- डॉ. राजेश कुमारी कौशिक
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सार : लब्ध
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में
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एवं
डॉक्टर
राजेन्द्र
प्रसाद
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द्वारा
हिंदी
में
अनूदित
उपन्यास ‘महामोह:
अहल्या
की
जीवन
कथा’ के
अंतर्गत
ऋषि
गौतम
की
पत्नी
अहल्या
के
संपूर्ण
जीवन
की
कथा
का
सरस, तार्किक
एवं
मार्मिक
दृष्टि
से
पुनरावलोकन
किया
गया
है।
सदियों
से
भारतीय
समाज
एक
पितृसत्तात्मक
समाज
रहा
है
इसलिए
अब
तक
अहल्या
के
चरित्र
को
अनेक
पुरुषों
के
दृष्टिकोण
से
ही
देखा
गया
है।
स्त्री
चेतना
की
दृष्टि
से
अहल्या
के
चरित्र
का
पुनर्मूल्यांकन
करने
का
प्रयास
आधुनिक
युग
में
ही
संभव
है।
आज
का
युग
स्त्री
जागरण
का
युग
है।
इस
उपन्यास
में
लेखिका
ने अहल्या के
जीवन
को
एक
स्त्री
के
दृष्टिकोण
से
विश्लेषित
किया
है।
आज
के
युग
में
उपस्थित
होकर
अहल्या
कैसे
अपनी
आपबीति
सुनाती
कि
किस
प्रकार
वह
कुंठित, संत्रस्त जीवन
जीते
हुए
पाप
कर्म
की
ओर
बढ़
गई
और
अंतत:
इस
पतनावस्था
तक
पहुँच
गई।
अहल्या
के
जीवन
वृतांत
की
इस
वास्तविकता
को
लेखिका
ने
नितांत
मनोवैज्ञानिक
आधार
पर
प्रस्तुत
करने
का
सफल
प्रयास
किया
है।
अहल्या के
संपूर्ण
जीवन
चरित
की
अभिव्यक्ति
करते
हुए
प्रसंगवश
लेखिका
ने
नारी
जीवन
की
विभिन्न
समस्याओं
का
भी
विश्लेषण
किया
है।
पुंसवादी
व्यवस्था
में
स्त्री
के
साथ
हर
स्तर
पर
भेदभाव
किया
जाता
है।
एक
स्त्री
अपने
सभी
रूपों
में
पुरुष
की
अधीनस्थ
रहकर
जीवनयापन
करने
को
विवश
है।
किसी
भी
स्थिति
में
स्वतंत्र
होकर
निर्णय
लेने
की
शक्ति
उसके
पास
नहीं
है।
स्त्री
जीवन
से
जुड़ी
अनेक
पारिवारिक, सामाजिक
और
मनोवैज्ञानिक
समस्याओं
का
आकलन
कर
लेखिका
ने
भारतीय
समाज
में
नारी
की
दयनीय
स्थिति
का
यथार्थ
चित्रण
प्रस्तुत
किया
है।
नारी
सौंदर्य
के
प्रति
समाज
का
वस्तुपरक
दृष्टिकोण, स्त्री-पुरुष
शिक्षार्जन
में
भेदभाव, नारी
के
लिए
कठोर
नीति-नियम
एवं
अनुशासन, बेमेल एवं
अनचाहा
विवाह, परतंत्र नारी
जीवन, प्रेमविहीन
दांपत्य
जीवन, उपेक्षित पत्नीत्व
एवं
मातृत्व, सतीत्व का
डर, बलात्कार का
डर, यौन शोषण, पुत्र-पुत्री
में
भेदभाव, स्त्री
के
साथ
अन्यायपूर्ण
व्यवहार, स्त्री-पुरुष
चरित्र
के
दोहरे
मानदंड
आदि
स्त्री
जीवन
के
विविध
पहलुओं
का
लेखिका
ने
यथार्थ एवं स्वाभाविक
विश्लेषण
प्रस्तुत
किया
है।
बीज
शब्द : स्त्री
चेतना, पितृसत्तात्मकता, नारी
सौंदर्य, सामाजिक नीति-नियम, बेमेल विवाह, उपेक्षित
पत्नीत्व
एवं
मातृत्व, यौन शोषण, प्रेमवंचिता नारी, पुरुष वर्चस्व, स्त्री
की
गौणता,
अभिशप्त
नारी
जीवन, प्रायश्चित, विवाह संस्था ।
मूल
आलेख : आज
संपूर्ण
विश्व
में
नारीवादी
चिंतन, लेखन
एवं
विभिन्न
आंदोलनों
के
माध्यम
से
स्त्रियां
अपनी
स्थिति
और
अधिकारों
के
प्रति
सजग
एवं
जागरूक
हो
रही
हैं।
हर
व्यक्ति
को
चाहे
वह
स्त्री
हो
या
पुरुष
सम्मानपूर्वक
जीवन
जीने
का
अधिकार
है।
‘स्त्री
लेखन’ का भी
यही महत्त्वपूर्ण उद्देश्य
है- “स्त्री लेखन
स्त्री
की
मानवीय
अस्मिता
के
लिए
लड़ी
जाने
वाली
वैचारिक
लड़ाई
है।
इसका
अभिप्रेत
पुरुष
को
पछाड़कर
अपने
वर्चस्व
का
परचम
फहराना
नहीं, बल्कि समाज
में
स्त्री-पुरुष के लैंगिक
विभाजन
और
पहचान
पर
आधारित
है। पितृसत्तात्मक
व्यवस्था
का
कोई
बेहतर
समतामूलक
मानवीय
विकल्प
खोजना
है।
यह
एक
सर्जनात्मक
आंदोलन
है
जो
स्त्री-पुरुष
दोनों
को
बध्द भूमिकाओं और
रूढ़
छवियों
से
मुक्त
कर
आत्मविश्लेषण
एवं
आत्म
परिष्कार
का
संवेदनात्मक
आधार
देता
है।“1
बहुत सारे
विचारक
स्त्री-पुरुष
समानता
की
विचारधारा
को
पश्चिम
से
आयातित
मानते
हैं।
किंतु
वास्ताविकता
तो
यह
है
कि
समानता
की
यह
अवधारणा
हमें
भारत
में
प्राचीनकाल
से
ही
देखने
को
मिलती
है-
“अजीब विडंबना
है।
असमानता
से
कोसों-कोसों
दूर
नर-नारी
समता
का
आदर्श
जीवन
दर्शन
‘अर्धनारीश्वर’ निर्विवाद रूप
से
सबसे
पहले
भारत
में
विकसित
हुआ।
पुरुष
आधा
नारी
बने, नारी
आधा
पुरुष, केवल तभी
वे
परस्पर
पूरक
हो
सकते
हैं, किंतु
पुरुष
वर्चस्विता
पहले
भी
इस
जीवन-दर्शन
को
अहं
के
चलते
आचरित
करने
में
अनिच्छुक
रही।“2
फेमिनिज्म मुख्य
रूप
से
स्त्री-अस्मिता
के
लिए
किया
जाने
वाला
संघर्ष
है।
अतिवादी
विचारकों के कारण
कभी-कभी
इसे
मूल्य
विघटन
की
ओर
भी
जाते
देखा
गया
है
किंतु
भारतीय
स्त्री
विमर्श
में
मूल्यों
को
महत्त्व
देना
उसकी
विशिष्टता
है।
भारतीय
‘स्त्री
चिंतन’ स्त्री-पुरुष
के
बीच
भेदभाव
को
समाप्त
कर
परिवार
की
महत्ता
को
स्थापित
करने
के
विचार
पर
आधारित
है।
‘स्त्री लेखन’ में यदि
स्त्री
चेतना
या
स्त्री
दृष्टि
की
बात
करें
तो
यह
स्त्री-पुरुष
दोनों
में
हो
सकती
है।
इसलिए
‘स्त्री
लेखन’ स्त्री एवं
पुरुष
दोनों
के
द्वारा
रचा
जा
सकता
है।
किंतु
आत्मानुभूति
की
गहराई, सच्चाई और
जीवंतता
स्त्री
रचित
साहित्य
को
अधिक
प्रामाणिक
बनाती
है।
‘स्त्री लेखन’ के अंतर्गत
आज
के
साहित्य
में
उपेक्षित
नारी
पात्रों
को
पुनःव्याख्यायित
कर
उन्हें
न्याय
दिलाने
का
प्रयास
किया
जा
रहा
है।
ऐसे
अनेक
पौराणिक
स्त्री
पात्रों
की
एक
लंबी
श्रृंखला
है
जिनके
जीवन
एवं
चरित्र
को
पुनः
देखने, परखने
एवं
विश्लेषित
करने
की
आवश्यकता
