शोध सार : राजस्थान, भारत के राज्यों में सबसे सुन्दर एवं खूबसूरत राज्य है। राजस्थान की संस्कृति विश्व में मशहूर है। राजस्थान की समृद्ध संस्कृति में विभिन्न समुदायों और शासकों का योगदान रहा है। जब कभी भी राजस्थान का नाम लिया जाता है तो हमारी आखों के सामने थार रेगिस्तान, ऊंट की सवारी, घूमर और कालबेलिया नृत्य और रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधान आते हैं। राजस्थान में पाग-पगड़ी या साफा पहनना उस परंपरा का निर्वहन है जिसमें “सिर पर सवा सेर सूत रखना” अनिवार्य माना जाता रहा है। सामाजिकमनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो असल में पाग-पगड़ी व्यक्ति को उसकी सामाजिक भूमिका के प्रति हमेशा सजग रखती है। राजस्थान के परंपरागत समाज में आज भी पगड़ी पहनने का तरीका बताता है कि व्यक्ति किस वर्ग, जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र एवं आर्थिक स्तर का है। पगड़ी का रंग उसके घर की कुशलता का सन्देश भी देता जाता है। ये एक तरह मूक संवाद है जिसकी जड़ें राजस्थान के परंपरागत समाज में आज भी बहुत गहरी है।
बीज शब्द : राजस्थान, मारवाड़, पाग-पगड़ी, किसान
वर्ग, संस्कृति
मूल आलेख : राजस्थान में पुरातन काल से 'सवा सेर सूत' सिर पर बांधने का रिवाज एक परम्परा के रुप में आज दिन तक प्रचलित रहा है। पाग व पगड़ी मनुष्य की पहचान कराती है कि वह किस जाति, धर्म, सम्प्रदाय, परगना एवं आर्थिक स्तर का है। उसके घर की कुशलता का सन्देश भी पगड़ी का रंग देती है। मारवाड़ में तो पाग पगड़ी का सामाजिक रिवाज आदि काल से प्रचलित रहा है। ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान में 12 कोस (करीब 36 कि.मी.) पर बोली बदलती है, उसी प्रकार 12 कोस पर साफे के बांधने के पेच में फर्क आता है। प्रत्येक परगने में विभिन्न जातियों के पाग-पगड़ियों के रंगों में, बांधने के ढंग में एवं पगड़ी के कपड़े में विभिन्नता होती है।
राजस्थान में पगड़ी के बांधने के ढंग, पेच एवं पगड़ी की कसावट देख कर बता देते हैं कि वह व्यक्ति कैसा है? अर्थात् पाग-पगड़ी मनुष्य की शिष्टता, चातुर्य व विवेकशीलता की परिचायक होती है। राजस्थान में पगड़ी सिर्फ खूबसूरत एवं शोभा बढ़ाने को नहीं बांधते हैं बल्कि पगड़ी के साथ मान, प्रतिष्ठा, मर्यादा और स्वाभिमान जुड़ा हुआ रहता है। पगड़ी का अपमान स्वयं का अपमान माना जाता है। पगड़ी की मान की रक्षा के कारण तो पुराने समय में कई बार तलवारें म्यान के बाहर हुई और खून के फव्वारों ने इस धरती को अनेकों बार सींचा है। पगड़ियों के कारण समझौते हुये, झगड़े संधि में बदले, टूटे रिश्ते बने तथा दुश्मन पाग बदल कर भाई बने तथा कई महत्वपूर्ण घटनायें होते-होते रुक गई।
राजस्थान में क्षेत्र, प्रान्त, समय, स्थिति, शिक्षा, धर्म-जाति, परगने एवं परम्परा के अनुसार पाग-पगड़ियों के पृथक-पृथक नाम हैं। लम्बाई में बड़ी है तो ‘पाग', छोटी है तो ‘पगड़ी' तथा रंगीन हो और अन्तिम छोर जिसे ‘छेला' कहते हैं, झरी के बने हों तो ‘पेचा' कहलायेगा। पेचा सिर्फ एक रंग का होता है। यदि वह बहुरंगा है या जरी का काम हो तो उसे ‘मदील' कहते हैं। मदील किसी भी रंग की हो सकती है, पर बहुरंगी नहीं। लोहे की है तो ‘कनटोप', सोने की है तो उसे ‘मुकुट' और हाथभर का कपड़ा बन्धा है तो ‘चिन्दी' भी कहा जा सकता है। लोक भाषा में पाग पगड़ी के अनेक नाम यहां प्रचलित हैं - जैसे पोतीयो, साफो, पगड़ी, पाग, फालियो, घूमालो, फेंटो, सेलो, लपेटो, शिरोस्त्राण, अमलो, पगड़ी इत्यादि।
