- प्रियंका कुमारी मौर्या
शोध
सार : यात्रा-वृत्तान्त
हिन्दी
साहित्य
की
एक
महत्त्वपूर्ण
विधा
है।
वर्तमान
समय
में
यह
विधा
पिछली
सदी
के
मुकाबले
अपनी
अंतर्वस्तु,
शिल्प
और
भाषा
में
अलग
रुख
अख्तियार
कर
रही
है।
अब
विभिन्न
विधाओं
के
साहित्यिक
स्वरूप
को
स्थाई
रूप
देने
वाली
मानसिकता
टूट
रही
है।
वैश्वीकरण, उदारीकरण,
निजीकरण,
संचार
क्रांति
आदि
के
फलस्वरूप
उपजे
संकट
अब
कथेतर
विधाओं
में
अंतर्वस्तु
के
रूप
में
रखे
जा
रहे
हैं।
इधर
कुछ
दशकों
से
जो
यात्रा-वृत्तान्त
लिखे
जा
रहे
हैं
उनमें
ये
समस्याएँ
केंद्र
में
हैं
जिनकी
पहचान
और
परख
पारंपरिक
रूढ़
विधाई
चौखटों
में
संभव
नहीं
है।
समय
के
साथ
बदलते
परिवेश
में
नए
साहित्यिक
रूप
सामने
आ
रहे
हैं
जो
आज
के
यात्रा-वृत्तान्त
लेखन
में
परिलक्षित
हो
रहे
हैं।
यह
विधा
अपने
नए
कलेवर
में
पाठकों
के
सामने
समकालीन
यथार्थ
को
रचनात्मक
रूप
में
सामने
लाने
का
प्रयास
कर
रही
है।
बीज
शब्द : यात्रा-वृत्तान्त, रचना-प्रक्रिया,
वैश्वीकरण, उदारीकरण,
निजीकरण,
साम्राज्यवाद,
उत्तर-आधुनिकता,
सांस्कृतिक
संकट, पर्यावरण
संकट,
होलोकॉस्ट,
नृजातीय
तत्त्व
।
मूल
आलेख : हिन्दी
साहित्य
के
विभिन्न
कालों
में
विधायी
रचना-प्रक्रिया,
युग-सन्दर्भ
और
परिस्थितियों
के
बदलने
के
साथ
बदलती
रही
है।
प्राचीन
ग्रंथों
जैसे
वेद, पुराण,
उपनिषद्, स्मृतियों
सहित
रामायण, महाभारत
इत्यादि
में
यात्राओं
के
उल्लेख
मिलते
हैं।
इन्हीं
आरम्भिक
यात्रा-वर्णनों
ने
हिन्दी
साहित्य
में
यात्रा-वृत्तांत
लेखन
को
पृष्ठभूमि
प्रदान
की।
आधुनिक
युग
में
यह
एक
विधा
के
रूप
में
उभरकर
सामने
आई
तथा
पाश्चात्य
साहित्य
के
संपर्क
में
आने
के
बाद
और
परिष्कृत
हुई।
प्रारम्भिक
यात्रा-वृत्तांत
लेखकों
ने
इसे
लेख
के
रूप
में
लिखा।
हिन्दी
में
यात्रा-वृत्तान्त
विधा
का
विकास
शुद्ध
निबंधों
की
शैली
से
माना
जा
सकता
है।
अपने
आरंभिक
समय
में
ये
तीर्थाटन
और
मनोरंजन
के
लिए
लिखे
जा
रहे
थे।
यही
इनके
विकास
का
प्रस्थान
बिंदु
है।
तब
से
आज
तक
इसमें
उल्लेखनीय
विकास
हुए
हैं।
यहाँ
हमारा
ध्येय
इक्कीसवीं
सदी
के
यात्रा-वृतांतों
की
पड़ताल
करना
है।
इक्कीसवीं
सदी
में
पिछली
सदी
के
मुकाबले
यात्रा-वृत्तांतों
में
गुणात्मक
बदलाव
आए
हैं।
ये
गुणात्मक
बदलाव
अचानक
नहीं
हुए
बल्कि
इनके
पीछे
पिछली
सदी
की
परिस्थितियां
कार्य
कर
रही
थीं।
पिछली
सदी
के
अंतिम
दशकों
में
वैश्वीकरण,
उदारीकरण
और
निजीकरण
ने
विचारधारा
और
चिंतन
की
दुनिया
में
गम्भीर
बदलाव
लाए।
आर्थिक, राजनीतिक,
सामाजिक,
सांस्कृतिक
और
अन्य
कई
स्तरों
पर
तमाम
संकटों
की
पूंजीभूत
अभिव्यक्ति
ने
लेखकों
को
सोचने
पर
मजबूर
कर
दिया।
आज
पूरी
दुनिया
धीरे-धीरे
कई
शक्ति
केन्द्रों
में
विभाजित
होती
जा
रही
है।
संचार
क्रांति
ने
पूरे
विश्व
को
एक
वैश्विक
गाँव
(ग्लोबल विलेज) में
बदल
दिया
है
जिसके
परिणामस्वरूप
पूरी
दुनिया
में
बहुराष्ट्रीय
कम्पनियां
स्थापित
हो
चुकी
हैं।
पश्चिमी
पूंजीवादी
देश
एशिया
और
अफ्रीका
में
अपने
उत्पादों
के
लिए
बाजार
बनाने
में
प्रयासरत
हैं।
सांस्कृतिक
समरूपता
के
नाम
पर
पश्चिमी
सांस्कृतिक
मूल्यों
को
अन्य
आंचलिक
संस्कृतियों
पर
थोपा
जा
रहा
है
जिसके
परिणामस्वरूप
सांस्कृतिक
संकट
का
एहसास
सार्वजनिक
हो
गया
है।
वर्तमान
समय
में
सारा
उत्तर-आधुनिक
कारोबार
संस्कृति
को
लेकर
ही
है।
पिछले
कुछ
वर्षों
से
विभिन्न
क्षेत्रों
के
बुद्धिजीवी
सांस्कृतिक
और
राजनीतिक
सवालों
पर
बड़ी
शिद्दत
से
विचार
कर
रहे
हैं।
शम्भुनाथ
जी
लिखते
हैं
कि
“हम सांस्कृतिक
संकट
से
सांस्कृतिक
गुलामी
के
युग
में
प्रवेश
कर
चुके
