श्री सत्यनारायण
व्यास से कोटा
प्रवास
में
राजस्थान
साहित्य
अकादमी
की
दो
दिवसीय
कार्यशाला
में 5 नवम्बर, 2022 को सम्पन्न संवाद।
नन्दकिशोर : सर्वप्रथम
हमें
यह
बताएँ
कि
आपका
नाभिनाल
कहाँ
कटा
?
सत्यनारायण : नाभिनाल
नाम
अच्छा
लिया।
'नाभिनाल' शब्द बड़ा
व्यंजक
है।
मैं
भीलवाड़ा
ज़िले
के
हमीरगढ़
गाँव
में
पैदा
हुआ।
मैं
ऐसे
पण्डित
परिवार
में
पैदा
हुआ, जहाँ मेरे
माता-पिता
दोनों
संस्कृत
जानते
थे।
मेरी
माँ
गीता
का
मूल
पाठ
संस्कृत
में
करती
थी।
उसे
संस्कृत
की
समझ
थी।
पिताजी
श्रीमद्भागवत
के
विख्यात
पण्डित
थे।
सीतामऊ,
जहाँ
वे
पंडिताई
करते
थे, तो मैंने
जब
से
आँखें
खोली
तब
से
माता-पिता
को
संस्कृत, महाभारत, व्याकरण वगैरह
बोलते
सुना।
मेरे
पिताजी
की
आलमारी
में
रखे
जो
संस्कृत
ग्रंथ
थे, वे चाहे
समझ
में
आयें
या
न
आयें, उनको खोलकर मैं
सस्वर
श्लोक
पढ़ता
था, तब से
मुझे
लगा
कि
मैं
और
इसमें
आगे
विशेष
बढ़ूँगा।
जब
मैं
10वीं
क्लास
में
था, तब प्रेमचन्द
का
'गोदान' सबसे पहले
इस्यू
करवाया।
उसके
साथ
'कामायनी' भी लाया।
कामायनी
मेरे
पल्ले
नहीं
पड़ी, पर उसके
छन्द
से
यह
लगा
कि
यह
कोई
महान्
चीज़
है।
दसवीं
कक्षा
में
मेरी
उम्र
पन्द्रह
वर्ष
थी।
उस
समय
'गोदान' तो मुझे
पूरी
तरह
समझ
में
आ
गया।
फिर
'प्रेमाश्रम' उपन्यास लाया, तो मुझे
लगा
कि
मुझे
भी
लिखना
चाहिए।
तो
जैसा
हर
रचनाकार
के
साथ
होता
है, कि मेरी
शुरुआत
भी
कविता
से
ही
हुई।
स्कूल
की
पत्रिका
में
मेरी
कविता
छपी।
उसके
बाद
ब्रज
भाषा
में
सवैया
और
घनाक्षरी
लिखने
लगा।
यह
पता
नहीं
मेरा
जन्मजात
प्रतिभा
या
गॉड
गिफ्ट
है कि मैं
छन्दों
में
आसानी
से
लिख
लेता
हूँ।
इसमें
एक
भी
मात्रा
कम
या
ज़्यादा
नहीं
होती।
यहाँ
से
शुरू
हुआ।
फिर
कवि
सम्मेलनों
में
एक-आध
बार
जाना
हुआ।
तब
मैंने
अपनी
कविता
का
टोन
बदला।
इस
प्रकार
पन्द्रह
वर्ष
की
अवस्था
में
मेरी
काव्य-यात्रा
आरम्भ
हुई।
नन्दकिशोर : साहित्य
के
प्रति
आपका
रुझान
कैसे
बढ़ा?
सत्यनारायण : मैंने
बचपन
से
ही
दयानन्द
सरस्वती
का
'सत्यार्थ
प्रकाश' पढ़ा। उससे
मुझे
झटका
लगा।
मुझे
लगा
कि
यह
कोई
ताक़तवर
चीज़
है, यह रिंग
मास्टर
कुछ
अलग
ही
तरह
से
कह
रहा
है।
तो
दयानन्द
सरस्वती
की
भाषा, उनका कन्टेंट, उनके लोज़िक,
तर्क
वगैरह
मुझे
बहुत
विचलित
कर
गए।
वह
पहला
व्यक्तित्व
मैंने
देखा कि हिन्दू
होते
हुए
भी
हिन्दुओं
की
बुराइयों
पर
कोड़े
मार
रहा
है
और
सबको
रगेद
दिया।
फिर
भी
यह
है
कि
किसी
मुसलमान
ने
उन्हें
नहीं
मारा।
उनको
काँच
पीसकर
किसी
रसोइये
ने
मार
दिया।
एक
और
पुस्तक
मैंने
पढ़ी, समर्थ गुरु
रामदास
की
'दासबोध'। जो
मराठी
का
हिन्दी
अनुवाद
था।
वह
पिताजी
की
आलमारी
में
रखी
थी।
उसको
पढ़कर
मुझे
लगा
कि
साहित्य
और
साहित्य
के
अलावा
भी
बड़ा
बौद्धिक
क्षेत्र
है।
तब
से
मैंने
अच्छी-अच्छी
किताबें
सूचीबद्ध
करके
स्वाध्याय
किया।
मैं
उन
बिरले
व्यक्तियों
में
से
हूँ, जो किसी
कॉलेज
या
विश्वविद्यालय
में
पढ़ने
नहीं
गया, क्योंकि मेरे
पास
पैसे
ही
नहीं
थे, लेकिन ज़िद
थी कि मैं
कॉलेज
में
प्रोफेसर
बनकर
लोगों
को
पीएचडी
करवाकर
रिटायर
होऊँ
और
ऐसा
मैंने
किया
भी।
नन्दकिशोर : साहित्य
समाज
का
प्रहरी
भी
है
और
साहित्य
मनुष्य
बनाने
की
प्रक्रिया
का
एक
माध्यम
भी
है।
साहित्य
के
महत्त्व
को
आप
किस
प्रकार
व्याख्यायित
करते
हैं?