प्रस्तुत शोध कार्य मारवाड़ क्षेत्र मे किसान वर्ग जिसमे जाट, बिश्नोई और माली जिनकी इस क्षेत्र मे बहुलता है, किस प्रकार की पाग-पगड़ियाँ धारण करता है, उनमें क्या विभिन्नताएं है तथा साथ ही किसान वर्ग की विभिन्न जातियों में पगड़ी को लेकर क्या समानताएं है और क्या उनमें क्या अलग है जो उनकी जातीय पहचान बताती का अध्ययन किया गया है। मेरे शोध विषय से संबंधित कार्य पूर्व में भी हो चुका है लेकिन वह कार्य ज्यादातर राज परिवार और उनसे जुड़े लोगों पर ज्यादा आधारित है। पाग-पगड़ियों पर सबसे प्रमुख कार्य डॉ. महेंद्र सिंह नगर द्वारा रचित एवं संपादित पुस्तकें “राजस्थान की पाग-पगड़ियाँ” और ”पगड़ी” में किया गया है किन्तु इस पुस्तक में भी ज्यादातर कार्य राज-दरबार और उनसे संबंधित लोगों की पाग-पगड़ियों पर है। इनके अलावा डॉ. महेंद्र सिंह नगर की एक और पुस्तक “मारवाड़ के राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं” में राज दरबार से जुड़ी सांस्कृतिक परंपराओं जिनमे साफे और पाग-पगड़ी से संबंधित परंपराओं का भी उल्लेख किया गया है। रानी लक्ष्मी कुमारी चुंडावत द्वारा लिखित पुस्तक “राजस्थान के प्रसिद्ध दोहे सोरठे” में राजस्थान के प्रसिद्ध दोहों और सोरठों के बारे में बताया गया है जिनमें पाग-पगड़ी से जुड़े दोहों सोरठों के बारे में भी बताया गया है।
मारवाड़ क्षेत्र में पगड़ियों से संबंधित प्रमुख शब्दावली-
साफा- साफा से तात्पर्य ऐसी पगड़ी से होता है जो साफ तरीके से बांधी गई हो। यह संभवत: फारसी के ‘साफ:’ से बना हुआ है, जिसका अर्थ है पवित्रता।1
पेच- यह साफा बांधने की शैली है। अगर पगड़ी गोल बांधी गई है तो वह गोल पेच कहलाती है है और अगर वह राठोड़ी तरीके से बांधी गई है तो वह राठौड़ी पेच अथवा राठौड़ी साफा कहलाता है।
पोत्या- किसी भी पोत के कपड़े को अगर सिर के चारों और लपेटते समय अगर बट देकर बांधा जाता है तो वह पोत्या अथवा फेंटा कहलाता है।
छिणगो- राठौड़ी साफे में साफा बांधकर एक हिस्सा चोटी के रूप में पीछे लटकाया जाता है जिसे छिणगा कहा जाता है।
तुर्रा- इसे छुरंगा भी कहा जाता है। साफा बांधकर उसमें से उसके ऊपर एक छोटा हिस्सा जो तीन चार इंच का होता है निकाल जाता है तुर्रा या छुरंगा कहलाता है।
रंग
के
आधार
पर
पगड़ी
के
प्रकार-
पचरंगा-पाँच रंगों से मिलकर बना साफा जीनमें मुख्यत: हरा, पीला, लाल, केसरिया व नीला रंग होते है। पाँच रंग होने के कारण ये पचरंगा कहलाता है।
केसरिया- इसमें सिर्फ एक रंग केसरिया ही होता है। इस रंग का सामान्यतया दूल्हे के द्वारा पहना जाता है। इसी कारण लोकगीत में कहा गया है कि-
सफेद- सफेद रंग कर साफे में बिल्कुल सफेद तथा हल्का मटमैला सफेद साफे आते हैं।
हरा-यह बिल्कुल हरे रंग का साफा होता है।
