(प्रस्तुत साक्षात्कार प्रख्यात लेखिका
रोहिणी अग्रवाल ने दिया है। रोहिणी अग्रवाल ने पिछले तीन दशकों से हिंदी-रचनाशीलता
को एक सार्थक और हस्तक्षेपकारी गति दी है। उनका लेखकीय विस्तार आलोचना से स्त्री विमर्श
तक; कहानी से कविता तक और संपादन से लेकर निबंध तक फैला है। एक दर्जन से
अधिक पुस्तकों की इस सृजनकार ने हिंदी आलोचना के पाठ को एक संवेदनात्मक सौंदर्य
सौंपा है। समकालीन बहसों में उनकी उपस्थिति मानीखेज है। रोहिणी अग्रवाल से यह
साक्षात्कार लिया है युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र ने। शशिभूषण मिश्र ने पिछले एक दशक
में अपनी लेखकीय उपस्थिति से हिंदी की कथा-आलोचना में एक संभावनाशील पहचान बनाई है।
वर्तमान में वह लमही पत्रिका के कविता आधारित अंकों का अतिथि संपादन कर रहे हैं और
बांदा स्थित राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी के सहायक प्रोफेसर
हैं।)
शशिभूषण मिश्र : ‘स्त्री लेखन’ के स्वप्नों और संकल्पों की दुनिया का ‘कहानी में प्रस्तुत स्वप्नों और संकल्पों की दुनियां’ से क्या रिश्ता है ? बुनियादी स्तर पर एक जैसे दिखने वाले इन दोनों बिन्दुओं में मुख्य फ़र्क क्या है ?
रोहिणी
अग्रवाल :
(मुस्कुराते हुए)
मुझे
अनायास
अपनी
पुस्तक
का
शीर्षक
याद
हो
आया
है
- ‘स्त्री
लेखन
: स्वप्न और संकल्प’।
दाद
देती
हूं
कि
बेहद
मानीखेज
सवाल
उठाते
हुए
आपने
इस
शीर्षक
का
इतना
रचनात्मक
उपयोग
किया।
कह
सकते
हैं
कि
बहुत
दूर
तक
साथ
चलने
के
बाद
दोनों
‘स्त्री
लेखन’ और ‘कहानी
की
स्त्री
दुनिया’ अपना अंतिम
पड़ाव
अकेले:अकेले
पार
करते
हैं।
‘स्त्री लेखन’ के सरोकार जिस तरह समाज की सांस्कृतिक:राजनीतिक:आर्थिक-सामाजिक व्यवस्थाओं और शास्त्र-विधानों से टकराकर अपनी परिधि का विस्तार करते हैं, उसी प्रकार अभिव्यक्ति के लिए उसके सामने साहित्य की हर विधा के द्वार खुले हैं। उल्लेखनीय है कि विमर्शवादी ठोस स्त्री-लेखन निबंध एवं आलोचना विधा में अधिक प्रभावशाली ढंग से हो रहा है क्योंकि आज सबसे बड़ी ज़रूरत स्त्री-विमर्श की सैद्धांतिकी को भारतीय परिप्रेक्ष्य में निर्मित करना है। इसके अलावा इन दिनों आत्मकथात्मक लेखन पितृसत्ता और समाज के साथ स्त्री क़े बदलते संबंधों का प्रामाणिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है तो कविताओं की तरलता में ओज और आग भरने लगता है। पितृसत्ता एवं अन्य संस्थाओं/सत्ताओं/ शास्त्रों से स्त्री की लड़ाई ‘संपूर्ण मनुष्य’ का गौरवमय दर्जा पाने के उन्नत स्वप्न से बँधी है जिसे दिवास्वप्न की तरह खामख्याली में जीने की बजाए वह संघर्ष और जिजीविषा की आँच पर पकाई संकल्पदृढ़ता के सहारे ठोस यथार्थ में तब्दील कर लेना चाहती है। स्त्री लेखन की स्वप्नशील संकल्पदृढ़ता लैंगिक पूर्वाग्रहों से मुक्त जेंडर-निरपेक्ष मनुष्य-समाज की रचना करना है जहाँ न कोई विषमतामूलक पदानुक्रम हो, और न हीन-श्रेष्ठ का विभाजन। स्वप्न की संघर्षशील संकल्पदृढ़ता यूटोपिया को यथार्थ बना ही डालती है, अंतत:।
शशिभूषण
मिश्र : आपने
आलोचना
की
भाषा
ही
नहीं
उसके
आलोचनात्मक
पाठ
को
भी
बदला
है।
एक
स्त्री
के
रूप
में
आप
इन
बदलावों
को
किस
तरह
विश्लेषित
करना
चाहेंगी
?