महसूस
की
जा
रही
है।
इसी
श्रृखला
की
एक
पौराणिक
पात्र
है-
ऋषि
गौतम
की
पत्नी
अहल्या।
अहल्या
के
चरित्र
को
स्त्री
चेतना
और
स्त्री
दृष्टि
से
पुनःव्याख्यायित
करने
की
आवश्यकता
है।
अहल्या
एक
ऐसी
नारी
पात्र
हैं, जिसे आकंठ
पाप-पंक
में
डूबी
नारी
के
रूप
में
युगों-युगों
से
चित्रित
किया
जा
रहा
है।
वह
एक
ऐसी
नारी
है
जिसके
विलक्षण
सौंदर्य
और
सतीत्व
को
यौन
भावनाओं
ने ग्रस लिया
है।
अहल्या
के
पुराणों
में
वर्णित
चरित्र
से
तो
यही
लगता
है
कि
अहल्या
एक
अत्यधिक
सामान्य
सी
नारी
रही
होगी, किंतु
ऐसा
नहीं
है।
अहल्या
न
केवल
विलक्षण
प्रतिभा
की
धनी
थी, बल्कि
वेदमयी, अपूर्व एवं
असाधारण
सौंदर्य
संपन्न
नारी
थी, और संभवत: इसीलिए उसे
समाज
में
विकट
परिस्थितियों
का
सामना
भी
करना
पड़ा
होगा।
अहल्या और
सौंदर्य
एक
दूसरे
के
पर्याय
हैं
क्योंकि
अहल्या
के
जीवन
की
कथा
का
आरंभ
ही
सौंदर्य
रचना
की
आकांक्षा
से
हुआ
था।
जगत
और
अनेक
लोकों, जीव-जंतुओं, संपूर्ण
वनस्पतिजगत
तथा
नर
एवं
नारी
की
रचना
के
पश्चात्
असंतुष्ट
ब्रह्मा
ने
संपूर्ण
विशेषताओं
से
युक्त
अनिंद्य, अनुपमेय, परम सुंदर
नारी
की
आकांक्षा
से
प्रेरित
होकर, गहन चिंतन
के
पश्चात्, अत्यंत प्रयत्न
से
जिस
ब्रह्मांड
सुंदरी
नारी
की
रचना
की-
“उसी का नाम
रखा
अहल्या।
असौंदर्य, हल्य, कुरूपता, अशोभा जिस
नारी
में
नहीं
है, वही
है
अहल्या, अनिंद्य, अनन्या।“3
नारी सौंदर्य
के
प्रति
पुरुष
एवं
समाज
का
दृष्टिकोण
प्राचीन
काल
से
मानवीय
की
अपेक्षा
वस्तुपरक
ही
अधिक
रहा
है।
इसीलिए
सुन्दर
कन्या
की
सुरक्षा
को
लेकर
माता-पिता
का
चिंतित
होना
स्वाभाविक
है।
ऐसे
में
पुरुष
के
संरक्षण
में
ही
स्त्री
को
सुरक्षित
समझा
जाता
था। इसीलिए पिता
ब्रह्मा
शिक्षार्जन
के
बहाने
अहल्या
को
गौतम
आश्रम
में
भेज
देते
हैं- “ मेरा
शारीरिक
सौंदर्य
ही
मेरे
लिए
संकट
पैदा
कर
सकता
है, ऐसी आकांक्षा
थी
पिता
जी
को।
देवता, दानव, यक्ष
किन्नर, नर- किसी
का
भी
रम्यवन
के
एकान्त
परिवेश
में
मेरे
लिए
संकट
बनकर
आ
जाना
अस्वाभाविक
नहीं
था।
मेरी
शिक्षा
प्राप्त
करना
तो
मेरे
लिए
सिर्फ
एक
बहाना
था।
ब्रह्मापुत्री
होने
पर
भी
मैं
पुत्र
तो
थी
नहीं, थी
पुत्री।
शिक्षा
मेरी
सुरक्षा
नहीं; गुरु
मेरी
सुरक्षा
हैं, कारण
वे
पुरुष
हैं।“4
सुंदर स्त्री
के
लिए
हमारे
समाज
में
अनेक संकट हैं
क्योंकि
सुदृष्टि
के
साथ
ही
उसे
कुदृष्टि
का
भी
सामना
करना
पड़ता
है।
सुंदर
स्त्री
के
सौंदर्य
और
जीवन
पर
सबकी
नजर
रहती
है।
इसलिए
अपाला
अहल्या
को
समझाते
हुए
कहती
है–
“सुनो अहल्या, तुम
से
सच
कहना
ही
मेरा
कर्त्तव्य
है, तुम
शिक्षा
समाप्त
करने
के
बाद
गृहस्थी
बसाने
जा
रही
हो, तुम
अत्यंत
सुंदर
हो
इसलिए
संसार
के
जटिल
पथ
पर
तरह-तरह
की
समस्याओं
का
सामना
करना
पड़ेगा।
आज
समावर्तन
उत्सव
की
उद्यापन
रात्रि
में तुम्हें अपने
जीवन
की
सच्चाई
बताना
मेरा
कर्त्तव्य
है।
भविष्य
में
तुम
भी
झूठी
अफवाहों
के
भंवर
में
नहीं
पड़ोगी, यह
कौन
कह
सकता
है? सुंदर
स्त्री
के
नाम
कोई
बदनामी
न
जुडें, कहाँ
है
ऐसा
मानव
समाज?”5
तत्कालीन सामाजिक
व्यवस्था
में
पुत्र
और
पुत्री
में
भेदभाव
किया
जाता
था।
पुत्री
की
शिक्षा
को
अनावश्यक
समझा
जाता
था।
जबकि
पुत्र
के
लिए
शिक्षित
होना
अनिवार्य
था।
कन्याओं
को
शिक्षित
करने
की
बजाय
उन्हें
गृह
प्रबंधन
में
कुशल
बनाने
पर
बल
दिया
जाता
था, किंतु
उच्च
वर्ग में उत्पन्न
महिलाएं
गुरुकुल
में
रहकर
शिक्षा
अर्जन
किया
करती
थी।
इसलिए
पिता
ब्रह्मा
अहल्या
को
शिक्षित
कर
एक
सशक्त
महिला
बनाना
चाहते
थे।
शिक्षा
से
ही
नारी
सशक्तिकरण
संभव
है, वह
आत्मनिर्भर
होकर
अबला
से
सबला
बन
सकती
है।
यह
सोच
आधुनिक
एवं
प्रासंगिक
है।
अहल्या
की
शिक्षा
के
प्रसंग
में
यहाँ
लेखिका
ने
स्त्री
शिक्षा
के
महत्त्व
पर
प्रकाश
डाला
है-
“लेकिन शिक्षा प्राप्त
करके
विद्यावती
वेदमती
होने
और
आत्ममग्न
रहने
के
लिए
तुझे
गुरुकुल
आश्रम
जाना
ही
पड़ेगा।
यदि
तू
सोचती
है
कि
नारियाँ
केवल
घर
का
काम
करेंगी
और
विद्या
प्राप्त
करना
पुरुषों
का
काम
है
तो
तेरी
यह
धारणा
भी
भ्रामक
है।”6
युवकों
को
पच्चीस
वर्ष
तक
तथा
युवतियों
को
सोलह
वर्ष
की
उम्र
तक
गुरुकुल
में
रहकर
शिक्षा
प्राप्त
करनी
होती
थी।
पिता
ब्रह्मा
अहल्या
को
समझाते
हुए
कहते
हैं
कि
शिक्षित
होने
के
बाद
ही
स्त्री
सम्मानित
महिला
बनती
है।
महिला
वही
होती
है
जिसके
विचार
महान
होते
हैं, जिसके
विचार
ओछे
और
कमजोर
होते
हैं
वह
अबला
होती
है-“विद्याध्ययन
की
दृष्टि
से
स्त्रियों
के
दो
वर्ग
थे-
एक
वे
जो
ब्रह्मचारिणी
रहकर
ब्रह्मविद्या
में
अधिकाधिक
योग्यता
प्राप्त
करती
थी
और
दूसरी
वे
जो
एक
सीमा
तक
शिक्षा
के
उपरांत
गृहस्थाश्रम
में
प्रविष्ट
होकर
गृहिणी
का
कर्त्तव्य
संभालती
थी।”7
प्रथम
को
ब्रह्मवादिनी
और
द्वितीय
को
सद्योवधू
कहा
जाता
था।
अहल्या
ब्रह्मवादिनी
शिष्या बनना
चाहती
थी, किंतु
आचार्य
गौतम
ने
अहल्या
की
इच्छा
के
विरुद्ध
उसे
सद्योवधू
की
श्रेणी
में
रखते
हुए
तर्क
दिया
कि
यही
पिता
ब्रह्मा
की
इच्छा
है।
दूसरा
भविष्य
में
तुम
कभी
भी
विवाह
की
आवश्यकता
महसूस
कर
सकती
हो।
शिक्षार्जन
को
लेकर
स्त्री-पुरुष
में
भेदभाव
था
क्योंकि
पुरुष
की
शिक्षा
का
उद्देश्य
सार्थक
था, जबकि
स्त्री
शिक्षा
का
उद्देश्य
समय
व्यतीत
करने
का
साधन
मात्र
था।
बाल्यावस्था से
ही
स्त्रियों