हैं।”[1]
सांस्कृतिक
और
आर्थिक
पिछड़ापन
तथा
हिंसक
अराजकता
को
बनाए
रखना, धर्म और
सम्प्रदायों
को
खुलकर
खेलने
का
मौका
देना
गहरे
सांस्कृतिक
संकट
का
संकेत
करते
हैं।
समाज
की
अनियंत्रित
जीवन-व्यवस्था, असुरक्षा, अराजकता, विकृति
और
क्रूरता
ने
लोगों
में
सांस्कृतिक
संकट
के
आतंक
को
और
सघन
कर
दिया
है।[2]
बाजार, उपभोग, उन्माद, वैषम्य, दमन, असुरक्षा
आज
के
समय
की
बड़ी
सच्चाई
हैं
जिससे
सामान्य
जनमानस
जूझ
रहा
है।
लाखों-करोड़ों
की
परम्परागत
आजीविकाओं
के
उन्मूलन, मनुष्यों के
विस्थापन, भूमि, वन, चारागाहों, जल
संसाधनों के विनाश, प्रकृति-पर्यावरण
के
हालात, सामाजिक
अन्याय, विकास और
तरक्की
के
नाम
पर
अधिग्रहण, विस्थापन
की
राजनीति, विशेषज्ञों
और
मीडिया
मैनेजरों
की
व्यूह-रचना, संगठित अपराध, साधारण आदमी
के
भीतर
असुरक्षा, बेगानेपन, आरोपित
सुख, बदहवासी, एकाकीपन, अजनबियत इत्यादि
आज
के
समय
की
मूल
समस्याएँ
हैं। लोगों के
जीवन
की
प्राथमिकताएं
अब
बदल
रही
हैं।
‘वैश्वीकरण ने
एक
ओर
तो
व्यक्ति,
समाज
और
राज्य
के
बीच
इतने
जोड़
पैदा
कर
दिए
हैं
कि
सामाजिक
गतिविधियों
का
क्षेत्र
इस
रूप
से
वैश्विक
हो
गया
कि
इसके
एक
हिस्से
में
हुई
घटना
का
अन्य
दूर-दराज
के
स्थानों
पर
तुरंत
प्रभाव
पड़ता
है।
इस
तरह
वैश्वीकरण
का
मतलब
वैश्विक
परिस्थितियों
का
स्थानीय
परिस्थितियों
को
तेजी
से
भेदने
की
क्षमता
से
है।’[3]
अर्थात्
इसमें
स्थानीयकरण
और
वैश्वीकरण
दोनों
समानांतर
चलती
है। साहित्य के
क्षेत्र
में
वैश्वीकरण
ने
पूंजीवादी
मानसिकता
की
अहमियत
बढ़ा
दी
है
और
पारंपरिक
नैतिकतावादी
साहित्य
जो
तुलनात्मक
दृष्टि
से
कम
उत्पादक
होने
के
कारण
उपेक्षित
होने
लगे
हैं।
इसके
अतिरिक्त
भारतीय
बाज़ारों
में
विभिन्न
विदेशी
भाषाओं
के
साहित्य
भी
देखने
को
मिल
रहे
हैं।
भारतीय
परम्पराएं,
प्रदर्शनकारी
कलाएँ,
जीवन
जीने
के
तरीके,
भाषाएँ
और
बोलियाँ
सदियों
पुराने
हैं।
अब
वैश्विक
संस्कृति
में
इनके
गुम
हो
जाने
का
खतरा
बना
हुआ
है।
इसीलिए
हम
जब
भी
इक्कीसवीं
सदी
की
रचनाशीलता
की
बात
करते
हैं
तो
कोई
भी
विमर्श
इन
समस्याओं
से
अछूता
नहीं
लगता
है।
बात
चाहे
कविता
और
गद्य
की
हो
या
कथेतर
गद्य
की,
ये
सारी
समस्याएँ
रचनाशीलता
के
केंद्र
में
हैं।
वहीं
इक्कीसवीं
सदी
के
यात्रा-वृत्तांतों
की
बात
की
जाए
तो
इन
समस्याओं
को
केंद्र
में
रखकर
ही
वृत्तांतों
की
रचना
की
जा
रही
है।
अब
विवरण
और
स्थान-विशेष
के
वर्णन
की
जगह
विचारशीलता
को
तरजीह
दी
जा
रही
है।
उस
स्थान
विशेष
के
सामाजिक,
आर्थिक, राजनीतिक
परिप्रेक्ष्य
पर
लेखक
बड़ी
शिद्दत
से
विचार
कर
रहे
हैं। इसीलिए इक्कीसवीं
सदी
के
यात्रा-वृत्तांतों में आए
बदलाव
को
समझने
के
लिए
इस
समय
के
सांस्कृतिक
और
राजनीतिक
परिदृश्यों
पर
भी
विचार
और
समझ
आवश्यक
हो
जाता
है।
वैश्विक
परिप्रेक्ष्य
में
राजनीतिक-सांस्कृतिक
परिदृश्य
पर
जब
बात
होती
है
तो
वर्तमान
समय
में
अमेरिका
विश्व
की
सबसे
ताकतवर
और
बड़ी
शक्ति
के
रूप
में
माना
जाता
है।
आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक
सभी
क्षेत्रों
में
उसका
वर्चस्व
बना
हुआ
है।
सोवियत
संघ
के
विघटन
के
पश्चात्
भी
यह
अपनी
पूरी
शक्ति
के
साथ
कायम
है।
“इसका कारण यह
है
कि
केवल
अमेरिका
ही
भूमंडलीय
नजरिये
और
भूमंडलीय
व्यूह
रचना
से
लैस
है।
दुनिया
के
हालात
कुछ
इस
तरह
के
हैं
कि
चाहे
यूरोपीय
संघ
से
सम्बन्ध
हो, जापान
से
हो, अमीर-गरीब
देशों
का
मामला
हो
या
पूर्व-पश्चिम
के
आपसी
संबंधों
की
बची
खुची
संरचनाएं
हों, अमेरिका
की
भूमिका
हर
मामले
में
निर्णायक
लगती
है।”[4]
उदाहरण
के
तौर
पर
ललित
