शोध आलेख : हिन्दी साहित्य की तकनीकी गुणवत्ता का आंकलन / शुभि जिन्दल व डॉ. मयंक जिन्दल

हिन्दी साहित्य की तकनीकी गुणवत्ता का आंकलन
- शुभि जिन्दल व डॉ. मयंक जिन्दल

शोध सार : तकनीकी साहित्य का सामान्य पर संकीर्ण अर्थ है, इंजीनियरिंग, साइंस इत्यादि से सम्बंधित साहित्य। पर जब साइंस, इंजीनियरिंग, टेक्नोलॉजी ऐसा अलग- अलग कहा जाता है तो टेक्नोलॉजी या प्रविधि से सम्बंधित साहित्य, ऐसा अर्थ हो जाता है, जबकि तकनीकी साहित्य का अब अर्थ विस्तार इन दोनों तीनों ज्ञान क्षेत्रों से परे भी हो गया है। तकनीकी साहित्य वह है, जिसमें किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के प्रयोग की विधि स्पष्ट की गई हो। उदाहरण के तौर पर कम्प्यूटर, मोबाईल फोन आदि के माध्यम से हिन्दी साहित्य का विस्तार करना। तकनीक ने हमें सारी सुख सुविधाएं प्रदान कर संसार में एक नया आयाम प्रदान किया है। कुछ समय पहले तक जिन सुविधाओं की कल्पना भी नहीं की गयी थी, वह उपकरण आज हमारे जीवन के अभिन्न अंग बन गए हैं। आधुनिक उपकरणों विज्ञान की नित्य नयी खोज से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का संचालन तंत्र सरल बना है। हिन्दी भाषा हिन्दी भी इससे अछूते नहीं है।

इस युग में वही भाषा उच्च स्थान लोकप्रियता पाती है, जिसका व्याकरण विज्ञान संगत लिपि कप्यूटर की लिपि हो। इस दृष्टि से विचारणीय है कि क्या हिन्दी भाषा स्वयं को इतना समृद्ध कर पायी है? विदेशी भाषाओं का प्रयोग, इंटरनेट, कम्प्यूटर, लैपटॉप और स्मार्टफोन सभी में आसान सुविधाजनक है। साथ ही विदेश भाषाओं में अथाह सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है। वही दूसरी ओर हिन्दी ने कुछ दशक पूर्व ही यूनिकोड के अस्तित्व में आने के बाद तकनीकी की सहायता से अपनी विस्तार विकास यात्रा प्रारम्भ की है। जो कहाँ तक पहुंची है? इसका मूल्याकंन आवश्यक है।

हिन्दी, विज्ञान के साथ अपनी विस्तार यात्रा से पूर्व टाइपिंग कार्यालयी भाषा तक ही अपनी पहुंच बना पाई थी, लेकिन अब वह इससे निकलकर वैश्विक जगत में विचरण कर रही है और साथ ही वह अपनी विकास यात्रा पर है। विज्ञान तकनीकी विकास के साथ हिन्दी भाषा हिन्दी साहित्य लेखन में भी अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिलते हैं जिसमें -पुस्तकें, ब्लॉग-लेखन, सोशल मीडिया, इंटरनेट इत्यादि द्वारा हिन्दी साहित्य का प्रसार हुआ है। इस प्रचार-प्रसार के साथ ही हिन्दी की संरचनागत विशेषताओं तथा शैली आदि में क्या और कितना परिवर्तन आया है? इसका अध्ययन आवश्यक है। क्या यह परिवर्तन हिन्दी साहित्य के पारंपरिक आलोचना के ढांचे का अनुसरण करता है? या इस युग में जो नए पाठक लेखक तैयार हुए हैं जो अपनी इच्छा रुचि के अनुसार कुछ भी पढ़ लिख सकते हैं? क्या वे केवल साहित्य का बाजारीकरण करके इसके मूल्यों का पतन करते जा रहे हैं?