के
लिए
शिक्षा, आचरण
और
नैतिकता
संबंधी
विशेष
नियमों
का
पालन
करना
आवश्यक
माना
जाता
था।
एक
बार
अहल्या
द्वारा
नारद
भैया
को
भींचकर
पकड़
लेने
पर
नारद
ने
अहल्या
को
समझाया
कि
बड़ी
हो
जाने
के
बाद
लड़कियों
को
पिता
एवं
भाई
से
भी
ऐसा
लाड़-प्यार
और
आदर
नहीं
करना
चाहिए।
यह
वैदिक
संस्कार
के
विरुद्ध
है।
इसी
प्रकार
समावर्तन
संस्कार
के
पश्चात्
मार्ग
में
पत्थर
से
अहल्या
का
पैर
टकराने
और
घायल
हो
जाने
पर
ऋषि
गौतम
सहानुभूति
दिखाने
की
अपेक्षा
नारी
के
शिष्ट
आचरण
पर
उपदेश
देते
हुए
कहते
हैं - “ आज
विदाई
बेला
में
तुम्हें
सिर्फ
तीन
आचरण
के
बारे
में
सतर्क
करता
हूँ।
चलते
समय
नारी
को
अपनी
दृष्टि
झुकाकर
चलना
चाहिए, इससे
गिरने
की
संभावना
कम
हो
जाती
है।
लाज, शालीनता, नम्रता
नारी
के
आभूषण
हैं।
उग्रभाव, उतावलापन
नारी
को
असुंदर
और
विकृत
बना
देते
हैं।
और
एक
बात
चंचलता
नारी
के
लिए
खतरनाक
होती
है।
मन
की
गति
के
साथ
डग
बढ़ाने
का
संबंध
होता
है।
यदि
मन:स्थिति
अनुशासित
ना
हो
तो
डग
लड़खड़ा
जाते
हैं।
मन
चंचल
हो
तो
मन:स्थिति
कमजोर
पड़
जाती
है
और
पैर
फिसल
जाता
है।
नारी
का
फिसलना
मानव
समाज
की
नींव
हिला
कर
रख
देता
है, क्योंकि
नारी
मनुष्य
को
जन्म
देने
वाली
और
पालने
वाली
होती
है।“8
हमारे समाज
में
लड़की
के
विवाह
संबंधी
समस्त
निर्णय
पिता
और
भाई
ही
लेते
हैं।
अपने
विवाह
को
लेकर
लड़की
का
तर्क-वितर्क
करना
अच्छा
नहीं
समझा
जाता
क्योंकि
पिता
और
भाई
जिस
को
भी
वर
के
रूप
में
चुन
लेते
हैं।
उसी
से
लड़की
को
विवाह
करना
पड़ता
था।
अर्थात्
किन्हीं
मायनों
में
स्वयंवर
भी
एक
दिखावा
ही
होता
था।
अहल्या
अत्यंत
सुंदर, सुशिक्षित, बुद्धिमान
एवं
स्वतंत्रचेता
युवती
थी।
वह
अपनी
पसंद
के
वर
से
विवाह
करना
चाहती
थी
किंतु
पिता
ब्रह्मा
ने
अहल्या के लिए
समन
उत्सव
का
आयोजन
नहीं
किया
और
सीधे
वर
का
चुनाव
कर
विवाह
की
घोषणा
कर
दी।
पूछने
पर
भी
वर
का
नाम
नहीं
बताया
तो
अहल्या
आशंकित
एवं
विचलित
हो
उठी
क्योंकि
नापसंद
वर
से
बेमेल
विवाह
होने
पर
उसका
भविष्य
तो
अंधकारमय
होगा
ही, ऐसे
विवाह
के
भयंकर
दुष्परिणाम
भी
हो
सकते
हैं।
विवाह
को
लेकर
लड़की
की
सहमति-असहमति
का
कोई
महत्त्व
नहीं
होता
था, मानो
लड़की
सजीव
प्राणी
ना
होकर
कोई
निर्जीव
वस्तु
है
जिसे
जहाँ
चाहो, उठाकर रख
दो।
स्त्री को
हर
स्थिति
में
पुरुष
के
अधीन
रहकर
ही
जीवन
यापन
करना
पड़ता
था।
विवाहपूर्व
पिता
एवं
भाई, विवाहोपरान्त
पति
एवं
वृद्धावस्था
में
पुत्रों
के
अधीन
रहकर
ही
स्त्री
अपना
जीवनयापन
करती
थी।
घर
और
बाहर
किसी
भी
स्थिति
में
वह
स्वतंत्र
होकर
कार्य
नहीं
कर
सकती
थी।
इसी
पितृसत्तात्मक
विचारधारा
के
कारण
धीरे-धीरे
समाज
में
स्त्रियों
की
स्थिति
हीन
दशा
तक
पहुँच
गई।
स्वतंत्र
होकर
कार्य
करने
वाली
स्त्रियों
को
बदचलन
और
कुलटा
समझा
जाता
था-
“आदिम समाज में
आज
तक
स्त्री
को
हमेशा
पुरुष
के
संरक्षण
में
रहना
पड़ा।
पुरुष
उसका
स्वामी
था, स्त्री
की
नियति
थी
पुरुष की अधीनता।“9
वर के
रूप
में
आचार्य
गौतम
का
नाम
सुनकर
अहल्या
के
सारे
स्वप्न
और
कल्पना
पलभर
में
ध्वस्त
हो
गए।
अहल्या
का
विवाह
हर
तरह
से
एक
बेमेल
विवाह
था, न
केवल
आयु
की
दृष्टि
से
शारीरिक, मानसिक
एवं
बौद्धिक
दृष्टि
से
भी
यह
एक
अनुपयुक्त
विवाह
था।
दोनों
की
उम्र
में
बहुत
अधिक
अंतर
था।
आचार्य
गौतम
अधेड़
उम्र
के
और
अहल्या
सोलह
वर्ष
की
नवयौवना
किशोरी।
अहल्या
परम
सुंदरी
जबकि
आचार्य
गौतम
छोटे
कद
और
साँवले
रंग
के
थे।
मानसिक
एवं
बौद्धिक
दृष्टि
से
दोनों
की
सोच-समझ
और
सांसारिक
दृष्टिकोण
से
सब
कुछ
भिन्न
ही
नहीं
बल्कि
एक
दूसरे
के
सर्वथा
विपरीत
था।
एक
चंचल
एवं
सामान्य
युवती
और
दूसरा
त्यागी, निर्लिप्त ब्रह्मचारी।
उस
समय
इस
तरह
के
बेमेल
विवाह
एक
सामान्य
बात
थी।
वैदिक विवाह
के
धर्मशास्त्रों
में
दो
लक्ष्य
कहे
गए
हैं-
“पहला है, पुत्रवती होकर
पति
के
वंश
की
रक्षा
करना
और
दूसरा
‘सु-रत’ अर्थात् दाम्पत्य
सुख
प्राप्त
करना।
परंतु
वंश
बचाने
के
लिए
संतान
पैदा
करना
मुख्य
है
और
सु-रत
उसके
बाद।
‘पुत्राय
क्रियते
भार्या’, ‘पुत्र:
पिण्ड
प्रयोजनम’ अर्थात् पुत्र
प्राप्ति
के
लिए
भार्या लाई जाती
है
और
पिण्डदान
करने
के
लिए
पुत्र
की
आवश्यकता
होती
है।"10
पुत्र
प्राप्ति
के
लिए
ऐसे
अनेक
बेमेल
विवाह
उस
समय
के
समाज
में
होते
थे, जो स्त्री
जाति
के
प्रति
घोर
अन्याय
ओर
भेदभाव
को
दर्शाते
हैं।
स्त्रियों
की
भावनाओं
और
इच्छाओं
का
कोई
मूल्य
ही
नहीं
होता
था।
ऋषियों
द्वारा
वृद्धावस्था
में
किए
गए
ऐसे
अनेक
बेमेल
विवाहों
का
उल्लेख
करते
हुए
नारद
मुनि
कहते
हैं-" अनेक
आर्य
ऋषि
यौन
कामना
का
दमन
करके
यौवन
में
ब्रह्मचर्य
का
पालन
करते
हुए
वृद्धावस्था
में
पहुंचते
हैं
पर
वंश
बचाने
की
उद्ग्र
कामना
से
ऊपर
न
उठ
पाकर
बुढ़ापे
में
भी
विवाह
करने
से
नहीं
झिझकते।
ऋषि
अगस्त्य
के
बारे
में
तो
आप
जानते
ही
हैं।
सारा
जीवन
ब्रह्मचर्य
का
पालन
करके
उन्होंने
महर्षि
पद
प्राप्त
किया, किंतु वृद्धावस्था
में
पितृ
पुरुषों
को
नर्क
से
उद्धार
करने
की
कामना
से
विदर्भ
की
सुंदर
राजकुमारी
षोडशी
लोपमुद्रा
से
विवाह
किया
था।
वृद्धावस्था
में
ऋषि
च्यवन
ने
पश्चिम
आर्यावर्त
के
राजा
शर्याति
की
पुत्री
सुकन्या
से
विवाह
किया
था।
वृद्ध
ऋषियों
द्वारा
सोलह
वर्ष
की
सुन्दर
कन्याओं
से
विवाह
करने
के
