- तरुण कुमार
शोध सार : प्रस्तुत आलेख
रीतिकाल
के
प्रसिद्ध
कवि
बोधा
के
काव्यों
में
चित्रित
प्रेमानुभूति
पर
आधारित
है।
प्रेम
मनुष्य
के
अन्तर्मन
में
अनुभूतियों
का
संचार
करता
है।
प्रेम
का
मुख्यतः
प्रेयसी
को
पाने
की
अभिलाषा, उसके
प्रति
आसक्ति
और
प्रिय
की
साधना
भक्ति
भाव
से
करता
है।
प्रेयसी
प्रेमी
के
लिए
तो
प्रेयसी
के
लिए
प्रियतम
ईश्वर
से
कम
नहीं
है।
जिसे
पाने
के
लिए
वह
तत्पर
रहता
है।
जिसकी
एक
झलक
देखने
के
लिए
तरसता
है।
ठीक
वैसे
ही
जैसे
एक
सच्चा
भक्त
ईश्वर
के
दर्शन
पाने
को
बेचैन
रहता
है।
परंतु
उसकी
श्रद्धा
में
कभी
कमी
नहीं
आती।
वह
अपनी
प्रिय
की
साधना
उसी
भक्ति-भाव
से
करता
है।
ठीक
ऐसा
ही
प्रेम
बोधा
के
काव्य
में
मिलता
है।
उनके
काव्यों
में
चित्रित
प्रेम
प्रिय-प्रियतम
दोनों
के
मध्य
आसक्ति, साधना, वेदना, विरह, वियोग, संयोग
एवं
मिलन
का
प्रतीक
रहा
है।
उनका
प्रेम
लौकिक
से
अलौकिक
मार्ग
की
ओर
अग्रसर
भी
होता
है।
प्रेम
का
चित्रण
उनके
काव्यों
का
मुख्य
विषय
रहा
है।
बीज
शब्द : प्रेम, प्रेमानुभूति, संवेदना, विरह, वियोग, साधना, आसक्ति, वेदना, लौकिक, अलौकिक।
मूल
आलेख : हिन्दी
साहित्य
के
इतिहास
में
नामकरण
के
आधार
पर
चार
धाराएँ
आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल
एवं
आधुनिक
काल
विद्यमान
हैं।
इन
धाराओं
में
से
रीतिकालीन
काव्यधारा
एक
ऐसी
धारा
है
जिसमें
एक
ओर
जहाँ
एक
बंधी
हुई
परिपाटी
में
कवियों
ने
शृंगारिक, लक्षण-बद्ध
एवं
राजाश्रित
काव्य
लिखे
गए
तो
वहीं
दूसरी
ओर
रीतिबद्ध
और
रीतिसिद्ध
कवियों
की
इस
परंपरा
से
इतर
मुक्त
होकर
रीतिमुक्त
कवियों
ने
भी
काव्य
लिखे।
इन
रीतिमुक्त
कवियों
में
घनानन्द, बोधा, आलम, ठाकुर
एवं
द्विजदेव
आदि
प्रमुख
हैं।
इन
कवियों
के
केंद्र
में
प्रेम
रहा।
इसी
प्रेम
की
पीर
के
कवि
बोधा
भी
हैं।
बोधा
को
इश्कमिजाजी
से
इश्कहक़ीक़ी
तक
का
मार्ग
उद्घाटित
करने
वाला
कवि
भी
कहा
जाता
है।
घनानन्द
के
काव्य
में
प्रेम
की
पीड़ा
देखने
को
मिलती
है।
ऐसी
ही
पीड़ा
बोधा
के
काव्य
में
भी
देखने
को
मिलता
है।
बोधा
ने
दो
काव्य
रचनाएँ
इश्कनामा
और
विरह-वारीश
लिखी
हैं।
इन्होंने
अपने
काव्य
में
स्वानुभूति
एवं
सहानुभूति
आधारित