यह अध्ययन हिन्दी साहित्य का तकनीकी विकास के साथ हिन्दी साहित्य के विकास को  नये मार्ग दर्शाने में उपयोगी है तथा इस अध्ययन से हिन्दी साहित्य का नये तकनीक युग में उपयोगिता को दर्शाया गया है। इस वैज्ञानिक युग में हिन्दी साहित्य के प्रसार माध्यमों में अनेक बदलाव लक्षित हुए हैं, परन्तु प्रारम्भिक रूप से इन सभी माध्यमों का मूल ध्येय अभिव्यक्ति लोकप्रियता की सीमाओं को खोलकर सृजित साहित्य को अधिकाधिक साहित्य प्रेमियों तक पहुंचाना है। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या आज भी हिन्दी साहित्य उतना ही गुणवत्ता परक है जितना इन तकनीकी माध्यमों, कप्यूटर, इंटरनेट, स्मार्टफोन आदि के विकास से पहले हुआ करता था? क्या इस सर्जना में गुणवता का समावेश पहले जैसा ही है? इस शोधपत्र का लक्ष्य कुछ ऐसे ही प्रश्नों पर विचार करते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुँचना है। सभी तकनीकी पक्षो को देखते हुए यही कहना उचित होगा की पुराने प्रतिमानों मूल्यों से नयी रचनाओं का मूल्यांकन या आलोचना संभव नहीं है, अतः नये प्रतिमानों का निर्धारण अपेक्षित है।

बीज शब्द : हिन्दी-साहित्य, गुणवत्ता, तकनीकी, विज्ञान, वैज्ञानिक युग, लिपि, प्रौद्योगिकी, यूनिकोड, कम्प्यूटर, मोबाइल, -पत्रिका, -बुक, रेडियो, टी.वी., इन्टरनेट, मूल्याकंन, पारंपरिक मापदंड, साहित्य का बाजारीकरण, सोशल मीडिया, पाठक की रूचि, ब्लॉग, रचना प्रसिद्धि का आधार, सकारात्मक नकारात्मक प्रभाव इत्यादि।

मूल आलेख : सोशल मीडिया, इंटरनेट, ब्लॉग्स, विकीपीडिया, बेबसाइट्स पर उपलब्ध साहित्य सामग्री, पारंपरिक साहित्य के मापदंड से भिन्न है। इसमें शैलीगत और संरचनागत विषमता है। यह साहित्य सीमा रहित, स्वतंत्र भाषा शैली, स्वतन्त्र विचारधारा, स्वतन्त्र अभिव्यक्ति और स्वतन्त्र संवेदनाओं से युक्त है। इसे व्यवस्थित करने के लिए भाषाविद्, समीक्षक आलोचकों की अत्यन्त आवश्यकता है। इस प्रकार वर्तमान समय की इस पीढ़ी में आलोचना कर्म की स्थिति सही और संतोषजनक नहीं है। हिन्दी पत्रिका परिकथा के संपादक शंकर जी इसे लक्षित करते हुए कहते हैं, हर पीढ़ी अपना आलोचक लेकर आती है। यह बात कभी कही और सुनी गयी है। लेकिन अगर पूरे परिदृश्य पर नजर डाली जाएं, तो यह बात सिर्फ नयी कहानी और नयी कविता के दौर के लिए सच ठहरती दिखती है। बाद की पीढियों के लिए कोई नियमित या व्यवस्थित आलोचना कर्म दिखाई नहीं पड़ता है।"[1]

