कविताएँ
- सुमित
चौधरी
उदासी भरे दिनों में
कितना कुछ कहना चाहता हूं तुमसे
कि कोई रंग नहीं चढ़ता मेरे ऊपर
कोई मुलायम बात नहीं भाती मुझे
न ही अब मेरा चेहरा मुझे सुहाता है
कि बुझ नहीं पाती है सच की लौ मेरे भीतर
मैं चाह कर भी नहीं बचा पाता अपने लोगों को
वे आहत हो जाते हैं, मेरे कटु वचनों से
और विमुख हो जाते हैं
इन उदासी भरे दिनों में
"मैं किसी फिल्म का नायक नहीं
जो ढाई घंटे बाद खुश हो जाऊं"
और कहूं कि सब कुछ ठीक हो गया
जबकि 'मैं ठीक नहीं हूं'
पूरा करना चाहता हूं
सच है यह
पर कह नहीं पाता
कितना निर्जीव बना दिया है मुझे
कि तुम्हारे साथ होने के बाद भी
तुम पर खीज जाता हूं
और तुम शांत-चुप होकर
पूरी शालीनता से सुनती जाती हो
इसमें तुम्हारा दोष नहीं
यह उदासी भरे दिन का मामला है
जिसमें तुम्हारा प्रेम भी
मुझे ऊर्जा नहीं दे पाता
माँ और पिता
बैठते हैं चौके में खाने
उससे पहले फ़ोन करके पूछते हैं
हेलो ! बेटा कैसे हो?
हर रोज
बेटा कैसे हो?
खाने से पहले
यह जानने के लिए कि
माँ-पिता जी आप लोगों ने खाना खाया या नहीं
या क्या-क्या खाया?
फोन करते हैं
मैं उस समय खीजकर बोलता हूं
सब ठीक है
अभी बिजी हूं
बाद में बात करता हूं।
विपत्ति के दिनों में ईश्वर-अल्लाह भाग खड़े होते हैं
ईश्वर-अल्ला भाग खड़े होते हैं हम इंसानों के बीच से
और निपटना पड़ता है हमें स्वयं ही निरा अकेला
प्रकृति की कृपा से
हम सब वस्त्र पहनते हैं
प्रकृति की कृपा से
हम सब प्यास बुझाते हैं
प्रकृति की कृपा से
हमारी इन्द्रियाँ
हमें चेतना के पार ले जातीं हैं
हमारे तर्क और ज्ञान से
हम सब दुखी प्रसन्न होते हैं अपने आप से
फिर भी इन सबका श्रेय ले जाता है
भगौड़ा ईश्वर-अल्ला
जो नहीं है इस पृथ्वी पर
जो नहीं है हमारे बीच
फिर भी आस्था का कुचक्र बना देता है हमें निर्बल
और टेक देते हैं हम माथा ईश्वर-अल्ला के खूंटे पर
अपनी पूरी आत्मनिष्ठा और विश्वास खोकर
जैसे हम पूरी मुट्ठी तानकर राजा का विरोध करते हैं
वैसे ही हमें नरकीय ईश्वर-अल्ला का भी विरोध-वहिष्कार करना चाहिए
पूरे आत्मविश्वास और तर्क के साथ
क्योंकि जब-जब विपत्ति की घड़ी आती है तब-तब ईश्वर-अल्ला भाग खड़ा होता है हम मनुष्यों के बीच से
पूंजी की नाव
उस दर्जी को
जिसने सिला है हमारा लिबास
उस किताब को पढ़ते हुए कि
किसने बनाया है इसका कवर
उस कलाकार को
जिसने बनाया है हमारे लिए
बैठने को कुर्सियां
रहने के लिए मकान
यात्राओं के लिए गाड़ियां
बच्चों को खेलने के लिए गुल्ली-डंडे और
औरतों के लिए पीढ़े
जिस पर बैठकर वह रोज रसोई घर में
बुनती हैं अपने जीवन की यात्राएं
इतने मशगूल हो चले हैं कि
हमने धीरे-धीरे सबको भुला दिया
जिसने सृजा है दुनिया की तमाम कलाएँ
बहुत ही विनम्र रहते है हर समय
तुम चाहे जितना रौदों
वैसे जैसे
तुमने हमारे पुरखों को रौदा
मसल-मसल कर छोड़ दिया
यह तक नहीं सोचा
कि उनकी पीठ भी उतनी ही कोमल है
जितनी कि तुम्हारी पीठ
हमारे पुरखों की कमर नहीं टूटी
वे अपना जीवन मरघट की तरह बिताए
तुम्हारे बूटों तले दबने के बाद भी
वे हरी घास की तरह कोमल बने रहे
उनके उत्तराधिकारी
जो हर समय तुम्हारे रौदने के बाद भी
हरा, मुलायम बनें रहते हैं
सुमित
चौधरी
भारतीय
भाषा केंद्र,
जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय, नई
दिल्ली-110067
9971707114
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)
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