बीज
शब्द : राष्ट्रवाद,
दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद, पूंजीवादी राष्ट्रवाद,
समावेशी राष्ट्रवाद, शैतानी सभ्यता, उपनिवेशवाद, अंतर्राष्ट्रीयतावाद, प्रांतवाद।
गांधी जी को देशद्रोही कहने वाली
दक्षिणपंथी (ब्राह्मणवादी) राष्ट्रवाद की एक धारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दौरान
भी सक्रिय थी और आज सत्ता के संरक्षण में तो खुले आम गांधी के हत्यारे का महिमा
मंडन करते हुए उनकी मूर्तियाँ तोड़ी जा रही है, उनकी
मूर्तियों की शुचिता को अपवित्र किया जा रहा है। जिस चंपारण से गांधी ने अपना
आंदोलन शुरु किया, वहीं पर हाल-फिलहाल में उनकी एक आदमकद
प्रतिमा को क्षतिग्रस्त किया जाना[1] और एक
दूसरी प्रतिमा पर शराब के रैपर की माला पहना देना[2] किसी
शराबी या शरारती व्यक्ति की कारस्तानी नहीं हो सकती। गांधी के नाम पर बने वहाँ
के केंद्रीय विश्वविद्यालय में होती गांधीवादी मूल्यों की हत्या भी कोई अपवाद
नहीं है। यह सब कुछ उस राष्ट्रवाद की छत्र-छाया में हो रहा है जो घृणा और नफरत की
राजनीति पर टिका हुआ है। यह राष्ट्रवाद एक जाति विशेष की संस्कृति को भारतीय
संस्कृति के नाम पर सब पर थोपना चाहता है जबकि इसकी पूरी अवधारणा ही अपनी प्रकृति
में उस पश्चिमी राष्ट्रवाद की भद्दी नकल पर टिकी है जिसकी तीखी आलोचना गांधी जी
किया करते थे। गांधी जी ने तो हिंद स्वराज में उस आधुनिक सभ्यता को भी भारतीय
राष्ट्र के लिए त्याज्य बताया था जो भौतिकवाद और अंध प्रतिस्पर्धा पर टिकी
पूँजीवादी सभ्यता है किंतु दूसरी ओर धर्म और अध्यात्म की बात करने वाले कथित
राष्ट्रवादी बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद की मुहिम छेड़े हुए हैं और विकास के
पूँजीवादी स्वार्थों के ऊपर राष्ट्रवाद का भगवा आवरण डाले हुए हैं। ‘हिंद स्वराज’में गांधी जी स्पष्टत: प्रतिपादित
करते हैं कि हिंदुस्तान अंग्रेजों ने जीता नहीं था बल्कि ‘अंग्रेज
व्यापारियों को हमने बढ़ावा दिया तभी वे हिंदुस्तान में अपने पैर फैला सके।’’[3] कल अंग्रेज व्यापारी और पूंजीपति था आज विदेशी व्यापारियों और
पूंजीपतियों के साथ-साथ यहीं के व्यापारी और पूंजीपति हैं। गांधी के राष्ट्र में
कहाँ तो पंक्ति में सबसे अंत पर खड़े व्यक्ति को प्राथमिकता में रखने की बात थी[4] और
कहाँ अब उससे उसके जीने तक के अधिकार को राष्ट्रीय विकास के नाम पर छीना जा रहा
है।
जिन लोगों को गांधी का समावेशी राष्ट्रवाद
फूटी आँख नहीं सुहाता और जिन ताकतों ने इसी कारण गांधी की हत्या तक कर दी,
उन्हें जानना चाहिए कि गांधी होने का निहितार्थ है अपने प्रखरतम
विरोधी के साथ भी प्यार और सहानुभूति से पेश आना। यद्यपि गांधी आधुनिक सभ्यता और
उस पर आधारित पश्चिमी राष्ट्रवाद को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। उनकी पुस्तक