अनेक
उदाहरण
हैं।‘’11 बेमेल विवाह
के
कारण
एक
स्त्री
नारकीय
जीवन
जीने
पर
विवश
हो
जाती
थी।
विवाह
के
पश्चात्
पुरुष
के
जीवन
पर
तो
कोई
प्रभाव
नहीं
पड़ता
किंतु
स्त्री
का
जीवन
पूरी
तरह
से
परिवर्तित
हो
जाता
है।
ऐसे
विवाह
में
स्त्रियों
का
हर
तरह
से
शोषण
होता
है-
“अनमेल विवाह नारी
दासता
और
शोषण
का
एक
और
रूप
प्रकट
करता
है।
यह
एक
भयानक
सामाजिक
कुरीति
है।
नारी
हमारे
समाज
में
शताब्दियों
से
परतंत्र
रही
है।
इसलिए
अनमेल
विवाह
का
शिकार
भी
वही
होती
है।
किशोरावस्था
की
लड़कियों
का
विवाह
वृद्ध
पुरुषों
से
कर
दिया
जाता
है।
हमारे
समाज
में
ऐसे
उदाहरण
बहुत
कम
मिलते
हैं, जहाँ
वृद्ध
या
अधेड़
औरत
किसी
किशोर
युवक
से
उसकी
इच्छा
के
प्रतिकूल
शादी
करती
है।“12
विवाहोपरांत सामाजिक
नियमानुसार
पत्नी
को
अपनी
समस्त
इच्छाओं
का
परित्याग
कर
पति
की
अनुगामिनी
बनकर
जीवन
यापन
के
आदर्श
का
पालन
करना
होता
था।
पति
अगर
त्यागी
है, तो पत्नी
को
भी
त्यागमय
जीवन
व्यतीत
करने
के
लिए
बाध्य
होना
पड़ता
था।
त्यागमय
जीवन-यापन
की
इस
कड़ी
परीक्षा
में
उत्तीर्ण
होने
को
लेकर
दुविधाग्रस्त
अहल्या
को
समझाते
हुए
पिता
ब्रह्मा
कहते
हैं-
“पितृ केंद्रित
आर्य
सभ्यता
में
सिर्फ
तुम
ही
नहीं
हो- हर लड़की
तुम्हारी
तरह
परीक्षाओं
का
सामना
करती
है।
उत्तीर्ण
भी
होती
है।
गौतम
न्यायपूर्ण
हैं।
वे
तुम्हारे
प्रति
अन्याय
नहीं
करेंगे।“13
स्त्रियो
की
आकांक्षाओं, भावनाओं
एवं
आवश्यकताओं
को
महत्त्व
न
देकर
उनसे
अनेक
दायित्व, आदर्श एवं
नियम
पालन
की
अपेक्षा
की
जाती
थी।
हर
रूप
में
आदर्श
की
स्थापना
करना
उनके
जीवन
का
लक्ष्य
माना
जाता
था।
सदियों से
स्त्री
जाति
को
एक
डर
हमेशा
से
सताता
रहा
है-
सतीत्व
का
डर, बलात्कार का
डर।
यह
एक
ऐसा
शाश्वत
डर
है
जो
हर
स्त्री
के
मन
से
होकर
गुजरता
है।
पुरुषों
द्वारा
नारी
के
यौन
शोषण
की
कुप्रथाएं
हमारे
समाज
में
अनादिकाल
से
चली
आ
रही
हैं।
कभी
जबरदस्ती
तो
कभी
परिस्थितिवश नारी शोषित
होने
के
लिए
युगों-युगों
से
विवश
है।
ऋषि-मुनि
हो
या
फिर
सत्ताधारी
इन्द्र, सबके द्वारा
नारी
का
शोषण
होता
है।
आर्य-अनार्य, धनाढ्य
वर्ग
तथा
सामान्य
वर्ग
में
भी
नारी
शोषित
होती
रहती
है।
इन्द्रपद
सुरक्षित
रखने
हेतु, ऋषियों की
तपस्या
भंग
करने
के
लिये
इन्द्र
अप्सराओं
का
दुरुपयोग
करता
रहता
है।
अप्सरा
के
रूप
में
एक
स्त्री
अभिशप्त
और
नारकीय
जीवन
जीने
पर
विवश
होती
है-
“स्वर्ग राज्य की
वेश्याओं
का
जीवन
बड़ा
करूण
और
दयनीय
होता
है।
वे
प्रतिदिन
इंद्रसभा
में
नृत्य
करती
हैं।
अन्य
देवगण, यक्ष और
किन्नरों
की
काम
वासना
परितृप्त
करती
हैं।
विधि
के
अनुसार, वे चिरकुमारी
रहती
हैं।
संतान
की
जननी
बनना
मना
है, जिसने
जैसा
चाहा
उन्हें
उपयोग
किया।
उसके
भी
मन
है, गृहस्थी बसाने
के
सपने
हैं, जननी
बनने
की
कामना
है, क्या कभी
किसी
ने
इस
बारे
में
सोचा
है? इन
खूबसूरत
अप्सराओं
का
त्रिलोक
के
काम
जर्जर
पुरुष
यौन
शोषण
करते
हैं, जबकि
इसके
विरोध
में
कोई
अप्सरा
आवाज
नहीं
उठाती, बल्कि
अप्सराएं
स्वयं
को
भाग्यशाली
समझती
हैं।
जब
तक
नारी
अपने
मानवीय
अधिकारों
को
लेकर
सचेत
नहीं
होगी, इसी
तरह
शोषित
और
लांछित
होने
को
बाध्य
होगी।14
नारी जीवन
को
अभिशप्त
करने
वाली
अनेक
कुप्रथाएं
समाज
में
प्रचलित
है।
देवदासी
प्रथा
भी
एक
ऐसी
ही
घिनौनी
कुप्रथा
है
जिसमें
देवालयों
और
धर्मपीठों
में
नारी
का
यौन
शोषण
होता
है।
इसी
प्रकार
उस
समय
समाज
के
धनाढ्य
वर्ग
में
दासी
रखने
की
कुप्रथा
का
भी
चलन
था, जिसके
कारण
नारी
का
सब
प्रकार
से
शोषण
होता
था।
इस
संदर्भ
में
जाबाला
तथा
उसके
पुत्र
सत्यकाम
की
कथा
विशेष
रूप
से
उल्लेखनीय
है।
तत्कालीन
समाज
में
आर्य-अनार्य
संघर्ष
का
बोलबाला
था।
दोनों
के
पारस्परिक
संघर्ष
में
स्त्री
का
यौन
शोषण
होता
था।
दास
और
असुरगण
प्रतिशोध
की
भावना
से
आर्यनारियों
का
अपहरण
और
यौन
शोषण
करते
थे
तो
आर्यगण
पराजित
वर्ग
की
स्त्रियों
से
अपने
घरों
में
सेविका
का
कार्य
करवातें
थे
और
दासी
का
मनचाहा
उपयोग
कर
उसका
यौन
शोषण
भी
करते
थे-
" क्यों आर्य-अनार्य
संघर्ष
में
दोनों
ओर
की
अनेक
कुंवारी
कन्याएं, पतिव्रता नारियाँ
बलात्कार
का
शिकार
होती
हैं
और
समाज
द्वारा
बहिष्कृत
होती
हैं, रखैल बनती
हैं, दासी
बनकर
रहती
हैं: पत्नी
के
पद
से
वंचित
कर
दी
जाती
हैं।"15 यह उस
समय
के
समाज
में
बहुत
ही
बुरा
चलन
था, आदिम
युग
से
ही
स्त्री
जाति
का
यौन
शोषण
किसी
न
किसी
रूप
में
होता
आ
रहा
है।
आज
के
युग
में
भी
नारी
सुरक्षित
नहीं
है।
समाज में
स्त्री
की
पारिवारिक
एवं
सामाजिक
स्थिति
अत्यंत
दयनीय
रही
है।
माता-पिता
का
घर
हो
या
ससुराल, सब
स्थानों
पर
वह
दोयम
दर्जे
का
प्राणी
होती
है।
माता-पिता
के
घर
में
कन्या
धरोहर
और
परायी
वस्तु
बनकर
ही
रहती
है
तो
विवाहोपरांत
ससुराल
में
अपना
स्थान
बनाने
के
लिए
उसके
नए
संघर्ष
का
आरंभ
हो
जाता
है।
स्वास्थ्य
संबंधी
समस्याओं
को
लेकर
भी
स्त्री-पुरुष
में
भेदभाव
किया
जाता
है।
इसके
अनेक
उदाहरण
इतिहास
में
देखने
को
मिलते
हैं, जिसमें न
केवल
माता-पिता
बल्कि
पति, ससुराल
और
समाज
द्वारा
भी
एक
रोगिणी
स्त्री
के
लिए
दोहरे
मानदंड
अपनाए
गए
थे-
"ब्रह्मवादिनी
अपाला
अत्रि
मुनि
की
वंशज
और
कुष्ठ
रोग
से
पीड़ित
थी।
उन्होंने
इंद्र
से
प्रार्थना
की
और
निरोग
हुई।
यही
कथा
काक्षीवान
ऋषि
की
पुत्री
