शोध आलेख : मानवीय मूल्यों के संपोषक : संत कबीर और तुकाराम / कविता सरोज

मानवीय मूल्यों के संपोषक : संत कबीर और तुकाराम
- कविता सरोज

शोध सार : संत साहित्य ऐसी निर्मल धारा है जिसमें गोते लगाकर हम मानवीय मूल्यों की रक्षा कर चहुंओर शीतलता और स्वच्छता को प्रसृत कर सकते हैं। हम अपनी महान परंपरा और संस्कृति में संतरूपी पुरुखों से बहुत कुछ ग्रहण कर उस थाती की रक्षा कर पाएँगे जिसमें मानवीयता पल्लवित और पुष्पित होती है। संत कबीर और तुकारामभक्तिआंदोलनसे उपजे ऐसे संत हैं जिन्होंने अध्यात्म के साथ मानवीय अस्मिता एवं उसके मूल्यों का परचम संपूर्ण विश्व में लहराया, क्योंकि इनका साहित्य संकुचित परिधि से मुक्त है। संतद्वय ने अपनी वाणी और अभंगों में मानवीय मूल्यों को प्रश्रय दिया, उसका संरक्षण किया। आज हम जिस विश्व शांति का स्वप्न देख रहे हैं और मानवीय मूल्यों की स्थापना करना चाहते हैं, वह तभी पूर्ण होगा जब हम भौतिक विकास के साथ आत्मिक विकास की ओर ध्यान देंगे। अंतःकरण की कलुषता को दूर कर संत साहित्य से निकटता स्थापित करेंगे, तभी संतद्वय का साहित्य मार्गदर्शक सिध्द होगा। हमें उनकी वाणी और अभंगों में शोधन करने से बहुमूल्य सामग्रियाँ प्राप्त होंगी। संतों का साहित्य जनमानस में व्याप्त भ्रांत धारणाओं को नकारता है, उसे समूल नष्ट कर उदात्त मान्यताओं का मंडन करते हुए कल्याणकारी तत्त्वों का सृजन करता है; और साहित्य को लोकमंगल की धारणाओं से समृद्ध करता है।

बीज-शब्द : संतद्वय, मानवीयता, संपोषक, मानव मूल्य, कल्याण, सद्वृत्ति, विद्रूपताएँ, विसंगति, वाणी, अभंग, कबीर, तुकाराम, संत, पोषित, भक्ति आंदोलन।

मूल आलेख : संपूर्ण विश्व का पथ प्रदर्शन करने वाले सद्वृत्तियों से आपूरित, आचरण के उत्तमोत्तम फलक को प्राप्त करने वाले युग निर्माता मनीषी संतों ने मानव कल्याण के लिए जिस साहित्य का सृजन किया, वह समाज के लिए अमूल्य रत्न है। जिनके शोधन एवं अध्ययन मनन से नित्य-प्रति समाज और मानव के लिए बहुमूल्य उपहार प्राप्त होंगे। इन युगपुरुष संतों के साहित्य का मूल्य कभी समाप्त नहीं हो सकता, क्योंकि इनके मूल्यकाल की सीमाओं को लांघते हैं। संत युग के सृजनकर्ता के साथ काल के समय-चक्र को तोड़कर भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों को देखते हैं, इसलिए इनका साहित्य प्रत्येक काल में समाज के लिए उपादेय एवं प्रासंगिक है। रवीन्द्र कुमार सिंह लिखते हैं, संत कवियों की वाणी ने जो अलख जगाया है, वह हमारे आज के टूटते बिखरते, जीवन के सापेक्ष उतना ही मूल्यवान है जितना अपने युगीन संदर्भों में था”1 समाज कल्याण, मानव मूल्य, मानवीय सरोकार ही साहित्य की प्रासंगिकता को पुष्ट करते हैं।

आज इस आधुनिक काल में सांस्कृतिक अतिक्रमण एवं विविध द्वंद्वों और मानव मूल्यों में ह्रास दिनो दिन हो रहा है, मानव सभ्यता गर्त में जा रही है। इस सभ्यता को बचाने के लिए अनिवार्य हो गया है कि हमारे विविध तपस्वी एवं मनस्वी संतों के वाणी का चिंतन मनन करके आत्मसात किया जाए और मरते हुए समाज को पुनर्जीवित किया जाए।

