कोविड
काल
के
बाद
जब
खुले
में
विचरण
की
छुट
मिली
तो
सर्जनधर्मी
लोग
अब
राष्ट्रीय
अंतरराष्ट्रीय
उड़ाने
भरने
लगे
हैं।
प्रकृति
से
आलिंगन
करने
लगे।
कलाकारों
ने
एकांत
में
किए
सर्जन
को
प्रदर्शित
कर
रहे
हैं।
कुछ
समय
के
विचारों
की
उड़ान
चारदीवारी
तक
सीमित
जरूर
हुई
थी।
लोकडाउन
मतलब
चिड़िया
का
पिंजरे
में
घोसला
बनाना
जैसा
है।
सर्जन
धर्मियों
का
हाल
भी
कुछ
ऐसा
ही
रहा
चंचल
मन
उड़ने
की
कोशिश
तो
करता
लेकिन
फड़फड़ाकर
चारदीवारी
में
ही
सर्जन
का
सहारा
रहा।
सर्जन
में
सरोकारों
का
महत्त्व
बहुत
सहायक
होता
हैं
जैसे
स्वछंद
प्रकृति
से
वार्तालाप
करना, प्रकृति
के
रूपों
का
नयन
सुख
प्राप्त
करना, जैसे
वसंत
ऋतु
का
प्राकृतिक
सौन्दर्य, इस
समय
पुराने
पत्तों
का
त्याग
कर
नई
कोंपलों
को
धारण
करती
है।
इसीलिए
वसंत
आगमन
पुराने
ऋण
और
बोझ
उतार
फेंकने
का
भी
सूचक
है।
इस
समय
घर
में
कैद
होकर
रह
गई
दिनचर्या
में
बदलाव
आने
लगता
है।
इस
मौसम
के
आते
ही
लोग
घरों
से
बाहर
निकलकर
जीवन
के
नये
रंग
संजोने
लगते
हैं।
संपूर्ण
प्रकृति
माधुर्य
से
गदरा
उठती
है।
कोविड
के
दो
बसंत
गुजरने
के
बाद
जयपुर
जवाहर
कला
केंद्र
जाना
हुआ।
राजस्थान
चुरू
सरदारशहर
मूल
निवासी
गोपाल
स्वामी
खेतांची
बहुत
उम्दा
कलाकार
हैं।
इन
दिनों
जवाहर
कला
केंद्र
जयपुर
में
साज
शृंगार
चित्र
प्रदर्शनी
चल
रही
थी।
मेरा
जयपुर
करीब
चार
साल
बाद
जाना
हुआ।
कला
आयोजन, रचनाकारों
में
नव
अंकुरण
का
काम
करते
हैं।
उत्साह
प्रोत्साहन
से
अपने
आप
को
भरते
हैं।
कुछ
नया
रचने
की
व्याकुलता
बढ़ती
जाती
हैं।
खेतांची
जैसे
वरिष्ठ
कलाकार
की
प्रदर्शनी
हो
फिर
तो
दर्शक
खींचे
चले
आते
हैं।
जयपुर
प्रवास
के
दरमियान
में
यह
चित्र
प्रदर्शनी
देखने
का
मौका
चूकना
नहीं
चाहता।
चित्रों
को
घूम-घूमकर
धापकर
देखा।
इन्द्रियां
उत्साहित
हो
गई।
साज
शृंगार
वाद्ययंत्रो
एवं
नारी
सौन्दर्य
के
अनुपम
चित्र
सर्जन
के
नायब
नमूने
है।
मानों
चित्रों
में
बस
जान
फूंकना
बाकी
रह
गया।
यूरोप
की
कला
में
इस
कदर
उच्च
रियलिज्म
के
चित्र
देखने
को
मिलते
हैं।
इतने
वास्तविक
चित्र
कि
कला
वीथी
में
कुत्ते
भी
की
पेंटिंग
देखकर
भौंकने
लगते
हैं।
चोंकिए
मत
यूरोप
में
जानवरों
को
साथ
लेकर
घुमना
आम
बात
हैं।
कुत्तों
के
श्वसन
सिस्टम
में
सजीव
निर्जीव
का
बोध
त्वरित
होता
हैं।
यहां
रियलिस्टिक
चित्र
को
देख
कुत्ते
भी
कंफ्यूज
हो
रहें
हैं।
कुत्तों
के
सेंसर
काम
नहीं
कर
रहे
हैं।
आप
समझ
सकते
है, किस
स्तर
का
सर्जन
इतिहास
रहा
हैं।
यह
उच्च
स्तर
की
साधना
तपस्या
कहलाती
हैं।
खेतांची
ने
यथार्थवाद
में
कई
प्रयोग
किए
हैं।
प्रसिद्ध
चित्र
को
मोनालिसा
चित्र
को
बनीठनी
राजस्थानी
शैली पहनाव
का
फ्यूजन
देकर
के
अद्भुत
प्रयोग
किए
हैं।
दर्शकों
के
दिल
में
गहरी
जगह
बनाई
हुई
हैं।
साज
शृंगार
प्रदर्शनी
में
दो
धारा
में
कार्य
किया
है।
यथार्थवाद
और
अमूर्त
शैली।
रूप
को
