'दिन उगे' उठना। बिछावणे सामटकर पगात्याँ (चारपाई वह हिस्सा जिधर पैर फैलाए जाएँ) रखना। रात की बनी रोटी का कलेवा। धीणाँ हो तो धई (दही), दूद (दूध) वरना राबड़ी-छाछ का लगावण। हरे प्याज या कटवाँ कांदे की दो-चार कपली हों तो सोने में सुगंध! राबड़ी के कई भेद! बाजरा भिगोकर, कूटकर कूटकी राबड़ी बने तो आटा छाछ में घोलकर पकाने से छाछ की राबड़ी। गरमियों में बैशाख-जेठ के वक्त जब 'धन' की तो कौन कहे आकड़े तक सूख जाएँ। धिंणोड़ी सेरेक धार पर आ जाए। ऐसे ओड़ी (संकट) के वक्त खाटे की राबड़ी बने। लोटा या गिलास भर छाछ से काम चल जाए। खाटा ओलना (छाछ व आटे को किण्वन के लिए तैयार करना) बड़ी लकम का काम। प्रक्रिया खासी संगीतमयी। ढप वाद्य की मानिंद एक लय में तपक्या (मिट्टी छोटी हाँडी) बजे। एक घर में खाटा ओला जाए तो चार घर तक आवाज आए - टप्पई….टप्पई...टप्पई ...टप-टप-टप-टप-डब-डब-डब...टप्पई….टप्पई...टप्पई..टप-टप-टप-टप-डब-डब-डब...। छाछ-चून को जितना घोटा जाए खाटा उतना ऊकटे। जितना ऊकटे उतना खटास-मिठास! तपक्या ढकी छाछ-चून के साथ सूरज का तावड़ा अपनी करामात करे। छाछ-चून ही नहीं हाथ की करामात की भी खासी भूमिका। सबके हाथ की राबड़ी वैसी ना बने जैसी दादी के हाथ की। मुहल्ले भर में ही नहीं गाँव भर में फेमस! घर के लोगों को मिले, खेत के ध्यानक्यों (मजदूरों) को मिले, मंगते - भिखारी को मिले। बिसाती-ग्वारनी को मिले, साधु-संत, ओलिया -फकीर को मिले। और जो शेष बच जाए तो बकरियों को मिले। सब चाव से पिएँ। सबड़के ले- लेकर खाएँ। पर मेरी किस्मत ऐसी बापड़ी कि दादी के हाथ की राबड़ी कभी नसीब न हुई। मेरे हिस्से में सिर्फ़ किस्से आए। जब तक मैं इस धरा धाम पर उतरा दादी परम धाम सिधार चुकी थी। पर उनके हाथों से बनी राबड़ी की चमत्कार कथा चलती रही। तब गाँव के और आज शेखावाटी भर के सिद्ध संत भूरनाथ जी महाराज संन्यास के बाद भी कभी गाँव से गुजरते तो घड़ीक राबड़ी पीने रुक जाते। एक बार दादी किसी काम से घर के बाहर गई थी, आई तो खबर मिली कि थोड़ी देर पहले भूरनाथ जी आए थे। दादी रह-रह पछताएँ, '' मैं घर पर होती तो राबड़ी दे आती। हे भगवान ! मुझे भी आज ही काम होना था।'' संत ने पुकार सुनी। लौट आए। बोले,"डोकरी! ल्या राबड़ी लिया।"
दादी
राबड़ी
का
बाटका
लिए
दौड़ी
आई।
फिर
लौटकर
गई।
बाजरे
की
रोटी
लिए
लौटी
-"म्हाराज
चिन्योक
(थोड़ा
सा)
रोटी
को
टुकड़ोई
ले
ल्यो!"