रोहिणी
अग्रवाल : खासा
गंभीर
सवाल
है
यह
शशि
भूषण
जी, और चुनौतीपूर्ण
भी।
अपने
आप
को
आलोचनात्मक
दृष्टि
से
देखना
बेहद
जटिल
काम
है।
अपनी
रचना-प्रक्रिया
का
विश्लेषण
करते
हुए
मैं
आपके
इस
सवाल
का
जवाब
देने
की
कोशिश
करूंगी।
एक
स्त्री
के
रूप
में
मैंने
सदा
स्वयं
को
द्वंद्वात्मक
स्थिति
में
पाया
है।
शिक्षा
एवं
पोथीबंद
ज्ञान
ने
स्त्री, समाज, संबंध और
बहिर्जगत
को
समझने
की
जो
पारंपरिक
दृष्टि
दी, वह सदा
मेरे
निजी
अनुभवों
से
अलग
रही;
उन
निजी
अनुभवों
से
जिन्हें
स्त्री-नियति
के
साथ
रोजमर्रा
की
जिंदगी
जीते
हुए
मैंने
परिवार-समाज
के
संदर्भ
में
स्वयं
कमाया।
जिस
स्त्री
को
मैंने
पग-पग
पर
शारीरिक-मानसिक
हिंसा
का
शिकार
होते
देखा
हो, जिसे कभी
डिसीजन
मेकिंग
में
शामिल
होते
नहीं
देखा
हो, जिसके अधिकारों
को
एक
निर्लज्ज
दबंगई
के
साथ
परिवार
के
ही
अन्य
सदस्यों
द्वारा
छीने
जाते
देखा
हो, जिसे शिक्षा, स्वाभिमान, पारिवारिक संपत्ति
और
गतिशीलता
के
बुनियादी
अधिकार
से
वंचित
होते
देखा
हो, ऐसी कंठस्थ करा
दी
गई
महिमामंडित
गाथाओं
के
मोहक-जाल
में
फंसी
स्त्री
को
कैसे भूल
जाऊं
? आंख
मूंदकर
इंद्रधनुष
रंगने
वालों
की
जमात
में
मैं
कैसे
शामिल
हो
जाऊं, जब ठीक
उसी
वक्त
मुझे
आसमान
में
काला
घटाटोप
अंधेरा
दिखाई
दे
रहा
हो? मैं अपने
हिस्से
की
नजर
को
अपने
वजूद
से
जुदा
कर
दूंगी
तो
पिंजरे
में
बंद
तोते
की
तरह
वही
सब
कुछ
बोलने
लगूंगी
जो
सदियों
से
दोहराया
जाता
रहा
है।
मैं किसी कथाकृति के स्त्री-चरित्र को किसी विराट शून्य में नहीं देखती, उसके चारों ओर सलीके से बुनी गई चुप्पियों के निर्वात में छुपी सामाजिक हलचलों और लेखक की ‘उपस्थिति’ को पकड़ने की कोशिश करती हूं। परंपरा का पिष्टपेषण आगे बढ़ना नहीं है। लेखक बुनियादी तौर पर विद्रोही नहीं होगा तो रूढ़ियों और विद्रूपताओं की शिनाख्त नहीं कर पाएगा। शिनाख्त कर भी ले, तो दो-दो हाथ कर उन्हें विस्थापित करने हेतु नई निर्मितियों की तलाश में बेचैन नहीं होगा। लेखक की बेचैनी व्यवस्था के साथ उसकी जंग की कहानी है। पूर्वाग्रहों से और बंद-बंधी सोच से स्वयं मुक्त हुए बिना वह मुक्ति का ड्राफ्ट नहीं रच सकता। मुक्ति का पहला लक्षण है - उसकी थिरकन की चहुं ओर निर्बंध व्याप्ति ! लेखक मुक्त होगा तो परंपरा और शास्त्र, सांचों और सिद्धांतों के दबाव हटते ही वह भी थिरकने लगेगा - कभी भाषा के संग नई हिलोर लेकर, कभी ढकी राख की चिंगारियों से विचार के नए अलाव लहकाकर। बदलाव क्रांति नहीं लाते; क्रांति को जड़ता के घेरे से मुक्त करने की वक्ती कोशिशें होती हैं जिन्हें पड़ाव दर पड़ाव आगे ले जाने का दायित्व ही लेखन-परंपरा की सृजनशीलता है।
शशिभूषण
मिश्र - एक
स्त्री
और
एक
पुरुष
की
रचना
दृष्टि
में
क्या
कोई
बुनियादी
फर्क
होता
है
! और अगर कोई
बुनियादी
फर्क
नहीं
होता
तो
बहुत
बारीक
सा
फर्क
तो
जरूर
होगा
! इस संदर्भ में
आपका
क्या
मानना
है
?
रोहिणी
अग्रवाल : (हंसते
हुए)
आज
के
अतिसंवेदनशील
दौर
में
पॉलिटिकली
करेक्ट
होना
हम
सब
की
जरूरत
हो
गया
है।
इसलिए
स्त्री-पुरुष
की
दृष्टि
में
पाए
जाने
वाले
बुनियादी
फर्क
को
स्वीकारते
हुए
भी
हम
इसे
बारीक
फर्क
मान
कर
काम
चला
लेते
हैं।
यहां
मैं
दो
बातें
कहना
चाहूंगी।
एक, मैं इस
स्टेटमेंट
में
विश्वास
नहीं
रखती
कि
सभी
पुरुष
अनिवार्य
रूप
से
स्त्री-विरोधी
या
पितृसत्तात्मक
होते
हैं; और कि
सभी
स्त्रियां
अनिवार्य
रूप
से
पितृसत्ता
की
शिकार
‘बेचारी’ और ‘भली’ होती हैं।
दरअसल
यह
स्वीपिंग
स्टेटमेंट
है
जो
लैंगिक
पूर्वाग्रहों
को
पुख्ता
कर
के
स्त्री-पुरुष
की
मानवीय
गरिमा
के
लिए
लड़ी
जाने
वाली
लड़ाई
को
डाइल्यूट
करती
है।
दूसरी बात, प्रत्येक व्यक्ति
अपने
परिवेश
की
उपज
होता
है, लेकिन अपनी
विशिष्ट
मानवीय
अस्मिता
वह
तभी
पाता
है
जब
परिवेशगत
दबावों
और
संकीर्णताओं
का
अतिक्रमण
कर
वह
आत्मकेंद्रित
आत्ममुग्धता
को
सहानुभूति
में
नहीं, समानुभूति (एंपैथी)
में
उदात्तीकृत
कर
ले।
सहानुभूति
के
गुणों
का
साहित्य
की
सीमाओं
में
खासा
कीर्तन-अर्चन
किया
जाता
रहा
है, लेकिन दरअसल
यह
विशिष्टता
और
वर्चस्व
की
दंभपूर्ण
स्थिति
का
विनम्र
प्रदर्शन
ही
है।
लेखन
में
यथार्थ
के
समानांतर
कल्पना
का
योगदान
कितना
ही
क्यों
न
हो, वह पारदर्शी
जल
की
तरह
लेखक
की
अंतःवृत्तियों
को
रचना
में
ज्यों
का
त्यों
उघाड़
देता
है।
बस,पकड़ने वाली
नजर
हो
पाठक-आलोचक
के
पास।
