शोध सार : इस शोध आलेख में मेवाड़ की चित्रकला शैली में स्वतंत्रता से पूर्व तैल तकनीक या माध्यम से चित्रों की निर्मिती की गयी है उन चित्रों का समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है। प्रारम्भ में गुफावासियों के द्वारा जिस तरह से पशुओं की चर्बी में रंग को मिलाकर गुफा की दीवारों एवं छतों पर चित्रण कार्य किया गया तत्पश्चात गुफा चित्रण के समय काल में दीवारों पर खनिज रंगों का प्रयोग कर के चित्र निर्मित किये गये। कालान्तर में भारत में जिस तरह से कला का विकास हम पाल, जैन एवं अपभ्रंश शैली इत्यादि के रूप में देखते है। इसी अपभ्रंश शैली से मेवाड़ शैली की उत्पत्ति के प्रमाणित साक्ष्य हमें विभिन्न ग्रन्थों में दृष्टिगत होते हैं। कालान्तर में भारत में अंग्रेजों के आगमन के पश्चात विभिन्न क्षेत्रों में आये यूरोपीय प्रभाव दृष्टिवान होते हैं। मेवाड़ आंग्ल संधि के पश्चात उनके साथ आये कलाकारोंके सानिध्य में या प्रभावित होकर मेवाड़ के कलाकारों के द्वारा तैल माध्यम में मेवाड़ में भी कई अप्रतिम तैल चित्रों का निर्माण किया गया। इन कलाकारों में कुन्दनलाल, पन्नालाल एवं रघुनाथ आदि प्रमुख कलाकार थे जिन्होंने मेवाड़ की चित्रकला शैली को अलग पहचान दिलाई, साथ ही मेवाड़ में चित्रण शैली में नये माध्यम का सूत्रपात किया। जो भविष्य में मेवाड़ की चित्रकला में अति सार्थक सिद्ध होते हैं एवं बाद के यहाँ के समकालीन कलाकारों ने इस नये माध्यम में अनेकों चित्रों का निर्माण किया।
बीज शब्द :- तैल चित्रण, मेवाड़ शैली, तैल चित्रण तकनीक, परम्परागत चित्रण शैली, मेवाड़ के चित्रकार, आधुनिक कला, चित्रण, यूरोपीय शैली, खनिज रंग, चित्रात्मक शैली
मूल आलेख : कला मानव मन की भावों की अभिव्यक्ति है। इन भावों को अभिव्यक्त करने के माध्यम अलग-अलग हो सकते हैं जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, छापाकला, संस्थापनकला, सिनेमा, संगीत इत्यादि माध्यमों के द्वारा वह अपने भावों को चित्र के रूप में, संगीत के रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है। प्रागैतिहासिक काल में जब मनुष्य के समक्ष इतने माध्यमों का चुनाव नहीं था। उसने पशुओं की चर्बी में उन्हीं के रक्त को मिलाकर गुफा के दीवारों, छतों, खुरदरी चट्टानों इत्यादि पर दैनिक जनजीवन, शिकार एवं नृत्य करते हुए चित्रों का चित्रांकन किया। ये चित्र प्रायः लाल, काले व सफेद रंगों के द्वारा बनाये गये।
सिन्धु सभ्यता की खुदाई से हमें विभिन्न प्रकार की चित्रात्मक सामग्री प्राप्त होती है। यहाँ से हमें विभिन्न प्रकार के पात्र प्राप्त हुए है, जिन पर काले एवं लाल
रंगों से ज्यामितीय आकारों में चित्रांकन किया गया है। सिन्धु सभ्यता का विस्तार राजस्थान के कालीबंगा, पीलीबंगा, बालाथल, बैराठ एवं मेवाड़ के आयड़ के क्षेत्र तक में था। आयड़ से प्राप्त मृदभाण्ड, मिट्टी के बर्तनों इत्यादि पर सिन्धु सभ्यता के समान ही चित्रों का चित्रांकन परिलक्षित होता है और उन्हीं के समान यहाँ पर भी काले एवं लाल रंगों से बर्तनों पर आकृतियों को उकेरा गया है।