चुंदड़ी-यह सामान्यत: प्रचलित चुंदड़ी की ही तरह होता है। इसमें प्रिंटेड तथा बंधेज दोनों प्रकार होते हैं।
मटिया-इस रंग की पगड़ी खाकी रंग की होती है।
छापल-इस प्रकार की पगड़ी सफेद रंग की होती है जिसमें छोटी-छोटी रंग-बिरंगी बिंदिया अथवा छोटी-छोटी पेड़ पत्तियां होती है।
मारवाड़ में किसान वर्ग द्वारा पहने जाने वाली पाग-पगड़ियाँ- लोकजीवन में पगड़ी की विशेष महत्ता है। इसका इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। पगड़ी जहां एक ओर लोक सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़ी हुई हैं, वहीं सामाजिक सरोकारों से भी इसका गहरा नाता है। राजस्थान के मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़, हाड़ौती, शेखावटी, बृज, मेवात आदि सभी क्षेत्रों में पगड़ी की विविधता देखने को मिलती है।
किसान वर्ग द्वारा प्राचीन काल से ही सिर को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए पगड़ी का उपयोग किया जाने लगा। पगड़ी को सिर के ऊपर पहना जाता है। इसलिए इस परिधान को अन्य सभी परिधानों में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। पगड़ी को लोकजीवन में पग, पाग, पग्गड़,पोत्या, पगड़ी, साफा, पेचा, फेंटा, आदि नामों से जाना जाता है। जबकि साहित्य में पाग-पगड़ी को रूमालियो, शीशकाय, परणा, जालक, मुकुट, कनटोपा, मुरैठा, मदील, मोलिया और चिंदी आदि नामों से भी जाना जाता है।3 वास्तव में पगड़ी को पहनने का मूल ध्येय शरीर के ऊपरी भाग (सिर) को सर्दी, गर्मी, धूप, वर्षा आदि विपदाओं से सुरक्षित रखना रहा है, लेकिन धीरे-धीरे इसे सामाजिक सरोकार और मान्यता के माध्यम से मान-सम्मान और प्रतिष्ठा के प्रतीक के साथ जोड़ दिया गया, क्योंकि पगड़ी सिरोधार्य है।
राजस्थानी कविता के कबीर अमरदान जी ने ‘छपना रो छंद’ कवता में यहां के परिश्रमी किसानों की वेशभूषा में उनके छोगा के फेंटो का वर्णन इस प्रकार किया है-
किसान वर्ग द्वारा विभिन्न अवसरों यथा शादी-विवाह, तीज-त्योहार तथा मृतक शोक आदि अवसरों पर उनके द्वारा पहने जाने वाली पाग-पगड़ियों में विभिन्नताएं देखने को मिलती है। जोधपुर तथा और उसके आस-पास के क्षेत्र को मारवाड़ के नाम से जाना जाता है। मारवाड़ का ज्यादातर हिस्सा थार के मरुस्थल का हिस्सा है। मारवाड़ मे कृषि मानसून आधारित कृषि है। मारवाड़ की अधिकांश जनसंख्या की आजीविका कृषि और उनसे जुड़े कार्यों पर ही आधारित है। जोधपुर और उसके आस-पास के क्षेत्र में मुख्य रूप से तीन जातियाँ बहुलता से निवास करती है यह तीन जातियाँ है- जाट, माली और बिश्नोई। प्रस्तुत शोध पत्र में इन तीन जातियों के पाग-पगड़ी पहनने के तौर तरीके, उनमें विभिन्नताएं आदि का अध्ययन करेंगे।
जाट समुदाय की पाग-पगड़ियाँ- मारवाड़ क्षेत्र की कृषक जातियों में जाट समुदाय प्रमुख है। मारवाड़ क्षेत्र में जाट समुदाय बहुलता से निवास करता है। मारवाड़ के कृषि भू-भाग का एक बड़ा भाग जाटों के पास है जिसके कारण यह समुदाय काफी समृद्ध एवं सम्पन्न है। पगड़ी बांधने की शैली एवं विभिन्न अवसरों पर पगड़ी संबंधी रीति-रिवाजों के संदर्भ में यह समुदाय अन्य समुदायों से अलग है। 1891 ई. मारवाड़ में जाटों की जनसंख्या 3,15,562 थी और राज्य की एक चौथाई कृषि भूमि जाटों के पास थी।5