बंग महिला, चंद्रकिरण सौनरेक्सा, उषा देवी मित्रा आदि से होते हुए मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, और सत्तर के दशक की शशि प्रभा शास्त्री, दीप्ति खंडेलवाल, मालती जोशी, कुसुम अंसल, सूर्यबाला, मेहरुन्निसा परवेज आदि स्त्री के पक्ष में लिखने का दावा करते हुए भी उनके आंसुओं, बेबसी, अतिरेकपूर्ण विद्रोह या प्रतिशोध का ही महिमामंडन करती हैं जो प्रकारांतर से पितृसत्ता के हाथ मजबूत करते हैं। पाठ की अंतिम टेक में जो रचना स्त्री की मानवीय अस्मिता और गरिमा की रक्षा न कर उसे पुरुष के संदर्भ में समझी जाने वाली इकाई होने का बोध दे, वह स्त्री-पक्ष की रचना नहीं कही जा सकती, उसका लेखन स्त्री ने किया हो या पुरुष ने। जिस तरह लिंग की दृष्टि से स्त्री होना कहानी में स्त्री-सरोकारों की सकारात्मक अभिव्यक्ति की गारंटी नहीं, उसी प्रकार हर पुरुष रचनाकार का स्त्री के प्रति असंवेदनशील होना भी भ्रामक धारणा है। बंकिमचंद्र और शरतचंद्र चटर्जी के दौर में रवींद्रनाथ टैगोर का लेखन अपने समय की तमाम जड़ताओं को तोड़कर स्त्री को ‘मनुष्य’ का दर्जा देने की वैचारिक लड़ाई है। ठीक उसी तरह जैसे जैनेंद्र द्वारा रचे गए ‘स्त्री संवेदी’ रचनाकार होने का कुहासा छांट कर अज्ञेय सही मायनों में स्त्री-मानस और पितृसत्ता की भीतरी तहों में प्रवेश कर जाते हैं, जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी परिधि पर ही सहानुभूति की जादुई छड़ी हाथ में लिए उछल-कूद करते रह जाते हैं; और यशपाल अपनी बेलौस प्रखरता और संसाधनविहीन सादगी के साथ स्त्री से संवाद करने लगते हैं। यह ठीक वही प्रवृत्ति है जो आज के कथा-साहित्य में तरुण भटनागर, अमित ओहलाण, शिवेंद्र में ओज भरी रचनात्मक चुप्पियों के साथ दिखाई देती है।
चूँकि स्त्री के पास अमूमन ‘मैं’ का अतिरिक्त दंभ और भार नहीं होता, इसलिए ‘मैं’ को छोड़कर वह निर्भार होना भी जानती है, और दूसरे के ‘मैं’ में अपना अक्स देख उस ‘मैं’ का विस्तार करना भी जानती है। मातृत्व के जैविक गुण ने उसे इतना लचीला बनाया है। यही गुण सहानुभूति को समानुभूति में बदलता है। इसलिए मैं कहना चाहूंगी कि जब पुरुष में स्त्री का यह गुण आ जाता है तब वह महात्मा बने या न बने, अपने प्रखर चिंतन की लौ जगाकर ऊंचे दर्जे का दार्शनिक या क्रांतिकारी या चिंतक जरूर बन सकता है। लेकिन स्त्री यदि अपनी इस सहजात गुणवत्ता में विश्लेषण, आलोचनात्मक मूल्यांकन और निर्भीक ईमानदारी का अतिरिक्त गुण न गूंथे तो परंपरा के निर्वहन की कमजोर कड़ी भी बन सकती है; और सीता-द्रौपदी की तरह अपने विद्रोह की फुंफकार के साथ स्वयं को जमींदोज करते हुए व्यवस्था को ही पुष्ट कर सकती है। चिंतन-प्रवर बौद्धिकता में संवेदनशीलता का गुण जुड़े बिना स्त्री एवं पुरुष दोनों का लेखन अपने-अपने अर्धवृत्तों की परिक्रमा ही है।
शशिभूषण
मिश्र : आपने
कृष्णा
सोबती
पर
भी
लिखा
है।
उनके
लेखन
में
आप
कौन
सी
विशेषताएं
देखती
हैं
? उन्होंने
किन
स्तरों
पर
अपने
समय
के
स्त्री-लेखन
की
सीमाओं
का
अतिक्रमण
किया
!
रोहिणी अग्रवाल : कृष्णा सोबती के लेखन को विशिष्ट बनाती है उनकी चमकदार भाषा और लच्छेदार अभिव्यक्ति; मानो शब्द नहीं, मोती जड़ दिए हों, और चरित्र नहीं, सोने की मूर्तियां गढ़ दी गई हों। अभिव्यक्ति ऐसी कि कहीं प्रखर वेग से भागती नदी की तरह अपने साथ बहा ले जाए; कहीं ऊंचाई से क्षिप्र गति से गिरते झरने की तरह सम्मोहित कर दे। उनकी कृतियों के पहले पाठ में लगता है कि वे लीक से हटकर कुछ नया कह रही हैं - कहानियों में नहीं, उपन्यासों या लंबी कहानियों/ लघु उपन्यासों में। उनकी कहानियां दरअसल उनके लेखन के प्रारंभिक काल की रचनाएं हैं - हाथ आजमाने/प्रैक्टिस का अखाड़ा जहां भावविह्वलता है, चमत्कार है, परिवर्तन है और पच्चीकारी का धूम धड़ाका है। कृष्णा सोबती भावनाओं के संग बहती नहीं, किनारे बैठ भावनाओं को अपनी उंगली के इशारे पर नचाती हैं। इसलिए ‘मित्रो मरजानी‘ में स्त्री के काम-सुख/अधिकार की बात करते-करते वे यूटर्न लेकर विवाह संस्था की नैतिक आचार-संहिता के भीतर नायिका का विजयी मुद्रा में ठसकेदार प्रवेश करा देती हैं; ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ में बलात्कार के विरोध में स्त्री-स्वर बुलंद करते-करते वह यौन-फ्रिजिड नायिका रत्ती के ऑर्गेज्म और शहादत का महिमामंडन करने लगती हैं; ‘ऐ लड़की’ में अम्मू स्मृतिजीवी आत्मकेंद्रित आत्ममुग्ध स्त्री का रूप धरने लगती है जो पुत्री का उद्बोधन करते-करते कहीं उसे पितृसत्ता की लक्ष्मण रेखाओं में भी बांध लेना चाहती है। ठीक यही बात ‘दिलो दानिश’ के लिए भी कही जा सकती है जहां कुटुंबप्यारी, महक बानो, छन्ने बुआ जैसी यादगार स्त्रियां तो हैं, पर उनके विद्रोह, संघर्ष या कुट्टनीपन में पितृसत्ता का अतिक्रमण करके वैचारिक इकाई के रूप में उभरने का जज्बा नहीं। आप कह सकते हैं, इतना कठोर मूल्यांकन अपनी पूर्वजों के प्रति अन्याय करना है; कि वह स्त्री-विमर्श का युग नहीं था। अत: आज की अपेक्षाओं के साथ पुराने रचनाकारों के पास नहीं जाना चाहिए। लेकिन जब मैं रवींद्रनाथ टैगोर या यशपाल या उग्र या अज्ञेय के पास स्त्री को मनुष्य समझने की वैचारिक प्रौढ़ता और मनुष्यता पा सकती हूं तो क्यों अपनी अपेक्षाओं का दायरा न बढ़ाऊं?