सुरजन
अपने
यात्रा-वृत्तांत
‘शरणार्थी शिविर
में
विवाह
गीत’
(2007) में
अमेरिका
की
वर्चस्ववादी
नीतियों
पर
बात
करते
हुए
लिखते
हैं
कि-“अमेरिका
की
मनमानी
व
दादागिरी
के
चलते
दूसरे
हिरोशिमा
व
नागासाकी
के
होने
का
खतरा
उत्पन्न
हो
गया
है।
भारी
मात्रा
में
आणविक
हथियार
तथा
दूसरे
जनसंहारक
हथियार
रखने
से
अधिक
छलपूर्ण
व
असंगत
काम
दूसरा
नहीं
हो
सकता।
एक
ओर
तो
इजरायल
व
अन्य
देशों
के
आणविक
हथियारों
के
विकास
पर
आँखें
मूंद
लेना
और
दूसरी
ओर
कुछ
देशों
पर
सिर्फ
इसी
बात
को
लेकर
हमले
की
धमकी
देना
कि
वे
आणविक
हथियारों
का
निर्माण
कर
सकते
हैं।
उन
पर
न
सिर्फ
हमला
बल्कि
आणविक
हथियार
के
प्रयोग
की
धमकी
भी
दी
जा
रही
है, यह सब
शान्ति
स्थापना
के
प्रयासों
की
धज्जी
उड़ाना
है।
अपने
इस
रवैये
के
कारण
विश्व
भर
में
अमरीका
की
कड़ी
आलोचना
हो
रही
है।
आज
जितना
वह
एकाकी
पड़
गया
है, इससे पहले
कभी
नहीं
रहा।”[5] इसी
तरह
असगर
वजाहत
अपने
यात्रा-वृत्त
‘चलते तो अच्छा
था’ (2008) में
ईरान
पर
अमरीकी
प्रभाव
को
लक्षित
करते
हुए
लिखते
हैं-“अमेरिका
विरोध
के
बावजूद
ईरान
में
अमेरिकी
जीवन-शैली
बहुत
लोकप्रिय
है, विशेष
रूप
से
युवाओं
के
बीच
जींस, अमेरिकी
खान-पान, अमेरिकी फिल्मों
का
प्रचलन
बढ़
रहा
है।
अमेरिकी
पद्धति
के
अनुसार
घरों
की
सजावट
और
स्वरूप
बहुत
लोकप्रिय
है।”[6]
वे
इस
बात
को
बड़ी
बारीकी
से
लक्षित
करते
हैं
कि
“यह बहुत रोचक
है
कि
राजनीतिक
स्तर
पर
अमेरिका
विरोध
सांस्कृतिक
क्षेत्र
में
अमेरिका
समर्थन
में
बदल
जाता
है।”[7]
इसी
तरह
नासिरा
शर्मा
ईरान
की
बदलती
तात्कालिक
परिस्थितियों
पर
अपने
यात्रा-वृत्त
‘जहाँ फव्वारे
लहू
रोते
हैं’ (2003) में
लिखती
हैं-“ईरानी
समझते
हैं
कि
तेल
उनके
लिए
मुसीबत
बन
गया
है।
यह
भी
ख़तरा
महसूस
हुआ
कि
अमेरिकी
प्रभाव
कम
होते
ही
रूस
आ
जाएगा।
यदि
ऐसा
हुआ
तो
भी
ईरानी
इतनी
ही
कुरबानी
देंगे।”[8]
ईरान
की
बदतर
स्थिति
पर
वे
लिखती
हैं
“आज ईरान से
आए
कुछ
हफ्ते
ही
गुजरे
हैं, लेकिन
वहां
ऐसा
कोई
दिन
नहीं
गुजरा, जब
गोलियों
की
आवाजें, धुंए
के
बादल, चीखें, रोना, नारे
सुनाई
न
पड़े
हों। सड़कों पर
काले
कपड़ों
में
घूमती
औरतें, क़ब्रिस्तान
के
गुस्सलखानों
में
मुर्दों
के
ढेर
देखने
को
न
मिले
हों।”[9]
इसी
तरह
के
हालात
पाकिस्तान
में
भी
हैं।
11 सितम्बर 2001 की
घटना
ने
सामान्य
जनचेतना
के
भीतर
इस्लाम
के
प्रति
नए
नजरिए
का
निर्माण
किया
है।
अमेरिकी
प्रोपेगेंडा
ने
आम
लोगों
के
दिमाग
में
यह
घर
कर
दिया
है
कि
धर्म
के
रूप
में
इस्लाम
आतंकवाद
को
शह
दे
रहा
है।
साम्प्रदायिक
हिंसा
का
कारण
मुसलमानों
की
हिंसक
प्रवृत्ति
को
बताया
जा
रहा
है।
असगर
वजाहत
की
‘पाकिस्तान का
मतलब
क्या’
(2012) पुस्तक
पाठक
को
यह
सोचने
की
दिशा
देती
है
कि
पाकिस्तान
की
तरफ
देखने
का
नजरिया
बदलना
चाहिए।
पाकिस्तान
न
केवल
महत्वपूर्ण
पड़ोसी
देश
है,
बहुत
बड़ा
बाजार
है
बल्कि
एक
मजबूत
सांस्कृतिक
कड़ी
भी
है
जो
हमारे
वर्तमान
और
भविष्य
को
समझने
के
लिए
अनिवार्य
है।
वे
वहां
की
स्थिति
पर
लिखते
हैं
कि
-“वीजा नियमों में
ढील
देने
से
न
तो
आंतरिक
सुरक्षा
को
खतरा
है, न आतंकवाद
बढ़ेगा। हाँ, खतरा
है
तो
उन
लोगों, समूहों को
है
जो
भय, शत्रुता, हिंसा
और
आतंक
के
नाम
पर
अंडे-पराठे
उड़ा
रहे
हैं।
आतंकवाद
और
धर्मान्धता
की
जड़
है
अज्ञान
और
शोषण। लेकिन मूल
मुद्दों
के
प्रति
ध्यान
कौन
देता
है
क्योंकि
हमारे
सत्ताधारियों
के
लिए
अज्ञान
और
शोषण
ही
‘जीवन रेखा’ है।”[10]
यह
ठीक
है
कि
दुनिया
का
कोई
भी
देश
आज
वैश्वीकरण
से
अलग-थलग
नहीं
रह
सकता।
भारतीय
परिप्रेक्ष्य
में