सभ्यताओं के विकास के साथ ही चित्रकला का विकास भी निर्बाध गति से होता रहा। वैदिक युग में चारों वेदों की रचना की गयी। जिसमें पहली बार ऋगवेद में कला शब्द का प्रयोग किया गया। वही मौर्य व गुप्त काल में गुफा चित्रण में चित्रकला का विकसित रूप दृष्टिगत होता है। इन गुफाओं में जोगीमारा, अजंता, बाघ, बादामी, सिगरिया एवं सित्तनवासल गुफाओं की छतों एवं भित्तियों पर चित्रकारों द्वारा टेम्परा विधि में खनिज
रंगों
का प्रयोग करके चित्रों को निरूपित किया गया।1
इन गुफा चित्रण की उन्नत परम्परा के पश्चात भारत में दसवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग पाँच सौ वर्षो में यहाँ बौद्ध, पाल, जैन एवं अपभ्रंश की चित्रण शैली की उन्नत परम्परा देखने को मिलती है। बंगाल, बिहार, गुजरात एवं राजस्थान में चित्रकला के विकास में इन शैलियों का प्रमुख योगदान रहा है। इन शैलियों के चित्रों के निर्माण में पोथियों एवं ताड़पत्रों का प्रयोग किया जाता था। पाल शैली के अधिकांश चित्रों का निर्माण पोथियों पर किया गया। गुजरात, जैन एवं अपभ्रंश शैलियों में सूखे रंगों को गोंद में मिलाकर कपड़े, कागज एवं ताड़पत्रों पर चित्रों का निर्माण किया गया। इन्हीं शैलियों में से अपभ्रंश शैली से मेवाड़ शैली का उद्भव माना जाता है।
मेवाड़ से प्राप्त प्राचीनतम चित्रकला के साक्ष्यों में श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी का नाम आता है, जिसको 1260 ई. में उदयपुर के आयड़ स्थान पर ही गुहिल्लादित्य एवं तेजसिंह के शासन काल में इस ग्रन्थ को चित्रित किया गया था। महाराणा लाखा, मोकल एवं राणा कुम्भा के काल को आन्तरिक शांति का काल माना जाता है। इस काल में मेवाड़ की चित्रकला का दूसरा सचित्र ग्रन्थ कल्पसूत्र है, जिसको 1418 ई. में सागेश्वर ग्राम मोहबाड़ में चित्रित किया गया था। मेवाड़ शैली के आरम्भिक चित्र अपभ्रंश शैली में निर्मित जैन ग्रन्थ सुपांसनाहचरियम में मिलते हैं। इस ग्रन्थ के निर्माण का समय 1423 ई. माना जाता है।2
मेवाड़ में राणा कुम्भा के शासनकाल को कला का ‘स्वर्ण युग’ कहा जाता है। कुम्भा स्वयं उच्च कोटि के कवि, कला के संरक्षक, एवं संगीतज्ञ थे। कुम्भा के शासनकाल में सूत्रधार मंडन द्वारा रचित देवमूर्ति प्रकरण, राजवल्लभ मंडन, प्रसाद मंडन, रूप मंडन आदि ग्रन्थों के साथ-साथ चित्रकला के रंगों की भी जानकारी प्राप्त होती है। चित्तौड़ एवं कुम्भलगढ़ किलों में स्थित स्मारक आज भी कुम्भा काल की संस्कृति के उत्तम उदाहरण है।3
कुम्भा के पश्चात उदयसिंह के समय काल में भागवत पुराण का परिजात अवतरण का सुन्दरतम उदाहरण देखने के मिलता है। इसको नानाराम चित्रकार द्वारा चित्रित किया गया।
राणा प्रताप के समय में मुगल शैली से प्रभावित सचित्र ग्रन्थ ‘ढोलामारू’ को चित्रांकित किया गया। तदुपरान्त अमरसिंह के काल में 1605 ई. में निसारदीन के द्वारा ‘रागमाला’ का चित्रण चावण्ड में किया गया। इन चित्रों पर मुगल शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। इन चित्रों में चमकीले एवं चटकदार रंगों का प्रयोग किया गया है। जगत सिंह प्रथम के शासन काल में मेवाड़ में जगत मंदिर एवं उदयपुर के महलों को पूर्ण करवाया जाता है। इनके शासन काल में कृष्ण के जीवन से सम्बंधित चित्रों का निर्माण अधिक होता है। इनके काल में भी रागमाला श्रृंखला के अन्य चित्रों को निर्मित किया जाता है। इन्हीं के शासन काल में ‘गीत-गोविन्द’, ‘सूरसागर’, ‘रसिक प्रिया’, ‘बिहारी सतसई’, ‘भागवत पुराण’ इत्यादि ग्रन्थों को चित्रकार साहिबदीन के द्वारा चित्रों को चित्रित किया गया।