शशिभूषण
मिश्र : कहानी
की
स्त्री-दृष्टि
की
बात
तो
बहुत
होती
है
पर
मैं
आपसे
यह
जानना
चाहता
हूं
कि
‘आलोचक की
स्त्री
दृष्टि’
के क्या
मायने
हैं
? आलोचना
में
यह
दृष्टि
कैसे
काम
करती
है
?
रोहिणी अग्रवाल : एक आलोचक की स्त्री-दृष्टि कहानीकार से भिन्न कई स्तरों पर निरंतर विश्लेषणशील एवं सृजनशील बनी रहती है। उसे रचना के विषय के अनुरूप एक स्वायत्त, सजग, नागरिक चेतना के साथ अपने समय की शिनाख्त भी करनी है, और समय को बनाने वाली समकालीन-ऐतिहासिक स्थितियों-मनोग्रंथियों की पड़ताल भी करनी है। एक विकसित भावबोध और परिपक्व वैचारिक चेतना आलोचक को सामान्य पाठक से भिन्न करती है जिसका लक्ष्य महज कृति का रसास्वादन नहीं है, बल्कि कृति एवं समय दोनों को एक परिप्रेक्ष्य देना भी है। आलोचक की स्त्री-दृष्टि स्त्री की पराधीनता का शास्त्र रचने वाली तमाम संस्थाओं, ग्रंथों और सांस्कृतिक संस्थाओं से टकराते हुए स्त्री व पुरुष दोनों को जब पितृसत्ता के गुलाम की हैसियत में पाती है तो दोनों की मुक्ति हेतु समान रूप से सक्रिय होती है। उसका व्यापक गहन भावबोध उसकी अपेक्षाओं का दायरा बढ़ाता है, साथ ही उसके दायित्वबोध का भी। इसलिए कृति में निष्क्रिय सहानुभूतिवर्षण और समानुभूति के स्तर पर संवेदनात्मक उन्नयन का बारीक फर्क उसे समझना होता है। यह बारीक फर्क दरअसल लेखक की भीतरी मनोग्रंथियों पर उसकी पकड़ को भी दर्शाता है, क्योंकि लेखक शून्य से उपजने वाली यूटोरियन इकाई नहीं, वह इसी समाज और समय की टकराहट से बनी एक वैचारिक-संवेदनात्मक ऊर्जा है जिसके निजी सपने-अंतर्दृष्टि हैं,तो अपनी सीमाएं-संकीर्णताएं भी। लेखन इन्हीं सीमाओं और सपनों के बीच फंसाव और अतिक्रमण की जद्दोजहद का परिणाम है। इसलिए स्त्री-दृष्टि से साहित्यिक कृतियों का पाठ करते समय न केवल पुरुष रचनाकारों की परंपरापोषित स्त्री-द्वेषी दृष्टि प्रत्यक्ष होती है, बल्कि स्त्री रचनाकार भी स्त्री को दोयम दर्जे की प्राणी माने जाने के संस्कार से ग्रस्त दिखाई देती हैं। फलत: पुरुष निर्भरता उनकी नायिकाओं की तमाम जद्दोजहद को व्यर्थ साबित कर देती है। यहां मैं यह भी कहना चाहूंगी कि आलोचक जज नहीं है कि दूसरों का मूल्यांकन-विश्लेषण करता फिरे। कृति एवं समय के विश्लेषण की प्रक्रिया के दौरान चूंकि वह स्वयं अपनी सीमाओं और संभावनाओं की चौहद्दियों के बीच चहलकदमी करता है, अत: आलोचना-कर्म यानी सृजन के दौरान उसकी दृष्टिगत सीमाएं और बोधपरक संभावनाए स्पष्टतर होती चलती हैं। एक अच्छी आलोचना न केवल समय का सघन पाठ है, वह कृति के जरिए कृतिकार और उसके समाज के मनोविज्ञान का भी पुनराविष्कार करती है, और स्वयं एक वैचारिक इकाई के रूप में अपने को आगामी पीढ़ी के मूल्यांकन हेतु प्रस्तुत करती है।
शशिभूषण
मिश्र :
आपने
न
सिर्फ
‘आलोचना के पाठ’
को
नयी
भंगिमा
दी
है
बल्कि
कहानी
आलोचना
की
भाषा
को
एक
सृजनात्मक
पहचान
दी
है।
एक
‘स्त्री के रूप
में’
आप
समकालीन
कथा
आलोचना
के
परिदृश्य
को
किस
तरह
देखती
हैं ?
रोहिणी अग्रवाल : समकालीन कथालोचना का स्त्री-परिदृश्य जितनी संभावनाओं से भरपूर है, उतना ही चुनौतीपूर्ण भी है। समाज की विभिन्न संस्थाओं और क्षेत्रों की भांति साहित्य भी स्त्री की उपेक्षा करता चला आया है। सदियों से। स्त्री का मनमाना चित्रण ! और स्त्री को लेकर रूढ़ विकृत छवियों का निर्माण ! स्त्री बेशक नकारती रहे उन रूढ़ विकृत छवियों को, लेकिन दुराग्रह इतने प्रबल कि सामने दीख पड़ते सत्य के बावजूद उन्हीं का वानरी मोह ! इसीलिए सृजनात्मक लेखन से भी ज्यादा जोखिम का काम है विचारात्मक-आलोचनात्मक लेखन जो पूर्वाग्रहों की शिनाख्त करके उनसे टकराने का माद्दा भी रखता हो और अकेले अपने दम जंग लड़ने का जज्बा भी पालता हो। विश्व की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में स्त्री सॉफ्ट टारगेट है और सॉफ्ट स्किल्स के साथ जोड़कर उसे एक स्वायत्त क्षेत्र भी दिया गया है ताकि घर की चारदीवारी की तरह उसे भी अपनी परिधि मान कर वह वहीं अपना हुनर-आकांक्षाएं व्यक्त करके व्यस्त रह सके। इसलिए सृजनात्मक साहित्य की स्त्री रचनाकारों से साहित्यिक जगत के(पुरुष) पुरोधाओं को परहेज नहीं। अलबत्ता बुद्धि-विश्लेषण-तर्क प्रधान क्षेत्र में कदम रखने वाली स्त्री की उपस्थिति से वह बौखला उठता है, याज्ञवल्क्य की भांति। स्त्री की निर्भीक हुंकार, तर्काश्रित विश्लेषण-क्षमता और परंपरा का नकार उसे आज भी स्वीकार्य नहीं। स्त्री-लेखन चूंकि परंपरा को प्रश्नचिन्हित करने की साधना है, अत: स्त्री आलोचक को आग के दरिया में सिर पर कफन बांध कर कूदना है। साहित्य पुरोधाओं से स्वीकृति, सराहना और समर्थन की आकांक्षाएं उसे बहेलिए के उसी अदृश्य जाल में कैद कर देंगी जिस की पकड़ से छूटने के लिए उसने कलम उठाई है। मौजूदा दौर में कुछ स्त्री आलोचक शिद्दत से आलोचना-कर्म में लगी हुई हैं। लेकिन आलोचना-कर्म देगची में पकता भात नहीं कि एक दाना देखकर तुरंत किसी निर्णय पर पहुंचा जा सके।
शशिभूषण
मिश्र : जितनी
मेहनत
आलोचक
करता
है
क्या
उसका
परिणाम
उसे
कभी
मिल
पाता
है
! आज लेखकों को
सबसे
अधिक
शिकायत
आलोचना
से
ही
क्यों
है
?