राजनीतिक
और
सांस्कृतिक
परिदृश्य
की
बात
करें
तो,
भारत
भी
वैश्विक
अर्थव्यवस्था
का
एक
भाग
बन
गया
है।
भारत
जैसा
देश
मूलतः
नौकरशाही
के
भरोसे
चलता
है। ऐसी नौकरशाही
जिसमें
अधिकांश
स्वार्थपरक
नौकरशाह
हैं।
ऐसी
स्थिति
में
ऐसा
नहीं
लगता
कि
यह
नौकरशाही
भारत
की
अर्थव्यवस्था
को
विश्व
की
निरंतर
बदलती
हुई
अर्थव्यवस्था
के
अनुरूप
कोई
आकार, बिना
सरकार
की
भागीदारी
के
दे
सकती
है।
किसी
भी
देश
के
विकास
के
प्रभाव
का
वास्तविक
मापदंड
आम
आदमी
की
मूलभूत
आवश्यकताओं
को
उपलब्ध
करवाना
है,
पर
भारत
में
इसके
लिए
कोई
विशिष्ट
रणनीति
नहीं
अपनाई
गई
है। इसका संभावित
कारण
यह
है
कि
हमारा
उदारीकरण
प्रतिक्रियात्मक
उदारीकरण
है, न कि
क्रियात्मक
और
सुनियोजित
उदारीकरण।
‘भूमंडलीकरण के
पैरोकार
उदारतावादी
लोकतंत्र
को
एक
औजार
की
तरह
देखते
हैं
जिसके
जरिये
विश्व-पूंजीवाद
को
टिकाया
चलाया
जा
सके।’[11]
पहले
उदारीकरण
में
सरकारी
भूमिका
प्रमुख
रहती
थी
और
निजी
क्षेत्र
उसमें
मात्र
पूरक
का
काम
करता
था, पर
शायद
स्थिति
विपरीत
हो
चुकी
है। सरकार को
उत्पादक
की
भूमिका
निभाने
की
बजाय
एक
नियंत्रक
की
भूमिका
निभानी
चाहिए।
रजनी
कोठारी
लिखती
हैं–“भारतीय
समाज
जिन
विविधताओं
से
मिलकर
बना
था, राजनीति
का
आधुनिकीकरण
उनका
भी
आधुनिकीकरण
करता
जा
रहा
था।
जाति, धर्म, भाषा
और
क्षेत्र
राजनीतिक
रूख
अख्तियार
करते
जा
रहे
थे।”[12]
भारत
ही
नहीं
विश्व
में
ऐसे
अनेकों
समुदाय
और
समाज
मौजूद
हैं
जो
आधुनिक
विचारों
को
नहीं
अपना
सकें
और
अपनी
मूल
अवस्था
में
रहना
चाहते
हैं।
उनमें
भविष्य
में
होने
वाले
बदलाव
के
परिणामस्वरूप
अपनी
संस्कृति,
सभ्यता
के
पहचान
के
संकट
की
भावना
उत्पन्न
हो
गयी
है।
आज
आदिवासी
समाजों
की
स्थिति
यही
है।
वैश्वीकरण
ने
भारत
ही
नहीं
बल्कि
विश्व
भर
के
आदिवासियों
की
जीवन-शैली, संस्कृति,
परंपरा
इत्यादि
को
बुरी
तरह
प्रभावित
किया
है।
वे
अपनी
ही
जमीन
और
जंगल
से
बेदखल
होकर
मजदूर
बनने
पर
विवश
हो
गए
हैं।
आज
यह
समाज
अपने
अस्तित्व
रक्षा
के
लिए
लगातार
संघर्षरत
है।
भारत
के
आदिवासी
इलाकों
विशेषतः
पूर्वोत्तर,
झारखंड,
मध्यप्रदेश,
उड़ीसा,
छत्तीसगढ़
और
दक्षिण
भारत
पर
कई
यात्रा-वृत्तांत
लिखे
गए।
पूर्वोत्तर
में
विभिन्न
नृजातीय-तत्व
विद्यमान
हैं।
इन
नृजातीय
समूहों
में
सांस्कृतिक
स्तर
पर
काफी
भिन्नताएं
हैं, जैसे-
नागा,
खासी,
जयंतिया
और
बोडो
आदि
जनजातियां।
अनिल
यादव
के
यात्रा-वृत्तांत
‘वह भी कोई
देश
है
महाराज’ (2012) ने
यात्रा-वृत्तान्त
लेखन
विधा
को
नया
नजरिया
दिया।
उन्होंने
इसमें
नागाओं
की
समस्या
को
बखूबी
पाठकों
के
सामने
रखा
है।
वे
लिखते
हैं
कि-“भारत
के
ज्यादातर
लोगों
ने
विश्वयुद्ध
का
नाम
सुना
है।
नागाओं
ने
भोगा
है।
नागा
गाँवों
के
घरों
में
अब
भी
हवाई
जहाजों
के
प्रोपेलर, टैंकों
की
नालियाँ, बंदूकें, लोहे के
टोप, बमों के
खोल
मुफ्त
मिली
ट्राफियों
की
तरह
सजे
मिलते
हैं।”[13]
इसमें
पलायन
की
पीड़ा,
नरसंहारों
की
राजनीतिक
और
समाजशास्त्रीय
व्याख्याएं,
भाषा
का
आतंक, मुसलमानों
की
समस्या,
उग्रवादी
संगठनों
का
खौफ
और
बेचैन
विवशताएँ
सब
मौजूद
हैं।
बकौल
उमेश
पन्त
यह
एक
भाषा
में
‘एक अनटिपिकल
ट्रैवेलाग’
है।
कहीं-कहीं
कई
अनुच्छेदों
में
यह
एक
रपट
सरीखा
हो
जाता
है....संवेदनाओं
के
व्यायाम
के
लिए..।[14]
पूर्वोत्तर
में
बढ़ते
उग्रवादी
संगठनों
के
संघर्ष
पर
वे
लिखते
हैं
कि
“कई महीने बाद
समझ
में
आया
कि
पूर्वोत्तर
की
राष्ट्रीयताओं
और
जनजातीय
संस्कृतियों
के
संघर्ष
की
एकदम
सच्ची
तस्वीर
थी।
हर
प्रमुख
आदिवासी
जाति
के
पास
अपना
एक
उग्रवादी
संगठन
है
जो