पगड़ी बांधने की शैली- जाट जाति आमतौर पर गोल साफा ही बांधती है। किन्तु कुछ खास अवसरों पर गोल साफे के साथ जोधपुरी पेच का भी प्रचलन है। पगड़ी बांधने की शैली को हम किसानों के आराध्य देवता वीर तेजाजी के इस गीत से जान सकते है-
राजपूतों मे भले ही राठौड़ी पेच पसंद किया जाता हो जाटों ने तोरीफुला या बूटीदार दुपटे की पाग बांधने की परंपरा को निभाया है। वीर तेजाजी के इस गीत में उनकी वेशभूषा के साथ उनकी पगड़ी की शोभा को भी आप देख सकते हैं।
जाट जाति में ज्यादातर गोल सफर का ही प्रयोग किया जाता है। मांगलिक अवसरों पर जोधपुरी एवं गोल दोनों ही पेच का इस्तेमाल किया जाता है। जाट समुदाय का गोल पेच अन्य जातियों के गोल पेच से भिन्न होता है। पगड़ी को आमतौर पर ‘पोत्या’ नाम से ही पुकारा जाता है। पोत्या ऊंचाई में कुछ ज्यादा रहता है। पोत्ये को रंग के आधार पर स्थानीय बोली में पीला पोत्या, धोला पोत्या, मटिया पोत्या, राता पोत्या आदि नामों से पुकारा जाता है। पगड़ी की लंबाई लगभग 9 मीटर या आम बोलचाल मे 18 से 20 हाथ होती है।7 पगड़ी की चौड़ाई 38 से 44 इंच तक होती है। 12 मीटर लंबाई और 44 इंच चौड़ाई वाली पगड़ी को ही पूरी पाग अथवा पूरा साफा माना जाता है।
विभिन्न अवसरों पर जाट समुदाय द्वारा पहने जाने वाली पाग-पगड़ियाँ-विभिन्न अवसरों पर जाट समुदाय के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार पगड़ियाँ पहनता है। आमतौर पर सामान्य दिनों में जाट समुदाय द्वारा गोल सफेद फेंटे का ही प्रयोग किया जाता है इसके अलावा तोरीफुला, मोलिया और चुंदरी साफे का भी प्रयोग किया जाता है।
मांगलिक अवसरों पर जाट समुदाय द्वारा पहने जाने वाली पाग-पगड़ियाँ-मांगलिक अवसरों पर जाट समुदाय के लोगों द्वारा विभिन्न प्रकार के साफों का प्रयोग किया जाता है। शादी के अवसर पर दूल्हे के द्वारा मुख्यत: केसरिया रंग जोधपुरी साफे का प्रयोग किया जाता है।8 इसके साथ ही चुंदड़ी साफे का भी प्रयोग किया जा सकता है। सगाई के अवसर पर आमतौर पर चुंदड़ी और मोठड़ा पहन जाता है। सम्मान समारोह एवं स्वागत समारोह में आमतौर पर चुंदड़ी और पचरंगा जोधपुरी पेच पहनाया जाता है। मायरा भरते समय दामाद को पूरे ससुराल की तरफ से साफे बँधाये जाते हैं। जो एक के ऊपर एक साफा बांधा जाता है जिसके कारण साफा आकार में काफी बड़ा हो जाता है।
शोक के अवसर पर जाट समुदाय द्वारा पहने जाने वाली पाग-पगड़ियाँ-जाट समुदाय में किसी के घर में मृत्यु हो जाने पर 11 वें या 12 वें दिन ‘दाढ़ी-खूंटी’ या ‘खिजमत’ नाम से रस्म अदा की जाति है जिसमें मरने वाले व्यक्ति परिवार के सदस्य बाल और दाढ़ी कटवाने के बाद अपने ससुराल वालों की तरफ से लाए गए साफों को बांधते हैं।9 परिवार के बड़े सदस्य जिनके माता-पिता जीवित नहीं हो उनको सफेद, जिनके माता या पिता जीवित हो उन्हे तोरीफुला और परिवार के छोटे सदस्यों को चुंदड़ी और मोल्या साफे पहनाए जाते है। परिवार के बड़े सदस्य उस साफे को 6 महीने अथवा आगे आने वाले बड़े त्योहार तक पहनते है।10