वर्तमान समाज जिस तरह कट्टरता की तरफ अग्रसित हो रहा है, वह बेहद चिंतनीय है। आज हम धर्म, जाति, संप्रदाय, पंथ, मंदिर-मस्जिद, काबा-कैलास को लेकर जितने उग्र हुए जा रहे हैं कि हमारी दृष्टि अंधता की शिकार हो गई है जिससे हम मानवीय मूल्यों को विस्मृत कर मानवी गरिमा को कुचलते हुए आगे बढ़ रहे हैं। विडंबना यह है कि हम अपने इतिहास से भी सीखने तैयार नहीं हैं कि इन उद्दंड और उग्र तत्त्वों से मानव सभ्यता कितने गर्त में चला जाता है। समाज में कितनी ही बार युद्ध और दंगें ने अपना भयावह रूप दिखाया है, फिर भी मनुष्य तमाम अमानुषिक तत्त्वों को बढ़ावा दे रहा है जिसके कारण वह निरंतर अंधकार मय भविष्य के सृजन हेतु उन्मुख है। रवीन्द्र कुमार सिंह लिखते हैं, समाज की उचित मान्यताओं की अवहेलना करने वाला साहित्य कदापि प्रासंगिक नहीं हो सकता। जनमानस में व्याप्त भ्रांत धारणाओं को नकारकर उच्च और उदात्त मान्यताओं का प्रतिपादन करते हुए कल्याणकारी तत्त्वों को समृद्ध करना साहित्य का उत्तरदायित्व है। यदि साहित्यकार की रचना इस दृष्टि से प्रेरित है तो उसका कृतित्व प्रासंगिक है। व्यापक संदर्भ में साहित्य की सामाजिक प्रसंगिकता मानव मूल्यों, समाज कल्याण, मानवीय सरोकार और मानवीय संलग्नता में निहित है।”2

भारतीय संस्कृति और सभ्यता को निरंतर विकासोन्मुख और अक्षुण्ण बनाए रखने एवं मानवमूल्यों को पोषित करने में विभिन्न काल और संतों का महनीय योगदान है। कबीर और तुकाराम अपने अध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक नवजागरण से आज भौतिकतावादी ध्वंसोन्मुख वर्तमान युग को भी दिशा प्रदान कर सकते हैं। संतों की वाणी प्रत्येक काल में उपादेय एवं प्रेरणास्पद रही है। मानवीय मूल्यों की दृष्टि से समाज खोखलेपन का शिकार होता जा रहा है। भौतिक क्षेत्र में तमाम उपलब्धियों की प्राप्ति हेतु होड़ मची है जिसके परिणाम स्वरूप अनेकानि चुनौतियाँ और विसंगतियाँ व्याप्त है मनुष्य विविध अवरोधों, मानसिक त्रास से ग्रस्त हो गया है, वह समाज में रहकर भी समाज से विलगाव को महसूस कर रहा है। यह आने वाली मानव पीढ़ियों के लिए भयावह दुष्परिणाम की ओर इंगित कर रहा है। इन विसंगतियों एवं विद्रूपताओं से उबरने के लिए और मानव मूल्यों की स्थापना की दृष्टि से संत कबीर और तुकाराम की वाणी का अध्ययन ही सकारात्मक पहलू का स्रोत है। जिससे ऊर्जा ग्रहण कर हम समाज में इनके उदात्त विचारों को प्रसृत कर सकें।

इनका साहित्य अहिंसा, दया, क्षमा, करुणा, प्रेम, परदुःखकातरता, संवेदनशीलता, अभेद दृष्टि का आग्रही है जिसके माध्यम से हम एक स्वस्थ और सुंदर समाज का सृजन कर सकते हैं। संतद्वय ने अपनी पूर्ण  चेतना और सकारात्मक ऊर्जा में केवल अपने युग को जिया, अपितु भूत और भविष्य दोनों की सीमा लांघ जाते हैं। जिससे उनकी सृजनशीलता जो कुछ भी सृजित करती है, उसका मूल्य अक्षुण्ण है। संतद्वय ने अपनी कथनी और करनी में भेद नहीं किया। उन्होंने जो कहा है, वह उनके व्यवहार में था, उनका व्यक्तित्व उनकी कथनी का प्रत्यक्ष प्रमाण था। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी लिखते हैं, “वे सीधे समाज के सुधार में आत्म-सुधार की कल्पना नहीं करते, अपितु अपने व्यक्तित्व के निखार में ही समाज का परिष्कार देखते हैं।3 संत कबीर और तुकाराम दोनों ही संतों ने चिरकाल से चली रही समाज की समस्त बुराइयों पर चोट की। उसे समूल नष्ट करने का प्रयास किया। उनका हथियार था उनके वाणी और अभंग। उत्तर भारत में जिस तरह कबीर ने परचम लहराया वैसे ही महाराष्ट्र में संत तुकाराम ने अपने अभंगों के द्वारा क्रांति उपस्थित कर दी। तमाम विसंगति एवं अमानवीय तत्त्वों पर बहुत ही गहरा चोट किया। जिस तरह कबीर लोककंठ  से लोक चेतना में विराजमान हैं, वैसे ही संत तुकाराम लोक ह्रदय में वास करते हैं और जनसाधारण में लोकगीतों में गाए जाते हैं। उनके अभंग कबीर वाणी की भांति पूरे महाराष्ट्र में शिक्षित-अशिक्षित सभी गाते हैं। संतद्वय ने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने एवं ऊँच-नीच की संकीर्ण भावनाओं को विनिष्ट करने हेतु तथा विश्रृंखलित होती संपूर्ण मानव जाति को संगठित करके उनमें नवीन प्राण फूंकने का साहसिक कार्य किया जो भारतीय साहित्य में अद्वितीय है।