घोषा
की
है।
कुष्ट
रोग
होने
के
कारण
वे
अविवाहित
रह
गई
थी।
अश्विनीकुमारों
की
प्रार्थना
करने
पर
रोग
नष्ट
हुआ, उसके पश्चात्
विवाह
भी
हुआ।"
16 अपाला की
कथा
में
नारी
के
दुख-दर्द
के
प्रति
उपेक्षा
का
भाव
न
केवल
पति, सास-ससुर
में
बल्कि
माता-पिता
में
भी
देखने
को
मिलता
है।
उपचार
करवाने
के
बजाय
रोग
छुपाकर
माता-पिता
उसका
विवाह
कृशाश्व
नामक
युवक
से
कर
देते
हैं।
विवाहोपरांत
रोग
के
पता
चलने
पर
पति
और
सास-ससुर
अपाला
को
घर
से
निष्कासित
कर
देते
हैं।
अपाला
इंद्रदेव
की
साधना
और
सोमरस
समर्पित
करने
के
पश्चात्
रोगमुक्त
हो
जाती
है, किंतु घर, परिवार
और
समाज
में
नारी
की
दुर्दशा
देखकर
उसके
मन
में
असह्य
दुख, पीड़ा, वेदना
और
विद्रोह
की
भावना
उत्पन्न
होने
लगती
है।
रोगग्रस्त
नारी
त्याज्य
है, किंतु
रोग
मुक्त
होने
पर
पुनः
स्वीकार्य
है।
एक
रोगग्रस्त
स्त्री
के
प्रति
समाज
का
विधान
अत्यधिक
क्रूर
एवं
संवेदनहीन
है।
अगर
पति
रोग
ग्रस्त
है
तो
पत्नी
द्वारा
भरपूर
सेवा
का
विधान
भी
इसी
समाज
का
बनाया
हुआ
है।
किंतु
पत्नी
रोगग्रस्त
हो
तो
उसे
रोग
की
पीड़ा
के
साथ
सामाजिक
रूप
से
बहिष्कृत
होने
का
असहनीय
दर्द
भी
सहन
करना
पड़ता
है।
अहल्या अपने
दाम्पत्य
जीवन
में
प्रथम
दिवस
से
ही
प्रेमवंचिता नारी है।
गौतम
जितेंन्द्रिय
साधक, ध्यान गंभीर, त्यागी
एवं
सत्य
के
उपासक
हैं, जबकि
अहल्या
षोडशी
भावुक
एवं
चंचल
तरुणी
है।
विवाह
के
छह
महीने
तक
भी
अहल्या
को
पति
संग
का
सुख
नहीं
मिला
था।
वस्तुत:
गौतम
अहल्या
के
आकर्षण
का
दमन
कर
ब्रह्मर्षि
बनने
के
लक्ष्य
को
पाना
चाहते
थे-
"अहल्या
मेरे
ब्रह्मर्षि
बनने
के
लक्ष्यपथ
पर
प्राचीर
सी
खड़ी
है।
अहल्या
का
आकर्षण
अतिक्रम
न
किया
तो
मैं
ब्रह्मर्षि
से
देवर्षि
भी
नहीं
बन
पाऊंगा।
ब्रह्मर्षि
बनना
तो
दूर
की
बात
है।
अत:
अहल्या
रूपी
बड़वाग्नि
के
वलय
में
रहकर
मैं
कामरूपी
शत्रु
का
दमन
करना
चाहता
हूँ।
अहल्या
मेरी
परीक्षा
है।
उस
परीक्षा
में
उत्तीर्ण
होने
के
बाद
ही
मेरी
साधना
की
सिद्धि
संभव
है।"17
दाम्पत्य
जीवन
को
लेकर
अहल्या
एवं
गौतम
की
विचारधारा
विपरीतोन्मुखी
है।
वस्तुत:
ऐसी
परिस्थितियों
में
गृहस्थ
आश्रम
का
मार्ग
इतना
सरल
एवं
सुगम
नहीं
है।
एक
स्त्री-पुरुष
भले
ही
अपने
आप
में
स्वतंत्र
और
आदर्श
व्यक्तित्व
के
धनी
हों, किंतु
पति-पत्नी
के
रूप
में
पारस्परिक
सहयोग
एवं
माधुर्य
भाव
के
बिना
आदर्श
दम्पत्ति
नहीं
बन
सकते।
संतानोत्त्पति का
सामर्थ्य
भले
ही
स्त्री
में
है, किंतु
संतान
उत्त्पति
संबंधी
इच्छा-अनिच्छा
तथा
पुत्र-पुत्री
के
बारे
में
निर्णय
का
अधिकार
केवल
पति
को
ही
प्राप्त
है।
इस
संबंध
में
अहल्या
और
गौतम
के
बीच
मतभेद
है।
अहल्या
की
स्वीकृति
के
बिना
गौतम
यह
निर्णय
लेते
हैं।
जिसके
कारण
अहल्या के मन
में
विद्रोह
जाग्रत
होने
लगता
है।
किंतु
वह
चाहकर
भी
गौतम
का
विरोध
नहीं
कर
पाती
क्योंकि
पति
की
अनुगामिनी
रहना
और
पति
की
प्रत्येक
इच्छा
का
आदर
करना
ही
उस
समय
के
समाज
की
व्यवस्था
थी।
होने
वाली
संतान
पुत्र
ही
हो, उसके
लिए
नित्यप्रति
अहल्या
को
औषधि
ग्रहण
करनी
पड़ती
थी।
पुत्र-पुत्री
में
भेदभाव
एक
बहुत
बड़ी
सामाजिक
बुराई
है।
संपूर्ण
समाज
की
तरह
ही
गौतम
की
विचारधारा
भी
कन्या
विरोधी
थी।
न
चाहते
हुए
भी
बीस
वर्ष
की
अवस्था
में
अहल्या
तीन
पुत्रों- शतानंद, चिरकारी
और
शरदभानु
की
माता
बन
चुकी
थी।
इच्छा
और
सामर्थ्य
न
होने
पर
भी
चौथे
गर्भधारण
के
समय
कन्या
प्राप्ति
की
इच्छा
बलवती
होने
के
कारण
अहल्या
ने
छुपकर
औषधि
सेवन
नहीं
किया।
गर्भस्थ
शिशु
कन्या
का
पता
चलने
पर क्षुब्ध
गौतम
ने
षड्यंत्र
रचते
हुए
‘सुखकर
प्रसव’ के
नाम
पर
‘गर्भभंग
औषधि’ अहल्या को पिला
दी, जिससे
अहल्या
का
गर्भ
भंग
हो
गया।
आज
भी
पितृसत्तात्मक
समाज
में
कन्या
भ्रूण
हत्या
के
अत्यधिक
मामले
देखने
को
मिलते
हैं
और
जहाँ
भ्रूण
हत्या
नहीं
की
जाती
वहाँ
अधिक
संख्या
में
कन्या
उत्पन्न
करने
वाली
माता
की
पारिवारिक
दुर्गति
के
बारे
में
बताने
की
आवश्यकता
नहीं
है
कि
उसे
न
केवल
पति
द्वारा, बल्कि
परिवार
एवं
पूरे
समाज
द्वारा
प्रताड़ना, अनादर
और
अनेक
प्रकार
के
कटाक्षों
का
सामना
करना
पड़ता
है।
यही
प्राचीन
सोच
आज
तक
हमारे
परिवारों
और
समाज
में
विद्यमान
है।
पत्नी
के
स्वास्थ्य
पर
ध्यान
न
देकर
प्रत्येक
वर्ष
संतानोत्पत्ति
के
कारण
बीमार, रुग्ण
और
कमजोर
संतान
के
लिए
भी
पत्नी
को
ही
दोषी
ठहराया
जाता
है।
इतना
ही
नहीं
योग्य
संतान
का
श्रेय
पिता
को
और
अयोग्य
संतान
का
दोष
माता
को
ही
दिया
जाता
है।
प्रेम और
माधुर्य
से
विहीन
रुक्ष, दाम्पत्य
जीवन
और
उस
पर
गौतम
के
कठोर
नीति, नियम
एवं
अनुशासन
के
कारण
अहल्या
का
जीवन
अत्यंत
कठिन
होता
जा
रहा
था।
नित्यप्रति
की
घुटन, बेचैनी
और
पीड़ा
के
कारण
अहल्या
विषाद
रोग
से
ग्रस्त
होती
जा
रही
थी, लेकिन
चाहकर
भी
वह
इस
विवाह
बंधन
से
मुक्त
नहीं
हो
सकती
थी
क्योंकि
पितृसत्तात्मक
समाज
में
नारी
के
वैवाहिक
जीवन
की
स्थिति
किसी
दास
के
जीवन
से
भी
अधिक
विडंबनापूर्ण
होती
है।
ऐसे
नारकीय
विवाह
बंधन
से
मुक्ति
की
आकांक्षा
भी
स्त्री
के
लिए
महापाप
है
क्योंकि
समाज
ऐसी
स्त्री
को
हेय
दृष्टि
से
देखता
है।
वस्तुत: स्त्री जीवन
को
पूर्णत:
नियंत्रित
करने
के
लिये
अनेक
प्रकार
के
धार्मिक
एवं
सामाजिक
बंधनों
का
निर्माण
किया
गया
और
उसे
आजीवन