सत्यनारायण : देखिए!
मुझे
याद
आ
रहा
है
कि
शुक्लजी
का
एक
चालीस
पेज
का
निबन्ध
है-'कविता क्या
है' उस
निबंध
को
जब
वे
समाप्त
करते
हुए
बड़ी
कठोर
भाषा
में
लिखते
है
कि-
"जब तक कविता
और
साहित्य
है, मनुष्यता जब
तक
रहेगी, कविता और
साहित्य
की
आवश्यकता
हमेशा
रहेगी, जानवरों को
इसकी
आवश्यकता
नहीं।"
तो
इससे
समझ
लीजिए
कि
साहित्य
न
केवल
मनुष्य
बनाता
है, बल्कि मानवीय
गुणों
और
मानवीय
मूल्यों
को
भी
बढ़ाता
है।
हमारे
चरित्र
को
परिष्कृत
करता
है, बुद्धि को
प्योरीफाई
करता
है।
जो
साहित्य
से, संगीत से
जुड़ा
नहीं, वह बिना
सींग-पूँछ
का
पशु
है।
संस्कृत
के
विद्वान
लिख
गए
हैं, लेकिन इसके
साथ
यह
भी
कहना
चाहूँगा कि जो
लोकमानस
है, वह जो
हृदय
से
ईमानदार
है, चाहे वह
अनपढ़
हो, निरक्षर हो, लेकिन वह
अपने
आप
में
सहज
ज्ञान
'इन्ट्यूशन' के द्वारा
उसे
सब
पता
है, जो शास्त्र
में
लिखी
हुई
बात
है
और
यहाँ
कबीर
प्रत्यक्ष
उदाहरण
है-
"मसि कागद हाथ
छुयो
नहीं
कलम
गही
नहीं
हाथ।"
इसलिए
निरक्षर
व्यक्ति
का
अर्जित
ज्ञान, शास्त्र अनुभव
ज्ञान
से
ज़्यादा
अच्छा
हो
सकता
है।
मैं
सहज
ज्ञान
पर
ज्यादा
विश्वास
करता
हूँ क्योंकि शास्त्र
भ्रमित
सकते
हैं, पर लोक
ज्ञान
या
सहज
ज्ञान
ऐसा
नहीं
करता।
नन्दकिशोर : बहुत
ही
लोकतांत्रिक
बात
आपने
कही
हैं, यदि हम
कबीर
की
बात
करते
हैं
और
उत्तर
कबीर
में
महात्मा
गाँधी
आते
हैं।
कबीर
से
गाँधी
तक
की
यात्रा
में
क्या
पड़ाव
परिलक्षित
होते
हैं?
सत्यनारायण : कबीर
और
गाँधी
की
कुछ
बातें
तो
मिलती-जुलती
हैं
और
मैं
गाँधी
की
बहुत-सी
बातों
को
मानता
हूँ
और
बहुत-सी
बातें
अब
लागू
नहीं
हो
सकतीं।
इतिहास
के
रथ-चक्र
को
उलटा
नहीं
चलाया
जा
सकता
और
यह
नेहरू
के
समय
से
ही
हो
गया
था कि अब
जो
तय
हो
चुका
है, अब जो
देश
के
भाग्य
में
है, वही होगा।
गाँधीजी
की
अहिंसा
का
विचार
नया
नहीं
था लेकिन सत्याग्रह
नई
बात
थी
और
इसी
पर
असहयोग
आन्दोलन
गाँधीजी
का
नया
आविष्कार
है, जबकि मानवीय
मूल्य,
अहिंसा, प्रेम भाईचार
ये
तो
हज़ारों
वर्षो
से
चले
आ
रहे
हैं, यह सभी
धर्मों
में
है
और
जहाँ
तक
कबीर
का
सवाल
है, मुझे तुलसी
से
ज़्यादा
कबीर
इसलिए
पसंद
है
कि
वे
डेमोक्रेटिक
हैं।
हमारे
देश
की
वर्तमान
अवस्था
के
लिए
बहुत
ज़रूरी
हैं।
कबीर
के
दर्शन
को
ज़ोर-शोर
से
प्रचारित
किया
जाना
चाहिए क्योंकि वे
हिन्दू-
मुसलमान
दोनों
को
फटकारते
हैं
और
अभी
जो
हमारा
देश धर्म के
दुरुपयोग
की
राजनीति
से
ग्रस्त
है, इसीलिए कबीर
बड़े
प्रांसगिक
हैं।
उनकी
शिक्षा
हमें
ग्रहण
करनी
चाहिए, तब हमारा
लोकतंत्र
और
हमारा
संविधान
बच
सकता।
अगर
मैं
ग़लती
न
करूँ
कि
यह
कह
रहा
हूँ
कि
मनुस्मृति
को
जहाँ
संविधान
से
अधिक
महत्त्व
दिया
जाए तो समझ
लिजिए कि ख़तरा
है।
नन्दकिशोर : जन
और
साहित्य
का
जो
अन्तरावलम्बन
है, उसे आप
किस
तरह
देखते
हैं?