हिंद स्वराज पश्चिम के राष्ट्रवाद और वहाँ की आधुनिक सभ्यता की विभिन्न
खामियों से हमारा साक्षात्कार कराती है। पश्चिमी सभ्यता को शैतानी सभ्यता करार
देने और उसके प्रतीकों की इतनी निंदा करने पर भी गांधी कहीं भी उनके प्रति घृणा से
नहीं भरे हुए थे अपितु वे तो आधुनिक सभ्यता के दुष्चक्र में फंसे हुए लोगों को
राह से भटका हुआ मानते थे और उनकी त्रासदी के प्रति संवेदनशील थे।
गांधी जी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के
शोषण और उत्पीड़क चरित्र की खुलेआम बुराई करने का साहस रखते थे। हम सब जानते हैं
कि उन्हीं के नेतृत्व में हमने विदेशी गुलामी से मुक्ति पाई थी किंतु जो गांधी
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे,
वे गांधी कभी भी भारतीय जनता के दमन और उत्पीड़न के लिए जबावदेह
ब्रिटिश लोगों का समूल उन्मूलन नहीं चाहते थे अपितु वे तो उनके शोषणकारी चरित्र
से उन्हें मुक्त कराकर उन्हें पाप से दूर करना चाहते थे। अस्तु, गांधी बुराई से नफरत करते थे, उसे दूर करने की चेष्टा
करते थे, किंतु वे कभी बुरे व्यक्ति के प्रति द्वेष का
शिकार नहीं होते थे। गांधी का राष्ट्रवाद घृणा और द्वेष से भरा अंध राष्ट्रवाद न
था। उनका कहना था कि ‘‘भारतीय राष्ट्रवाद बहिष्कारी,
आक्रामक और विध्वंसकनहीं है।’’[5] अपने राष्ट्रवादी आंदोलन में सत्याग्रह और असहयोग के जिस हथियार का उन्होंने
इस्तेमाल किया था, उनकी कसौटी वे बुराई पर प्रहार करना
मानते थे, न कि बुरे व्यक्ति के खिलाफ उनके प्रयोग के वे
पक्षधर थे। प्रतिपक्ष के प्रति घृणा से भरे सत्याग्रह और असहयोग को वे सत्याग्रह
और असहयोग की संज्ञा देने को तैयार न थे।
गांधी का राष्ट्रवाद दुश्मन राष्ट्र
और शोषक साम्राज्यवादी राष्ट्र से भी प्रेम रखने की बात भले ही करता हो किंतु इस
आधार पर उन्हें आप भारतीय राष्ट्र के हितों की अनदेखी करने वाला नहीं कह सकते। दूसरे
राष्ट्र के सह अस्तित्व में विश्वास रखने वाले गांधी के लिए प्रेम का यह मतलब न
था कि किसी साम्राज्यवादी राष्ट्र के दोषों से आँखें मूँदे ली जाए। वे अपने
विरोधी की कमजोरियों और दोषों को खुलकर सामने लाते थे और ऐसा करते हुए वे विदेशी
सत्ता के संभावित दमन से डरते तक न थे। नकली वीर सावरकर और उनके अनुयायी निडरता
से भरे गांधी के इस प्रेम और उनकी सहिष्णुता से शुरु से ही खार खाते रहे थे। एक
ओर सावरकर थे जो अपने ही देश और अपने ही धर्म से ताल्लुक रखने वाले गांधी का
अस्तित्व तक सहन करने को तैयार न थे, दूसरी
ओर विदेशी प्रतिपक्षी सत्ता के खोटों को उजागर करने के बावजूद गांधी उससे प्रेम
करने, उसकी हस्ती को स्वीकार करने की उदारता रखते थे।
यहाँ यह भी नहीं भूला जा सकता कि
भारतीय राष्ट्रवाद का विकास औपनिवेशिक दासता की स्थिति में हुआ था। हर गुलाम देश
की तरह हमारे यहाँ भी राष्ट्रवाद का जन्म औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष के