इन्होंने समस्त अमानवीय मान्यताओं को नकारा। भक्ति के क्षेत्र में लोकतंत्र का उद्घोष किया। सभी के लिए समान धरातल प्रदान किया जहाँ उच्च-निम्न, अमीर-गरीब, सुंदर-कुरूप, जाति धर्म किसी भी प्रकार का भेद स्वीकार नहीं किया। मानव मूल्यों को संपोषित करने एवं उसमें प्राण ऊर्जा भरने का कार्य अगर कोई कर सकता है तो वह संत हैं। उनका साहित्य मानव मूल्यों को संपोषित करता है। हमें वह ऊर्जा और दृढ़ निश्चय प्रदान करता है, जिससे संपूर्ण मनुजों का कल्याण हो, सकल संसृति में मानव गरिमा की जय-जयकार हो। संतों के अनुसार हम किसी भी संकुचित परिधि में आबध्द हों जिससे समाज कल्याण में बाँधा पहुँचे और हम धर्म, जाति, संप्रदाय, निर्धन-सधन , नस्ल  इत्यादि भेद को स्वीकार करें। यही स्वप्न हमारे संतों के थे। वे एक सुंदर और गरिमामय समाज को चाहते थे जहाँ सभी सुखपूर्वक और समरस भाव से रह सकें। संत कबीर और तुकाराम आजीवन अपनी आध्यात्मिक चेतना के साथ सामाजिक विद्रूपताओं पर निशाना साधा और मानव मूल्य की स्थापना हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहे। कबीर के संबंध मेंप्रमोद वर्मालिखते हैं, “चरम-तन्मयता में मंत्र-विध्द मृग जिस तरह वध की संभावना से तनिक भी विचलित नहीं होता। कुछ वैसे ही जाति, धर्म सम्प्रदाय और मुफलिसी के दोजख से आकंठ घिरे कबीर मनुष्य की समग्र मुक्ति के स्वप्न को ही तो संसद देते हैं। अतिशय संवेदनशील विवेक की नम आँच है, उनकी कविता। उनका सारा समर्पण, सारी आकांक्षा, सारा निवेदन, अन्न-जल से क्षीण-दीन के आत्म-गौरव से भरी मनुष्य-मूर्ति को गढ़ने और विश्व-मंदिर में उसकी उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करने की एक लक्ष्यता आपूरित है।4 कबीर की भांति संत तुकाराम भी अपने समय के सर्वाधिक जागरूक एवं संवेदनशील व्यक्ति थे। समाज की कोई भी गतिविधि उनकी‌ पैनी दृष्टि से बच नहीं पाई जिसमें भी विद्रूपता रही हो। दोनों ही संतों ने धर्म, जाति से उत्पन्न भेद, बाह्याडम्बर, अनाचार की कड़ी आलोचना की। संतद्वय का ध्येय मानव मूल की स्थापना थी जहाँ पर हम तमाम विरोधों प्रतिरोधों से मुक्त होकर सत्य, अहिंसा, प्रेम, त्याग, दया, करुणा, क्षमा, संवेदनशीलता को आत्मसात कर सकें। इनके वाणी और अभंगों की प्रासंगिकता एवं उपदेशों की मौलिकता यह थी कि इन्होंने अपने समय के मुसलमानों और हिंदुओं का ध्यान एक ऐसे धर्म की ओर आकृष्ट किया जो सांप्रदायिक सीमा से परे सार्वभौम पथ था; ऐसा मार्ग जिस पर दोनों धर्मों के लोग चल सकें। इन दोनों ही संतों ने ऐसे भविष्य का स्वप्न देखा जो सभी प्रकार की विषमताओं से परे होकर समरस भाव से युक्त हो।