‘रामायण’ की सचित्र प्रति भी इनके शासन काल में मनोहर चित्रकार के द्वारा चित्रित की गयी। इन कलाकारों ने मेवाड़ शैली को मौलिकता प्रदान करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। महाराणा जगतसिंह प्रथम के शासन काल में मेवाड़ चित्रशैली का महत्त्वपूर्ण विकास हुआ। महाराणा जगतसिंह एवं महाराणा राजसिंह का समय चित्रकला के साथ ही अन्य कलाओं के विकास की दृष्टि से स्वर्ण युग था।4
महाराणा राजसिंह भी अपने पिता
की भाँति कला प्रेमी थे। रामायण का उत्तरकाण्ड इन्हीं के शासनकाल में चित्रकार साहिबदीन के द्वारा इस ग्रन्थ के चित्रों को
चित्रांकित
किया।5 साहिबदीन ने इस समय कई चित्र सम्पुटों की रचना की, इसमें शुकर क्षेत्र महात्मय प्रमुख है। साथ ही महाभारत के अधिकांश चित्र इनके शासनकाल में चित्रित हुए।
1700 ई. के आसपास मेवाड़ चित्र शैली में एक परिवर्तन आया, महाराणा अमरसिंह द्वितीय के काल में कई रेखाचित्रों का निर्माण किया गया, जो उस समय की परम्परागत शैली से सर्वथा भिन्न थी। महाराणा संग्रामसिंह के समय में गीत गोविन्द के सभी अन्य चित्रों को चित्रित किया गया। महाराणा भीमसिंह एवं फतेहसिंह के समय में भी मेवाड़ शैली में सुन्दरतम चित्रों की रचना की गई। फतेहसिंह के समय में शिकार के चित्रों का निर्माण अधिकाधिक हुआ। इस समय यह एक प्रथा सी हो गयी थी।
इन सभी प्रमाणित साक्ष्यों के पश्चात मेवाड़ चित्रण शैली का विकसित रूप हम सन् 1540 ई. का विल्हण द्वारा रचित चौरपंचाशिका ग्रंथ के चित्रों में देख सकते हैं। इस ग्रन्थ में चम्पावती विल्हण नामक सुन्दर चित्र है, जो चित्रकला के उत्तम उदाहरणों में से है। इस ग्रंथ को प्रतापगढ़ में चित्रित किया गया था।6
इस समय भारत एवं राजस्थान की विभिन्न शैलियों में चित्रण शैली में कागज, कपड़ा एवं ताड़पत्रों का प्रयोग किया जाता था साथ ही इनमें चित्रों के निर्माण में खनिज रंगों का ही उपयोग होता था। भारत में अंग्रेजों के आगमन के पश्चात ही चित्रण हेतु कैनवास पर तैल रंगों को माध्यम के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा।
वैश्विक परिदृश्य में कला के माध्यमों पर दृष्टिपात करे तों 14 वीं 15 वीं शताब्दी तक तैल माध्यम का प्रयोग चित्रों को निरूपित करने में किया जाने लगा था। तैल माध्यम के प्रयोग के साक्ष्य हमें अफगानिस्तान की बामियान की गुफाओं में दखने को मिलते हैं। 5वीं और 10वीं शती के मध्य चित्रकारों के द्वारा बौद्ध चित्रों के निर्माण में प्रयोग में लिया जाता था।7 14वीं शती में जर्मनी, फ्रांस, इटली और इंग्लैण्ड़ में तैल माध्यम प्रचलित था। 19 वीं शती के पूर्व में यूरोपीय कलाकारों के द्वारा इस माध्यम का अधिक प्रयोग किया गया। समाजिक एवं सांस्कृतिक परिर्वतन के परिणामस्वरूप यह माध्यम विकसित अवस्था की ओर अग्रसर होकर समूचे विश्व में एक लोकप्रिय माध्यम बना एवं कलाकारों ने इसे सहज एवं स्वाभाविक रूप से स्वीकारा। इस माध्यम से आंग्ल कलाकार भी अछुते नहीं रहे।