बीच हुआ था। ऐसे राष्ट्रवाद में विदेशी औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ गुस्सा और
आक्रोश होना स्वाभाविक है। राष्ट्रवादी होना और शोषक विदेशी ताकतों को दुश्मन
के रूप में न देखना कल्पना से परे की बात है लेकिन गांधी का राष्ट्रवाद इस ढर्रे
को उलट देता है। गांधी जी किसी भी अन्य राष्ट्रवादी से बढ़कर उपनिवेशवाद के मुखर
विरोधी थे लेकिन विरोध करते हुए भी वे अपना विवेक नहीं खोते थे। वे न तो ब्रिटिश
मात्र के विरोधी थे और न ब्रिटेन का बुरा चाहते थे। इसकी बजाय वे तो औपनिवेशिक सत्ता
के शोषणकारी चरित्र को बदल देना चाहते थे।[6] आज यह
जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि जिस गांधी ने भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को खत्म
किया,
उस गांधी को आम ब्रिटिश दुश्मन के रूप में नहीं देखता। विरोधी का
भी दिल जीत लेने की यही ताकत गांधी जी की व्यापक स्वीकार्यता के पीछे थी। नफरत
और हिंसा पर टिका दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद इसीलिए गांधी की इस ताकत को अपने अस्तित्व
के लिए खतरे के रूप में देखता है।
पश्चिमी ढंग का राष्ट्रवाद किसी न
किसी वास्तविक या काल्पनिक शत्रु का हौव्वा खड़ा करके ही विकसित होता है किंतु
गांधी जी राष्ट्रवाद के लिए घृणा को अपरिहार्य नहीं मानते। अंग्रेजों से घृणा
करना वे भारतीय राष्ट्रवाद के लिए बिल्कुल भी अनिवार्य नहीं मानते थे। उनके
नेतृत्व में चला आज़ादी का हमारा आंदोलन उस साम्राज्यवाद और दमन के खिलाफ था
जिसका प्रतिनिधित्व ब्रिटिश राष्ट्र राज्य करता था। अंग्रेजों के खिलाफ द्वेष
को मन में लाना वे भारतीय राष्ट्रवाद के लिए अपमानजनक मानते थे। पाकिस्तान विरोध
को अपने राष्ट्रवाद का मूल मंत्र मानने वाले लोगों की गांधी के उन राष्ट्रवादी
मूल्यों में बिल्कुल भी आस्था नहीं है जहाँ किसी दूसरे राष्ट्र के प्रति घृणा
और द्वेष के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। वे हिंदुस्तान को आज़ाद तो देखना चाहते थे
लेकिन वे किसी दूसरे देश को गुलाम बनाने, उसका
शोषण करने के लिए हिंदुस्तान की आज़ादी नहीं चाहते थे। अपने राष्ट्र की आज़ादी
का मतलब उनके लिए दूसरे राष्ट्रों का उत्पीड़न करना, उनका
शोषण करना और उन्हें अपमानित करना न था़। 12 मार्च, 1925 के
यंग इंडिया में गांधी जी लिखते हैं,‘‘मैं नहीं चाहता कि भारत
का उत्थान दूसरे राष्ट्रों के ध्वंस पर हो।’’[7] यहाँ तक कि वे ब्रिटेन के अस्तित्व को खत्म करने की कीमत पर हिंदुस्तान
की आज़ादी नहीं चाहते थे। राष्ट्रवाद को लेकर और हिंदुस्तान की आज़ादी को लेकर
एक ओर वे अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थे किंतु वे हिंदुस्तान को
आज़ाद मुल्क के रूप में मात्र इसलिए नहीं देखना चाहते थे कि यह अपनी आज़ादी का