"ना डोकरी माई! बस राबड़ी की ई बात
तेरे
जी
में
ही,
रोटी
औरूँ
कणा
(फिर
कभी)
खास्याँ।"
खाली
बाटका
रखते
हुए
रमते
जोगी
ने
कहा।
पाणी
का
कुल्ला
कर
चल
पड़ा,
कमंडल
उठाए,
रमता
राम।
जिधर
से
गुजरे
उधर
श्रद्धा
का
सैलाब
उमड़
आए।
माँ
जब
ये
चमत्कार
भरी
'ऐतिहासिक'
गाथा
सुनाती
तो
उनकी
आवाज
श्रद्धा
से
भीगी
होती।
माँ
इस
लहजे
में
सुनातीं
कि
संत
चमत्कारी
थे,
मन
की
बात
जानते
थे,
दादी
की
सच्ची
श्रद्धा
को
जानकर
लौट
आए।
और
मुझे
लगता
कि
राबड़ी
चमत्कारी
थी,
जो
जोगी
को
मौड़
लाई।
तपक्या
की
तपस्या
फकीर
की
खंजड़ी
से
कम
नहीं
--टप्पई….टप्पई...टप्पई...।
वह
भी
रोज
धूप
का
धूणा
तापे।
कभी-कभी
दोपहर
में
और
लगभग
हर
रोज
रात
को
कहानियाँ
कही
जातीं।
सातरसा
(सप्तर्षि),
किरत्याँ
(कृतिका
नक्षत्र)
और
हिरण्याँ
(हस्ती
नक्षत्र)
,पारधी
आदि
की
कहानियाँ
पिताजी
सुनाते।
सूरज
घोड़े
की
खाणी
(कहानी)
भी
वही
कहते।
कहानियाँ
बात
कहलातीं।
बात
हर
रंग-रस
की
होतीं।
बाल
मनोविज्ञान
की
-
चाल मेरी डामकी डमाक डम!"
रहस्य
रोमांच
भरी
नोळ्या(नेवला)
राजा
की
क्हाणी
–
"डाकण
राँड
छुरो
पलारै
नोळ्यो
राजा
झुक-झुक
देखै।"
कभी-कभी
कहानियों
की
काल्पनिकता
से
ऊबकर
लोगबाग
यथार्थ
के
किस्सों
पर
उतर
आते।
वह
वक्त
हमारे
लिए
बड़ा
रोचक,
डरावना
और
कौतूहल
भरा
होता।
किस्सा
होता
कोई
साहसी
बुजुर्ग
का
जो
किसी
शादी-ब्याह
में
शामिल
होने
जा
रहा
होता।
रात
का
भखत!
घुप्प
अँधेरा!
गाड़ी
में
जुटा
हुआ
ऊँट
अचानक
रुक
जाता!
लाख
टिचकारो,
लाख
मारो,
मूरी
खींचो,
कामड़ी
के
सपीड़
दो
मगर
ऊँट
टस
से
मस
ना
हो।
बुजुर्ग
गाड़ीवान
कुछ
समझे
इतने
में
कुछ
दूर
उसे
धोळे
घाबों
(वस्त्रों)
वाला
आदमी
दिखाई
दे।
अगले
ही
पल
वह
बढ़ना
शुरू
करे
और
धरती
से
आकाश
तक
उसके
टाँगड़े
ही
टाँगड़े
दिखाई
दें।
कभी
वह
लल्ड्या
(भेड़ा)
बन
जाए
तो
कभी
कुछ
और
रूप
धर
ले।
दिखाळी
देकर
अगले
ही
पल
'छ्याऊँ-म्याऊँ (छू
मंतर)'
हो
जाए।
गाड़ीवान
पसीने
से
तरबतर!
ऊँट
चलता
जाए
और
नाड
(गर्दन)
मोड़-मोड़कर
देखता
जाए।
ऊँट
के
गले
में
बँधा
इकलौता
टोकरा
(मोटा
घुँघरू)
टणक-टणक
बजे।
मगर
समझदार
आदमी
गाड़ी
की
लीक
बिल्कुल
नहीं
छोड़े।
वह
जानता
है
कि
लीक
छोड़ी
और
गए
काम
से!
कोई
ठाड्डा
(बड़ा)
एलान
(भूत-प्रेत)
है
आज
तो!
सातों
पीर
-फकीरों
और
देई-देवताओं
को
सुमरता
जियाँ-तियाँ
(जैसे
-तैसे)
घर
पहुँचे!