रोहिणी अग्रवाल : आलोचक साहित्यिक अखाड़े में टंगा पंचिंग बैग है। जो भी चाहे आए, और अपनी मुट्ठियों को मजबूत बनाने के लिए उसकी पिटाई कर जाए। इस बिंब को दूर तक ले जाऊं तो आलोचक की दयनयता पर हाहाकार और लेखक के शिकायती प्रहारों पर वाह-वाह नहीं करूंगी, बल्कि कहूंगी कि इतने भीषण प्रहारात्मक आघातों के बावजूद आलोचना का टिके रहना, और लाख तिरस्कार/शिकायतों के बावजूद सृजनकर्मी रचनाकारों का अपनी कृति के मूल्यांकन/ प्रोमोशन हेतु आलोचना की ओर निहारना, आलोचना की भीतरी ताकत को ही दर्शाता है। विडंबना यह है कि आलोचक को न प्रशंसा मिलती है, न स्वायत्त रचनाकार के रूप में पहचान। वह तो दसियों किताबें लिखने के बावजूद ‘लेखक’ भी नहीं कहा जाता। अलग से ‘आलोचक’ का टैग थमा कर उसे सवर्णों की बिरादरी से बाहर बैठा दिया जाता है।
शशिभूषण
मिश्र :
हिंदी
कहानी
के
स्त्री
मुद्दों
पर
मृदुला
गर्ग
के
लेखन
को
लेकर
खूब
चर्चा
हुई।
एक
कहानीकार
के
रूप
में
आप
उन्हें
किस
रूप
में
मूल्यांकित
करती
हैं
?
रोहिणी
अग्रवाल : मृदुला
गर्ग
हमारे
समय
की
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
कहानीकार
हैं।
हालांकि
वह
स्त्री
लेखन
जैसी
किसी
कोटि
को
नहीं
स्वीकारतीं, लेकिन स्त्री-प्रश्नों
को
लेकर
उन
जैसी
पैनी
एवं
संवेदनशील
दृष्टि
आज
प्रायः
नहीं
मिलती।
वह
पितृसत्ता
की
दमघोंटू
हवेली
के
बीच
हवाओं
में
तैरती
स्त्री
की
घुटन
भरी
चुप्पियों
और
सूख
गए
आंसुओं
को
महसूसती
हैं, और उस में आत्मनिर्भर, आधुनिक, चेतनसंपन्न स्त्री
के
विकसित
भावबोध
को
जोड़कर
जब
विश्लेषण
करती
हैं, तब चुप्पियां
और
कराहें
पुरानी
केंचुल
छोड़
अपने
को
परखने
का
धारदार
औजार
बन
जाती
हैं।
मृदुला
गर्ग
की
स्त्री
प्रताड़ित
और
बेचारी
बनने
से
इंकार
करती
है।
उसके
पास
विवेक, आत्मसम्मान और
दृढ़ता
की
पूंजी
है, जिसे वह
निजी
फायदे
(आत्मोन्नयन) में
लगाकर
जाया
नहीं
करती, बल्कि जनचेतना
का
रूप
देकर
बृहत्तर
मनुष्य
समाज
से
जुड़
जाना
चाहती
है।
मृदुला
गर्ग
के
लेखन
की
विशेषता
है
कि
वहां
कुछ
भी
कृत्रिम
या
आरोपित
नहीं
दिखता।
बौद्धिकता
है, पर उसकी
जड़ें
गहरी
संवेदना
की
तरलता
में
हैं।
चरित्र
अपनी
भीतरी
हलचलों
और
मंथन
से
स्वयं
अपना
विकास
करते
चलते
हैं।
वर्जनाओं
से
भय
नहीं, बल्कि आग
से
खेलने
का
जज्बा
मृदुला
गर्ग
की
कहानियों
की
स्त्री
को
विशिष्ट
बनाता
है
जिसे
‘कठगुलाब‘ उपन्यास में
तमाम
वैचारिक
ऊंचाई
के
साथ
देखा
जा
सकता
है।
शशिभूषण
मिश्र : मैं
अर्चना
वर्मा
जी
के
बारे
में
आपसे
जरूर
पूछना
चाहूंगा
क्योंकि
कहीं
न
कहीं
संकोच
में
उन्होंने
अपने
कहानीकार
को
हमेशा
छिपाए
रखा
जबकि
हिंदी
की
कहानियों
को
जतन
से
पढ़ने
और
कहानीकारों
को
सामने
लाने
में
उनका
महत्व
असंदिग्ध
है।
ऐसी
मेहनती
और
पठनशील
रचनाकार
हमारे
पास
कम
हैं।
आप
अर्चना
वर्मा
को
किस
रूप
में
याद
करती
हैं?