बिश्नोई समुदाय की पाग-पगड़ियाँ- बिश्नोई समुदाय मारवाड़ में बहुलता से निवास करता है। 1891 की जनसंख्या रिपोर्ट के आधार पर मारवाड़ में उस समय बिश्नोई समुदाय की जनसंख्या 40,023 थी।11 बिश्नोई जाति के ज्यादातर सफेद रंग का गोल साफा ही धारण करते है। कुछ लोग तोरीफुला साफा भी पहनते है। बिश्नोई समुदाय भी जाट समुदाय की तरह एक कृषक समुदाय है। इनके रीति-रिवाजों अन्य कृषक जातियों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
पगड़ी बांधने की शैली-बिश्नोई समुदाय के लोग मुख्यत: सफेद रंग का गोल साफा ही पहनते है। बिश्नोई जाति का गोल पेच अन्य जातियों के गोल पेच से भिन्न है। इनका साफा ललाट से ऊपर उठा हुआ राहत है।12 साफा एकदम सीधा पहना जाता है। साफे के ऊपर बीच में जगह नहीं रहती है। जिससे बाल नहीं दिखते है। कहीं-कहीं कुछ अलग तरह के पेच प्रयोग मे लाए जाते है जिसमें जिसमें सिर के बाल दिखाई दे जाते हैं।
विभिन्न अवसरों पर पहने जाने वाली पाग-पगड़ियाँ-बिश्नोई समुदाय विभिन्न अवसरों पर भी सामान्यत: सफेद साफा ही धारण करता है। विवाह के अवसर पर केवल दूल्हा केसरिया, चुंदड़ी या फिर अपनी पसंद के रंग का जोधपुरी पेच पहनता है। मेड़ता क्षेत्र के बिश्नोई मोठड़ा बांधते है।13 बुजुर्ग की मृत्यु हो जाने पर जोधपुर क्षेत्र में केवल सफेद साफा ही पहनाया जाता है किन्तु नागौर क्षेत्र में इस अवसर पर पीला, केसरिया या चुंदड़ी साफा पहनाया जाता है। बिश्नोई समुदाय में हरा, फिरोजी तथा मटिया साफा बांधना इनके जातिगत नियमों के विरुद्ध है।14
माली समुदाय की पाग-पगड़ियाँ- माली समुदाय के लोग बागवानी तथा कृषि कार्य से जुड़ी एक कृषक जाति है जो जोधपुर और नागौर में काफी संख्या मे निवास करती है। मारवाड़ मरदुमसुमारी रिपोर्ट 1891 के अनुसार मारवाड़ में माली समुदाय की जनसंख्या 1891 ई. में 60,219 थी।
पगड़ी बांधने की शैली-माली जोधपुरी तथा गोल दोनों ही प्रकार के पेच पहनते है। आमतौर पर माली समुदाय के लोग गोल पेच ही धारण करते है। सामान्य दिनों में माली समुदाय के लोग चुंदड़ी और मोलिया साफा धारण करते है। बुजुर्ग व्यक्ति तोरीफुला और सफेद साफा भी धारण किए हुए देखे जा सकते है। माली समुदाय द्वारा पहने जाने वाला जोधपुरी पेच स्वयं जोधपुर महाराजा उम्मेदसिंह जी द्वारा दिया हुआ माना जाता है। इससे संबंधित एक दंत कथा प्रचलित है। माली समुदाय के एक बुजुर्ग15 व्यक्ति नें दंतकथा को इस प्रकार बताया-
“जोधपुर के उम्मेद पैलेस के समय जोधपुर के ही कनिरामजी माली ने इसमे छित्तर का पत्थर देकर अपना योगदान दिया था। जब उनसे इसकी कीमत पुछी गई तो उन्होंने कहा कि “पैसों की जल्दी क्या है, आ जाएंगे” इस बात से खुश होकर जोधपुर महाराजा नें उन्हें राठौड़ी साफा बांधने की एवं अपने नाम के आगे सिंह लगाने की अनुमति दी। उस दिन से पूर्व माली न तो राठौड़ी पेच का प्रयोग करते थे और न ही सिंह लगाते थे”
विभिन्न अवसरों पर पहने जाने वाली पाग-पगड़ियाँ-माली समुदाय के लोग आम दिनों में तोरीफुला, चुंदड़ी और मोलिया साफे का ही प्रयोग करते हैं। बुजुर्ग व्यक्ति तोरीफुला, सफेद और चुंदड़ी साफे का प्रयोग करते हैं। शादी के अवसर पर दूल्हा मुख्य रूप से केसरिया रंग का साफा धारण करता है।16 यह साफा जोधपुरी पेच प्रकार का होता है। दूल्हे के साथ बाराती भी विभिन्न रंगों के जोधपुरी साफे को धारण करते हैं। होली पर पचरंगा साफा पहना जाता है।