सत्यनारायण : साहित्य
को
मैं
समझता
हूँ
कि
वह
थ्योरी
है।
पश्चिमी
काव्यशास्त्र
कहता
है कि लिटरेचर
एंड
आर्ट
इज
इमीटेशन
ऑफ
नेचर
अर्थात
समस्त
कलाएँ
और
समस्त
काव्य
और
साहित्य, सम्पदा ये
प्रकृति
की
नक़ल
है।
हमारा
मनुष्य-समाज
भी
प्रकृति
का
अंग
है।
मेन
इज
सोशियल
एनिमल।
इसलिए
प्रकृति
में
से
सब
कुछ
उत्पन्न
होता
है।
एक
समय
था, जब मैं
यह
मानता
था कि मेरी
ज़िन्दगी
साहित्य
के
लिए
है
और
जब
बुद्धि
और
अक्ल
आयी तब सोचा
कि
मैं
मुक्तिबोध, प्रेमचन्द जैसा
महान्
लेखक
नहीं
हूँ।
अब
समझ
आया
कि
साहित्य
ज़िन्दगी
के
लिए
है।
दोनों
में
रात
दिन
का
फ़र्क
है।
मैं
इतना
दीवाना
और
जुनूनी
होकर
नहीं
लिख
सकता
और
न
मुझमें
इतनी
प्रतिभा
है।
इसलिए
जो
सिद्धांत
था कि ज़िन्दगी
साहित्य
के
लिए, यह मुझसे
सम्भव
नहीं
था, मैं तो
यह
करूँ
कि
साहित्य
ज़िन्दगी
के
लिए।
साहित्य
के
द्वारा
मैं
अपने
को
अच्छा
बनाऊँ
और
मेरी
बात
किसी
को
पसन्द
आये तो वह
भी
इसमें
से
कुछ
अच्छा
ले
ले तो जनता
और
साहित्य
का
सीधा
सम्बन्ध
है।
हजारी
प्रसाद
द्विवेदी
कहते
हैं
कि
हृदय
से
निकली
हुई
बात
सीधे
हृदय
को
प्रभावित
करती
है।
दिमाग़
से
निकली
हुई
बात
सीधे
दिमाग़
को
प्रभावित
करती
है।
नन्दकिशोर : विश्व
साहित्य
का
प्रभाव
आपके
जीवन
और
विचार
पर
पड़ा
हो, ऐसा कोई
स्मरण
है?
सत्यनारायण : मैंने
स्नातक
परीक्षा
प्राइवेट
उत्तीर्ण
की
है
और
मेरे
पास
दर्शन
विषय
रहा
है।
मैंने
सुकरात
से
लेकर
पश्चिम
का
सारा
दर्शन
पढ़ा
है
और
उसमें
मुझे
सबसे
अधिक
प्रभावित
किया
उनमें
से
एक
हैं-
अरस्तू।
वर्षों
के
बाद
मेरा
ध्यान
जाता
है
जर्मनी
के
दार्शनिक
इमानुएल
कांट
पर।
इमानुएल
कांट
का
एक
प्रसिद्ध
ग्रंथ
है-
'क्रिटीक
आफ
प्योर
रीजन' जिसे 'शुद्ध बुद्धि
मीमांसा' कहते हैं, जो हिंदी
में
उपलब्ध
है।
उसमें
कांट
ने
कहा
है
कि
दर्शन
के
आगे
जाकर
दो
रास्ते
पड़ते
हैं-
एक
रास्ता
विश्वास
की
तरफ
जाता
है, जहाँ पर
आपकी
आस्था
सुकून
पाती
है।
श्रद्धा
और
मन
को
सुकून
मिलता
है
और
वह
दर्शन
से
अलग
हो
जाता
है।
दूसरा
रास्ता
जाता
है, वह लौकिक
का
है
जैसे
हम
रजनीश
या
ओशो
को
सुनते
हैं।
सुनते
ही
जाओ, सुनते ही
जाओ, लेकिन लगता
है
कि
कोई
रिजल्ट
नहीं
आया।
कुछ
हुआ
नहीं।
तो
यह
दूसरा
रास्ता
तर्क
का
है।
तर्क
से
न
ईश्वर
मिलेगा
न
कुछ
मिलेगा।
आपकी
बुद्धि
सूक्ष्म
होगी
आपकी
बुद्धि
बारीक
होगी।
चिंतन
आपका
शुद्ध
हो
जाएगा।
तो
दर्शन
की
दो
धाराएँ
हैं, यह मैंने
पहली
बार
कांट
में
देखा
है
और
इसके
बाद
इसकी
टक्कर
का
मुझे
भारतीय
दार्शनिक
आदिशंकर
नज़र
आते
हैं।
शंकर
ऐसे
जबरदस्त
भाषा
लेखक
हैं कि उनको
आप
न
स्वीकार
कर
सकते
हैं
और
न
इनकार
ही
कर
सकते
