प्रदर्शन
रहा
है।...
इस
प्रकार
कहा
जा
सकता
है
कि
दलित
मतदान
व्यवहार
समय-समय
पर
एक
पार्टी
से
दूसरी
पार्टी
तक
खिसकता
रहा
है
और
यह
किसी
भी
एक
पार्टी
तक
सीमित
नहीं
रहा
है
(थाचिल हेरिंग, 2008: 441- 64)।”
तारिक
थाचिल
और
रोनाल्ड
हेरिंग
के
निष्कर्षों
के
आधार
पर
प्रस्तुत
शोध
के
निष्कर्षों
पर
नजर
डाले
तो,
इस
शोध
आलेख
में
कांग्रेस
एवं
भाजपा
के
पक्ष
में
दलित
वोटों
का
आँकड़ा
तारिक
और
रोनाल्ड
के
इन
दोनों
दलों
को
मिलने
वाले
दलित
वोटों
के
आँकड़ों
के
दायरे
से
मिलता
है।
साथ
ही
यह
भी
प्रमाणित
होता
है
कि
इस
दौर
में
भाजपा
का
वोट
शेयर
बढ़ा
है
और
दलित
मतदान
कांग्रेस
से
भाजपा
में
खिसका
है।
इसी
संदर्भ
में,
राहुल
वर्मा
और
ज्योति
मिश्रा
का
2004 एवं 2009 के
लोक
सभा
चुनावों
पर
आधारित
अध्ययन
का
निष्कर्ष
यह
है
कि
“कांग्रेस को
अनुसूचित
जाति
के
वोटों
का
अच्छा
ख़ासा
हिस्सा
मिलता
था।
लेकिन
भारतीय
राजनीतिक
और
दलीय
व्यवस्था
के
बदलते
स्वरूप
के
कारण
अनुसूचित
जाति
से
कांग्रेस
का
वोट
घटने
लगा
है।
नयी
पार्टियों
के
मैदान
में
आने
से
दलित
वोट
ख़िसकने
लगा
है।...प्रतिस्पर्धी
राजनीति
में
दलित
मतदाता
उपलब्ध
विकल्पों
में
से
ही
चयन
करते
हैं,
जिन
राज्यों
में
वामपंथी
दल
विकल्प
के
रूप
में
मौजूद
है,
वहाँ
दलित
मतदाता
उन्हें
चुनते
हैं।
जिन
राज्यों
में
कांग्रेस
के
विकल्प
के
तौर
पर
अकेली
भाजपा
है,
वहाँ
दलित
मतदाताओं
का
झुकाव
कांग्रेस
की
तरफ़
होता
है।
इसके
आलावा
जिन
राज्यों
में
कोई
मजबूत
क्षेत्रीय
दल
होता
है,
उन
राज्यों
में
कांग्रेस
एवं
क्षेत्रीय
दलों
के
बीच
दलित
मत
बँट
जाते
हैं
(वर्मा & मिश्रा,
2014: 121,126, 129)।”
राहुल
वर्मा
और
ज्योति
मिश्रा
के
अध्ययन
से
इस
शोध
आलेख
के
निष्कर्ष
अधिक
समानता
रखते
हैं,
जिसमें
आज
भी
कांग्रेस
को
दलित
वोटों
का
अच्छा
ख़ासा
हिस्सा
मिलता
है
और
राज्य
की
द्वि-दलीय
व्यवस्था
में
कांग्रेस
के
विकल्प
के
तौर
पर
भाजपा
की
मजबूत
स्थिति
के
कारण,
कांग्रेस
का
दलित
वोट
घट
रहा
है,
हालांकि
ऐसी
स्थिति
में
दलित
मतदाताओं
का
झुकाव
कांग्रेस
की
तरफ़
ज़रूर
है,
लेकिन
प्रतिस्पर्धी
राजनीति
में
दलित
मतदाता
उपलब्ध
मुख्य
विकल्पों(कांग्रेस
एवं
भाजपा)
में
से
ही
चयन
करते
हैं।
आखिर
में, राजस्थान
के
मतदाताओं
के
संदर्भ
में
सीएसडीएस
के
चुनावी
सर्वेक्षणों(लोकसभा
चुनाव
1999 एवं 2004 और
विधानसभा
चुनाव
2003 एवं 2008) के
आँकड़ों
पर
आधारित
संजय
लोढ़ा
के
अध्ययन
का
निष्कर्ष
यह
है
कि
“राजस्थान में
दलित,
आदिवासी
और
मुस्लिम
मतदाताओं
का
रुझान
कांग्रेस
की
ओर
हैं,
जबकि
राजपूत,
वैश्य
और
ब्राह्मण
भाजपा
को
अधिक
समर्थन
देते
हैं।