मृत्यु के अवसर पर मृत व्यक्ति से संबंधित परिवार द्वारा हरा और गहरा गुलाबी रंग का साफा पहना जाता है जिसे ‘सोगिया साफा’ कहा जाता है।17 जो अगला बड़ा त्योहार अथवा 6 महीने तक पहना जाता है।
किसान वर्ग के लिए पाग-पगड़ियों
की
उपयोगिया
और
महत्व- राजस्थान का पश्चिमी भाग जिसे हम मारवाड़ भी कह सकते हैं जहां भारत के सभी स्थानों के पश्चात सूर्योदय और सूर्यास्त होता है। जहाँ जल की उपलब्धता मात्र मृग मरीचिका हो, रेगिस्तान की गरम तपती रेत, धूल भरी अँधियाँ और झुलसा देने वाली भीषण गर्मी में चलने वाले लू के अनगिनत थपेड़े जहां यही सब प्रकृति की विशेषताएं हो वहाँ पाग-पगड़ी की परंपरा एक शौक और सजावट की सामग्री नहीं होकर एक आवश्यकता है। शौक और प्रतिष्ठा का विषय बाद मे आता है। मारवाड़ की पगड़ी को हम इस प्रकार भी मन सकते हैं कि हरी-भरी प्रकृति और वानावरण का अभाव, तथा रंग-बिरंगी छटाओं की कमी को पूरा करने के लिए मारवाड़ के निवासियों ने अपनी रंग-बिरंगी वेशभूषा और रंग-बिरंगी पगड़ियों में छिपा लिया।
भरी दोपहर में काम करने वाले किसानों तथा पशु चराने वाले पशुपालकों पर सूर्य की सीधी किरणे पड़ती है। जब गर्मी के मौसम में तापमान 50 डिग्री के पास होता है तब किसान भरी दोपहरी मे तपती धूप में अपना, अपने परिवार का और अपने देश का पेट भरने के लिए खेतों में काम करता है तो अपने सिर को तेज धूप से बचाने के लिए पगड़ी को धारण करता है। यह पगड़ियाँ आकार में बड़ी, अलग-अलग रंगों की तथा कई बट देकर बांधा जाता है। जिससे वह जालीदार और आकर्षक लगने लगती है। पगड़ी आकार में बड़ी होने के कारण पूरे चेहरे को तेज धूप से बचाने में सहायता मिलती है। साथ ही ये पगड़ी पसीने को भी सोखने का कार्य करती है। इस कारण जो किसान तेज धूप में खेत में काम करता है उनके लिए पगड़ी एक जरूरी वस्त्र हो जाता है।
पुराने समय में आज की तरह यातायात के साधन उपलब्ध नहीं थे तब पैदल या बैलगाड़ी से रास्ता तय करना होता था तो ऐसी स्थिति में मरुस्थल में अगर किसी व्यक्ति को प्यास लग जाती थी और मरुस्थल में सतही जल की उपलब्धता नहीं होने के कारण जल का मिलन मुश्किल हो जाता था तब काम आती थी 24-24 गज लंबी पगड़ियाँ जिससे पानी के पात्र को पगड़ी से बांधकर कुओं से पानी को निकाला जा सकता था। और उसी पगड़ी से पानी को छानकर पिया जा सकता था।
किसान खेत से घर जा रहा है और उसे खेत से धान, चारा या सब्जी घर ले जानी हो तो वह उसे पगड़ी में बांध के ले जा सकता था। वहीं अगर खेत में बांधी गई भैंस या गाय रस्सी को तोड़कर खुल जाय तब पगड़ी से रस्सी बनाकर गाय या भैंस को बांधा जा सकता है।