हैं।
उन्होंने
जो
ब्रह्मवाद
और
मायावाद
खड़ा
किया
है, उसकी काफ़ी
आलोचना
भी
हुई
और
उससे
हमारा
भारतवर्ष
कमज़ोर
भी
हुआ।
कई
लोगों
ने
इस
पर
आपत्ति
भी
की कि यह
ठीक
नहीं
है
और
मैं
भी
मानता
हूँ
कि
संन्यास, निराशा, नैराश्य और
शरीर
तथा
संसार
को
नश्वर
मानना।
यह
शंकर
की
बातें
हमें
स्वीकार
नहीं
है।
मैं
मायावाद
को
ख़ारिज
करता
हूँ।
नन्दकिशोर : हमारे
देश
की
लोकतांत्रिक
व्यवस्था
में
तानाशाही
तथा
जो
सांप्रदायिक
प्रवृत्तियाँ
पनप
रही
हैं, उनको आप
कैसे
देखते
हैं?
सत्यनारायण : हमारे
गाँधीजी
कहते
हैं
कि
राजनीति
के
साथ
धर्म
जुड़ना
चाहिए।
मुगल
काल
को
भी
देखें
तो
राजाओं
पर
आलिम
और
ओलिया
हावी
रहते
थे।
हमारे
हिंदू
सम्राटों
के
भी
सलाहकार
थे जो शास्त्रों
के
ज्ञानी
और
विद्वान
थे लेकिन यह
एक
स्वस्थ
प्रक्रिया
थी।
धर्म
का
जमकर
दुरुपयोग
पिछले
दशक
से
हो
रहा
है
राजनीति
के
माध्यम
से;
वह
बहुत
निंदनीय
है।
मैं
समझता
हूँ
कि
वह
भर्त्सना
के
योग्य
है।
धर्म
जितनी
पवित्र
वस्तु
है उसके साथ-साथ
धर्म
के
ख़तरे
भी
हैं।
धर्म
की
वजह
से
जितने
लोग
मारे
गए
हैं उतने तो
दोनों
विश्व
युद्ध
में
भी
नहीं
मारे
गए, ऐसा लोगों
का
आकलन
है इसलिए कि
यह
एक
यूटोपिया
भी
है कि क्या
बिना
किसी
धर्म
के
इंसान
जी
नहीं
सकता।
यह
यूटोपिया(आदर्श
कल्पना)
भले
ही
है लेकिन सोचने
की
बात
है।
धर्म
पर
महाभारत
का
एक
श्लोक
याद
आया
है
कि
भीष्म
से
युधिष्ठिर
पूछ
रहे
हैं
कि
धर्म
की
क्या
परिभाषा
है? एक अनुष्टुप
में
वे
बढ़िया
जवाब
देते
हैं।
मेरा
ख्याल
है कि विश्व
में
किसी
को
भी
यह
स्वीकार
नहीं
हो
सकता जो धर्म
किसी
दूसरे
धर्म
को
बाधा
पहुँचाता
है वह अधर्म
है
और
जिस
धर्म
का
किसी
से
भी
विरोध
नहीं
है बल्कि सामंजस्य
है वही सच्चा
धर्म
है-
धर्मं
यो
बाधते
धर्मोन
स
धर्मः
कुधर्म
तत्।
अविरोधात्
तु
यो
धर्मः
स
धर्मः
सत्यविक्रम॥
हे
सत्यविक्रम!
(युधिष्टिर) धर्म
वो
है जिसका किसी
से
कोई
विरोध
नहीं
होता
है।
यह
मेरी
मान्यता
है।
अगर
ऐसी
मान्यता
है तो मुझे
शिरोधार्य
स्वीकार्य
है लेकिन अभी
धर्म-स्थलों
का
विकास
करके बेरोज़गारी और
अशिक्षा
तथा
किसानों
की
समस्याओं
से
ध्यान
हटाकर
चालाकी
और
धूर्तता
के
साथ
धर्म
पर
केंद्रित
करके
और भोली-भाली
जनता, जिसकी धर्म
की
जड़े
पाताल
में
पहुँची
हुई
हैं ऐसा विचार
देकर, उसे ब्लैकमेल
करके, उसका शोषण
करके
राजनीति
में
और
सत्ता
में
पहुँचा
जा
रहा
है जो शुभ
लक्षण
नहीं
हैं।
लेकिन एक
शेर
की
पंक्ति
है
कि,-
लंबी
है
ग़म
की
शाम,
मगर
शाम
ही
तो
है।
कि
ऐसा
है
तो
अच्छे
दिन
आएँगे
ही।
नन्दकिशोर : किस
तरह
का
साहित्य
लिखा
जाए, जिससे सामाजिक बदलाव
की
दिशा
निर्धारित
हो
सके?