कभी-कभी
आदमी
की
बजाय
औरत
मिले।
लाल
घाबोवाली!
चाँदनी
रात
में
झिलमिलाता
ओढणा!
जगर-मगर
गोटे
का
जाळ
जड़ा
पोमचा
या
पीला
ओढ़े
सोळा
सिणगार
किए
नार!
रुणझुण-रुणझुण
पायल
बाजें।
कोहनियों
तक
मेंहदी
राची
और
कलाइयों
में
खन-खन,
खन-खन
खनकता
चुड़ला!
सिर
पर
सजा
बोरला,
माथे
पर
लाल
रंग
की
मोटी
टीकी
(बिंदी)!
नैणां
काजळ!
कामणगारा
रूप!
कहे
,"मन्नई
गाडी
में
बठालै।
फलाणै
गाँव
जास्यूँ।"
मगर
समझदार
आदमी
चक्कर
में
नहीं
आता।
गाड़ी
रोकने
या
ओठा
(वापस)
मुड़कर
देखने
का
मतलब
ओपरी-पराई
का
साथ
होना!
कळ-कावळ
होना!
कोई
रीझे
न
तो
वह
डराने
की
कोशिश
करे।
तरह-तरह
के
रूप
धरे।
गाय
को
छोड़कर
कोई
भी
ज्यानबर
बन
जाए।
पल
में
घूघरे
बजाए,
पल
में
चूड़ी
छनकाए!
जाँटी
पर
चढ़
जाए।
बौझी
(नयी
खेजड़ी)
की
टिकटोळी
को
छूने
लगे
लम्ब
तड़ंग!
कभी
गाड़ी
का
पीछा
करे,
अभी
आगे
जा
घूमटा
काढ़कर
रास्ते
पर
बैठ
जाए।
हड़हड़-हड़हड़
हँसे!
दाँत
काढे!
और
अगले
ही
पल
'छ्याऊँ-म्याँऊ'
हो
जाए।
कोई-कोई
'एलान'
बुरीगार
इतना
नुगरा
हो
कि
ब्याह
के
न्यूँते
में
जाकर
लौटते
आदमी
से
लावणा
खोसने
की
कोशिश
करे।
न
दे
तो
कुश्ती
लड़ने
की
चुनौती
दे।
कभी
आग
के
अंगारे
जला
दे,
कभी
एक
-दो
भेड़ों
के
रूप
में
दिखे
और
पल
भर
में
समूचे
खेत
या
जोहड़े
को
भेड़ों
की
टोलियों
से
भर
दे।
कभी
रात
को
भछा
-भछ
जाँटी
(खेजड़ी)
छाँगने
लग
जाए।
अळडाट
करते
डाळे
के
डाळे
टूटें।
सबेरे
जाओ
तो
खेजड़ी
का
गोबळ्या
तक
कटा
न
मिले!
न
खोज,
न
निशान।
भूत-पलीत
की
माया
किसी
के
समझ
न
आए।
कोई-कोई
आदमी
भी
इतना
तकड़ा
(जबड़दस्त)
निकले
कि
कुश्ती
की
चुनौती
स्वीकार
ले।
पायचे
मारकर,
स्यापी
(गमछा)
को
सिर
पर
ठीक
से
बाँधे
और
कूद
पड़े
भूत
से
घुस्ती
घुळने!
घंटों
घुस्ती
(कुश्ती)
चले।
रास्ते
की
बाळू
रेत
में
गोडों
(घुटनों)
से
गहरे
धाने
(गड्ढे)
घल
जाएँ।
वो
घदमपटकी
हो
कि
कहा
न
जा
सके।
कोचरियाँ
(उल्लू)
बोलने
लगें,
खीपड़े
साँय-साँय
करें।
छाँगी
हुई
खेजड़ियों
की
टिकटोळियों
पर
कटारों
द्वारा
छोड़े
गए
तुरले
-तुरंगे
(हरी
डालियाँ)
हिल
उठें।
भूत और
आदमी
दोनों
हाँफने
लगें।
पर
हार
कौन
माने!