पारंपरिक मापदंडों को प्रभावित करने वाले तकनीकी पक्ष को प्रिटिंग माध्यम के विकास ने बदल दिया। वाचिक संवाद की परम्परा रेडियो के विकास ने लिखित और मुद्रित माध्यम से अलग अपनी जगह बनाई। फिर टेलीविजन ने पुराने माध्यमों पर अपना प्रभाव कायम किया और आज इंटरनेट के विशाल प्रयोग ने विभिन्न युक्तियों द्वारा हिन्दी साहित्य को बुनियादी ढंग से बदल दिया है। यह कह सकते हैं, “हिन्दी को अब तकनीकी के पंख लग चुके है, जो अब टाइपिंग और कार्यालयी भाषा की दुनिया से निकलकर वैश्विक दुनिया में विचरण कर रही है।[2] नए संप्रेषण माध्यमों की प्रसार क्षमता पुराने माध्यमों से ज्यादा आकर्षक, निजी और शक्तिशाली दिखाई पड़ती है। पहले जहाँ सूचनाओं और जानकारियों को इकट्ठा करने के लिए बहुत मेंहनत करनी पड़ती थी, आज सूचना क्रान्ति के कारण कही से भी, कही भी बैठकर हम सूचना सम्राट बन सकते हैं। पुराने माध्यम एक  ही दिशा में संचारित होते थे, परंतु नये माध्यम अंत: क्रियात्मक है, इनके द्वारा आपसी संवाद सम्भव है। आधुनिक समय में विज्ञान ने साहित्य को कम्प्यूटर, लैपटॉप और अब तो मोबाईल फोन में भी सुलभ प्राय: बना दिया है। आधुनिक समय में गुणवत्ता आंकलन के पारंपरिक मापदंडों तक तकनीकी पक्षों के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बिंदुओ को रखा जा सकता है -

पाठक वर्ग की रुचि रुझान

समय के साथ पाठक वर्ग की इच्छा, रुचि, संवेदना, बौद्धिक स्तर, नजरिया, वैचारिक दृष्टिकोण और रहन - सहन में अन्तर आना स्वाभाविक है। युग परिवर्तन के साथ पाठकों की साहित्यिक अभिरुचि प्रभावित होती है। कुछ समय पहले तक भारत में प्रत्येक आयु वर्ग का व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिए कॉमिक्स पढना पसंद करता था, लेकिन आज के इस तकनीकी युग में किताबें किसी दुकान या अलमारी में धूल खाती मिलती है। ठीक इसी तरह कुछ दशक पहले भी लोग बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन पर अपने खाली समय को व्यतीत करने के लिए पुस्तक या कॉमिक्स खरीद कर पढ़ते दिखाई दे जाते थे। तकनीकी के अभाव में पाठक पहले अपना मनोरंजन साहित्यिक पुस्तकों के माध्यम से करता था, इससे उसमें साहित्य की रूचि समझ विकसित होती थी। लेकिन अब यह बीते जमाने की बात हो गयी। आज के इस युग में धीरे-धीरे सूचना क्रांति के विकास के बाद प्रत्येक आय वर्ग के व्यक्ति की पहुँच टेलिविजन, कंपयूटर, मोबाइल इन्टरनेट तक पहुँच चुकी है। एक शोध समूह की सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, "-बुक मार्किट की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आज उसके खरीदारों की संख्या लगभग 17% तक पहुँच गयी है। इस तरह -बुक्स डाउनलोड करने वालो की संख्या आने वाले समय में 16 मिलियन तक पहुँच सकती है।[3] मनोरंजन के अनेक साधनों का विकास हुआ है। पुस्तकों का स्थान धीरे -धीरे सोशल मीडिया ने ले लिया है। अब सोशल मीडिया ही खाली समय को भरने का आसान माध्यम बन गया है। इसी कारण व्यक्ति में आत्म केन्द्रिता के भाव उपजे है और पाठक के नैतिक सामाजिक मूल्यों में बदलाव आया है। तकनीक की इस दुनिया से उपजी चकाचौंध युवाओं का आकर्षित कर रही है। आज का युवा नैतिक बंधनों पारंपरिक संस्कारों से मुक्त होता जा रहा है। इसी कारण आज के युवाओं को साहित्य भी इसी जीवन शैली से मिलता जुलता पसंद रहा है। कौन-सा साहित्य मूल्यवान है, कौन-सा नहीं, कौन-सा साहित्य हमें विचार करने को मजबूर करता है, कौन-सा नहीं, इसकी फिक्र करने का समय आज के अधिकांश युवा वर्ग के पास नहीं है। आज का युवा वर्ग साहित्यिक किताबें पढ़ने को एक व्यर्थ का कार्य समझने लगा है। आज के इस बदलते समय में लेखक के समक्ष जीवन शैली के अनुरूप साहित्य के बदलाव की मांग खड़ी हो गयी है। साहित्य के बाजारीकरण और प्रचार-प्रसार के बढ़ते प्रतियोगीकरण के कारण लेखक को अपने लेखन को पाठक के समक्ष लाना सबसे पहली चुनौती है। इसके लिए लेखक को तकनीकी प्रसार का सहारा लेना पड़ता है। दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है, तकनीकी प्रसार की अंधी दौड़ में अपने साहित्य को पाठक की रुचि अभिरुचि के अनुकूल बनाना, क्योंकि आज के इस सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर पाठक साहित्य को गुणवत्ता निर्धारण की पारंपरिक कसौटी पर परख कर, पढ़ने का आदि नहीं रह गया है। अब  “जो दिखता है, वही बिकता है”, की धारणा साहित्य का मूल्य निर्धारण कर रही है। पहले समय में साहित्य समाज की चेतना को विकसित करता था। लेकिन अब चेतना के अनुसार, साहित्य में परिवर्तन हो रहा है या साहित्य में परिवर्तन की आवश्यकता ने जन्म ले लिया है। आज के पाठक के पास उसकी अपनी  रुचि समय के अनुसार सामग्री की भरमार है और अनेक अवसर उपलब्ध है।