सत्यनारायण : हमारे
भारतवर्ष
की
जन्म-कुंडली
में
इसके
लिए
एक
पूरा
सूत्र
है जो कि
एक
प्रायद्वीप
है।
हमारा
देश
बहुलतावादी
रहा
है
और
रहेगा।
रवींद्रनाथ
टैगोर
की
पंक्ति
है
कि-
"यथा
आर्य
यथा
अनार्य, यथा द्रविड़
चीन।
शक
हूण
दल
पाठान, मुगल एक
गेहे
होलो
चीन।।"
तो
यह
बहुलतावादी
भाषा, संस्कृति सब
चीज़ों
को
लेकर जो बहुलता
है, वह हमारे
भारत
में
है
और
वही
उसका
प्राण
भी
है।
हमारी
जनता
का
स्वास्थ्य
उसी
पर
निर्भर
है, उनमें से
कोई
भी
गड़बड़
करता
है तो वह
दोषी
है
और
वह
मानवतावाद
के
विरुद्ध
अपराध
है।
नन्दकिशोर : आप
तो
संस्कृत
भाषा
के
मर्मज्ञ
हैं।
संस्कृत
भाषा
के
बारे
में
आपके
क्या
विचार
है
?
सत्यनारायण : यह
ग़लत
मुहावरा
चलता
है
कि
संस्कृत
मृतभाषा
है।
संस्कृत
को मृतभाषा वो
कहते
हैं, जिनको संस्कृत
से
चिढ़
है
या
एलर्जी
है
या
जो
संस्कृत
को
पढ़ना
नहीं
चाहते।
हमारे
बहुत
से
साथी
अपने
आप
को
प्रगतिशील
कहते
हैं, लेकिन मैं
यह
पाता
हूँ
कि
भारतीय
संस्कृति
और
संस्कृत
वांग्मय
से
उनकी
जड़ें
कटी
हुई
हैं
और
वे
लोग
हवा
में
प्रगतिशील
हैं।
मैं
उदाहरण
देता
हूँ
कि
कार्ल
मार्क्स
का
जिसने
हीगल
और
फायर
बा
का
इतना
अध्ययन
किया
और
सारी
परंपरा
का
ज्ञान
लेने
के
बाद
उसने
अपनी
किताबें
लिखी
और
हमारे
भारत
के
प्रगतिशील
भाई
हैं वे संस्कृत
से
चिढ़ते
हैं।
वे
संस्कृति
से
चिढ़ते
हैं, भारतीय वांग्मय
से
चिढ़ते
हैं, यह ग़लत
बात
है।
इतने
प्रगतिशील
प्रसिद्ध
हस्ताक्षर
हैं-
राहुल
सांकृत्यायन
और
हरिशंकर
परसाई, रामविलास शर्मा
ये
प्रगतिशील
रहे
हैं।
इन्होंने
सारे
भारतीय
वांग्मय
को
अच्छी
तरह
से
खंगालकर
उसमें
से
अच्छी
बातें
निकाली
हैं
और
उसे
प्रासंगिकता
से
जोड़ा
है।
उसे
हमारे
समाज
ने
काम
में
लिया
है।
यही
मैं
समझता
हूँ
कि
संस्कृत
का
उपयोग
है।
नन्दकिशोर : साहित्य
का
जो
वर्तमान
स्वरूप
है, उसे आप
किस
तरह
से
देखते
हैं? कैसे मंथन
करते
हैं?