रोहिणी
अग्रवाल : अर्चना
वर्मा
बहुत
ही
मेहनती
और
दृष्टि
संपन्न
संपादक
रही
हैं।
दो
कहानी
संग्रह
भी
हैं
उनके, दो कविता
संग्रह
और
‘अस्मिता
विमर्श
का
स्त्री
स्वर’ शीर्षक से
विमर्शवादी
आलोचना
पुस्तक
भी।
उनकी
कहानी
‘जोकर’ मेरी सर्वाधिक
पसंदीदा
कहानी
है और उनके
कहानीकार
पर
मैं
अपनी
पुस्तक
‘वक्त
की
शिनाख्त
और
सृजन
का
राग’ में विस्तृत
बात
कर
भी
चुकी
हूं-
‘अंधेरे तहखानों
में
छुपे
आलोक-वृत्त’
शीर्षक
के
तहत।
उनकी
कहानियों
में
बौद्धिकता
और
सरोकारों
की
महीन
पड़ताल
अनायास
दिखाई
पड़ती
है,
जो
कहानियों
की
बुनावट
को
संश्लिष्ट
ही
नहीं
करती, पाठक के
रूप
में
बेहद
संवेदनशील
अध्येता
की
मांग
भी
करती
है।
दरअसल
ऐसा
गझिन
लेखन
बहुत
कम
लोगों
के
पास
मिलता
है
जो
द्राक्षारस
की
तरह
अपने
आप
मुंह
में
न
बहे, बल्कि संवाद
की
प्रक्रिया
में
समय
और
समाज
की
पड़ताल
का
संवेदनात्मक
विवेक
विकसित
करता
चले।
आज
जिस
परिमाण
में
स्त्री-रचनाकारों
की
कहानियां
सामने
आ
रही
हैं, उनमें ऐसी
गहन
वैचारिक
तैयारी
के
साथ
समय
का
अतिक्रमण
करने
की
व्यग्रता
दिखाई
नहीं
देती।
कहानी
विधा
के
उन्नयन
के
लिए
उसमें
संवेदना
को
विवेक
एवं
विचार
का
आधार
देना
बहुत
जरूरी
है, वरना वह
भावनात्मक
खिलवाड़
में
रिड्यूस
हो
सकती
है
जिसे
आज
यहां-वहां
देखा
भी
जाने
लगा
है।
शशिभूषण
मिश्र – अर्चना
जी
के
बाद
मन्नू
भंडारी
जी
पर
आते
हैं।
मन्नू
भंडारी
के
लेखन
की
सबसे
जरूरी
बात
आप
क्या
मानती
हैं
?
रोहिणी
अग्रवाल : जी, मन्नू भंडारी
का
उपन्यास
‘महाभेज’ नाट्य-रूपांतरण
की
वजह
से
खासा
चर्चित
रहा
है।
‘आपका
बंटी’ उपन्यास सत्तर
के
दशक
में
तलाकशुदा
स्त्री
के
हौसले
और
आत्मनिर्भरता
के
कारण
भी
पाठक
समाज
को
चौंकाने
और
सम्मोहित
करने
का
सबब
बना।
लेकिन
मैं
यह
मानती
हूं
कि
मन्नू
भंडारी
आज
भी
अपनी
कहानियों
की
वजह
से
ज्यादा
जानी
जाती
हैं। यही
सच
है, अकेली, नशा, त्रिशंकु, नई नौकरी, बंद दराजों
का
साथ - कितनी ही
कहानियां
एक
के
बाद
एक
जेहन
में
आती
चलती
हैं।
उनकी
कहानियों
को
उनकी
रचना
के
कालखंड
के
बीचोबीच
रख
कर
देखूं
तो
वह
महानगरीय
परिवेश
की
आत्मनिर्भर
शिक्षित
कामकाजी
स्त्री
की
छवि
गढ़ती
हैं
जो
घर-बाहर
दोनों
जगह
दोहरे
शोषण
की
शिकार
है।
चूंकि
वह
चेतन
है, इसलिए घर
में
पति/पितृसत्ता
के
अंकुश
को
सहन
नहीं
कर
पाती।
यह
स्त्री
आत्मावलोकन
करने
का
साहस
रखती
है।
अपनी
दुर्बलताओं
और अंतर्विरोधों
से
खूब
परिचित
है, लेकिन प्रतिरोध
का
हौसला
उसके
पास
नहीं।
इस
दुर्बलता
के
कारण
मन्नू भंडारी
की
कहानियाँ
स्त्री-संघर्ष
का
अतिरिक्त
आयाम
नहीं
जोड़
पातीं।
बस, स्त्री की
घुटन
शिकायती
स्वर
में
रिड्यूस
होकर
रह
जाती
है, या जहां
संबंध-विच्छेद
के
बाद
वह
पुनर्विवाह
कर
नई
जिंदगी
का
स्वप्न
देखती
हैं,
वहां
पुरुष
की
उन्हीं
श्रेष्ठता
ग्रंथियों
और
स्त्री
की
सहजात
अंतर्विरोधपरक
दुर्बलताओं
के
कारण
पुन:
दांपत्य
विघटन
के
उसी
दुष्चक्र
में
जा
फंसती
हैं।
ये
कहानियां
त्रासद
प्रभाव
उत्पन्न
करती
हैं
और
निष्कवच
स्त्री
की
निष्क्रियता
को
रेखांकित
करती
हैं।
ओज
और
प्रतिरोध
जैसे
जरूरी
तत्वों
की
अनुपस्थिति
इन
कहानियों
में
बराबर
बनी
रहती
है।
शशिभूषण
मिश्र :
हिंदी
की
ऐसी
कई
महिला
कथाकार
हैं
जिन्होंने
कहानियों
की
भूमि
से
आगे
बढ़कर
उपन्यास
की
भूमि
में
प्रवेश
किया
और
आगे
चलकर
उपन्यासकार
के
रूप
में
स्थापित
हुयीं; फिर वह
नासिरा
शर्मा
हों; ममता कालिया
हों; मैत्रेयी पुष्पा; चित्रा
मुद्गल; गीतांजलि श्री
; अलका
सरावगी
आदि
हों।
ऐसे
में
इनका
कहानी
लेखन
या
तो
पीछे
छूट
गया
या
उसका
मूल्यांकन
उस
तरह
से
नहीं
हुआ
जिस
तरह
से
होना
चाहिए
था
! इस
सन्दर्भ
में
आपका
क्या
मानना
है
?