प्रेम
को
सुभान
के
प्रति
अपनी
प्रेम
भावना, नायक-नायिका
एवं
राधा-कृष्ण
प्रेम
आदि
के
रूप
में
दर्शाया
है।
इनके
काव्य
के
मूल
में
ऐसी
ही
भावनाओं
एवं
संवेदनाओं
का
वर्णन
देखने
को
मिलता
है
जिससे
इनकी
प्रेम
आधारित
अभिव्यक्ति
का
बोध
होता
है।
बोधा
ने
प्रिय
की
साधना
भक्त
के
रूप
में
की
है।
वे
प्रिय
के
प्रेम
में
ऐसे
रमे
रहे
कि
प्रिय
से
अलग
होने
के
पश्चात्
उनमें
प्रिय
से
मिलन
की
आस
लगी
रही।
इनके
काव्य
में
प्रेम
आधारित
साधना, आसक्ति, संयोग-वियोग
एवं
इश्कमिजाजी
से
इश्कहक़ीक़ी
तक
प्रेम
मार्ग
आदि
देखने
को
मिल
जाता
है।
ये
सभी
बिन्दु
इनके
काव्य
में
देखने
को
मिल
जाते
हैं
जो
इनके
प्रेम
का
साक्षात्
प्रमाण
है।
‘प्रेम’ मनुष्य
जीवन
में
विद्यमान
ऐसी
भावना
एवं
संवेदना
है
जो
वह
अपने
अन्तर्मन
में
अनुभूत
करता
है।
मनुष्य
समाज
में
रहकर
भिन्न-भिन्न
प्रकार
के
संबंध
स्थापित
करता
है।
ये
संबंध
उसके
जीवन
में
उसकी
प्रेमानुभूति
को
दर्शाते
हैं।
वह
किसी
के
प्रति
प्रेम, स्नेह, प्रीति
एवं
अनुराग
आदि
का
भाव
रखता
है।
मनुष्य
जीवन
में
आधारित
भावनात्मक
एवं
संवेदनात्मक
प्रेम
उसके
संबंधों
जैसे
माता-पिता
का
उनके
पुत्र
अथवा
पुत्री
के
साथ, स्त्री-पुरुष, मित्र, भाई-बहन, भाई-भाभी
एवं
मनुष्य
का
मनुष्य
के
प्रति
आदि
के
रूप
में
दिखाई
देते
हैं।
एरिक
फ्राम
के
अनुसार-
“सबसे ज़्यादा आधारभूत
प्रेम, जो
प्रेम
के
सभी
स्वरूपों
में
शामिल
होता
है, बंधुवत
प्रेम
है; यानी
एक
इनसान
का
दूसरे
इनसान
के
साथ
भाईचारा, दायित्व, देखभाल, सम्मान, दूसरे
इनसान
को
जानने
की
इच्छा, उसके
विकास
में
हाथ
बँटाने
की
आकांक्षा
इस
प्रेम
का
जिक्र
सभी
धर्मग्रन्थों
में
रहता
है।”[1]
फ्राम
ने
अपने
कथन
में
मनुष्य
संबंधों
का
वर्णन
किया
है।
प्रेम
शब्द
के
पर्याय
शब्द
स्नेह, अनुराग, प्रीति, इश्क, मुहब्बत
एवं
प्यार
आदि
हैं।
इन
सभी
शब्दों
का
प्रचलन
मनुष्य
जीवन
में
विद्यमान
संबंधों
में
देखा
जा
सकता
है।
यदि
मनुष्य
संबंधों
की
बात
की
जाए
तो
स्त्री-पुरुष
संबंधों
में
प्रेमी-प्रेमिका
के
मध्य
प्रेम
समाज
में
हमेशा
से
ही
विद्यमान
रहा
है।
ये
प्रेम
संबंध
ऐसा
है
कि
इसमें
यदि
तनिक
भी
छल-कपट, लोभ, भोग-विलासिता, माँसलता
हो
तो
