गीत-ग़ज़ल
- पुष्पराज
यादव
गीत : एक
रिक्तियों
के बाण
मन के
पर कतर
कर ले
गये हैं
l
मंजिलों
की ओर
बढ़ते
कारवाँ
में एक
थे हम,
वक्त
के हाथों
रचित
स्वर्णिम
सरस आलेख
थे हम
l
कामना
का एक
पंछी छटपटाये
जा रहा
है,
कुछ
शिकारे पंख
जिसके नोंचकर
हर ले
गये हैं
l
कोई
तारा था
गगन के
भाल
पर यूँ
जगमगाता,
कोई
मोती था
समंदर की
सतह
में झिलमिलाता
l
कोई
आकर्षण उन्हें
जब एक
करने को
बढ़ा तो,
बद-नियति के
दंश दोनों
की चमक
हर ले
गये हैं
l
रह
गये हैं
मन के
मरुथल
में
तपनमय गर्म
टीले,
गंध
भरती घाटियों
के
हो
गये जब
हाथ पीले
l
रह
गयी हैं
नागफनियाँ आँचलों
में बींधने
को,
केसरों
की क्यारियाँ,
गुलशन सरोवर
ले गये
हैं l
गीत : दो
बैठ
हम नदिया
किनारे ध्यान
में उलझे
रहे;
धो
गयीं निज
केश जलपरियाँ
नज़र फेरे
हुये ।।
हर
लहर अन्तिम
मिलन का
दे
गयी संकेत
हमको
मुट्ठियों
में दे
गये तटबन्ध
गीली
रेत हमको
और
हम निरुपाय
सीने से
लगाये निज
व्यथा,
लौट
आये इन्द्रपुर
से हाँ
नज़र फेरे
हुये ।।
मिल
न पाये
हाथ रूपा
से
मिलन
का पल
गया,
कह
न पाये
बात भी
मन की
कि
जीवन छल
गया
हम
स्वयं जब
फैसले पर
आज कल
करते रहे
हँस
पड़ीं तब
हम पे
कुछ सदियाँ
नज़र फेरे
हुये ।।
लहलहाते
खेत सरसों
के
खिले
झरते गये
हर्ष
के आयास
लघुता को
ग्रहण
करते गये
व्यर्थ
ही खिलना
हमारा बिजलियों
के देश
में,
सोचकर
कुम्हला गयीं
कलियाँ नज़र
फेरे हुये
।।
वेदना
में ही
हमारा चिर
निहित
होगा सखे!
देखना
तुम स्वयं
यह विरही
विजित
होगा सखे!
द्वार
दुख के
खोल दो
अपने कि
आखिर किसलिये
देखकर
कुढ़ती हैं
यह गलियाँ
नज़र फेरे
हुये ।।
ग़ज़ल: एक
डूबते
वक़्त सही
यार समझ
ले मुझको
तेरे
हाथो की
हूँ पतवार
समझ ले
मुझको
पाँव
चूमूँ हूँ
तो पाज़ेब
समझ सकता
है
सर
पे आ
जाऊँ तो
दस्तार समझ
ले मुझको
मुझसे
दूरी ही
नहीं अपना
घरौंदा भी
बना
अब
मैं गिरने
को हूँ
दीवार समझ
ले मुझको
क़त्ल
होना है
मुझे सुब्ह
के होते
होते
रात
के वक़्त
का अंधियार
समझ ले
मुझको
तुझको
ना भाऊँ
तो हूँ
चीख़ क़यामत
की मगर
रास
आ जाऊँ
तो मनुहार
समझ ले
मुझको
अब
तो आई
है मुझे
रस्म-ए-मुहब्बत की
ग़रज़,
अब
तो ऐ
जान ! वफ़ादार
समझ ले
मुझको
ग़ज़ल: दो
ला
इस वीरान
फ़ज़ा में
कुछ पुरनूर
नज़ारे बाँट
अबकी
ज़मीं आबाद
करे तो
घर-घर
चाँद-सितारे
बाँट
इक