अंग्रेजों की भारत में विस्तारवादी एवं साम्राज्यवादी नीति के फलस्वरूप उनका भारत में पदार्पण होता है एवं धीरे-धीरे भारत के सभी राज्यों में वो अपना शासन स्थापित करने में सफल हो जाते हैं। भारत में इनके साथ ही इनकी कला एवं संस्कृति का प्रभाव भी यहाँ के स्थापत्य कला, मूर्तिकला एवं चित्रकला पर देखने को मिलता है। राजस्थान भी इन प्रभावों से अछूता नहीं रहा। राजस्थान की विभिन्न कला शैलियाँ अपनी अनूठी रंग विधान, आकार एवं रूपाकारों के लिए विश्व प्रसिद्ध रही है। इन्हीं कला शैलियों में मेवाड़ कला शैली प्रमुख शैली है, जिसका उद्भव अपभ्रंश शैली से माना जाता है। यह निर्माण
अपनी विशुद्ध रंग योजना, रेखा प्रधान एवं भाव प्रविणता की अनूठी परम्परा के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
मेवाड़ की चित्रकला में परिवर्तन हमें 1818 ई. के उपरान्त मेवाड़ आंग्ल संधि के बाद दृष्टिगत होता है। इस समय मेवाड़ के शासक भीमसिंह (1778-1828 ई.) थे। मेवाड़ पर पाश्चात्य प्रभाव सभी पक्षों पर समान रूप से परिलक्षित होता है। अंग्रेजों से संधि के पश्चात अंग्रेज अधिकारियों के साथ कई यूरोपीय कलाकार भी मेवाड़ आये। जिनमें थौमस हिके, रेनाली, जेम्स वेल्स जैसे कलाकार थे।8 इन्होंने यहाँ रहकर चित्रण एवं छापा कला माध्यम में कार्य किया। मेवाड़ के परम्परावादी कलाकार, जो कि राजदरबार में रहकर दरबारी चित्रण कार्य कर रहे थे, वो इनयूरोपीय कलाकारों के सम्पर्क में आकर एवं प्रभावित होकर चित्रकला के नये माध्यम तैल रंग में अनेक सुन्दर चित्रों का निर्माण करते हैं। इन कलाकारों में कुन्दनलाल, घासी राम, परसराम, तारा, पन्नालाल, रघुनाथ इत्यादि प्रमुख कलाकार थे, जिन्होंने तैल रंग माध्यम में अपने चित्रों का निर्माण किया।
मेवाड़ में पारम्परिक चित्रण कार्य जिस चरम सीमा तक पहुँचा उतना ही चित्रकार कुन्दनलाल जी एवं घासीराम जी के चित्रों में यथार्थता एवं आधुनिकता की ओर झुकाव हमें परिलक्षित होते हैं। इन्होंने अपने चित्रों में छाया प्रकाश एवं रंग संयोजन में विशेष दक्षता का प्रर्दशन किया। कुन्दनलाल शर्मा मेवाड़ के प्रथम शिक्षित कलाकार थे। इनको महाराणा ने 1889 ई. में जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट, बम्बई से कला की उच्च शिक्षा के पश्चात तीन वर्ष के लिये स्लेड स्कूल ऑफ लन्दन में कला शिक्षा हेतु भेजा। जहाँ इनको मानवाकृति अंकन प्रतियोगिता में भी पुरस्कृत किया गया। कुन्दनलाल के द्वारा चित्रित की गयी महाराणा प्रताप का चित्र जिसकी राजा रवि वर्मा ने भी प्रतिकृति बनायी जो बहुत प्रसिद्ध हुई।9