भूत
के
बळ
का
क्या
तोल!
अंत
में
भूत
आदमी
की
हिम्मत
का
लौहा
मान
ले
और
कहे,
"हेर
हे
भाई!
आदमी
भोत
देखे
पर
तुम
सा
नहीं
देखा।
जाओ
ले
जाओ
अपना
लावणा!
आगे
सिर
ध्यान
रखना!
टेम
टाळकर
इधर
से
निकळना!"
मतलब
भूत
सामना
करने
से
ही
भागते
हैं।
यही
इकलौता
मंतर
है
भूत
भगाने
का।
मगर
हर
आदमी
इतने
जोर
का
नहीं
हो
सकता।
निदान
लोग
रात
का
सफ़र
यथासंभव
दो-तीन
जणे
मिलकर
करें।
मगर
भूत-पलीत
भी
इतने
शातिर
दिमाग
कि
आदमी
का
गण
देखकर
दिखने
का
फैसला
करें।
तीन
में
से
अगर
दो
लोग
देवगण
वाले
और
एक
भूतगण
का
हो
तो
एक
को
ही
दिखाई
दे।
बाकी
दो
इधर-उधर
आँखें
फाड़ें।
चुचाळे मारें पर
उन्हें
कोई
भूत-वूत
दिखाई
न
दे।
ऐसी
सत्य
कथाएँ
प्रायः
रात
को
खाना
खाने
के
बाद
चुल्हे
के
पास
आग
तापते
वक्त
या
दही
जमाने
के
लिए
रखे
दूध
के
ज्यादा
गर्म
होने
पर
उसे
ठंडा
करने
के
इंतजार
में
कही
जाएँ।
मौसा
जी,
फूँफाजी
आदि
किसी
मेहमान
के
आगमन
पर
भी
कुशल
समाचार
के
बाद
ये
किस्से
जरूरी
रस्म
की
तरह
दोहराए
जाएँ।
मेहमानों
में
नए
दामाद
के
आगमन
पर
ही इन
किस्सों
के
दोहरान
से
छूट
प्राप्त
! तब
इनकी
जगह
गीत
गाकर
ही
काम
चला
लिया
जाए।
ये
किस्से
इतने
जीवंत
ढंग
से
सुनाए
जाएँ
कि
वक्ता
-श्रोता
दोनों
बार-बार
रोमांचित
हों।
श्रोताओं
पर
असर न
हो
तो
वक्ता
बीच-बीच
में
कहे
'देखो
मेरी
तो
अब
भी
रुँवाळी
खड़ी
हुरी
है।'
यह
सुन
श्रोताओं
के
धूजणी
सी
छूटे,
रुँवाळी
खड़ी
हो
जाए।
शरीर
में
कन-
कन
होने
लगे।
पेट
में
भभका
सा
उठे
और
सारे
जिस्म
में
फैल
जाए।
बड़ों
का
तो
पता
नहीं
पर
हम
बच्चे
ये
किस्से
सुनने
के
बाद
वहाँ
से
उठकर
पीछे
अँधेरे
में
लघुशंका
करके
आने
की
हिम्मत
नहीं
जुटा
पाते
और
यों
ही
सो
जाते
और
नतीजतन
पूरी
रात
सपने
में
वही
किस्से
चलते
रहते।
कुछ
साथियों
के
माता-पिता
को
तो
सुबह
भैरौं
जी
के
तेल
ढाळने
की
मन्नौती
भी
माननी
पड़ती
क्योंकि
कई
बच्चे
बिस्तर
की
बारानी
धरती
को
सिंचित
में
बदल
देते।
स्त्री-पुरुष
जो
किस्से
कहते
उस
पर
उनका
लगभग
पूरा-पूरा
विश्वास
भी
होता।
मेडिकल
सुविधा
प्रायः फाकी,
घूँटी
से
शुरू
होती
तथा
झाड़े,
भभूति,
ताबीज
और
ताँती
तक
का
सफर
तय
कर
इतिश्री
को
प्राप्त
हो
जाती।
औरतों
के
बच्चे
कई
बार
नहीं
जीते।
शिशु
और
किशोरवय
बच्चे
जो
अकाल
मौत
का
शिकार
बनते
वे
अलग
किस्म
की
भूतयोनि
में
जाते।
वे 'कच्चे
कलुवे'
बनते।
बहुवचन
में
इन्हें
'काचा
कळवा'
कहा
जाता।
ये
ढलती
रात
में
रोते।
इनका
सामूहिक
रुदन
औरतें
सुनतीं।
सुबह
उठकर
उसका
जीवंत
वर्णन
करतीं
- 'रात
न
तो
काचा
कळवा
रोवा
हा..