अलग
देश
के
लिए
लड़
रहा
है
और
एक
साहित्य
सभा
है
जो
अपनी
लिपि
विकसित
करने
के
काम
में
लगी
हुई
है।”[15]
इसके
साथ
ही
अनिल
यादव
एक
महत्वपूर्ण
बिंदु
की
तरफ
भी
इशारा
करते
हैं
कि
कैसे
वैश्वीकरण
के
इस
युग
में
संस्कृति
को
हथियार
के
रूप
में
इस्तेमाल
किया
जा
रहा
है।
क्योंकि
किसी
भी
समाज
या
देश
के
लिए
उसकी
महत्वपूर्ण
संस्कृति
होती
है।
प्रत्येक
संस्कृति
के
लोग
अपने
को
दूसरी
संस्कृति
से
श्रेष्ठ
मानते
है।
पूरी
दुनिया
में
सांस्कृतिक
वर्चस्व
की
मुहीम
शुरू
हो
गई
है।
सच्चिदानंद
सिन्हा
ने
भी
इस
बात
की
ओर
इशारा
किया
है
कि
‘वैश्वीकरण, जिसका
पैगाम
लेकर
नई
शती
आई
है,
एक
अर्थ
में
संस्कृतियों
का
होलोकॉस्ट
है।’[16]
अनिल
यादव
इस
बात
की
ओर
पाठक
का
ध्यान
खींचते
हैं
कि
इसके
पीछे
जो
शक्ति
काम
कर
रही
है
वह
निश्चित
तौर
पर
वैश्वीकरण
की
प्रक्रिया
ही
है।
“यह संभवतः असमिया
बनाम
अन्य
संस्कृतियों
का
झगडा
नहीं
है।
यह
कोई
क्यों
नहीं
सोचता
कि
हमारे
सीमित
संसाधनों
को
हड़पने
का
युद्ध
चल
रहा
है
और
इस
युद्ध
में
संस्कृति
को
हथियार
की
तरह
इस्तेमाल
किया
जा
रहा
है।
असम
की
संस्कृति
ही
नहीं
राजनीति
और
अर्थव्यवस्था
ख़तरे
में
है।
संस्कृति
कई
सालों
से
असम
का
दुखता
घाव
है।
हर
तिकड़म
को
संस्कृति
के
नीचे
ढक
दिया
जाता
रहा
है।”[17]
भारत
में
विस्थापन
और
पलायन
कोई
नई
परिघटना
नहीं
है।
यह
साल
दर
साल
जारी
है।
पलायन
और
विस्थापन
के
पीछे
तीन
प्रमुख
कारण
है-पर्यावरणीय, आतंरिक
और
आर्थिक
विकास।
बाँध
परियोजनाएं, राष्ट्रीय
उच्च
मार्ग, रेलवे
लाइन,
खनन, रियल
इस्टेट,
अभयारण्य,
बेरोजगारी
एवं
अन्य
कारणों
से
विस्थापन
की
समस्या
केंद्र
में
है।
सबसे
ज्यादा
विस्थापितों
में
आदिवासी
और
अनुसूचित
जनजाति
के
लोग
शामिल
हैं।
पलायन
और
बेरोजगारी
पर
वे
लिखते
हैं-“दोनों
को
पढ़ते
और
उंघते
हुए
मुझे
लगा
यह
ट्रेन
मजबूर
लोगों
से
भरी
हुई
है।
उन्हें
वहां
लिए
जा
रही
है
जहाँ
वे
जाना
नहीं
चाहते।
रोज़ी, व्यापार, रिश्तों
की
हथकड़ियों
से
जकड़
कर
वे
बिठा
दिए
गए
हैं।
वे
जानते
हैं
वहां
मौत
नाच
रही
है
फिर
भी
जा
रहे
हैं।
अचानक
लम्बी
यात्रा
के
बेफिक्र
आलस
की
जगह
डिब्बों
में
चौकन्नापन
पंजों
के
बल
चलता
महसूस
होने
लगा।
तीन
को
छोड़
कर
बाक़ी
भाषाएँ
और
बोलियाँ
भयभीत, फुसफुसाने
लगीं।
ये
तीन
नई
भाषाएँ
थीं
असमिया, अंग्रेजी
और
यदा-कदा
बांग्ला।”[18]
आर्थिक
विकास
के
कारणों
की
बात
करें
तो
सबसे
ज्यादा
आर्थिक
विकास
के
नाम
पर
लूट
उड़ीसा,
झारखंड, मध्य प्रदेश
और
छत्तीसगढ़
में
हुई
है।
कारण
नैसर्गिक
संसाधनों
की
उपलब्धता।
इसी
उपलब्धता
के
कारण
देशी-विदेशी
कॉरपोरेट
शक्तियां
विकास
के
नाम
पर
लोगों
को
उनकी
आजीविका
से
दूर
कर
रही
है।
साफ़
शब्दों
में
कहें
तो
उनका
हाशियाकरण
कर
रही
है।
‘भूमंडलीकरण और
हाशियाकरण
एक
ही
परिघटना
की
प्रति-छवियाँ
हैं।
हाशियाकरण
भूमंडलीकरण
का
अनिवार्य
परिणाम
है।’[19]
मधु
कांकरिया
अपने
यात्रा-वृत्तांत
‘बादलों में बारूद’
(2014) में
झारखंड
के
आदिवासियों
की
इस
स्थिति
को
बखूबी
दिखाती
हैं–“सदियों
से
लुटेपिटे
एवं
दलित
आदिवासियों
को
अनुभव
ने
आँख
में
अंगुली
डालकर
सिखा
दिया
था
कि
जब
भी
कोई
शहरी
यहाँ
आता
है
तो
उन्हें
लूटकर
ही
जाता
है।
यह
वह
दौर
था
जब
जमींदारों
द्वारा
आदिवासियों
की
जमीनें
तेजी
से
हड़पी
जा
रही
थीं।
आदिवासी
अपने
परंपरागत
धंधे-कृषि, ग्रामीण
उद्योग, हस्त
कारीगरी, ग्रामीण
कला
एवं
शिल्प
से
दूर
हटते
हुए
विकास
के
नाम
पर
तेजी
से
मजदूर
में
तब्दील
होते
जा
रहे
थे
क्योंकि
बाज़ार
का
चरित्र
बदल
रहा
था।
देश
में
उदारीकरण
के
खुलते
दरवाजे