जब हम समाज में मानव मूल्य की बात करते हैं, तब आवश्यक हो जाता है कि समाज और मानव मूल्य के संबंधों को सही अर्थों में समझा जाए। सामान्यतः सभी समाज में समाज द्वारा निर्मित कुछ मानक तथा मूल्य स्वीकृत होते हैं जिनमें मानवता के कल्याण हेतु चिंतन होता है। वहीं दूसरी तरफ समाज में कुछ ऐसे विचार या अवधारणाएँ होती हैं जिससे समाज में विकृति आती है। अतः एक स्वस्थ और सुंदर समाज के लिए यह आवश्यक होता है कि जिन तत्त्वों से समाज में विकृति, विसंगति उत्पन्न हो उनका निषेध किया जाए और जिन तत्त्वों से समाज में उदात्तता और मानवीय मूल्यों के बोध का जागरण हो उनका विधान एवं नियमन किया जाए। इसे अनुकूलता का संकल्प और प्रतिकूलता का वर्जन कह सकते हैं। संतद्वय ने व्यक्ति और समाज दोनों के लिए जिस जीवन दर्शन को अपनाया तथा जिस कथनी, करनी और रहनी का उपदेश दिया था, वे उनकी सामाजिक दृष्टि के अंतर्गत आएँगे। प्रो.वासुदेव सिंह लिखते हैं, “वस्तुत उनकी आध्यात्मिक चेतना ने चेतना ने त्याग, अपरिग्रह, सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा आदि का जो संदेश तथा अन्याय, क्रूरता, हिंसा, पाखण्ड और व्यभिचार का प्रतिरोध किया, वही उनका मौलिक अवदान है, वही उनका समाज-सुधारक का रूप है और वही उनके चिंतन को अपराजेय बनाता है।”5

जिस समय संतद्वय का प्रादुर्भाव हुआ, उस समय की प्रत्येक परिस्थितियाँ प्रतिकूल और विद्रूप थी समाज विश्रृंखलित हो चुका था। विविध आडम्बर, रूढ़ियाँ, अंधविश्वास, जप माला, छाप तिलक, जादू, टोना का प्रसार था, समाज इनसे घिरा हुआ था। संत कबीर और तुकाराम ने आडम्बरों के प्रति रोष व्यक्त कर मानवता को अध:पतन से बचाया। दोनों ही संतों की दृष्टि में जातिगत, कुलगीत, तथा सम्प्रदायगत विशेषताएँ समाज के किसी भी स्तर से गौंण थी। वस्तुतः संतद्वय उस शिखर पर आसीन थे जहाँ पर सारे भेदभाव समाप्त हो गये थे, हिंदू-मुसलमान, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब प्रत्येक की खा़ई समाप्त थी। उनके दृष्टि से संपूर्ण विश्व को एकता के सूत्र से बांधा जा सकता है और मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की जा सकती है। डॉ.शुकदेव सिंह लिखते हैं, “हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाने वाले संत, विचारक और कवि कबीर ही हैं। रूढ़ धार्मिक शास्त्रों पूजा-उपासना संबंधी जड़ताओं, मंदिर-मस्जिद विषयक अंध-आस्थाओं, जातिवर्ण संबंधी पार्कों और तमाम तरह के भारतीय जीवन के अन्तर्विरोधों को उन्होंने निर्ममता के साथ अस्वीकार कर दिया था।”6 इसी तरह संत तुकारामजगाच्या कल्याणा संत्याचा विभूती' को चरितार्थ करते हैं। संत तुकाराम अपने समय से मुठभेड़ करते हुए जिस विचार को स्थापित किया, वे महत्त्वपूर्ण हैं, तुकाराम कहते हैं, “पुण्य परउपकार पाप ते परपीडा।”7

अर्थात्, किसी भी प्राणी को कष्ट पहुँचाना, पीड़ित करना पाप है और दूसरों का भला करना कल्याणकारी विचार रखना ही पुण्य है। श्रीमती रमेश सेठ लिखती हैं, “मनुष्य की तो बात ही क्या, वे तो हिंस्र पशुओं का वध करने का भी निषेध करते हैं।”8 तुकाराम और कबीर दोनों ने ही अहिंसा का समर्थन किया। कबीर कहते हैं,

बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जो बकरी को खात है, ताको कहा हवाल।” 9 