रोहिणी अग्रवाल : ऐसा नहीं है कि आपने जिन कथाकारों के नाम गिनाए हैं, उनके कृतित्व का उचित मूल्यांकन नहीं हुआ; बल्कि सत्य तो यह है कि उन पर इतना अधिक लिखा गया है और विश्वविद्यालयें के शोध परिमाण का तो हाल ही न पूछिए। आज भी नई किताब आते ही स्वागत में पलक पांवडे बिछा दिए जाते हैं। हां, यह सच है कि उनकी इस ‘उपन्यास-दौड़’ में जिस रफ्तार से कहानी हाशिए पर गई है, उसी रफ्तार से उनकी पहचान और चर्चा भी उपन्यास केंद्रित होती गई है। तकनीक ही अपनी आने वाली हर बेहतर नई तकनीकी रचना को नहीं निगलती, बल्कि मैं यह कहने में गुरेज नहीं करूंगी कि इन रचनाकारों के उपन्यासों ने इनके कहानीकार को निगल लिया है। ममता कालिया की ‘बोलने वाली औरत’, गीतांजलि श्री की ‘बेलपत्र’, अलका सरावगी की ‘आक एगारसी’ बहुत बेहतर कहानियां हैं, और उन पर चर्चा भी होती रहती है। लेकिन शॉर्टकट के इस दौर में आज लेखक को किसी एक विधागत पहचान के साथ नत्थी करने का चलन बढ़ गया है। जैसे आलोचकों के कहानीकार-कवि व्यक्तित्व को दृष्टि ओझल कर दिया जाता है। नासिरा शर्मा के ‘जहां फव्वारे लहू रोते हैं’ जैसे नॉन फिक्शनल संजीदा लेखन को ज्यादा याद नहीं किया जाता। अलबत्ता कुछ रचनाकारों को उनकी समग्र रचनाधर्मिता के साथ याद भी कर लिया जाता है जैसे अज्ञेय, प्रसाद, विनोद कुमार शुक्ल और अनामिका।
शशिभूषण
मिश्र : इन
लेखिकाओं
के
समानांतर
आज
की
कहानी
लेखिकाओं
को
देखता
हूं
तो
मुझे
महसूस
होता
है
मानो
यहां
उपन्यास
लिखने
की
होड़
मची
हुई
है।एक
जल्दबाजी
है।
ऐसा
लगता
है
मानो
‘उपन्यास’ सहज लेखन
की
उपज
नहीं,
साहित्यिक
महत्वाकांक्षा
की
उपज
हैं
! आप इस प्रवृत्ति
को
किस
रूप
में
चीन्हती
हैं?
रोहिणी
अग्रवाल : ठीक
कहा
आपने, इन दिनों
सब
जल्दी
में
हैं।
हड़बड़ी
है
कहीं
पहुंचने
की।
मालूम
नहीं
कहां।
शोहरत
भागते
घोड़े
के
सामने
लटकती
गाजर
की
तरह
है
जिसे
हासिल
कर
ही
लेना
है।
उपन्यास
विधा
में
प्रवेश
करने
से
पहले,
हाथ
मांजने
जैसी
तैयारी
होनी
चाहिए
उसका
अभाव
देखती
हूँ।
कहानी
हो
या
उपन्यास; दोनों विधाओं
का
फॉर्मेट
अलग
है
और
अंतर्निहित
अपील
भी,
इसलिए
आज
डेढ़
सौ-दो
सौ
पृष्ठों
के
बीच
फैले
जो
उपन्यास
लिखे
जा
रहे
हैं, उनके ब्यौरों
को
निकाल
दें
तो
वे
अपनी
मूल
योजना
में
कहानी
से
अधिक
कहीं
नहीं।
उपन्यास, कहानी के
विपरीत, एक युग
की
साक्षी
कथा
है।
वह
कहानी
की
तरह
किसी
एक
विशिष्ट
क्षण, घटना या
चरित्र
के
साथ
बंधा
नहीं
होता, बल्कि समय
को
दर्ज
करने
की
गंभीर
धीरता
में
समय
की
अंदरूनी
परतों
की
शिनाख्त
करता
चलता
है
जो
समय
और
स्थितियों
के
विकास
क्रम
को
एक
तार्किक
और
आंतरिक
लय
के
साथ
उघाड़ता
चलता
है।
कहानी के केंद्र में बेताबी रहती है; गीति रचना सरीखी व्यग्रता और ढुलक पड़ने की चंचलता भी। उपन्यास समंदर है। उसे कहीं नहीं जाना। उसकी लहरों के नाद में समय का इतिहास बंद है और आकर्षण भी। विडंबना है कि आज लेखन समय के साथ संवाद की व्यग्रता न रहकर समय की नोटबुक को गर्वोन्नत भाव से ऑटोग्राफ देकर उपकृत करना है। इसलिए रचनाकार के समग्र मूल्यांकन की कौन कहे,आज तो एक कहानी, एक रचना या उपन्यास के एक अंश पर ही बात करने की व्यावसायिकता उभर आई है।
शशिभूषण
मिश्र : समकालीन
कहानी
परिदृश्य
में
फिलहाल
सुधा
अरोड़ा
का
ध्यान
मुझे
आ
रहा
है
(और भी नाम
जरूर
होंगे)
जिन्होंने
कहानियों
की
टेक
छोड़ी
नहीं।
उनके
स्त्री
- लेखन और कहानी
लेखन
की
शिनाख्त
आप
किस
रूप
में
करती
हैं
?
रोहिणी अग्रवाल : जी, सुधा अरोड़ा ने कभी कहानियों की जमीन को नहीं छोड़ा। वह आज भी उसी लीक पर चलते हुए स्त्री के दुख-दर्द, आंसू-तकलीफ की कथा लिख रही हैं जिस पर चल कर ‘महानगर की मैथिली’ जैसी यादगार कहानी रच पाईं। मैं याद करती हूं तो पाती हूं, मैंने यह कहानी कॉलेज के दिनों में धर्मयुग या साप्ताहिक हिंदुस्तान में पढ़ी थी - 70 के दशक में। लेकिन उसके बाद समय बहुत तेजी से बदला है। स्त्री के आंसुओं को उसके भीतर की संघर्षमयी आग ने प्रतिस्थापित कर लिया है। बेशक वह पितृसत्ता की विक्टिम है आज भी, लेकिन अब उसने पितृसत्ता को पहचान कर प्रश्नांकित करना शुरू कर दिया है। बैकफुट पर रहकर संघर्ष की बागडोर हाथ में नहीं ली जा सकती। ले ली जाए तो आकाश को चीरती दिशाओं पर चढ़ाई नहीं की जा सकती। सुधा अरोड़ा की कहानियों में करुणा का स्वर आम पाठक के लिए संवेदनात्मक अपील का वृहद घेरा तैयार करता है, लेकिन संघर्षशील जुझारू स्त्री-छवि को वह कमजोर भी करता है। इसे आप उनकी कहानियों ‘उधड़ा हुआ स्वेटर’ और ‘प्रेत बोलते हैं’ में भी देख सकते हैं। हां, उनके संपादन में तैयार दो कृतियों को मैं स्त्री-विमर्शपरक लेखन में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप की संज्ञा देती हूं। ये पुस्तकें हैं – ‘पंखों की उड़ान’ और ‘दहलीज को लांघते हुए’।
शशिभूषण
मिश्र : आपने
कहीं
लिखा
है
कि
स्त्री-पुरुष
संबंध
की
पुनर्रचना
के
लिए
पितृसत्तात्मक
व्यवस्था
के
मौजूदा
ढांचे
को
पूरी
तरह
ध्वस्त
करना
अनिवार्य
है।
मेरा
सवाल
है
कि
किन
औजारों
से
इस
पितृसत्तात्मक
व्यवस्था
के
ढांचे
को
ध्वस्त
किया
जा
सकता
है
?