बाजारीकरण = प्रसिद्धि + प्रसार

पूंजीवादी संस्कृति ने हिन्दी साहित्य की कार्यप्रणाली को अत्यधिक प्रभावित किया है। आज के इस व्यवसायिक होते युग में साहित्य को भी माल की तरह बेचा जा रहा है, जिसे हम आसानी से साहित्य का बाजारीकरणकह सकते हैं। आज के इस सोशल मीडिया के युग में साहित्य को पाठक तक पहुंचाने के लिए मीडिया एक अनिवार्य आवश्यकता बन कर उभरी है। आज के समय में कुछ ऐसे एप्लीकेशन वेबसाइट्स का निर्माण हो चुका है, जिन पर लेखक अपनी रचना का प्रमोशन और ब्राडिंग करते देखे जा सकते हैं। जिसका अर्थ यही है कि अगर लेखक तकनीकी का ज्ञान रखता है, तो वह अपनी कृति या लेखन को साहित्य प्रेमियों तक अधिक से अधिक पहुंचा सकता है। किसी भी पुस्तक का जितना ज्यादा तकनीकी प्रसार होगा, वह पुस्तक पाठकों के बीच में उतना ही अधिक ध्यान आकर्षित करने में सक्षम होगी। इसी कारण रचना / लेखन की गुणवत्ता, मूल्य लोकप्रियता सिद्ध करने का एक आभासी वातावरण मीडिया तैयार करता है।

सोशल मीडिया के द्वारा लेखन के प्रमोशन के उदाहरण दिन प्रतिदिन सामने रहे है। लेखक सत्य व्यास ने अपनी पुस्तक 'दिल्ली दरबार' के प्रचार से हिन्दी किताबों के प्रमोशन के नये तरीकों की शुरुआत की थी।[4] अपनी पुस्तक के प्रचार के लिए सत्य व्यास ने इलस्ट्रेशन की एक सीरीज जारी की, जिसमें उपन्यास के मुख्य और अन्य पात्र अपने संवाद बोलते नजर आते हैं। इस इलस्ट्रेशन वीडियो के यूट्यूब पर अपलोड होने के एक हफ्ते के अन्दर करीब 2000 लोगों ने इसे देखा। आज के इस समय में एक हिन्दी लेखन के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण आकंडा है। प्रचार की इस खोज ने लेखन के मुख्य पात्र को किताब के प्रकाशन से  पहले ही लोगों के हृदय पर विराजित कर दिया। पाठकों ने इस विडियो को अधिक से अधिक शेयर किया।