वह
प्रेम, प्रेम
न
होकर
शारीरिक
भोग-विलासिता
मात्र
बन
जाता
है।
प्रेम
तो
सरल
एवं
शुद्ध
संवेदनाओं
का
द्योतक
है।
उसमें
तनिक
भी
छल-कपट
एवं
भोग
की
गुंजाइश
नहीं
है।
घनानन्द
ने
अपनी
एक
पंक्ति
में
कहा
है
कि-
“अति सुधो सनेह
को
मारग
है
जहाँ
नेकु
सयानप
बांक
नहीं।”[2]
प्रस्तुत
पंक्ति
में
कवि
ने
स्पष्ट
किया
है
कि
प्रेम
का
मार्ग
बिलकुल
सरल
एवं
सहज
है
जिसमें
तनिक
भी
छल-कपट
की
गुंजाइश
नहीं
है।
प्रिय
एवं
प्रियतम
एक-दूसरे
को
सच्चे
हृदय
से
समर्पित
कर
देते
हैं।
वे
एक-दूसरे
के
प्रेम
में
ऐसे
खो
जाते
हैं
कि
उन्हें
कुछ
भी
सुध
नहीं
रहती।
तभी
तो
प्रेम
का
मार्ग
सीधा
और
सच्चा
मार्ग
कहा
जाता
है।
यह
मार्ग
छल-कपट, अशुद्ध
अन्तर्मन
वाले
लोगों
के
लिए
नहीं
है।
प्रेम
तो
उस
सच्ची
एवं
निस्वार्थ
भक्ति
भावना
की
तरह
है
जिसमें
ईश्वर
(प्रेयसी) से मिलन
के
मार्ग
के
लिए
सदैव
तत्पर
रहना
पड़ता
है।
साहित्यिक
सुभाषित
कोश
में
प्रेमचंद
ने
प्रेम
के
बारे
में
अपने
विचार
व्यक्त
किए
हैं
कि-
“प्रेम असीम विश्वास
है, असीम धैर्य है, और
असीम
बल
है।”[3]
उन्होंने
स्पष्ट
किया
है
कि
प्रेम
विश्वास, धैर्य
एवं
असीम
बल
है
जो
सच्चे
प्रेम
का
प्रतीक
है।
प्रेमी
का
सच्चा
प्रेम
संयोग
की
अपेक्षा
वियोग
एवं
विरह
की
अग्नि
में
तपकर
ही
प्रिय
के
समीप
और
समीप
पहुँच
पाता
है।
यही
कारण
है
कि
प्रेम
चतुर
एवं
चालाक
हृदय
के
व्यक्ति
के
लिए
नहीं
अपितु
यह
तो
सरल
एवं
सहज
हृदय
का
प्रतीक
है।
बोधा के
काव्यों
में
प्रेम
साधनापरक
रहा
है।
इनका
प्रिय
के
प्रति
प्रेम
भक्तिकालीन
कवियों
के
समान
प्रतीत
होता
है
जहाँ
ये
साधक
के
रूप
में
साध्य
को
पाने
का
मार्ग
खोजते
हैं।
जैसा
कि
ऊपर
उल्लेख
किया
गया
है
कि
इनकी
साधना
के
मूल
में
प्रेम
बसा
है।
इन्होंने
ऐसा
प्रेम
किया
है
जिसमें
प्रिय
के
अलावा
प्रेमी
को
कुछ
दिखाई
नहीं
देता।
रामकुमार
खण्डेलवाल
ने
अपनी
पुस्तक
‘हिन्दी काव्य में
प्रेम-भावना’
में
स्पष्ट
किया
है
कि-
“मनुष्य जीवन की
सार्थकता
प्रेम
की
साधना
में
ही
है।
प्रेम
के
बिना
यह
समस्त
सृष्टि
शून्य
ही
है।”[4]
प्रस्तुत
कथन
से
स्पष्ट
होता
है
कि
मनुष्य
जीवन
में
प्रेम
सामान्यतः
साधनापरक
ही
है।
यदि
प्रेम
में
प्रेमी
की