उवाँय….उवाँय...उवाँय….उवाँय!'
कई
बार
बिल्लियाँ
भी
कच्चे
कलुओं
की
आवाज़
में
रोतीं
-उवाँय….उवाँय...।
कुत्तों
का
रुदन
भी
खूब
डरावना
होता
-हूऊऊऊऊ...होओओओओ….।
एक
जंगली
लोमड़ी
होती
विशेष
किस्म
की
फ्याउड़ी
नाम
की।
वह
जिस
घर
के
पिछवाड़े
बोले
उस
घर
में
कोई
न
कोई
मौत
हो!
फ्याउड़ी
के
मुँह
से
आग
की
झळ
निकले!
काचा
कळवा
बनने
के
कारण
भी
बड़े
डरावने!
कोई
स्त्री
बाँझ
हो
या
जिसके
सिर्फ़
लड़कियों
की
जावै
हो,
लड़का
एक
भी
न
होता
हो
तो ऐसी
औरत
बेटा
पाने
के
लोभ
में
खेवन
करके
डाकण
बन
जाए।
खेवना
भी
बड़ी
चुनौतीपूर्ण!
अमावस
की
अँधेरी
आधी
रात
में
माचे
की
दावण
(चारपाई
के
पैताने
की
रस्सियाँ)
के
नीचे
कुंडा
रखकर
निर्वसन
नहाए।
फिर
एकदम
निर्वस्त्र
ही
अकेली
श्मशान
में
जाए
।
तन
पर
सूत
का
धागा
तक
न
हो
और
चिता
के
अंगारों
में
रोट
सेककर
खाए
तो
वह
डाकण
हो
जाए।
वह
डाकण
दिन
में
जिस
बच्चे
को
देख
ले
वह
बच्चा
ऐसा
निढाल
हो
के
गर्दन
तक
न
उठा
पाए।
न
दूध
पिए,
न
रोने
से
रुके!
एकाध
दिन
बाद
मर
जाए।
डाकण
उस
मृत
बच्चे
को उसी
विधि
से
निर्वस्त्र
हो
आधी
रात
को
मिट्टी
से
निकाले
और
गोद
खिलाए,
दूध
पिलाए।
गाँव
में
एक
महिला
के
अध
डाकण
होने
का
संदेह
बरसों
रहा।
पूरी
डाकण
होना
तो
हँसी
खेल
नहीं
मगर
आधी
अधूरी
डाकण
तो
कोई
हो
ही
सकती
है।
(पुत्र
लोभ
में
हो
सकता
है
कुछ टोने टोटके
उसने
असल
में
भी
किए
हों।
पर
किस्से
चलें)
कभी
पशुओं
के
ठाण
में
उतारा
दिया
मिले।
कभी
किसी
घर
की
दीवार
पर
थापा
दिया
मिले।
टीकी-टमका
किया
मिले।
चौरस्ते
पर
तगरे
में
मिठाई,
काजळ
,मेंहदी,
टीकी
आदि
रखे
मिलें।
कभी
किसी
झाड़ी
में
उघाड़ी
हो
रात
को
कळसी
देते
देखे
जाने
का
किस्सा
आग
की
तरह
फैल
जाए।
खूब
नमक
मिर्च
लगाकर
किस्सा
मौहल्ले
दर
मौहल्ले
घूमे!