ने
विकास
के
देशजबोध
को
कुचल
डाला
था।”[20]
यही
कारण
रहे
कि
आदिवासियों
ने
अपने
को
बाहरी
दुनिया
और
दिकू
(बाहरी लोग) लोगों
से
बचाकर
रखा।
अगर
ध्यान
से
देखा
जाए
तो
भारत
की
मौजूदा
औद्योगिकीकरण
की
प्रक्रिया
उसकी
विकास
दर
को
तो
बढ़ा
सकती
है
मगर
आदिवासियों
पर
यह
प्रभाव
किसी
सांस्कृतिक
जनसंहार
से
कम
नहीं
है।
उनकी
पारंपरिक
जीवन-शैली
की
सारी
मान्यताएं,
उनकी
ऊर्जा
नष्ट
हो
जाएगी।
आलोक
रंजन
ने
अपनी
रचना
‘सियाहत’
(2018) में केरल
की
यात्रा
करते
हुए
इसे
बखूबी
महसूस
किया
है।
वे
लिखते
हैं–“तेरा
गाँव
केरल
के
उस
क्षेत्र
में
पड़ता
है
जिसके
बारें
में
यदि
कहा
जाय
तो
केरल
वाले
भी
नहीं
मानेंगे
कि
ऐसा
गाँव
उनके
राज्य
में
है।
वहां
भी
लोग
रहते
हैं, पहाड़, नदी
और
जंगल
सब
हैं
लेकिन
नहीं
है
तो
बस
केरल
की
सामान्य
आबादी
से
उस
गाँव
का
संपर्क।”[21]
इसी
प्रकार
छत्तीसगढ़
के
आदिवासियों
पर
रामशरण
जोशी
के
यात्रा-वृत्तान्त
‘यादों का लाल
गालियारा
दंतेवाड़ा’ (2015) है।
प्राकृतिक
संसाधनों
के
दोहन,
जल-जंगल-जमीन
की
लड़ाई,
वहां
के
आदिवासियों
को
दिए
जाने
वाले
संवैधानिक
आरक्षण
के
लाभ
भी
मिलने
में
बाधा
आदि
को
बखूबी
दर्शाया
है।
वे
लिखते
हैं-“अब
आधुनिक
उपभोक्तावादी
सभ्यता
की
गिरफ्त
से
कोई
भी
आदिवासी
सुरक्षित
नहीं
है।
क्योंकि
सभ्यता
के
नुमाइंदों
की
गिद्ध
दृष्टि
उसके
अकूत
प्राकृतिक
संसाधनों
पर
शिखर
से
तल
तक
गड़ी
हुई
है।”[22]
वहां
ऐसी
स्थिति
में
महिलाओं
की
स्थिति
बेहद
ख़राब
है।
उन
पर
हिंसा
और
बलात्कार
के
मामले
बढ़
जाते
हैं।
समाज
में
पुरुष
प्रधान
मानसिकता
के
कारण
महिलाओं
को
अनेक
वैधानिक
प्रयत्नों
के
बावजूद
समानता
का
दर्जा
नहीं
मिल
पाता।
परम्परावादी
समाज
महिलाओं
के
साथ
दोयम
दर्जे
के
नागरिक
का
व्यवहार
करता
है।
इसीलिए
स्त्रियों
की
स्थिति
पर
धर्मतंत्र
का
गहरा
प्रभाव
है।
समाज
जितना
पिछड़ा
होगा,
सामजिक
मामलों
पर
पुरोहित
वर्ग
का
नियंत्रण
उतना
अधिक
होगा
तथा
स्त्रियों
का
शोषण
अधिक
होगा।
जिन
समाजों
में
धर्म
के
निरपेक्षीकरण
की
प्रक्रिया
नहीं
चली
उनमें
स्त्रियाँ
दमनकारी
स्थितियों
में
रहती
हैं।
छत्तीसगढ़
के
दंतेवाड़ा
की
भी
यही
स्थिति
है।
रामशरण
जोशी
दंतेवाड़ा
में
स्थित
महिला
आश्रम
की
स्थिति
पर
लिखते
हैं
कि
“दंतेवाड़ा स्थित
निराश्रित
महिला
आश्रम
में
ऐसी
अनेक
युवतियां
रह
रही
हैं, जो
दो-दो
तीन-तीन
पतियों
द्वारा
छोड़
दी
गई
हैं
और
उनसे
उत्पन्न
संतानों
को
अनाथ
के
रूप
में
पाल
रही
हैं।
आज
वह
न
तो
परम्परागत
समाज
में
ही
वापस
लौट
सकती
हैं
और
न
ही
आधुनिक
समाज
उन्हें
सम्मानजनक
इंसान
की
जिंदगी
बसर
करने
का
अवसर
दे
सकता
है।
कुल
मिलाकर
वह
उपभोग
की
वस्तु, वह भी
‘निम्न स्तर’ की
से
अधिक
कुछ
नहीं
हैं।”[23]
इक्कीसवीं
सदी
में
पर्यावरणीय
समस्याओं
को
केंद्र
में
रखकर
भी
कई
यात्रा
वृत्तान्त
लिखे
जा
रहे
हैं।
इसके
पीछे
प्रमुख
कारण
मानवीय
गतिविधियों
और
ग्रह
पर
उनके
प्रभावों
से
सम्बंधित
अतिरिक्त
दबाव
वाले
पर्यावरणीय
मुद्दे
रहे
हैं।
जलवायु
परिवर्तन
और
वैश्विक
तापवृद्धि
के
फलस्वरूप
कई
भयावह
और
चुनौतीपूर्ण
समस्याएँ
सामने
आ
खड़ी
हैं।
जिसके
परिणामस्वरूप
कृषि
क्षेत्र
प्रभावित
हो
रहा
है।
इतना
ही
नहीं
प्रजातियों
और
पारिस्थितिक
तंत्रों
पर
ताप
वृद्धि
और
जलवायु
परिवर्तन
का
प्रभाव
दुनिया
भर
में
धरती
और
महासागरों
पर
पहले
ही
स्पष्ट
है।
प्रजातियों
के
भौगोलिक
वितरण
ध्रुवों
की
ओर
होने
वाला
खिसकाव,
प्रवाल
भित्तियों
का
बड़े
पैमाने
पर
विरंजित
हो
जाना
और
विनाशकारी
दावानल,
ये
सब
वैश्विक
तापवृद्धि
के
ही
चिन्ह
हैं।
ताप-वृद्धि
के