संतद्वय ने अपने साहित्य में मानवीय कल्याण की चेतना को प्रखर किया है। ये दोनों ही संत  भक्ति आंदोलन के के पुरोधा व्यक्तित्व हैं।भक्तिकी धारा जो दक्षिण से उत्तर की ओर प्रस्थान की इस लहर की मूल चेतना मनुष्यधर्मी थी जो भक्ति के क्षेत्र में समानता लाती है, और  समभाव उत्पन्न कर मानवीय मूल्यों को पोषित करती है। इसका नेतृत्व समाज के निचले पायदान पर बैठे अनेकानिभक्तसंतों ने पूर्ण ऊर्जस्विता के साथ किया जिनमें नाम देव, कबीर, नानक, तुकाराम, रैदास, चोखामेळा, नरहरि सोनार, सांवता माली इत्यादि ने किया।भक्तिकी इस सामाजिक क्रांति में सबसे प्रखर और ऊँची आवाज उत्तर भारत में कबीर की हुई तो महाराष्ट्र प्रान्त में तुकाराम की। रवीन्द्र कुमार सिंह लिखते हैं, “जो बातें आज से पांच सौ साल पूर्व कहीं गयी देखें भी सही हैं, यह अनुभूति आज भी उतनी ही गहरी और व्यापक है, जितनी तब थी। सामाजिक स्तरों पर प्रतिबंध जड़ताओं से मुक्ति का आह्वान है। जो संतों ने किया वह समसामयिक अर्थों में पूर्ण रूप से प्रासंगिक है।”10 इनका साहित्य सद्भावना, शिष्टता, मृदुलता, सहजता, सहिष्णुता, एकता इत्यादि विचारों और मूल्यों को संपोषित करता है, इनको संरक्षण प्रदान करता है; खाद-पानी देता है जिससे ये मानवीय मूल्य फल-फूल सकें। जिसके परिणाम स्वरूप मानव सभ्यता समग्र विकास के साथ उच्च शिखर को स्पर्श कर सके। इस दृष्टि से संत साहित्य आज के समाज के लिए आवश्यक ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य होता जा रहा है।

संतद्वय काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, हिंसा, कपट आदि के स्थान पर प्रेम, संयम,‌ नम्रता, निष्काम भाव, अहिंसा और निष्कपट आचार व्यवहार के सृजन का भरसक प्रयास किया। संत सदैव सात्विक प्रवृत्तियों के समर्थक थे, कबीर कहते हैं,

सील संतोख ते शब्द जा मुख बसै, संत जन जौहरी सांच मानी।”11


ऐसे ही संत तुकाराम ने अपने अंगों में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की है। दया ,प्रेम, करुणा, सील, संतोष इत्यादि इनकी वाणी से प्रसृत हुए हैं, तुकाराम कहते हैं,

धर्म भूताची ते दया। संत कारण ऐसिया
नन्हे माझे मत। साक्षी करूनि सांगे संत।” 12 

अर्थात् वह मानते हैं कि प्राणिमात्र पर दया करना ही धर्म है, यही संत का लक्षण है। संत तुकाराम के संबंध में हरिकृष्ण देवसरे लिखते हैं, “तुकाराम ने अपने अभंगों में तत्कालीन समाज को जो संदेश दिया उसमें समाज सुधार और नए आध्यात्मिक दृष्टिकोण का समन्वय था। कर्मकांड और पाखंड के विरुद्ध सामाजिक चेतना जागृत करना गीता दर्शन के प्रति आस्था उत्पन्न करना और रूढ़िवादिता को छोड़कर सरल और सीधा भक्तिमार्ग अपनाना ही तुकाराम का दर्शन था।”13 हमारा वर्तमान समाज जिस तरफ अग्रसर है, वह चिंतन-मनन के योग्य है। तमाम भौतिक समृद्धि का आकांक्षी मनुष्य बुद्धिवादिता के संकुचित घेरे में भ्रमण कर रहा है जहाँ से अनेकानि द्वन्द्व् सामाजिक विसंगतियाँ, विद्रूपताएँ जन्म ले रही हैं। इसका हल हमारे संतों की वाणी और  अभंगों में है। संत तुकाराम जगत्  के कल्याण में ही संतों के जीवन को सार्थक मानते हैं,

जगाच्या कल्याणा संतांचा विभूति।
देह कष्ट विति उपकारे।
भूंताची दया हें भांडवल संतां
आपुली ममता नाहीं देही।
तुका म्हणे सुख पराविया सुखे
अमृत हें मुखें सुवतसे 14

अर्थात् संतों की महानता इसी में है कि वह जगत के कल्याण के लिए आते हैं। वह जीवों का उपकार करने के लिए कष्ट झेलते हैं। वह सभी प्राणियों के लिए दया का भंडार होते हैं। उनमें अपने देह के प्रति ममता नहीं होती; तुकाराम कहते हैं संतो के मुख से अमृत बरसता है और उन्हें दूसरों के सुख से सुख प्राप्त होता है। आगे तुकाराम कहते हैं,