अग्रेजी साहित्य फिल्मी जगत में इस तरह के प्रमोशन विडियो पहले से होते आए है, परन्तु हिन्दी साहित्य में यह बिल्कुल नया है लेखक दिव्य प्रकाश दुबे ने सन 2012 में अपनी पहली हिन्दी पुस्तक टर्म एंड कंडीशन अप्लाई का प्रमोशन वीडियो जारी किया था। हिन्दी साहित्य जगत में प्रचार का यह एक अनोखा और नया तरीका था, जिससे लेखक को फायदा भी मिला। यह इस प्रकार का पहला वीडियो था। इसके बाद इन्होने एक अन्य पुस्तक 'मुसाफिर कैफे' का एक वीडियो जारी किया जिसने काफी लोकप्रियता अर्जित की। इस प्रकार के वीडियो से पाठक के मन में उस किताब को जल्दी से जल्दी पढ़ने की ललक जिज्ञासा में वृद्धि होना स्वाभाविक है। जिस कारण इस पुस्तक की बिक्री भी प्रभावित हुई। सन 2014 में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पत्रकार व्यंग्यकार नीरज बधवार की किताब हम सब फेक है प्रकाशित हुई। युवा साहित्यकार यतीन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक लता-सुरगाथा का प्रमोशन करने के लिए भी यही रास्ता चुना था। इस तरह के प्रमोशन की श्रेणी में सत्य व्यास की पहली किताब 'बनारस टॉकीज' जनवरी 2015 से आई थी, जो उस समय की सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से एक है। कहानीकार अनु सिंह चौधरी के कहानी संग्रह नीला स्कार्फ' की ऑनलाइन प्री बुकिंग की गयी। यह हिन्दी की पहली किताब थी, जिसकी छपने से पहले ही करीब 2000 कपियाँ बिक गयी थी।[5] अब प्रश्न यह है कि यह लोकप्रियता साहित्यिक मापदंडों पर खरी उतरती है, या नहीं..... जगदीश्वर चतुर्वेदी के अनुसार, "भारतीय समाज में टेलीविजन का विस्तार अनेक समस्याएँ और चुनौतियाँ लेकर आया है। इसकी स्पष्ट समझ और परिप्रेक्ष्य के बिना इस माध्यम के प्रभाव, संस्कृति, कला और समाज के साथ बन रहे रिश्तों को हम सुसंगत और समग्र रूप से नहीं समझ सकते। हिन्दी भाषा विद्धानों ने इस माध्यम के प्रति अज्ञानता, हिकारत और मोह एक ही साथ देखने को मिलता है"[6]

लगभग 100 वर्ष पहले तक भी साहित्यिक कृति/लेखन पर बनने वाले धारावाहिकों में लेखन की गहराई भावों का अभिनय जैसे का तैसा बनाने का प्रयास किया जाता था। जिन पाठकों की पहुँच पुस्तकों तक नहीं थी, उन तक इन साहित्य लेखन को पहुँचाने का कार्य धारावाहिकों ने किया था। परन्तु आज के समय में धारावाहिको के माध्यम से साहित्य की प्रस्तुति का स्वरूप विकृत जान पड़ता है आज के युग में मिर्च मसालेदार काल्पनिक सामग्री के द्वारा साहित्य को परदे पर प्रस्तुत किया जाता है जिसका ध्येय अधिक से अधिक दर्शको को एकत्र करना है। ऐतिहासिक तथ्यों पर लिखे गए साहित्यिक लेखन पर बने धारावाहिकों में तो यह एक प्रचलन बन कर उभरा है। इन ऐतिहासिक तथ्यों में इतनी अधिक मात्रा में काल्पनिक सामग्री जोड़ दी जाती है, जिससे इनका वास्तविक स्वरूप ही उलट जाता है। झांसी की रानी, जोधा अकबर, चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, पेशवा बाजीराव, आदि इसके प्रमाण है। फिल्मों की भी यही स्थित है। हाल ही में लॉन्च हुआआदि पुरुषफिल्म का ट्रेलर इस बात का नया प्रमाण है। फिल्मआदि पुरुषमें रावण, हनुमान जी रामजी को ऐतिहासिक मूल्यों से दूर काल्पनिक युग में दर्शाया गया है।