कारण
जलस्त्रोतों
का
सिकुड़ना
गंभीर
चिंता
का
विषय
है।
अमृतलाल
वेंगड़
अपने
यात्रा-वृत्तान्त
‘तीरे-तीरे नर्मदा’ (2011) में
इसी
बात
पर
चिंता
व्यक्त
की
है–“याद
रखो, पानी
का
कोई
विकल्प
नहीं।
ऊर्जा
के
अनेक
विकल्प
हैं
- कोयला, पेट्रोल, डीजल, गैस, सौर
ऊर्जा
आदि।
लेकिन
पानी
का
एक
भी
विकल्प
नहीं।
न
दूध, न
शहद, कोई
नहीं।
पानी
का
विकल्प
पानी
है।
पानी
की
हर
बूंद
एक
चमत्कार
है।
हवा
के
बाद
पानी
ही
मनुष्य
की
सबसे
बड़ी
आवश्यकता
है।”[24]
यदि
इक्कीसवीं
सदी
के
यात्रा-वृत्तांतों
के
शिल्प
की
बात
करें
तो
नए
तरह
के
शिल्प
के
साथ
‘हिन्दी सराय:अस्त्राखान
वाया
येरेवान’
इक्कीसवीं
सदी
के
महत्त्वपूर्ण
खोजपरक
यात्रा-आख्यानों
में
से
एक
है।
2013 में प्रकाशित
इस
पुस्तक
के
लेखक
पुरुषोत्तम
अग्रवाल
के
वैचारिक
यायावरी
के
कारण
चर्चा
के
केंद्र
में
रहा।
यह
यायावरी
विचार-प्रधान
अधिक
है
जिससे
विचार
और
शोध
की
नयी
संभावनाएं
भी
बनती
हैं।
वे
इसे
‘ट्रेवेलाग के
साथ
थाटलाग’
भी
मानते
हैं।[25]
उनके
द्वारा
की
गई
यह
यात्रा
बुनियादी
तौर
पर
शोध
के
लिए
की
गई
यात्रा
है।
जिसमें
वह
विधागत
सरहदों
से
बाहर
निकलकर
अपनी
जड़ों
को
तलाश
करने
के
लिए
व्यापक
परिप्रेक्ष्य
चुनते
हैं–“इस
किताब
को
लिखने
की
प्रेरणा
उन्हें
डिस्कवरी
ऑफ
इण्डिया
और
राहुल
जी
के
‘मध्य एशिया का
इतिहास’
से
गुजरते
हुए
मिली।
और
फिर
‘अकथ कहानी प्रेम
की’
लिखने
के
दौरान
जैक
गुडी
की
पुस्तक
‘दि ईस्ट एंड
दि
वेस्ट’ और
ऑक्सफोर्ड
यूनीवर्सिटी
प्रेस
के
इनसायक्लोपीडिया
ऑफ
इन्डियन
डायस्पोरा
में
भारतीय
व्यापारियों
के
अस्त्राखान
में
बसने
की
जानकारी
ने
दिया।”[26]
यह
पुस्तक
इसलिए
महत्त्वपूर्ण
है
क्योंकि
यह
अपने
शिल्प, कहन
और
विषय
में
बिल्कुल
अनोखी
है।
यह
पुस्तक
यात्रा-वृत्तान्त
लेखन
की
प्रचलित
पद्धति
से
अलग
है।
यह
पुस्तक
अतीत
के
पुनर्मूल्यांकन
के
साथ
भविष्य
में
शोध
के
लिए
नई
संभावनाएं
भी
खोलती
है
जो
इससे
पहले
के
यात्रा-वृत्तांतों
में
न
के
बराबर
था।
निष्कर्ष : इस
प्रकार इक्कीसवीं सदी में कई ऐसे यात्रा-वृत्तान्त लिखे जा रहे हैं जो अपने शिल्प, अंतर्वस्तु और भाषा में पिछली सदी से अलग हैं। ऐसे यात्रा-वृत्तांतों में ओम थानवी की मुअनजोदड़ों (2011), पंकज बिष्ट की ख़रामा ख़रामा (2012), शिवेंद्र कुमार सिंह की ये जो पाकिस्तान (2012), राकेश तिवारी की सफ़र एक डोंगी में डगमग (2014), दिनेश कर्नाटक की दक्षिण भारत में सोलह दिन (2014), अनुराधा बेनीवाल की आजादी मेरा ब्रांड (2016), राकेश तिवारी की अफगानिस्तान से ख़त-ओ-किताबत (2021), शिरीष खरे की एक देश बारह दुनिया (2021), अनिल यादव की कीड़ाजड़ी (2022) महत्वपूर्ण हैं। अब विभिन्न विधाओं के साहित्यिक स्वरूप को स्थाई रूप देने वाली मानसिकता टूट रही है। इधर कुछ दशकों में ऐसे यात्रा-वृत्तान्त लिखे जा रहे हैं जिनकी पहचान और परख पारंपरिक रूढ़ विधाई चौखटों में संभव नहीं है। बदलते परिवेश और समय के साथ नए साहित्यिक रूप सामने आ रहे हैं जो आज के यात्रा-वृत्तान्त लेखन में परिलक्षित हो रहे हैं। यह विधा अपने नए कलेवर में पाठकों के सामने यथार्थ को उसके मूल रूप में सामने लाने का प्रयास कर रही है।
सन्दर्भ :
- शंभूनाथ : संस्कृति की उत्तरकथा : भारतीय विपर्यय और पुनर्निर्माण के प्रश्न, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 110002, प्रथम संस्करण 2000, पृष्ठ संख्या 190
- सम्पादक अच्युतानंद मिश्र : साहित्य की समकालीनता, अनन्य प्रकाशन, पंचशील गार्डन, दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 36.