पराधीनता
की
बेड़ियों
में
जकड़
दिया
गया।
विवाह
भी
एक
ऐसा
ही
विधान
था-
"स्त्रियों
के
लिए
धार्मिक
संस्कारों
के
बंधन
निर्मित
किए
गए।
कुमारी
अवस्था
से
लेकर
मृत्युपर्यंत
उसकी
स्वतंत्रता
का
अपहरण
कर
उसे
आधीन
रहने
के
लिए
विवश
किया
गया।
धार्मिक, सामाजिक
और आचरण
मूलक
संस्कारों
के
बंधनों
में
उसे
जकड़
दिया
गया।
विवाह
एक
ऐसा
ही
संस्कार
है
जिसकी
आवश्यकता
का
विधान
तो
स्त्री-पुरुष
दोनों
के
लिए
है
लेकिन
जिसका
एकदम
भिन्न
व्यवहारमूलक
स्वरूप
केवल
स्त्री
के
लिये
है।"18
अहल्या का
दाम्पत्य
जीवन
बिखर
रहा
था।
गौतम
का
संदेही
और
ईष्यालु
व्यवहार
दिन-
प्रतिदिन
बढ़ता
ही
जा
रहा
था।
इंद्र
को
लेकर
तो
गौतम
इतने
अधिक
संदेहशील
थे
कि
एक
बार
गौतम
की
अनुपस्थिति
में
इंद्र
के
आश्रम
में
पधारने
पर
गौतम
इतने
अधिक
भड़क
गए
कि
अपने
पुत्र
चिरकारी
को
माता
का
वध
करने
का
आदेश
दे
डाला
-"
मैं
स्नान
करने
जा
रहा
हूँ, मेरे
लौट
आने
तक
तू
अपनी
जननी
अहल्या
का
सिर
काट
डालना।
तू
मेरा
आज्ञाकारी
बेटा
है।
पिता
की
आज्ञा
का
पालन
करना
पुत्र
का
धर्म
है, इसीलिए
पुण्य
अर्जित
करने
का
यह
महार्घ
अवसर
हाथ
से
जाने
मत
देना, स्नान
के
बाद
मैं
तुम्हारी
जननी
का
कलंकित
मुँह
नहीं
देखना
चाहता।"19
गौतम आश्रम
एवं
उसके
आसपास
की
भूमि
में
व्याप्त
जल
संकट
को
दूर
करने
का
कार्य
गौतम
ही
संपन्न
कर
सकते
थे।
इंद्रदेव
को
तृप्त
करने
के
लिए
यज्ञहवि
ही
पर्याप्त
नहीं
थी, बल्कि
प्रिय
भोग्य
वस्तु
देवता
को
अर्पित
करने
का
भी
विधान
था।
लोलुप
इंद्र
की
अहल्या
पर
कुदृष्टि
से
गौतम
क्षुब्ध
एवं
क्रोधित
थे।
आर्य
और
दासगणों
के
मनोमालिन्य
भूलकर
यज्ञ
के
लिए
एक
मत
हो
जाने
पर
विवश
अहल्या
के
मन
में
भी
अभावग्रस्त
जनों
के
लिए
करुणा
जाग
उठी
और
उसने
स्वयं
को
इंद्र
के
प्रति
समर्पित
कर
दिया-
"
स्वाहा
है
यज्ञ
की
आत्मा।
यज्ञ
के
मंत्र
का
अंतिम
और
श्रेष्ठ
भाग
है-
स्वाहा।
सु-आहुति
स्वाहा
का
श्रेष्ठ
गुण
है।
मैंने
इंद्रदेव
के
लिए
स्वयं
को
स्वाहा
कर
दिया।
मेरी
मिथ्या
देह
है
सत्य
की
सिद्धिभूमि।
मैं
थी
कन्या, पत्नी, गृहिणी
किंतु
मैं
नारी
नहीं
बन
पाई
थी।
इंद्र
के
स्पर्श
से
मैं
नारी
बन
गई। मैं पूर्ण
हो
गई।
पूर्ण
से
पूर्ण
निकालने
की
शक्ति
भला
किसमें
है? यदि
किसी
में
हुई
तो
मैं
पूर्ण
से
पूर्ण
निकल
जाने
पर
भी
पूर्ण
ही
रहूंगी, हे
इन्द्रदेव, मैं
कृतज्ञ
हूँ।
आपने
मुझे
पूर्णता
का
अहसास
कराया।
आपने
मेरे
जड़
बन
चुके
नारित्व
में
फिर
से
प्राण
फूंक
दिए।"20
लेखिका ने
अहल्या
के स्खलित होने
के
कारणों
का
विवेचन
करते
हुए
कहा
है-
" वेद की
ओंकार
ध्वनि
में
पली-बढ़ी
ब्रह्मापुत्री
अहल्या
कोई
सामान्य
नारी
नहीं- पिता
के
प्रभाव
से
वेदमती
है।
गौतम
की
पत्नी
अहल्या
पति
की
पद-मर्यादा
के
स्वाभिमान
से
एक
मर्यादा
संपन्न
वैदिक
नारी
हैं।
फिर
भी
देहवादी
इंद्र
के
स्पर्शमात्र
से
पिघलकर
बह
गई
पाप
के
पथ
पर।
अहल्या
जैसी
नारी
के
लिए
पाप
करना
भी
उतना
आसान
नहीं
है।
अतः
मनस्तात्विक
और
सामाजिक
दृष्टिकोण
से
अहल्या
के
पतन
और
उत्थान
का
विश्लेषण
करना
विधेय
है।
अनेक
जटिल
मनस्तात्विक, सामाजिक, अर्थनैतिक
कारणों
से
नारी
हो
या
पुरुष
पाप
करते
हैं।
इसलिए
अहल्या
के
स्खलन
का
कारण
सिर्फ
देह
भोग
है
यह
नहीं
कहा
जा
सकता।
जिस
तरह
मोक्ष
प्राप्त
करने
के
लिए
अनेक
वर्षों
की
साधना
चाहिए, उसी तरह
पाप
करने
के
लिए
वर्ष
प्रति
वर्ष
का
अभाव
बोध, यंत्रणा, मानसिक
आघात, विरोध और
उनसे
उपजे
विषाद
और
द्वंद
जिम्मेदार
हैं।
मोक्ष
की
तरह
पाप
करने
के
लिए
भी
कम
साधना
नहीं
करनी
पड़ती।"21
गौतम से
डरकर
इन्द्र
का
एक
कापुरुष
की
भाँति
वहाँ
से
शीघ्रातिशीघ्र
प्रस्थान
करना
तथा
अहल्या
द्वारा
क्षमा
याचना
करने
पर
भी
क्रोधित
गौतम
द्वारा
अहल्या
का
अभिशप्त
होना
स्त्री
जीवन
की
विवशता
को
दर्शाता
है-
"
इंद्र
ने
जो
पाप
किया, वह
मेरे
पाप
की
तरह
विशाल
नहीं
है, क्योंकि
बहुनारी
संग
इंद्र
का
धर्म
है।
पत्नी
से
विमुखता
रूपी
अपराध
से
गौतम
पापी
नहीं
है
क्योंकि
गौतम
महर्षि
और
जितेन्द्रिय
हैं।
जो
पाप
नाना
जटिल
मानसिकता
के
कारण
घटित
हो
गया, वह
एकमात्र
पापिन
अहल्या
के
कारण
हुआ, क्योंकि अहल्या
नारी
है, वह किसी
पद-पदवी
पर
नहीं
है।
गौतम
की
‘पत्नी’ का पद
ही
अहल्या
की
एकमात्र
पदवी
थी।
इस
पदवी
ने
अहल्या
को
कभी
कोई
अधिकार
नहीं
दिया
क्योंकि
पत्नीत्व
का
अधिकार
पत्नी
के
हाथ
में
नहीं
होता, होता है
पति
के
हाथ
में।
पति
चाहे
तो
उस
अधिकार
से
पलक
झपकते
वंचित
कर
सकता
है, पत्नी
को।
कहाँ, इस पाप
के
कारण
इंद्रदेव
का
इंद्रपद
तो
नहीं
छिना, उनकी पत्नी
शचीदेवी
ने
उन्हें
पति
के
पद
से
अलग
भी
नहीं
किया।"22
पितृसत्तात्मक समाज
में
नारी
की
स्थिति
अत्यधिक
सोचनीय
है।
समाज
में
पुरुष
का
वर्चस्व
और
स्त्री
की
गौणता
प्राचीन
काल
से
ही
चली
आ
रही
है।
पितृसत्तात्मक
समाज
में
पुरुष
अधिकारों
का
पुंज
है, तो
स्त्री
कर्तव्य
और
मर्यादा
की
सीमा
में
बंधी
अधिकार
विहीन
जीवन
जीने
को
विवश
है।
पुरुष
की
इच्छा-अनिच्छा
पर
ही
उसका
जीवन
निर्भर
है-
“नारी मात्र एक
भोग्या
वस्तु
बनकर
रह
गई
थी।
पुरुष
चाहे
तो
अपनी
इच्छा
से
खंडित
कर
सकता
था, चाहे
उससे
विवाह
कर
सकता
था, चाहे
तो
छोड़
कर
चला
जा
सकता
था, चाहे
तो
उसके
सार्वजनिक
अपमान
पर
मौन
साध
सकता
था, चाहे
तो
उसकी
रक्षा
कर
सकता
था, यह सब
उसकी