मौहल्ले
से
घर
-घर
घूमे।
ठिकानों
-रिश्तेदारियों
में
पहुँचे।
गायों-भैंसों
का
दूध
सूखने
लगे।
बच्चों
की
नज़र
न
उतरे।
गीत
गानेवालियाँ
उत्सव
खुशी
के
मौके
पर
गुड़
-मिठाई
घर
न
ले
जाएँ।
सुबह
कोई
दे
जाए
तो
खाएँ
न!
कोई
रात
को
कपड़े
तणी
पर
न
छोड़े।
कभी-कभी
किसी
बच्चे
के
बालों
में
बचरका
भरा
मिले।
कपड़े
कटे
मिले।
भूतों
की
एक
और
खतरनाक
नस्ल
है-
कुंडापंथी!
बेजां
खतरनाक!
नुगरा!
न
किसी
देवता
की
सौगन
माने,
न
कोई
मंतर!
कुंडापंथी
भूत
जिसे
मारे
वह
भी
कुंडापंथी
ही
बने।
उसके
निवारण
की
विशेष
सामग्री,
विशेष
पद्धति!
विशेष
तंत्रक्रिया!
जिसके
अंत
में एक
कुंडे
में
सारे
परिजन
भोजन
करें।
जो
उनको
खाते
देख
ले वह भी
कुंडापंथी
बनें!
हिंदू
भूतों
के
साथ
मूसलमान
भूत
भी।
पर
भूत
पूरे
धर्मनिरपेक्ष!
रळते
समय
न
मजहब
देखें
, न
लिंग,
न
उम्र!
अलबत्ता
इलाज
के
लिए
जरूर
उनका
मजहबी
तरीका
काम
दे।
हिंदू
भूतों
की
बजाय
मूसलमान
भूत
ज्यादा
खतरनाक
माने
जाए!
"जिन
है
जिन।
स्याणा
भोपाऊँ
कोनी
पार
पड़े।
मुसलमानी
काम
है।"
लोग
कहें।
मुसलमानी
काम
मतलब
किसी
मुसलमान
तांत्रिक
से
ही
ठीक
हो।
उस
जमाने
के
आदमी
दकियानूस
पर
भूत
बड़े
प्रोग्रेसिव!
वे
धर्मनिरपेक्ष
तो
थे
ही
भाईचारा
भी
उनमें
खूब
! हिंदू
और
मुसलमान
भूत
साथ-साथ
रहें।
साथ-साथ
रळें
(किसी
में
प्रवेश
करें)।
भूत-भूतणियाँ,
काचे
कळवे
और
चुळावण
(चुड़ैल)
एक
साथ
बिचरें।
मुहल्ले
में
एक
भाभी
में
एक
बार
रळ
गए।
रळबै
रळ
गए
लेकिन
निकळना
म्हाभारत!
तीन
तिलोकी
दिखा
दी।
भाभी
तरह-तरह
की
आवाजों
में
बात
करे
-पुरुषों
की,
बच्चों
की,
महिलाओं
की।
कहे
, "लेर
जास्यूँ,
छोड्डूँ
कोनी,
थारै
याद
आवै
जक्की
कर
ले
ज्यो।"
कभी
एक
ही
शब्द
रटे
-"हट!हट!हट!हट!हट!"
"चुप-चुप-चुप-चुप।"
दस-दस
लोगों
से
न
डटाए
(नियंत्रित
हो)!
जेठ,
ससुर
तक
का
लिहाज
भूल
जाए!
तड़ाच
खाकर
गिर
जाए
पर
दर्द
का
नामो
निशान
नहीं।
बार-बार
जाड़े
बुचें
(दाँत
लगना)!
हाथ-पाँव
में
भयंकर
बाँइटे
आएँ!
जब
भूत
दूर
हों
तो
घूँघट
निकाल
कर
रोने
लगे।
न
जाने
किस
चौराहे
पर
पग
लगा।
न
जाने
कब
भूत
लैर
हो
गए!
गाँव
के
सारे
स्याणे
फैल!
डोरे
जंतर
फैल!