- सम्पादक सुरेन्द्र कुमार : संस्कृति और संभावना, अनन्य प्रकाशन, पंचशील गार्डन , दिल्ली, संस्करण 2019, पृष्ठ संख्या 14.
- रजनी कोठारी (हिन्दी प्रस्तुति) और संपादन अभय कुमार दुबे: भारत में राजनीति कल और आज, वाणी प्रकाशन 46 95, 21-ए, दरियागंज नई दिल्ली- 11000 22,
तीसरा संस्करण 2010, पृष्ठ संख्या 443.
- ललित
सुरजन : शरणार्थी
शिविर में
विवाह गीत,
राजकमल प्रकाशन,
नई दिल्ली,
पहली आवृत्ति
2009, पृष्ठ संख्या
77.
- असगर
वजाहत : चलते
तो अच्छा
था, राजकमल
प्रकाशन, दरियागंज,
नई दिल्ली,
दूसरा संस्करण
2019, पृष्ठ संख्या
44.
- वही
.
- नासिरा
शर्मा : जहां
फव्वारे लहू
रोते हैं, वाणी प्रकाशन,
दरियागंज, नई
दिल्ली 11002, प्रथम
संस्करण 2003, पृष्ठ
संख्या 38.
- वही,
पृष्ठ संख्या
40.
- असगर
वजाहत : पाकिस्तान
का मतलब
क्या, भारतीय
ज्ञानपीठ इंस्टीट्यूशनल
एरिया लोधी
रोड नई
दिल्ली 110003, तृतीय
संस्करण 2018, पृष्ठ
संख्या 19.
- सम्पादक
अभय कुमार
दुबे : भारत
का भूमंडलीकरण,
वाणी प्रकाशन,
दरियागंज नई
दिल्ली, आवृत्ति
2017, पृष्ठ संख्या
110.
- रजनी
कोठारी: भारत
में राजनीति
कल और
आज, पृष्ठ
संख्या 443.
- अनिल यादव : वह भी कोई देस है महाराज, अंतिका प्रकाश, शालीमार गार्डन गाजियाबाद 201005 तीसरा संस्करण 2014 पृष्ठ संख्या 55.
- https://www.Yatrakaar.com.
- अनिल यादव : वह भी कोई देस है महाराज, अंतिका प्रकाश, शालीमार गार्डन, गाजियाबाद 201005, तीसरा संस्करण 2014,
पृष्ठ संख्या
14.
- सम्पादक
प्रभाकर श्रोत्रिय
: इक्कीसवीं शती
का भविष्य
, किताबघर प्रकाशन
नई दिल्ली
2006, पृष्ठ संख्या
87.
- अनिल
यादव : वह
भी कोई
देस है
महाराज, अंतिका
प्रकाश, शालीमार
गार्डन, गाजियाबाद
201005, तीसरा संस्करण
2014, पृष्ठ संख्या
27.
- वही
.
- सम्पादक
अभय कुमार
दुबे : भारत
का भूमंडलीकरण,
वाणी प्रकाशन,
दरियागंज, नई
दिल्ली, आवृत्ति
2017, पृष्ठ संख्या
99.
- मधु
कांकरिया : बादलों
में बारूद,
किताबघर प्रकाशन,
दरियागंज, नई
दिल्ली 110002, प्रथम
संस्करण 2014, पृष्ठ
संख्या 11.
- आलोक
रंजन : सियाहत, भारतीय
ज्ञानपीठ, इंस्टीट्यूशनल
एरिया लोधी
रोड, नई
दिल्ली 110003, प्रथम
संस्करण 2018, पृष्ठ
संख्या 82.
- रामशरण
शर्मा : यादों
का लाल
गलियारा दंतेवाड़ा, राजकमल प्रकाशन,
दरियागंज, नई
दिल्ली 110002, दूसरा
संस्करण 2017, पृष्ठ
संख्या 128.
- वही,
पृष्ठ संख्या
149.
- अमृतलाल
वेंगड़ : तीरे
तीरे नर्मदा, वाणी
प्रकाशन, दरियागंज
नई दिल्ली,
संस्करण जून
2022, पृष्ठ संख्या
56.
- पुरुषोत्तम
अग्रवाल : हिन्दी
सराय अस्त्राखान
वाया येरेवान,
राजकमल प्रकाशन,
नई दिल्ली
110002, पहला संस्करण
2013, पृष्ठ संख्या
5.
- वही
.
शोधार्थी, हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
maurya355151@gmail.com, 8429192550
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