इनके चित्रण कार्य में भारतीय एवं पाश्चात्य कला पद्धति का सम्मिश्रण देखा जा सकता है। उदयपुर के गोल महलों के अतिरिक्त क्षमा याचना, रामायण के दृश्य, जैन श्रावक जैसे वृहद् तैल चित्रों एवं अन्य प्रपत्रों की सामग्री उदयपुर के शिवकुमार शर्मा के संग्रह में है। इनके अलावा ग्रामीण युवती एवं कुम्हारिन बाजार की ओर, जैसे भावात्मक स्फूर्त चित्र नाथद्वारा के श्री भगवानजी, कन्हैयालालजी की चित्रशाला में सुरक्षित हैं, सभी चित्रों में आधुनिक कला की जागृति को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। उन्होंने यथार्थवादी शैली में तैल रंगों में चित्रण कार्य करना प्रारम्भ किया। फतहप्रकाश के गोल गुम्बदों में कुन्दनलाल ने कई यथार्थवादी चित्रण कार्य किये। महाराणा ने किन्ही निजी कारणों से उन्हें नाथद्वारा स्थापित कर दिया, जहाँ उन्होंने सामान्य जनजीवन के कई वृहद् यथार्थवादी तैल चित्रण किए, जिसमें जैन श्रावक “भिक्षुक“ पिछोला का दृश्य, ग्रामीण युवती, कुम्हारिन बाजार की ओर, रामायण दृश्य चित्र, क्षमा याचना जैसे अनेक यथार्थवादी चित्रों की रचना की।
महाराणा भोपालसिंह के समय अन्य चित्रकारों में रघुनाथ जी भी महत्वपूर्ण स्थान रखते है, जिनके कार्य में स्थानीय चित्र शैली का ज्यादा असर तो है लेकिन आकृति रचना में यथार्थ उन्हें यूरोपीय प्रभाव के नजदीक ला खड़ा करता है। उनके द्वारा निर्मित चित्र महाराणा भोपालसिंह जन्मदिन के अवसर सवारी पर उनकी कला का अच्छा उदाहरण है। जहाँ एक ओर चित्रांकन परम्परा में लघुचित्रण शैली की यथार्थवादी शैली का विकास चरम पर था वहीं यथार्थवादी शैली
में विशाल तैल चित्रण का आधिक्य था, जिसमें राजप्रसाद के पूर्ववर्ती राजाओं के चित्रण महत्वपूर्ण रहे। चित्रकार चतुर्भुज द्वितीय (1895 से 1975) जो मेवाड़ के प्रमुख चित्रकार रहे थे, इन्होंने महाराणा फतहसिंह जी एवं भोपालसिंह के राज्यकाल में कई व्यक्ति चित्र एवं मानव आकृतियों के ऐतिहासिक चित्रों का सफलता से संयोजन किया। इन्होंने कई वृहद् तैल चित्रों का निर्माण किया जिसमें महाराणा प्रताप एवं फतहसिंह जी के तैल चित्र उल्लेखनीय है। उनके उल्लेखनीय चित्र राजप्रासाद संग्रहालय में लगे हैं। वहीं महाराणा प्रताप के जीवन पर बनी श्रृंखला
के चित्रों में चतुर्भुज जी के अतिरिक्त रघुनाथ जी के तैल चित्रण कला के सर्वात्तम उदाहरण है। इनमें विभिन्न तैल चित्रों में प्रमुख है-10
महाराणा प्रताप और उनकी सेना, महाराणा प्रताप की सभा, महाराणा प्रताप और चेतक, महाराणा प्रताप हल्दीघाटी में, महाराणा प्रताप सेवक से वार्तालाप करते, महाराणा प्रताप सेवकों से चर्चा करते, महाराणा प्रताप वन में भीलों से चर्चा करते हुए, महाराणा प्रताप का मानसिंह पर हमला, महाराणा प्रताप सेवकों के साथ, महाराणा प्रताप का युद्ध आदि।
महाराणा प्रताप के ये तैल चित्र विशाल कैनवासों पर चित्रित ग्लास फ्रेमों में राजप्रासादों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इसी क्रम में चतरसिंह जी बावजी के जीवन पर भी कई तैल चित्रों का निर्माण हुआ जो राजप्रासाद के अलग-अलग महलों में सुरक्षित हैं। संग्रहालय में लगी कृतियों में चतरसिंह जी बावजी प्रभु की सेवा में, चतरसिंह जी बावजी ठाकुर जी की सवारी ले जाते।