इच्छा
पर
था।
नारी
को
मात्र
उसकी
इच्छा
पर
चलना
था।
इस
तरह
नारी
की
स्थिति
तत्कालीन
समाज
में
सुदृढ
न
थी।" 23 कलंकित पत्नीत्व
और
भर्त्सनापूर्ण
मातृत्व
के
साथ
अहल्या
अभिशप्त
जीवन
को
एकाकी
ही
ढो
रही
थी।
उपेक्षित
पत्नी
की
अपेक्षा
उपेक्षित
और
अपमानित
मातृत्व
एक
स्त्री
के
लिए
अत्यधिक
कष्टदायक
होता
है।
उपन्यास में
अहल्या
के
संपूर्ण
जीवन
की
अभिव्यक्ति
के
साथ-साथ
लेखिका
ने
आचार्य
गौतम
की
सोच, परिस्थितिजन्य
पीड़ा
और
पश्चाताप
को
भी
मुखरित
किया
है।
पितृसत्तात्मक
सामाजिक
व्यवस्था
में
एक
पुरुष
की
परिवर्तित
मानसिकता
का
विवेचन
इस
उपन्यास
की
महत्वपूर्ण
विशेषता
है।
पश्चाताप
एवं
अपनी
भूलों
से
त्रस्त
गौतम
के
प्रेमपूर्ण
संदेश
में
उन
सभी
प्रश्नों, समस्याओं
और
परिस्थितियों
का
तर्कपूर्ण
उत्तर
देकर
पुरुष
वर्ग
के
दोषों
का
निराकरण
करना
लेखिका
की
मानवीय
सोच
को
दर्शाता
है।
पुरुष
हो
अथवा
स्त्री, मानव
आखिर
मानव
है।
जो
भूल, गलतियाँ, मानसिक
दबाव
और
परिस्थितियाँ
स्त्री
जीवन
को
ध्वस्त
करने
का
कारण
हैं, वही
पुरुष
जीवन
में
भी
विद्यमान
हैं, इस बात
को
सिद्ध
किया
गया
है।
गौतम
अपने
मन
की
तमाम
परतों
को
खोलते
हुए
अहल्या
के
मन
में
उत्पन्न
अनेक
प्रश्नों
का
संतोषजनक
उत्तर
देते
हुए
प्रतीत
होते
हैं।
समस्त
परिस्थितियों
का
विश्लेषण
करने
के
पश्चात्
गौतम
स्वीकार
करते
हैं
कि
केवल
अहल्या
ही
अपने
पतन
के
लिए
ज़िम्मेदार
नहीं
है
बल्कि
स्वयं
गौतम, इंद्रदेव, पितामह
ब्रह्मा
एवं
यह
संपूर्ण
समाज
भी
दोषी
है।
जिसके
कारण
अहल्या
जैसी
स्त्री
को
यह
सब
कुछ
भोगना
पड़ा।
किंतु
जिस
पीड़ा
को
अहल्या
ने
भोगा
उससे
गौतम
भी
अछूते
नहीं
हैं
क्योंकि
पारिवारिक
एवं
सामाजिक
दृष्टि
से
पति-पत्नी
का
संबंध
एक-दूसरे
पर
निर्भर
होता
है।
एक
का
जीवन
नष्ट
होने
पर
दूसरे
का
जीवन
भी
स्वतः
ही
नष्ट
हो
जाता
है।
यहाँ
गौतम
भी
अहल्या
को
यही
बात
समझाते
हैं
कि
केवल
अहल्या
ही
लोगों
के
प्रश्नों
और
टिप्पणियों
का
शिकार
नहीं
हुई
अपितु
गौतम
भी
संदेह
के
घेरे
में
आ
गए
हैं
और
उनका
जीवन
भी
पूरी
तरह
से
नष्ट
हो
गया
है
-"मेरे
शत्रु
उपहास
कर
रहे
हैं, मेरे
शुभचिंतक
और
मित्र
लज्जा-ग्लानि
से
मृत-तुल्य
हो
गए
हैं।
वे
लोग
मुझे
मित्र
के
रूप
में
स्वीकार
करने
से
झिझक
रहे
हैं।
परपुरुष
द्वारा
भोगी
गई
नारी
के
पति
को
भला
कौन
आदर
के
साथ
बुलाएगा? इसलिए
आज
तुम्हें
जितनी
लज्जा
नहीं
है, उससे
कहीं
अधिक
मुझे
है,....... मैं अपनी
घर गृहस्थी नहीं
संभाल
सका।
मेरा
एक
पुत्र
मातृभूमि
छोड़कर
इंद्रदेव
की
शरण
में
है।
एक
पुत्र
लापता
है, पत्नी
परपुरुष
भोग्या
है, आश्रम अस्त-व्यस्त, छात्रगण लक्ष्यहीन, तपस्वी योगभ्रष्ट, तपोवन असुरक्षित, मैं
स्वयं
विपर्यस्त
हूँ
और
तुम
नारद
की
चहेती
बहन
शापग्रस्त, कलंकिनी, अभागिन
और
दुखियारी
हो
मेरे निकम्मेपन
के
कारण"24
नारी देह
के
बारे
में
एक
त्यागी, धर्मनिष्ठ
आचार्य
की
सोच
और
जार
पुरुष
इंद्र
की
सोच
की भिन्नता की
अभिव्यक्ति
भी
यहाँ
हुई
है।
पति
होकर
पत्नी
के
सौंदर्य
और
प्रेम
से
विमुख
और
उदासीन
गौतम
अपनी
भूल
का
प्रायश्चित
करते
प्रतीत
होते
हैं
और
पतित
होने
के
पश्चात्
भी
अहल्या
को
पत्नी
के
रूप
में
स्वीकार
करने
के
लिए
तत्पर
हैं, जबकि
इन्द्र
अहल्या
को
स्वर्ग
की
अप्सरा
बनकर
देवताओं
के
मनोविनोद
के
लिए
स्वर्ग
चलने
का
प्रस्ताव
रखते
हैं
और
अहल्या
को
एक
दिन का
शचीपद
अर्थात्
पत्नी
पद
देने
के
योग्य
नहीं
समझते।
एक
बार
की
भूल
से
नारी
जीवन
भर
के
लिए
पतित
हो
जाती
है।
जबकि
बहुनारी
भोगी
पुरुष
दुष्कर्म
के
बाद
भी
प्रतिष्ठित
बना
रहता
है-
"पुरुष
की
स्थिति
इसके
विपरीत
है
किसी
भी
पुरुष
का
कैसा
भी
चारित्रिक
पतन
उससे
सामाजिकता
का
अधिकार
नहीं
छीन
लेता।
उसे
गृह
जीवन
से
निर्वासन
नहीं
देता, सुसंस्कृत व्यक्तियों
में
उसका
प्रवेश
निषिद्ध
नहीं
बनाता
और
धर्म
से
लेकर
राजनीति
तक
सभी
क्षेत्रों
में
ऊंचे-ऊंचे
पदों
तक
पहुंचने
का
मार्ग
नहीं
रोक
लेता।
साधारणत:
महान, दुराचारी
पुरुष
भी
परम
सती
स्त्री
के
चरित्र
का
आलोचक
ही
नहीं, न्यायकर्ता
भी
बना
रहता
है।"25
समस्त सांसारिक
संबंधों
से
दूर
तपस्यारत
एकाकी
अहल्या
को
अंतरश्चेतना
के
प्रकाश
में
अपने
व्यक्तित्व
की
पूर्णता
का
आभास
होने
लगा।
अहल्या
ने
अंतर्मन
के
चक्षुओं
से
ज्ञान
के
प्रकाश
में
अपने
अतीत
का
ठीक-ठीक
विश्लेषण
किया-
" गौतम ने
देह
सुख
नहीं
दिया, इंद्र
ने
देह
सुख
दिया।
हालांकि
कोई
भी
मेरे
नहीं
हुए।
किसी
से
आनंद
नहीं
मिला।
गौतम
थे
मेरी
परम
भ्रांति
और
इन्द्र
थे
मेरे
परम
मोह।
आज
तप:
स्निग्ध
ज़राजीर्ण
वक्ष
से
प्रत्याशा-रहित
प्रेमक्षरित
होने
से
भ्रांति
और
मोह
दूर
हो
चुके
हैं
।
आज
गौतम और
इंद्र
को
मैं
समझ
गयी
हूँ।
आज मैं स्वयं
अपने
आप
को
भी
समझ
गयी
हूँ।"26
अहल्या की
तपस्या
फलीभूत
होने
का
महान
क्षण
आ
पहुंचा।
ब्रह्मस्वरूप
राम
ने
भूमि
से
उठाकर
देवी
अहल्या
के
चरणस्पर्श
किए
और
अपने
गैरिक
वस्त्रों
से
भस्माच्छादित
अहल्या
के
शरीर
से
धूल
पोंछी।
राम
के
स्पर्श
ने
अहल्या
की
जड़ता
को
नष्ट
कर
उसे
सचेतन
और
जीवंत
बना
दिया।
शापमुक्त
अहल्या
की
चेतना
दिव्य
प्रकाश
से
आलोकित
हो
उठी।
राम
अहल्या
के
शापमुक्त
होने की घोषणा
करते
हैं।
अहल्या
की
सिद्धि
से
अभिभूत
गौतम
अहल्या
के
समक्ष
नतमस्तक
है। अहल्या
को
अभिशाप
देकर
गौतम
भी