सत्यनारायण : वर्तमान
समय
में
पुरस्कारों
की
जो
राजनीति
चली
है, जिसको जितने
पुरस्कार
मिलते
हैं, मैं समझता
हूँ
कि
वह
उतना
ही
सेटिंग
में
उस्ताद
है।
बहुत
ज़्यादा
पुरस्कार
हैं
तो
कहीं
ना
कहीं
गड़बड़
है
और
परिष्कृत
लोगों
में
इतने
जीनियस
लोग
बैठे
हैं जिनके सामने
पुरस्कार
छोटा
पड़
जाता
है।
मैं
आलोचना
तो
नहीं
करता
पर अभी मैंने
गीतांजलि
श्री
का
उपन्यास
'रेत
समाधि' पढ़ा। बड़ी
अनुकूलता
से
पढ़ा लेकिन मुझे
लगा
कि
समिति
ने
बुकर
पुरस्कार
भले
ही दे दिया
हो।
कैसे
दिया; पता नहीं।
बुकर
पुरस्कार
वालों
का
मानसिक
और
बौद्धिक
स्तर
कैसा
है, यह मैं
नहीं
जानता।
वे
पश्चिम
के
लोग
हैं लेकिन मेरे
जैसे
हृदय
को
कहा
जाए
तो
'रेत
समाधि' मेरे गले
नहीं
उतरी
और
वह
भाषा
के
साथ
खिलवाड़
है।
खिलन्दर
तो
मैं
बर्दाश्त
कर
सकता
हूँ लेकिन खिलवाड़
करना
ठीक
नहीं।
वह
मूल
बात
तो
है
ही
नहीं
कि
उलूल-जुलुल
भाषा
कि
कृष्णा
सोबती
भी
शरमा
जाए
और
रेणु
भी
शरमा
जाए
और
उन्होंने
आँचलिक
भाषा
को
बहुत
अच्छे
से
पिरोया
है, लेकिन इसने
तो
हद
ही
कर
दी।
रेत
समाधि
मुझे
लगता
है कि जो
मेरे
हर
पुस्तक
पढ़ने
पर जो समाधि
लगनी
चाहिए
वह
साहित्यिक
संस्कारों
की
समाधि
ही
टूट
गई।
नागार्जुन
कहते
हैं
कि
कविता
पहाड़
जितनी
और
अर्थ
चने
जितना
तो
यही
हाल
मुझे
रेत
समाधि
में
लगा।
नंदकिशोर : अभी
वर्तमान
साहित्य
डिजिटल
साहित्य
लिखा
जा
रहा
है तो इससे
पुस्तक
प्रकाशन
को
खतरा
है
क्या?
सत्यनारायण : हाँ,
यह
तो
मौजूं
प्रश्न
है।
इससे
मैं
खुद
ही
दु:खी
हूँ।
मैं
तो
वही
व्यक्ति
हूँ जो अपने
हाथ
से
डायरी
में
कलम
से
लिखता
हूँ, जो दूसरी-तीसरी
पीढ़ी
हमारे
बेटे
और
पोते
चल
रहे
हैं, वह बहुत
सारी
सुविधा
को
उलट-पुलट
करने
वाली
है।
सारी
दुनिया
को
उलट-पुलट
करने
वाली
है।
छोटे-छोटे
बच्चों
के
चश्मे
लग
रहे
हैं।
किताब
तो
वे
पढ़ना
ही
नहीं
चाहते।
तो
प्रिंट
मीडिया
यहाँ
तक
कि
अख़बार
तक
को
मोबाइल
और
लैपटॉप
में
पढ़ना
पसंद
करते
हैं।
यह
तो
हद
हो
गई।
जो
सुख
अख़बार
को
मूल
रूप
से
पढ़ने
और
पुस्तक
को
पढ़ने
का
सुख
और
स्वाद
नहीं
जानते
इससे
हमारे
भीतर
एक
अधीरता
पनपती
है।
युवा
पीढ़ी
में
जो
डेसिंग
जनरेशन
है, उससे मैं
बहुत
नाराज़
हूँ कि वह
रास्ते
पर
नहीं
जा
रहे।
मैं
यह
नहीं
कह
सकता
हूँ
कि
जनरेशन
गैप
है।
सवाल
यहाँ
ग़लत
और
सही
का
है।
तो
बच्चों
से
कहना
चाहता
हूँ कि वे
प्रिंट
किताब
को
भी
पढ़ें।
दोनों
में
अनुपात
का
ध्यान
रखें।
वह
सिर
चढ़कर
बोल
रहा
है।
युवान
हरारे
की
मुझे
एक
किताब
पढ़ने
को
मिली-
‘द सेपियंस।’ उसने
आगाह
किया
कि
आर्टिफिशियल
इंटेलिजेंस
और
क्लोन
भेड़
वगैरह
के
जो
प्रयोग
किए
जा
रहे
हैं वह खतरनाक
हैं।
एक
दिन
ऐसा
आ
जाएगा कि जब
मनुष्य
इन
यंत्रों
का
गुलाम
हो
जाएगा
और
उसकी
दिनचर्या
यंत्र
तय
करेंगे।
वह
विवश
और
लाचार
होकर
यंत्रों
की
ग़ुलामी
को
स्वीकार
करेगा।
उसकी
आज्ञा
का
पालन
करेगा।
यह
तो
मैं
समझता
हूँ
कि
मनुष्य
का
पतन
है।
कहाँ
तो
अरविंद
ने
महामानव
बनने
की
बात
उठाई
थी
और
कहाँ
यह
पतनशील
मानव
हो
रहा
है।
मुझे
समझ
में
नहीं
आ
रहा, जो आकाशीय
आक्रमण
है, जिसे साइबर
अटैक
कहते
हैं, यह आसुरी
हमला
है
और
बिलकुल
स्पष्ट
बात
आप
देख
रहे
होंगे कि यह
सब
का
अनुभव
है कि हम
वास्तविक
दुनिया
से
आभासी
दुनिया
में
जा
रहे
हैं।
सारी
पीढ़ी
रियल
वर्ल्ड
को
छोड़कर
वर्चुअल
वर्ल्ड
में
प्रवेश
कर
रही
है।
अब
फोटो
प्रधान
हो
गया
है
और
शादी
और
विवाह
गौण
हो
गए
हैं।
पहनाई
हुई
माला
को
लेकर
फोटो
खिंचवाई
जा
रही
है।
बात
यह
है
कि
हम
असली
चीजों
से
जुड़े
रहें नहीं तो
हमारा
साहित्य
धरा
का
धरा
रह
जाएगा।
फिर
क्या
मतलब
है
इसका?