साँझ
पड़ते
ही
समूचा
गाँव
थर-थर
काँपे!
घर-घर
हनुमान
चालीसे
के
पाठ
हों।
दीया
-बाती
की
बेला
फळसे
के
बाजरे
के
दानों
और
पानी
की
कार
दी
जाए।
लोग
छः
बजे
ही
खा-पीकर
जप
जाएँ!
रोज
नईं
बूजा
करवाई
जाए।
आखे
और
नारेळ
उँवारे
जाएँ।
पशुओं
के
ठाण
में
भी
अगरबत्ती
घुमाई
जाए।
चौमासे
का
टाइम!
बाजरे
की
कड़बी
में
दिन
में
भी
डर
लगे।
लोग
बड़-पीपळ
के
नीचे
से
गुजरने
से
बचें।
रात
ही
नहीं
दिन
के
बारह
बजे
के
टाइम
को
टाळकर
ही
लोग
आएँ-जाएँ।
इस
बार
की
घटना
ने
उन
लोगों
को
भी
डरा
दिया
जो
कभी
न
डरे
थे।
उन
लोगों
को
भी
भूत
में
यकीन
दिला
दिया
जो
भूतों
को
नहीं
मानते
थे।
थोड़ी
हिम्मत
वाले
पुरुष
मुँह
में
नमक
की
काँकरी
लेकर,
हाथ
में
लम्बी
तारबँधी
बाँस
की
डाँग
लेकर
दो-दो
चार-चार
की
टोली
में
पीड़ित
के
घर
जाते
थे।
हर
दिन
नया
स्याणा
भोपा
आता।
धीरे-धीरे
भूतों
ने
अपनी
संख्या
और
वैरायटी
बतानी
शुरू
की।
पता
चला
जिन,
भूत,
काचे कळवे, चुळावण आदि
बैर
भाव
बिसराकर
भाभी
की
इकलौती
काया
में
बिना
किराए
के
रहने
लग
गए
हैं
और
उसे
मौका
पाकर
साथ
ले
जाने
का
इरादा
जता
रहे
हैं।
न
जाने
कितने
देवताओं
की
ओट
ली
गई।
कितने
चढ़ावे
और
जात
बोली
गई!
गले
में
कितने
ताबीज
और
ताँतियाँ
बाँधी
गई!
कितने
हिंदू
और
मुस्लिम
तांत्रिक
भूतों
की
तरह
धर्मनिरपेक्ष
होकर
एक
साथ
आए!
भूतों
को
कितनी
ही
सौंगध
कढ़ाई
गई!
कसमें
दी
गईं,
लालच
दिए
गए।
वचनों
में
बाँधा
गया
तब
वह
भूतों
का
कुनबा
भाभी
की
देह
को
छोड़कर
बोतल
के
मंत्रित
पानी
में
आने
को
राजी
हुआ।
तब
धोखे
से
उन्हें
तळाव
के
पीपळ
के
पड़ौस
में
नाराणबळी
के
खेजड़े
के
बगल
में
एक
बूढ़े
जाँट
(खेजड़ी)
के
तने
में
कील
दिया
गया।
कुछ
बरसों
बाद
एक
दिन
'गोर्यूँ
वाले
खेत'
की
तरफ
जब
स्थानीय
तांत्रिक
खेता
बाबा
से
मेरे
किशोर
मन
ने
पूछा,
"बाबा
तुम
तो
बूढ़े
हो
गए।
खेत
का
काम
कैसे
होता
है?"
खेता बाबा ने पहले कहा , "जय साहेब की।"
फिर
आँखों
पर
हाथों
का
छज्जा
बनाकर
खेत
की
ओर निगाह
डाली,
जिसमें
मोठ
की
अध
उपड़ी
फसल
खड़ी
थी।
यकायक
अपनी
तांत्रिक
क्रियाओं
के
प्रभाव
को
जमाती
हुई
कुटिल
मुस्कान
खेता
बाबा
की
सफेद
बेतरतीब
मुछों
को
फुरकाती-सी
प्रतीत
हुई।
वे
बोले
मैंने
काचे
कळवों
की
खेवना
कर
रखी
है।
रात
को
मेरे
बुलाते
ही
वे
झुँड
के
झुँड
नाचते
हुए
आते
हैं
-
"खेतु!