विरहन ने
दिये की
लौ से
अपना हाथ
जलाया है
वृन्दावन
के रास-रचैया आ
कुछ दर्द
के चारे
बाँट
जाती
रुत तुझे
याद रखेगी
ऐ मेरे
प्यारे शायर
सुन
वैरागन
को गीत
सुना और
बच्चों को
गुब्बारे बाँट
तेरी
याद में
खोये-खोये
आधे जागे
आधे सोये;
भटक
रहे हैं
कुछ वैरागी
इनको दरस
दुलारे बाँट
यूँ
तो गुज़िश्ता
साल भी
तूने अंगारे
बरसाये हैं
अबकी
रुतों में
धूप से
पहले प्यासों
को फुव्वारे
बाँट
तेज़
हवा के
झोंकों से
फूलों की
लचकती डाल
तले
बैठ
मेरे हमराह
मुझे दो
ख़्वाब तो
प्यारे-प्यारे
बाँट
ये
मेरी दौलत
ये मेरी
शोहरत ये
मेरी दुनिया
ये मेरे
गीत
बाँटना
है तो
बाँट ले
इनको दिल
ना देख
हमारे बाँट
ग़ज़ल : तीन
ये
शाम-ए-ग़म गुज़ार
मेरे साथ-साथ चल
ऐ
पंछियों की
डार! मेरे
साथ-साथ
चल
तन्हा
सफ़र तवील
है मैं
ऊब जाऊँगा
ऐ
सरफिरी बयार!
मेरे साथ-साथ चल
सूरज
के आसपास
बसायेंगे एक
नगर
इन
बादलों के
पार मेरे
साथ-साथ
चल
इस
ज़िन्दगी की
धूप में
कर शुक्र
जो मिलें
कुछ
पेड़ सायादार
मेरे साथ-साथ चल
फिर
उसकी ओर
जैसे मैं
खिंचता चला
गया
गूँजी
थी इक
पुकार 'मेरे
साथ-साथ
चल'
है
राह-ए-इश्क़ कू-ब-कू
मुश्किल भी
सख़्त भी
तू
चल सके
तो यार
मेरे साथ-साथ चल
ग़ज़ल : चार
सिमट
रहा है
वफ़ा का
आँचल, हिसार-ए-वहशत
मचल रहा
है ।
अजीब
अनहोनियों के
डर से,
हमारा सीना
दहल रहा
है ।
ये
दश्त काँटों
से फल
रहा है,
ये क्या
पर्वत उछल
रहा है!
ज़मीं
कि बारूद
हो चुकी
है, फ़लक
कि शोले
उगल रहा
है
ये
मेरे अपने
ये मेरे
शाइर, जो
रफ़्ता-रफ़्ता
गुज़र रहे
हैं,
ख़ुदा
की आँखें
मिची हुई
हैं, नदी
का पानी
उबल रहा
है ।
ये
दौरे-हाज़िर
की बे-हिसी है,
या एक
बगुले की
शक़्ल कोई?
जो
मेरे चश्मे
की मछलियों
को इक-एक करके
निगल रहा
है!
मैं
गाहे-गाहे
क़ज़ा से
आगे, क़दम
बढ़ाये गुज़र
रहा हूँ,
कि
चूहा बिल्ली
से तेज़
रौ में
ख़ुदी से
आगे निकल
रहा है
।
वो
जैसे रंग-ए-गुलाल
भी हो,
वो जैसे
बाब-ए-विसाल भी
हो,
वो
यानि शाइर
का ख़्वाब
है, जो
हमारे सीने
में पल
रहा है.
पुष्पराज यादव
शोध-छात्र,
हिन्दी, जे.एन.यू.
नई दिल्ली
9760557187
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)
गीत अच्छे हैं!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
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