मारवाड़ में जब कोई किसान किसी दूसरे व्यक्ति से मिलने उसके घर या खेत में जाता है तो उसको चिलम की मनुहार की जाती है। चिलम के अंदर तंबाकू भरकर उसके ऊपर गरम अंगारा रख दिया जाता है। चिलम को पकड़ने के लिए गीले कपड़े की आवश्यकता होती है जिसे स्थानीय भाषा में ‘साफ़ी’ कहते है। अगर साफ़ी उपलब्ध है तो ठीक है नहीं तो पगड़ी से छोटा टुकड़ा फाड़कर साफ़ी बना ली जाति है। पगड़ी को साफा भी कहा जाता है और शायद इसी कारण साफे से फाड़े गए कपड़े को साफ़ी नाम दिया गया है।18 चिलम पीने के बाद किसान उसी चिलम को पगड़ी में सुरक्षित रख लेता है। चिलम के अतिरिक्त भी आवश्यक वस्तुएं जैसे- जरदे की डिब्बी, नोट, आवश्यक कागजी दस्तावेज, बीड़ियों का बन्डल आदि भी साफे में रखता है।
जब किसान को कोई भारी वस्तु सिर पर उठाकर ले जानी होती है तो तब वह उसे सिर के ऊपर पगड़ी के ऊपर रख कर ले जाता है। यही पगड़ी इडाणी का भी कार्य करती है। खेत को या दूरी को मापने के लिए यही पगड़ी मीटर टेप का भी कार्य करती है। और यदि कोई दुर्घटना हो जाए और प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध नहीं है तो पगड़ी पट्टी का भी कार्य करती है। खासकर गांवों और खेतों में सर्पदंश की घटनाएं होती रहती है तो ऐसी स्थिति में सांप के जहर को शरीर में फैलने से रोकने के लिए शरीर के उस हिस्से को पगड़ी से कसकर बांध दिया जाता था।19
पगड़ी के ग्रामीण जीवन में जीतने उपयोग बताए जाए उतने कम हैं। हालांकि शहरों में पगड़ी मात्र शादी-समारोह अथवा सार्वजनिक उत्सवों में शोभा मात्र की वस्तु रह गई है। अगर किसी व्यक्ति का स्वागत करना हो, उसे क्षेत्र विशेष की सेवाओं के लिए सम्मानित करना हो तो उस समय पगड़ी शहरी क्षेत्र में अपने खोए हुए वैभव और गरिमा की याद दिलाती है। ग्रामीण परिवेश में व्यक्ति आज भी पगड़ी और साफे की गरिमा को अपने दैनिक व्यवहार में और रीति-रिवाजों में सँजोये हुए हैं।20
उपसंहार- शहर से गाँव तक और गाँव से ढाणी तक पगड़ी के अनेक रूप आपने देखे होंगे। आन-मान और मर्यादा की प्रतीक पगड़ी एक ही क्षण में कैसे युद्ध के नगाड़े बजवाकर खून की नदियां बाह्य सकती है और कैसे एक ही क्षण में नरसंहार को रोककर आपसी भाई-चारे और मित्रता में बदल सकती है। राज दरबारों की आन,बयान, शान रही और ऐतिहासिक घटनाओं में फसी यह पगड़ी मारवाड़ के लोकजीवन में भी उतनी ही पारंपरिक और उपयोगी रही है।
मारवाड़ के इतिहास में कई ऐसी परम्पराएं बनी हैं और कुछ परम्पराएं समय के साथ समाप्त हो गई। कुछ परम्पराएं रीति-रिवाज बन गई तो कुछ परम्पराएं आंशिक बदलाव के साथ आज भी वैसी ही कायम है। तो ऐसी ही परंपराओं में से एक है मारवाड़ के ग्रामीण जीवन में पाग-पगड़ी की परंपरा। पाग-पगड़ी की परंपरा को हम पगड़ी संस्कृति भी कह सकते हैं क्योंकि ग्रामीण कृषक जीवन में पगड़ी का अलग ही महत्व है। बस में यो या फिर रेल में, गांवों से शहरों तक, रास्तों से खेत तक तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर भी पाग-पगड़ियों का घूमना निरंतर जारी है। पगड़ियों के इस प्रकार के प्रचलन के पीछे उनकी प्रतिष्ठा, आन-मान-मर्यादा और दरबारी शिष्टाचार का जितना योगदान है उससे ज्यादा योगदान मारवाड़ के उष्ण भू-भाग और तपते रेगिस्तान पर उनकी आवश्यकता और अनिवार्यता का है।
1. व्यक्तिगत साक्षात्कार, प्रोफेसर जहूर खान जी मेहर, निवासी जालोरी गेट जोधपुर, दिनांक 28 जुलाई 2021.