लेकर
दोनों
ही
उत्तर
दक्षिण
जैसी
विचार
धारा
हैं।
आमतौर
पर
यथार्थवादी
कलाकार
अमूर्त
को
निम्न
दृष्टि
से
देखते
हैं।
खेतांची
की
समांतर
रूचि
स्थापित
धारणा
को
तोड़ती
हैं।
कला
कला
होती
हैं।
कोई
उच्च
निम्न
नहीं।
यथार्थवाद
में
नारी
को
साज
शृंगार
से
राग
सीरीज
को
समकालीन
परिदृश्य
को
आधार
बनाकर
सर्जन
किया
हैं।
भारतीय
कला
साहित्य
में
नारी
को
रागमय
विषय
में
बांधने
के
अनुपम
उदाहरण
देखने
को
मिलते
हैं।
यहां
चित्र
को
परम्परागत
के
साथ
समकालीन
वाद्य
यंत्रों
का
अंतरंग
दिखाया
हैं।
चित्र
में
विचार, भाव, कौशल
का
अद्भुत
संयोजन
देखने
को
मिलता
हैं।
विषय
के
साथ
भाव
का
समन्वय
स्थापित
करना
मतलब
सबसे
कठिन
कार्य
लेकिन
आप
इसके
कुशल
साधक
हैं।
चित्र
विचार
बहुत
समृद्ध
हैं, यहीं
कला
का
सबसे
प्रमुख
बिंदु
हैं।
विचारों
का
कच्चापन
कई
बार
विवाद
उत्पन्न
कर
जाता
हैं।
आम
दर्शक
भी
चित्र
के
पीछे
का
विचार
ही
जानना
चाहता
हैं।
आपके
चित्र
स्वयं
विचार
साझा
करते
हैं।
दर्शक
ख़ुद
चित्र
से
बातचीत
करते
हैं।
नज़रे
गड़
जाती
हैं।
असल
में
यहीं
गुण
सर्जनधर्म
का
उद्देश्य
पूर्ण
करते
हैं।
भारतीय
लघु
चित्र
शैली
में
भी
बारहमासा, रागमाला
के
अद्भुत
चित्र
देखने
को
मिलते।
आपने
नारी
को
राग
सर्जन
का
आधार
बनाकर
नए
आयाम
दिए
हैं।
चित्रों
में
सितार, संतूर, सरोद, सरस्वती
वीणा, वायलिन, सारंगी, बांसुरी, शहनाई, सैक्सोफोन, तुरही
आदि
शामिल
हैं।
चित्रों
के
शीर्षक
भारतीय
शास्त्रीय
रागों
से
प्रेरित
हैं।
रागनी, जैसे
देवरंजनी, हंसध्वानी, कलावती, मयूर-रंजनी, जयजयवंती, कृष्णप्रिया, रागेश्वरी, शिवराजनी, बागेश्वरी
आदि।
सरल सहज मीठे बोल के धनी खेतांची जी बताते है, "देखो भाई मैं कोई अकादमिक कलाकार तो हूं नहीं। बस काम करता रहता हूं। वाकई कला साहित्य से समृद्ध व्यक्ति बहुत विनम्र होते हैं। चित्र बनाते हुए कुछ रेफरेंस जरूर लेता हूं। बाक़ी चहरे के हावभाव का संयोजन मेरे निजी सर्जन शैली की उपज है।" खेतांची ने समांतर दूसरी दीर्घा में अमूर्त शैली के चित्रों को प्रदर्शित किया है। यह चित्र रियलिज्म के ठीक विपरीत है। पूर्णत अमूर्त विचार लिए। जिसमें रंगो का देसीपना और परतदर परत प्रयोग लाज़वाब हैं। जैसे घूंघट में से दिखता मुख मंडल। तिर्यक रेखाओं केर कटाव से उत्पन्न रूपों का सुंदर संयोजन हैं। रंगो से की गई तान मान घनत्व का प्रयोग दर्शक को रोमांचक करता हैं। खेतांची के लघु चित्र शैली से ठेट अमूर्त शैली में प्रयोग वाकई अद्भुत है। पूछने पर बताया की अमूर्तन में ज्यादा मस्तिष्क लगाना पड़ता हैं। चिंतन मनन कर चित्र स्थापना करनी पड़ती हैं। रियलिज्म से हटकर नया करना मतलब धारा के ठीक विपरीत बहना हुआ।
सहायक आचार्य, दृश्यकला विभाग,इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज (उ.प्र.)
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