प्रेयसी
के
प्रति
भक्ति
भाव
रूपी
साधना
न
हो
तो
ऐसे
प्रेम, प्रेम
साधना
से
पूर्ण
नहीं
होगा।
प्रेम
में
यदि
मनुष्य
के
अन्तर्मन
में
प्रेम-भक्ति
न
हो
तो
वह
शून्य
मात्र
है।
मुख्यतः
मनुष्य
प्रेम
में
रमणीयता
का
भाव
होना
अनिवार्य
है।
बोधा
की
भक्ति
साधना
भी
ऐसी
ही
थी।
उनके
काव्य
में
प्रिय
से
मिलन
की
अभिलाषा
रहती
है।
प्रेयसी
से
संयोग
की
अभिलाषा
वियोग
में
प्रियतम
को
उसके
समीप
और
समीप
ले
जाती
है।
प्रिय
के
बारे
में
सोचना
और
उसके
प्रेम
में
लीन
रहना
उसकी
सच्ची
प्रेम
साधना
का
प्रतीक
है।
बोधा
ने
अपनी
पंक्ति
में
प्रेम
साधना
का
परिचय
इस
प्रकार
दिया
है।–
प्रस्तुत पंक्ति
में
कवि
कह
रहे
हैं
कि
आशिक
के
लिए
विभिन्न
प्रकार
की
उपासना
और
मत
से
कोई
मतलब
नहीं, उसके
लिए
प्रेम
ही
सब
कुछ
है।
बोधा के
काव्य
में
अभिव्यक्त
प्रेम
आसक्तिपरक
भी
प्रतीत
होता
है।
इन्होंने
सुभान
के
प्रेम
में
आसक्त
होकर
उससे
प्रेम
किया
है।
उनकी
आसक्ति
का
बोध
बिछड़ने
के
पश्चात्
उनका
सुभान
के
प्रेम
में
लीन
रहना
रहा
है।
उनका
अधिकांश
समय
प्रवास
में
बीता।
जिस
कारण
उनके
काव्यों
में
वियोग
अथवा
विरह
की
वेदना
का
चित्रण
मिलता
है।
उन्होंने
वियोग
के
क्षणों
में
प्रेयसी
सुभान
से
मिलने
की
अभिलाषा
नहीं
त्यागी।
यही
वजह
रही
जो
उनका
प्रेम
त्याग
एवं
बलिदान
का
प्रतीक
रहा।
तथा
उनका
यह
प्रेम
राजाश्रित
दरबारी
कवियों
की
भाँति
प्रतीत
नहीं
होता।
उनके
अन्तर्मन
में
जल
रही
प्रेम
की
लौ
इतनी
प्रबल
एवं
शुद्ध
थी
कि
उन्होंने
इसे
कभी
भी
बुझने
नहीं
दिया।
मनोहर
लाल
गौड़
के
अनुसार-
“विरह व्यथा का
जो
अत्यंत
मार्मिक
अनुभव
हुआ
है
उसका
कारण
आसक्ति
ही
है।
इसका
परिचय
वियोग
में
ही
नहीं
संयोग
में
भी
मिलता
है।”[6]
प्रस्तुत
कथन
से
स्पष्ट
होता
है
कि
संयोग
और
वियोग
दोनों
में
प्रेमासक्ति
का
चित्रण
मिलता
है।
ऐसी
प्रेमासक्ति
को
बोधा
अपनी
एक
पंक्ति
में
इस
प्रकार
वर्णित
करते
हैं-
प्रस्तुत
पंक्ति
में
कवि
ने
स्पष्ट
किया
है
कि
प्रेम
की
वह
आसक्ति
छूटे
नहीं
छूट
रही
है।
प्रेम
का
लगाव
ही
ऐसा
है
जो
प्राण
छूटने
के
पश्चात्
ही
छूटेगा।
बोधा के
काव्य
में
संयोग
और
वियोग
पक्ष
में
प्रेम
का
भाव
दिखाई
देता
है।
बोधा
के
काव्यों
में