अहल्याभ्रष्ट
हो
गए
थे।
अब
गौतम
के
प्रीतियोग
ने
सिद्धि
प्राप्त
कर
ली
और
इसकी
घोषणा
करते
हुए
अहल्या
गौतम
को
पुनः
पति
रूप
में
पाने
के
प्रस्ताव
का
अनुमोदन
करती
है-
" परम
अन्वेषा-पथ
पर
मेरे
साथी
बनो
प्रिय।
क्या
वानप्रस्थ
जीवन
बिताना
नारी
के
लिए
संभव
नहीं? यदि
आप
हल
जोतेंगे
तो
मैं
पसीना
बहाकर
भूमि
को
बनाऊंगी
कोमल।
आप
कोई
पौधा
रोपेंगे
तो
मैं
अपनी
संवेदना
उड़ेलकर
उसे
करूँगी
पुष्पवती।
आप
के
यज्ञानुष्ठान
करने
पर
मैं
समिध
बन
जाऊंगी।
नारी
के
बिना
पुरुष
अधूरा
है।
पुरुष
के
बिना
नारी
अधूरी
है।
नारी
और
पुरुष
के
मधुर
मिलन
से
यह
सृष्टि
रसमय, प्रेममय, अमृतमय है।
यह
मिलन
देहगत
नहीं
है।
यही
है
अहल्या
की
उपलब्धि।
अहल्या
अब
गौतम
के
सिद्धिपथ
का
विघ्न
नही, प्रेरणा हैं।
गौतम
भी
अहल्या
के
साधना-पथ
पर
बाधक
नहीं
है।
दोनों
के
प्रीतियोग
से
यह
पृथ्वी
प्रेममय
हो
उठेगी।"27
गौतम
को
किंकर्तव्यविमूढ
अवस्था
में
खड़े
देखकर
अहल्या
के
प्रति
महर्षि
गौतम
की
भावनाओं
को
उद्वेलित
करने
के
लिए
राम
अग्निपरीक्षा
की
घोषणा
करते
हैं।
अहल्या
को
अग्निपरीक्षा
के
लिए
तत्पर
देखकर
सहसा
गौतम
का
गंभीर
स्वर
प्रस्फुटित
होता
है-
"
बुझा
दो
आग-
दूर
रहो
अग्निपरीक्षा
से।
अग्नि
का
उद्भव
जगत
कल्याण
के
लिए
हुआ
है।
अहल्या
शव
नहीं, शिवा है।
उसे
जलाने
का
यह
प्रहसन
क्यों?........... मैं
जानता
हूँ
कि
यह
परीक्षा
अहल्या
के
लिए
नहीं, मेरे लिए
है।
मेरे
मुख
से
अहल्या
की
सिद्धि
उच्चरित
नहीं
हुई
थी, तभी मैंने
अहल्या
का
बढ़ा
हुआ
हाथ
स्वीकार
नहीं
किया
था।
इसीलिए
तुमने
‘अग्निपरीक्षा’ का ये
अवसर
पैदा
किया।“28
गौतम एवं
अहल्या
के
पुनर्मिलन
के
साथ
ही
उपन्यास
का
सुखद
समापन
दर्शाता
है
कि
पति-पत्नी
समस्त
मनोमालिन्य
भूलकर
नवीन
सिद्धि
भूमि
पर
जीवन
की
नई
शुरुआत
करेंगे।
जहाँ
माधुर्य
भाव
का
अभाव
होने
पर
भी
पारस्परिक
प्रेम, समर्पण, सहयोग
एवं
कर्तव्य
परायणता
की
प्रमुखता
होगी।
दोनों
परस्पर
मानवीय
संवेदनाओं
से
युक्त
दाम्पत्य
का
निर्वाह
करते
हुए
एक
दूसरे
के
मार्ग
में
बाधक
नहीं
बल्कि
साधक
बनकर
कर्तव्यपथ
का
अनुसरण
करते
हुए
निरंतर
जीवन
पथ
पर
प्रवहमान होते रहेंगे।
सारांश : स्त्री
को
सदियों
से
देहगत
दृष्टि
से
ही
देखा
गया
है।
देह
ही
प्रमुख
है, चाहे वह
तपस्वी
गौतम
हैं
अथवा
सत्ताधारी
इन्द्र।
देहभंवर
से
स्त्री
की
मुक्ति
संभव
नहीं
है।
देह
पर
स्वयं
स्त्री
का
भी
कोई
अधिकार
नहीं
है
मानो
वह
बिना
मन, बुद्धि
और
आत्मा
की
प्राणधारी
जीव
है, जिसे
अपना
सम्पूर्ण
जीवन
दूसरों
की
इच्छा
से
संचालित
करना
पड़ता
है।
पुरुष
का
बहु
नारी
संग
एक
सामान्य
बात
है, किंतु
स्त्री
का
परपुरुष
के
संपर्क
में
आना
इतना
बड़ा
अपराध
या
पाप
है
कि
उसे
अभिशप्त
होकर
एकाकी
निर्जन
स्थान
में
मानसिक
रूप
से
रोगी
बनकर
आजीवन
प्रायश्चित
करना
पड़ता
है।
स्त्री
का
अपना
कोई
महत्त्व
नहीं, कोई
अस्तित्व
नहीं।
अहल्या
की
कथा
पुरुष
के
वर्चस्व
और
स्त्री
जीवन
की
गौणता
को
दर्शाती
है-
"
युग-युग
से
नारी
का
पापकर्ता, शापकर्ता
और
मोक्षकर्ता
कोई
ना
कोई
इन्द्र, गौतम या
राम
अर्थात्
पुरुष
ही
है।
मानो
नारी
एक
अन्नमय
पिण्डमात्र
है।
पुरुष
के
स्पर्श
मात्र
से
वह
पिण्ड
पंकिल
हो
जाता
है, पाषाण से
नव
यौवन
प्राप्त
करता
है।
नारी
का
उत्थान, नारी
स्वयं
नहीं
मानो
कि
पुरुष
हो।“29
प्रायश्चित के
पश्चात
अहल्या
का
पुन:
पतिगृह
में
चले
जाना
इंगित
करता
है
कि
स्त्री
जीवन
की
पति
के
अतिरिक्त
कोई
गति
नहीं
है।
वस्तुत:
जिस
दाम्पत्य
जीवन
के
इतने
नारकीय
एवं
कटु
अनुभव
हों, ताप, शापमुक्त
होकर
शेष
जीवन
पुनः
उसी
गृह
में
व्यतीत
करना
स्त्री
जीवन
की
विडंबना
ही
है।
समाज
में
पुरुषविहीन
स्त्री
जीवन
का
कोई
मूल्य
नहीं
हैं।
पुरुष
एकाकी
भी
संपूर्ण
है
किंतु
एकाकी
स्त्री
सामाजिक
दृष्टि
से
सम्माननीय
नहीं
है।
हर
स्थिति
में
पति
द्वारा
स्वीकृत
नारी
ही
समादृत
है।
विवाह
संस्था
का
आधार
पति-पत्नी
का
पारस्परिक
सहयोग
है।
परिवार
समाज
की
नींव
है
और
यह
नींव
तभी
तक
सुदृढ़
रहेगी
जब
तक
पति-पत्नी
के
मध्य
प्रेम, विश्वास, माधुर्य
और
पारस्परिक
सम्मान
की
भावना
रहेगी।
परिवार
और
विवाह
संस्था
को
बनाए
रखने
की
जितनी
जिम्मेदारी
पत्नी
की
है, उतनी
ही
पति
की
भी
है-
“विवाह संस्था को
बनाए
रखने
में
स्त्री-पुरुष
दोनों
का
समान
दायित्व
है।
माता-पिता
के
रूप
में, पति-पत्नी
के
रूप
में
जीवन
की
सार्थकता
तभी
संभव
है
जहाँ
स्त्री
और
पुरुष
एक
दूसरे
के
साथ
मिलकर
सहयोग
दें, परस्पर आत्मसम्मान
के
साथ
जियें।30
1. के. वनजा (सं)- लेख-रोहिणी अग्रवाल-स्त्री लेखन-पृ.157,प्र. अनुज्ञा बुक्स 1/10206, लेन नं.1, वेस्ट गोरखपुर पार्क शहादरा दिल्ली- 110032 प्रथम संस्करण 2017
2. वही-लेख-चित्रा मुदगल-पृ.16
17. वही--पृ. 223
23. सुषमा चौधरी स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों में पौराणिक संदर्भ पृ. 184 स्वराज प्रकाशन 7/14 गुप्ता लेन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली 110002, प्रथम संस्करण 2009
एसोसिएट प्रोफेसर, (हिंदी विभाग), मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय (सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
rrajeshkaushikk4@gmail.com, 9990187922
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