नन्दकिशोर
: दलित और स्त्री
विमर्श
की
चर्चा
भी
आजकल
बहुत
ज़ोर-शोर
से
हो
रही
है तो साहित्य
में
इन
दोनों
की
क्या
महत्ता
आप
क्या
देखते
हैं?
सत्यनारायण
: सिमोन द बुआ
की
'द
सैकिंड
सेक्स' प्रसिद्ध किताब
है।
इसका
हिन्दी
अनुवाद
प्रभा
खेतान
ने
'स्त्री
उपेक्षिता' नाम से
किया
है।
वह
किताब
जब
से
मैंने
पढ़ी तब से
मुझे
लगा
कि
स्त्री
को
अभी
तक
भी
न्याय
नहीं
मिला
और
दलित
के
साथ
स्त्री
को
भी
जोड़ा
गया।
हिन्दू
शास्त्रों
में
भी
स्त्री
के
साथ
दलित
को
भी
जोड़ा
गया।
शूद्र
को
अनुमति
नहीं
वेद
पढ़ने
की तो स्त्री
को
भी
अनुमति
नहीं
वेद
पढ़ने
की।
जो
स्त्री
जन्मदाता
है, माँ है।
समाज
उसे
सम्मान
न
देकर
ग़लती
कर
रहा
है।
तो स्त्री
और
दलित
का
जो
प्रश्न
है, यह विवाद
चला
कि
दलित
साहित्य
अलग
माना
जाए
या
नहीं? नामवर जी
भी
इसमें
उलझे
रहे।
फिर
उन्होंने
ने
कहा
कि
यह
दलितों
का
है, लेकिन उस
सीमा
तक
नहीं जिस सीमा
तक
डॉ.
धर्मवीर
वगैरह
करते
हैं।
जो
प्रेमचंद
को
भी
ख़ारिज
करते
हैं
और
हजारी
प्रसाद
द्विवेदी
को
भी
ख़ारिज
करते
हैं क्योंकि वह
दलित
नहीं
थे, वे ब्राह्मण
थे।
प्रेमचंद
की
'कफन' कहानी पर
भी
उनको
संदेह
है
कि
इसमें
ईमानदारी
नहीं
है तो यह
अतिवादिता
ठीक
नहीं
है।
डॉ.
भीमराव
आंबेडकर
उसके
सबसे
बड़े
आदर्श
है जो सवर्णों
के
हजारों
वर्षों
से
हमारे
जानवरों
को
छूने
के
बाद
स्नान
नहीं
करेंगे
और
किसी
व्यक्ति
को
छूने
के
बाद
आप
स्नान
करेंगे इससे बड़ी
नीचता
और
क्या
हो
सकती
है? इसके लिए
मैं
गीता
का
एक
श्लोक
उदधृत
करना
चाहूँगा कि जो
मुझे
आज
भी
अखरता
है।
उसमें
ब्राह्मण
मस्तिष्क
की
चालाकी
देखिए-
विद्या
विनय
सम्पन्ने
ब्राह्मणे
गवि
हस्तिनी।
शुनि
चैव
श्वपाके
च
पंडिता:
समदर्शिन:।।
(ज्ञानी महापुरुष,
विद्या-विनययुक्त
ब्राह्मण
में
और
चांडाल
तथा
गाय, हाथी एवं
कुत्ते
में
भी
समरूप
परमात्मा
को
देखने
वाले
होते
हैं।)
पंडित लोग
जो
होते
हैं
वे
कुत्ता, चांडाल, ब्राह्मण, विद्वान, गाय-भैंस
में
समान
रूप
से
देखते
हैं तो 'समदर्शने' क्यूँ। 'समवर्तने' होना चाहिए।
समान
रूप
से
जो
व्यवहार
करते
हैं।
शुद्र
के
साथ, चांडाल के
साथ
उठते-बैठते
हैं, उसके साथ
खाते
पीते
हैं, यह होना
चाहिए।
समदर्शने
क्या
होता
है?
"आत्मनेवत सर्वेभूतांनी
यः
पश्यति
सः
पण्डितः।"
यहाँ
भी
पश्यति
है।
ये
चालाकी
है-
शब्दों
की।
ऐसा
नहीं
है
कि
वे
शब्दों
के
ज्ञाता
नहीं
थे।
वे
चाहते
तो
रख
सकते
थे।
अपने
को
बचाते
हुए
उन्होंने
अपना
पक्ष
रखा
तो
यह
छल
और
छद्म
हमारे
शास्त्रों
में
भरा
पड़ा
है।
जिससे
गाँधी
जी
भी
दु:खी
थे, मैं भी
दु:खी
हूँ
और
हर
समझदार
आदमी
को
दु:खी
होना
चाहिए।
नन्दकिशोर
: युवा पीढ़ी के
लिए
आपके
पास
क्या
संदेश
है?