जें कां रंजले गांजले।त्यासि म्हणे जो आपुलें।
तो चि साधु ओळखावा। देवे तेथें चिरजाणावा। 
मृदु सबाह्या नवनीत ।तैसे सज्जनांचे चित्त

अर्थात् जो दुखियों और पीड़ितों को अपनाता है, उसी को सच्चा संत जानों। उसे परमेश्वर के सामान समझो, ऐसे व्यक्तियों का ह्रदय अंदर और बाहर से एक समान रहता है, जैसे- नवनीत अंदर और बाहर दोनों से कोमल होता है।

मानव मूल्य की रक्षा एवं मानवीय चेतना की दृष्टि से संतद्वय का साहित्य महत्त्वपूर्ण है। इनके साहित्य की जितनी आवश्यकता तत्कालीन युग में थी, उससे कहीं अधिक वर्तमान में है।भक्तिकी यह डोर भारतीय जनता के उस विशेष श्रेणी से भी जुड़ गया जो युगों से उपेक्षित था।भक्ति आंदोलनउन्हें ऐसे मंच के रूप में मिला जहाँ से वह समरसता की बात करते हैं और देखते ही देखते एक सामाजिक जनांदोलन खड़ा कर क्रांति की चेतना प्रज्ज्वलित करते हैं। अपनी इस आवाज में उन्होंने मानव मूल्यों को संपोषित किया। डॉ. भगवान देव पाण्डेय लिखते हैं, “संत कबीर का साधु जागरण वस्तुतः भारतीय जन जागरण है, वे केवल संतों के लिए ही नहीं, बल्कि मनुष्यता के प्रश्न से जुड़े हुए प्रत्येक जिज्ञासु और मुक्ति के लिए कातर प्रत्येक आतुर के लिए हैं।16 यही कार्य महाराष्ट्र में संत तुकाराम कर रहे थे, वे सामाजिक विसंगतियों से जूझते हुए मानवीय गरिमा, मानवीय मूल्यों को संपोषित किया। उनका लक्ष्य ही भक्ति के साथ मानवीयता को स्थापित करना था। वे उस समय प्रयत्नशील थे। जब समाज में घोर नैराश्य और अंधकार छाया हुआ था, चारों तरफ रूढ़िवादिता, बाह्याडम्बर, ब्राह्मणवाद, अमानवीयता भेदभाव के काले बादल छाए हुए थे, वे इन सब से विनम्र भाव से लड़ रहे थे। इनके संबंध में भालचंद्र नेमाड़े लिखते हैं, “महाराष्ट्र के सामाजिक इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना थी, ब्राम्हणी आचार संहिता के साथ प्रायः सभी अब्राह्मणों को समझौता करना पड़ता था। या तो  ब्राह्मणों से विरोध मोल‌ लेना पड़ता था या ब्राह्मणवाद को स्वीकार करना पड़ता था। पर रूढ़ धर्म के विरोधी थे और उन्होंने अधिकृत निषेध मानने से इनकार कर दिया।”17 संतद्वय भक्ति आंदोलन की उपज थे, दोनों संतो के जीवन काल में लगभग 200 साल का अंतर है, किंतु पीड़ा, संवेदना, परदु:खकातरता एकसी है। कबीर, पीपा, रैदास, तुकाराम आदि संतों ने इस धरा पर जन्म लेकर सामाजिक, धार्मिक आदि सभी विद्रूपताओं को भस्मसात् करने वाला शंखनाद किया जिसका स्वर मूलतः विद्रोहात्मक था। कबीर की वाणी में जो तीक्ष्णता और नुकीलापन है, कमोबेश तुकाराम में भी वही है। किंतु तुकाराम कबीर की अपेक्षा थोड़ा विनम्र स्वभाव के हैं और दूसरा वह बिट्ठल के सगुण रूप को भी स्वीकार करते हैं। उनमें सगुण निर्गुण का उतना भेद नहीं है। संतों का उद्देश्य मुख्यत: अध्यात्म के साथ सामाजिक मुक्ति, समरसता, मानव मूल्य की स्थापना थी। कबीर कभी-कभी झुंझला जाते हैं समाज की स्थिति को देखकर इसके कपट, चालाकी, उलझाए चरित्र से तब कहते हैं,

मेरा तेरा मनुआं कैसे इक होई रे।
मैं कहता हौं आंखिन देखी, तू कहता कागद की देखी।
मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यौ उरझाई रे।
मैं कहता हूँ तू जागत रहियो, तू रहता है सोइ रे।”18