इस्तेमाल मुट्ठीभर प्रभुत्वशील वर्ग के लिए करे अपितु वे तो अपने आज़ाद मुल्क
से दुनिया भर की भलाई के लिए अपने संसाधनों के इस्तेमाल की अपेक्षा रखते थे।
उनके राष्ट्रवाद में किसी भी प्रकार
के पूर्वाग्रह और भेदभाव के लिए कोई जगह न थी। चाहे नस्ल हो या धर्म,
जाति और भाषा हो, ऐसी किसी भी किस्म की
संकीर्णता से उनका राष्ट्रवाद ऊपर उठा हुआ था। भगतसिंह के राष्ट्रवाद की जैसे
गांधी जी का राष्ट्रवाद नास्तिकता पर आधारित न था, उसके
(हिंदू) धार्मिक आधार से इनकार नहीं कर सकते किंतु हिंदू धर्म में व्याप्त
बुराइयाँ उनके राष्ट्रवाद को सहन न थीं। अस्पृश्यता एक ऐसी ही बुराई थी जिसके
खिलाफ वे जीवन भर संघर्षरत रहे। त्रावणकोर में अस्पृश्यता के खिलाफ हुए
वायकोम सत्याग्रह को गांधी जी अपने राष्ट्रवाद
के एक महत्वपूर्ण आयाम के रूप में याद करते थे। राष्ट्रीय आंदोलन में अस्पृश्यता
के सवाल को उठाया जाना, वे भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रवाद
के लिए खतरे के रूप में नहीं देखते थे, बल्कि अस्पृश्यता
के मसले की उपेक्षा को वे किसी भी राजनीतिक दल के लिए आत्महत्या सदृश्य मानते
थे।[8] यह भी
ध्यातव्य है कि उनका हिंदू धर्म विधर्मियों को अपना शत्रु नहीं मानता था और न
गाय के नाम पर वे भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा को स्वीकृति दे सकते थे।
हिंदू धर्म पर आधारित होने पर भी
गांधी का यह राष्ट्रवाद किसी भी दृष्टि से आपको आक्रामक नज़र नहीं आता क्योंकि
गांधी के लिए हिंदू धर्म का मूल था-कष्ट सहिष्णुता। उपवास आदि के माध्यम से
अपने को कष्ट देने के दर्शन पर टिका उनका सत्याग्रह अपनी गलतियों के साथ-साथ
दूसरों की गलतियों के लिए भी स्वयं को ही दंडित करने में विश्वास करता था। धर्म
के नाम पर विधर्मी गर्भवती स्त्री का पेट तक चीर देने वाले सांप्रदायिक राष्ट्रवाद
के लिए गांधी सिर्फ वोट बैंक की मजबूरी मात्र है, अन्यथा गांधी के राष्ट्रवाद में सांप्रदायिक ताकतों की लेश मात्र भी आस्था
नहीं है।
जो हिंदू राष्ट्रवाद मुसलमानों और
ईसाइयों के खिलाफ दुष्प्रचार और पूर्वाग्रह फैलाता है,
जो इन विधर्मियों से नफरत करना सिखाता है, उसके
अनुयायी गांधी के उस राष्ट्रवाद को कभी नहीं समझ सकते जो धर्म पर आधारित होते हुए
भी धर्म का बहुत ही उदार अर्थ लेकर चलता है। गांधी के राष्ट्रवाद में कहीं भी
धार्मिक संकीर्णता न थी। मोपला विद्रोह में निहित कथित सांप्रदायिकता को संबोधित
करते हुए उन्होंने 26 जनवरी, 1922 के यंग इंडिया में लिखा
था कि ‘‘राष्ट्रवाद संप्रदायवाद से कहीं बढ़कर होता है और
उस अर्थ में हम पहले भारतीय हैं और हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई बाद में हैं।’’[9] उन्होंने कभी भी धर्म आधारित उस द्विराष्ट्र सिद्धांत को नहीं स्वीकारा
जिसे स्वीकार करके, जिसका प्रतिपादन करके हिंदू महासभा और