सत्यनारायण
: युवा पीढ़ी एक
तो
यह
डिजिटल
वर्ड
को
अपनी
सीमा
में
रखें
हैं,
औक़ात
में
रखें।
अधीरता
को
त्यागे
और
जो
बेचैनी
है, जो डेसिंग
कल्चर
है, घुटने से
फटी
जींस
में
सार
नहीं
है।
जीवन
को
अच्छा
बनाने
में
सार
है।
तो
युवा
पीढ़ी
को
चाहिए
कि
वे
भारतीय
परंपरा
से
जुड़े।
किसी
भी
रुचिकर
कला
से
जुड़ें।
नृत्य
है, संगीत है, स्थापत्य है, किसी भी
कला
से
जुड़
सकते
हैं, लेकिन जीवन
को
सार्थक
बनाएँ।
केवल
कैरियर
बनाना
और
पैकेज
के
बड़े-बड़े
डॉलर
पाने
के
लिए
अमेरिका
जाना, यह सब
मूर्खता
है।
माँ-बाप
मर
जाते
हैं, उनकी अंत्येष्टि
भी
नहीं
कर
पाते।
फ्लाइट
मिल
गई
तो
छुट्टी
नहीं
मिली, छुट्टी मिल
गई
तो
फ्लाइट
नहीं
मिली।
बहाने
हजार
हैं।
कुल
मिलाकर
अमेरिकी
डॉलर
की
चमक
से
युवा
पीढ़ी
अंधी
हो
रही
है
और
वे
भी
परेशान
हो
रहे
हैं।
यहाँ
आकर
हमारे
ऊपर
छा
रहे
हैं।
अमेरिका
के
जड़ें
भी
इसमें
है।
उन्होंने
विचार
ही
नहीं
किया।
बेचारे
उस
रेडियंस
को
मार-मार
के
भगा
दिया
और
उस
पर
काबिज
हो
गए।
आज
सारे
यूरोपियन
का
भी
यह
माजना
है।
इसको
भी
दण्ड
मिलना
चाहिए
और
देशों
के
लोग
आकर
के
उन
को
दबाएँ
और
एहसास
कराएँ।
युवा पीढ़ी
को
मैं
कहना
चाहता
हूँ कि वह
प्रिंट
मीडिया
से
जुड़े
अखबार
और
पुस्तकें
पढ़ें।
एक
सीमा
में
रहकर
लैपटॉप-मोबाइल
का
सीमित
और
अच्छा
उपयोग
करें, इसमें विवेक
की
आवश्यकता
है।
नन्दकिशोर
: साक्षात्कार के
अंतिम
दौर
में
आपकी
कोई
प्रतिनिधि
रचना
सुनाएँ।
सत्यनारायण :
हर शाम खाना लेकर बैठ जाते हैं, वे टीवी के सामने
कैसी हवा है चारों ओर
कैसे तो हो गए हैं लोग?
क्या हो गया इस ज़माने को
फ़ोन किए बिना किसी के घर
जाते नहीं मिलने आजकल
पड़ोसी बोलते नहीं आजकल।।
आदमी, आदमी नहीं रहा,
मिलना, मिलना नहीं रहा।
बिछुड़ना, बिछुड़ना नहीं रहा
छोड़िए यह सब बातें, बात की।
एक सच है,
कि ज़िंदगी, ज़िंदगी नहीं रही आजकल।
बचे हैं, पड़े हैं घरों में अधिकतर
अधेड़ और बूढ़े
उनके युवा और लड़कियाँ दूर चले
गए हैं,
जैसे बढ़ता जाएगा पैकेज़,
नहीं पाट सकते कभी मोबाइल इन दूरियों को,
स्नेह और ममता का ।
जानकर यह असलियत को अनजान से हो रहे आजकल
पड़ोसी बोलते नहीं आजकल
हाँ, पूछते हैं हालचाल संयोगवश टकरा जाने पर
कभी स्टेशन पर, बस अड्डे पर या कभी बाज़ार में
अरे बड़ी मुसकान उनकी जालिम रहस्यमयी
आडम्बर की चरम सीमा परिभाषित करती हुई
बन जाती है अभिधा ढाल सी
उनमें छिपी अलगाव की, कि उनका मिलना नकली
उनकी बातें नकली
कहना नकली, सुनना नकली
और उनका हँसना भी नकली
कि न हँसने वाली बात पर भी
हँसते रहना उनका
वह भी बेमन से ताकि किसी से
मतलब न रखने वाला रूखापन
दबा रहे, प्रकट न हो
कुछ इस तरह देने लगे हैं झाँसा
अभिनय से अपनत्व का
लोग आपस में अजनबी से क्यों हो गए आजकल
पड़ोसी बोलते नहीं आजकल।
102, उज्ज्वल विहार विस्तार, बोरखेड़ा, कोटा (राजस्थान) 324001
एक टिप्पणी भेजें