हिन्दी में फिल्मों को महज एक मनोरंजन का साधन मान लेने की जो अवधारणा बनी हुई है, वह गम्भीर साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन में बाधा बनती है। फिल्मों को एक व्यवसाय मान कर उसमें सैकडों रुपये लगाकर उसी अनुपात में मुनाफा कमाने की जो व्यावसायिक वाध्यताएँ है और उनके चलते जो तमाम तरह के अनुचित समझौते होते हैं, वे उन्हें साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन के लिए प्रेरित भी नहीं कर पाते हैं।[7] इन धारावाहिको के लिए सर्जनशीलता के साथ-साथ पूंजी भी आवश्यक है। इसी कारण निर्देशक अपनी सुविधानुसार साहित्यिक कृति को तोड़ने-मरोड़ने में जरा भी नहीं हिचकते हैं। कुछ साहित्यकारों द्वारा इस परिवर्तन का विरोध भी किया गया। इन साहित्यकारों में एक प्रमुख नाम प्रेमचंद का भी है। जवरीमल पारख के अनुसार, "प्रेमचंद्र के रहते सेवासदन पर बनी फिल्म को लेकर प्रेमचंद्र असंतुष्ट रहे। 'निर्मला' और 'कर्मभूमि' पर बने धारावाहिकों ने प्रेमचंद्र की इन रचनाओं के साथ जो मजाक किया वह शर्मनाक ही कहा जाएंगा।"[8]

आलोचना का बदलता स्वरूप

निर्मल वर्मा ने सत्य की चौथी प्रासंगिकता का जिक्र करते हुए कहा है, "वह हर युग में बने बनाये सत्यों और उत्तरों के पैटर्न को बिगाड़ देती है, भंग कर लेती है, हर विश्वास को शंकालु बना देती है।"[9] आलोचना के स्वरूप को तकनीक के विकास ने शास्त्रीयता और परिष्कृत भाषा के आवरण से अलग कर दिया है और सम्प्रेषणीय व्यवहारिक रूप में दुनिया के समक्ष ला खड़ा किया है। आलोचना के सैद्धांतिक मापदंडों की बात पुरानी हो चुकी है। "आलोचना मूलत: दर्शनार्थ है, उसका काम देखना है। उसका अर्थ भी समग्रता में देखना है। रचना की आलोचना रचना का समग्र साक्षात्कार है, उसका अंतरब्राह्म परिदर्शन है!"[10] आज के समय में साहित्य रचना पारंपरिक ढांचे से मुक्त हो चुकी है। हिन्दी साहित्य पर भूमंडलीकरण का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। आलोचना के सैद्धांतिक मापदंडों की बात आज पीछे रह गयी है। आज के आलोचक का ध्यान केवल रचनाशीलता पर है। इस बदलती हुई विचारधारा और मिक्स भाषा से साहित्य में अनेक बदलाव आते जा रहे है। आज के इस नवीन परिदृश्य में तकनीक की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