महाराणा फतहसिंह के शासन काल में ही श्री पन्नालाल मेवाड़ा का नाम भी उल्लेखनीय है।11 अगर पन्नालाल जी के चित्रण विधान को देखा जाये तो उनकी कला में स्थानीय शैली की प्रधानता है। लेकिन मीठाराम मन्दिर के चित्रण कार्य के दौरान कुन्दनलाल के अधीनस्थ कार्य करने के दौरान उनके कार्य में यथार्थवाद का दर्शन होता है। महाराणा भूपाल सिंह के राज्यकाल में इन चित्रकारों के अतिरिक्त कई तैल चित्रों का निर्माण किया, जिनमेंमहाराणा के व्यक्ति चित्र एवं हल्दी घाटी युद्ध 84"x 51" का वृहद चित्र है जो वर्तमान समय में राजप्रसाद संग्रहालय, उदयपुर में सुरक्षित है।12
स्वतंत्रतापूर्व मेवाड़ की कला पर दृष्टिपात किया जाये तो इन कलाकारों के द्वारा तैल माध्यम में अनेक सुन्दर चित्रों का निर्माण किया गया। जिनमें कुन्दनलाल, पन्नालाल एवं रघुनाथ ने तैल माध्यम में अपने चित्रों का निर्माण करके मेवाड़ की परम्परागत चित्रण शैली से हटकर तैल माध्यम को अपनाया और मेवाड़ चित्रण परम्परा को नये आयाम दिये। हालांकि इनके विषय दरबारी, शिकार इत्यादि स्थानीय विषयों से ही सम्बंधित रहे थे किन्तु तकनीकी माध्यम के रूप में इन्होंने अपनी कला में तैल रंग माध्यम का समूचित प्रयोग सफलतापूर्वक किया।
इस प्रकार तैल रंग माध्यम के साथ अपनी कला में यूरोपीय प्रभाव का प्रयोग करके इन कलाकारों ने अपनी निजी कला शैली को अधिक विकसित किया। अब इन कलाकारों के समक्ष खनिज एवं प्राकृतिक रंगों के अलावा जलरंग एवं तैल रंग जैसे नये माध्यम उपलब्ध थे। इन माध्यमों का प्रयोग करके इन कलाकारों ने मेवाड़ की चित्रकला शैली को एक नयी दिशा प्रदान की। इन्हीं कलाकारों के बदलाव के फलस्वरूप स्वतंत्रता पश्चात उस समय के समकालीन कलाकारों ने तैल माध्यम को अपनाया एवं अपनी कला में इसका प्रयोग कर अपने चित्रों का निर्माण किया। इन कलाकारों में सुरेश शर्मा, लक्ष्मी लाल वर्मा, पी. एन. चोयल, ओ. डी. उपाध्याय, शैल चोयल आदि के द्वारा भी इस माध्यम को सहज रूप से अपनाया गया। इन्होंने अपने शुरूआती दौर में तैल माध्यम का प्रयोग किया। कालान्तर में अधिकांश कलाकारों ने तैल माध्यम की जगह ऐक्रेलिक रंग को अपना लिया है तो कुछ कलाकार मिक्स मीड़िया माध्यम में कार्यरत हैं।
निष्कर्ष : वर्तमान समय में विभिन्न तकनीकी माध्यमों के आने के पश्चात कलाकारों का रूझान तैल माध्यम की जगह ऐक्रेलिक माध्यम की तरफ ज्यादा हो गया है। ऐसा इसलिए भी है कि जहाँ तैल माध्यम का मौसम के अनुरूप एवं उसकी स्वयं की विशेषताओं के साथ उसको सुखने में समय अधिक लगता है वहीं ऐक्रेलिक माध्यम का प्रयोग करना सहज एवं सुलभ है, यह तैल रंग के विपरित जल्दी सुखने की विशेषताओं के साथ पारदर्शी एवं अपारदर्शी माध्यम है एवं जलमिश्रित माध्यम होने के साथ कलाकारों के अनुरूप तुरन्त प्रभावी प्रभाव देने में सक्षम होता है। इसलिए वर्तमान के कलाकार तैल माध्यम की जगह ऐक्रेलिक माध्यम को अपनी कला अभिव्यक्ति के लिए ज्यादा उपयुक्त मानते हैं।
1. रीता प्रताप: भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, (रा.हि.ग्रं.अ.), जयपुर, पृ.सं. 180
7. र. वि. साखलकर: यूरोपीय चित्रकला का इतिहास, (रा.हि.ग्रं.अ.), जयपुर, 2001, पृ.सं. 75
9. रीतेश जोशी: स्वतंत्रता पूर्व मेवाड की कला पर यूरोपीय प्रभाव (अप्रकाशित शोध ग्रन्थ), पृ.सं. 98
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