रोहिणी
अग्रवाल - मैं
नहीं
जानती
पितृसत्ता
के
मौजूदा
ढांचे
को
पूरी
तरह
ध्वस्त
किया
जा
सकता
है
या
नहीं
! हां, इतना जरूर
चाहती
हूं
कि
संवेदनात्मक
एवं
आलोचनात्मक
विवेक
के
साथ
पितृसत्ता
का
पुनरीक्षण
अवश्य
किया
जाए।
जो
व्यवस्था
धर्म
और
राजनीति, न्याय और
मीडिया
का
संबल
पाकर
मनुष्य
को
जेंडर
में, जेंडर को
श्रेष्ठता-हीनता
की
बायनरी
में
विघटित
करती
है, वह मनुष्य
की
गरिमा
और
अस्मिता
के
कल्याण
के
लिए
कभी
कार्यरत
नहीं
हो
सकती।
इसलिए
तमाम
तरह
की
सत्ताएं
आज
सिर्फ
अपने
निहित
स्वार्थों
की
पूर्ति
में
लिप्त
हैं।
मनुष्य
उनके
लिए
वोट
है, सिर है, मोहरा है, गिनीपिग है, उपभोक्ता है, या काठ
का
उल्लू
है।
मनुष्य
को
बांटने
और
उस
पर
हुक्म
चलाने
का
लक्ष्य
ही
सत्ता
का
अंतिम
मुकाम
है।
इसलिए
मैं
चाहती
हूं
कि
अपनी
आजादी
(मुक्ति) के लिए
स्त्री-पुरुष
दोनों
को
समान
भाव
से
मनुष्य
को
पराधीन
बनाने
वाली
आर्थिक-सांस्कृतिक
संरचनाओं
को
समझना
और
फिर
टकराना
होगा।
शिक्षा, मार्क्सवादी विचारधारा
और
रोजगार
के
अवसरों
ने
स्त्री
की
आर्थिक
आत्मनिर्भरता
को
संभव
बनाया
है
और
अपने
स्वार्थों
के
चलते
ही
सही, दकियानूसी परिवारों
ने
भी
कामकाजी
स्त्री
की
सत्ता
को
स्वीकारा
है।
स्त्री-पुरुष
की
मुक्ति
में
सबसे
बड़ी
बाधा
मैं
धर्म
का
अयाचित
हस्तक्षेप
समझती
हूं।
कैसी
विडंबना
है
कि
हम
आज
भी
धर्म
के
अतार्किक
चंगुल
से
मुक्त
नहीं
हो
पाए
हैं।
मनुस्मृति
पढ़
जाइए, यज्ञ,पूजा, श्राद्ध, तर्पण से
लेकर
विवाह, जाति, स्त्री-धर्म
और
पुरुष
वर्चस्व
का
खौलता
अहंकार
वहां
जिस
रूप
में
है, वह आज
भी
हमारे
मानस-परिवार-समाज
को
वर्जना, संस्कार, आचार, भक्ति के
नाम
पर
जकड़
रहा
है।
मैं
नहीं
जानती
कि
क्यों
शिक्षित
स्त्री-पुरुष
समुदाय
रीति-त्योहार
के
नाम
पर
आज
भी
करवा
चौथ
और
रक्षाबंधन
को
पुराने
पारंपरिक
तरीके
से
मना
रहा
है।
इन
दोनों
त्योहारों
का
पारंपरिक
रूप
स्त्री
की
पराधीनता
का
ड्राफ्ट
सुनिश्चित
करता
है।
पुरुष
रक्षक; स्त्री रक्षणीया; पुरुष आत्मनिर्भर
सूर्य
सरीखा, स्त्री पुरुष-निर्भर
इकाई, चांद सरीखी
जिसके
पास
अपनी
अस्मिता, विचार, भाषा का
प्रकाश
तक
नहीं।
जब
तक
पितृसत्ता
के
वर्चस्व
को
बनाने
वाली
इन
सांस्कृतिक
संरचनाओं
को
चुनौती
देकर
इन्हें
संबंधों
में
समानता, सौहार्द, विश्वास रचने
वाली
पारस्परिकता
का
रूप
नहीं
दिया
जाएगा, स्त्री हीन-पराधीन
इकाई
के
रूप
में, और पुरुष
श्रेष्ठ
सबल
इकाई
के
रूप
में
अपनी
भास्वर
अस्मिता
से
हीन
किए
जाते
रहेंगे।
विवेकपूर्ण
आलोचनात्मक
दृष्टि, संवेदना का
विस्तृत
दायरा
और
पूर्वाग्रहों
को
धता
बता
कर
सिर
पर
कफन
बांधने
की
वैचारिक
तैयारी
जब
मनुष्य
अर्जित
कर
लेगा, तब लैंगिक
अवधारणाओं
में
जकड़ी
अपनी
अस्मिता
को
स्वयं
ही
रिहाई
दे
देगा।
हां, अकेला चना
भाड़
नहीं
फोड़
सकता।
इसलिए
इस
वैचारिक
लड़ाई
में
सबको
साथ
आना
होगा, और समझना
होगा
कि
सबकी
मुक्ति
में
ही
अपनी
मुक्ति
की
कुंजी
है।
रोहिणी
अग्रवाल
प्रख्यात
लेखिका
रोहिणी
अग्रवाल
ने
पिछले
तीन
दशकों
से
हिंदी-रचनाशीलता
को
एक
सार्थक
और
हस्तक्षेपकारी गति दी
है।
उनका
लेखकीय
विस्तार
आलोचना
से
स्त्री विमर्श तक; कहानी से
कविता
तक
और
संपादन
से
लेकर
निबंध
तक
फैला
है।
एक
दर्जन
से
अधिक
पुस्तकों
की
इस
सृजनकार
ने
हिंदी
आलोचना
के
पाठ
को
एक
संवेदनात्मक
सौंदर्य
सौंपा
है।
समकालीन
बहसों
में
उनकी
उपस्थिति
मानीखेज
है।
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