            हाल ही के कुछ वर्षो में एक हवा बन रही है कि जीवन में कई नये सच गए है, जीवन की प्राथमिकताएं बदल गयी है, जीवन के प्रश्न बदल गए है, चरित्रों के स्वरूप बदल गए है, रचना कार्य के तकाजे बदल गए है, इसलिए आलोचना के अब तक के प्रतिमान और औजार पुराने पड़ गए है और जरूरत है कि आलोचना के नये प्रतिमान और औजार हो।[11] सभी पारिवेशिक परिस्थितियों को देखते हुए रचना की सम्पूर्णता का कार्य अब दिखलाई नहीं पड़ता। सतही 'पुस्तक समीक्षाएं' ही आलोचना का पर्याय बन गयी है। यह भी सत्य है कि पुराने प्रतिमानों से नयी रचना का मूल्यांकन कार्य पूर्णतः संभव नहीं है, परन्तु नये प्रतिमानों का निर्धारण भी अपेक्षित है। हडसन के अनुसार, "साहित्य युग युगान्तरों से किसी भी समाज के मन और चरित्र के क्रमिक विकास का चित्र है।"[12] साहित्य के पारंपरिक मूल्यों की रक्षा के साथ-साथ नये प्रतिमानों को विकासत करने वाले गंभीर और स्तरीय आलोचकों का होना चिंता का विषय है। भाषा के बंधनों से मुक्ति के बाद किसान, दलित, पिछड़े, आदिवासी, स्त्री आदि सभी की अनछुई और महत्त्वपूर्ण शब्दावली को आश्रय मिला, जिससे अभिव्यक्ति की आजादी मिली। लेकिन दूसरी ओर सोशल मीडिया पर बिखरे साहित्य ने भाषाई प्रतिमानों में अस्थिरता लाने का कार्य किया। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर डलने वाली लेखन सामग्री प्रकाशन से पूर्व किसी भी आलोचनात्मक स्तर से नहीं गुजरती है। इसलिए हमें आज के युग की लेखन सामग्री में पहले जैसा उद्देश्यपूर्ण और सैद्धांतिक स्वरूप नहीं मिलता। आज के युग में विचारधारा शब्द को सीमित ज्ञान का प्रतीक माना जाने लगा है। सिद्धांतों से कृति की परख संभव हो जाती थी, आलोचक भी निश्चित विचारधाराओं से प्रेरित होकर आलोचना कर्म करते थे। पारंपरिक मूल्यों स्तरीय आलोचकों का होना हिन्दी साहित्य के विकास गुणवत्ता में बाधा है।

निष्कर्ष : विज्ञान, तकनीक पूँजीवादी संस्कृति के प्रभाव के साथ उत्पन्न बाजारीकरण, -बुक मार्किट की मांग और वैश्वीकरण के जाल ने साहित्यकार को भी अपने मोह पाश में बाँध लिया है। इसका प्रभाव साहित्य में भी परिलक्षित होता है। आज के इस तकनीकी युग में यूट्यूब, इन्स्ट्राग्राम, फेसबुक, रेटिंग, रिव्यू, लाइक, शेयर आदि से साहित्य और साहित्यकार की प्रसिद्धि प्रचार का निर्णय होता है जिससे आज का युवा इस चकाचौंध की तरफ आकर्षित होता है। इससे गुणवत्ता निर्धारण महत्त्वपूर्ण विषय रहकर वह रूचि की धारणा पर चलता है। साहित्य को पाठक की रूचि के अनुरूप बनाना साहित्यकार की मजबूरी बन गयी है। तकनीक के प्रसार ने हिन्दी हिन्दी साहित्य को उन ऊंचाइयों पर तो पहुँचाया है जहाँ उसे होना चाहिए, लेकिन साथ ही उसकी गुणवत्ता में कमी भी इसी कारण आई है। आज का पाठक घर बैठे स्मार्ट फोन पर एक लाइक, एक शेयर, एक कमेंट और एक फीड बैक से साहित्य साहित्यकार की प्रसिद्धि का फैसला करता है। साहित्यिक रचना पारंपरिक ढाँचे से मुक्त हो, अब एक नये सफर की ओर अग्रसर हो चली है जिस पर चलना लेखक की इच्छा कम मजबूरी ज्यादा प्रतीत होती है। कहते हैं कि तकनीक का इस्तेमाल सकारात्मक नकारात्मक तरह से प्रयोग करना प्रयोगकर्ता पर निर्भर करता है। तकनीकी ने भाषा हिन्दी साहित्य को पाठकों तक विविध रूपों में पहुंचाया है। हिन्दी अन्य भाषा के तमाम साहित्य साहित्यकारों से हमारा संपर्क स्थापित करने में तकनीक का अहम योगदान है। सभी तकनीकी पक्षो को देखते हुए यही कहना उचित होगा की पुराने प्रतिमानों मूल्यों, से नयी रचनाओं का मूल्यांकन या आलोचना संभव नहीं है, अतः नये प्रतिमानों का निर्धारण अपेक्षित है। साहित्य के प्रचार-प्रसार का माध्यम चाहे जो हो उसकी गुणवत्ता को बनाये रखना साहित्यकारों साहित्य प्रेमियों का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए।