खेतु!
चिटकी
दे...।"
"खेतु!
खेतु!
चिटकी
दे...।"
चिटकी
माने
नारियल
की
गिरी
के
टुकड़े
जो
मखानों-बताशों
के
साथ
प्रसाद
में
दिए
जाते
हैं।
"मैं कहता हूँ , पहली एक लावणी की पाँत चढ़ा र आ़ओ।" वे सैकैण्डों में
काम
कर
आते
हैं।
फिर
नाचते
हुए
आते
हैं-
"खेतु! खेतु! चिटकी दे।"
"खेतु! खेतु! चिटकी दे।"
"मैं उनको चिटकी -पताशे दे देता हूँ।"
धीरे-धीरे
गाँव
में
बिजली
आई।
रोशनी
हुई।
भूत
कम
होने
लगे।
स्कूल
जाने
वालों
की
तादाद
बढ़ी
तो
भूतों
की
तादाद
और
कम
हुई।
उजाले
के
अनुपात
में
भूतों
की
जनसंख्या
गिरने
लगी।
हालांकि
लुप्त
नहीं
हुई
क्योंकि
अँधेरा
भी
पूरा
कहाँ
छँटा?
चिटकी देने वाला खेतु भी एक अकेला थोड़े ही है? कितने बड़े-बड़े खेतु कहाँ-कहाँ नहीं हैं? जटाधारी, दढ़ियल,
क्लीन
सेव्ड!
वृद्ध,
जवान,
पुरुष
खेतु!
स्त्री
खेतु!
बहुत
सारे
खेतु
टीवी
पर
आएँ।
चमत्कार
की
चिटकी
बाँटें।
कृपा
की
भभूति
लगाते,
भय
की
रिगदी
दुहते
खेतु! जहाँ-जहाँ
तक
नजर
का
पसारा,
वहाँ-वहाँ
तक
खेतु
ही
खेतु का नजारा।
भगतों
की
भारी
भीड़!
सब
चिटकी के
लिए
अधीर!
कोई
बाँटने
को
तो
कोई
झपटने
को।
कच्चे
कलुओं
के
साथ
पक्के
कलुवे
भी
नाच-नाचकर
खेतुओं
को
घेरे
हैं
-
"खेतु!
खेतु!
चिटकी
दे।"
खेतु हैं, चिटकी हैं, कच्चे कलुवे हैं, दीन दुखियारे हैं। सब हैं। है नहीं तो रोशनी का इंतजाम। चकाचौंध है पर रोशनी नदारद। च्यानणे (उजाले) का कोई बंदोबस्त नहीं। माँ कहे, " च्यानणूँ तीन चीज को! कै (या तो) पूत को च्यानणूँ! कै दूध को च्यानणूँ! कै चाँन (चाँद) को च्यानणूँ!" मेरा मन कहे, 'एक चौथा च्यानणाँ भी है -ज्ञान का च्यानणाँ!' यह च्यानणाँ तब हो जब कोई कबीर पैदा हो। जो ज्ञान की आँधी उठाए और भ्रम की टाटी उड़ाए! फिलवक्त तो भूत बोतलों में बंद हैं और भूत के बदले भविष्य कील दिया गया है। क्या ऐसी कोई भभूत है कि खेतु खेत रहें और चेतु चेत जाएँ!
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)
बालमन की विचित्र यात्रा का अद्भुत वर्णन। बचपन की स्मृतियां जो छ्यांऊँ-म्यांऊँ हो गई
जवाब देंहटाएंथी , वह बिजली की तरह कौंध गई। स्थानीय शब्दावली टिचकारी, मूरि और सपीड़ से लेकर
तुरले तुरंगे और चुचाळा तक बहुत सुंदर चयन और प्रयोग किया है। 35 वर्ष पूर्व की समय यात्रा करवाने के लिए आपके हार्दिक आभारी है।
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