संयोग
के
पक्ष
बहुत
कम
मिलते
हैं
और
जो
संयोग
के
पक्ष
मिलते
हैं।
वे
वियोग
में
संयोग
की
अभिलाषा
या
फिर
स्मृति
में
संयोग
के
चित्रण
में
मिलते
हैं।
संयोग
का
अर्थ
मेल-मिलाप, समागम, लगाव
एवं
मिश्रण
है।
संयोग
को
सुखात्मक
अनुभूति
के
रूप
में
देखा
जाता
है।
बोधा
के
काव्यों
में
यह
सुखात्मक
अनुभूति
देखने
को
मिलती
है।
आचार्य
रामचन्द्र
शुक्ल
का
मानना
है
कि-
“ये अपने समय
के
एक
प्रसिद्ध
कवि
थे।
प्रेममार्ग
के
निरूपण
में
इन्होंने
बहुत
से
पद्य
कहे
हैं।
‘प्रेम
की
पीर’ की
व्यंजना
भी
इन्होंने
बड़े
मर्मस्पर्शिनी
युक्ति
से
की
है।”[8]
आचार्य
शुक्ल
ने
स्पष्ट
किया
है
कि
बोधा
ने
प्रेम
की
पीड़ा
का
वर्णन
बड़े
ही
मर्मस्पर्शी
ढंग
से
किया
है।
उन्होंने
प्रेमी
के
प्रेयसी
संग
बिताए
क्षणों
या
प्रेयसी
के
प्रेमी
संग
बिताये
क्षणों
को
याद
कर
सुखात्मक
अनुभूति
के
स्मरण
को
दर्शाया
है।
वहीं
कभी-कभी
तो
कवि
स्वानुभूति
या
सहानुभूति
के
रूप
में
संयोग
की
अभिलाषा
करता
है।
क्योंकि
प्रेयसी
से
बिछड़न
की
वह
व्यथा
उसे
तड़पाती
रहती
है
और
यह
विचलन
और
व्यथा
उसे
उसके
समीप
जाने
को
प्रेरित
करती
है।
अपनी
एक
पंक्ति
में
बोधा
कहते
हैं–
उन्होंने
अपनी
पंक्ति
में
स्पष्ट
किया
है
कि
किस
प्रकार
उन्हें
प्रिय
को
देखने
की
या
उससे
मिलने
की
अभिलाषा
है।
बोधा के
काव्यों
में
वियोग
की
अनुभूति
का
चित्रण
अधिक
मिलता
है।
वियोग
का
अर्थ
किसी
से
‘अलग’ या ‘जुदा
होना’
होता
है।
वियोग
शब्द
के
पर्याय
विरह, बिछोह, विच्छेद, अलगाव, बिछड़न
और
छुटकारा
आदि
है।
वियोग
को
विप्रलंभ
भी
कहा
जाता
है।
धीरेन्द्र
वर्मा
ने
कहा
है
कि-
“यदि नायक-नायिका
में
वियोग
दशा
में
प्रेम
हो
तो, वहाँ
विप्रलम्भ
शृंगार
होता
है।
उनका
कथन
है
कि
वियोग
का
अर्थ
है
यह
ज्ञान
कि
‘मैं
बिछुड़ा
हूँ’, अर्थात्
इस
तर्कणा
से
वियोग
में
भी
मानसिक
संयोग
सम्पन्न
होने
पर
विप्रलम्भ
नहीं
माना
जायगा।
स्वप्न-समागम
होने
पर
वियोग
में
भी
संयोग
माना
जाता
है।”[10]
प्रस्तुत
कथन
से
होता
है
कि
वियोग
की
दशा
में
प्रेम
का
वास
है।
वियोग
एक
प्रकार
की
दु:खात्मक
अनुभूति
है
जो
अपने
प्रिय
के
दूर
चले
जाने
के
उपरांत
धीरे-धीरे
बढ़ती
जाती
है।
बोधा
ने
अपने
काव्यों
में