संतद्वय के अंदर जो आत्मविश्वास और उज्ज्वल चरित्र की चमक है, उसके आगे सब धूल धूसरित हो जाता है, क्योंकि ये वाग्वीर नहीं, कर्मवीर थे। संत कवियों की साधना का स्वरूप भले ही वैयक्तिक था, किन्तु उन्होंने अपने सारे प्रयोग समाजिक सरोकारों की ही दृष्टि से किए तथा सामाजिक प्रगति के लिए आध्यात्मिक दृष्टि का अवलंबन किया, तुकाराम कहते हैं,

काम क्रोध अहंकार नको देहीं। आशा तृष्णा माया ललज्जा चिंता कांही 19


अर्थात् तुकाराम आशा, तृष्णा, माया लज्जा से मुक्ति पानेके लिए कहते हैं। संत तुकाराम का अध्यात्मिक, सामाजिक, दृष्टिकोण को सब को साथ लेकर चलने वाला था। उसमें जाति, धर्म, संप्रदाय, ऊँच-नीच इत्यादि का कोई भेदभाव नहीं था, वे के केवल मानवीयता को केंद्र में रखते हैं। हरिकृष्ण देवसरे लिखते हैं, “तुकाराम का दर्शन सबको समेटने वाला था। उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय शूद्र आदि का भेदभाव था।उनके सत्संग में अमीर-गरीब, पुरुष सबको स्थान मिलता था। उनकी इस सार्वजनीन विचारधारा का ब्राह्मणों ने घोर विरोध किया क्योंकि भगवान की भक्ति और पूजा का अधिकार तो केवल ब्राह्मणों को प्राप्त था।” 20 अतः संत तुकाराम कबीर की भांति ही अध्यात्म तत्त्व के साथ समाज को लेकर चलते हैं और कहीं भी कुछ विद्रूप दिखता है, उसे अपने उदात्त विचार अवश्य रखते हैं। इनका साहित्य आज भी मानवीय मूल्यों के पल्लवन हेतु आज भी सार्थक और प्रासंगिक प्रतीत हो रहा है। तुकाराम कितने स्पष्ट शब्दों में कहते हैं,

बोले तैसा चाले। त्यांची वंदीन पाउले।” 21


अर्थात् तुकाराम उनका दास बनने को तैयार हैं जो जैसा बोलता है, वैसे ही व्यवहार में आचरण करता है। ऐसे ही संत कबीर कहते हैं,

कथणीं कथी तो क्या भया, जे करणी ठहराइ।
कालबूत के कोट ज्यूं, देषतही ढहि जाइ।।” 22

संत कबीर भी कथनी और करनी की एकता के महत्त्व को स्थापित करते हैं। अतः संतद्वय के साहित्य में सार्वभौमिक मानवमूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है, क्योंकि महान और कालजयी कविता वह है जो  मानवीय अस्मिता और उसके अस्तित्व की रक्षा करे, भले ही उसका मुख्य स्वर अध्यात्म हो। संत कबीर और तुकाराम की वाणी सामाजिक समरसता और समन्वय की भावना को विस्तार देती है तथा लोकजागरण की पक्षधरता को मुखर करती है। संतद्वय की वाणी में ऐसे सूत्र प्राप्त होते हैं जो मानवीय मूल्यों को संपोषित करने के साथ प्रतिष्ठित करते हैं जो सार्वदेशिक और सार्वकालिक है।

अतः संतद्वय की वाणी, भारतीय चिंतन की विभिन्न विचार भारतियों का अपूर्व समुच्चय है। कबीर अपने समय की विसंगति पर लिख रहे थे, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह 21वीं सदी को देख रहे हों, वे कहते हैं-

कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै कोई
लालच लोभी मसकरा, तिनकूं आदर होय।” 23

 बात बिल्कुल सीधी और सच्ची है, आज भी समाज में झूठे, लालची, बनावटी, लोगों का आदर है और उन्ही का बोलबाला भी है। संतद्वय ने दंभ और दिखावे को सबसे बड़ा अवगुण मानते हैं। कबीर बड़े ही दार्शनिक भाव से कहते हैं,

कबीर कहा गरबियो, ऊँचे देखि आवास।
काल्हि परयूं भ्वै लेटणां। ऊपर जामैं घास।।”24

अर्थात् वह मनुष्य को समय रहते चेताते हैं कि ऊँचे महल, घर-द्वार, मान-सम्मान, देखकर गर्व मत कीजिए क्योंकि क्या भरोसा इस जीवन का कल मिट्टी में दबने के बाद ऊपर से घास जम जाएगी। संत तुकाराम कहते हैं,