मुसलिम लीग, दोनों ने हिंदुस्तान के दो टुकड़े करवा दिए। वे
हिंदू-मुसलिम एकता के सवाल को एक राष्ट्र के रूप में हिंदुस्तान की विकास यात्रा
की सफलता हेतु बहुत जरूरी मानते थे। उनका कहना था कि अगर इस एकता को अर्जित नहीं
किया गया तो राष्ट्र के रूप में हमारी गाड़ी अपनी यात्रा के पहले ही चरण में धंस
जायेगी।[10]
राष्ट्रवाद के नाम पर आजकल जिस
प्रकार प्रांतवाद की निंदा की जाती है और संघीय सरकार के द्वारा अपने प्रांत के
साथ किए जाने वाले भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाना राष्ट्र विरोध घोषित कर दिया जाता
है,
उसके निहित खतरों को भी गांधी जी पहचानते थे। एक ओर प्रांत विशेष का
निवासी होने के कारण अपने प्रांत से प्रेम करना गांधी जी स्वाभाविक मानते थे,
अपने प्रांत को समृद्ध और विकसित बनाना भी वे गलत नहीं मानते थे,
किंतु दूसरी ओर उनका राष्ट्रवाद हर प्रांतवासी से यह अपेक्षा करता
था कि वह अपने प्रांत के संसाधनों का इस्तेमाल दूसरे प्रांतों और समग्र राष्ट्र
के हित में करने की उदारता भी रखे।[11] एकांतिक
रूप से सिर्फ अपने प्रांत के विषय में सोचना उनके राष्ट्रवाद को स्वीकार्य न था।
यहाँ केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा के वक्त मात्र गुजरात के नागरिकों के बचाव तक
सीमित रहे तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री और वर्तमान भारत के प्रधानमंत्री निश्चय
ही गांधीवादी राष्ट्रवाद की इस कसौटी पर अनुत्तीर्ण ही साबित होते हैं।
चूँकि गांधी और नेहरू का राष्ट्रवाद
किसी दूसरे राष्ट्रवाद के विरोध में खड़ा हुआ राष्ट्रवाद न था और ये दोनों
संपूर्ण मानव जाति के कल्याण की चिंता करते थे, अत: इनके खिलाफ दुष्प्रचार
फैलाने के लिए विद्वेषमूलक संकीर्णतावादी राष्ट्रवाद की हिमायती ताकतें इन पर
भारतीय राष्ट्र के हितों की कीमत पर अंतर्राष्ट्रीयतावादी होने का आरोप लगाती
हैं। उदाहरण के लिए गांधी की हत्या करने वाले गोडसे ने अदालत में अपने बचाव में
सफेद झूठ तक बोला था कि गांधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाने के लिए अनशन किया
था[12]जबकि
यह रकम विभाजन के समय हुए समझौते के हिस्से के रूप में पाकिस्तान को अदा की ही
जानी थी।[13] स्पष्ट
है कि वसुधैव कुटुम्बकम् का दिखावटी नारा लगाने वाले लोगों का दिल इतना छोटा है कि
वे अपने राष्ट्र के अलावा किसी दूसरे राष्ट्र को देखना तक नहीं चाहते और राष्ट्रवाद
को अंतर्राष्ट्रीयतावाद के खिलाफ दिखाते हैं। गांधी और उनके शिष्य नेहरू आदि के
खिलाफ लगाए गए इस प्रकार के किसी आरोप में कोई दम नहीं है। गांधी का साफ़ मानना था
कि अंतर्राष्ट्रीयतावादी बनने के लिए पहले व्यक्ति को वास्तविक राष्ट्रवादी
बनना होता है और ये दोनों बातें असंगत नहीं हैं।[14] एक ओर
दूसरे राष्ट्रों के हितों को क्षति पहुँचाने की मंशा न रखने पर भी गांधीवादी राष्ट्रवाद