सन्दर्भ :
[1.] शंकर, सड़क पर मोमबत्तियाँ (परिकथा सम्पादकीय टिप्पणियां), अनुजा बुक्स, नई दिल्ली,  2020, पृ. 27
[2.] संजय सिंह बघेल, हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली,  2020, पृ.117
[3.] शेर सिंह विष्ट, समीक्षा की कसौटी पर, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2018, पृ.203
 [4.] अंजली मिश्रा, हिन्दी के नये लेखक सिर्फ लिखना ही नहीं लिखकर बेचना भी जानते हैं, (27 दिसम्बर, 2016) https:// Satyagrah. Scroll. in/article/103631/new-writers-in-Hindi-not - only- Knows-writing -but-Selling-it-too
[5.] https://www.ShethePeople.tv/Filmtheatreanu-singh-Choudhary-alma-Matters-insidethe-iit-dream-netflix-aarya-writer/
[6.] जगदीशवर चतुर्वेदी, जनमाध्यम प्रौद्योगिकी और विचारधारा, अनामिका प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ.150
[7.] नरेन्द्र नागदेव, विमर्श : साहित्य और सिनेमा के अंतरसंबंध, (13 जनवरी, 2019) https://www.jansatta.com/Sunday-magazine/discussions-article-about interpretation-ofliterature-and-Cinema/878993/
[8.] जवरीमल्ल पारख, लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, अनामिका प्रकाशन, नई दिल्ली, 2001, पृ.207
[9.] मैनेजर पाण्डेय, आलोचना की सामाजिकता, वाणी प्रकाशन, 'नयी दिल्लीदूसरा संस्करण 2008, पृ.290
[10.] धनजय वर्मा, आलोचना का अन्तरंग, आलेख प्रकाशन, शहादरा दिल्ली, दूसरा संस्करण 2008, पृ.213
[11.] शकंर, सडक पर मोमबत्तियां, (परिकथा सम्पादकीय टिप्पणीयां), अनुज्ञा बुक्स, नयी दिल्ली, 2020, पृ.26
[12.] करुणा शर्मा, लक्ष्मी नारायण लाल का नाट्य-साहित्य, सामाजिक दृष्टि, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2002 पृ.32

शुभि जिन्दल
हिन्दी शोधार्थी (एम.एड अध्ययनरत)
सी.सी.एस यूनिवर्सिटी मेरठ
सम्पर्क : shubhijindal722@gmail.com
 
डॉ. मयंक जिन्दल
असिस्टेंट प्रोफेसर, छत्रपति साहु जी महाराज यूनिवर्सिटी, कानपुर

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

1 टिप्पणियाँ

  1. आलेख हिंदी लेखकों को तकनीक से जोड़ने के लिए प्रेरित करता है। नए दृष्टिकोण को साझा किया है जो एक सकारात्मक पहल है।

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