काय भी करीसी दंभ लोकिकातें
हित नाहीं भाते तुका म्हणे।” 25

अर्थात् तुकाराम कहते हैं- झूठे संसारिक दिखावे से क्या लाभ प्राप्त होगा,यह तो केवल तुम्हारा अहंकार ही बढ़ाएगा जो तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। 

संतद्वय आज के समाज में सूर्य के सदृश जन-जीवन में ऊर्जा भर रहे हैं। इन दोनों संतों ने अपने वाणी और अभंगों से भारतीय साहित्य को समृद्ध करने के साथ ही मानवीय गरिमा को जो ऊँचाई प्रदान की है, वह अतुलनीय है। इन्होंने मानव सभ्यता को ऐसा बीज प्रदान किया है जिसके पल्लवन से संपूर्ण संसार, लहलहाएगा, सद्मार्ग एवं शांति की ओर उन्मुख होगा। हमारी धरती कभी भी संतों से खाली नहीं है। वह प्रत्येक काल में रहें हैं, उनके सशरीर होने पर भी उनके विचार, वाणी एवं साहित्य धरोहर के रूप में हमें प्राप्त है जिसके उपयोग से उस भंडार और समृद्धि में कोई कमी नहीं होगी जिसे संतों ने संग्रहीत किया है। डॉ. बलदेव वंशी लिखते हैं, “आज समूचे विश्व को केवल संत ही बचा सकते हैं। पर्यावरण हो, जातिवाद, नस्लवाद, संप्रदायवाद हो, आर्थिक शोषण और गैर-बराबरी हो, सब प्रकार के विभेद, अमानवीयता, हत्या- हिंसा से संत निजात दिला सकते हैं।”26

निष्कर्ष : अंततः हम कह सकते हैं कि संतद्वय के वाणी और अभंगों को आत्मसात एवं चिंतन-मनन करने से समाज में अमूल-चूल परिवर्तन किया जा सकता है। इसी के साथ एक नव्य स्फूर्ति तथा विश्वशांति को  पसृत कर मानवमूल्य को भी स्थापित किया जा सकता है। इन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से मानवीय मूल्यों को संपोषित किया है। अहिंसा, प्रेम, दया, करुणा, समानता, सत्यता, आचरण की पवित्रता, संवेदनशीलता, विश्व एकता जैसे पुनीत भावों का सृजन किया। संत कबीर और तुकाराम शीतल जल भी हैं और दहकते हुए अंगार भी जो मानवता विरोधी तत्त्वों को भस्म करने के लिए तैयार रहती है। अतः इनके वाणी और अभंगों के मर्म से अन्याय, अत्याचार एवं शोषण के विशाल महल को विनिष्ट किया जा सकता है। जरूरत है तो संतद्वय को पूर्णतया: आत्मसात करने की, आधा अधूरा नहीं।

संदर्भ 

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  2. वही, पृ. 38
  3. परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परम्परा, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण: 2009, पृ. 7
  4. प्रमोद वर्मा, कबीर : प्रतिरोध का अर्थ, कबीर पुनर्पाठ / पुनर्मूल्यांकन (परमानंद श्रीवास्तव) अभिव्यक्ति प्रकाशन,  2009, पृ. 45
  5. वासुदेव सिंह, हिंदी संत-काव्य, समाजशास्त्रीय अध्ययन, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, 2001, पृ. 311
  6. शुकदेव सिंह, भये कबीर कबीर, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2005, पृ. 64
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  8. वही, पृ. 64
  9. प्रभाकर माचवे, भारतीय साहित्य के निर्माता: कबीर, साहित्य अकादेमी प्रकाशन, 2019, पृ. 29
  10. रवींद्र कुमार सिंह, संत-काव्य की सामाजिक सामाजिक प्रासंगिकता, वाणी प्रकाशन, आवृत्ति संस्करण, 2015, पृ. 40
  11. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 1976, पृ. 341
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  18. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 1976, पृ. 324
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  20. हरिकृष्ण देवसरे, संत तुकाराम सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, 2012, पृ. 51
  21. रमेश सेठ, तुकाराम एवं कबीर एक तुलनात्मक अध्ययन, साहित्य शोध संस्थान, 1992 , पृ.73
  22. श्यामसुंदर दास, कबीर ग्रंथावली, जयभारती प्रकाशन इलाहाबाद, 2015, पृ. 29
  23. वही, पृ. 28
  24. वही, पृ. 16
  25. हरिकृष्ण देवसरे, संत तुकाराम, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, 2012, पृ. 71
  26. बलदेव वंशी, कबीर की चिंता, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2002, पृ. 9
कविता सरोज
 शोध छात्रा, हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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