मुख्यतः
वियोग
की
वेदना
का
चित्रण
अधिक
किया
है।
चाहे
वह
सुभान
से
अलग
होने
के
पश्चात्
की
स्थिति
हो
या
फिर
विरह
वारीशा
में
माधव
और
लीलावती
के
प्रेम
में
वियोग
की
स्थिति
हो।
उन्होंने
वियोग
की
विरहानुभूति
का
मार्मिक
चित्रण
किया
है।
प्रिय
से
दूर
होने
के
पश्चात्
प्रेमी
की
वेदना
एवं
व्यथा
असहनीय
हो
जाती
है।
प्रेमी
या
प्रेयसी
दोनों
परस्पर
एक-दूसरे
के
साथ
बिताए
क्षणों
को
याद
कर
अश्रु
बहाते
हैं।
कवि
बोधा
ऐसे
ही
कभी
प्रेम
की
संवेदना
का
वर्णन
करते
हैं
तो
कभी
प्रेमी
के
प्रवास
के
पश्चात्
प्रेयसी
की
दशा
का
चित्रण
करते
हैं।
बोधा
अपनी
एक
पंक्ति
में
कहते
हैं
कि-
कवि
प्रस्तुत
पंक्ति
में
कह
रहे
हैं
कि
सारा
जग
ढूँढ़ते
फिर
रहे
हैं
लेकिन
जो
मन
को
भाता
है
वो
कहीं
नहीं
मिल
रहा
है।
रीतिमुक्त कवि
बोधा
के
काव्यों
में
प्रेम
पीड़ा
के
रूप
में
विरह
वेदना
का
चित्रण
भी
देखने
को
मिलता
है।
जैसा
कि
हम
जानते
हैं
विरह
की
यह
वेदना
अत्यंत
कष्टकारी
एवं
असहनीय
है।
बोधा
के
काव्यों
में
अभिव्यक्त
विरहानुभूति
लौकिक
प्रेम
से
अलौकिक
प्रेम
की
ओर
जाने
का
मार्ग
उद्घाटित
करती
है।
प्रिय
से
प्रेम
प्रेमी
के
विरह
की
छटपटाहट
में
अलौकिक
प्रतीत
होता
है।
क्योंकि
विरह
की
वह
छटपटाहट
माँसल
और
शारीरिक
प्रेम
की
अपेक्षा
शुद्ध
एवं
सच्ची
प्रेमानुभूति
वाला
प्रतीत
होता
है।
बच्चन
सिंह
के
अनुसार-
“सूफियों
की
तरह
वे
भी
इश्कमिजाजी
में
इश्कहक़ीक़ी
देख
रहे
थे।”[12]
प्रस्तुत
कथन
से
उन्होंने
स्पष्ट
किया
है
कि
बोधा
के
काव्यों
में
सूफियों
की
भांति
इश्कमिजाजी
से
इश्कहक़ीक़ी
तक
का
मार्ग
देखने
को
मिलता
है।
वहीं
प्रेमी
विरह
की
व्यथा
में
प्रेमी
या
प्रेयसी
न
तो
सो
ही
पाता
है
न
कुछ
खा
ही
पाता
है
केवल
विचलित
रहता
है।
वह
प्रायः
सोचता
रहता
है
कि
किसी
तरह
केवल
प्रेमिका
से
मिलन
हो
जाए
या
फिर
उसका
एक
बार
दर्शन
हो
जाए।
विरह
में
अलगाव
की
पीड़ा
दोनों
को
बराबर
होती
है।
बोधा
अपनी
पंक्ति
में
विरह
की
पीड़ा
का
चित्रण
इस
प्रकार
करते
हैं।–
वे कहते
हैं
कि
मेरे
और
तुम्हारे
मिलन
में
कभी
भी
अंतर
नहीं
है।
यह
वैसे
ही
है
जैसे
वह
मेरी
आत्मा
में
बसा
है
और
मेरे
हृदय
के
किसी
कोने
में
वो
है।
यह
ऐसा
ही
है
मानो
शरीर