2. रानी लक्ष्मीकुमारी, चूंडावत, राजस्थान के सांस्कृतिक गीत, चम्पालाल रंका एंड कं., जयपुर, 1985 पृ. 2
3. महेंद्र सिंह, नगर, राजस्थान की पाग-पगड़ियाँ, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध-केंद्र, जोधपुर, पृ. 43
4. नगर, महेंद्र सिंह, पगड़ी, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध-केंद्र, जोधपुर, पृ. 25
5. राय बहादुर मुंशी हरदयाल सिंह, रिपोर्ट मरदुमशुमारी राज मारवाड़ 1891, संपा. जगदीश सिंह गहलोत शोध संस्थान, 1997
6. मदनलाल, शर्मा, राजस्थानी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 124
7. व्यक्तिगत साक्षात्कार, कानारामजी सारण, जाति जाट, निवासी बेरु, उम्र 70 वर्ष, दिनांक 7 जुलाई 2021.
8. व्यक्तिगत साक्षात्कार, वही..
9. व्यक्तिगत साक्षात्कार, राजूराम सारण, जाति जाट, निवासी बेरु, उम्र 30 वर्ष, दिनांक 10 जुलाई 2021.
10. व्यक्तिगत साक्षात्कार, हरीरामजी चौधरी, जाति जाट, निवासी महादेव नगर, उम्र 60 वर्ष, 25 जुलाई 2021.
11. राय बहादुर मुंशी हरदयाल सिंह, रिपोर्ट मरदुमशुमारी राज मारवाड़ 1891, संपा. जगदीश सिंह गहलोत शोध संस्थान, 1997
12. व्यक्तिगत साक्षात्कार, मनीष बिश्नोई, जाति बिश्नोई, निवासी डोली, उम्र 30 वर्ष, 25 जुलाई 2021.
13. महेन्द्र सिंह, नगर, पगड़ी, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध-केंद्र, जोधपुर, 2015, पृ. 128
14. महेंद्र सिंह, नगर, वही.. पृ. 129
15. व्यक्तिगत साक्षात्कार, बुद्धाराम परिहार, जाति माली, निवासी मथानिया, उम्र 65 वर्ष, 15 जुलाई 2021.
16. व्यक्तिगत साक्षात्कार, कोजाराम परिहार, जाति माली, निवासी तिवरी, उम्र 85 वर्ष, 16 जुलाई 2021.
17. व्यक्तिगत साक्षात्कार, बुद्धाराम परिहार, जाति माली, निवासी मथानिया, उम्र 70 वर्ष, 15 जुलाई 2021.
18. व्यक्तिगत साक्षात्कार, कानाराम सारण, पूर्वोक्त..
19. व्यक्तिगत साक्षात्कार, राजेन्द्र चौधरी, जाति जाट, निवासी देदीपा नाडा, उम्र 45 वर्ष, 20 जुलाई 2021.
20. महेंद्र सिंह, नगर, राजस्थान की पाग-पगड़ियाँ, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध-केंद्र, जोधपुर, 2015, पृ. 43
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)
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