हर राष्ट्र की सीमा को विशेषत: हिंदुस्तान के संदर्भ में अपनी सीमाओं को पहचानता
था कि अपने सीमित संसाधनों का इस्तेमाल पहले राष्ट्र की आवश्यकताओं के
मद्देनज़र किया जाना चाहिए, किंतु दूसरी ओर
विश्व के तमाम राष्ट्रों के लोगों से वे एक मनुष्य के रूप में संगठित हो मनुष्यता
की सेवा की अपेक्षा रखते थे। वे एक राष्ट्र की बर्बादी की कीमत पर दूसरे राष्ट्र
का विकास नहीं चाहते थे।
आधुनिक यूरोपीय राष्ट्रवाद और उससे
जुड़ी आधुनिक सभ्यता को लेकर गांधी जी द्वारा की गई आलोचना की गलत व्याख्या
करते हुए कुछ लोग तो गांधी को राष्ट्रवाद विरोधी तक बताने से नहीं चूकते। वास्तव
में गांधी (यूरोपीय) राष्ट्रवाद को अपने आप में बुरा नहीं मानते अपितु वे तो राष्ट्रवाद
के नाम पर जो संकीर्णता, स्वार्थ और घृणा
फैलाई जाती है और जो बहिष्कारवादी राजनीति की जाती है, उसका
विरोध करते हैं। गांधी के सामने दो-दो विश्वयुद्धों के उदाहरण थे और उन उदाहरणों
ने उन्हें सिखाया था कि राष्ट्रवाद के नाम पर होने वाली संसाधनों की खुली लूट एक
ओर उपनिवेशों में रहने वाली आम जनता की दुर्दशा का हेतु बनती है और वहीं उपनिवेशों
के लिए होने वाली आपसी प्रतिस्पर्धा अंतत: औपनिवेशिक राष्ट्रवादी ताकतों के
पारस्परिक ध्वंस का कारण भी साबित होती है। यही कारण है कि गांधी जी लूट और
प्रतिस्पर्धा पर टिके साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद का कहीं समर्थन नहीं करते
थे।
यह विडम्बना की बात है कि मानव मात्र
को अपना मित्र समझने वाले गांधी से उनके ही देश के कुछ पथभ्रष्ट हिंदुत्ववादी
लोग मात्र इसलिए नफरत करते हैं क्योंकि उनका राष्ट्रवाद धर्म के आधार पर
मुसलमानों को पराया नहीं समझता और समावेशी राष्ट्र निर्माण के लिए मुसलमानों को
भी खुले दिल से गले लगाता है। आज के उन्माद भरे वक्त में यह जानकर नई पीढ़ी को
आश्चर्य हो सकता है कि विभाजन उपरांत भड़की सांप्रदायिक हिंसा के बीच भी गांधी ने
प्रेम और समन्वय का अपना रास्ता नहीं छोड़ा था। गांधी का यह राष्ट्रवाद हिंदुत्ववादी
सांप्रदायिक राजनीति को अपने अस्तित्व के लिए यदि सबसे बड़ा खतरा नज़र आता है,
तो यह अकारण नहीं है। 15 दिसंबर, 1921 के यंग
इंडिया में गांधी ने राष्ट्रवादियों का यह दायित्व बताया कि वे प्यार से अल्पसंख्यकों
का हृदय जीते। आगे वे और स्पष्ट करते हैं कि वे राष्ट्रवाद के नाम पर होने वाली
हिंसा के विरोधी हैं और उनका साफ मानना है कि राष्ट्र को किसी भी समुदाय के प्रति
बहिष्कारवादी रुख नहीं रखना चाहिए अन्यथा हम राष्ट्रवाद के चरित्र को अहिंसक
नहीं रख पायेंगे।[15]
गांधी जी विरोधी राष्ट्र और मत के
सह-अस्तित्व को वैश्विक और राष्ट्रीय विकास के लिए भी अपेक्षित मानते थे क्योंकि
विरोधी को सुनने की सहिष्णुता ही न रहेगी तो पारस्परिक द्वेष हिंसा और अशांति का