साथ
ही
यह
भी
आभास
मिलता
है
कि
कांग्रेस
का
जनाधार
सिमटता
जा
रहा
है
और
भाजपा
के
जनाधार
में
वृद्धि
हो
रही
है।
कांग्रेस
का
इन्द्रधनुषी
गठजोड़
राजस्थान
में
कमज़ोर
हो
रहा
है।
यह
प्रवृतियाँ,
लोकसभा
और
विधानसभा,
दोनों
ही
स्तरों
पर
देखने
को
मिल
रही
है(लोढ़ा, 2009 : 336-37)।”
राजस्थान
के
दलित
मतदाताओं
के
संदर्भ
में
यह
निष्कर्ष
प्रस्तुत
शोध
आलेख
के
निष्कर्षों
से
अधिक
समानता
रखते
हैं।
इस तरह
राष्ट्रीय
स्तर
पर
दलित
मतदाताओं
की
पार्टी
समर्थन
एवं
प्राथमिकताओं
पर
किए
गए
प्रमुख
अध्ययनों
के
निष्कर्ष
और
प्रस्तुत
शोध
आलेख
के
निष्कर्षों
में
कई
समानताओं
के
बावजूद
जो
भिन्नताएँ
एवं
असमानताएँ
दिखाई
देती
हैं,
वह
राज्य
की
दलीय
व्यवस्था
की
प्रकृति
के
कारण
परिलक्षित
होती
है।
(04)
राजस्थान
में
दलित
मतदाताओं
के
वोट
राज्य
के
प्रमुख
राजनीतिक
दलों
कांग्रेस
एवं
भाजपा
में
बँटे
हुए
हैं, बसपा एवं
अन्य
दलों
का
दलित
मतदाताओं
में
कोई
ख़ास
जनाधार
नज़र
नहीं
आता
है।
सर्वेक्षण
के
आँकड़े
स्पष्ट
करते
हैं
कि
कांग्रेस
को
आज
भी
दलित
मतदाताओं
के
सर्वाधिक
वोट
मिलते
हैं, जो 50 से
60 प्रतिशत वोट है, जबकि भाजपा
को
दलित
मतदाताओं
के
25 से 35 प्रतिशत
मत
मिलते
हैं।
इस
आधार
पर
देखा
जाए
तो
भाजपा
का
दलित
मतदाताओं
में
अपेक्षाकृत
कम
जनाधार
नज़र
आता
है, लेकिन पिछले
दो- तीन या
इससे
अधिक
लोकसभा
एवं
विधानसभा
चुनावों
में
पार्टी
पक्ष
में
वोट/ समर्थन पर
दलित
मतदाताओं
की
राय
देखी
जाए
तो
पता
चलता
है
कि
पिछले
चुनावों
की
तुलना
में
हाल
ही
संपन्न
लोकसभा
एवं
विधानसभा
चुनावों
में
जहाँ
कांग्रेस
के
दलित
मतों
में
लगभग
दस
प्रतिशत
की
गिरावट
दर्ज
की
गई
है, वहीं भाजपा
के
दलित
मतों
में
लगभग
इतने
ही
मतों
की
बढ़ोतरी
हुई
है।
आशय
यह
है
कि
न
केवल
दलित
मतदाताओं
में
भाजपा
का
जनाधार
बढ़ता
जा
रहा
है, अपितु कांग्रेस
अपना
दलित
जनाधार
भाजपा
के
हाथों
में
खोती
जा
रही
है।
यह
तथ्य
इस
बात
से
भी
प्रमाणित
होता
है
कि
पिछले
कुछ
वर्षों
में
पार्टी
बदलने
वाले
दलित
मतदाताओं
में
से
लगभग
दस
प्रतिशत
मतदाता
वो
हैं, जो कांग्रेस
से
भाजपा
में
शामिल
हुए
है, जबकि भाजपा
से
कांग्रेस
में
शामिल
होने
वाले
मतदाता
मात्र
दो
प्रतिशत
ही
है।
इसी
तरह
दलित
मतदाताओं
की
पार्टी
पसंद
एवं
नापसंद
के
रूप
में
राय
यह
है
कि
सबसे
अधिक
लगभग
60 प्रतिशत दलित मतदाता
पार्टी
के
तौर
पर
कांग्रेस
को
पसंद
करते
हैं, जबकि नापसंद
करने
वाले
मात्र
एक
प्रतिशत
मतदाता
हैं।
भाजपा
को
लगभग
22 प्रतिशत दलित मतदाता
पसंद
तो
19 प्रतिशत मतदाता नापसंद
भी
करते
हैं, हालांकि 39 प्रतिशत
मतदाता
राजस्थान
की
मौजूदा
पार्टियों