और
आत्मा
का
मिलन
हो
गया
हो।
प्रस्तुत
पंक्ति
लौकिक
प्रेम
से
अलौकिक
प्रेममार्ग
की
ओर
अग्रसित
होती
है।
निष्कर्ष : निष्कर्षतः कहा
जा
सकता
है
कि
प्रेम
मनुष्य
जीवन
में
विद्यमान
संवेदनाओं
एवं
भावनाओं
की
ऐसी
अनुभूति
है
जो
मनुष्य
को
एक-दूसरे के
प्रति
प्रेम
एवं
स्नेह
भाव
का
बोध
कराती
है।
प्रेम
के
बिना
मनुष्य
जीवन
नीरस
एवं
भावहीन
है।
मनुष्य
के
जीवन
में
प्रेम
भावनाओं
एवं
वेदनाओं
का
संचार
करता
है।
यद्यपि
देखा
जाए
तो
बोधा
के
काव्य
में
प्रेम
का
वर्णन
साधना, आसक्ति, संयोग-वियोग
एवं
विरहानुभूति
आदि
रूपों
में
किया
है।
उनके
काव्यों
में
अभिव्यक्त
साधना
प्रिय
एवं
प्रेयसी
के
मध्य
प्रेम
की
एकनिष्ठता
को
दर्शाती
है
तो
किसी
के
प्रेम
में
आसक्त
होना
नायक-नायिका
के
मध्य
की
प्रेमानुभूति
का
परिचय
देती
है।
उनके
काव्य
में
अभिव्यक्त
साधना
और
आसक्ति
प्रेम
में
लीन
प्रेमी
और
प्रेमिका
को
परस्पर
एक-दूसरे
से
जोड़ती
है
तथा
उनके
मध्य
प्रेम
संबंध
को
अटूट
बनाती
है।
प्रेम
की
साधना
और
आसक्ति
उनके
अटूट
प्रेम
का
ही
द्योतक
है
जो
वे
अलग
भी
होते
हैं
तो
एक-दूसरे
के
प्रति
प्रेम
कम
नहीं
होता।
ऐसे
ही
बोधा
ने
संयोग
के
सुखात्मक
क्षणों
का
चित्रण
वियोग
के
क्षणों
में
भी
किया
है
तथा
वियोग
में
वर्णित
विरह
का
मार्मिक
चित्रण
भी
उनकी
काव्यगत
कुशलता
और
प्रेमानुभूति
का
साक्षात्
प्रमाण
देता
है।
यह
संयोग
एवं
वियोग
के
क्षणों
में
दोनों
का
प्रेम
एक-दूसरे
के
प्रति
अटूट
एवं
मजबूत
होता
जाता
है।
यही
वजह
है
जो
बोधा
का
काव्य
माँसलता, भोग-विलासिता
और
काम-वासना
आदि
से
विपरीत
शुद्ध
एवं
सरल
प्रेम
का
अनुसरण
करता
है।
बोधा
के
काव्यों
में
चित्रित
प्रेम
की
सच्ची
एवं
एकनिष्ठ
अभिव्यक्ति
एक
महत्त्वपूर्ण
विषय
के
रूप
में
उत्कृष्ट
एवं
प्रासंगिक
है
जो
वर्तमान
समय
में
प्रेम
की
महत्ता
को
उद्घाटित
करता
है।
[1]अनुवादक युगांकधीर,एरिकफ्राम, प्रेम का वास्तविक अर्थ,संवाद प्रकाशन, मेरठ, तीसरा संस्करण-2010,पृ.-49
शोधार्थी, पीएच. डी. हिन्दी, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, मेघालय
talk2tarun89@gmail.com, 9560836978
घटिया लेख
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