कारण बनेगा और हिंसा-अशांति के माहौल में कहीं कोई तरक्की नहीं हो सकती। घृणा
आधारित राष्ट्रवाद को वे मानवता का शत्रु मानते थे। वे उभरते हुए भारत राष्ट्र
से इस घृणा से ऊपर उठने की अपेक्षा करते थे। साथी राष्ट्रों और मनुष्यों से नफरत
करना वे मनुष्यता के नाम पर कलंक बताते थे।
आज के भारत में जिस प्रकार सत्ता
पक्ष विपक्ष को राष्ट्रद्रोही कहकर उसे समूल नष्ट करने की मुहिम चलाए हुए हैं,
वैसे में हमें याद करने की जरूरत है कि गांधी जी विरोधी पक्ष या मत
के लोगों दंडित करने, उन्हें अपराधी मानने की प्रवृत्ति को
राष्ट्र के विकास और प्रगति की दृष्टि से खतरनाक मानते हैं। पहली बात तो सत्ता
पक्ष न तो राष्ट्र का पयार्य होता है और न सत्ता पक्ष से असहमति रखना राष्ट्रद्रोह
की श्रेणी में आता है। दूसरी बात, राष्ट्रद्रोह के नाम पर
हर विरोधी आवाज़ को कुचलना अंतत: राष्ट्र को गृहयुद्ध की स्थिति में धकेल देता
है। राष्ट्र के प्रति अंध आस्था और भक्ति के आवरण में सत्ता पक्ष के अपराधों की
अनदेखी करना या राष्ट्रवाद के नाम पर हाशिये के लोगों की छीनी जा रही रोजी-रोटी
और अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों से आँखें मूँद लेना गांधीवादी राष्ट्रवाद
में निहित प्रेम की मूल अवधारणा के खिलाफ है। गांधी का प्रेम किंतु अंधा नहीं था,
वह विवेक और अविवेक के बीच भेददृष्टि से सम्पन्न था। वे राष्ट्र
के प्रति उस अंध भक्ति के कभी समर्थक न थे जो राष्ट्र की हर बुराई पर चुप्पी साध
लेती हो और राष्ट्र से सवाल न करती हो। उनका राष्ट्रप्रेम सुधारवाद से संचालित था,
वह यथास्थितिवादी न था।
निष्कर्ष:
गांधी जी का राष्ट्रवाद औपनिवेशिक पराधीनता के दौर में विकसित राष्ट्रवाद होने
के बावजूद साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ कहीं अंध विरोध से ग्रसित नहीं है।
सांप्रदायिकता और देश विभाजन के उस दौर में भी वे अपने सपनों के हिंदुस्तान को
धार्मिक कट्टरता से मुक्त रखने के लिए प्रयासरत थे। संविधान में आगे चलकर जिस तरह
हमारे राष्ट्र राज्य को राज्यों के संघ के रूप में देखा गया है,
उसका मूल उत्स भी गांधी जी के राष्ट्रवाद में निहित है। आज के दौर
में हमारा देश नफरत और असहिष्णुता की जिस अंधी सुरंग में जा फंसा है, वहाँ गांधी जी का समावेशी और सहिष्णु राष्ट्रवाद हमें एक रास्ता दिखा
सकता है। लोकतंत्र की मूल आत्मा को भी उनकी राष्ट्र विषयक मूल अवधारणा में हम
प्रतिध्वनित पाते हैं, जहाँ विरोधी आवाज़ों को भी सुनने की
बात वे करते हैं। वास्तव में उनका राष्ट्रवाद यहाँ के बहुसांस्कृतिक समाज और
विविधताओं के बीच से विकसित राष्ट्रवाद है। यह एक धर्म, एक
नस्ल, एक भाषा या एक संस्कृति को भारतीय राष्ट्र का आधार
बनाने का हिमायती नहीं है।
संदर्भ
:
[1]कुमार, शिशुपाल,
जनसत्ता (ऑनलाइन), दिनांक 15 फरवरी,
2022,
लिंक:
https://www.jansatta.com/rajya/mahatma-gandhi-statue-vandalised-in-champaran-motihari-bihar/2043957/
[2]कुमार, अजित,
दैनिक जागरण ऑनलाइन, 17 फरवरी, 2022,
लिंक: https://www.jagran.com/bihar/muzaffarpur-champaran-second-incident-of-desecration-of-mahatma-gandhis-statue-in-bihar-22474289.html
[3]गांधी, मोहनदास
करमचंद, हिंद स्वराज, नवजीवन
मुद्रणालय, अहमदाबाद, 1949, पृष्ठ 41,
https://archive.org/details/hind_swarajya_mk_gandhi_2010/page/n7/mode/2up
[4]गांधी, मोहनदास
करमचंद, ‘गांधी जी का जंतर’, द लास्ट फेज, प्यारे लाल, जिल्द 2, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद, 1958,पृष्ठ 65
[5]गांधी, मोहनदास
करमचंद, महात्मा गांधी कलेक्टेड वर्क्स
(इलेक्ट्रॉनिक बुक),प्रकाशन विभाग, भारत
सरकार, 1999, जिल्द 24, पृष्ठ 416,
लिंक - http://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/collected-works-of-mahatma-gandhi-volume-1-to-98.php
[6]गांधी, मोहनदास
करमचंद, ‘स्वराज क्या है’, हिंद स्वराज,
नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद, 1949, पृष्ठ 29-31
[7]गांधी, मोहनदास
करमचंद, महात्मा गांधी कलेक्टेड वर्क्स
(इलेक्ट्रॉनिक बुक),प्रकाशन विभाग, भारत
सरकार, 1999, जिल्द 30, पृष्ठ
390
[8]गांधी, मोहनदास
करमचंद, अस्पृश्यता और राष्ट्रवाद, महात्मा गांधी कलेक्टेड वर्क्स (इलेक्ट्रॉनिक
बुक),प्रकाशन विभाग, भारत
सरकार, 1999,जिल्द 24, पृष्ठ 89-92
[12]सिंह, अनुपम
कुमार, ऑप इंडिया (ऑनलाइन), दिनांक 13
जनवरी, 2022
लिंक: https://hindi.opindia.com/miscellaneous/indology/mahatma-gandhi-last-fast-55-crore-rupees-to-pakistan-hindu-sikh-refugees-kicked/
[13]स्वदेशी, नरेश
बारिया, मीडिया विजिल (ऑनलाइन), दिनांक
30 जनवरी, 2018
लिंक: https://mediavigil.com/op-ed/document/55-crore-issue-with-pakistan-and-its-relation-with-gandhi-assassination/
[14]गांधी, मोहनदास
करमचंद, राष्ट्रवाद बनाम अंतर्राष्ट्रीयतावाद, महात्मा
गांधी कलेक्टेड वर्क्स (इलेक्ट्रॉनिक बुक),प्रकाशन विभाग, भारत
सरकार, 1999,जिल्द 32, पृष्ठ
11-12
[15]गांधी, मोहनदास करमचंद, महात्मा गांधी कलेक्टेड वर्क्स (इलेक्ट्रॉनिक बुक), प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, 1999,जिल्द 25, पृष्ठ 267
डॉ.
प्रमोद मीणा
आचार्य, हिंदी विभाग, भाषा एवं सामाजिक विज्ञान संकाय
सम्पर्क : pramod.pu.raj@gmail.com, 732092095
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)
प्रासंगिक और विचारणीय लेख के लिए आपका आभार | बेनेडिक्ट एंडरसन का चिंतन भी इस विषय को समझने में सहायक है | गांधी जी का समावेशी और सहिष्णु राष्ट्रवाद, आशंकित और बर्बर होते विश्व के लिए एक वैकल्पिक राह है |
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