को
अच्छा
विकल्प
नहीं
मानते
हैं।
अपनी
समस्याएँ
एवं
मुद्दों
पर
अधिक
ध्यान
देने
वाली
पार्टी
के
रूप
में
भी
दलित
मतदाता
कांग्रेस
को
ही
प्राथमिकता
देते
हैं।
धार्मिक
सद्भाव, दलित हितों
की
रक्षा, जातीय उत्पीड़न
से
सुरक्षा, भेदभाव-छुआछूत को
खत्म
करने
और
आरक्षण
की
रक्षा
के
लिए
दलित
मतदाता
कांग्रेस
को
अपेक्षाकृत
बेहतर
पार्टी
मानते
हैं।
इन
मुद्दों
पर
कांग्रेस
को
बेहतर
मानने
वाले
मतदाताओं
ने
सबसे
अधिक
आरक्षण
की
रक्षा
को
उसकी
बेहतरी
के
लिए
दृष्टिगत
किया
है, जबकि भाजपा
को
बेहतर
मानने
वाले
मतदाताओं
ने
सबसे
अधिक
धार्मिक
सद्भाव
के
मुद्दें
को
उसके
पक्ष
में
बेहतर
माना
है।
इस
तरह
स्पष्ट
है
कि
कांग्रेस
सामाजिक
न्याय
के
स्तर
पर
तो
भाजपा
धार्मिक
आधार
पर
दलित
मतदाताओं
को
अपनी
ओर
आकर्षित
करती
है।
संदर्भ :
- थाचिल, तारिक़
& हेरिंग, रोनाल्ड
(2008). पुअर
चॉइसेस:
डी अलाइनमेंट, डेवलपमेंट
एंड दलित/ आदिवासी वोटिंग
पैटर्न्स इन
इंडियन स्टेट्स. कंटेम्परी
साउथ एशिया, 16 (4), 441- 464.
- पल्शीकर, सुहास (2007). दलित पॉलिटिक्स इन नाइनटीज़: इलेक्टोरल पॉलिटिक्स एंड प्रेडिकमेंट बिफोर एन अंडरप्रिविलेज्ड कम्युनिटी. इंडियन जर्नल ऑफ़ सोशल वर्क, खंड- 68, अंक-1, 101- 129.
- पुष्पेंद्र (2014). वोट
ड़ालने वाले
दलित:
पार्टियों पर
कम,
राजनीतिक व्यवस्था
पर ज्यादा
यकीन.
अभय कुमार
दुबे (संपा.) में, आधुनिकता
के आईने
में दलित
(पृ.
342- 351). नयी दिल्लीः
वाणी प्रकाशन.
- यादव, योगेंद्र (2010). भारतीय
राजनीति में
पुनर्विन्यास:
विधानसभा चुनाव
(1993- 95). शोधार्थी, प्रथम अंक, 1- 8.
- यादव, योगेंद्र & पल्शीकर,
सुहास (2003). फ्रॉम
हेजिमनी टू
कन्वर्जेन्स: पार्टी
सिस्टम एंड
इलेक्ट्रोरल पॉलिटिक्स
इन द
इंडियन स्टेट्स,
1952- 2002. जर्नल ऑफ़
इंडियन स्कूल
ऑफ़ पॉलिटिकल
इकोनोमी,
15 (1- 2).
- ____ (2009). पार्टी
प्रणाली और
चुनावी राजनीति. अरविन्द मोहन
(संपा.)
में,
लोकतंत्र का
नया लोक: चुनावी
राजनीति में
राज्यों का
उभार (पृ. 14- 72). नयी
दिल्लीः वाणी
प्रकाशन.
- लोढ़ा,
संजय
(2009). राजस्थान
की चुनावी
राजनीति की
प्रकृति, विकास
और निर्धारक
तत्व. अरविंद
मोहन (संपा.) में,
लोकतंत्र का
नया लोक:
चुनावी राजनीति
में राज्यों
का उभार
(पृ. 323- 355). नयी
दिल्ली: वाणी
प्रकाशन.
- वर्मा, राहुल
& मिश्रा, ज्योति
(2014). दलित- आदिवासी वोट
बैंक का
मिथक.
प्रतिमान, खंड- 2, अंक- 1, 120- 132.
शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.)
verma.karamraj@gmail.com, 07597727729
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